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अनकान्त
[वर्ष १, किरण २
उसका अपहरण करने वाले हैं। जिस प्रकार राज्य
श्राहार कानुनको उल्लंघन करने वाला अपराधी दण्ड पाने का जीवन की स्थिति के लिये प्राणी मात्र को श्राहार अधिकारी है. ठीक उसी प्रकार, बल्कि उससे भी कहीं अथवा भोजनकी आवश्यकता पड़ती है क्योंकि आहार अधिक, शरीरनीति को बिगाड़ने वाला मनुष्य दण्ड- के बिना कोई भी प्राणी बहुत दिनतक जी नहींसकता।
इम लिये सब से पहले इम ही पर विचार करना आवनीय है । इनमें में एक को ना मनुष्य-कृत कानुनम मजा
श्यक है-वाग्भट्टजी ने भी अपने उक्तवाक्यमें इसीको मिलती है और दृमरं को कानुनझुदरत दण्ड देता है। अग्रस्थान दिया है । बहुत कम लोग होंगे जो पुरे तौरसे मनुष्यकृत कानन अपूर्ण होने तथा अल्पज्ञों और पक्ष- यह भी जानते हों कि हमें बार बार भोजनकी जरूरत पाती मनुष्यांक आधीन हानेक कारण गज्यकानूनका क्यों होती है । बात असिल में यह है कि नित्य ही शरीर अपगधी तो कितनी ही बार छूट भी जाता है परन्तु और मनका जो व्यापार होता है-चलना फिरना,बैठना शरीग्नीतिके अपराधी को कुदरत-नेचर अथवा उठना, बोलना चालना और सोचना समझना आदि प्रकृति-मज़ा दिये विना कभी नहीं छोड़ती। कुदरतकी रूप जो भी क्रियाएँ मन वचन और काय से होती मजा अनेक प्रकारके रोगों की पीड़ाम लेकर कटदायक हैं उन सब के द्वारा प्रति दिन और प्रति समय हमारे मृत्यु पर्यत है। इस लिय गंगोंकी पीड़ा तथा वंदना से शरीरके अवयवों, धातुओं एवं शक्तियोंका ह्रास, व्यय बचने और दीर्घजीवी होने के लिये शरीरनीति का अथवा क्षय होता रहता है, जिसकी पूर्तिकं लिये भोजन पालन करना नितान्त आवश्यक और अनिवार्य है। की जरूरत होती है-आहारकी यथेष्ट मामग्रीद्वारा ___यदि आप दीर्घ दृष्टि से देखेंगे अथवा गहरा उसकी पूर्ति हो कर शरीरका काम ज्योंका त्यों चला विचार करेंगे तो आपको यह भी मालूम हो जायगा करता है । इसके अतिरिक्त बाल्यावस्था और युवावस्था कि शरीरनीति को बिगाड़नेम ही अनेक राज्यविरुद्ध में जो शरीर और आजकी वृद्धि होती है-डील डोल अपराध उत्पन्न होत है । जैसे कि कामांध लम्पट पुरुप बढ़ा करता है-उसके लिय नथा शारीरिक उष्णत्वअपने दुव्यसनका पूरा करने के लिये बलात्कार- उत्तापको स्थिर रखने के लियभी भोजन की जरूरत पड़ती व्यभिचार सरीखे विविध प्रकार के अन्याय और भारी हैऔर इस तरह यह पाया जाता है कि निम्नलिखत चार भारी पाप कर डालता है, जिनके लिये कभी कभी उसे मुख्य कारणोस श्राहार करनकी परम आवश्यकता है:खब कड़ी सजाएँ भोगनी पड़ती हैं ; इत्यादि । इसके शरीरमें कामकाज करनेकी शक्ति उत्पन्न करनेकेलिये। प्रतिकूल, शारीरिक नीतिका यथार्थ पालन करने वाला (२) शरीरम्थ धातुओंकी व्यय-पूर्तिके लिये। -सदाचारसे रहनेवाला-मनुष्य राज्यकाननकी किसी (३) अंगोंके बढ़ावचढ़ाव एवंबल-परूपार्थकी वृद्धिकेलिये। भी धाराका अपराधी नहीं हो सकता । वह अपन (४) शरीरमें यथाचित उष्णत्व स्थिर रखनके लिये । सदाचारके बलसे पूर्व संचित कठोर कोंक रसको भी यह उष्णत्व शरीर रूपी एंजिन में स्टीमका काम नरम करके इस जन्म में धर्म, अर्थ और काम करता है-नस-नाडियोंको गति देता है। याद रखिये परुषार्थोकी यथेष्ट साधना-द्वारा मनोवाञ्छित सुखांका स्वस्थ मनष्यकी नाड़ीकी गति प्रायः ७५ होती है। उपभोग करता हुआ एक प्रसिद्ध और प्रातः स्मरणीय यदि नाडौंकी गति ७५ से कम होने लगे तो शरीर व्यक्ति हो जाता है । साथ ही, अपना भविष्य भी सुधार ठंडा होते होते प्राण हीन हो जाता है। लेता है। ऐसे ही सदाचारी व्यक्ति अगले जन्मों में अब विचारणीय यह है कि वह कौनसा आहार उत्तरोत्तर आत्मोन्नति करते हुए अन्तको अनन्त है जो हमारी उपर्युक्त आवश्यकताओं को पूरा करता सुखों की प्राप्ति रूप मोक्षके पात्र बन जाते हैं और हा हमें आरोग्य प्रदान करता है ।। दुःख-सन्तापोंमे सदा के लिये छूट जाते हैं। अस्तु ।
(क्रमशः)