________________
बैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं०२४५६] तत्त्वार्थस्त्रकं प्रणेता उमास्वाति
३८. उक्त बातों में से तीसरी बात श्यामाचार्य के साथ शाखाका उल्लेख है १२; यह शाखा आर्य शांतिश्रेणिक की उमास्वाति के सम्बन्ध की श्वेताम्बरीय मान्यताको से निकली है । आर्य शांतिश्रेणिक आर्य सहस्ति से असत्य ठहराती है क्योंकि वाचक उमास्वाति अपनेको चौथी पीढी में आते हैं। आर्य सुहस्तिके शिष्य को भीषणि कह कर अपना गोत्र 'कौभीषण' सूचित सुस्थित-प्रतिबद्ध और उनका शिष्य इंद्रदिन्न. करते हैं। जबकि श्यामाचार्य के गुरुरूप से पट्टावलि में इंद्रदिन्नका शिष्य दिन्न और दिन का शिष्य शातिदाग्विल हुए स्वाति' को 'हारित' गोत्रका वर्णन किया श्रेणिक दर्ज है । यह शांतिश्रेणिक आर्य वज्र के गुरु गया है, इसके सिवाय तत्त्वार्थ के प्रणेता उमास्वातिको जो आर्य सिंहगिरि, उनका गुरुभाई था; इसमे उक्त प्रशस्ति स्पष्टरूपसे 'वाचक' वंश में हुआ बतलाती वह आर्य वन की पहली पीढ़ी में आता है । आर्य सुहहै; जब कि श्यामाचार्य या उनके गुरुरूपसे निर्दिष्ट स्तिका स्वर्गवाससमय वीरात् २९१ और वनका स्वर्ग'म्बाति' नामके साथ वाचकवंश-सूचक कोई विशेषण वाससमय वीरात् ५८४ उल्लेखित मिलता है । अर्थात् पट्रावली में नज़र नहीं पड़ता । इस प्रकार उक्त प्रशस्ति सुहस्तिक स्वर्गवास-समयसे वन के स्वर्गवास-समय एक तरफ़ दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराओंमें चली नक २९३ वर्षके भीतर पाँच पीढ़ियाँ उपलब्ध होती हैं। आई हुई भ्रांत कल्पनाओंका निरसन करती है और इस तरह सरसरी तौर पर एक एक पीढ़ी का काल दूसरी तरफ वह ग्रन्थकर्ता का संक्षिप्त होत हुए भी साठ वर्षको मान लेने पर सुहस्तिसे चौथी पीढ़ीमें होने मच्चा इतिहास प्रस्तुत करती है।
वाले शांतिश्रेणिक का प्रारम्भ काल वीरात् ४७१ का समय
आता है । इस समयके मध्यमें या थोड़ा आगे पीछे
शांतिश्रेणिक सं उच्चनागरी शाखा निकली होगी । वाचक उमास्वातिक समय-सम्बन्धमें उक्त प्रशस्ति ।
वाचक उमाम्वाति, शांतिणिककी ही उचनागर शाण्या में कुछ भी निर्देश नहीं है, इसी तरह समय का ठीक
में हुए हैं ऐसा मानकर और इस शाखाके निकलनका निर्धारण कर देने वाला ऐसा दूसरा भी कोई माधन
जो ममय अटकल किया गया है उसे स्वीकार करके. अभी तक प्राप्त नहीं हुआ; ऐसी स्थिति होते हुए भी
। यदि आगे चला जाय तो भी यह कहना कठिन है कि इस सम्बन्धमें कोई विचार करनेके लिये यहाँ नीन
बा. उमाम्बानि इम गाग्वाके निकलनं बाद कब हा॥ बातोंका उपयोग किया जाता है-१ शाखानिर्देश, .
हैं क्योंकि अपनं दासागर और विद्यागमके जी प्रचीनसे प्राचीन टीकाकारों का समय और ३ अन्य
नाम प्रशम्निमें उन्होंने दिये हैं उनमें में एक भी कर दार्शनिक ग्रंथों की तुलना।
मत्र की स्थावरावलिमें या उस प्रकारकी किमी दूर्ग प्रशस्तिमें जिस 'उच्च गरशाग्वा' का निर्देश है - वह शाखा कब निकली यह निश्चयपर्वक कहना कठिन "थेरेहिंतो णं अजसंतिमेणियहिंतो मादरसा है, तो भी कल्पसूत्र की स्थविरावलीमें उच्चानागरी गत्तेहिनो एत्थ णं उच्चानागरी साहा निग्गया।"
-मूल कल्पसूत्रस्थविरावलि पृ०५५ । मायं शांति११ "हारियगुत्तं साइंच वंदिमो हारियं च सामज"॥२६
श्रेणिककी पूर्व परम्परा जाननेके लिये इसमे -नन्दिसूत्र की स्थविरावली पृ० ४१
भागेके कल्पसूत्रके पन देखो।