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________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण तत्वार्थसूत्रके कर्तृत्वरूपसे कुंदकुन्दका नाम दे दिया प्रभुदुमास्वातिमुनिः पवित्रे वंशेतदीये सकलार्थवेदी हो।यदि ऐसा है और इसी की सबसे अधिकसंभावना है, सत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थनातं मनिपुंगवेन नो यह स्पष्ट भूल है। दोनोंका व्यक्तित्व एक नहीं था। . उमाम्वाति कुंदकुंदके वंशमें एक जुदे ही प्राचार्य हुए समाणिसंरक्षणसावधानोषमारयोगीकिलगृद्धपक्षान हैं, और वे ही गद्धपक्षों की पीछी रखने से गपिच्छ तदाप्रभृत्येव बुधोयमाहुराचार्यशब्दोत्तरगदपिञ्छं। कहलाते थे। जैसा कि कुछ श्रवणबेलगोलके निम्न यहाँ शिलालेख नं० ४७ में कुंदकुंदका दूसरा नाम शिलालेखोसे भी पाया जाता है: 'पद्मनंदी' दिया है और इसी का उल्लेग्व दूसरे शिलाश्रीपानन्दीत्यनवयनामा बाचार्यशब्दोत्तरकोएकुन्द लेखा आदि में भी पाया जाता है। बाकी पट्टावलियां द्वितीयमासीदभिधानमयचरित्रसंजातमचारदि। (गुर्वावलियों)में जो गृद्धपिच्छ, एलाचार्य और वक्रग्रीव नाम अधिक दिये हैं उनका समर्थन अन्यत्र मे नहीं भभदुमास्वातिमुनीश्वरोऽसावाचार्यशब्दोत्तरगृद्धभमदुमास्वातिमुनाखरासासापापश दापरण होता । गद्धपिच्छ (उमास्वाति) की तरह एलाचार्य और पिकः । तदन्वये तत्सदृशोऽस्ति नान्यस्तात्कालि- वक्रमीव नामके भी दूसरे ही आचार्य हो गये हैं । और काशेषपदाथवेदी । इस लिये पट्टावली की यह कल्पना बहुत कुछ मंदिग्य वदीयवंशाकरतः प्रसिद्धादमददोषा यतिरत्नमाला। तथा आपत्ति के योग्य जान पड़ती है। मौयदन्तर्मणियन्मुनीन्द्रस्स कुण्डकुन्दोदितचंददंड: जुगलकिशोर मुख्तार संशोधन और सूचन गत माघ मास के 'अनेकान्त' पत्र में पं० जुगल विक्रमकी छठी शताब्दी के उत्तरार्ध और सातवीं शताब्दी किशोर जी का 'पुरानी बातोंकी खोज' शीर्षक लेख के पूर्वार्धके मध्यवर्ती किसीसमय रची गईहै, यह अन्य छपा है,जोध्यान देने योग्य है। उसमें से एक बातका सुनिश्रितप्रमाणोंसे सिद्ध है। इस चूर्णिमें निर्दिट सिद्धिसंशोधन करना जरूरी है। उसमें कहा गया है कि, विनिश्चय प्रकलदेवका तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि सिद्धिविनिमयका प्रभावक प्रन्थ के रूपमें श्वेताम्बरीय वे उक्त चणिकरचयिता जिनदासगणि महत्तरके वादही साहित्य में निर्देश है और वही अन्य प्रकलंकदेव हुए हैं। अतएव चूर्णिसचित सिद्धिविनिश्चय अकलंकका नहीं । यह अन्य किसीका रचा होना चाहिये और वे भाज तक हम भी करीब २ ऐसाही समझ रहे थे। अन्य संभवतः श्वेताम्बरीय विद्वानहोंगे। इस संभावना पर भाजकल जो नये उल्लेख मिले और नया विचार के मुख्य दो कारण हैं -एक तो श्वेताम्बरीय किसी हुमा इससे उस मन्तब्यमें परिवर्तन करना पड़ता है। प्रन्थमें निन्धित दिगाम्बरीय गन्थका प्रभावकके तौर पाव यह है कि, जिस पुरातन श्वेताम्बरीय प्रन्थ में पर अन्यत्र उखान मिलना । दूसरे सन्मतितर्क जो सिद्धिविनिमयका प्रभावक रूपसे उखा है, वह अन्य श्वेताम्बरीय प्रतिष्ठित ग्रन्थ है उसके साथ और उसमें श्वेताम्बरों का निशीषणि' नामक है। यह चर्णि पहले सिद्धिविनिमयका उलेख होना।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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