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चौबीसों भगवानों की पूजायें एवं अन्य पूजायें
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परस्परोपग्रहो जीवानाम्
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विषय-सूची | 1. श्री आदिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन) । 2. श्री अजितनाथ जिन-पूजा (रचयिता - वृन्दावनदास) 3. श्री संभवनाथ जिन-पूजा (रचयिता - वृन्दावनदास)
श्री अभिनंदन जिन-पूजा (रचयिता - वृन्दावनदास) |5. श्री सुमतिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - वृन्दावनदास)
6. श्री पद्मप्रभ जिन-पूजा (रचयिता - वृन्दावनदास) [7. श्री सुपार्श्वनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन) 8. श्री चन्द्रप्रभ पूजन (रचयिता - वृन्दावनदास) 9. श्री पुष्पदंत जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन) | 10. श्री शीतलनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन) | 11. श्री श्रेयांसनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन) | 12. श्री वासुपूज्य जिन-पूजा (रचयिता - वृदावन) | 13. श्री विमलनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन) | 14. श्री अनन्तनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन) | 15. श्री धर्मनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन) | 16. श्री शान्तिनाथ जिन-पूजा (कविवर वृन्दावनदास) | 17. श्री कुंथुनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन) | 18. श्री अरहनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन) | 19. श्री मल्लिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन) | 20. श्री मुनिसुव्रतनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन) | 21. श्री नमिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन) | 22. श्री नेमिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन)
23. श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन) | 24. श्री महावीर जिन-पूजा (रचयिता - वृन्दावनदास) | 25. श्री आदिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी) | 26. श्री अजितनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी) | 27. श्री सम्भवनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी)
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75 81
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| 28. श्री अभिनन्दन जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी) | 29. श्री सुमतिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री राम चन्द्र जी) | 30. श्रीपद्मप्रभ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी)
31. श्री सुपार्श्वनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी) | 32. श्रीचन्द्रप्रभ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी) | 33. श्री पुष्पदन्त जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी) | 34. श्री शीतलनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी) | 35. श्री श्रेयांसनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी)
36. श्री वासुपूज्य जिन-पूजा रचयिता - श्री रामचन्द्र जी | 37. श्री विमलनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी)
38. श्री अनन्तनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी) | 39. श्री धर्मनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द जी) | 40. श्रीशान्तिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी) । |41. श्री कुंथुनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी)।
42. श्री अरनाथ नि ॥ (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी) | 43. श्री मल्लिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द जी)। |44. श्री मुनिसुव्रतनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी) |45. श्री नमिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी) 46. श्री नेमिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी) 47. श्रीपार्श्वनाथ जिन-पजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी) | 48. श्रीमहावीर जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी) 149. श्री ऋषभदेव जिन-पजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल ) | 50. श्री अजितनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल) 51. श्री सम्भवनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल) 52. श्री अभिनन्दननाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल) | 53. श्री सुमतिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल) 54. श्री पद्म प्रभ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल) | 55. श्री सुपार्श्वनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल) |56. श्री चन्द्रप्रभ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल)
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|57. श्री पुष्पदन्त जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल) |58. श्री शीतलनाथजिन-पूजा (रचयिता - श्री मनरंगलाल) |59. श्री श्रेयांसनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल) 60. श्री वासुपूज्य जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल) 61. श्री विमलनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल) | 62. श्री अनन्तनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल) 63. श्री धर्मनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल) 64. श्री शान्तिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल) 65. श्री कुन्थुनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल) 66. श्री अरहनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल) | 67. श्री मल्लिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल) | 68. श्री मुनिसुव्रतनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल)
69. श्री नमिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल) | 70. श्री नेमिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल) 71. श्री पार्श्वनाथ जिन-पजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल) 72. श्री वर्धमान जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल) | 73. श्री आदिनाथ जिन पूजन (रचयिता - जिनेश्वरदास) | 74. श्री आदिनाथजिन-पूजा, कुण्डलपुर (दमोह) (श्री उत्तम सागर जी महाराज) |75. श्री आदिनाथजिन-पूजन, (बड़ेबाबा) (रचयिता - सुब्रत सागर) 76. श्री आदिनाथजिन-पूजन (चाँदखेड़ी) (रचयिता - रूपचन्द जैन) । 77. श्री आदिनाथ जिन-पूजा (रानीला) (रचयिता - ताराचन्द प्रेमी) | 78. श्री आदिनाथ जिन-पूजा (साँगानेर) (रचयिता - लालचन्द जी राकेश) | 79. श्री आदिनाथ जिन-पूजा (अयोध्या) (रचयिता - कल्याण कुमार शशि) | 80. श्री आदिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - नंदन कवि) |81. श्री आदिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - ब्र. रवीन्द्र जैन)
82. श्री आदिनाथ जिन-पूजा (रैवासा-राज.) (रचयिता - श्री लालचन्द जैन राकेश) | 83. श्री आदिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री राजमल जी)
84. श्री अजितनाथजिन-पूजा | 85. श्री सुमतिनाथ जिन-पूजा (रैवासा)
368 373 378 384 390 396 401
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86. श्रीपद्मप्रभ जिन-पूजा ( बाड़ा ) ( रचयिता - छोटे लाल)
87. श्रीचन्द्रप्रभ जिन-पूजा ( तिजारा जी ) ( रचयिता - श्री मुंशी)
88.
89.
90.
91.
92.
93.
94.
95.
96.
97.
98.
