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________________ वशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं०२४५६] पुरानी बातोंकी खोज ३२५ नामकी प्राचीन टीकाके देखनेसे चला है। इस टीकामें, च्छन्न स्थाणु-कंटकादि के द्वारा तथा जल और कर्दम भगवती आराधनाकी "अञ्चलक्कुसिय" नामकी से बाधा पहुँचती हैं; इस लिये एकसौ बीस दिन का गाथामें वर्णित जैनमुनियोंके दस स्थितिकल्पोंका वर्णन यह एकत्र अवस्थानरूप उत्सर्ग कालका विधान है। करते हुए, पज्यो (पयो) नामके दसवें स्थितिकल्पका कारणकी अपेक्षासे हीनाधिक अवस्थान भी होता है। म्बम्प इस प्रकार दिया है: आषाढ़ सुदि दशमी को स्थिति होने वाले साधनोंका "पज्यो श्रमणकल्पो नाम दशमः वर्षा- अधिक अवस्थान कार्तिकी पौर्णमासी से तीस दिन कालस्य चतुर्ष मासेष्वेकवावस्थानं भ्रमणत्या. बाद तक होता है; यह अवस्थान वर्षाकी अधिकता, गः। स्थावरजंगमजीवाकुला हि तदा तितिस्नदा श्रुतग्रहण, शक्तिके प्रभाव और वैय्यावृत्यकरण नाम के प्रयोजनों में से किसी प्रयोजन को लेकर होता है भ्रमणं महान संयमः, वष्टया शीतवातपातेन चामविराधना एते वा (१) वाप्यादिप स्थाण और यह अवस्थानका उत्कृष्ट काल है। मरी पड़ने, दुर्भिक्ष फैलने, प्राम तथा नगर के चलायमान होने कंटकादिभिर्वा प्रच्छन्नैलेन कदमेन वा बाध्यते, इति विंशत्यधिक दिवसशतमेकत्रावस्थानमित्यु अथवा गच्छनाश का निमित्त उपस्थित होने पर साधु जन यह समझ कर देशान्तरको चले जाते हैं कि वहाँ न्मर्गः। कारणापेक्षया तु हीनमधिकं वाऽव ठहरनेम रत्नत्रयकी विराधना होगी। आषाढी पौर्णस्थानं । संयतानामाषाढशुद्ध दशम्या स्थिताना मासी के बीन जाने पर श्रावण की प्रतिपदा आदि मुपरिष्टाच्च कार्तिकपर्णिमास्यास्त्रिंशदिवसावस्था तिथियों में बीस दिन तक जो अवस्थान हो वह मत्र नं ष्टिबहुलता श्रतग्रहणं शक्त्यभावं वैयाव हीन काल समझना चाहिये। त्यकरणं प्रयोजनमुद्दिश्य अवस्थान मेकत्रेति । इस म्वरूपकथन पर में निम्न बातें फलित होनी उत्कृष्टः कालः । मार्या दुर्भितं ग्रामजनपदचलने है:वा गच्छनाशनिमित्ते समुपस्थिते देशान्तरं यांति, चातुर्मास का यह नियम महानती श्रमणोंअवस्थाने सति रत्नत्रयविराधना भविष्यतीति । निग्रंथ साधनों के लिये है, अणुवती श्रावकों अथवा पौर्णमास्यामापाच्यामनिक्रान्तायां प्रनिपदादिषु ब्रह्मचारियों के लिय नहीं । चातुर्मामके जो हेतु महान दिनेषु यावच त्यक्ता विशनिदिवसा पनदपच्य अमंयम' तथा 'अात्मविगधना' आदि कहे गये हैं उन हीनना कालस्य । एष दशमस्थितिकन्पः।" का भी सम्बंध श्रमणों में ही ठीक बैठना है। अर्थात्-वर्षाकाल के चार महीनोंमें भ्रमणत्याग- २ चातुर्मास का उत्मर्ग (सर्वसाधारण ) काल म्प जो एकत्र अवस्थान है वह पज्यो (पर्या) नामका १२० दिनका है और वह आषाढी पौर्णमासीमे कार्तिदमा श्रमणकल्प है । उन दिनों में पृथिवी स्थावर- की पौर्णमासी तक रहता है। जंगम जीवों से पाकुलित होती है इससे उस समय ३ कुछ कारणों के वश अधिक तथा कमती दिनों भ्रमण करने में महान् असंयम होता है, वृष्टि तथा का भी चौमासा होता है। अधिक दिनों वाले चौमासे टंडी हवा लगने से प्रात्मविराधना होती है और प्र. का उत्कृष्ट काल आषाढ मुदि दशमी से प्रारंभ होकर
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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