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अनेकान्त
वर्ष १, किरण ११, १२ उपरिनिर्दिष्ट गण-मुख्य-व्यवस्था-द्योतक (अपेक्षावाद- हो सकते हैं । जैसे एक ही व्यक्ति भिन्न भिन्न विवयोतक) 'स्यात्' यह अव्यय उक्त 'अस्ति' और 'नास्ति' क्षाओंसे एक ही कालमें परस्पर सापेक्ष रीतिसे पिता, के साथ जोड़ा जाता है। अर्थात् जिस समय आप पुत्रत्वादि विरोधी धर्मोंका आधार कहा जाता है उसी किसी वस्तुको सामान्यरूपस विवक्षित करके प्रतिपा- प्रकार प्रत्येक पदार्थ सामान्य विशेष रूपसे विधिनिदित करना चाहते हैं और विशेषरूपसे प्रतिपादन नहीं षेधोंके द्वारा अर्थात् अस्ति-नास्ति-रूप परस्पर विरोधी करना चाहते हैं, उस समय वह सामान्य रूपसे है, धर्मों के द्वारा एक ही कालमें प्रतिपादित किया जाता है। इस लिए विधिवाचक शब्दकं साथ 'स्यान अस्ति' सामान्य विशेषके ऊपर अस्ति-नास्ति-रूपसे जैसे ऐसा प्रयोग करते हैं और विशेष रूपस नहीं है इस विचार किया उसी प्रकार नित्यानित्यत्व, एकानेकत्व, लिए निषेधवाचक शब्दके साथ ' स्यान्नास्ति' ऐसा तथा दैवपुरुषार्थवाद आदिक ऊपर भी अनकान्तवाद प्रयोग करते हैं । क्योंकि जिस समय सामान्यस का प्रयोग करनेसे वास्तविक दार्शनिक पद्धतिका बोध किसी वस्तुका प्रतिपादन किया जाता है उस समय हो जाता है। स्वयमेव यही सिद्ध हो जाता है कि उस समय उस प्राचार्यों ने जब संभव भंगोंकी अपेक्षा इसी नयवस्तुका विशेषरूपस प्रतिपादन इष्ट नहीं है । इस ही वादका निरूपण किया है तब सात भंगोकं म्वरूपका प्रकार जिस जिस समय जिस जिस अपेक्षा जा उलेख किया है। उस शैलीका भी किसी समय पाठकों जो विधिस्वरूप वाक्य बोला जायगा उस उस समय का परिचय करानका प्रयत्न करूँगा। इस लेखमें अनंउस उस अपेक्षा प्रत्येक विधात्मक वाक्यका स्वयः कान्तदृष्टि के साथ सिर्फ विधि-निषेधात्मक भंगका ही मेव यह अर्थ निकाला जायगा कि विवक्षित विधिक
खुलासा किया गया है। अनुसार ही यह विधिरूप है, इतर अविवक्षित अपे
उपसंहार क्षाओंसे नहीं है । इसी प्रकार जब जब आप किसी चीजका निषेध करना चाहेग उस उस समय उस उस अनेकान्त' के विषयमें पूज्य आचार्योने बड़े मनोनिषेधात्मक वाक्यके प्रयोग करते समय यही अर्थ हर भावोंके चित्र खींचे हैं । वास्तवमें उनके पूर्वपक्ष समझना चाहिए कि यह वस्तु अमुक अपेक्षा नहीं है और उत्तरपक्षोंद्वारा जैसा अशेष दर्शनोंका रसास्वाद इस लिए ऐसे निषेधात्मक प्रयोगमें भी यह स्वयमेव हो कर आनंद मिलता है वैसा विशेष विशेष दर्शनोंके सिद्ध होता है कि अमुक विवक्षावश उसका निषेध है, पठन पाठनसे भी वह प्राप्त नहीं होता। इसकी महिमाअन्य सर्व विवक्षामांस निषेध नहीं है। सारांश यह है का भी प्राचार्यों ने बड़ी ग्वबीस वर्णन किया है जिस कि विवक्षित विधिमें ही अविवक्षित निषेधोंका सहयोग का कितना हो परिचय पाठक 'अनेकान्त' की पिछली है-अविनाभाव है-और विवक्षित निषेध में अविव- कुछ किरणों में प्राप्त कर चुके हैं। 'अनेकान्त'की पहली क्षित अंशोंकी विधि गर्भित है, इसीको शास्त्रीय भाषा किरणमें - 'जैनीनीति' नामक सम्पादकीय नोटमेंमें यों कहा है कि विधिनिषेधसापेक्ष, तथा निषेधविधि- श्रीअमृतचन्द्रसूरिका यह वाक्य भी सुन्दर व्याख्यासापेक्ष होता है । विधि व निषेध निरपेक्ष सिद्ध नहीं सहित प्रकट किया गया है, जो अनेकान्तनीति अथवा