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________________ जैन - मंत्रशास्त्र और 'ज्वालिनीमत' आश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं० २४५६ ] शिनी, ७ यक्षी, ८ वैताली और ९ क्षेत्रवासिनी । कालीसे पीडित मनुष्य अन्न नहीं खाता; ककाली से गृहीत व्यक्तिका मुख पीला पड़ जाता और शरीर दुबला हो जाना है; राक्षसी मे पीडित मनुष्य रात्रिको भ्रमण करता है, कौलिक भाषा बोलता है और अट्टहास करता है; 'जंपी' से गृहीत मनुष्य मूर्धित होता है, गंता है, और कृशशरीर हो जाता है; 'ताशिनी' से गृहीत मनुष्य भयंकर ध्वनि के साथ चकित हो जाता है और होठ चबा कर उठना है। इसी ग्रहको विद्वानाने 'वीरग्रह' भी कहा है, दो महीने के बाद संसार में इसकी फिर कोई चिकित्सा नहीं है; यक्ष ( वयक्ष ) जिस मनुष्यको पकड़ती है उसे भांग (अथवा भांजन) करने नहीं देती और न अपीन प्रियस्त्रीका संगम ही करने देती है, वह स्वयं गुप्तरूपसे उसके साथ जीती है-क्रीड़ा करनी है X ; वैतालिका गृहीत मनुष्यका मुख सुख जाता है और शरीर कृश हो जाता है; 'क्षेत्रत्रामिनी' से पीडित मनुष्य नाचता है, हा पूर्वक हँसता है, विद्युत के समान आवेश को ग्रहण करता है, कोलिकी भाषा बोलता है और तेजी से दौड़ता है । इस प्रकार ये दिव्य स्त्रीमटके लक्षण हैं। इसके बाद एक पथ यह लिख कर कि 'इसी प्रकार दूसरे मिथ्या ग्रह मौजूद हैं उन्हें भी विद्वान बुद्धिवैभवकं बलमे सत्य ग्रह कर लेते है ।' दूसरे पथमे अवघड आदि कुछ अक्षरी मयोगविशेषको देवभूतोका 'कौलिक' बतलाया है। और फिर दिय + में 'नभिविका भाषा' me fदया है। x 'जीवति' का लिखा है । मिथ्याग्रहास्तथान्ये विद्यन्नं तानपीह विद्वांस. । सत्यग्रहान्प्रकुर्वन्ति शेमुषीवैभवबलेन ॥ १५ ॥ ५५७ प्रहोंका नामादिक दिया है। जो इस प्रकार है १ दाखल, २ धनुर्ब्रह, ३ शाखिल, ४ शशनाग, ५ प्रीवाभंग और ६ उच्चलित ये छह श्रदिव्य ग्रह हैं । इन्हें 'अपरमार' ग्रह भी कहते है । ये बिना के मनुष्यको जीता नहीं छोड़ते हैं । इस मंत्रशास्त्र मे ये भी साध्य है। बाकी इनका कोई विशेष स्वरूप नहीं दिया । और इसके साथ ही ग्रंथका दूसरा अधिकार समाप्त किया गया है, जो २२ प का है । तीसरे 'मुद्रा' अधिकार मे, जो वस्तुत. द्वादश पिण्डाक्षगे तथा यंत्रोके भेदके साथ 'सकलीकरण' अधिकार है, सबसे पहले सकलीकर गाकी ज़रूरत बतलाई गई है और लिखा है कि 'मंत्री विना सकलीकरणके स्तंभादि निग्रह - विधान में समर्थ नहीं होता XI तत्पधान शरीर के जूदा जुदा अंगी कुछ बीजाक्षरीके न्यासका और दिशाबन्धनका कथन करके अपने और चौकोर 'वज्रपिंजर' नामके दुर्ग की कल्पना करने का विधान किया गया है, जिससे मंत्रजपादिके समय कोई माग्नेका इच्छुक दुष्ट ग्रह उस दुर्गको न लंघ सके और उसमे बैठे हुए मंत्री की उपद्रव न कर सके। इस दुर्गकी रचनाका कुछ विस्तार के साथ वर्णन करत हुए उसीमें बारह पिंडाक्षगंका है, रक्षक यंत्रका उल्लेख है और उसके मध्यमं फिर अष्टमातृका देवियो में घिरी हुई ज्वालामालिनी देवीके ध्यानका विधान है। जिसमे ज्वालामालिनीका स्वरूप पुनः दिया गया है । इसके बाद महोके निह के लिये उनके स्तभन, स्नोभन -: पुण्य अधिकारी का जा परिचय है वह मनलाल ही वहतीकी प्रति परमं दिया जाता है क्याकि उनका पग नोट बम्बई की प्रति परम लिया नही गया था। X सकलीकरन विना मंत्री स्तंभाविनिग्रह विधाने । श्रममा सकलीकरां प्रवक्ष्यामि ॥ १ ॥
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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