________________
चैत्र, वीर नि०सं०२४५६]
राजा खारवेल और उसका वंश (६) दिगम्बर जैनप्रन्थ 'हरिवंशपुराण' से प्रकट है परास्त किया लिखा है । इस वृहस्पतिमित्रको ही मि० कि भगवान महावीर के समयमें कलिंगका राजा जित- जायसवाल पुष्यमित्र मानते हैं । थेरावलीमें स्पष्टतः शत्रु था -सुलोचन नहीं था । अतः अन्य श्वेताम्बर पुष्यमित्रका नामोल्लेख कर दिया गया है। किन्तु अब
और जैनेतर साहित्यसे इस 'सुलोचन'का अस्तित्व जब विद्वान वृहस्पतिमित्रको पुष्यमित्र मान के लिये तैयार नक प्रमाणित न हो जाय, तब तक उसको तत्कालीन नहीं हैं । इसी प्रकार दृष्टिबाद अंगके पुनरुत्थान कलिंगाधिपति स्वीकार करना कठिन है। किये जाने की बात भी अब असंगत है; क्योंकि कोई __ (७) उपर्युक्त प्रकारसे इस थेरावलीक प्रकट अंश कोई विद्वान उसे विपाकसत्र प्रन्थ बतलाते हैं, जो के प्रारंभिक भागकी अनैतिहासिकता को देखते हुए, दिगम्बरमतानसार विलुप्त है और श्वेताम्बरों में उममें क्षेमराज, बट्टराज, कुमारीगिरि आदि ऐतिहासिक मिलता है ।१० पुरुषों नथा वार्ताका उल्लेख मिलना, उसके संदिग्ध रूप (८) थेगवली-द्वारा प्रकट किया गया है कि कुमाका असंदिग्ध नहीं बना देता । क्या यह संभव नहीं है. रगिरि पर वारवेल ने प्रार्य सुस्थिन और सुप्रतिबुद्ध कि खारवेल के अति प्राचीन शिलालेखको श्वेताम्बर नामक स्थविरों के हाथ से जिनमन्दिर का पुनरुद्धार माहित्यस पोपण दिला कर उसे श्वेताम्बरीय प्रकट कराके प्रतिष्ठा कराई और उसमें जिनकी मूर्ति स्थापित करने के लिये ही किसी ने इस थेरावलीकी रचना कर कराई । माथ ही, वीरनिर्वाणसे ३३८ वर्षों के बाद ये डाली हो और वही रचना किमी शाखभण्डार से उक्त मब कार्य करके खारवेलको म्वर्गवामी हुआ लिम्बा है। मुनिजीको मिल गई हो ? * इस बातको मंभवनीय किन्तु श्वेताम्बरीय तपागच्छ की 'वृद्ध पट्टावली' में हम इस कारण और मानते हैं कि इसमें शिलालेख यह बात बाधिन है । उसके अनुसार उक्त स्थविर-द्वय के पिछले रूपके अनसार कई उल्लेख हैं, परंतु अब का ममय वीरनिर्वाण में २७२ वर्ष बादका है । इम विद्वानोंने उन अंशोंको दसरं रूपमें पढ़ा हैxमकि हालनमें ग्यारवेलका उनमें मानात हाना कठिन है। थरावली में 'खारवेलाधिपति' नाम मात्र एक उपाधि
अतः हा मकना है कि यह बान मात्र इस ग़र्जम लिखी
गई हो कि उक्त नीर्थको किमी ममय श्वेताम्बगेका रूपमें है, परंतु अब वह खास नाम प्रकट हुआ है।
मिद्ध किया जा मके। शिनालखमें बारवेल ने एक वृहस्पनिमित्र गजा को
= hd p.442. है.भ. महावीर और म. बुद्ध, पृ. ४१
# Indian Historical Quini terly Vol * मुनि जी को अभी तक मूल ग्रन्यकी प्रानि न हुई। उनि PP 587-613 सक गुजराती मनुवाद पर मे ही वालेख लिखा है, जिसकी मृच- १०. IInd p. 592. ना लखक मन्तिा फटनोट में पाई जाती है. मोर प्रपन १६
११नस पियकाधक, भाग १, परिगट . की के पत्र में वे मुझे भी लिम्व रह हैं । वह अनुवाद मिचलगच्छ- x भले ही कटिन जान पहे, किन्तु अपमत्र नहीं है, क्योंकि नी म्होटी पट्टावली' में छपा है
-सम्पादक उक्त ३७२ का मुनय मस्थित सरिक स्वर्गारोहण का समय है। x उनका वह हालका पढ़ना ही ठीक है यह अभी मे मान उसमे ५०-६० वर्ष पहल उनका मौजूद होना कोई प्रावकी बात लिया जाय !
-सम्पादक ना है । अंक गुरु मस्ती की भायु ता पहावनी में ही ... 9. JBORS. IN 134.
की लिखी है।