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________________ २१० अनेकान्त [वर्ष १, किरण ४ संवत् १८८५ वर्षे श्रीसर्ये उत्तरायणे धर और श्रुतकेवलियों के बाद जो आचार्य हुए हैं हेमन्तश्ती महामांगन्यप्रतिमरसोचममासे और जिन्हों ने दश वैकालिक आदि स्त्र बनाये हैं, वे पौषमासे शुभे शुक्लपक्ष तिथौ ततीयायां ३ गरु आरातीय कहलाते थे। सर्वार्थसिद्धिवचनिकाके कर्ता वासरे धनिष्ठानक्षत्रे सिद्धयोगे तदिनसमाप्तमि. कहते हैं-" वक्ता तीन प्रकार हैं । प्रथम तो सर्वज्ञ हैं दम् श्रीभगवती भाराधना शाखें । छ। श्री तहाँ तीर्थकर तथासामान्य केवली बहुरि श्रुतकेवली । मथुरापुरे अंग्रेजराज्यमवर्तमाने । श्लोक सख्या बहुरितिनिक पीछले सत्रकार टीकाकार ताई भये श्रा१३०००।४ चार्य तिनिकू पारातीय ऐसा नाम कहिए।" इन्द्रनन्दिकृत दूसरी प्रतिमें आदि और अन्तके अंश इसी प्रमाण 'श्रुतावतार' के अनुसार महावीर भगवान के निर्वाण के हैं । उसमें विजयदयाकी जगह विनयोदया नाम टीका ६८३ वर्ष बाद तक-लोहाचार्य तक-अंग ज्ञान की है और यही नाम शुद्ध मालूम होता है * । बाठरडा प्रवृत्ति रही। उनके बाद की प्रति में भी विनयोदया ही है। इस दूसरी प्रतिमें विनयधरः श्रीदत्तः शिवदत्तोऽन्योऽहंदत्तनामते । पारातीयाः यतयस्ततोऽभवमापर्वधराः ।। २४ लेखककी प्रशस्ति इस प्रकार है"संवत् १८०० मिती आसोज वदि १२ आदितवार विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्त और अहंदन दिने शुभं लिषतं यती नैणसार श्रीसवाई जयपुर नामके आरातीय यती हुए, जो अंग पूर्वो के एक मद्धयेः ।। श्रीरस्तु।" देश के धारण करने वाले थे । इनके बाद __इस टीकाके का पारातीय प्राचार्यों में शिरोमणि श्रारातीय मुनियों का श्रुतावतार में अथवा अन्य थे। 'पारात' जिससे कि 'श्रारातीय' शब्द बना है,दूर किसी पट्टावली में कोई उल्लेख नहीं है । परन्तु औरसमीप दोनों अर्थों का द्योतक है। सर्वार्थसिद्धि टीका ऐसा जान पड़ता है कि यह शब्द इतना संकुचित नहीं रहा होगा कि उन चार मुनियों तक ही सीमित रहे। सासे मालूम होता है कि भगवान के साक्षात् शिष्य गण र्थसिद्धि वचनिकाकारके कथनानुसार इन चारकं बादक xनं. १११५ माफ़ १८६१-६५ पाली प्रति । भी सूत्रकार टीकाकार पारानीय कह जाते होगे और * क्यों शुम मालूम होता है ? यह भी यदि यहां बतला अपराजितसरि उन्हीं में से एक हांगे । यदि कोई ऐसा दिया जाता तो अच्छा होता। यदि महज़ दो प्रतियों में विनयोदया' उल्लेख होता कि श्रमक समय तक के ही प्राचार्य और एक में विजयोदया' नाम उपलब्ध होने से ही ऐसा अनुमान कर लिया गया हो तो, वह ठीक प्रतीत नहीं होता; क्योंकि देहनी पारातीय कहलाते हैं, तो यह निश्चय होजाता कि की प्रतिमें भी विजयोदया' नाम है और और भी प्रतियों में उस * तक्तत् अतं द्विविधमनेकभेद द्वादशभेदमिति । किं कृतोऽय नामके होनेकी संभावना है। मुझे तो 'विजयोदया' नाम की ज्यादा विशेषः । तृविशेषतः । त्रयो वकारः । सर्वतीर्थकरः । ठीक मालूम होता है; क्योंकि एक तो इस ग्रन्थमें की प्रकृतियों पर इतरो वा श्रुतकेवली पारातीमधेति । तस्य साक्षाच्छिोर्बुद्धपतिविजय प्राप्त करने का उल्लेख है और दूसरे टीकाकार 'अपराजित' के शर्षियुकोणधरः श्रुतकेवलिमिनुस्मृत्य ग्रन्थरकामापूर्वलक्षणः नामके साथ भी इस नामका पच्छा सम्मेलन है। एक प्राचीन टीकाका तत्प्रमाणं तत्पामाख्यात् । पारातीयः पुनराचार्यः बालदोकसंक्षिप्ता'विजयपक्ला' नाम भी 'विजय' शब्द प्रयोग की अयोगिताको युर्मतिलशिष्यानुग्रहार्थ सर्वकालिकायुपनि तत्प्रमाखमातिस्तवेकुछ अधिक सूक्ति करता है। दवेमिति। -अध्याय १सूत्र १०
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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