श्री चन्द्रप्रभ जिन-पूजा (सोनागिर ) ( रचयित्री - आर्यिका स्वस्ति मति)
श्री चन्द्रप्रभ जिन-पूजा ( महलका ) ( रचयिता - आर्यिका मुक्ति भूषण)
श्री चन्द्रप्रभ जिन-पूजा (चाँदखेड़ी)
श्री शीतलनाथ जिन-पूजा ( रचयिता - श्री राजमल जी )
श्री वासुपूज्य जिन-पूजा ( रचयिता श्री राजमल जी)
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श्री अनन्तनाथजिन - पूजा ( रचयिता - श्री राजमल जी ) श्रीशान्तिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री बख्तावरसिंह) श्रीशान्तिनाथ जिन-पूजा ( रचयिता श्री राजमल जी)
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श्री मुनिसुव्रतनाथ जिन-पूजा (केशवराय पाटन ) ( रचयिता - पं दीपचन्द )
श्री मुनिसुव्रतनाथ जिन-पूजा (पैठण) ( रचयिता - रतन लाल पहाडे)
99.
श्री नेमिनाथ जिन-पूजा (नेमगिरी ) ( रचयिता - श्री 108 चिन्मयसागरजी ) श्री नेमिनाथ जिन-पूजा (गिरनारजी) (आर्यिका स्वस्ति माता जी ) 100. श्री नेमिनाथ जिन-पूजा ( रचयिता - श्री राजमल जी)
101. श्री पार्श्वनाथ जिन-पूजा ( बडा गांव ) ( रचयित्री - नीलम जैन )
102. श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा ( कचनेर ) ( रचयिता - क्षुल्लक सिद्धसागर जी)
103. श्री पार्श्वनाथ जिन-पूजा ( रचयिता - पं. मोहनलाल )
104. (श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (महुवा, सूरत ) ( रचयिता - भट्टारक विद्याभूषण)
105. श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा ( नेमगिरि)
106. श्रीपार्श्वनाथजिन-पूजा अतिशय क्षेत्र ( बिहारी, मु. नगर)
107. श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (अहिच्छत्र) ( रचयिता - राजमल जी )
108. श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा ( जटवाड़ा) ( रचयिता - आचार्य देवनन्दि मुनि)
109. श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (कलिकुण्ड ) ( अडिल्ल छन्द )
110. श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा ( रचयिता - श्री राजमल जी) 111. श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (आर्यिका ज्ञानमती माता जी ) 112. श्री रविव्रत पूजन
113. श्री पार्श्वनाथ जिनपूजन - 1 ( रचयिता - बख्तावरलाल) 114. श्री पार्श्वनाथ पूजन- 2 ( रचयिता - पुष्पेन्दु )
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"शशि " )
115. श्री अहिच्छत्र-पार्शवनाथ - जिन-पूजा ( रचयिता - कल्याण कुमार 116. श्रीमहावीर जिन-पूजा (पावागिरि, ऊन) ( रचयिता - पं0 बाबूलाल फणीश ) 117. श्रीमहावीर जिन-पूजा ( चान्दन गांव- श्री महावीर जी ) ( रचयिता - श्री पूरनमल) 118. श्रीमहावीर जिन-पूजा (अहिंसा-स्थल, नई दिल्ली)
119. श्रीमहावीर जिन-पूजा ( रचयित्री - पू. ज्ञानमती माताजी)
120. श्रीमहावीर जिन-पूजा ( रचयिता श्री राजमल जी)
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121. समुच्चय चौबीसी जिनपूजन
122. देव शास्त्र गुरु समुच्चय पूजन ( रचयिता वृन्दावनदास) 123. देव-शास्त्र-गुरु पूजन ( कविवर द्यानतराय)
124. श्री देव-शास्त्र-गुरु पूजा (श्री
युगल
जी)
125. सोलहकारण पूजा ( कविवर द्यानतराय)
126. पंचमेरु-पूजा (कविवर द्यानतराय)
127. दशलक्षणधर्म - पूजा
128. रत्नत्रय-पूजा
129. सम्यग्दर्शनपूजा
130. सम्यग्ज्ञानपूजा
131. सम्यक्चारित्रपूजा
132. समुच्चय जयमाला
133. नन्दीश्वरद्वीप-पूजा (कविवर द्यानतरायजी कृत )
134. नवदेवता पूजन
135. विद्यमान बीस तीर्थंकर पूजा
136. सिद्ध-पूजन (श्री युगल जी)
137. सिद्ध
138. श्री ऋषि मण्डल पूजा
139. सरस्वती पूजा (कविवर द्यानतराय)
140. क्षमावणी-पूजा
141. सप्तर्षि पूजा
142. पंच परमेष्ठी पूजन कवि राजमल पवैया जी
143. बाहुबली स्वामी पूजन
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| 144. स्वयंभू स्तोत्र भाषा (कविवर द्यानतराय)
145. निर्वाणकाण्ड (भाषा) | 146. बारह भावना (श्री मंगतराय जी कृत) | 147. श्री निर्वाण क्षेत्र बड़ी पूजा (श्री निर्वाण लड्डू पूजा)
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श्री आदिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन)
(अडिल्ल)
परम पूज्य वृषभेश स्वयंभू देव जू, पिता नाभि मरुदेवि करें सुर सेव जूं। कनक-वरण तन-तुंग धनुष-पनशत तनो, कृपासिंधु इत आई तिष्ठ मम दुःख हनो ।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिन! अत्र अवतर-अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम् ) ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिन! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम् ) ऊँ ह्रीं श्री आदिनाथजिन! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
(अष्टक)
