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________________ ३७२ वर्ष १, किरण ६ की भावाज गलीमें सर्वत्र गूंजने लगी, सिर्फ नीले सरस्वती ससुरालसे वापिस आई है या नहीं, उस ‘मकानके सामनेमे वह चपचाप निकल जाता,-हजार कुछ खबर नहीं । नीले मकानके सामने खड़े होकर कोशिश करनेपर भी उसकी जाबानसे एक लफ्ज नहीं उसने आवाज लगाई-"चीना सिन्दू-रलेउ, चीना निकलना। सिन्दू-ऊ-र।" (३) कोई जवाब न मिला। निधिराम उसी गलीस लौट गाजाकी तरह उस दिन भी निधिराम चुपचाप चला गया ; मगर फिर न जाने क्या सोचकर वापिस पाया जा रहा था; इसी समय नीले मकानके जंगलेमें और ऊँचे स्वरसे कहने लगा -"चीना सिन्दू-र लंउ, से एक बच्चेनं आवाज़ दी-"श्रो मिन्दरवाले ! ठहगे, चीना सिन्दू-उर।" 'जीजी बला रही है।" बहुत ही धीमी पैरोंकी श्राहट मानो सनाई पड़ी। .. मावशीके निधिगमका कलेजा उछल पड़ा । निधिराम कॉपते हुए कलेजेस जंगलेके पास पाकर मुँह फेरते ही उसने देखा कि नीचेके जंगलेमें मरम्वती प्रतीक्षामें खड़ा होगया । जंगला खोल कर सरस्वती के बड़ी है। निधिराम मारे आनन्दकं गद गद कण्ठसं छोटे भइया ने कहा-"तुमको इस गलीसे प्रानके लिए काह 3टा-कब आई मग्मनी ? मुझे तो मालम है। माँ ने मना कर दिया है, मिन्दर वाले !" नहीं, इमीम-" अनजानमें कोई कमर हो गया होगा, इस सांचगं मावतीन मतपमं कहा-"श्राज"। निधिगमका मुँह मग्ब गया। हिचक-हिचक कर उसने इसके बाद निधिराम अपने आपही घंटे-भर तक कहा-"कि-यां?" न जाने क्या-क्या बातें करता रहा । अन्तमें बाला- इनमें दरवाजा बला। दरवाजे पर आ खडा "तुम अपनी सिन्दरकी डिबिया तो ले पाश्री, मग्मती हुई उदाम-चेहरा लिये, मफेद-कपड़े पहन सरसुती' पष्टी ! बहुत बढ़िया सिन्दूर लाया हूँ आज ।" -देह पर एक भी गहना न था-सुहागका एक चिह म दिन ना मरस्वतीकी मानकी डिबिया उपर तकन नक नहीं। तक सिन्दरस खब भरकर निधिराम घर चला गया। निधिगम चौक पड़ा। उसके बा: मिरकी पेटी उसके बाद,फिर धीरे धीरे विचित्ररंगकी काठकी डिबियो। com ज़मीन पर रम्ब कर, उम पर बैठ कर, अर्थ-हीन उदमें सिन्दूरका उपहार पाना शुरूहा। साथही. पॉवधान्त होस मामनकी ओर देखता रह गया। नीले मकानका दरवाजा बन्द हो गया। महावरसे लेकर माथेकी बेंदी तक महागकी मभी चीजें दिखाई देने लगी। होश आने पर, निधिराम जब वापस जाने लगा. अबकी बार बरमानमें निधिराम देश नहीं गया। । तब उसके सिरकी पेटी बीस मन भारी हो गई थी। इसके बाद, फिर सात-आठ दिन तक उस गलीमे ___ क्वारमें दुगो-पूजाके पहले सरस्वती जिस दिन सास निधिरामको किसीन देखा नहीं । आखिर, एक दिन. के घर गई, निधिराम भी उसी दिन देश चला गया। सहसा परिचित कण्ठस्वर सुनकर मैंने जंगला खोला, वर्षाके दिनोंमें घर न आने के कारण निधिरामकी आर्थिक तो, निधिरामकी मूर्ति आँखों तले पड़ी। सिन्दूर की हानिई, और इसलिए उसकीस्त्रीसे लेकर छोटे लड़के की जगह उसके सिर पर एक बडा-भारी फलका मकने से काफी फटकार बताई लेकिन आर्थिक हानि डलड़ा था । उसके भारी बोमसे-मका हुआ वृद्धकी उस बड़ी रकमने उसे रारा भी विचलितन किया। | निधिराम पाठक पसीनेसे तराबोर होकर नोले मकान फागनकी बयार चल रही है । पेड़ोंकी नालियों के सामनेसे गलीके रास्ते पर आवाज देता जा रहा मानो किसीने हरा रंग पोत दिया हो। है-"फल लेड मा, पके-ए-फल !" निधिराम कलकत्ते भाया।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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