SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मागशिर, वीरनि० सं० २४५६] विधुवर यद्धविद्या, राजनीति-विद्या और चातुर्य की अन्य सफल हुआ तो क्या हुआ ? उसने वह सब बाधाएँ कलाओं में जो उसने प्रवीणता प्राप्त की है, उसकी और आपत्तियाँ उठान्य आवश्यक समझा जो एक उपयोगिता पहले मार्ग में उतनी नहीं है जितनी दूसरे साधारण चोरको उठानी पड़तीं । अर्थात् , उसने अपने में । प्राप्त राजत्व में उसकी दक्षता, निपुणता शौर्य और परिधानमें, आकृतिमें, व्यवहारमें, अपने दिमाग़ और होशियारी इतनी काम नहीं आयेगी, जितनी 'अप्राप्त दिलमें भी-यानी भीतरी-बाहरी, अपने सम्पूर्ण सेनापतित्व' बनाने और निभाने में। और अपनी व्यक्तित्वमें-युवराजत्वका कोई चिन्ह अवशेष न रहने शस्त्रास्त्रों की कुशलता सीखने और सिखाये जाने का दिया। -और एक दिन सुना गया, राजकोषसे कई वह आवश्यक रूप में यह उद्देश्य समझता है कि उस सहस्र दीनार गुम हो गये हैं। दक्षता का अधिकाधिक उपयोग हो-वह अधिकाधिक चोरीअसाधारण थी,-परिमाणमें, साहसिकतामें कृतकार्यता पाए। और कौशलमें भी। क्योंकि इस भारी दुस्साहसिक ___ जब स्वार्थ सिद्धि लक्ष्य है, तो उसका मार्ग भी चोरकी गंध भी न लग पाई । कोई जरासा भी आधार यही है इस संबंध में वह नितांत निश्शंक है। और इस नहीं छोड़ा गया था जिससे संदेह और खोजका सिलराहसे मिलने वाले ऐश्वर्यकी सीमा नहीं, गणना नहीं सिला शुरू होसकता । राज्यका तमाम परिकर-परिचर परिभाग नहीं, बंधन नहीं; और इस राह में निरंतर और गुप्तचर विभाग चोरकी हवा पानेकी टोहमें लगा। चातुर्य और शौर्य की आवश्यक्ता है । जब कि राजत्व पर महीनों बीत गये । खाज बहुत ही फैली और का ऐश्वर्य परिमित है, राज्यके विस्तार की सीमा है, फैलाई गई, पर आगे एक इंच भी नहीं आ पाई। और राज्यके कर की गणना है और राजत्व पर दस आखिर, हार कर, यह शोध छोड़ दी गई । घटना तरह के विधि विधान ( Constitution ) के बंधन भुला दी गई । चर्चा पुरानी होगई, बस स्मृति की चीज हैं, और उसमें कभी कभी ही शौर्य और चातुर्यप्रदर्शन रह गई-तब कुमार विद्युञ्चरको अपने पर विश्वास की आवश्यक्ता पड़ती है हुआ । सोचा, अब वह अपने चातुर्य पर अवलंबित ___ इस प्रकार उस एकनिष्ठ कुमारने मानो संसारकी रह कर इस व्यवसायमें पूर्ण योगसे पड़ जायगा । प्रगतिमें छिपे तत्वको पहचान कर उसके अनुरूप, दोपहरका समय था। पिताजी विश्राम कक्षमें निश्चय कर लिया-वह चोर बनेगा। । कुमार सीधा पहुँचा,-पूर्ण निर्णय उसके मनमें (३) था, वही उमकी चालमें और बातमें-उनके चरण नो वह चोर बन उठा । इस मार्ग पर पग रखना ही छुए और बालाहै तो आगे कहीं ममता और मोह बाधक न हो, इससे "पिताजी, वह. ..... पहले पिताके यहाँ ही चोरी करना आवश्यक समझा पिताजी चौंके । यह समय, यह स्थान ! और गया। शुभ का परसे ही शुरू हों, Charity be- कुमार, और यह उमका मुद्रा !' gius at hom' अर्थात पहिली चोरीका लक्ष्य बोलेअपने घरका ही राजमहल और अपने पिताका ही "कुमार, क्या है ?..." गजकोष न हो तो क्या हो ? "पिताजी, वे दीनारें...!" _ किन्तु राजपुत्रत्वसे मिलनेवाले किसी भी सुभीते और अधिकारसे लाभ उठाना विद्युचर स्वीकार नहीं "कहां मिली"? कर सकता था। यह करना मानों अपनी कार्यकुशलता "मैंन चुराई थीं।" पर अविश्वास करना था। इस प्रकार यदि चोर-कार्य पिता जैसे सचमुच सुन पाये ही नहीं
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy