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________________ ४२४ अनेकान्त वर्ष १, किरण ६,७ वे पूर्ण निष्पक्षता को लिये हुए हैं और उम सत्य तक ग्य प्राप्त हुआ है वे भले प्रकार जानते हैं कि आपका पहुँचनेका प्रयत्न करती हैं, जो निर्मल तथा सरल है। हृदय जैनत्वसे ओतप्रोत भरा हुआ है । जैन इनिहाम ____ मैं चाहता हूँ कि आप, आपकी संस्था और आप के अन्वेषणमें तो आप एक अद्वतीय रत्न हैं । अन्य का पत्र दीर्घ तथा समद्ध जीवनको प्राप्र होवें। जैनधर्म कृतियोंके सिवाय केवल आपका "स्वामी समन्तभद्र" के प्रत्येक प्रेमीका यह कर्तव्य होना चाहिये कि वह आप ही इस बातका सजीव उदाहरण है। आप जैसे कृतविद के इस सत्यधर्माम्पद कार्यमें सहायता प्रदान करे।' अध्यवसायी महानुभाव सम्पादक हैं यही मुझे संतोप है। ६६ मा० डबल शुबिंग, पी०एच०डी..जर्मनी- तीनों ही अङ्क भीतरी और बाहरी दोनों दृष्टियोंमे "They to acknowledge the receint, of बहुत सुन्दर हैं। लेखोंका चयन और सम्पादकीय Kir. 18.1 of the "Anekunta'' you kind. विचार बड़ी योग्यतासे किये गये हैं। संपादकीय टिप्पly sent me for review. I can congratur णियाँ बड़े मारकेकी हैं। संपादककला-कुशलताका पग्ण late you to have started that journal परिचय सामने है और अपने यशोविस्तार और उद्देशthe appearance and contents of wich are equally satisfying, and it will give mea साफल्य pleasure to mention it in my work on उपयोगी सामग्रीसे परिपूर्ण प्रकाशित हुये हैं उसे देखते Jainism and its history and incred tests. हए इसके उज्वल भविष्यमें किसी प्रकारका संदेह नहीं For scholars of the west, the essays on किया जा सकता। the field of history of Jain literature, are of course the interesting part of the ___ "जैनहितैपी" और "भास्कर" की अन्त्येष्टी क्रिया contents, and I hope every numer will के पश्चात् अनंक दिनोंसे मरणोन्मुख इस जैन जातिक have somewhat of that kind” पनमत्थानके लिये ऐसे पत्र की अनिवार्य आवश्यकता 'आपकी कृपापूर्वक सम्मत्यर्थ भेजी हुई 'अन- थी। जा जाति पराकालमें सर्व प्रकारसे योग, शिक्षित, ४ मिली । में ऐसे पत्र बलवान, उदार और श्रेष्ठ थी वही वीर आत्माकों की को जारी करनेके लिये आपको धन्यवाद देता हूँ, जिस सन्तान आज उन गौरवों को विस्मरण कर सर्व प्रकार का बाह्य रूप और भीतरी लेख समानरूपसे संतोषप्रद से हासको प्राप्त हुई है । उसको यदि पुनः जागृत करने हैं, और मुझे जैनधर्म और उसके इतिहाम तथा पवित्र का कोई साधन है तो वह इसी प्रकार केवल मात्र उस साहित्य-विषयक अपने ग्रंथ में इसका उल्लेख करना के अतीत गौरवका समुचित रूपेण प्रकाशन है । जो आनन्दप्रद होगा। इस पत्रक लेखोंमें जैन साहित्यकं धर्म राप्रधर्म रह चका है, जिसका अवशिष्ट साहित्य, इतिहास-क्षेत्रस सम्बंध रखने वाले लेख अवश्य ही कला-कौशल, विज्ञान अब भी कठिनसे कठिन टक्करें ले पश्चिमी विद्वानों के लिये सबसे अधिक चित्ताकर्षक हैं, अधिक चित्ताकर्षक है, सकते हैं उसकी अवनति देख रोना पड़ता है । चिन्ताऔर मैं आशा करता हूँ कि प्रत्येक किर गणमें उस प्रकार मणिरलके स्वामी उस रत्नकी शक्तिसे अनभिज्ञहो उम के कुछ-न-कुछ लेख ज़रूर रहेंगे।' से एक पैसेके तैलयुक्त प्रदीपका कार्य ले रहे हैं। दुःख है । ६७ बाबू छोटेलालजी जैन, कलकत्ता-. यह "अनेकान्त” पत्र निःसन्देह जैनजातिकं हृदय __" 'अनेकान्त' की तीन किरणें प्राप्त हुई, अनेक में उस आवश्यक शक्तिका संचार करेगा और पुनः इस धन्यवाद । तीनों अंकों पर सम्मति के लिये संकेत है पवित्र सार्व धर्म की ध्वजा संसारमें फहरायेगा। श्रीकिन्तु जो पत्र प्राक्तन-विमर्ष-विचक्षण विद्यावय-वद्ध जिनेन्द्रदेवसेप्रार्थना है कि इसनवजात शिशुको चिरंजीव श्रद्धेय पं०जुगलकिशोरजी के तत्त्वाधानमें प्रकाशित हो करें। जैन बन्धओंसे निवेदन है कि इसे पूर्णतः अपनावें। उस पर सम्मतिकी क्या आवश्यकता है। ___ आश्रम और "अनेकान्त" दोनोंसे ही मैरी पुर्णसहानु श्री मुख्तार जीके लेखोंको पढ़नेका जिन्हें सौभा- भूति है और इनकी सहायताके लिये मैं सदा साथ हूँ।"
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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