SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 323
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ६,७ பாாாாாாாாா . । राजा खारवेल और हिमवन्त-थेरावली लेखक- श्री० मुनि कल्याणविजय जी] मानेकान्तकी ४थी किरणमें " राजा खारवेल और लेखककी शिकायत यह है कि 'हिमवन्त-थेरावली' उसका वंश" इस हैडिंग से हमारा एक लेख छपा की प्रामाणिकता और प्राचीनता की चर्चा किये बगैर है, जो कलिंग चक्रवर्ती महाराज खारवंल के जीवन- उसमें लिखी हुई किसीभी हकीक़तका प्रकाशित करना वृत्तान्त में संबद्ध है। इस लेख का आधार 'हिमवन्त- ठीक नहीं जंचता।" क्या यह दलील है ? भला जो थेगवली' का गुजराती अनुवाद है, यह बात हमने उसी कुछ ऐतिहासिक नई सामग्री उपलब्ध हो उसको सत्य लेव के अन्त में फुटनोट देकर स्पष्ट करदी है। प्रमाणित किये बगैर विचारार्थ उपस्थित न किया जाय ___ इस विषय के अन्वेषक कतिपय विद्वानों के पत्रों तो उस पर ठीक विचार ही कैसे हो सकता है ? से हमें ज्ञात हुआ कि उनका यह लेख बहुत ही पसन्द वारवेल के हाथीगुफा के लेखका ही उदाहरण लीजिये, पाया है। पर यह दुःख की बात है कि बाल कामता- उसको भनेक विद्वानों ने पढ़ा और अपनी अपनी प्रमाद जी जैन को इस लेख में कुछ प्राघात पहुँचा समझ के अनुसार एक दूसरे की विचारधारा को मालम होता है, जिम के परिणाम प्रापन 'अनेकान्त' बदल कर अपनी सम्मतियां कायम की। यही क्यों, की ५ वा किरम में दमके खण्डन में इमी शीर्षक मे एक एक विद्वान ने प्रत्येक बार अपने विचारों को किस 4. आक्षेपक लेख प्रकाशित कगया है। प्रकार बदला और नये परिष्कार किये यह बात कहने लेम्ब के प्रारम्भ में 'हिमवन्न-धेगवली' को जाली की शायद ही जरूरत होगी। टहराने की धन में पापन श्वेताम्बर जैन समाज पर दूसरी बात यह है कि हमारा उक्त लेख 'हिमवन्त जो भाक्षेप किये हैं उन का उत्तर देना इस लेव का घेरावली' विषयक मौलिक लेख नहीं था कि उसमें हम विषय नही है, पर लेवक महाशय इतना समझ अपना कुछ भी अभिप्राय देते, “वीर संवत् और जैनग्का कि जो दोषारोपण आप श्वेताम्बर समाज पर कालगणना" नामक हमारा निवन्ध जो 'नागरी करने जा रहे हैं उस से कहीं अधिक दोषारोप दिगम्बर प्रचारिणी पत्रिका' में भभी छपा है उस के पीछे इस ममाज पर भी हो सकता है, पर इस दोष-दृष्टि में थेरावली का सारांश परिशिष्ट के तौर पर दिया है उस लाभ ही क्या है ? इन दोषप्राहक-वृत्तियों से हमने का यह एक अंश मात्र था, मूल लेख के साथ जो कुछ हमारे समाज का जितना नुकसान किया है उतना लिखना उचित था वह हमने लिख भी दिया है, पर शायद हमारे विरोधियों ने भी नहीं किया होगा। क्या लेखके प्रत्येक अंशअथवा प्रकरणकेसाथलेखक अपना ही अच्छा हो यदि अबभी हम हमारे समानधर्मियोंके अभिप्राय कैसे दे सकता है? यदि बा० कामताप्रसाद जी ऊपर कीचड़ फेंकने के स्थान पर उनके साथ सहकार हमारे उस लेख के अन्त में दिये हुए फुटनोट को देख करना सीखें। लेते तो यह माक्षेप करने का उन्हें शायद मौका ही
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy