SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 405
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२६ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८,९,१० समाज-सम्बोधन दुर्भाग्य जैनसमाज, तेरा क्या दशा यह होगई! क्या तत्त्व खोजा था उन्होंने आत्म-जीवन के लिए ? कुछ भी नहीं अवशेष, गुण-गरिमा सभी तो खो गई ! किस मार्गपर चलते थे वे अपनी समुन्नतिके लिए ? शिक्षा उठी, दीक्षा उठी, विद्याभिरुचि जाती रही ! इत्यादि बातोंका नहीं तव व्यक्तियोंको ध्यान है । अज्ञान दुर्व्यसनादिसे मरणोन्मुग्वी काया हुई ! वे मोहनिद्रामें पड़े, उनको न अपना ज्ञान है । (२) वह सत्यता, समुदारता तुझमें नज़र पड़ती नहीं ! सर्वस्व यों खोकर हुआ तु दीन, हीन, अनाथ है। दृढ़ता नहीं, क्षमता नहीं, कृतविज्ञता कुछ भी नहीं! कैसा पतन तेरा हुआ, तु रूढ़ियोंका दास है ! सब धर्मनिष्ठा उठ गई, कुछ स्वाभिमान रहा नहीं! ये प्राणहारि-पिशाचिनी, क्यों जाल में इनके फँसा ? भुजबल नहीं, तपबल नहीं, पौरुष नहीं, साहस नहीं ! ल पिण्ड त इनमे छुड़ा,यदि चाहता अब भी जिया। क्या पूर्वजोका रक्त अब तरी नसोंमें है कहीं ? सब लुप्त होता देख गौरव जोश जो खाता नहीं। ठंडा हुआ उत्साह सारा, आत्मबल जाता रहा। उत्थानकी चर्चा नहीं, अब पतन ही भाता हहा !! जिस आत्म-बलको त भला बैठा उसे रख ज्ञान, क्या शक्तिशाली एक्य है, यह भी सदा रख ध्यानमें । निज पूर्वजोंका स्मरण कर, कर्तव्य पर आरूढ़ हो, बन स्वावलम्बी, गण-ग्राहक, कष्टमें न अधीर हो । पूर्वज हमारे कौन थे ? वे कृत्य क्या क्या कर गये ? सद्दृष्टि-ज्ञान-चरित्रका सुप्रचार हो जगमें सदा, किन किन उपायोंसे कठिन भवसिन्धको भी तर गये? यह धर्म है, उद्देश है; इससे न विचलित हो कदा । रखते थे कितना प्रेम वे निजधर्म-देश-समाजसे ? 'युग-वीर' बन यदि स्वपरहितमें लीन त हो जायगा, परहितमें क्यों संलग्न थे, मतलब न था कुछ स्वार्थमे? तो याद रग्व, सब दुःख संकट शीघ्र ही मिट जाय गा॥ - 'यगवीर साधु साधु-विवेक [लेग्वक-श्री० दलीपसिंहजी काराज़ी] असाधु वस्त्र रँगाते, मन न रँगात, कपट-जाल नित रचत हैं। राग, द्वेष जिनके नहिं मनमें, प्रायः विपिन विचरते हैं। 'हा । सुमरनी पेट कतरनी', परधन-वनिता तकते हैं । क्रोध, मान, मायादिक तजकर,पंच महाव्रत धरते हैं । आपा परकी खबर नहीं, परमार्थिक बातें करते हैं। ज्ञान-ध्यानमें लीनचित्त, विषयों में नहीं भटकते हैं । ऐसे ठगिया साधु जगतकी, गली गली में फिरते हैं ।। वे हैं साधु, पुनीत, हितैषी, नारक जो खुद तरते हैं ।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy