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वर्ष १
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ॐ अर्हम्
अनेकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्ध - जात्यन्ध-सिन्धुर-विधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ —अमृतचन्द्रसूरिः ।
समन्तभद्राश्रम, क़रौलबाग़, देहली।
आश्विन, कार्तिक, सं० १९८७ वि०, वीर निर्वाण सं० २४५६
ईश-विनय
(१)
पतित उधारक शिवमुल्यकारक, स्वामी करुगा लीजे । हम भ्रमत चतुर्गति हारे, नहिं तुम बिन कोउ दुम्ब टारे । करुणासागर सबगणआगर, भवदधि पार करीजे ॥ पतितउधारक शिवसुखकारक, स्वामी करुणा लीजे ॥ (२) मरी अरु कहतसाली सब, हमको श्र मनाती हैं । बलायें जो कि हैं सारी, हमको आ दबाती है ॥ कपायें फट नादारी, सदा हमको जलाती हैं। गई भारतकी वह हालत, जो इतिहासें जनाती हैं ॥
यह भारत वर्ष हमाग, सहे दु:ख अनेक प्रकाश |
यह भारत नैया पार लगैया, करुणाकर मुख दीजे ॥ पतितधारक शिवसुखकारक, स्वामी करुणा लीजे ॥
*पमनलालजी से कि 'धर्मपाल' नाटकका एक प्रश
१) किरण
किरण ११,१२
(३)
कला-कौशल हमारा सत्र, गये हैं भूल अरसे से । उठी तत्वोंकी चर्चा शांक ! भारतके मदरसेसे ॥ जो था दुनियाका शिक्षक, वह अविद्याबश सहे सवारी !. निकलते हैं सहस्रो दाम, बन बनके मदरसेसे ॥ हम ज्ञान-बुद्धि कर हीना, पर-बन्धन फँस भये दीना ।
यह कुमति हमारी नशे दुम्बारी, सुमतिज्ञान अब दीजे।। १०
(४)
वाकं व्यर्थव्यय सब, रूपा हो बैठ हैं खाली । मिटाया धर्म सब अपना, विदेशी चीनी स्वा डाली || स्वदेशी को घृणा से देख, अपनी नाक कर डाली ॥ प्रभो ! करुणा करो हम पै, कियेकी हम सज़ा पाली ।। हम वैर-विरोध मिटावें, निज भारत देश जगावें ।
यह 'मन' हमारा करे पुकारा, भारतकी सुधि लीजे ॥ १०