SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चैत्र, बीरनि० सं०२४५६] पुरानी बातों की खोज दमरों को पढ़ाते हैं, अथवा सुनाते हैं वे सब अपने इसके विरुद्ध है। उसमें गुणवतों को १ दिग्विरति, २ कोका नाश करते हैं और क्रमशः सिद्धालय को जाते पेशविरति और ३ अनर्थदण्डविरनिके रूपमें वर्णन हैं-मुक हो जाते हैं। किया है और शिक्षाप्रतोंके नाम ? भोगविरति, . ___ यहाँ ग्रंथकर्ताका नाम 'वसुनन्दिसूरि' देने और परिभोगनिवृत्ति, ३ अतिथिसंविभाग और ४ मा स्वना ग्रंथ की समाप्तिसूचक संधि में उन्हें 'सिद्धान्ती' भी ये चार नाम दिये गये हैं । यथा:-- प्रकट करने से एक दम यह प्रश्न पैदा होता है कि "पुन्नत्तरदविखणपच्छिमासकाऊण जोयणपमाणं क्या यह प्रन्थ उन्हीं वसुनन्दी प्राचार्यका बनाया हुआ परदो गमणणियत्ती दिसिगणपयं परमं ॥ है जो 'वसुनन्दिभावकाचार (उपासकाध्ययन)' के वयभंगकारणं होइ जम्मि देसम्मि तस्य जियपेण फर्ता है और विक्रम की १२ वीं शताब्दीके उत्तरार्धमें कारगमणणियत्ती तंजाण गुणम्पयं विदियं । हुए हैं ? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिये ग्रंथ पर जो अयदंडपासविक्रय कूडतुलामाण कूरसत्ताणं । मरमरी नज़र डाली गई तो मालम हुआ कि, इसके नं मंगहोण कारनं जाण गणव्ययं तिटियं ।। प्रतिमा, विनय और वैय्यावृत्य जैम प्रकरणों में, यद्यपि, बहुत-सी गाथाएँ वसुनन्दि श्रावकाचार की पाई " भोयविगह भणियं परमं सिक्खापयं सने। जाती हैं परन्तु फिर भी यह ग्रंथ उन वसुनन्दिप्राचार्य "नं परिभोयणिनि पिदियं मिषम्यापयं जाणे। का बनाया हुआ नहीं है, क्योंकि इसका कितना ही "अनिहिस्म संविभागोतिदियं सिक्खावयं पूर्णप पणन वसुनन्दिश्रावकाचार के विरुद्ध है, जिसके उदा "मल्ले ग्वणं चत्वं मन मिरवावयं मणियं ।। हरणस्वरूप दो गाथाएँ नीचे दी जानी हैं:-- इसम म्पष्ट है कि या अन्य वमुन्द्रिभावकाचार दिसिविदिसिपश्चखाणंभणन्थदंडाणहोइपरिहाग के कर्ताका नहीं है। उन दोनों गाथाएँ (नं. ५५, ६) भोभोवभोयसंखा एए. गणव्यया निरिण॥५४ एम प्रन्थकाकी अपनी चीज भी नहीं है बल्कि देवे धुनहतियाले पव्वे पवेय पोसहवासी देवसेनाचार्य के 'भावसंग्रह' प्रन्थ की गाथा है, जो मतिहीण मंविभाभी मरणंने कुणइ मलिहणं॥६० उममें क्रमश ३५४, ३५५ नम्बर पर मज है । इमी तरह और भी कितनी ही गाथाएँ. दूमरे प्रथा की जान इनमें से पहली गाथामें तीन गुणप्रताके नाम परती है। मालम होता है यह अन्य कुछ तो बसुनन्दिा दिग्विदिकप्रत्याख्यान, २ अनर्थदंडपरिहार और ३ __ श्रावकाचारकं कतिपय प्रकरणोंकी काट-छाँट करके, भोगोपभोगसंख्या दिये हैं। और दूसरी पाथामें चार पर उधर से लेकर और कुछ अपनी तरफमे मिला शिक्षाबतोके नाम ६ त्रिकालदेववन्दना (सामायिक), कर बनाया गया है। भाचर्य नहीं जो यह पंथ किमी २ प्रोषधोपवास,३ अतिथिसंविभाग, भोर ४ स खाना व्यलिविशेषडारा प्रयोगनविरोष की सिद्धि के लिये बतलाए हैं। परन्तु बसुनन्दिभावकाचार का विधान . . . .. : ---- *देखो, माणिकतामणमाला का भावममहाद' नाम का *"इलिब नन्दिसिद्वान्वीविरचिततत्त्वविवार:समामः।" २० को मथ ।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy