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मनकान्त
[वर्ष १, किरण ११, १२ तक थी ? अस्तु ।
ग्रंथों की, सो पहले तो यह बात है कि वे प्राचारग्रंथ अब हमारी दलीलों पर की हुई मुनिजी की है-इसलिये वे इतिहासकी कोटमें नहीं पाते । उनको पालोचनाके औचित्य-अनौचित्य पर विचार कर लेना, अनोखी बातें तब तक अवश्य मान्य होंगी जब तक हम उचति समझते हैं।
कि वे दिगम्बराम्नायकी मान्यताके विरुद्ध प्रमाणित न (१) पहले ही वे हमारे इस कथन पर आक्षेप कर दी जाये । इसके अतिरिक्त मैं उनके विषय में कुछ करते हैं कि "चेटकके वंशका जो परिचय थेरावलीमें भी नहीं कह सकता, क्योंकि मैंने उनका अध्ययन नहीं दिया है, वह अन्यत्र कहीं नहीं मिलता।" वे कहते हैं किया है । 'मूलाचार के एक अंशको देखनका अवसर कि "यह कैसे मान लिया जाय कि कोई भी बात एकसे मुझे अवश्य प्राप्त हुआ है और उस अंशकी पुष्टि प्रा- . अधिक ग्रंथों में न मिलने से ही अप्रामाणिक या जाली चीन बौद्ध साहित्य से भी हुई है । किन्तु दूसरे प्रन्थ है ?" बेराक, इतनेसे ही न मानिये; किन्तु जब वही बात 'भगवती पागधना' के तो मुझे आज तक दर्शन ही अन्यथा बाधित हो, तब उसका मात्र एक ग्रंथमें ही प्राप्त नहीं हुए हैं। मिलना संदिग्ध और अप्रामाणिक मानना क्या ठीक न (२) दूसरे नं० की आलोचनामें कोई बात विचाहोगा ? इसी दृष्टि से एक बातका एक प्रन्थमें ही मिलना रणीय नहीं है । सिवाय इसके कि मैं अपनी इस नं० प्रमाणकी कोटि में नहीं पाता; पर यदि वही बात किसी की पहले प्रकट हुई दलील को दुहरा दूं क्योंकि मेरी अन्य प्रामाणिक प्रन्थ अथवा स्रोतसे पुष्ट हो जाय, तो दलीलें थेरावली के प्रकट हुए अंश को जाली प्रकट उसमें शंका करने के लिये बहुत कम स्थान रह जाताहै। करन के लिए ज्यों की त्यों अब भी पुष्ट है। जैसे कि इतिहास-क्षेत्रमें इस प्रकारकी पुष्टि विशेष महत्व रखती पाठकगण आगे देखेंगे। है । हाँ, यह दूसरी बात है कि एक प्रन्थकी कोई खास (३) मेरी तीसरी दलील की आलोचनामें मुनिजी बात अन्यथा बाधित न हो, तो वह नब तक प्रमाण- लिखते हैं कि "यह ठीक है कि चेटककं नामस किसी कोटि में मान ली जाय जब तक कि उसके विरुद्ध कोई वंशका अस्तित्व कहीं उल्लिवित नहीं देखा गया, पर प्रमाण न मिले प्रस्तु; चूंकि मुझे थेरावलीके प्रकट हुए इस खारवेलके लेख और थेरावलीके संवादसे यह अंशके विरुद्ध पुष्ट प्रमाण मिले थे, इसलिये मैंने मात्र मानने में क्या आपत्ति है कि इस उल्लेखस ही चेटकउसमें मिली हुई बातको विश्वसनीय न मान के लिए वंशका अस्तित्व हो रहा है ?" आपत्ति यही है कि वह जो उक्त वक्तव्य प्रकट किया, वह ठीक है। अन्यथा बाधित है और खारबेलके लेख में वह य अभी रही बात 'मूलाचार' अथवा 'भगवती श्राराधना' तक नहीं पढ़ा गया है ! थेगवलीमें वह मात्र प्रक्षिप्त
और काल्पनिक है, यह बात अब स्वयं श्वेताम्बर अन्यथा बाधित होने की यह बात लेखक की पहले नम्बरकी
विद्वान् ही प्रगट कर रहे हैं । भागे मुनि जीने लिखा है बलील का कोई भश नहीं थी, और इसलिये वह दलील जिन शब्दों में सीमित है . रखते हुए मुनि जी का उत्तर उसके सम्बन्धमें
की राजपर्यत जान पड़ता है। फिर भी प्रत्युत्तर की जो यह चंग की गई धानी वैशालीका नाश हुआ और चेटकके वंशजोंका . यह चिन्तनीय ।
-सम्पादक अधिकार विदेह गज्य परसे उठ जानेके बाद वहाँ गण--