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________________ आश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं० २४५६ ] गुरु 'वाचक' हो गये थे, परंतु उनके गुरु ग्यारह अंगके धारक ही थे, इसी कारण दादागुरुके अभाव में उन्होंने वाचक 'मूल के पास पूर्वका अध्ययन किया और वाचनागुरुके रूप में उन्हींका नाम जाहिर किया। विचार करने से यह संबंध ठीक मालम पड़ता है। वाचक-वंश पंडितजीन उमाभ्वानिजीका सत्तासमय विक्रमकी १ली में ४थी शताब्दी तकका मध्यवर्ती काल अनुमान किया है और जैन ग्रंथांमें विक्रमकी छठी शताब्दी नव विन होनेका उ * समयसम्बंधी इस श्र लोचना भी उमाम्वाति वाचक के 'पूर्वविन' होनेका कोई विरोध नहीं श्राता । पर्वज्ञानका विरुद्ध होनेके बाद 'वाचकवंश' या 'वाचक' शब्दका कोई पता लगता नहीं है, इससे भी 'वाचक' और 'पर्वविन' का सम्बन्ध ठीक मालूम होता है। एपमा कर्णाटकाकी टवी जिल्द में प्रकाशित 'नगर' नालके शिलालेख में भी लिखा है कि तत्वार्थ सूत्रकर्त्तारमुपास्वातिमुनीश्वरं । श्रुतकेवलि-देशीयं वन्देऽहं गुणमंदिरम् ॥ - अनेकान्त पृष्ठ २७०, ३९५ । इस लेख में वाचकजीको श्रतकंवली समानका विशेषण दिया है जो 'पति' स्वरूपको ही व्यक्त करता है । इसलिये इस पर आना ठीक है कि वाचक उमास्वाति 'वाचक' थे इसी कारण 'पूर्वविन' थे. उनके दीक्षागुरु 'पूर्ववित्' नहीं थे और वे वाचकवंशके नहीं थे किन्तु उखान गरी शाखा के वाचनानायक थे, जिसका प्रादुर्भाव नंदीसुत्रांत कोटिक गणकं श्रार्य 'शांनिश्रेणिक' में हुआ था। वाचक वंश भिन्नथा और उच्चानागरी शाखा भिन्न थी । उल्लेखका यह कथन 'ताम्बर प्रयोको दृष्टिम जान पड़ता है. क्योंकि दिगम्बर प्रथम भामतौर पर पूर्वक पाठियोंका समय बीर नियामे ३४५ बाद तक माना गया है भले ही बच के कुछ ध्याचाको 'पूर्व५ढशिवेदी' भी कहा गया हो, परन्तु वे १४ में में किसी एक पूर्व भी पर पाठी नी थे और इससे पूर्व विका समय किन संत में एक भी अधिक पहलेता है। - सम्पादक 3 ༣༤༦ पंडितजी लिम्बने हैं कि ऐसे वाकवंशमें, जिसे दिगंबरपनकी कोई पक्ष न थी अथवा श्वेताम्बर कहज्ञानेका कुछ भी मोह न था, उमाम्वाति हुए हो, ऐसा जान पड़ता है।" (पृष्ठ २९ लेकिन पति जी की यह मान्यता किसी भी प्रमाणसं साबित नहीं दो सकती। मंत्री मत्रमे लिम्बा हवा वाचकवंश श्वताम्बर आम्नायमं अभिन्न है। पडितजीने आवश्यक नियक्ति की गाथा ओर after पाठ देकर गणधर और वाचकका वंश अलग अलग दिवाया है; यहाँ गणधर का अथ गच्छनायक और वाचकका अर्थ वाचनानायक - उपाध्याय है। संभव है कि एक वाचनानायक के पास दुसरे बाबायाँ के शिष्य भी आकर अध्ययन करते हो, जो वाचनानायक को भी अपने गुरु के तौर पर मानते होग। वाचककं स्थान पर उन्होंने कोई योग्य शिष्य नियन किये जाते होगे। क्योंकि नंदीमुत्रकी पट्टावलीमें सिंह वाचक के साथ ब्रह्मदीपक शाखाका उल्लेख है। यह शाखा कल्पसूत्रांत ब्रह्मद्वीपि शाम्बा होना संभावित है। अर्थात यह कल्पना सच हो तो कहना चाहिये कि एक वाचक के स्थान पर दूसरी शाम्बाका योग्य मुनि भी नियुक्त होता था। मुझे तो यह कल्पना ठीक जान पड़ती है। पंडितजी वाचकवंशके स्वरूपमें कल्पना करते है कि - "कालक्रममं जब पर्वज्ञान नष्ट हो गया तब भी इस वंशम होन वाले 'वाचक' ही कहलाते रहे।" ( पृष्ठ ३५५ ) " उसी प्रकार यह नटस्थ वर्ग जैनमुतको कंठस्थ रखकर उसकी व्याख्याओं को समझना, उस के पाठ भेदी तथा उनसे संबंध रखने वाली कल्पनाको भालता और शहद तथा अर्थसे पटन-पाठन द्वार अपने श्रतका विस्तार करना था। यही वर्ग वाचक रूपसे प्रसिद्ध हुआ ।” (पृष्ठ ३९८, ३९५ ) "इस बा चक्रवंश विद्वान् साधुयोंकी बिलकुल तुच्छ जैसी नहीं था। " ( पृ० इन उल्लेखांके लिये कर्मकांट विषयक बातों स ३९९) इत्यादि । पंडितजीके लटा सुलटा खुलामा देखना च है । वाचकवंश माधुरी-वाचनाका सूत्रधार अर्थान बागम-संग्राहक मंप्रदाय है, इसकी पड़ावली
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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