हिमवनोद्भव-वारि सुधारिके, जजत हौं गुन-बोध उचारिके। परमभाव-सुखोदधि दीजिये, जन्म-मृत्यु-जरा क्षय कीजिये।।1।। ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलय- चंदन दाहनिकंदनं, घसि उभै कर में करि वंदनं ।
जजत हौं प्रशमाश्रय दीजिये, तपत ताप - तृषा छय कीजिये।।2। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अमल-तंदुल खंड-विवर्जितं, सित निशेष महिमामय तर्जितं ।
जजत हौं तसु पुंज धराय जी, अखय-संपति द्यो जिनराय जी ॥3॥ ऊँ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कमल चंपक केतक लीजिये, मदन-भंजन भेंट धरीजिये । परमशील महा-सुखदाय हैं, समर-सूल निमूल नशाय हैं॥4॥
ऊँ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय कामबाण - विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
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सरस-मोदन-मोदक लीजिये, हरनभूख जिनेश जजीजिये। सकल आकुल अंतक-हेतु हैं, अतुल शांत-सुधारस देतु हैं।।5।। ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निविड मोह-महाताप छाइयो, स्व-पर-भेद न मोहि लखाइयो।
हरण-कारण दीपक तास के, जजत हौं पद केवल-भास के।।6।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
__ अगर चंदन आदिक लेय के, परम-पावन गंध सुखेय कें।
अगनि-संग जरै मिस-धूम के, सकल-कर्म उड़े यह घूम के।।7।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरस पक्व मनोहर पावने, विविध ले फल पूज रचावने। त्रिजगनाथ कृपा तब कीजिये, हमहिं मोक्ष-महाफल दीजिये।।8।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय मोक्षमहाफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल-फलादि समस्त मिलायके, जजत हैं पद मंगल-गायके। भगत-वत्सल दीनदयाल जी, करहु मोहि सुखी लखि हालजी।।9।। ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक
(छन्द द्रुतविलम्बित तथ सुन्दरी) असित दोज अषाढ़ सुहावने, गरभ-मंगल दो दिन पावनो।
हरि-सची पितु-मातहिं सेवही, जजत हैं हम श्री जिनदेव ही।। ॐ ह्रीं आषाढकृष्णा-द्वितीयायां गर्भमंगल-प्राप्ताय श्रीवृषभदेवाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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असित चैत सु नौमि सुहाइयो, जनम-मंगल ता दिन पाइयो।
हरि महागिरि पे जजियो तबै, हम जजें पद-पंकज को अबै।। ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णा-नवम्यां जन्ममंगल-प्राप्ताय श्रीवृषभदेवाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
असित नौमि सु चैत धरे सही, तप विशुद्ध सबै समता गही।
निज सुधारससों भर लाइके, हम जजें पद अर्घ चढ़ाइके।। ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-नवम्यां तपमंगल-प्राप्ताय श्रीवृषभदेवाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
असित फागुन ग्यारसि सोहनों, परम-केवलज्ञान जग्यो भनौं।
हरि-समूह जजें तहँ आइके, हम जजें इत मंगल-नाइके।। ऊँ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-एकादश्यां केवलज्ञान-प्राप्ताय श्रीवृषभदेवाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
असित चौदसि माघ विराजई, परम मोक्ष सुमंगल साजई।
हरि-समूह जजें कैलाशजी, हम जजें अति धार हुलास जी। ऊँ ह्रीं माघकृष्णा-चतुर्दश्यां मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्रीवृषभदेवाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
(छन्द घत्तानंद) जय जय जिनचंदा, आदि-जिनंदा, हनि भवफंदा कंदा जू। वासव-शत-वंदा धरि आनंदा, ज्ञान-अमंदा नंदा जू।।1।। त्रिलोक-हितंकर पूरन पर्म, प्रजापति विष्णु चिदातम धर्म। जतीसुर ब्रह्मविदांबर बुद्ध, वृषंक अशंक क्रियाम्बुधि शुद्ध।।2।।
जबै गर्भागम मंगल जान, तबै हरि हर्ष हिये अति आन। पिता-जननी पद-सेव करेय, अनेक प्रकार उमंग भरेय।।3।। जन्मे जब ही तब ही हरि आय, गिरीन्द्र विर्षे किय न्हौन सुजाय। नियोग समस्त किये तित सार, सु लाय प्रभू पुनिप राज-अगार।।4।।
पिता कर सौंपि कियो तित नाट, अमंद अनंद समेत विराट।
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सुथान पयान कियो फिर इंद, इहाँ सुर सेव करें जिनचंद।।5। कियौ चिरकाल सुखाश्रित राज, प्रजा सब आनंद को तित साज सुलिप्त सुभोगिनि में लखि जोग, कियो हरि ने यह उत्तम योग ॥6॥ निलंजन-नाच रच्यो तुम पास, नवों रस- पूरित भाव-विलास। जैमिरदंग दृमा दृम जोर, चले पग झारि झनांझन जोर ॥7॥
घनाघन घंट करे धुनि मिष्ट, बजैं मुहचंग सुरान्वित पुष्ट। खड़ी छिन पास छिनहि आकाश, लघु छिन दीरघ आदि विलास॥8॥ ततच्छन ताहि विलै अविलोय, भये भवतैं भवभीत बहो । सुभावत भावन बारह भाय, तहाँ दिव-ब्रह्म- रिषीश्वर आय॥9॥ भू-धाम, तबे हरि आय रचि शिवकाम। कियो कचलौंच प्रयाग-अरण्य, चतुर्थम ज्ञान लह्यो जग-धन्य।।10।। धर्या तब योग छमास-प्रमान दियो श्रेयांस तिन्हें इखु-दान । भयो जब केवलज्ञान जिनेन्द्र, समोसृत-ठाठ रच्यो सु धनेंद्र ॥ 11 ॥ तहाँ वृष-तत्त्व प्रकाशि अशेष, कियो फिर निर्भय-थान प्रवेश। अनंत-गुनातम श्री सुखाराश, तुमैं नित भव्य नमें शिव - आश।।12।। (छन्द घत्तानंद)
