SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्न [वर्ष १, किरण ४ विवेकवान नहीं रह सकता, और जब चिन विवेक से कि विवेक-शून्य होकर दुर्बलों पर अत्याचार करना रहित होता है तब फिर यह कैसे धर्मध्यान का अधि- जैसे हिंसा है वैसे ही लौकिक स्वार्थवश स्वाभिमानको कारी हो सकता है ? अतः आजीविका की प्राप्ति में ग्योकर दूसरों के अत्याचार सहना भी हिंसा है । क्यान्यायमार्ग का ध्यान रखना पहला कर्तव्य है। सब कि जिस प्रकार अन्याय करते समय क्रोधादि विकारों आजीविकाओं में क्षत्रियवृत्ति ( असिकर्म) को प्रथम के आवेश में आत्माकी कोमलता तथा सदसद्विवेकस्थान दिया है, वह दुर्बलोंके ऊपर होने वाले अन्यायों बुद्धि आदि उत्तम गुणों का घात होता है उसी प्रकार की रक्षाका माधन है, इसीलिये उपादेय है।जो विवेक- अत्याचार सहन में भी स्वाभिमान का लोप होकर श्रापूर्वक उसका आचरण करते हैं वे जग को अभयदान त्मबल के तिरस्कार तथा भयके संचार और कायरता के दाता हैं, दुर्बलों के आत्मविकास और उत्थान के आदि के प्रादुर्भाव के कारण सदसद्विवेकबुद्धि श्रादि साधक हैं। अत एव उनकी वह क्षत्रियवृत्ति अहिंसा आत्मा के सद्गुणोंका घात हो जाता है । इस लिये को पोषक ही है-घातक नहीं। घातक तो वह तब हो गृहस्थोके इस अत्याचारसहन को भी हिंसा ही कहते जाती है जब कि उनके मदोन्मत्त होने पर उनकी हैं। और इस कहने में तो कुछ भी आपत्ति मालम अनुचित अधिकार-लोलुपता, मनोविनोद के लिए मा- नहीं होती कि अहिंसक पुरुषमें ही वास्तविक पुरुषत्व खेट खेलना, दुर्बलों का सताना और अपने कर्तव्यमें प्रकट हो सकता है-हिंसक में नहीं । अहिंसक ही, प्रमाद करना आदिबढ़ जाते हैं। इसी लिये जैनाचार्यो वास्तव में, स्व-पर-अन्यायका विरोधी होनेसे वीर, विने “निरर्थकवयत्यागेन तत्रिया वतिनो मता" वेकी, सहिष्णु और उदार अन्तःकरण वाला व्यक्ति हो जैसे वाक्यों द्वारा निरर्थक वष त्यागको ही क्षत्रियोंका सकता है। उसे ही स्वयं अन्याय-पापाचरण न करने के पहिसाबत कहा है-सार्थक अथवा सापराध जीवोंके कारण संयम की, मनोनिग्रह-पूर्वक अनुचित तृष्णाओं पप त्यागको नहीं । इसीसे जैनी राजा अपराधियों के के निरोध से तप की और दूसरे के ऊपर होने वाले लिये अनेक प्रकारके वध-बन्धनोंका विधान करते तथा अन्याय का परिहार करते रहने से विश्ववन्धुता की पदोंमें लड़ते पाये हैं। जबसे जैनियों ने इस प्राप्ति होता है। क्षत्रियवृत्तिको छोड़ दिया है तभी से उनका पतन हो अतः गहस्थधर्मोपयोगी अहिंसाके स्वल्पको ठीक गया है और वे अपने धर्म तथा समाजके गौरवको भी ममझ कर उसकी सम्यकभाराधना करनी चाहियेकायम नहीं रख सके हैं। बराबर उसके अनुष्ठान में लगा रहना चाहिये । इसीसे अब मैं यहाँ पर इतना और बतला देना चाहता हूँ अपना और देशका उद्धार हो सकेगा। ANGI
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy