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पौष, वीर नि०सं० २४५६]
कर्णाटक-जैनकवि
कणाटक-जैनकवि
[अनुवादक-श्री० पं० नाथूरामजी प्रेमी] [अठारह वर्षके करीब हुए जब 'कर्णाटक-जैनकवि' नाम की एक लेखमाला जैनहितैषीमें सुहद्धर पं० नाथूरामजी प्रेमीने निकालनी प्रारम्भ की थी। यह लेखमाला प्रायः मेसर्स आर०तथा एस० जी० नरसिंहाचार्यरचित 'कर्णाटक-कविचरिते' नामक कनडी ग्रन्थके प्रथम भागके आधार पर लिखी गई थी, जो उस वक्त तक प्रकाशमें आया था। और उममें ईसवी मन्की दूमरी शताब्दीसे लेकर १४वीं शताब्दी तकके ७५ जैन कवियों का संक्षिप्त परिचय दिया गया था, जो कि पुगतत्त्वके खोजियों तथा अनुमन्धानप्रिय व्यक्तियोंको बहुत ही रुचिकर हुआ था-हिन्दी संसारके लिये तो वह विलकुल ही नई चीज़ थी-और बंगला भाषाके 'ढाकारिव्यू' जैमे पत्रों ने जिसका अनुवाद भी निकाला था और उसे बड़े ही महत्वकी चीज़ समझा था । आज, जब कि उक्त 'कर्णाटक-कविचरित' का दूसगभाग प्रकाशित हो चुका है, उसी लेखमालाका यह दूसरा भाग 'अनेकांत' के पाठकोंकी भेट किया जाता है। इमे हालमें पं० नाथूरामजीकी प्रेरणा पर 'कर्णाटक-कविचरिते' के द्वितीय भाग पर में श्रीयुत ए. एन. उपाध्याय बी. ए. महाशयने मराठी भाषा में संकलित किया था, उसी परसे यह हिन्दी अनुवाद पं० नाथूरामजी प्रेमीने प्रस्तुत किया है । प्रेमीजी लिखते हैं कि "उपाध्यायजी बड़े होनहार हैं, पून में एम. ए. में पढ़ रहे हैं और जैनमाहित्य तथा इतिहास मे आपको बहुत प्रेम है।" अनेकान्त में इस लेख माला के लिये प्रेमीजी, उपाध्यायजी और 'कर्णाटक-कविचरित' के मूल लेखक तीनों ही धन्यवादके पात्र हैं। यद्यपि उस लेखमालामें कवियोंका बहुत ही संक्षिप्त परिचय दिया गया है-विशेष परिचय भी पाया जाता है
और इसे संकलित करनेकी ज़रूरत है फिर भी इस परसे पाठकोंको बहुत सी नई नई बातें मालूम होंगी और इतिहास तथा पुरातत्त्व विषयमें उनका कितना ही अनुभव बढ़ेगा। साथ ही, उन्हें यह जान पड़ेगा कि कनडी जैन साहित्यके उद्धारकी कितनी अधिक जरूरत है।
-सम्पादक १भास्कर (ई.सन् १४२४) इस कविने जीवन्धरचरितकी रचना की है। यह स्वयं प्रकट किया है । प्रन्थारंभमें उसने पंच परमेष्टी, प्रन्थ उसने 'शान्तेश्वर-वम्ती' नामक जैनमन्दिरमें ई० भूतबलि, पुष्पदंत, वीरसेन, जिनसेन, अकलंक, कवि सन् १४२४ में समाप्त किया है। कविका निवासस्थान परमेष्ठी, समन्तभद्र, कोंडकुन्द,वादीभसिंह, पण्डितदेव, पैनुगोंडे नामक ग्राम था । जीवन्धरचरित वादीभसिंह कुमारसेन, वर्द्धमान, धर्मभपण, कुमारसेन के शिष्य सूरिके संस्कृत प्रन्थका कनड़ी अनुवाद है, ऐसा कविने वीरसेन, चारित्रभूषण, नेमिचन्द्र, गुणवर्म, नागवर्म,
* प्रथमें समाप्ति-समय फाल्गुन शुक्ल १०पी रविवार शक स० होन्न, विजय,अग्गल, गजां राकु, और यशश्चन्द्र आदि १३४५ क्रोधि सम्वत्सर दिया है और पेनुगोंडे प्रामके उक्त जिन- का नाम स्मरण कया है । यह विश्वामित्र गोत्री जैन मंदिरमें समाप्तिका उल्लेख किया है।
-सम्पादक ब्राह्मण था और इसके पिताका नाम बसवांक था।