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भाषाढ.श्रावण,भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] सिद्धि श्रेयसमुदय
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सिद्धसेनका ‘सिद्धिश्रेयसमुदय’ स्तोत्र
एकादश मंत्रराजोपनिषद्गर्भित 'इन्द्रस्तव'
अथवा
पार्मा हुआ पं० अर्जुनलालजी सेठी सुबह के वक्त मेरी इस प्रार्थना पर तुरंत ध्यान दिया और स्वाज कर
- नित्य सामायिकके साथ एक गद्य स्त्रोत्र पढ़ा के एक प्रति भेज दी, जिसके लिये मैं उनका आभाग करते थे। मुझे वह पसंद आया और इस लिये मैने हूँ। उन्हें इस समय यही एक प्रति उपलब्ध हो सकी उसी वक्त के करीब उनकी मार्फत उसकी एक प्रति है, जो बहुत कुछ साधारण तथा अशुद्ध जान पड़ती है नयपरसे मँगाई थी । यह स्तोत्र सिद्धसेनाचार्यका और जिसके अंतमे म्तोत्रका विस्तृत माहात्म्य तथा 'मिद्धिश्रेयममुदय' नामका स्तोत्र है, जिस 'इन्द्रम्तव' स्तोत्रकाक नामका अंतिम पा भी दिया हुआ नहीं या 'शक्रन्तव' भी कहते हैं, और जो प्रतिके अंतिम है। हाँ, स्तोत्रक का नाम शुरू * तथा अंतमें सिद्धर्मभाग पग्मे एक प्रकारका 'सहस्रनाम' भी जान पड़ता न दिवाकर' लिग्या हुआ है; जब कि जयपुरकी प्रतिमें है। इसमें ग्यारह मंत्रगज तथा पाँच स्तुति-पदा हैं और वैसा कुछ नहीं है। उसमे अपन तोरसे शुरू या अंतमे अंतमे म्तोत्रका माहात्म्य भी बहुत कुछ वर्णित है। म्नत्रिकाका कोई नाम नहीं दिया, केवल तात्रकी बहनमे शास्त्र-भंडागेको देखने पर भी यह स्तोत्र मुझे ममानि मचक वह पदा ही दिया है जिसमें स्तोत्रकार अन्यत्र कहीं नहीं मिला और न किसी दूसरेको इमका का नाम मात्र सिद्धमन' दिया हुआ है-लिम्बा है कि पाठ करते ही देम्वा है । मुझे इसका मुखपाठ करतं 'जम इन्द्रन प्रसन्न होकर अहन्नीका तवन किया है हए दग्व कर किनन ही सज्जनोने इमकी कापीक लिये वैम ही मिद्धमनन यह संपदाओंका स्थान स्तोत्र रचा इच्छा प्रकट की; परंतु उम समय प्रति पाम न होने है। और इममें यह मात्र 'अहम्नांत्र' जान पड़ना है।
और मुग्वमे बोल कर लिग्वा देनका अवमा न मिलनं मात्र व ढमान ( महावीर )-स्त्रांत्र नहीं, जैमा कि पाटन क कारण मैं उनकी इच्छाको पुग नही कर मका। की प्रनिक अंत मचिन किया गया है। श्रस्तु; ये अब कुछ दिनमे यह विचार उत्पन्न हुआ कि इम स्तोत्र सिद्धमन दिवाका मिद्धमन' थे या कोई दुमर सिद्धमेन, को 'अनकान्त' में प्रकट कर देना चाहिए, जिसमें यह बान अभी निर्णयाधीन है और इसलिये ठीक मभी मज्जन इमम यथेट लाभ उठा सकें। इम विचार नहीं कही जा सकती । पाटनकी इस प्रतिमें और भी के हृदयमें आने ही चंदगेज हुए मैंन मुनि पुण्यविजय जो कुछ महत्वका पाठभेद है उस फुटनोटों के द्वाग जी को लिखा, यदि वे पाटनके भंडागम इसकी कोई स्पष्ट कर दिया गया है । बाकी साधारण अशुद्धियाँ हस्तलिखित प्रति प्राप्त करके मुझे भिजवा मकें, जिम * शुरू में शीर्षक के तौर पर लिखा है - से संशोधनादिकके कार्यमें मदद मिल सके । उन्होंने “अथ श्रीमिडमेनदिवाकरकनः शक्रम्तव."