यह अरज हमारी सुन त्रिपुरारी, जन्म- जरा - मृतु दूर करो। शिव-संपति दीजे ढील न कीजे, निज, लख लीजे कृपा धरों ॥ 13 ॥ ॐ श्री आदिनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(छन्द आर्या)
जो ऋषभेश्वर पूजे, मन-वच-तन भाव शुद्ध कर प्रानी | सो पावै निश्चैसों, मुक्ति औं मुक्ति सार सुख थानी।।14।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री अजितनाथ पूजा (रचयिता - वृन्दावनदास)
त्याग वैजयन्त सार, सार धर्म के अधार। जन्म-धार धीर नम्र, सुष्टु कौशलापुरी॥
अष्ट दुष्ट नष्टकार, मातु वैजयाकुमार। आयु लक्षपूर्व, दक्ष है बहत्तरै पुरी॥ ते जिनेश श्री महेश, शत्रु के निकंदनेश। अत्र हेरिये सुदृष्टि, भक्त पै कृपा पुरी।। आय तिष्ठ इष्टदेव, मैं करों पदाब्जसेव। परम शर्मदाय पाय, आय शर्न आपुरी।। ॐ ह्रीं श्री अजितनाथ जिन ! अत्र अवतरत अवतरत संवौषट् (आह्वाननम्)।
ॐ ह्रीं श्री अजितनाथ जिन ! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः (संस्थापनम्)। ॐ ह्रीं श्री अजितनाथ जिन! अत्र मम सन्निहितो भवत भवत वषट् (सन्निधिकरणम्)।
अष्टक गंगाहृद-पानी निर्मल आनी, सौरभ सानी सीतानी। तसु धारत धारा तृषा-निवारा, शांतागारा सुखदानी॥ श्री अजित-जिनेशं नुत-नाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेश।
मनवाँछितदाता त्रिभुवनदाता, पूजौं ख्याता जग्गेशं।। ॐ ह्रीं श्री अजितनाथ जिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
शुचि चंदन-बावन ताप-मिटावन, सौरभ-पावन घसि ल्यायो। तुम भव-तप-भंजन हो शिवरंजन, पूजन-रंजन मैं आयो।।
श्री अजित-जिनेशं नुत-नाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं।
मनवाँछितदाता त्रिभुवनदाता, पूजौं ख्याता जग्गेशं।। ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
सित खंड-विवर्जित निशिपति-तर्जित, पुंज-विधर्जित तंदुल को। भव-भाव-निखर्जित शिवपद-सर्जित, आनंदभर्जित दंदल को।
श्री अजित-जिनेशं नुत-नाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं।
मनवाँछितदाता त्रिभुवनदाता, पूजौं ख्याता जग्गेश।। ॐ ह्रीं श्री अजितनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा॥
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मनमथ-मद-मंथन धीरज-ग्रंथन, ग्रंथ-निग्रंथन ग्रंथपति। तुअ पाद-कुशेसे आदि-कुशेसे, धारि अशेसे अर्चयती।।
श्री अजित-जिनेशं नुत-नाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं।
मनवाँछितदाता त्रिभुवनदाता, पूजौं ख्याता जग्गेशं।। ॐ ह्रीं श्री अजितनाथ जिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा॥
आकुल कुलवारन थिरताकारन, क्षुधाविदारन चरु लायो। षटरस कर भीने अन्न नवीने, पूजन कीने सुख पायो।। श्री अजित-जिनेशं नुत-नाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं।
मनवाँछितदाता त्रिभुवनदाता, पूजौं ख्याता जग्गेशं।। ॐ ह्रीं श्री अजितनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक-मनि-माला जोत उजाला, भकि कनथाला हाथ लिया। तुम भ्रमतम-हारी शिवसुख-करी, केवलधारी पूज किया।।
श्री अजित-जिनेशं नुत-नाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं।
मनवाँछितदाता त्रिभुवनदाता, पूजौं ख्याता जग्गेश। ॐ ह्रीं श्री अजितनाथ जिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥
अगरादिक चूरन परिमल पूरन, खेवत क्रूरन कर्म जरें। दशहूँ दिश धावत हर्ष बढ़ावत, अलि गुण-गावत नृत्य करें।।
श्री अजित-जिनेशं नुत-नाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेश।
मनवाँछितदाता त्रिभुवनदाता, पूजौं ख्याता जग्गेश।। ॐ ह्रीं श्री अजितनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा॥
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बादाम नारंगी श्रीफल पुंगी, आदि अभंगी सों अरचौं। सब विघनविनाशे सुख प्रकाशै, आतम-भासै भौ विरचौं।।
श्री अजित-जिनेशं नुत-नाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं।
मनवाँछितदाता त्रिभुवनदाता, पूजौं ख्याता जग्गेश।। ॐ ह्रीं श्री अजितनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा॥
जल-फल सब सज्जे बाजत बज्जै, गुन-गन-रज्जे मन-मज्जे। तुअ पद-जुग-मज्जै सज्जन जज्जै, ते भव-भज्जै निजकज्ज।।
श्री अजित-जिनेशं नुत-नाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं।
मनवाँछितदाता त्रिभुवनदाता, पूजौं ख्याता जग्गेशं।। ॐ ह्रीं श्री अजितनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक-अर्ध्यावली
