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________________ १४५ माघ, पीर नि०सं०२४५६] भगवती पाराधना और उसकी टीकाएँ 884000-4800 भगवती आराधना और उसकी टीकाएँ। [लेखक-श्रीयुत पं० नाथरामजी प्रेमी] न समाजमें 'भगवती पारा- अजनिणणंदिगणिसवगतगणि मज्जयित्नणंदीणं धना' नामका एक बहुत ही अवगमिय पादमूले सम्म मुत्तं च भत्यं च ।। २१६१ प्रसिद्ध तथा प्राचीन ग्रन्थ है। पञ्चायरियणिवद्धा उबजीविता इया ससतीए । यह शौरसेनी प्राकृतभाषामें आराधनगसिबज्जेण पाणिदलभोनिणारइदा ।।६२ है और इसमें सब मिला कर छदुमत्थदाइ इन्यदु जंबद्धं होज्ज परयणविरुद्ध । २१६६४ गाथाएँ हैं। इनमें सोधिंतु सगीदत्था पत्रयणवच्छवदाए दु॥६३॥ सम्यग्दर्शन,सम्यग्ज्ञान,सम्य- आराधना भगवदी एवं भत्तीए चरिणदा संती । चारित्र और सम्यक्तपरूप संघास सिबज्जस्स य समाधिवरमुत्तमं देउ ।। ६४ विवचन है । यह प्रधानतः मुनि असुरसुरमणुभकिएणररविससिकिंपुरिसमहियवरच धर्मका प्रन्थ है । मुनिधर्मकी अन्तिम सफलताशान्ति रणो दिसउमममोहिलाहं जिणवरवीरोतिहुवणिंदो॥ पूर्वक समाधिमरण है और इस समाधिमरणका खमदमणियमधराणंधुदरयसुहदुक्खवि-पजुत्ताणं । पण्डितपण्डितमरण, पण्डितमरण आदिका-इसमें 'णाणजोदियसन्लेहणम्मि सणमोजिनवराणं॥६६ और विस्तृत विवेचन है। दिगम्बर सम्प्रदायमें इस अर्थात्-श्रार्य जिननन्दि गणि, आर्य सर्वगत विषयको इतने विस्तारसे समझाने वाला यही सबसे गणि और प्रार्य मित्रनन्दि गणिके चरणोंके निकट पहला ग्रन्थ उपलब्ध है। अन्य सबग्रंथों में इस विषय पर अच्छी तरह सूत्र और अर्थको समझकरके, पूर्वाचार्यों जो कुछ थोड़ा बहुत लिखा हुआ मिलता है, वह प्रायः की निबद्ध की हुई रचना के आधार से पाणिदलभोजी इसके बादका और संभवतः इसीके आधारसे लिखा (करतल पर लेकर भोजन लरने वाले) शिवार्य ने यह हुआ है। इसका मंगलाचरण यह है : आराधना अपनी शक्ति के अनुसार रची है । अपनी सिद्धे जयप्पसिद्ध चउम्विहाराहणाफलं पत्ते । छग्रस्थता या ज्ञानकी अपूर्णताके कारण इसमें जो कुछ वंदित्ता अरिहंते वुच्छं आराहणा कमसो ॥ प्रवचनविरुद्ध लिखा गया हो, उसे सुगीतार्थ-पदार्थ अन्तमें प्रन्थकर्ता आचार्य अपना परिचय इस को भले प्रकार समझने वाले-प्रवचनवात्सल्य भावसे र प्रकार देते हैं :____ यद्यपि मुद्रित प्रति के अन्त में गाथासंग्ल्या यही दी है शुद्ध कर लें । इस प्रकार भक्तिपूर्वक वर्णन की हुई परन्तु यह कुछ सुनिश्चित मालूम नहीं होती; क्योंकि विजयोदया। भगवती आराधना संवको और शिवार्यको (मुझ) उत्तम नामको टीका २१४८ सल्या दी है । अतः जांच होने की जरूरत समाधि दे। असुर-सुर मनुष्य-किन्नर-रवि-शशि-कि पुरुषों द्वारा पूज्य और तीन भुवनके इन्द्र भगवान महा
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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