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श्राषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६ ] संबंधी अमुक नियमों के कारण से लग्न नहीं हो सकता है । उक्त कारणों से स्त्रियों की क्षति होने पर कन्याविक्रय जैसे दुष्ट हानिकारक रिवाज प्रचलित हुए है | अपनी २ मंडली (circle) की लग्न करने योग्य जैन कन्याएँ अपने २ नगर वासी लोगों के अतिरिक्त किसी भी अन्य नागरिकको न दी जायें। यदि | प्रत्येक प्रांतवासी मनुष्य इस नियम पर कटिबद्ध हो जायें तो अपने नगर व प्रांतवासी अशिक्षित एवं साधारण वर्ग को भी कन्यायें उपलब्ध हो सकें। ऐसे विचार अर्थात् कन्याएँ अपनी मंडली ( circle ) के बाहर जाने नहीं देने का इरादा इस बात का कारण चना कि उपर्युक्त जातिनियम अतीव कठोर बन गये । इसका प्रमाण यह भी है कि ये सब नियम मात्र कन्या देने के वास्ते ही किये जाते हैं जब कि स्वज्ञानीय कन्या मण्डली ( circle ) के बाहर से लाने में जग भी संकोच नहीं होता है ।
मेरे उपर्युक्त उल्लेखानुसार कई एक प्राचीन जैन जातियों के मनुष्यों ने जैनधर्म छोड़ कर वैष्णव धर्म अंगीकार किया। इस ही कारण से जैन जाति प्रति दिवस कम होती गई। इस ही सबब से बहुत सी जातियों में जैनविभाग तथा वैष्णवविभाग, इस प्रकार दो पक्ष पड़ गये । इन दोनों विभागों में परस्पर भोजन तथा कन्याव्यवहार प्रायः बंद कर दिये गये । क्योकि जिन लोगों ने वैष्णव धर्म स्वीकार किया था वे लोग अवशेष जैनों को वैष्णवधर्मानुयायी बनाने के लिए आग्रह तथा दबाव डाला करते थे । जहाँ जहाँ पर जैनां की बस्ती थोड़ी थी और वैष्णव धर्मानुयायियों का प्राबल्य था—वे अधिक संख्या में विद्यमान थे - वहाँ वहाँ पर जैनलोगोंको कन्याप्राप्ति के लिये अपना प्राचीधर्म छोडना पड़ता था । तो भी उन लोगों का अंतः
धुनिक जैन समाज की सामाजिक परिस्थिति
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करण अपने पुराने धर्म से विरक्त हो जाता था, ऐसा नहीं किन्तु वाह्य कौटुम्बिक कारणों से उन लोगों को अन्य धर्म स्वीकार करना पड़ता था । मैंन ऐसा भी सुना है कि सफ़ेद केश वाले वृद्ध लोग बारम्वार जैन मुनि महाराजों के निकट आकर रोते रोते स्वीकार करते हैं कि कुछ वर्ष पहले हम लोगों को पूर्वोक्त प्रकार के व अन्य आर्थिक कष्टों के कारण हमारे पूर्वजों के प्रियधर्म को छोड़ना पड़ा। और हमको हमारी संतति का अन्य धर्मियों के संस्कारों में पालन-पोषण होते हुए देख कर दुःख पैदा होता है ।
इसका परिणाम यह हुआ कि अंतिम १०० वर्षों में ऐसी बहुत सी ज्ञातियाँ, जो पहिले शुद्ध जैन जातियाँ थी, आज कल " जैन-ज्ञाति " कहलाने योग्य नहीं रहीं । इन ज्ञातियों में जैनों का मात्र छोटासा भाग अवशेष है, जो कि कम होता जाता है । यही परिस्थिति मौढ, मनियार तथा भावसार वणिक ज्ञातियों की है। कुछ वर्ष पहले बड़नगर के नागर वरिणकों में जो शेष जैन थे, उन्होंने भी वैष्णव धर्म स्वीकार कर लिया | क्योंकि अपनी जाति वाले जैनोंसे कन्यायें प्राप्त नहीं कर सकने पर इन नागर वणिक् जैना ने वीमा श्रीमाली ज्ञानि के जैन लोगों से विनती की श्री कि, हम लोगों को अपनी मंडली ( rele ) में सम्मिलित करो । एवं हमारे साथ भोजन तथा कन्याव्यवहार भी प्रारंभ करो। परन्तु संकुचित विचार वाले बीमा श्रीमाली जैन वणिकों ने अपने स्वामीभाइयों को साफ इनकार कर दिया। इस कारण से अंतिम नागर जैनों को जैनधर्म छोड़ना पड़ा । मेरे को यह बात पूज्यपाद स्व० जैनाचार्य श्रीमदबुद्धिसागर सग्जिी के उपर्युक्त ग्रंथ से मालूम हुई है ।
इम ही प्रकार दक्षिण की लिंगायत ज्ञानि व बंगाल