(छन्द द्रुतमध्यकं १५ मात्रा) जेठ असेत अमावसि सोहे, गर्भ-दिना नंद सो मन-मोहे।
इंद-फनिंद जजे मन-लाई, हम पद-पूजत अर्घ चढ़ाई।। ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्ण-अमावस्यायांगर्भमंगल-प्राप्तायश्री अजितनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
माघ-सुदी-दशमी दिन जाये, त्रिभुवन में अति-हरष बढ़ाये।
इंद-फनिंद जजें तित आई, हम इत सेवत हैं हुलसाई। ॐ ह्रीं माघशुक्ल-दशमीदिनेजन्ममंगल-प्राप्तायश्री अजितनाथ जिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
माघ-सुदी-दशमी तप धारा, भव-तन-भोग अनित्य विचारा। इंद-फनिंद जजे तित आई, हम इत सेवत हैं सिर-नाई।। ॐ ह्रीं माघशुक्ल-दशमीदिने दीक्षाकल्याणक-प्राप्ताय श्री अजितनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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पौष-सुदी तिथि ग्यारस सुहायो, त्रिभुवनभानु सु केवल जायो । इंद-फनिंद जजें तित आई, हम हम पद पूजत प्रीति लगाई। ॐ ह्रीं पौषशुक्ला-एकादशीदिनेज्ञानकल्याणक-प्राप्तायश्री
अजितनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। पंचमि-चैत-सुदी निरवाना, निज-गुनराज लियो भगवाना। इंद-फनिंद जजें तित आई, हम हम पद पूजत हैं गुनगाई॥ ॐ ह्रीं चैत्रशुक्ल पंचमीदिननिर्वाणमंगल- प्राप्तायश्री अजितनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला
(दोहा)
अष्ट-दुष्ट को नष्ट करि, इष्ट- मिष्ट निज पाय । शिष्ट-धर्म भाख्यो हमें, पुष्ट करो जिनराय ॥ 1 ॥ (छन्द पद्धरि १६ मात्रा)
जय अजितदेव तुअ गुन अपार, पै कहूँ कछुक लघु-बुद्धि धार । दश जनमत-अतिशय बल - अनंत, शुभ- लच्छन मधुर वचन भनं ॥ 2 ॥ संहनन - प्रथम मलरहित - देह, तन-सौरभ शोणित- स्वेत जेह । वपु स्वेद-बिना महरूप धार, समचतुर धरें संठान चार||3|| दश केवल गमन-अकाशदेव, सुरभिच्छ रहै योजन - सतेव। उपसर्ग-रहित जिन-तन सु होय, सब जीव रहित - बाधा सु जोय ॥4॥ मुख चारि सरब-विद्या-अधीश, कवला - अहार - सुवर्जित गरी । छाया-बिनु नख-कच बढ़े नाहिं, उन्मेश टमक नहिं भ्रकुटि-माँहिं॥5॥
सुर-कृत दश-चार करों बखानसब जीव - मित्रता - भाव जान। कंटक-बिन दर्पणवत् सुभूम, सब धान वृच्छ फल रहै झूम ||6|| षटरितु के फूल फले निहार, दिशि-निर्मल जिय आनंद-धार जहँ शीतल मंद सुगंध वाय, पद-पंकज-तल पंकज रचाय॥7॥ मलरहित-गगन सुर-जय-उचार, वरषा- गन्धोदक होत सार। वर धर्मचक्र आगे चलाय, वसु-मंगलजुत यह सुर रचाय ॥ 8 ॥
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सिंहासन छत्र चमर सुहात, भामंडल-छवि वरनी न जात। तरु उच्च-अशोक रु सुमनवृष्टि, धुनि-दिव्य और दुंदुभी सुमिष्ट।।9।।
दृग-ज्ञान-शर्म-वीरज अनंत, गुण-छियालीस इम तुम लहंत। इन आदि अनंते सुगुनधार, वरनत गनपति नहिं लहत पार।।10।
तब समवसरण-मँह इन्द्र आय, पद-पूजन वसुविधि दरब लाय। अति-भगति सहित नाटक रचाय, ता थेई थेई थेई धुनि रही छाय।।11।
पग नूपुर झननन झनननाय, तननननन तननन तान गाय। घननन नन नन घण्टा घनाय, छम छम छम छम धुंघरू बजाय।।12।।
दृम दृम दृम दृम दृम मुरज ध्वान, संसाग्रदि सरंगी सुर भरत तान। झट झट झट अटपट नटत नाट, इत्यादि रच्यो अद्भुत सुठाट।।13।। ____ पुनि वंदि इंद्र सुनुति करंत, तुम हो जगमें जयवंत संत। फिर तुम विहार करि धर्मवृष्टि, सब जोग-निरोध्यो परम-इष्ट।।14।। सम्मेद-थकी तिय मुकति-थान, जय सिद्ध-सिरोमन गुननिधान। वृंदावन वंदत बारबार, भवसागर” मोहि तार तार।।15।।
(छन्द घत्तानंद) जय अजित कृपाला, गुणमणिमाला, संजमशाला बोधपति। वर सुजस उजाला, हीरहिमाला, ते अधिकाला स्वच्छ अती।। ॐ ह्रीं श्री अजितनाथ जिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(छन्द मदावलिप्तकपोल) जो जन अजित जिनेश, जजें हैं मन-वच-काई।
ताको होय अनन्द, ज्ञान-सम्पति सुखदाई। पुत्र-मित्र धन-धान्य, सुजस त्रिभुवनमहँ छावे। सकल शत्रु छय जाय, अनुक्रमसों शिव पावे।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री संभवनाथ पूजा (रचयिता - वृन्दावनदास)
(छन्द मदावलिप्तकपोल) जय संभव जिनचंद सदा हरिगन-चकोर-नुत। जयसेना जसु मातु जैति राजा जितारिसुत।। तजि ग्रीवक लिय जन्म नगर-श्रावस्ती आई।
सो भव-भंजन-हेत भगत पर होहु सहाई।1। ॐ ह्रीं श्री संभवनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (आह्वाननम्)।
ॐ ह्रीं श्री संभवनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः (संस्थापनम्)। ॐ ह्रीं श्री संभवनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भवत भवत वषट् (सन्निधिकरणम्)।
अष्टक (छन्द चौबोला तथा अनेक रागों में गाया जाता है) मुनिमन-सम उज्जवल-जल लेकर, कनक-कटोरी में धारा।
जनम-जरा-मृतु नाशकरन कों, तुम पदतर ढारों धारा।। संभव-जिन के चरन-चरचतें, सब आकुलता मिट जावे।
