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________________ ५५४ अनेकान्त जैन - सम्बोधन जैनियों ! किस धुन में हो तुम, क्या खबर कुछ भी नहीं ? हो रहा संसार में क्या, ध्यान कुछ इस पर नहीं ! म्ले और अनार्य जिनको, तुम बताते थे कभी ; देख लो, किस रंग में हैं, आज वे मानव सभी ॥ १ ॥ और अपनी भी अवस्थाका मिलान करो जरा । पूर्व थी वह क्या ? हुई अब क्या ? विचार करांजरा है कहाँ वह ज्ञान-गौरव, राज्य-वैभव श्रापका ? वह कहाँ बहुऋद्ध चलंकृत तप, विनाशक पापका ? २ वृष अहिंसा आपका वह उठ गया किस लोक में ? प्रेम पावन आपका सब, जा बसा किस थोक में ? है कहाँ वह सत्यता, मृदुता, सरलता आपकी ? वह दयामय-दृष्टि और परार्थपरता सात्विकी ? ३ ॥ पूर्वजों के धैर्य-शौदार्य-गुण, तुम में कहाँ ? है कहाँ वह वीरता, निर्भीकता, साहम महा ? बाहु-बलको क्या हुआ ? रण-रंग-कौशल है कहाँ ? हो कहाँ स्वाधीनता, दौर्बल्यशासन हो जहाँ ? ४ ॥ वे विमान कहाँ गये ? कुछ याद है उनकी कथा ? बैठ जिनमें पूर्वजोंको, गगनपथ भी सुगम था ? है कहाँ निर्वाह प्रणका ? और वह दृढ़ता कहाँ ? शीलता जाती रही, दुःशीलता फैली यहाँ !! ५॥ उठ गई सब तस्वचर्चा, क्या प्रकृति बदली सभी ! स्वप्न भी, निज अभ्युदयका, जो नहीं श्राता कभी ! खो गया गुण-नाम सारा, धर्म-धन सब लुट गया ! आँख तो खोलो जग, — देग्वा सवेरा हो गया !! ६ ॥ धर्म - विष्टर पर विराजीं, रूढ़ियाँ आकर यहाँ, धर्म हीके वेपमें, जो कर रहीं शासन महा । थीं बनाई तुम्होंने ये, निज सुभीतके लिए, बन गये पर अब तुम्हीं, इनकी गुलामीके लिए !!७ देखिए, मैदाने उन्नतिमें कुलांचे भर रहे, कौन हैं, निज तेजसे विस्मित सवोंको कर रहे ? नव-नवाविष्कार प्रतिदिन, कौन कर दिखला रहे ? देव-दुष्कर कार्य विद्युत्-शक्तिसे करवा रहे ? ॥८॥ [वर्ष १, किरण ११, १२ हो रहा गुणगान किनके, यह कला-कौशल्यका ? बज रहा है दुन्दुभी, विज्ञान - साहस- शौर्यका ? कौन हैं ये बन रहे, विद्या- विशारद आजकल ? नीति-विद्, सत्कर्म - शिक्षक, पथ-प्रदर्शक आजकल ? ९ || सोचिये, ये हैं वही, कहते जिन्हें तुम नीच थे, धर्मशून्य असभ्य कह कर, आप बनते ऊँच थे । सद्विचाराचार के जो, पात्र भी न गिने गये, हा डाला उसी दम यदि, कभी इनसे छू गये ॥ १० ॥ अनवरत उद्योग औ, श्रात्म-बल- विस्तार से, अभ्युदय इनका हुआ है, प्रबल ऐक्य- विचारसे । स्वावलम्बनसे इन्हें जो, सफलता अनुपम मिली; शोक ! उसको देख करके, सीख तुमने कुछ न ली ।। ११ ।। आत्मबल गौरव गँवाया, भूल शिथिलाचार में; फँस गये हो बेतरह तुम, जाति-भेद-विचार में ! साथ ही, अपरीतियोंका जाल है भारी पड़ा ; हो रहा है कर्मबन्धन-से भी यह बन्धन कड़ा !! १२॥ तोड़ यह बधन सकल, स्वातंत्र्य-बल दिग्वलाइए ; लभ गौरव जो हुआ, उसको पुनः प्रकटाइए । पूर्वजों की कीर्तिको बट्टा लगाना क्या भला ? सच तो यों है, डूब मरना ऐसे जीवन से भला ॥ १३॥ जातियाँ, अपनी समुन्नति हेतु, सब चंचल हुई; पर नया जोश तुममें, क्या रगें ठिठरा गई ? पुरुष हो, पुरुषार्थ करना, क्या तुम्हें आता नहीं ? पुरुष-मन पुरुषार्थसे, हरगिज न घबराता कहीं ॥ १४ ॥ जो न आता हो तुम्हें वह, दूसरोंम सीख लो ; अनुकरण कहते किसे, जापानियोंसे सीख लो । देखकर इतिहास जगके, कुछ करो शिक्षा ग्रहण ; हो न जिससे व्यर्थ ही संसार में जीवन मरण ।। १५ ।। छोड़ दो संकीर्णता, समुदारता धारण करो. पूर्वजोंका स्मरण कर, कर्तव्यका पालन करो 1 श्रात्म बल पर जैन-वीरो ! हो खड़े बढ़ते रहा; हो न ले उद्धार जब तक, 'युग प्रताप' बने रहो ॥ १६ ॥ - 'युगवीर'
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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