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________________ फाल्गुण, वीर नि०सं०२४५६] गंधहस्ती २१९ नष्ट या अनुपलब्ध साहित्य की तरफ नजर दौड़ाने की प्रन्थमें भी गंधहस्ति-भाष्यका उल्लेख है-जैसा किपीछे जरूरत नहीं। इसी अनुसंधान-द्वारा यह भी मानना फुटनोटमें उद्धृत किया गया है और वह उल्लेख पड़ता है कि ९वीं १०वीं शताब्दी के गन्थकार x सिद्धसेनकी उक्त वृहद्वत्ति में नहीं पाया जाता, जिस शीलांकने 'प्राचारांग' सूत्र की अपनी टीका में जिन । से इस उल्लेखको उक्त वृहद् वृत्ति का ही समझ लिया गंधहस्ति-कृत विवरणों के का उल्लेख किया है वे जाता । वृत्तिमें 'अनुत्तरोपपादिकदशाः' का लक्षण सिर्फ विवरण भी तत्त्वार्थभाष्य की वृत्ति के रचयिता अनुपरापपादकापायपुस्पा पता वति यता "मनुत्तरोपपादिका देवा येषु ख्या'यन्ते ताः मनुसिद्धसेन के ही होने चाहिये । क्योंकि यह संभवित तरोपपादिकदशा:" (पृ०९१) इतना ही दिया है। नहीं कि बहुत ही थोड़ा अन्तर रखने वाले शीलांक और यह लक्षण धवला टीका में उद्धृत गंधहस्तिभाष्य और अभयदेव ये दोनों भिन्नभिन्न प्राचार्यों के लिये के लक्षण से भिन्न है और इस लिये दोनों भाष्योंकी गंधहस्तिपदका प्रयोग करें और अभयदेव जैसे बहुत भिन्नताका सूचक है। दूसरे लघ समन्तभद्रने 'अष्टविद्वान् के विषयमें यह कल्पना करनी भी कठिन है कि सहस्री-विषमपद-तात्पर्यटीका' के निम्न प्रस्तावनाउन्होंने जैनागमों में प्रथम पद धरावने वाले प्राचारांग वाक्यमें स्वामी समन्तभद्र-द्वारा उमास्वातिके तत्त्वार्थसत्रकी अपने समीपमें ही पहले रची गई शीलांकसरि सूत्र पर 'गंधहस्ति-महाभाष्य के रचे जानेका स्पष्ट उल्लेख की टीका को न देखा हो । बल्कि शीलांक ने खुद ही किया है। अपनी टीकाओंमें जहाँ जहाँ सिद्धमेन दिवाकरकृत "भगवद्भिमास्वातिपादेराचार्यवयंरास त्रितस्य सन्मतिकी गाथाएँ उद्धृत की है वहाँ किसी भी स्थान न तच्चाधिगमस्य मोक्षशास्त्रस्य गंधहस्त्याख्यं पर गंधहस्ति-पदका प्रयोग नहीं किया, इससे शीलांकका 'गंधहस्ती' भी 'दिवाकर' नहीं, यह स्पष्ट है। महाभाष्यमुपनिषधंतः स्याद्वादविद्यानगरवः गंधहस्ति-विषयक उपयुक्त विचार परस यहाँ दो श्रीस्वामिसमन्तभद्राचायाः ....." उपयोगी नतीजे निकलते हैं। पहला यह कि तत्त्वार्थ- ऐसी हालतमें यह सुनिश्चितरूप से नहीं कहा जा सूत्र पर गंधहस्ति-रचित मानी जाने वाली व्याख्या मात्र मकता कि दिगम्बरपरम्परा में तत्त्वार्थसूत्र पर गंधश्वेताम्बरपरम्परा में ही है-दिगम्बरपरम्परा में नहीं। हस्ति-भाष्य नामकी कोई व्याख्या है ही नहीं अथवा और दूसरा यह कि यह व्याख्या नष्ट या अनपलब्ध कभी लिखी ही नहींगई। हाँ,दूसरानतीजाश्वेताम्बरीय नहीं किन्तु वर्तमान में सर्वत्र सुलभ तत्त्वार्थभाष्यकी गंधहस्ति-व्याख्याकी दृष्टि से ठीक हो सकता है परंतु बृहद् वृत्ति ही है। ममन्तभद्र का गंधहस्ति-भाष्य यदि उपलब्ध हो जाय नोट और उसमें वे सभी अवतरण पाये जाते हों जिनकी मेरी रायमें ये दोनों ही नतीजे कुछ ठीक प्रतीत नत्त्वार्थमाध्य-निक साथ विद्वान लेखक ने तुलना है तो फिर इस नतीजेके लिये ही नहीं किन्तु नहीं होते । क्योंकि एक तो 'धवला' टीका जैसे प्राचीन वत्तिलेखक सिद्धसेन को 'गंधहस्ती' कहनेके लिये भी x देखो, मा० श्रीजिनविजयजी संपावित जीतकल्प' की प्रस्ता- कुछ आधार नहीं रहेगा; क्योंकि ये सिद्धसेन विक्रमकी कना पृ० १९ परिशिष्ट, शीलांकाचार्य-विषयक विशेष वर्गन। वीं और १०वीं शताब्दीके मध्यवर्ती किसी समयमें *"शास्त्रपरिज्ञाविवरणमतिबहुगहनंचगन्धहस्तिकृतम" हुए हैं और उन्होंने अपनी कृति अथवा प्रशस्ति में न३ "शाखपरिज्ञाविवरणमतिगहनमितीव किल वृतं पूज्यैः। कहीं भी अपने को गंधहस्ती नहीं लिखा है और न उक श्रीगन्धहस्तिमिर्विवृणोमि ततोऽहमवशिष्टम् ।।" अवतरणों में ही 'गंधहस्ती' के साथ सिद्धसेन नाम -पाचारांगटीका पृ०१ तथा ८२ की शरुमात। का उल्लेख है। -सम्पादक
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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