निजि-निधि ज्ञान-दरश-सुख-वीरज, निराबाध भविजन पावे।। ॐ ह्रीं श्री संभवनाथ जिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
तपत-दाहकों कंदन-चंदन मलयागिरि को घसि लायो। जगवंदन भौ-फंदन-खंदन, समरथ लखि शरनै आयौ ।। संभव-जिन के चरन-चरचतें, सब आकुलता मिट जावे।
निजि-निधि ज्ञान-दरश-सुख-वीरज, निराबाध भविजन पावे।। ॐ ह्रीं श्री संभवनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
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देवजीर सुखदास कमल-वासित, सित सुन्दर अनियारे। पुंज धरों जिन-चरनन आगे, लहौं अखयपद को प्यारे । संभव-जिन के चरन-चरचतें, सब आकुलता मिट जावे।
निजि-निधि ज्ञान-दरश-सुख-वीरज, निराबाध भविजन पावे।। ॐ ह्रीं श्री संभवनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।3।
कमल केतकी बेल चमेली, चंपा जूही सुमन वरा। तासों पूजत श्रीपति तुम पद, मदनबान विध्वंस करा ।। संभव-जिन के चरन-चरचतें, सब आकुलता मिट जावे।
निजि-निधि ज्ञान-दरश-सुख-वीरज, निराबाध भविजन पावे।। ॐ ह्रीं श्री संभवनाथ जिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
घेवर बावर मोदन मोदक, खाजा ताजा सरस बना। तासों पद श्रीपति को पूजत, क्षुधारोग तत्काल हना ॥ संभव-जिन के चरन-चरचतें, सब आकुलता मिट जावे।
निजि-निधि ज्ञान-दरश-सुख-वीरज, निराबाध भविजन पावे।। ॐ ह्रीं श्री संभवनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
घट-पट-परकाशक भ्रमतम-नाशक, तुम-ढिंग ऐसो दीप धरों। केवल-जोत उदोत होहु मोहि, यही सदा अरदास करों । संभव-जिन के चरन-चरचतें, सब आकुलता मिट जावे।
निजि-निधि ज्ञान-दरश-सुख-वीरज, निराबाध भविजन पावे।। ॐ ह्रीं श्री संभवनाथ जिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
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अगर तगर कृष्णागर, श्रीखंडादिक चूर हुताशन में। खेवत हों तुम चरन-जलज-ढिंग, कर्म छार जार दै छन में ।
संभव-जिन के चरन-चरचतें, सब आकुलता मिट जावे।
निजि-निधि ज्ञान-दरश-सुख-वीरज, निराबाध भविजन पावे।। ॐ ह्रीं श्री संभवनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।71
श्रीफल लौंग बदाम छुहारा, एला पिस्ता दाख रमैं। लै फल प्रासुक पूजों तुम पद, देहु अखयपद नाथ हमैं ॥ संभव-जिन के चरन-चरचतें, सब आकुलता मिट जावे।
निजि-निधि ज्ञान-दरश-सुख-वीरज, निराबाध भविजन पावे।। ॐ ह्रीं श्री संभवनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्ताय फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
जल चंदन तंदुल प्रसून चरु, दीप धूप फल अर्घ किया। तुमको अरपों भाव भगतिधर, जै जै जै शिव-रमनि-पिया ।
संभव-जिन के चरन-चरचतें, सब आकुलता मिट जावे।
निजि-निधि ज्ञान-दरश-सुख-वीरज, निराबाध भविजन पावे।। ॐ ह्रीं श्री संभवनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।9।
पंचकल्याणक-अर्ध्यावली (छन्द-हंसी मात्रा 15) माता-गर्भविषं जिन आय, फागुन-सित-आठै सुखदाय। सेयो सुरतिय छप्पन-वृंद, नानाविधि मैं जजौं जिनंद।।
ॐ ह्रीं फाल्गुन-शुक्लाष्टम्यां गर्भकल्याणक-प्राप्ताय श्री संभवनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।1।
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कार्तिक-सित-पूनम तिथि जान, तीन ज्ञान- जुत जनम प्रमाण धरि गिरिराज जजे सुरराज, तिन्हें जजौं मैं निज-हित-काज ॥ ॐ ह्रीं कार्तिक शुक्लपूर्णिमायां जन्मकल्याणक-प्राप्ताय श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 2।
मंगसिर-सित-पून्यों तप धार, सकल संग-तजि जिन अनगार। ध्यानादिक-बल जीते कर्म चच चरन देहु शव-शर्म।। ॐ ह्रीं मार्गशीर्ष-पूर्णिमायां तपकल्याणक-प्राप्ताय श्री संभवनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 3।
कार्तिक-कालि तिथि-महान्, घाति घात लिय केवलज्ञान। समवसरनमहँ तिष्ठे देव तुरिय चिह्न चर्चां वसु-भेव।। ॐ ह्रीं कार्तिककृष्ण चतुर्थ्यां ज्ञानकल्याणक-प्राप्ताय श्री संभवनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | 4 |
चैत शुक्ल तिथि षष्ठी चोख, गिरि-सम्मेदतैं लीनों मोख। चार शतक धनु अवगाहना, जजौं तास पद थुति कर घना ।। ॐ ह्रीं चैत्रशुक्ल षष्ठयां मोक्षकल्याणक-प्राप्ताय श्री संभवनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 5 ।
जयमाला
(दोहा)
श्रीसंभव के गुन अगम, कहि न सकत सुरराज। मैं वशभक्ति सु धीठ ह्वै, विनवों निज-हित-काज । 1। (छन्द मोतियादाम)
जिनेश महेश गुणेश गरिष्ट, सुरासुर-सेवित इष्ट वरिष्ट। धरे वृष-चक्र करे अघ चूर, अतत्त्व छपातम-मर्दन सूर।2।
