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________________ माध, वीर नि०सं०२४५६] पुरानी बातोंकी खोज हैं है। उसके पाँचसौ साथी थे । जम्बम्वामीके व्यक्तित्व सर्यास्तकं बाद यह गमन क्रिया उचित नहीं है। से प्रभावित होकर, उनकी असाधारण निस्पृहता- डरने वालोंके निःशंकित नामका धर्म कैसा? आगममें विरक्तता-अलिप्तताको देख कर और उनके सदुपदंशको उपसर्गों को सहने वाला ही योगी प्रसिद्ध है । इम लिये पाकर उसकी आँख खली, हृदय बदल गया, अपनी भावी शुभाशुभ कर्मानुसार जो कुछ होना है वह हो पिछली प्रवृत्ति पर उस भारी खेद हुआ और इस रहो, हम तो आज रातको यहीं मौन लेकर ग्हंगे।' लिये वह भी स्वामी के साथ जिनदीक्षा लेकर जैनमुनि तदनुसार सभी मुनिजन मौन लंकर स्थिर होगये । बन गया । यह सब देखकर उसके प्रभव आदि साथी इसके बाद जो उपसर्ग-परम्पग प्रारंभ हुई है उम यहाँ भी जो सदा उसके साथ एकजान-एकप्राण होकर बतलाकर पाठकोंका चित्त दुखानको जरूरत नहीं हैरहते थे, विरक्त हो गये और उन्हों ने भी जैनमुनि- उसके म्मरणमात्रस गेंगटे खड़े होते हैं । रात भर नाना दीक्षा ले ली । इस तरह यह ५०१ मुनियोका संघ प्रायः प्रकारके घार उपसर्ग जारी रहे और उन्हें दृढताक साथ एक साथ ही रहता तथा विचरता था। एक बार जब म्यभावसे महते हुए ही मुनियों ने प्राण त्याग किये यह संघ विहार करता हुआ जा रहा था तो इसे मथुरा हैं। उन्हीं समाधि को प्रान धीर वीर मुनियोंकी पवित्र के बाहर एक महोद्यान में सूर्यास्त हो गया और इस यादगार में उनके समाधिस्थानके तौर पर ये ५०१ लिये मुनिचर्याके अनुसार सब मुनि उसी स्थान पर स्तूप एकत्र बनाये गये जान पड़ते हैं। बाकी १३ स्तप ठहर गये । इतने में किसी ने आकर विद्युञ्चर को में एक स्तुप जम्बस्वामीका होगा और १२ दूसरे मुनिसूचना दी कि यदि तुम लोग इस स्थान पर रातको पुंगवों के । जम्बम्वामी का निर्वाण यद्यपि इम ग्रंथमें ठहरोगे तो तुम्हारे ऊपर ऐसे घोर उपसर्ग होंगे जिन्हें विपुलाचल पर बतलाया गया है, फिर भी चूंकि जबतुम सहन नहीं कर सकोगे, अतः किसी दूसरे स्थान स्वामी मथुरा में विहार करते हुए श्राए थे, * कुछ पर चले जाओ। इस पर विद्यश्चर ने संघके कुछ वृद्ध अर्मे तक ठहर थे और विचर आदिके जीवन को मुनियों से परामर्श किया परन्तु मुनिचर्याके अनुसार पलटने वाले उनके खास गुरू थे इसलिये साथमें उनकी रात को गमन करना उचित नहीं समझा गया। कुछ भी यादगारके तौर पर उनका स्तुप बनाया गया है। मुनियों ने तो दृढताके साथ यहाँ तक कह डाला कि हो सकता है कि ये १३ स्तप उमी स्थान पर हों जिस पर आज कल चौगमीमें जम्बस्वामीका विशाल मंदिर अस्तं गते दिवानाथे नेयं कालांचिता क्रिया बना हुआ है और ५०१ म्तपों का ममूह कंकाली टीले विभ्यता कीदृशोधमः स्वापिन्निःशंकिताभिधः। के स्थान पर (या उमके मंनिकट प्रदेशमें) हो जहाँमे उपसर्गसहा योगी प्रसिद्धः परमाग। बहुतमी जैनमूर्तियाँ तथा शिलालेख आदि निकले हैं । भवत्वत्र यथा भाव्यं भाविकम शुभाशुभ ॥ पुरातत्वज्ञों द्वारा इस विषयकी अच्छी खाज होनेकी तिष्ठामा वयमद्यैव रजन्यां मौनवृत्तयः। जरूरत है । जैनविद्वानों तथा श्रीमानोंको इसके लिए नाम परिश्रम करना चाहिये। इसी विद्याधर की कथाके नूतन मस्करगाको पाटक ‘अनेकान्न' जुगलकिशोर मुग्लार की पहली किरणमे पढ़ रहे हैं। x अथ विद्यञ्चरो नाम्ना पर्यटनिह सन्मुनिः॥ १२-१२३ ॥ एकदशांगविद्यायामधीती विदधत्तपः । मगधादिमहादशमथुरादिपुरीस्तथा । अथान्येद्यःसनिःसंगो मुनिकातैर्वृतः ।। १२४ ॥ कुर्वन धर्मोपदेश म केवलज्ञानलाचनः ॥ १.-११ ।। मथुरायां महोद्यानप्रदेशेष्वगमन्मुदा । वर्षायदापर्यंत स्थितस्तत्र जिनाधिपः । तदागच्चत्स वैलनयं भानुरस्ताच श्रितः॥ १२५॥ तता जगाम निर्वाण कवली विपुलाचनात ॥ ११ ॥
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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