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________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ११,१२ अर्थात्-जो सम्यग्दर्शनसे रहित हो, कुण्ठित इसके बाद ग्रहोंके भेद-प्रभेद, उनके स्वरूप और वाक्य हो (जिसका वचन स्पष्ट उच्चारित न होता हो) वे चिह्न आदि बतलाये गये हैं जिन परसे उन्हें पहवेदपाठी हो, भयसहित हो, शून्यहृदय हो और चाना जाता है । पाठकोंकी रुचि तथा परिचयके लिये लज्जावान हो वह इस शास्त्र में मंत्री होनेका अधिकारी इस सब कथनका सार नीचे दिया जाता है :नहीं है। रतिकामा, बलिकामा और हन्तुकामा ऐसे तीन ___ इम म्वरूप कथन में दो विशेषण खास है-एक प्रकारके ग्रह होते हैं । वैर के कारण हन्तुकामा ग्रह तो 'छान्दस' और दूसरा 'सलज्ज' और उनमे यह पकड़त हैं और शेष कारणोंसे दूसरे प्रकारक ग्रह पकस्पष्ट है कि इस मंत्रसाधनामें एक तो लज्जाको स्थान इत हैं । इन ग्रहोंके भी फिर दो भेद हैं-एक दिव्यग्रह नहीं-उमे उठा कर रख देना होगा और दूसरे और दूसरे अदिव्यमह । दिव्य ग्रहोंके दो भेद हैंवेदपाठीको अथवावेदानुयायी हिन्दूको इसकी साधना परुषग्रह और स्त्रीग्रह । पुरुषग्रह पुरुषको और स्त्रीका अधिकार नहीं । अन्यत्र भी, साधन विधिका ग्रह स्त्रीको नहीं पकड़ता किन्तु पुरुषप्रह स्त्रीको और वर्णन करते हुए, प्रथके अंतमें परसमयीको यह नीग्रह परुषको पकडता है, ऐमा रतिकामग्रहोंका विद्या देनका निषेध किया है और यहाँ तक लिखा है. नियम है। परन्तु मरे ग्रहोंका ऐमा नियम नहीं है । कि स्वधर्मीको यह कह कर विद्या देना चाहिय कि उनमें परुषह परुषको और स्त्रीमह स्त्रीको भी पकड़ 'यदि तुम परधर्मीको दोगे तो तुम्हें ऋषि, गौ और लेता है। स्त्रीहत्यादिकमें जो पाप लगता है वह पाप लगेगा।' पुरुषग्रह सात हैं, जिनके नाम हैं-१ देव, २ नाग, यथाः ३ यक्ष, ४ गन्धर्व, ५ ब्रह्मराक्षस, ६ भूत और ७ व्यंतर । परसमयिने न देया त्वथा प्रदेया स्वसमयभक्ताय । इनमें टेन' सर्वत्र पवित्र रहता है; 'नाग' सोता है; गुरुविनययनाय सदाईचेतसे धार्मिकनराय।।१४॥ ४। 'यक्ष' सर्व अंग तोड़ता है, सदा दूध पीता है और ऋषिगोखोहत्यादिषु यत् तद्भविष्यति तनोऽपि। अक्मा हँसता या गंता रहता है; 'गन्धर्व अच्छे स्वरयदि दास्यसि परसपयायेत्युत्कान:प्रदातव्या ।१५ से गाता है; 'ब्रह्मराक्षस' संध्याके समय जाप करता महलक्षण नामके दूसरे अधिकारमें सबसे पहले, है, वेदोंका पढ़ना है, स्त्रियोंमें अनरक्त रहता है और एक ही पद्यमें, उम मनष्यका वर्णन है जिसको प्रह गर्वसहित वर्तता है; 'भत्त' खेिं फाड़ कर देखता है, लगता है और उसके विषयमें स्पष्ट लिम्वा है कि- नाचता है, जॅभाई लेता है, कॉपता है और हँसता है; 'जो अति हर्षित हो, अति विषण्ण ( विषादयुक्त ) हो, 'व्यंतर' मूर्षित होता है, गेता है, दौड़ता है और डरपोक हो, अन्यमनस्क (चलचित्त या शून्यहृदय) बहुत भोजन करता है । इस प्रकार यह दिव्यपुरुष हो, अथवा जिसके साथ भवान्नरके स्नेह या वैरका प्रहोंका लक्षण है-जो लोग इन ग्रहोंसे पीड़ित होते हैं सम्बन्ध हो उमे पह पकड़ते हैं।' यथा:- वे उक्त प्रकारकी चेष्टाएँ किया करते हैं। प्रतिहष्मनिविषण्णं भवान्तरस्नेहवैरसम्बन्धम् । स्त्रीमह नव हैं, जिनके नाम हैं-१ काली, २ कभीतं चान्यमनस्कंबहाः भगवन्ति भुषि मनुजम्॥१ राली, ३ कंकाली, ४ कालराक्षसी, ५ पी, ६ प्रेता
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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