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________________ आश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६ ] एक विलक्षण आरोप एक विलक्षण बाबू कामनाप्रमादजी के लेख पर जो नोट 'अने कान्त' की ५ वीं किरण में लगाये गये थे उन परसे बाबू साहब रुष्ट हुए सो तो हुए ही, परन्तु उनके मित्र बैरिष्टर चम्पतयजी भी रुष्ट हो गये हैं— उन्हें अपने नास मित्रके लेखकी शान में ऐसे नोट असह्य हो उठे हैं और इसलिये आपने उन्हें तथा साथमें सहारेके लिये बाब छोटेलाल जी के लेख के नोटों को भी लेकर, उक्त किरण की समालोचनाके नाम पर, एक लेख लिख डाला है और उसके द्वारा 'अनेकान्त' तथा उसके सम्पादक के प्रति अपना भारी रोष व्यक्त किया है । यह लेख जून सन् १९३० के 'वीर' और २८ अगस्त १९३० के 'जैनमित्र' में प्रकट हुआ है । लेखमें सम्पादकको "मकतबके मौलवी साहब " - " परागंदह दिल मौलवी साहब "उसके नोटों को "कमचियाँ" और उन परसे होने वाले अनुभवनको “तड़ाके का मजा”, “चटखारों का आनन्द", " चटपटा चटखारा" और "मजेदार तडाकोंका लुल्क" इत्यादि बतला कर हिंसानन्दी गैह्र ध्यानका एक पार्ट खेला गया है । इस लेख परसे बैरिटर साहबकी मनोवृत्ति और 'उनकी लेखनपद्धतिको मालूम करके मुझे खेद हुआ ! यदि यह लेख मेरे नोटों के विरोध में किसी गहरे युक्तिवाद और गंभीर विचारको लिये होता, अथवा उसमें महज़ आवेशही आवेश या एक विदूषककी कृति-जैसा कांग बातूनी जमाखर्च ही रहता तो शायद मुझे उसके विरो कुछ लिखने की भी जरूरत न होती; क्योंकि मैं अपना और अपने पाठकों का समय व्यर्थ नष्ट करना नहीं चाहता | परन्तु लेख मेरे ऊपर एक विलक्षण with लगाने की भी चेट की गई है। अतः इस लेखकी असलियतका कुछ श्री परिय 'अनेकान्त' ६५५ आरोप I के पाठकों को करा देना और उनके सामने अपनी पोजीशनको स्पष्ट कर देना मैं अपना उचित कर्तव्य समता हूँ । उसीका नीचे प्रयत्न किया जाता है। और वह पाठकों को कुछ कम रुचिकर नहीं होगा; उससे उनकी कितनी ही गलत फहमिया दूर हो सकेंगी और वे बैरिष्टर साहबको पहलेसे कहीं अधिक अच्छे रूपमें पहचान सकेंगे । सम्पादक के पिछले कामोंकी आलोचना करते हुए बैरिष्टर साहब लिखते हैं- "खण्डनका काम आपका दरअसल खूब प्रसिद्ध है । मण्डनका काम अभी कोई क़ाबिल तारीफ़ आपकी क़लमका लिखा हुआ मेरे देखने में नहीं आया ।" : त्यादि, और इसके द्वारा आपने यह प्रतिपादन किया है कि सम्पादकके द्वारा अभी तक कोई अच्छा विधायक कार्य नहीं हो सका है— अनेकान्तके द्वारा कुछ होगा तो वह आगे देखा जायगा, इस वक्त तो वह भी नहीं हो रहा है। इस संबंध में मैं सिर्फ दो बातें बतलाना चाहता हूँ । एक तो यह कि ऐसा लिम्बते हुए बैरियर साहब जैन सिद्धान्तकी इस बातको भुल गये हैं कि खण्डन के साथ मण्डन लगा रहता है, एक बानका यदि खंडन किया जाता है तो दूसरी बातका उसके साथ ही मण्डन हो जाना है और खण्डन जितने जोरका अथवा जितना अच्छा होता है मंडन भी उतने ही जोरका तथा उतना ही अच्छा हुआ करता है। उदाहरण के तौर पर शरीर के दोषों अथवा विकारोंका जितना अधिक खण्डन किया जाता है शरीर के स्वास्थ्यका उतना ही अधिक मण्डन होता है— किमी अंगके गले मढ़े भागको काट डालना उसके दूसरे स्वस्थ भागकी रक्षा करनेके बराबर है। इसी तरह शरीर के दोषोंका जिन कार्यों के द्वारा
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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