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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण ५
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प्राकृत--
'मरते हुए मनुष्यकी यदि कोई देव, मंत्र, तंत्र या
__ क्षेत्रपाल रक्षा कर सकता नो ये मनुष्य अक्षय-अमर भावरहिमी न सिग्झइ जवि तवं चरइ कोडि- -हो जाते।' कोडीमो। जम्मतराई बहमो लंवियाहत्या ग- (इससे स्प है कि मरण अवश्यभावी है-मरनेस बचाने लियवत्यो ।
। वाला कोई नहीं है। अतः मृत्यु में भयभीत होकर किसी भी देवी
दवता के शरगा में जाना या मन्त्र तन्त्रादिकका भात्रय लेना 'भाव रहिनको सिद्धिकी प्रानि नहीं होती, भले ही
निरर्थक है।) वह विलकुल नग्न हुआ हाथोंको लम्बे किये करोड़ों जन्म तक नाना प्रकार के नपश्चरण ही क्यों न
" भन्नाहं वि णामति गण, जई संसग खलेहिं ।
वइसाणरु लोहहं मिलिउ, ते पिट्टियइ घणेहि ।। करता रहे।
-योगीन्द्रदेव । परिणामम्मि असुदे गंथं मुच्चई पाहरं य नई। 'दुर्जनोंक मंसर्गमे भले आदमियों के भी गुण नष्ट पाहिरगंयचामो भावविहणम्स किं कुणइ ॥ हो जाते हैं । सा ठीक ही है, अग्नि जर लोहे से
-कुन्दकुन्दाचायं । मिलनी है तो वह घनों से पीटी जाती है । 'यदि परिणाम अशुद्ध है-राग, द्वेष अथवा विष- कांधो माणी माया लोभो य दुगमया कमायरिऊ । य कषायादिकसे मैला है-और बाह्य परिग्रहका त्याग दाससहस्सावामा वग्वमहम्साणि पावंति ।। किया जाता है तो वह बाह्य परिग्रह का त्याग उस
-बट्टकेराचार्य। भात्मभावनामे रहित साधुके किम कामका है ? - 'क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों कषायउससे भात्मसिद्धिकी कुछ भी प्राप्ति नहीं हो सकती।' शत्रु दुष्टाश्रयको लिये हुए सहस्रों दोषों के निवासस्थान एपंचेंदियकरहडा जिय मोकला म चारि। हैं, (और इस लिये) ये ही जीवोंको सहस्रों दुःख प्राप्त चरिविनसेस वि विसयवण, पुणपाडहिं संसारि॥ कराते हैं।'
-योगीन्द्रदेव । धम्मो मंगलमुकि हिसा संजमो नवी। 'हे पात्मन्, इन पंचेंद्रिय रूपी ऊँटों को स्व ता देवा वि तं नमसंनि जस्स धम्मे सया मणी ।। से मत परने रे-अपने वशमें रख । नहीं तो ये संपूर्ण
-दशवकालिक सत्र । विषय-वनको पर कर तुझे योंही संसारमें पटक देगी 'धर्म उत्कृष्ट मंगल है और वह अहिंसा, संयम
तथा तपरूप है। जिसका मन धर्ममें सदा लीन रहता रदेवोवियरक्खा मंतो तंतो य खेसपालोया । उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।' मियमाणं पिमणुस्सं तो मणुया मक्खया होति ॥ (इससे अपना मगल चाहने वालों को सदा अहिंसा, संयम और
-स्वामिकार्तिकेय। तपकी पारामा परनी चाहिये।).