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________________ माध, वीर नि०सं०२४५६] भगवती आराधना और उसकी टीकाएँ १४७ देवचन्द्रकृत 'राजावलिकथे' नामका एक कनड़ी इससे तो केवल यही मालम होना है कि उनका कथा प्रन्थहै जो विक्रम संवत् १८९६का बना हुआ है। बनाया हुआ कोई ऐसा प्रन्थ है जिस में चतुष्टयात्मक यह बहुत ही आधुनिक है । इसमें स्वामी समन्तभद्रकी (दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तपरूप) मोक्षमार्गका स्वरूप बतकथा है, परन्तु वह उक्त कथाकोशवर्णित कथासे बहुत लाया गया है; परन्तु वह प्रन्थ भगवनी आराधना ही कुछ भिन्न हैx । उसमें शिवकोटिको स्वामी समन्त- है, यह कैसे कहा जा सकता है ?* भद्रका शिष्य जरूर बतलाया है, फिर भी भगवती एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि यदि आराधनाका कर्ता नहीं बतलाया। आचार्य जिनसेन शिवकोटिको समन्तभद्रका शिष्य इसी प्रकार का मानते होते, तो पूर्व प्रन्थकर्ताओंके स्मरण प्रसङ्ग में में जो शक संवत् १०५० (वि० सं० ११८५)का लिखा न करके समन्तभद्र के बाद श्रीदत्त, यशोभद्र और प्रभा - समन्तभद्रके बाद ही वे उनका स्मरण करते; परंतु ऐसा हुआ है । शिवकोटिको समन्तभद्रका शिष्या बतलाकर चंद्रकी प्रशंसामें चार पाँच श्लोक लिखकर फिर शिवउन्हें भगवती आराधनाका नहीं, किन्तु तत्त्वार्थसूत्रकी कोटिके स्मरण का उक्त श्लोक लिखा है । यह ठीक है. टीकाका कर्ता बतलाया है। यथाः- कि, इस प्रकारके स्मरण समयके क्रमसे बहुत ही कम तस्यैवशिष्यश्शिवकोटिसूरिस्तपोलतालंबनदेहयष्टिः किये जाते हैं, फिर भी समन्तभद्र और शिवकोटिका पष्ट पूर्वोक्त गुरु-शिष्य सम्बन्ध यदि मादिपुराणकारको संसारवाराकरपोतमेतत्तत्वार्थसत्रं तदलंचकार || मालूम होता तो वे इतना क्रमवैषम्य कभी न करने x। आदिपुराणके कर्ता भगवजिनसेनने भी शिवकोटि - -- * यद्यपि इस श्लोक भगवती प्राराधना' या 'भागधना' नामक का एक प्रन्थकर्ताके रूपमें स्मरण किया है; परन्तु ग्रंथका काई स्पट उख नहीं किया है परन्तु जिस ढंगमे उदेख किया .उस से न तो यह मालम होता है कि वे भगवती है उस परमं वह एक तरह प्रकृत ग्रंथ-विषयक कुछ ध्वनित अर होता आराधनाके कर्ता थे और न यही कि वे समन्तभद्रके है। और जहां तक मैं समझता हूँ इस उलेखको साथमें लेकर ही यह ग्रन्थ प्रकट रूपमं शिक्कोटिका समझा जाने लगा है । ५० माशाधरजी ने भी ऐसा ही समझा है।हो सकता है कि इस समझने में भूल हो या यह उखही कुछ गलत हो अथवा इसमें समन्तभवक शिष्य शिवकोटिसे भिन्न किसी दूसरे ही शिक्कोटिका उमेख हो। और इसमें लिखा है कि-'वे शिवकोटि मुनीश्वर हमारी यह भी सभव है कि भगवती माराधनामें जिन 'जिननन्दि' प्राचार्या रक्षा करें जिनकी वाणीके द्वारा चतुष्टयरूप मोक्षमार्ग शिवार्यने अपने गुरु रूपसे उख किया है वह समन्तभद्रका ही नामाका आराधन करके यह जगत शीतीत या शो तर हो-'समन्तभव' यह 'जिन' का पर्याय नाम भी है दीक्षानाम 'जिननन्दि' रहा हो और समन्तभद्र ' नाम बावको ऐम गया। ही प्रसिद्ध हुमा हो जैसे देवनन्दि का 'पूज्यपाद' नाम प्रसिद्ध हुमा ४ देखो श्रीयुत पं. जुगलकिशोरजी कृत 'स्वाती समन्तभव' है। परन्तु ये सब बातें भी विशेष अनुसन्धानसे सम्बन्ध रखती हैं। + 'विकान्तकौरव' नाटक 'जिनेंद्रकल्याणाभ्युक्य' ग्रन्थ मौर -सम्पादक नगर ताल्लुकेके शिलालेख नं० ३५में भी, जो कि शक सं०६६ xो प्राचार्य प्रकलकक ग्रन्थों टीकाकार प्रभाकरका जाल का लिखा हुमा है, शिवकोटि को समन्तभद्रका शिष्य लिखा है। प्रकलकसे भी पहले करते हैं उनके विषय में कम-वेषम्य मकरमेकी -सम्पादक यह कल्पना कुछ ठीक मालूम नहीं होती। -सम्पादक शिष्य ISSV
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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