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आषाढ, श्रावण, भाद्रपद वीरनि०सं०२४५६]
जैन-मंत्रशास्त्र और 'ज्वालिनीमत'
जैन-मंत्रशास्त्र और ज्वालिनीमत
यद्यपि मंत्रवाद, जो कि योगका एक अंग है- नहाने धोने, खाने पीने, चलने फिरने, उठने बैठन, और जिसे 'मंत्रयोग' कहते हैं और जो जैन परिभाषामें हगने मूतने तककी प्रायः सभी क्रियाओंके साथ मंत्र 'पदस्थध्यान' के अन्तर्गत है,बहुत प्राचीन कालसं चला जड़ गये थे- मंत्रोंका महाग लिये बिना लोग इधर
आता है; परन्तु भारतवर्षमें एक समय ऐसा भी आया उधर हिल-डुल नहीं सकते थे; मंत्रबलके द्वारा कुछ है जब कि इसकी खास तौरसे वृद्धि हुई है, इसमें अ- अतिशय-चमत्कार दिखलाना ही जब योग्यताका एक नंक शाखा-प्रतिशाखाएँ फटी हैं और यह आध्यात्मिक मार्टिफिकेट समझा जाता था, और जो लोग ऐसा विकामकी सीमासे निकल कर प्रायः लौकिक कार्यो- नहीं कर सकते थे उनका प्राय: कोई खास प्रभाव की सिद्धिका प्रधान साधन बना है। यह समय 'तान्त्रि- जनता पर अंकित नहीं होता था; बौद्ध भिक्षुओं कयग' कहलाता है । इस युगमें तान्त्रिकों-वैदिकधर्म- तकमें तान्त्रिकता फैल गई थी अथवा फैलनी प्रारंभ की एक शाखा विशिष्टके अनयायियों द्वारा मंत्रों, हो गई थी तब कितने ही अध्यात्मनिष्ठ जैन माध नंत्रों तथा यंत्रोंका बहुत कुछ आविष्कार और प्रचार भी इस लोकप्रवाहमें अपने को रोक नहीं सके, हुआ है, उन्हें ही लौकिक तथा पारलौकिक मभी का- और इमलिय उन्होंने भी ममयके अनुकूल अपने याँकी सिद्धिका एक आधार बनाया गया है और इन मंत्रवादको संस्कारित किया, अनंक अतिशय-चमविषयों पर सैकड़ों ग्रंथोंकी रचना की गई है। ये ग्रंथ त्कार दिग्वलाये, अपने मंत्रबलम जनताको मुग्ध 'तंत्रशास्त्र' या 'मंत्रशास्त्र' कहलाते है और इनमें प्रायः कर उन अपनी ओर आकर्पिन किया और लोगों पर मंत्र, तंत्र और यंत्र तीनो ही विपयोंका समावेश रहना यह भले प्रकार प्रमाणित कर दिया कि उनका मंत्रवाद है, जिन्हें साधारण बोलचाल में जाद, टोना और किसी भी कम नहीं है-प्रत्यत, बढ़ा चढ़ा है । माथ तावीज़-गण्डा समझिय ।
ही, उन्होंने कितने ही मंत्रशास्त्रांकी भी मृष्टि कर ___ जब देशका वातावरण मंत्रवादसे परिपर्ण था; डाली, जिन सबका मूल 'विद्यानुवाद' नामका १० वाँ अनेक प्रकारकं देवी-देवताओंकी कल्पना तथा आग- 'पर्व' बतलाया जाता है । धना-द्वारा अपनी इष्टसिद्धि करनेका बाजार गर्म था; इन जैन मुनियोंन 'विद्यानवाद' पूर्वमं जिन जिन
आकर्षण, उच्चाटन, वशीकरण, स्तंभन, मारण, विद्वे- काँका आविर्भाव किया है, उनमेंम बहुतस कर्म ऐसे षण, शान्तिकरण और पष्टिकरण के प्रयोग मंत्रों-द्वारा भी है जो कुमार्ग और कुध्यानका विषय है और जिनकिये जाते थे; गेगोंकी चिकित्सा मंत्रोंद्वारा होती थी; की वाबन शुभचन्द्राचार्य ने अपने ज्ञानार्णव' में