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अनकान्त
वर्ष १, किरण ११, १२ विषय-संबंधी जो विचार और भाषाकी पुष्ट विरासत ऊपर जो तत्त्वार्थ पर महत्वपूर्ण तथा अभ्यासविश्वलाई टेनीसेवासा मल प्रकार मा- योग्य थोडेसे ग्रन्थोंका परिचय दिया गया है वह सिर्फ लम होता है कि इस वत्तिके पहले श्वेताम्बर मंप्रदायमें अभ्यामियोंकी जिज्ञासा जागृत करने और इस दिशामें पुष्कल साहित्य रचा हुआ तथा वृद्धिको प्राप्त हुआ विशेष प्रयत्न करनेकी सचनाकी पतिमात्र है। वस्तुतः होना चाहिये।
तो प्रत्येक ग्रन्थका परिचय एक एक स्वतन्त्र निबंधकी खंडित वृत्ति
अपेक्षा रखता है और इन सबका सम्मिलित परिचय भाष्य पर तीसरी वृत्ति उपाध्याय यशाविजयकी ना एक मांटी दलदार पस्तककी अपेक्षा रखता है, जो है; यदि यह पूर्ण मिलती हानी ना यह मतगहवीं, अ- काम इम स्थान की मर्यादाक बाहर है; इस लिये इतने ठारहवीं शताब्दी तक को प्राप्त होने वाले भारतीयदर्श- ही परिचय संताप धारण कर विराम लेना उचित्त नशाम्त्रक विकास का एक नमूना पूर्ण करती, ऐसा समझता हूँ। वर्तमानमें उपलब्ध इस वृत्ति के एक छोट ग्वंड परम ही कहनका मन हो जाता है । यह खंड पृग प्रथम अध्याय
नोटके ऊपर भी नहीं, और इसमें ऊपर की दो वृत्तियोंक 'उमास्वाति और उ.का तत्त्वार्थस्त्र' इस विषय समान ही शब्दशः भाष्यका अनमरण कर विवरण को लेकर लिखी गई लेखमालाका यह तीसग लेख है
मा हाने पर भी इसमें जो गहरी - और इसके साथ ही उक्त लेखमालाकी समाप्ति होती कोनगामी चर्चा, जो बहुश्रुतता और जो भावम्फोटन है। इसमें लेखक महोदयने तत्त्वार्थसुत्रकी खास खास दिखाई देता है वह यशोविजयजीकी न्यायविशारदताका टीकाओके सम्बन्धमं जो अपना तुलनात्मक विचार निश्चय कराता है। यदि यह वत्ति इन्होंने संपूर्ण रची प्रकट किया है. वह उनके विशाल अध्ययनको चित होगी ना ढाईमी हा वों में उसका सर्वनाश हो गया ही करना हुआ, पाठकोंके मामने विचार की कितनी ही ऐसा मानने जी हिचकता है. इसमें इसकी शोधक लिग नई मामी प्रस्तुत करता है और उन्हें सविशेप रूपम किये जाने वाले प्रयत्नका निष्फन जाना संभव नहीं। इन टीका ग्रंथाके अध्ययनकी तथा दूसरं प्राचीन टीका
साहित्यकं अनसंधानकी प्रेग्णा करता है; और इस इत्यादि .... ..नय "अन्ये पठन्नि मत्रम" लिये अभिनन्दनीय है। इस लेख की कितनी ही बात ५.२३ पृ.१.१५० तथा काकी सर्व मिदार राजवानिक. नि:मन्द विचारणीय हैं-खास कर 'भाष्य' और में दागाचर ती व्याभ्यागोका खगडन भी है । उदाहरगाके सर्वार्थसिद्धि के सम्बन्धमें जा कर कहा गया है वह तौर पर .." ये वेद भाष्यं गमनप्रतिषेधद्वारंण चारण- अभी गहरं अनुसंधान तथा प्रकाशकी अपेक्षा रखना विणाधरद्धिप्रामानामाचक्षत तपामागविगंध" इत्यादि । आशा है दसरं अध्ययनशील विद्वान भी-खास ३, १३ की पनि पृ०२६३ तथा क.1 की वकिके साथ शल- कर प्रधान अध्यापक गण जो वर्षों से विद्यालयों में सादृश्य है "नित्यप्रजल्पितवन" इत्यादि ... 3की :नि पृ०.१ मल तत्त्वार्थस्त्र और इन टीका प्रन्याको पढ़ारहे हैं
मी तरफ़ लाम्बरपथका सदन करने वाली सर्व धसिद्धि प्रादि अब इस विषय में अपनी खोजीको सामने रक्खेंगे और की खास व्याच्या मोंका सिद्धमेनीय प्रक्तिमें निरसन नीं, इसी इस बातको प्रमाणित करेंगे कि उन्होंने किस अध्यवसम्भावना होती है कि सर्वार्थसिद्धिमें स्वीकृत सूत्रपाठको अवलम्बन सायके साथ इन गन्थोंका कितना परिशीलन और कर रखी काई दिगम्बराचार्य या अन्य तटस्थ प्राचार्यकी भाज्यव्याव्या कितना गहरा अभ्यास किया है। और इस तरह जिसमें ग्वताम्बीय विशिष्ट मान्यतामाका खंडन न होगा और ज लेखमालाके द्वारा जहाँ कहीं कोई ग़लत फहमियाँ पैदा १ज्यपाद या मकल को भी अपनी टीका पीके लिखने में माधारभूत हुई हों उन्हें दूर करनेका सातिशय पण्य-प्रयत्न करेंगे। हुई होगी वह मिदमेनके मामने होगी।
-सम्पादक