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________________ ६६६ ७८ मुनि श्री दर्शन विजय जी, कलकना - " आपके 'अनेकान्त' की १ मे ७ तक किर श्रीमान पुर्णचन्द्रजी नाहर के पाससे बचने के लिये faff | आवश्यक और गहन विषयोंका संग्रह वाँचकर प्रतीव श्रानन्द हुआ ।” ७६ मुनि श्री शीलविजयजी, बडौदा 'अनेकान्न' को पढ़ने की अभिलापा बहुन होने से यह पत्र लिखता हूँ। आशा है कि आप शीघ्र भेज देंगे। बीर प्रभु शासनमें 'अनेकान' जैसे मामिक पत्र की खास जरूरत थी वह आपने पूरी कर बनलाई है। मैं आशा रखता हूँ कि विद्वन्मंड जरूर अनेकान्त' को अपनावेगा ।" " 'अनेकान्त' पर लोकमत Co मुनि श्री फूलचन्द्रजी, रोपड ( पंजाब ) - "आपकी कृति महमी है। सुभा, माधुरी आदिके कारकी एक पत्रिकाकी आवश्यकता की आपने ही पति की है, जिसकी जैनसमाज में पूर्ण आवश्यकता थी। हार्दिक आशी: राशी: है कि आपकी कृति उन्नति के शिखर पर आरोपित हो ।" का ८१ पं० मूलचन्द्रजी 'वत्सल' बिजनौर " जैन श्रुतज्ञान के प्राचीन जैनसाहित्यका नवीन are प्रकाशमें लाकर जैनयमके सत्य सिद्धान्नोंका अर्वाचीन पद्धतिले विश्वके सामने रखने की बड़ी भारी आवश्यकता है। स्वेद है वर्तमान में जितने मामाजिक और धार्मिक पत्र प्रकट हो रहे हैं वे जैनधर्मके वास्त [वर्ष १, किरण ११, १२ Par मात्र विक उद्धार से सर्वथा विमुक्त हैं। उनका ध्येय केवल परस्पर विरोध और अपने मान-सन्मान की पूर्ति । ऐसे समय मे 'अनेकान्त' ने जन्म लेकर एक बड़े अभाव की पूर्ति ही नहीं की है किन्तु वास्तविक उद्वारमार्ग पर पदार्पण करनेके लिए पथप्रदर्शकका पत्र महगा किया है। 'अनेकान्त' के प्रत्येक लेख प्रखर पांडित्य प्रौढ विद्वत्ता और गहरे अध्ययनकी छटा प्रकट होती है 1 ऐसे लेम्योंके पटन, मनन और अध्ययन करने की जैन समाजको बड़ी न्यावश्यकता है 1 हम ज्यों ज्यों उसकी अगली किरणोंका दर्शन करते हैं त्यो त्यों उसमें परिश्रम और प्रतिभाका उज्वल श्रालोक अवलोकन करते हैं, उसके अङ्क इस बात के साक्षी है कि वह जैन सिद्धान्त सेवा के किनले महत् भावोको लेकर अवतीर्ण हुआ है और इतने अल्प स मयमेंट अपने उद्देश्योंमे कितना सफल हुआ है । इस अनुपम साहित्यसेवाका समम्न श्रेय प्रसिद्ध साहित्यमंत्री पं जुगलकिशोर जी को है जो अपने श्र नवरतश्रम, गंभीरतापूर्ण खोज और अदम्यकर्मठतास इस महत् कार्यमें कटिवद्ध हो रहे हैं। मेरी हार्दिक भावना है कि भगवान् मुख्तार जीको शक्ति और जैन समाजको सत्यभक्ति प्रदान करें जिम से इम विशाल यज्ञ की पुण्य सुरभिसे एक बार अखिल विश्व सुरभित हो जाय।"
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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