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________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनिःसं०२४५६] जैनियोंका अत्याचार ४३७ नि, जैनियोंने यह भी नहीं समझा कि परिस्थिति दृश्योंसे जैनियोंके वनहदय पर कुछ भी चोट नहीं कितने महत्त्वकी चीज है । क्या परस्थिति कभी उपेक्ष- लगी! माता पर इस प्रकारके अत्याचार करते हुए गीय हो सकती है ? कदापि नहीं । जहां चारों ओरका जैनियोंका हृदय ज़रा भी कम्पायमान नहीं हुआ और जलवाय दूषित हो वहाँ कदापि आरोग्यता नहीं रह इन्हें कुछ भी लज्जा या शर्म नहीं आई !! इन्होंने उलटी सकती। जहाँ चारों ओर मिथ्याष्टियों और पापाचा- यहाँतक निर्लज्जता धारण की कि अपने इन अत्याचारियोंका प्राबल्य हो वहाँ जैनी भी अपना सम्यक्त्व गेंका नाम 'विनय' रख छोड़ा! वास्तव में इनका नाम और धर्म कायम नहीं रख सकतं । यदि जैनियांने इस विनय नहीं है, ये घोर अत्याचार हैं और न ढाई हाथ परस्थितिके महत्वको ही समझ लिया होता तब भी वे दूरसे जोड़ने या चावल के दाने चढ़ा देनका नाम ही अात्मरक्षाकं लिए ही दूसरोंकी स्थितिका सुधार करना विनय है। जिनवाणीका विनय है-जैनशास्त्रोंका अपना कर्तव्य समझते, अवश्य ही दृमरोंका धर्मकी पढ़ना-पहाना, उनके एताविक - उनकी शिक्षाशिक्षा देनेका प्रयत्न करते और कदापि धर्मप्रचारके - कि अनमार-चलना और उनका मर्वत्रप्रचार कार्यसे उपेक्षित न होते; परन्तु महर्पियों द्वारा संरक्षित वीरजिनेन्द्रकी सम्पत्तिको पाकर जैनी ऐसे कृपण करना इस वास्तविक विनयस जैनी प्रायः कोसोंदूर वन-इनमें चित्तको कठोर करनेवाली ऐसी धार्मिक रह और इसलिए इन्होंने मानाका घोर अविनय ही नहीं कृपणना आई कि दूसरोंको उस सम्पनिम लाभ पहुँ- किया, बल्कि कितने ही जैनशाम्रोंका लोप भी किया चाना तो दूर रहा, ये खुद भी उसमें कुछ लाभ न उठा । है। सीका फल है जो आज बहुतम शास्त्र नहीं मिमकं । यदि इस परमात्कृट जैनधर्मको पाकर जैनी र " लतं । इनकी इम विलक्षण विनयत्ति को दंग्य कर ही अपना ही कुछ भला करत तो भी एक बात थी; परन्तु एक दुःखित हृदय कविने कहा है:कृपणका धन जिस प्रकार दान और भांगमें न लगकर बम्त बंधे पड़े है 'अल माफन नक ! नतीया गति (नाश) को प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार चावल चढ़ावें उनको वम इतने हैं काम के॥" जैनियोंन जैनधर्म भी तृतीयागतिको पहुँचा दिगा -न इसीप्रकार जैनियाने स्त्राममान पर जो अत्याचार आप इससे कुछ लाभ उठाया और न दूमगंका उठान किया है वह भी कद कम नहीं है। इन्होंने लड़कियोंदिया, वैसे ही इमको नष्ट-भ्रष्ट और लाप्राय कर को बेचा, धनक लाल चग अपनी मकमार बालिकाओंदिया-और जिस प्रकार बादल सयके प्रकाशको गक को यमकं यजमानांक गल बांध उन्हें हमंशाकं लिए लेते हैं उसी प्रकार इन धार्मिक-कृपणान जनधमक पापमय जीवन व्यतीत करनको मजबूर किया,अनमेल प्रकाशको श्राच्छादित कर दिया ! सम्बन्ध करके स्त्रियोंका जीवन दुःग्वमय बनाया और जैनियोंन जिनवाणी मान के साथ जंमा मलक उन्हें अनेक प्रकारका दुःख और कष्ट पहुँचाया । पर किया है उसको याद कर के ता हृदय काँपता है और इन मब अत्याचागंका रहने दीजिए। जैनियान इन शर्गक गंगटे खड़े हो जाते हैं। इन्होंने मानाको उन सब अत्याचागंस बढकर बीममाज पर जो भाग अअँधेरी कोठरियोंमें बंद करके रक्खा, जहाँ गेशनी भार त्याचार किया है उसका नाम है स्त्रीसमाजको अशिहवाका गुजर नहीं; उसका अंग चहामं कुतरवाया और क्षित ग्ग्वना । त्रियों और बालिकाओं को विद्या न दीमकोंको खिलाया; माता गलती है या मड़ती, जीती है या माती, इसकी उन्होंन कल भी पर्वाह नहीं की। पढ़ाकर जैनियान उनके साथ बड़ी ही शत्रताका व्यहजागं जैनग्रंथांकी मिठी हो गई, हजारों शास्त्र चहों वहार किया है । जिम विद्या और ज्ञानके विना मनुष्य और दीमकों के पेट में चले गये, लाखों और करोड़ों निद्रित, अचेत, पशु और मृतकक तुल्य वर्णन किये गनप्य मातवियांग दुःखस पीड़ित रहे; परन्तु इन ममम्न १ विद्याओं-- किसानों तथा कला-कौशल के ।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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