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________________ ४३४ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८, ९, १० किया, वे दुखके दिन व्यतीत करके आज अपने सत्क- जिस प्रकार कोई दुरात्मा पुत्र अपने स्वार्थमें अंधा मोका सुमधुर फल भोग रहे हैं । इससे साफ प्रगट है. होकर यह चाहता है कि मैं अकेला ही पैतृक सम्पत्तिका कि जैनियोंकी वर्तमान दशा उन अत्याचारोंका फल नहीं मालिक बन बैलूं और अपनी इस कामनाको पूरा करहै जो जैनियोंपर हुए, बल्कि उन अत्याचारोंका फल नेके लिए वह अपने पिताके समस्त धन पर अधिकार है जो जैनिये योंन दूसरोंपर किये और जो परस्पर कर लेता है-यदि पिताने काई वसीयत भी की हो तो जैनियोंने एक दूसरे पर किये । सच है, मनष्योंका उसको छिपानेकी चेष्टा करता है और अपने उन भाअपने ही कर्मों से पतन और अपने ही काँसे इयोंको.जो दूरदेशान्तरों में रहनेवाले हैं, जो नाबालिग़ उत्थान होना है। जिन जैनियोंके ज्ञान और प्राच- (अव्युत्पन्न) है, जो भोले या मूर्ख हैं, जिनको अन्य रणकी किसी समय चारों ओर धाकथी, जिन सर्व प्रकारसे पिताके धनकी कुछ खबर नहीं है अथवा जो प्राणिप्रेमनं अनेक बार जगतको हिला दिया, और जि निर्बल हैं उन सबको अनेक उपायों-द्वारा पैतृक सम्पनका राज्य समुद्रपर्यंत फैला हुआ था; आज वे ही त्तिसे वंचित कर देता है । उस इस बातका जरा भी जैनी बिलकुल ही रंक बन हुए हैं ! यह सब जैनियोंके दुख-दर्द नहीं होता कि मेरे भाइयोंकी क्या हालत होगी? अपने ही कोका फल है ! इसके लिए किसीको दोष उनके दिन कैंस कटेंगे ? और न कभी इस बातका देना-किसी पर इलज़ाम लगाना भल है। जैनियोंकी खयाल हा आता है कि मैं अपने भाइयों पर कितना वर्तमान सि.ति इस बातका बतला रही है कि उन्होंने अन्याय और अत्याचार कर रहा हूँ, मेगव्यवहार किजरूर कोई भार्ग अत्याचार किये हैं; तभी उनकीसी तना अनुचित है, मैं अपने पिताको आत्माकं सन्मुख शोचनीय दशा हुई है। क्या मुँह दिखाऊँगा । उसके विवेकनेत्र बिलकुल जैनियोंन एक बड़ा भाग अपराध तो यह किया है __ म्वार्थस बन्द हो जाते हैं और उसका हृदययंत्र संकुचित कि इन्होंने दूसरे लोगोका धर्मम वंचित रक्खा है। ये ग्बुद हो कर अपना कार्य करना छोड़ देता है । ठीक उसी ही धर्मरत्नक भंडारी और खुद ही उसके सोल प्रोप्राई प्रकार की घटना जैनियोंकी हुई है। ये अकेले ही परमटर (अकेले ही मालिक) बन बैठे । दूसरे लोगोंका पिता श्रीनीगजिनेन्द्रकी सम्पत्तिके अधिकारी बन बैठे। दूसरे समाज-वालों तथा दूसरे देशनिवामियोंको-धर्म "समस्त जीव परस्पा समान है; जैनधर्म आत्माबतलाना, धर्मक मार्ग पर लगाना तो दूर रहा, इन्होंने का निजधर्म है प्राणीमात्र इस धर्मका अधिकाउलटा उन लोगोंसे धर्मको छिपाया है । इनकी अनुदार री है: सबको जैनधर्म बतलाना चाहिए और दृष्टि में दूसरे लोग प्रायःबड़ी ही घणाके पात्र रहे हैं,वे मनुष्य होते हुए भी मनुष्यधर्मके अधिकारी नहीं समझे सबको प्रेमकी दृष्टिसे देखते हुए उनके उत्थानगये ! यद्यपि जैनी अपने मंदिगमें यह तो बराबरीप का यत्न करना चाहिए । ' वीर जिनेंद्रकी इस णा करते रहे कि मिथ्यात्व : समान इस जीवका काई वसीयतका-उनके इस पवित्र आदेशको-इन स्वाशत्र नहीं है, मिथ्यात्व ही संसार में परिभ्रमण करान- र्थी पुत्रीने छिपानेकी पूर्णरूपसे चेष्टा की है। इन्होंने वाला और समस्त दुःखों का मूल कारण है । परन्तु अनेक उपाय करके अपने दूसरे भाइयोंको धर्मम कोरा मिथ्यात्वमें फंसे हुए प्राणियों पर इन्हें जरा भी दया रक्खा, उनकी हालत पर जरा भी रहम नहीं खाया नहीं आई, उनकी हालत पर इन्होंने जरा भी तरस नहीं और न कभी अपने इस अन्याय,अत्याचार और अनचिखाया और न मिथ्यात्व छुड़ानेका कोई यत्नही किया। त व्यवहार पर विचार या पश्चाताप ही किया । बल्कि इनका चित इतना कठोर हो गया कि दूसरोंके दुखसु- जैनियों का यह अत्याचार बहुत कुछ अंशोंमें उस स्वार्थाखसे इन्होंने कुछ सम्बन्ध ही नहीं रक्खा । न्ध पत्रके अत्याचारसे भी बढ़ा रहा । क्योंकि किसी
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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