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________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण २ ___इमी तरह खोज करने पर दूसरे चिन्होंके भी तो उमका चिन्ह आसनोंमें अंकित न किया जाता। विधिवाक्य मिल सकते हैं और यदि न भी मिले तब परतु आसनता उसक नामक साथ 'सिंहासन' कहलात भी यह नहीं कहा जामकता कि वे चिन्ह मनुष्यशरीर हैं और कितने ही नामोंके साथ 'सिंह' शब्द जुड़ जाने पर हो ही नहीं सकते । जब ऐसे ऐसे जानवरोंक चिन्ह में उनकी महिमा बढ़ जाती है जैसे किसी पुरुषको हो सकते हैं तब उनके हो मकनमें कोई बाधा प्रतीत 'पुरुपसिंह' कहना उसके महत्वका द्योतक है । फिर नहीं होती । हो मकन के लिये तो सब प्रकारके चिन्ह मिहको स्वभावसे ही अशुभ और उसके चिन्हको हा मकन हैं और ऐम भी चिन्ह हो सकते हैं जिनका अशुभताका सवक कसे समझा जाय ? और कैसे खुद ममुद्रका भी पता न रहा हो। वाम समुद्र का ग्रंथ कहा जाय कि महावीर के शरीर पर उमक चिन्हका तो इस समय कोई उपलव्य भी नहीं है, वह तो यदि हाना कदापि संभव नहीं ? इसी तरह नाग (सर्प) को कभी वना अथवा लिपि बद्ध हुआ है तो उसको नष्ट भी सर्वथा अशुभ समझनेका कोई कारण नहीं-वेतो हुए भी युग बीत गये हैं। इस वक्त जो ग्रन्थ उपलब्ध देवता भी मान जान हैं, नागपंचमीको उनका खास हैं वे यहत पीछेमे अनेक व्यक्तियों के द्वाग एक दसरंकी तोरमे पजन होता है, शेषनाग उनमें प्रधान हैं, विष्णु दग्वा देवी कुछ इधर उधरमे लेकर और कुछ अपनी भगवान नागशय्या पर शयन करते हैं, महादेवजीक बुद्धिम उममें मिला कर समुद्रके नाम पर छोटे बड़े अाभपण मर्पक हैं, कुछ शामन देवताओक यज्ञोपवीत मंग्रह ग्रंथ अथवा प्रकरण बने हुए हैं और इमीम उनमें भी मर्पके कहे गये हैं और भगवान पार्श्वनाथके कितनी ही बातें परस्पर भिन्न और विरुद्ध भी पाई उपमर्गको दूर करने वाले भी नागराज हैं, फिर सर्प जाती हैं । उनका कितना ही फलिन प्रत्यक्षादिकं विरुद्ध म्वभावमं अशुभ कैसे ? और उमम चिन्हके प्रति जान पड़ता है। उनके फलित पर सहमा विश्वास नहीं तिरस्कार दृष्टि क्यों ? सपके तो बहुत चिन्ह शरीर किया जा सकता और न यही कहा जामकता हैकि जा महान हैं और यागशास्त्रम कुडालनी शक्तिका भी फल किमी चिन्ह का उनमें दिया है उससे भिन्न वह नागनी जैसी बतलाया है जो सुषम्ना नाडीके मुखका कभी अथवा कहीं होता ही नहीं । अतः चिन्हों और अवरोध किये रहती है। इसके मिवाय, वसुनन्दी चिन्होंके फल विपयमें मर्वथा इन मामुद्रिक शास्त्रों पर आदि कृत प्रतिष्ठापाठोंसे यह भी मालूम होता है कि कोई आधार नहीं किया जा सकता। . कितने ही देवताओंके वाहन सिंह,महिप,वाराह,कच्छप, दृमरी बात जो सिंहादिक कुछ चिन्होंके अशुभ काप, सप, आदिक - कपि, सर्प, आदिकक हैं और वे उन वाहनों महित ही हानकी बाबत कही गई है और उसमें इम पर ज़ार । - मांगलिक कार्यों में बुलाए तथा पूजे जाते हैं । अतः यह दिया गया है कि उन 'चिन्हांका तीर्थकरोके शरीर पर सुनिश्चित हाताहै कि इन प्राणियांकीकरताया अपवित्रता हाना कदापि संभव नहीं, वह भी कुछ ठीक प्रतीत नहीं लाकमें उनके सर्वथा अशुभ होने या समझे जानकी हाती । शुभ और अशुभके निर्णयका प्रश्न बडा ही काई कमोटी नहीं है। विकट है और उस पर सहमा इस तरहम कोई फैसला अब एक तीसरी बात और रह जाती है, और नहीं दिया जा मकता । किमी जन्तुकी महज़ करता वह यह है कि तीर्थकर चिन्होके जो नाम लेखकया अपवित्रता ही उसे अशुभ नहीं बना देती । यदि महाशयन दिये हैं उनकी बाबत यद्यपि यह नहीं लिखा ऐसा होता तब तो मकरके चिन्हको भी अशुभ समझा कि वे कहाँस लिये गये-मूर्तियों परसे नोट किये गये जाता-वह तो मनुष्योंको मारने वाला एक क्रूर जंतु हैं अथवा किसी ग्रंथ परसे उतारे गये हैं-जिससे कमसे है-परंतु उसका फल तो अच्छा बतलाया गया है कम यह जाना जाता कि सुमतितीर्थकरके 'चातक'ओर और कामदेव भी उसे अपनी ध्वजामें धारण करता है। 'हंस'ये दो भिन्न चिन्ह अनन्तनाथका 'सेही' और धर्मसिंह महज करताके कारण यदि सर्वथा अशुभ होता नाथका'गदा' चिन्ह किसनेप्रतिपादन किया है। फिर भी
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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