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अनकान्त
[वर्ष १, किरण ११, १२
वाचक वंश [लम्वक-श्री० मुनि दर्शनविजयजी |
• 'अनकान्त' की किरण नं. ६, ७ में प्रज्ञाचन पदवीमे न तो उल्लखित किया है और न उसका इशारा पं० सुग्यलालजीका "तत्त्वार्थसत्रके प्रणेता उमास्वाति" ही किया है । मिर्फ अपने गरुके गुरुका, वाचनाके मामका निबन्ध छपा है । लेग्य विद्वत्तापर्ण है, किन्तु प्रारुका, वाचनागरुका व अपना 'वाचक' पदवीसे उसकी कितनी ही बालोचना अपने मनःस्थित विचारों परिचय दिया है । देग्विये प्रशस्तिका वह पाठ (पृष्ठ के असरको लिये हुए है, जिमके विषयमें मत्य ३८७ ) इम प्रकार है:स्वरूप जाँचने के लिये उपलब्ध प्रमाणीको जननाके वाचकमुख्यस्य शिवश्रियःप्रकाशयशसःप्रशिष्येण । मन्मुख रख देना उचित और जरूरी जान पड़ता है। शिष्येण घोषनदिक्षमणस्यैकादशांगचितः ।।१।। अनः प्रस्तुन लेग्बमें इमी विषयका यत्किंचित प्रयास वाचनया च महावाचकक्षमण मुण्डपादशिष्यस्य । किया जाता है।
शिष्येण वाचकाचार्यमूलनाम्नः प्रथिनकी ।।२।। ___पडितजी लिखते हैं कि- “उमास्वाति अपनको इद मुनांगरवाचकेन सन्वान कम्पया इन्धम् । 'वाचक' कहते हैं, इसका अर्थ 'पूर्वविन' करके पहले तत्वार्थाधिगमाख्यं स्पष्टमुमाम्बातिना शास्त्रम् ॥५॥ से ही श्वेताम्बराचार्य उमाम्बातिका पूर्ववित्' रूपसे इम पाठ में माफ माफ लिखा है कि-जा महान पहिचानत पाए हैं; परंतु यह बात स्नास विचारनं यशस्वी वाचमुख्य 'शिवश्री' का प्रशिष्य है, ग्यारह योग्य मालुम हाती है क्योंकि उमास्वाति स्वद ही अपने अंगके धारक 'घोषनन्दि' का शिष्य है, विद्याग्रहणकी दीक्षागुरुको वाचक * रूपमे उल्लेखित करने के साथ दृष्टिसे महावाचक 'मुंडपाद' का प्रशिष्य है, वाचकाही ग्यारह अंगके धारक कहते हैं। अब यदि वाचक चाय मूल' का शिष्य है व उचानागर शाखाका 'वाचक' का अर्थ भार पकं टीकाकारोंके कथनानमार 'पर्वविन' है, उसी उमास्वातिन जीवोंकी अनुकम्पासे यह तरवाहोता तो उमाम्बाति अपने गुरु की पूर्व विन्' कहने, धिगम नामका शास्त्र संग्रह किया है। मात्र एकादशांगधारक न कहने ।" (पृष्ठ ३९४) इस प्रशस्तिसे स्पष्ट होता है कि जो पूर्ववित् थे
पंडितजीने यह पैरेमाफ लिख नो दिया है किन्तु उन्हींका 'वाचक' शब्दसे परिचय दिया है, ग्यारह अंगमास्वातिकी प्रशस्ति पर पूर्णलक्ष दियामालम नहीं होता, के धारकका 'वाचक' रूपसे उल्लेख नहीं किया है। क्योंकि स्वद उमाम्बातिजी ने अपने गुरुको 'वाचक' और भी मालम होता है कि यदि उमास्वाति
• नहीं मालूम इस स्थान पायक' शब्द पर सम्पादकजी महाराजके दीक्षागुरु 'वाचक' होते-पर्ववित होतेने फुटनोट क्यों मा बिया, स कि यह बात उनकी जांस तो उमास्वातिको दूसरे वाचककी वाचना लेने की
आवश्यकता नहीं थी । उमास्वाति महाराजके दादा.