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सुतत्त्व-प्रकाशन शासन शुद्ध, विवेक-विराग- बढ़ावन बुद्ध । दया-तरु-तर्पन मेघ महान्, कुनय - गिरि- गंजन वज्र - समान। 3। गर्भ रु जन्म महोत्सव माँहि, जगज्जन आनंदकंद लहाहिं । सुपूरब साठहि लच्छ जु आय, कुमार चतुर्थम अंश रमाय। 4। चवालिस लाख सुपूरब एव, निकंटक राज कियो जिनदेव । तजे कछु कारन पाय सु राज, धरे व्रत - संजम आतम-काज | 5 | सुरेन्द्र नरेन्द्र दियो पयदान, धरे वन में निज - आतम-ध्यान । किया चव घातिय कर्म विनाश, लयो तब केवलज्ञान प्रकाश | 6| भई समवसृत ठाट अपार, खिरै धुनि झेलहिं श्री गनधार । भने षट्द्रव्य-तने विसतार, चहूँ अनुयोग अनेक प्रकार। 7। कहें पुनि त्रेपन भाव-विशेष, उभै विधि हैं उपशम्य जु भेष। सुसम्यक्चारित्र भेद-स्वरूप, भये इमि छायक नौ सु अनूप | 8 | दृगौ बुधि सम्यक् चारित-दान, सुलाभ रु भोगुपभोग प्रमाण। सु
वीरज संजुत ए नव जान, अठार छयोपशम इम प्रमान | 9 | मति श्रुति औधि उभैविधि जान, मनः परजै चखु और प्रमान अचक्खु तथाविधि दान रु लाभ, सुभोगुपभोगरु वीरज-साभ।10।
व्रताव्रत संजम और सुधार, , धरे गुन सम्यक् चारित भार । भए वसु एक समापत येह, इकीश उदीक सुनो अब जेह। 11। चहुँगति चारि कषाय-तिवेद, छह लेश्या और अज्ञान विभेद । असंजम-भाव लखो इस माँहिं, असिद्धित और अतत्त कहाहिं । 12 ।
भये इकबीस सुनो अब और, सुभेदत्रियं पारिनामिक ठौर। सुजीवित भव्य और अभव्व, तिरेपन एम भने जिन सव्व । 13 । तिन्हो मँह केतक त्यागन जोग, कितेक गहेंतैं मिटैं भवरोग। कह्यो इन आदि लह्यो फिर मोख, अनंत गुनातम मंडित चोख।14। जजों तुम पाय जपौं गुनसार, प्रभु हमको भवसागर तार। गही शरनागत दीनदयाल, विलम्ब करो मत हे गुनमाल। 15।
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(घत्ता) जै जै भवभंजन, जन-मनरंजन, दया-धुरंधर कुमतिहरा ।
वृंदावन वंदत मन-आनन्दित, दीजै आतमज्ञान वरा।
ॐ ह्रीं श्री संभवनाथ जिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।16।
(छन्द अडिल्ल)
जो बाँचे यह पाठ सरस संभव-तनो ।
सो पावें धन-धान्य सरस सम्पति घनो ।। सकल-पाप छै जाय सुजस जग में बढ़े। पूजत सुरपद होय अनुक्रम शिव चढ़े ॥17॥
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री अभिनंदन- जिन-पूजा (रचयिता - वृन्दावनदास)
अभिनंदन आनंदकंद, सिद्धारथ-नंदन। संवरपिता दिनंद चंद, जिहिं आवत वंदन।। नगर-अयोध्या जनम इन्द, नागिंद जु ध्यावें।
तिन्हें जजन के हेत थापि, हम मंगल गावें।1। ॐ ह्रीं श्री अभिनंदननाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (आह्वाननम्)।
ॐ ह्रीं श्री अभिनंदननाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः (संस्थापनम्)। ॐ ह्रीं श्री अभिनंदननाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भवत भवत वषट् (सन्निधिकरणम्)।
(छन्द गीता, हरिगीता तथा रूपमाला)
पदम-द्रह-गत गंग-चंग, अभंग-धार सु धार है। कनक-मणि-नगजड़ित झारी, द्वार धार निकार है। कलुषताप-निकंद श्रीअभिनन्द, अनुपम चंद हैं।
पद-वंद वृंद जजे प्रभू, भव-दंद-फंद निकंद हैं।। ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
शीतल चंदन, कदलि-नंदन, सुजल-संग घसायके। हो सुगंध दशों दिशा में, भ्रमैं मधुकर आयके । कलुषताप-निकंद श्रीअभिनन्द, अनुपम चंद हैं।
पद-वंद वृंद जजे प्रभू, भव-दंद-फंद निकंद हैं।। ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
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हीर-हिम-शशि-फेन-मुक्ता, सरिस तंदुल सेत हैं। तास को ढिंग पुञ्ज धारों, अक्षय पद के हेत हैं ॥ कलुषताप-निकंद श्रीअभिनन्द, अनुपम चंद हैं। पद-वंद वृंद जजे प्रभू, भव- दंद - फंद निकंद हैं।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान्निर्वपामीति स्वाहा । 3 ।
समर-सुभट निघटन कारन, सुमन सुमन- समान हैं। सुरभितैं जापैं करैं झंकार, मधुकर आन हैं । कलुषताप-निकंद श्रीअभिनन्द, अनुपम चंद हैं। पद-वंद वृंद जजे प्रभू, भव- दंद - फंद निकंद हैं।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथ जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
सरस ताजे नव्य गव्य, मनोज्ञ चितहर लेय जी । छुधा छेदन छिमा-छितिपति, के चरन चरचेय जी ॥
कलुषताप-निकंद श्रीअभिनन्द, अनुपम चंद हैं। पद-वंद वृंद जजे प्रभू, भव-दंद-फंद निकंद हैं।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
अतत तम-मर्दन किरनवर, बोध-भानु - विकाश हैं।
तुम चरन-ढिंग दीपक धरों, मोहि होहु स्व-पर- प्रकाश हैं ।
कलुषताप-निकंद श्रीअभिनन्द, अनुपम चंद हैं।
पद-वंद वृंद जजे प्रभू, भव-दंद-फंद निकंद हैं।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकारविध्वंसनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 6।
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धूम धूम उड़ाय है ।
