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________________ पाश्विन,कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] श्व० सान निव वह एक दिन अनुप्रवाद नामक पूर्व पढ़ रहा था। महागिरि का शिष्य धनगत था और दूसरे किनारे पढ़ते पढ़ते उसे ऐसा स्त्रयाल हो गया कि प्रत्येक भार्यगंग नामक आचार्य । शरद ऋतुमें एक बार पदार्थ एक क्षण-स्थायी है, दूसरे ममय में सबका आर्यगंग आचार्य-वन्दनाके लिए नदी पार कर कर नाश हो जाता है । वह प्ररूपणा भी ऐसी ही करने रहा था । गंग गॅजा था । धपके मारं ऊपरमं उसकी लगा। उमे भी उन्हीं यक्तियों से समझाया गया, जो खोपड़ी जलने लगी और नीचेसे नदीके ठंडे पानीम बौद्धमत के खण्डन के लिए काम में लाई जाती है। ठण्ड लगने लगी। इसी समय उम मिथ्यात्व माहनीय परन्तु जब अश्वमित्र न ममझा तो उसे भी संघ बाहर कर्मन श्रा घेरा । वह सोचने लगानिकाल दिया गया । वह भी घमता घूमता राजगृह "शास्त्रों में लिया है एक समय में दो क्रियाएँ अनउफ काम्पिल्य नगर में पहुंचा । वहा खण्डरक्ष नाम भत नहीं होती, किन्तु मैं एक ही समयमें दो क्रियाओं के एक श्रावक थे। वे शुल्कपाल ( जकात के ऑफ़ि का वेदन कर रहा हूँ । आगमका यह कथन अनुभवसर ) थे। ज्योंही उन्हें निहवों का आना मालम विरुद्ध है, अतःमाननीय नहीं है।" उसने अपने विचार हुआ त्योंही उन्होंने उनको माग्ना पीटना प्रारम्भ कर गुरुजीको कह सुनाये । गुरुजीन युक्तियाँ दे-देकर उमे दिया। निव बेचारे डर के मारं कांपने लगे और मार समझाया पर उसने एक न मानी । अन्तमें गुरुजीन के मारे हाँफने लगे। बले-"हम कुछ नहीं जानत, उस संघ-बाह्य कर दिया और वह भी अश्वमित्र' आदि तुम श्रावक होकर हम साधनों को भी मारत हो ?" की तरह राजगह नगर पहुँचा । वहाँ एक 'मणिनाग' खण्डरक्षने कहा-"जो माधु थे वे तो मी समय नष्ट चैत्य (?) था। उमीके ममीप आर्यगंग अपना नया होगये, तुम लोग चोर लुच्चोंमेमे न जाने कौन हो?" सिद्धान्त मभाको समझा रहा था । सुनकर मणिनाग. खण्डग्क्ष के इतना कहने ही में उन साधओं ने का बड़ा गम्मा पाया और गंगसे बोला-भरे दुष्ट अपना दुराग्रह त्याग दिया और “मिच्छामि दुक्कड" शिक्षक ! उल्टा-मीधा क्यों समझा रहा है ? एक बार ( मेरा दुष्कन मिथ्या हो ) कह कर गम महाराज के भगवान महावीर स्वामी इसी जगह आये थे भो पादमूल में जा पहुंचे। उन्होंने एक ममयमें एक ही क्रियाका बदन बतात. 'अनप्रवाद' पूर्वके जिम कथनको मान कर अश्व- था। मैं उस वक्त यही था-मैन भगवानकी प्ररूपणा मित्रन क्षण-नश्वरता की स्थापना की थी, वह बौद्धो सनी थी, तुम क्या उनम भी ज्यादा शबदेस्त उपदेशक का प्रसिद्ध सिद्धान्त है और जैनोंके 'ऋजसूत्र' नयक हो जाऐमा उपदेश कर रहे हो ? यह झटी प्रापणा दृष्टि में संगत है । अश्वमित्र नं एकान्ततः ऋजसूत्रकी बन्द कग वा अभी तुम्हारे प्राण लेता हूँ।" ही प्रतिष्ठा करके अन्यान्य नयोंको मर्वथा भला दिया मणिनागकी बात सुनते ही गंगफ हायांक नातं जाने था। इसी भलके कारण वह निह्नव कहलाया। लगे और उसकी यक्तियोंमें उमे प्रनिबोध हो गया। इन पाचवा निन्हव प्रकार समझ कर वह गरुकं पादमूलमं चला गया। उल्लका नदीक एक किनारे पर एक खेड़ा था और गंग कहना था-स्वानुभव-विरुद्ध एक कालमें 04, दूसरे किनारे उल्लकातीर नामक मगर था । एक किनारे ही क्रिया वेदका नियम कैमे माना जा सकता है।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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