SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 327
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्ष १, किरण ६, ७ ३४६ गया हो और वहां उसको राज्य मिला हो तो क्या चन नहीं था,' केवल तर्काभास है। क्योंकि 'जितशत्रु' यह कोई विशेष नाम नहीं है, किंतु राजाका सम्मान आश्चर्य है ? में दिया जा चुका है । (४) चौथी दलीलका संपूर्ण उत्तर ऊपरके विवेचन नीय विशेषण मात्र है । क्या श्वेताम्बर क्या दिगम्बर किसी भी संप्रदाय के ग्रंथोंमें जहाँ जहाँ राजाका नाम 'जितशत्रु' और रानीका नाम 'धारिणी' आता है वहाँ सर्वत्र बहुधा यही अर्थ समझना चाहिये। इस दशा मे कलिंगके राजाका नाम सुलोचन मानने में कोई आपत्ति नहीं है । अनेकान्त (५) पांचवीं दलील यह है कि 'दिगम्बर जैनशास्त्र 'उत्तरपुराण' में राजा चेटक के दस पुत्रों के जो नाम लिये है उनमें 'शोभनगज' नाम नहीं है, ' ठीक है. उत्तरपुराण में 'शोभनराय ' नाम न सही, पर पण कौनसा प्रामाणिक इतिहास ग्रन्थ है, कि जिसकी प्रत्येक बात पर हम अधिक वजन दे सकें । जो पुराण उदायनको कच्छ देशका राजा बता सकता है और कौशाम्बी के राजा शतानीक को 'मार' नाममे वर्णन कर सकता है उसके वचन पर कहाँतक विश्वास किया जाय, इसका लेखक स्वयं विचार करलें । कौशाम्बी के राजा महमानीक के पुत्र का नाम श्वेताम्बर जैनमत्रों और भास के स्वप्नवासवदन में शतानीक निम्बा मिलता है, तब दिगम्बराचार्यकृत श्रेणिक चरित्र गें इसका नाम 'नाथ' और उत्तरपुराण में 'मार' लिम्बा है । इस पर बाबू कामताप्रसाद जी अपनी 'भगवान महावीर' नामक पुस्तक (१० १४० ) में लिखते हैं कि 'शतानीक' यह इस राजा का तीसरा नाम है। भला शतानीक के 'नाथ' और 'मार' जैसे अव्यवहार्य नामों का तो नामान्तर मान कर निर्वाह कर लेना और 'शोभनराय' नाम उत्तरपुराण में न होने मात्र से ही उसे अप्रामाणिक ठहरा देना यह कैमा न्याय है ?, यहाँ पर भी यही क्यों न मान लिया जाय कि यदि चेटक के उत्तरपुराणोक्त दस ही पुत्र थे तो ' शोभनराज' यह भी उनमें से किसी एक का नामान्तर हो सकता है। (६) यह कहना कि 'हरिवंशपुराण के अनुसार महावीरके समय में कलिंगका राजा जितशत्रु था, सुलो (७) लेखककी सातवीं दलील तो सभी दलीलों का मक्खन है । आप कहते हैं- "क्या यह संभव नहीं है कि ग्यारवेल के अति प्राचीन शिलालेखको श्वेताम्बर माहित्यसे पोषण दिला कर उसे श्वेताम्बरीय प्रकट करने के लिये ही किमी ने इस थेरावली की रचना कर डाली हो और वही रचना किसी शास्त्रभंडार से उक्त मुनिजीको मिल गई हो ? " प्रिय पाठकगण ! कितना गहन तर्क है ?, इससे श्राप लेखक महाशयका मनोभाव तो बम्बूबी समझ ही गये होंगे कि इस विषयमें उनके क़लम उठाने का कारण क्या है । जहाँ तक मैं समझता हूँ बाब कामताप्रसादजी अपने संप्रदाय के अनन्य रक्षक जान पड़ते हैं. अपनी कट्टर सांप्रदायिकता के विरुद्ध कुछ भी आवाज निकलते ही उसकी किसी भी तरह धज्जियाँ उड़ाना आपका सर्व प्रथम कर्तव्य है, यही कारण है कि हिमवंत थेरावलीको बगैर देखे और बगैर सुने ही उसको जाली ठहरानेकी हद तक आप पहुँच गये और जो कुछ मनमें आया लिख बैठे । श्रस्तु । बाबु जी ! आप इतना भी नहीं सोच सकते कि यदि थेरावली वस्तुतः आली होती और उसका मनशा आपके कथनानुसार होता तो उसमें कुमरगिरि पर जिनकल्पि-दिगम्बर साधुओंके होनेका उल्लेख ही *छा होता यदि लेखक महाशय इस विषयके समर्थन में कोई मकल प्रमाख भी माधर्मे उपस्थित कर देते । सम्पादक
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy