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________________ चैत्र, वीरनि०सं०२४५६ ] संस्कृतहृनोऽपि चित्ते प्रसभं सुभाषितैः न साधुकारं वचसि प्रयच्छति । क शिष्यमुत्सेक भियावजानतः पदं गुरोर्घावति दुर्जनः क सः ।। सुभाषित मणियाँ - महाकवि धनंजय | 'दूसरे के सुभाषितों से उसके अच्छे सुन्दर हृदयग्राही वचनों को सुन कर - चित्तके बलात् हरे जानेपूर्ण संतुष्टिलाभ करने पर भी एक दुर्जन वचनसे उसकी प्रशंसा नहीं करता है तो इससे वह उस गुरु की पदवी को प्राप्त नहीं हो जाता जो शिष्य के सुभा पितमे संतुष्ट होकर भी इस भयसे उसकी सराहना न *.रके अवगणना करता है कि कहीं अपनी प्रशंसाको सुनकर उसमें अहंकारका उदय न हो जाय -जो पतनका कारण एवं भावी उन्नतिका बाधक है।' (क्योंकि दुर्जनका ऐसा अभिप्राय नहीं हो सकता । उसके प्रशसा न करने का दूसरा ही हेतु है और वह है ईपी. डाह आदि - वह दूसरे के कीर्तिर को मकता, सह नहीं सकता और इसलिये उसमें किमी कार से भी सहायक होना नहीं चाहता। इससे स्पष्ट कि संतुष्टिलाभ और प्रशंसा न करने का कार्य उभ तंत्र समान होने पर भी गरु गुरु ही है और दुर्जन दुर्जन ही, दोनोंके परिणामोंमें जमीन आम्मानका सा अन्तर है ।) ' अपकृति कोपयेत् किं न कोपाय कुष्यसि । fraर्गस्यापवर्गस्य जीविनस्य च नाशिने ॥ - वादीभसिंहाचार्य | 'यदि अपकार करने वाले पर कोप करना है नो फिर कोप पर ही कोप क्यों नहीं करते, जो कि ३१३ का त्रिवर्गका - धर्म - अर्थ - कामका, श्रपवर्गका - मोक्ष - और जीवनका ही नाश करने वाला है ? - उस अधिक अनिष्ट करने वाला और कौन है ?" ( 'क्रोधो मूलमनर्थ' नां' जैसे वाक्योंके द्वारा कोपको अनर्थीका मूल कहा गया है। कोप पर कोप करना ही वास्तवमें नमा धार करना है. जो सर्व सुख-शांतिका मूल है ।) " यदीच्छसि वशीकर्तुं जगदेकेन कर्मणा । परापवादसस्येभ्यो गां चरन्तीं निवारय ॥ 'यदि तुम एक ही कर्म द्वारा जगत्‌को वशमें करना चाहते हो तो अपनी वाणी रूपी गौको परापवाद रूपी धान्य को चरने से रोको - अर्थात् द्वेषभावको लेकर दूसरोंकी निन्दा, अपवाद अथवा बुराई मन किया करो। अन्यदीयमिवात्मीयमपि दोष प्रपश्यता । कः समः खलु मुक्तोऽयं युक्तः कायेन चेदपि ।। - वादीभमिहाचार्य | 'दूम के दोषों की तरह जो अपने दोषों को भी अच्छी तरह से देखता है उनकी सम्यक् आलोचना करना है — उसकी बराबरी करने वाला कौन है ? वह तां शरीरमं युक्त होने पर भी वास्तवमें मुक्त है-मुक्त होने की योग्यता युक्त है ।' | जो लोग अपने दोषको ही नहीं पहचानते वे उनसे मुस भी नहीं हो सकते। " न संशयमनारा नरो भद्राणि पश्यति । संशयं तु पुनरारुह्य यदि जीवति स पश्यति ।। " 'मनुष्य संशय में पड़े बिना — खतरा, जाखम या संकट उठाए बिना – कल्याणका दर्शन नहीं करता है। हाँ, संशय में पड़नेके बाद यदि जीवित रहता है वो बह जरूर उसका दर्शन करने में समर्थ हो जाता है।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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