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अनेकान्त
वर्ष १ किरण ६, वाणी युवकगण सुनें, और उन का सहानुभूति एवं सामाजिक जीवन में क्या पहिंसा से हिंसा अधिक समानता का संदेश प्रामों और नगरोंमें ले जावें । बि- नहीं है ? भिन्न धर्मों में भेदों और झगड़ों का सृजन किया है। और वर्तमान राजनीतिमें हम क्या देखते हैं, कषावे आयात्मिक जीवन-सम्बन्धी नये विचार, नूतन यां की मन्त्रणा या अहिंसा की शक्ति ? देशभक्ति और नवीन राष्ट्रीय जीवन का सजन करें; एक बात का मैं और भी अनुभव करता हूँ, और क्योंकि सत्य असीम है और धर्मका उद्देश्य भिमता वह यह है कि राष्ट्रीय आन्दोलनोंको एक नवीन उदा और झगड़ों का उत्पादन करना नहीं, किन्तु उदारता आध्यात्मिक स्पन्दन (प्रोत्साहन) मिलता जाना चाहिए। और प्रेम का पाठ पढ़ाना है।
एक भ्रातत्वमय मभ्यता का निर्माण होना चाहिये। २ महिसा-यह वस्तु पालम्य और कायरताके विद्वेष हमारी महायता नहीं करेगा। आजकल गए पर है। अहिंसामत्तात्मक है, निरी कल्पना नहीं । यह अपनी मानसिक शक्तियोंकी सम्पत्ति लड़ाई-झगड़ोंमें माधारण गुणों में उस श्रेणी की वस्तु है। यह एक खर्च कर रहे हैं। हमें चाहिए कि हम ईश्वरको अपन शक्ति है । यह शक्ति शान्ति की है.लड़ाकू दनियामें गष्ट्रीय जीवन में ग्वींचलावें । मानव-विश्वके पुननिर्माण शान्तिकी अन्त प्रेरणा है।
के लिए हमे आध्यात्मिक शक्तिको आवश्यकता है। बहुत दिनोंम यरोप में निन्य ही बलात्कार और यदि कोई मुझमें एक ही शब्दमें कहने के लिए को हिमाके नये-नये कार्यक्रम स्वीकृत हो रही है। आज कि भारतकी आत्मा क्या है ? नो मैं कहूँगा-'अहिमा' । भारतमे भी बहुत लोगों के लिए वे आकर्षक सिद्ध हुए भारतका अनन्त अन्वेषण अहिंमाको विचार, कला, हैं। एक फरासीमी ने अभी हालमें ही प्रकाशित एक उपासना और जीवनमें ममाहृत करता रहा है। पुस्तक में लिखा है-"हमें जर्मनीके नाश की जरूरत अहिंसाके सिद्धान्तने भारतवर्षके सांसारिक सम्बंधों है।" एक भारतीयने भी रशियोद्वार-फण्डमें सहायता परभीप्रभाव डाला। उसने साम्राज्यों और विजयोंकेस्वप्न करनेके लिए प्रामह किये जाने पर कहा था-"हमें नहीं देखे और वह जापान तथा चीनका भी गुरु हो गया। भावश्यकता है योपियनों के नाश की।" इस तरह अपनी इस आध्यात्मिक उन्नतिके कारण यह अपरिचित को बातें मेरे हृदय को पीड़ा पहुँचाती हैं। फिर मैं देश उन देशोका ईर्षापात्र हो गया। भारतवर्ष सैनिकभारतके ज्ञानी महात्माओंका चिन्तन करता हूँ, जिन्हो वादियोंका देश नहीं था । मनष्यताके प्रति आदरबुद्धि नाज मे २५ शताब्दी पहले हिन्दुस्तान के लोगों को ने ही उसे साम्राज्यवादित्व की आकाक्षांसे बचा लिया । वह महान सदेश-देषको सहानुभूति और निःस्वार्थता वह महान राजनीतिक सत्य था, जिसे बुद्ध ने अपने में जीता-दिया था।
वचनों में व्यक्त किया था कि "विजेता और विजित ___ मै इतिहास के पृष्ठोको नाश और क्षयसे माछा- दोनों ही असुखी हैं । विजित अत्याचारके कारण और वित पाता हूँ। युद्ध ' नाश । धार्मिक प्रात्यचार ! विजेता इस सरके मारे कि विजित कहीं फिर न उठ अपनी जीवन यात्रामें हमने अहिंसा को अपना लक्ष्य ठे और उसपर विजय प्राप्त करे।" भारतवर्षने कभी नही रखा। हमारे भोजन में. हमारे व्यापारमे और किसी देश को गुलाम बनाने का प्रयत्न नहीं किया।