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मार्गशिर, वीरनि० सं०२४५६ भगवान महावीर और उनका समय अमर तथा अक्षय सौख्यको प्राप्त हो गये * । इसीका संस्कृतिक अधिकारी ही नहीं माने जाते थे और उनके नाम विदेहमुक्ति, प्रात्यन्तिक स्वात्मस्थिति, परिपूर्ण विषयमें बहुत ही निर्दय नथा घातक नियम प्रचलित सिद्धावस्था अथवा निष्कल परमात्मपदकी प्राप्ति है । थे; स्त्रियाँ भी काफी तौर पर मनाई जाती थीं, उच्च भगवान महावीर ७२ वर्ष की अवस्था में अपने इस शिक्षामे वंचिन रग्वी जाती थीं. उनके विषयमें अन्तिम ध्येयको प्राप्त करके लोकारवासी हुप । “नम्त्री स्वातंत्र्यमईति" जैमी कठोर अाज्ञाएँ जारी
और आज उन्हींका तीर्थ प्रवर्त रहा है। थीं और उन्हें यथेष्ट मानवी अधिकार प्राप्त नहीं थे___ इस प्रकार भगवान महावीरका यह संक्षेपमें बहुतोंकी दृष्टिमें तो वे केवल भोगकी वस्तु, विलायकी सामान्य परिचय है, जिसमें प्रायः किमीको भी कोई चीज़, पुरुपकी सम्पत्नि अथवा वच्चा जननकी मशीन खास विवाद नहीं है। भगव जीवनीकी उभय सम्प्रदाय- मात्र रह गई थीं; ब्राह्मणोंने धर्मानुष्ठान आदिकं मव सम्बन्धी कुछ विवादग्रस्त अथवा मतभेद वाली वातां ऊँचे ऊँचे अधिकार अपने लिए रिजर्व रख छोड़े थेको मैंने पहले से ही छोड़ दिया है। उनके लिये इस दृमर लोगोंको वे उनका पा ही नहीं ममझते थे-- छोटेसे निवन्धमें स्थान भी कहाँ हो सकता है? वेता मवत्र उन्हींकी तती बालती थी, श गहरे अनमंधानको लिये हुए एक विम्तत आलोचना- उन्हान अपने लिए ग्वाम रियायतें प्राप्त कर रकबी निबन्धमें अच्छे ऊहापोह अथवा विवेचनक माथ ही थीं-- घाग्मे घोर पाप और बड़से बड़ा अपराध कर दिखलाई जानके योग्य हैं । अस्तु ।।
लेनेपर भी उन्हें प्रागदगड नहीं दिया जाता था. जब देशकालकी परिस्थिति
कि दृमगेको एक साधारण अपगध पर भी फोमी
पर चढ़ा दिया जाता थाः ब्राह्मणोंके बिगड़े हुए जातिदेश-कालकी जिस परिस्थिति ने महावीर भगवान भंदकी दुर्गधमे देशका प्राण घट रहा था और उसका को उत्पन्न किया उसके सम्बन्ध में भी दो शब्द कहदेना विकाम क रहा था, खुद उनके अभिमान तथा जानि यहाँ पर उचित जान पड़ता है । महावीर भगवान मदन उन्हें पनिन कर दिया था और उनमें लोभके अवतारमं पहल देशका वातावरण बहुत ही क्षुब्ध, लालच, दंभ, अज्ञानना, अकर्मण्यता. ऋग्ता नथा पीड़ित नथा मंत्रस्न हो रहा था ; दीन-दुर्बल ग्व्व धर्ततादि दुर्गरगांका निवास हो गया था; व रिश्वत मताए जाते थेः ऊँच-नीचकी भावना जागं पर थी; अथवा दक्षिणाएँ लेकर परलोकके लिए सर्टिफिकेट शद्रोंसे पशुओं जैमाव्यवहार होताथा, उन्हे कोई सम्मान और पान तक देने लगे थे धर्मकी अमली भावना या अधिकार प्राप्त नहीं था, वे शिक्षा दीक्षा प्रार उच्च प्रायः लग्न हो गई थी और उनका स्थान अर्थ-हीन
* जैसा कि श्रीपूज्यपादक निम्न वाक्यम भी प्रकट है: क्रियाकाण्डों तथा थार्थ विधिविधानान ले लिया 'पनवनीधिक कुल विविवदमखगडगिडत रम्ये ।
था; बहुनसे देवी-देवताओंकी कल्पना प्रवन हो उठी पावानगरोद्याने व्युत्सर्गण स्थितः स मुनिः ॥ १६ ॥ थी, उनके मंतुष्ट करनेमें ही सारा समय चला जाता कार्तिककृष्णस्यान्ते स्वातावृक्षे निहत्य कारजः ।
था और उन्हें पश्योंकी बलियाँ तक चढ़ाई जाती थी। अवशेष संप्रापद व्यजरामरमक्षयं सौव्यम् ॥ १७॥" धर्मके नाम पर सर्वत्र यज्ञ-यागादिक कर्म होते थे और
निवणभक्ति। उनमें असंख्य पशुओंको होमा जाना था-जीवित