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________________ आषाढ, श्रावण,भाद्रपद वीरनि०सं०२४५६] जैन-मंत्रशास्त्र और 'ज्वालिनीमत' ४३१ अष्टाशतसैकषष्ठिप्रमाणशकवत्सरेष्क्तीतेषु । 'दक्षिण भारतके अन्तर्गत मलय देशक हेमप्राममें श्रीमान्यखेटकट के पर्वण्यक्षयतृतीयायाम ॥ (जिसे टिप्पणीमें कर्णाटक भापाका 'हान्नूर' प्राम ब " तलाया है ) द्रविडगणके अधीश्वर एक धीमान् मुनि शतदलसहित चतुःशतपरिमाणग्रन्थरचनयायुक्त महात्मा रहते थे, जिनका नाम 'हेलाचार्य' था । (टिश्रीकृष्णराजराज्ये समाप्त पेतन्मतं देव्याः ॥ प्पणी में आपका 'एलाचार्य' रूपमै भी उल्लेखित उक्त सब ग्रंथों में यह ग्रंथ सबसे अधिक प्राचीन किया है)। कमल श्री आपकी शिया थी, जो सपुर्ण जान पड़ता है और इसका साहित्य भी दूसरोंकी अ शाम्रोको जानने वाली मानो श्रुतदेवी ही थी। कर्मयोगसे पेक्षा प्रौढताको लिये हुए है। इस पर टिप्पणी भी वह ब्रह्मराक्षस नामके किसी रौद्र प्रहके द्वारा गृहीत मिलती है; परन्तु वह किसके द्वारा की गई है इसका हुई, और इसलिये संध्याके समय वह कभी हाहाकार उस परसे कुछ पता नहीं चल सका । यह ग्रन्थ जिन करके रोती थी, कभी अट्टहास करती थी, कभी इ-द्रनन्दि योगीन्द्रका रचा हुआ है वे वपनणंदि के जप करने लगती थी, कभी वेदोंको पढ़ने लगती थी शिष्य तथा 'वासवनन्दि' के प्रशिष्य थे और वामव और फिर कहक़हा लगा कर हँस पडती थी; कभी नन्दिकं गम एक दूसरे इन्द्रनन्दि मुनीन्द्र थे । ग्रन्थ- गर्वकं माथ कहने लगी थी कि ऐसा कौन मंत्रवादी है कारने अपने इन तीनों पर्व गाओंका गणवर्णनादि- जो अपनी मंत्रशक्तिमे मुझे छुड़ाए, और कभी विकाररूपसे कितना ही परिचय दिया है परन्तु वह यहाँ पर भावका लिये जॅभाई लेने लगती थी। उसे इस प्रकार अप्रस्तुत होने से छोड़ा जाता है। हाँ, ग्रन्थके शुरुमे अतिदुष्ट गहस परिपीडित दग्व कर और उसके प्रत्यपाय ग्रन्थकी उत्पत्तिका जो क्रम दिया है वह बडा हीरांचक के विपयम किकर्तव्यविमूढ होकर व मुनि महाराज जान पड़ता है और इस मंत्रशास्त्रकी मूलत्पत्तिकं बहुत ही आकुलचित्त हुए । अन्तको उन्होने कमल श्रीका माथ खास तौरस सम्बद्ध है। अतः उसका परिचय ग्रह छुड़ानके लिये उस ग्राम (होन्नर) के निकट नीलनीचे दिया जाता है: गिरि पर्वतके शिश्वर पर विधिपूर्वक ज्वालामालिनीदेवी की साधना का। मंगलाचरण और प्रन्थ रचनकी प्रतिज्ञाकं चार मात दिनकी माधनाके बाद वह देवी प्रत्यक्ष हो श्लोकी * के बाद, जिनमें 'ज्वालिनी (ज्वालामालिनी) । दवीका म्वरूप भी आ जाता है, ग्रन्थकार महोदय कर मुनिमहाराज के मामने ग्बड़ी हो गई और बोली 'ह आर्य कहिये आपका क्या काम है।' इम पर हेलालिखते है: चार्य बाल–ह दवि, मैंन काम-श्रादि किमी लौकिक य चाग नाक इग प्रकार है - फल सिद्धि के लिये तुम्हे अवरुद्ध नहीं किया है-नहीं रांका :-किन्तु कमलश्रीका ग्रह छुड़ाने के लिये गेका चंद्रप्रभजननाथं चन्द्रप्रभमिन्द्रणदिमहिमानम । है; अन. ग्रहम छुटकारा दिलाइये, इतना ही मेरा कार्य जालामलिन्यचितचरणसरोज द्वयं वन्द ॥ १ ॥ है।' आचार्य श्रीके वचनको सुन कर देवीनं कहा 'तो कुमुददलधवलगावा महिपमहावाहनांज्वलाभरणा । यह कौनसी बड़ी बात है? आप मनमें जरा भी ग्वेद न मा पातु वन्हिदेवी ज्वालामालाकगलाङ्गी ॥२॥ कीजिये और इम मंत्रस ग्रहका मांचन कीजिये,' यह जयताद्देवी ज्वालामालिन्युद्यस्त्रिशलपाशझष कह कर मदतर श्रायमपत्र पर मंत्रको लिख कर उसे कोदण्डकाण्डफलवरदचक्रचिन्हों ज्वलाष्टभुजा ॥३॥ मुनिजीका दे दिया । उस मंत्रीकी विधिको न जानते अर्हत्सिद्धाचार्यो पाध्यायान सकलसाधु मुनिमुख्यान । हुग मुनिजीन फिर देवीम कहा 'मैं इस मंत्रकी बाबत प्रणिपत्य मुहुर्मुहुरपि वक्ष्येऽहं ज्वालिनीकल्पम ॥ ४॥ कुछ भी नहीं जानता हूँ, अतः म्पट करके मंत्रागधन,
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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