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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण १ सत्यकी तहमें पहुँच जाता है-वह अपेक्षादृष्टिसे काम इसलिये श्रीऋषभदेवजी का समय वेदोंसे भी प्राचीन लेता है और जानता है कि मूलमें इस लोकके अभिनय ठहरता है । इस अपेक्षासे अनेकान्तका प्रथम प्रकाश का उत्तरदायित्व संसारी आत्मा पर ही है; किन्तु वेदोंसे भी पहले एक अज्ञात कालमें हुआ कहा जा इतनसे ही वह कर्तृत्ववादी पड़ोसीस लड़ता नहीं । सकता है । किन्तु अधिकांश विद्वानोंका मत है कि वह सोचता है कि आखिर यह मसारी आत्मा ही तो अनेकान्त सिद्धान्तका प्रतिपादन सर्वप्रथम भगवान शुद्ध-बुद्ध निरंजन परमात्मा होता है, जो आज इस महावीरने ईस्वी सनसे पूर्व छठी शदाब्दीमें किया था। संसार रूपी खेलका कर्ता-हा है। आज व्यवहारमें हम उनके इस कथनसे सहमत होने में असमर्थ हैं । फँसकर वह इस सच्ची बातको भूलगया है-निश्चयको उनका यह कथन जैन शास्त्रोंके विरुद्ध तो है ही, साथ पहचान ले तो वह अपने सिद्धान्तको व्यक्त करनेकी (?) ही ऐतिहामिक दृष्टिसे भी तथ्यहीन है। मच पूछिये गलती को समझ ले । इसमें सन्देह नहीं कि अनेकान्त तो इस मतकी पुष्टिमें कोई भी उपयुक्त प्रमाण उपलब्ध सामादायिकता तथा कट्टरता को नष्ट करनेमें महत्वका नहीं है । इसके विपरीत भगवान महावीर से पहले भाग लेने वाला है । लोग यदि बोलवालके इम विज्ञान इस सिद्धान्तका प्रादुर्भाव हुआ प्रकट करनेवाले उल्लेख को समझलें, तो उनमें अशान्तिको जन्म पा . के लिये वैदिक एवं बौद्ध साहित्यमें भी मिलते हैं। पहले ही शायद ही अवसर मिले।
हिन्दुओंके 'महाभारत' में जो निम्न उल्लेख मिलता है, अब बताइये इस वैज्ञानिक वात का इतिहास क्या वह जैनोंके अनेकान्त अथवा म्याद्वाद सिद्धांत का हो ? यह तो प्राकृत नियम और निखिल सत्य है, द्योतक है:जिसका न आदि है और न अन्त । किन्तु इतनं पर भी 'एनदेवं न चैवं च न चोभये नानुभे तथा । विचार इस बातको मानने के लिये हमें बाध्य करता है कर्मस्या (१) विषयं ब्रयुः सत्त्वस्थाः समदर्शिनः ।।' कि इम प्राकृत नियमका प्रकृतिक अदृश्य अंवलमे इसके अतिरिक्त बौद्ध साहित्य पर दृष्टि दौड़ानेसे, निकाल कर जनसमूहके समक्ष कभी न कभी किसी उन छ: मत प्रवर्तकोंक नाम सम्मुख पाते हैं, जो म० महापु प रा स द्धान्तिक रूपमें अवश्य विकाश के पहलेसे विद्यमान थे। इनमें संजय वैरत्थीपत्र हुआ होगा। इस विकाशक्रमको प्रकट कर देना ही की जो शिक्षा बतलाई गई है, वह जैनोंके अनेकान्त अनेकान्त का इतिहास है।
अथवा स्याद्वाद सिद्धान्तका विकृत रूप है। यह बात भारतीय दर्शनोंमें केवल जैनदर्शन को ही यह सर्व मान्य है कि भ० महावीरके पहलेसे जैनधर्म विशेषता प्राप्त है कि उसमें अनेकान्त-सिद्धान्तका एक विद्यमान था । इस दशा में यह आवश्यक है कि भ०बुद्ध पूर्ण वैज्ञानिक विवेचन हुआ मिलता है । जैनशास्त्रोका के समय के मतप्रवर्तकोंमें उस प्राचीन जैनधर्मके मुख्य कथन है कि इस युगमें सर्वप्रथम भगवान ऋषभदेवने -
१. भगवान महावीर, पृ०१५... अनेकान्त धर्मका उपदेश दिया था। इन्हीं ऋषभदेवजी २. शांतिपर्व-मोक्षधर्म, म०२७८ श्लोक ६ को हिन्दू पुराणोंमें आठवाँ अवतार बताया गया है। ३ दीपनिकय-सामगणफलमुक्तऔर चूंकि बारहवें वामन अवतारका उल्लेख वेदों में है, ४. सानण्णफलसुत्त-Dial: of Buldha (S.B.B.II