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अनेकान्त
वर्ष १, किरण ६, भक्षर को बहुत तत्त्वावधान के साथ पढ़ रहे हैं। एक श्रम का यह फल है कि भाज हम इस लेख के रहस्य एक पंक्ति को पढ़ने में कोई २-३ घंटे लगते हैं और और महत्त्वको इस तरह वास्तविक रूपमें समझने के किसी किमी अक्षर पर पूरा सामायिक भी कर लिया लिये उत्सुक हो रहे हैं। जाना है । मेरा इरादा है कि यहाँ पर लेख की जो इसके साथमें श्री जायसवालजी का नोट है वर मामग्री प्रस्तुत है उस पुरा कर फिर खंडगिरि पर जा- अनेकान्तमें छपने के लिये भेजा जारहा है। आप चाहे कर निधित किये हुए पाठको प्रत्यक्ष शिलाक्षरोंसे भी तो मेरी यह चिट्ठी भी छाप सकते हैं। अनेकान्त ममिलान कर लिया जाय । इसके लिये खास तौर पर दर और सायिक रूपमें प्रकाशित हो रहा है गवर्नेभेटको लिखा जायगा और फिर गवर्नमेंटके प्रबंध
जो इसके नामको सर्वथा सार्थक बना रहा है।
imma m से वहाँ पर आया जायगा । शिला पर पढ़ने के लिये ।
लौटते हुए यवि मौका मिला तो मिलने की पूरी पड़ी कठिनाई है और बहुत बेढब जगह पर यह लेख .
इच्छा तो है ही।
भवदीय सुपा हुआ कहते हैं । श्रीयुत जायसवालजी कोई १६ वर्षमे इस लेख पर परिणम कर रहे हैं और उसी परि.
निनविजय
चक्रवर्ती खारवेल और हिमवन्त-थेरावली
_ [लेखक-श्री० काशीप्रसादजी जायसवाल ]. मुनि श्री कल्याणविजयजीने सत्यगवेषणावृद्धिसे १४२ ) से यापापक शन्दका अर्थ साफ हो गया, गजराती हिमवन्त-घेरावली से खारवेलका इतिहास जिसकी खोज मुझे बहुत दिनोंसे थी । कई वर्षों के दिया । इसमें साम्प्रदायिक भाक्षेपकी कोई जगह नहीं अध्ययनसे पापबाबपाठ निश्चित किया गया था। है, जैसा कि भनेकाम्त के सम्पादकजीने विवेचना कर पर प्रर्थका पता नहीं लगता था । मैं मुनिजीका बहुत
अनुगहीत हूँ। मेरे मन में हिमवन्त-घेराबलिके विषयमें बहुत चैत्र २०११ वी० २४५६ * मन्देह पैदा हुमा । मो० कल्याणविजयजीके देखने में पह मूल पुस्तक भी नहीं पाई है । पर जिस भातार * वीरनिया सक्तके इस उस परसे, और भी शेतक महोमें यह पोथी है वहाँ से मेरे प्रदेय मित्र मुनि जिनवि- सके छलके पत्रोंमें इसी साल को लिखा देख र, ऐसा मालन
होता कि अनेकान्त की १ली रिकमें 'मायीत्व सम. जबजी के पास भा गई है। उन्होंने पोथी में सारवेल
शीर्षकके नीचे जो इस सक्त की स्वार्थता को सिख किया गया है विषयक अंश प्रतित पाया । इस समय मुनिजी पटने
उसे जारसमासजी ने भी स्वीकार कर लिया और इसी म
माप अपने पसारिकों में सामार ने खगे। प्रकार सिक नही, प्रशित, भाषनिक और कल्पित है। यदि जायसमाजी व तिने मला कोई सार मोर देने की
मुमि मी पुण्यविजयजी के लेख (भनेकास प० ।