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पाश्विन, कार्तिक, बीरनि०सं०२४५६]
श्व० सात निव
రకమును మనము మనం श्वेताम्बर-सम्मत सात निव
[ लेखक-श्री० पं० शोभाचन्द्रजी भारिल्ल, न्यायनीथ ]
वचनकी यथार्थ बातको छिपाकर, अन्यथा प्ररूपणा ऊपर निन्हवींका जा समय विशेषावश्यक भाष्यक ' करनेको 'निहव' कहते हैं और जो इस प्रकार अनुमार बनलाया गया है उसे ठीक माननमें अनेक अ सत्यका अपलाप करता है वह भी 'निलव' कहलाता ड़चनें हैं । यदि इस समयको ठीक मान लिया जाय तो है। श्वेताम्बर मम्प्रदायमें ऐस सात निन्हव मान गये 'ठाणांग' (स्थानाज) सूत्र में इनका नाम पाना असंभव हैं, जिनमेंसे दोका प्रादुर्भाव तो भगवान महावीर की था। क्योंकि ठाणांग तीसग अंग है और वह निहवोंसे मौजदगीमें ही हो गया था और शेप उनके बाद उद्- पहले ही बन चुका होना चाहिए । इस लए या तो यह भूत हुए हैं। 'स्थानाङ्ग' सत्रमें सातांके नाम,स्थान और समय ग़लत है या फिर स्थानान सूत्रको वीरनिवाणक मान्यताका निर्देशमात्र किया गया है परन्तु टीकामें ५८४ वषेस भी बाद का बना हुआ मानना पड़ेगा ।
और विशेषावश्यक भाष्यमें पग विवरण है।हम यहाँ यदि यह कहा जाय कि भगवानने केवलज्ञान-द्वारा पाठकों को उनका वह विवरण संक्षेपमें देना चाहते हैं। भविष्य में होने वाले निहवों का जिक्र कर दिया होगा, विवरण यद्यपि मनोरजक है और कुछ ज्ञातव्य बातों तो यह तर्क भी ठीक नहीं है। क्योंकि पानाम" को भी लिये हुए है तथापि यह निश्चय है कि उसमें 'भविम्मई' या इस प्रकार का अन्य भविष्यकालीन कल्पनाका भी बहतसा भाग शामिल है। अतः नि क्रियापद नहीं है वग्न स्पष्ट शब्दाम 'इत्या' हान्या वोंके नामादिक के साथ भाष्यमें उनकी उत्पत्तिका जो पद * दिये है, जो भतकालीन है और लिखनेस पहने समय बतलाया गया है वह इस प्रकार है :- ही हो चकने की निःसन्देह घोषणा करते हैं। निहव प्राचार्यनाम उत्पत्तिस्थान समय* अब हम साना निहवांका मंचित विवरण क्रमशः १ बहुरत जमालि श्रावस्ती १४ वर्ष बाद उपम्धिन करने है:२ जीवप्रदेश तिष्यगुप्त ऋषभपर ५६., * स्थानान का मूल पाठ--"ममणम्म भगवश्री (गजगह)
महावीरम्म नित्थंमि मस पवनणनिराहगा पं०(पण्णमा) ३ अव्यक्त आषाढ श्वंतविका १४ ,.* नं (नं जहा ) बहुग्ना जीवपनेमिया अवत्तित्तामाम ४ समुच्छेद अश्वमित्र मिथिला २०, छइता दाकिग्निा नगमिता श्रवद्धिता मि गं ५क्रिय गंग उल्लकातीर २६८. मत्तगह पश्यनिगहगाणं मत्त धम्मातरिता हत्था, ६ त्रिराशि षडुलक पुनरन्तरतिका ५४४ ,
तं-जमालि नीसगुत्ते श्रामाद श्राममिले गंगे छला ७ अबद्धता गोष्ठामाहिल दशपुर ,५८४ ,
" गोदामाहिले, एतेमि णं मत्तणहं पवयणनिराहगागं
सत्तप्पत्तिनगरा होत्था, तं०-सावत्थी उसमपरं मेत__ * प्रादिके वानिकों का समय महावीर को केवलज्ञान होन विता मिहिलमल्लगावीरं परिमंतरंजि इसपर गिगहके बावका और मत के पक्किा मपय मुक्ति होने के बाद का है। गप्पनिनगगई" (सूत्र ५८७)।