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________________ चैत्र, वीरनि०सं०२४५६] पुरानी बातों की खोज २७३ विरचिताया न्यायदीपिकायामोगमप्रकाशः है और उसकी संधियोंमें भट्टारक महोदयका परवादिसमाप्त:। दंतिपंचानन' विशेषण दिया है। जैसा कि उसकी ___ यह सन्धि और उक्त प्रशस्ति दोनों चीजें, सन् निम्नलिखित अन्तिम सन्धिसे प्रकट है:१९१३ में, जैनग्रंथरत्नाकर-कार्यालय द्वारा प्रकाशित इति परवादिदन्तिपंचाननश्रीवर्धमानभट्टाहुई 'न्यायदीपिका' में नहीं हैं और न इससे पहलेकी रकदेवविरचिते बरामचरिते सर्वार्थसिद्धिछपी हुई किसी प्रतिमें हैं। बाद की छपी हुई जो एक गमनानमत्रयोदशमः सर्गः। प्रति मिली उसमें भी इनका दर्शन नहीं हुआ। अनेक जान पड़ता है 'परवादिन्तिपंचानन यह वर्धमान हस्तलिखित प्रतियों में भी ये नहीं देखी गई। हाँ, भट्टारकका विरुद था अथवा उनकी उपाधि थी और दौर्वलि जिनदास शास्त्रीके भंडारमें जो इम प्रन्थकी दो इससे वे एक नैय्यायिक विद्वान् मालम होते हैं। प्रतियाँ हैं उनका अन्तिमभाग एक बार जैनहितैषी में न्यायदीपिका कर्ता धर्मभषणके गुरु भी नैयायिक प्रकाशित हुआ था वह उक्त सन्धिसे मिलता जलता विद्वान होने चाहिये और उन्हें न्यायदीपिकाकी उक्त है, कुछ थोड़ासा भेद है। मालूम नहीं प्रशस्तिका उक्त संधिमें 'भट्टारक' भी लिखा है। इसलिये, मेरे स्त्रपाल पद्य भी उनमें है या नहीं। से, ये दोनों एक ही व्यकि जान पाते हैं। यदि यह ___ अस्तु; इम पासे प्रथकी वह त्रुटि पूरी हो जाती सत्य है तो धमभूषणकं गुरु मूलसंघ, बलात्कारगण है जो कि एक गयात्मक प्रन्थके प्रारंभमें मंगला- और भारती गच्छके आचार्य थे; जैसा कि पगंगन चरण तथा प्रतिनाविषयक श्लोकको देखकर अन्तम की प्रशस्निके निम्न वाक्यम प्रकट है:ममानि आदि विषयक कोई पद्य न देखन में स्वटकनी म्नि श्रीमूलमंयं भुवि विदितगणं श्री. थी। माथ ही, यह बात स्पष्ट हो जाती है कि प्रन्थक, बलात्कारमं । श्रीभाग्त्यादिराच्छे सकलगुणक गुरु वर्धमानश अर्थात वर्धमान भट्टारक थं और निधिर्धमानभिषानः ॥ प्रामीब्रहारकोऽमो... उन्हीके श्रीगावस्नहमम्बन्धस यह न्यायदीपिका मिद्ध न्यायदीपिकाकी उक्त संधिस यह साफ जाहिर है हुई है। प्रन्थकर्नान प्रारम्भिक पद्यमें अर्हन्तका विश- किम ग्रंथके काम पडले.कोई दूसरे धर्मभूषण' पण 'श्रीवर्धमान' देकर("श्रीवर्धमानमहनं नत्वा लिन नामक प्राचार्य भी हो गये हैं और इस लिए.थे . कर) उसके द्वाराभी अपने गुरुका स्मरण और सचन भिनव धर्मभूषण' कहलान थे । इन्हें गुम अनुप्रहम किया है। ये वर्धमानभट्टारक कौन थे और उन्होंने मारम्वनोदयकी सिद्धि थी। किन किन प्रन्योंका प्रणयन किया है, यह बात, यपि, अभी तक स्पष्ट नहीं हुई तो भी 'वरांगचरित्र' नामका .. भारह लिपियों के नाम एक पंथ x वर्धमान भट्टारकका बनाया हुआ उपलब्ध . जैनसिद्धान्तभवन श्रारामें, धर्मदाससरि का * देखो जनहितेषी भाग १ मा -- मान मरको माये हुएई जाने है परन्तु आज काई प्रश्न प्रमी पनियम और द्वादशांगपति नामक दो पन्य भी तक मेरे देखने में महा माया ।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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