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________________ त्रि, वीरनि०सं०२४५६] सुभाषित मणियाँ ३१३ मंस्कृत त्रिवर्गका-धर्म-अर्थ-कामका -, अपवर्गका-मोक्ष हनोऽपि चित्ते प्रसभं सुभाषितैः का-और जीवनका ही नाश करने वाला है ?-उस में अधिक अनिष्ट करने वाला और कौन है ? न साधुकारं वचसि प्रयच्छति । ( 'क्रोधो मूलमनर्थ ना' जैसे वाक्योंके द्वारा कोपको मनका क शिष्यमुत्सेकभियावजानतः मूल कहा गया है। कोप पर कोप करना ही वास्तवमें क्षमा धारण पदं गुरोर्धावति दुर्जनः क सः ॥ करना है, जो सर्व सुख-शांतिका मूल है।) -महाकवि धनंजय । "यदीच्छसि वशीकतुं जगदेकेन कर्मणा । 'दूसरंक सुभाषितोंसे-उसके अच्छे सुन्दर हृदयः परापवादसस्येभ्यो गां चरन्ती निवारय ॥" प्राही वचनोंको सुन कर-चित्तके बलान् हरे जाने- यदि तुम एक ही कर्म द्वारा जगत्को वशमें कपण मंतुष्टिलाभ करने पर भी एक दुर्जन वचनस । एक दुजन वचनस रना चाहते हो तो अपनी वाणी रूपी गौको परापवाद उसकी प्रशंसा नहीं करता है तो, इसमे वह उस गुरु रूपी धान्य को चरने से रोका-अर्थात् द्वेषभावको की पदवी को प्राप्त नहीं हो जाता जो शिष्यके सुभा शिष्यक सुभा- लेकर दूमरोंकी निन्दा, अपवाद अथवा बगई मत पितमे संतुए होकर भी इस भयसं उसकी सराहना न किया । करके अवगणना करता है कि कहीं अपनी प्रशंसाको अन्यदीयमिवात्मीयमपि दोष प्रपश्यना । मन कर उसमें अहंकारका उदय न हो जाय-जो पत का ममः ग्वलु मुक्तोऽयं यक्तः कायेन चेदपि । नका कारण एवं भावी उन्नतिका बाधक है।' (क्योंकि दर्जनका ऐसा अभिप्राय नहीं हो सकता। उसके -वादीभर्मिहाचार्य। प्रशसा न करने का दूसग ही हेत है और वह है ईपी. 'दूमराके दोषांकी तरह जो अपनं दोषो को भी डाह आदि-वह दमरे के कीर्तितमा को देख ही अच्छी तरह से देखता है-उनकी सम्यक पालोचना मकता, सह नहीं सकता और इसलिये उसमें किसी करता है-उसकी बराबरी करने वाला कौन है? यह प्रकार से पीडाकोना नहीं चाहता। हम पर तो शरीरमे युक्त होने पर भी वास्तवमें मुक्त है-मुक्त है कि संतशिलाभ और प्रशंसा न करने का कार्य स. हान की योग्यनाम युक्त है। यंत्र समान होने पर भी गरु गम ही है और दर्जन । जो लोग अपने दोषोंको हो ना पहचानन व उनम मत जन ही, दोनोंके परिणामोंमें जमीन भाम्मानका मा भी नहीं हो सकते।। अन्तर है।) "न मंशयमनारुण नरी भद्राणि पश्यति । अपकुर्वति कोपश्चन किं न कोपाय कुप्यसि । संशयं तु पुनरारुप यदि जीवति स पश्यति ॥" त्रिवर्गस्यापवर्गम्य जीविनस्य च नाशिनं ।। 'मनग्य संशय में पड़े बिना-सातरा, जास्वम या -वादीभसिंहाचार्य। संकट उठाए बिना-कल्याणका दर्शन नहीं करता है। __'यदि भपकार करने वाले पर कोप करना है हाँ, संशयमें पान के बाद यदि जीवित रहना है तो वह नो फिर कोप पर ही कोप क्यों नहीं करते, जो कि जल उसका दर्शन करने में समर्थ हो जाता है।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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