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________________ ૩૮ उपयोग मानने न माननेकी जो जुदी जुदी मान्यताएँ मैं उनमें से कोई भी दिगम्बरीय प्रन्थों में नहीं दिखाई देती और श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में पाई जाती हैं । अनेकान्त दलीलें यद्यपि ऐसा साबित करती हैं कि वाचक उमाम्वाति दिगम्बर परम्परा के नहीं थे, तो भी यह देखना तो बाकी ही रह जाता है कि तब वे कौमी परंपरा के थे। नीचे की दलीलें उन्हें श्वेताम्बर परम्परा होने की तरफ़ लेजाती हैं। १ - प्रशस्ति में उल्लेखित उच्चनागरीशाखा ३० श्वेताम्बरी पट्टावली में पाई जाती है । - श्रमुक विषय-संबन्धी मतभेद या विरोध ३८ बतलान हुए भी कोई ऐसे प्राचीन या अर्वाचीन श्वेताम्बर आचार्य नहीं पाये जाते जिन्होंने दिगम्बर चाय की तरह भाष्यको अमान्य स्क्वा हो । 5. २- जिसे उमाम्वातिकी कृतिरूपसे माननेमें शंका का भाग्यमे ही अवकाश है ऐसे प्रशमरति ३ पन्थ में मुनि के वस्त्र पात्र का व्यवस्थित निरूपण देखा जाता है, जिसे श्वेताम्बर परम्परा निर्विवादरूपसे स्वीकार करती है। ४-उमाम्बातिके वाचकवंशका उल्लेख और उसी वंशमें होने वाले अन्य आचार्यों का वर्णन श्वेताम्बरीय पट्टावलियां, पन्नवरणा और नंदिकी स्थविरावलीमें पाया जाता है। ये दलीलें वा उमास्वातिको श्वेताम्बर परंपराका मनवाती हैं, और अबतकके समस्त श्वेताम्बर आचार्य उन्हें अपनी ही परंपराका पहले से मानते आये हैं । . ऐसा होते हुए भी उनकी परम्परासम्बन्ध में कितने ही वर्ष १, करण ६, ७ वाचन तथा विचारके पश्चात् जो कल्पना इस समय उत्पन्न हुई है उसको भी अभ्यासियोंके विचारार्थ यहाँ दे देना उचित समझता हूँ । ३६. देखा, १, ११ का भाष्य । ३७. देखो, पीछे 'वंश' तथा 'समय' शीर्षकों के नीचे किये हुए उल्लेख ३८. देखो, आगे की तटस्थता सूचक ११ दलीलों में से ४, ५, ७, ६ नम्बर की दतीले । ३६. देखो, श्लोक नं० १३५ से । जब किसी महान् नेताके हाथ से स्थापित हुए सम्प्रदाय में मतभेद के बीज पड़ते हैं, पक्षों के मूल बंधत हैं और धीरे धीरे वे विरोधका रूप लेते हैं तथा एक दूसरेकं प्रतिस्पर्धी प्रतिपक्षरूपसे स्थिर होते हैं तब उस मूल सम्प्रदाय में एक ऐसा वर्ग खड़ा होता है जो परस्पर विरोध करने वाले और लड़ने वाले एक भी पक्षकी दुराग्रही तरफदारी न करता हुआ अपने से जहाँ तक बने वहाँ तक मूल प्रवर्तक पुरुष के सम्प्रदाय को तटस्थरूपसे ठीक रखने का और उस रूपसे ही समझाने का प्रयत्न करता 1 मनुष्य स्वभाव के नियमका अनुसरण करने वाली यह कल्पना यदि सत्य हो तो प्रस्तुत विषयमें यह कहना उचित जान पड़ता है कि जिस समय श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों पक्षों ने परस्पर विरोधीपनेका रूप धारण किया और अमुक् विषय-सम्बन्ध में मनभेद के झगड़े की तरफ वे ढले उस समय भगवान महावीर के शासनको माननेवाला श्रमुक वर्ग दोनों पक्षोंसे तटस्थ रहकर अपने से जहाँ तक बने वहाँ तक मूल सम्प्रदायको ठीक रखने के काम में पड़ा । इस वर्गका काम मुख्यतः परम्परा से चले आए हुए शास्त्रोंको कंठस्थ रखकर उन्हें पढ़ना-पढ़ाना था और परम्परामे प्राप्त हुए तत्वज्ञान तथा आचारसे मम्बन्ध रखने वाली सभी बातोंका संग्रह रखकर उसे अपनी शिष्यपरम्परा को देना था । जिस प्रकार वेदरक्षक पाठक श्रुतियोंको बराबर कंठस्थ रखकर एक भी मात्रा का फेर न पड़े ऐसी सावधानी रखते और शिष्यपरम्परा को सिखाते थे, उसी प्रकार यह तटस्थ वर्ग जैन श्रुतको कंठस्थ रखकर उसकी व्याख्यानोंको
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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