भूर अगर कपूर चूर, सुगंध अगिनि जराय है। सब करमकाष्ठ सु काटने मिस, कलुषताप-निकंद श्रीअभिनन्द, अनुपम चंद हैं। पद-वंद वृंद जजे प्रभू, भव- दंद - फंद निकंद हैं।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। 7।
आम निंबु सदा फलादिक, पक्व पावन आन जी। मोक्षफल के हेत पूजों, जोरिके जुगपान जी ॥ कलुषताप-निकंद श्रीअभिनन्द, अनुपम चंद हैं। पद-वंद वृंद जजे प्रभू, भव- दंद - फंद निकंद हैं।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथ जिनेन्द्राय मोक्ष फल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। 8 ।
अष्ट-द्रव्य संवारि सुन्दर, सुजस गाय रसाल ही। नचत रचत जजों चरनजुग, नाय नाय सुभाल ही ॥ कलुषताप-निकंद श्रीअभिनन्द, अनुपम चंद हैं। पद-वंद वृंद जजे प्रभू, भव- दंद- फंद निकंद हैं।। ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 9।
पंच कल्याणक- अर्ध्यावली
(छन्द हरिपद)
शुकल-छट्ठ बैशाख-विषै तजि, आये श्री जिनदेव। सिद्धारथ माता के उरमें, करेसची शुचि सेवा रतन-वृष्टि आदिक वर-मंगल, होत अनेक प्रकार।
ऐसे गुननिधि को मैं पूजौं, ध्यावों बारम्बार ॐ ह्रीं बैशाखशुक्ल षष्ठीदिनेगर्भमंगल-प्राप्ताय श्रीअभिनंदननाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 1।
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माघ-शुकल-तिथि-द्वादशि के दिन, तीन-लोक-हितकार।
अभिनंदन आनंदकंद तुम, लीन्हों जग-अवतार।।
एक महूरत नरकमाँहि हू, पायो सब जिय चैन। कनक-वरन कपि-चिह्न-धरन, पद जजों तुम्हें दिन रैन।।
ॐ ह्रीं माघशुक्ल-द्वादश्यां जन्म मंगल-प्राप्ताय अभिनंदननाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।
साढ़े-छत्तिस-लाख सु-पूरब, राजभोग वर भोग। कछु कारन लखि माघ-शुकल-द्वादशि को धार्यो जोग।। षष्टम् नियम समापत करि लिय, इंद्रदत्त-घर छीर। जय-धुनि पुष्प-रतन-गंधोदक-वृष्टि सुगंध-समीर।।
ॐ ह्रीं माघशुक्ल-द्वादश्यां तपोमंगल-प्राप्ताय श्रीअभिनंदननाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।31
पौष-शुक्ल-चौदशि को घाते, घातिकरम दुःखदाय।
उपजायो वरबोध जास को, केवल नाम कहाय।। समवसरन लहि बोधि-धरम कहि, भव्य जीव-सुखकंद। मोकों भवसागर” तारों, जय जय जय अभिनंद।।
ॐ ह्रीं पौषशुक्ल-चतुर्दश्यां केवलज्ञान-प्राप्ताय श्रीअभिनंदननाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।4
जोग निरोध अघाति-घाति लहि, गिरसमेद” मोख। मास सकल-सुखरास कहे, बैशाख-शुकल-छठ चोख।।
चतुर-निकाय आय तित कीनो, भगत-भाव उमगाय। हम पूजत इत अरघ लेय जिमि, विघन-सघन मिट जाय।।
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ॐ ह्रीं बैशाखशुक्ल-षष्ठीदिने मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्रीअभिनंदननाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।5।
जयमाला
(दोहा) तुंग सु तन धनु-तीनसौ, औ पचास सुखधाम। कनक-वरन अवलौकिकैं, पुनि-पुनि करूँ प्रणाम।1।
(छन्द लक्ष्मीधरा) सच्चिदानंद सद्ज्ञान सद्दर्शनी, सत्स्वरूपा लई सत्सुधा-सर्सनी। सर्व-आनंदकंदा महादेवता, जास पादाब्ज सेवै सबै देवता।2। गर्भ औ जन्म निःकर्मकल्यान में, सत्त्व को शर्म पूरे सबै थान में। वंश-इक्ष्वाकु में आप ऐसे भये, ज्यों निशा-सर्द में इन्दु स्वेच्छै ठये।3।
(लक्ष्मीवती छन्द) होत वैराग लौकांत-सुर बोधियो, फेरि शिविकासु चढ़ि गहन निज सोधियो। घाति चौघातिया ज्ञान केवल भंयो, समवसरनादि धनदेव तब निरमयो।4।
एक है इन्द्र नीली-शिला रत्न की, गोल साढ़ेदशै जोजने रत्न की। चारदिश पैड़िका बीस हज्जार है, रत्न के चूर का कोट निरधार है।5।
कोट चहुँओर चहुँद्वार तोरन खचे, तास आगे चहूँ मानर्थभा रचे। मान मानी तर्जे जास ढिंग जायके, नम्रता धार सेवें तुम्हें आयके।6।
(छन्द लक्ष्मीधरा) बिंब सिंहासनों पै जहाँ सोहहीं, इन्द्रनागेन्द्र केते मने मोहहीं। वापिका वारिसों जत्र सोहै भरीं, जास में न्हात ही पाप जावै टरी।7। तास आगे भरी खातिका वारिसों, हंस सूआदि पंखी रमैं प्यारसों। पुष्प की वाटिका बागवृक्षे जहाँ, फूल और फलें सर्व ही है तहाँ।8।
कोट सौवर्ण का तास आगे खड़ा, चार दर्वाज चौ ओर रत्न जड़ा। चार उद्यान चारों दिशा में गना, है धुजा-पंक्ति और नाट्यशाला बना।9।
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तासु आगें त्रितीकोट रूपामयी, तूप नौ जास चारों दिशा में ठयी। धाम सिद्धांत-धारीन के हैं जहाँ, औ सभाभूमि है भव्य तिष्ठे तहाँ।10। __तास आगें रची गंधकूटी महा, तीन है कट्टिनी सार-शोभा लहा। एक पै तौ निधैं ही धरी ख्यात हैं, भव्यप्रानी तहाँ लौं सबै जात हैं।11।
दूसरी पीठ पै चक्रधारी गमै, तीसरे प्रातिहारज लशै भाग में। तास पै वेदिका चार थंभान की, है बनी सर्वकल्यान के खान की।12।
तासु पै हैं सुसिंघासनं भासनं, जासु पै पद्म प्राफुल्ल है आसन। तासु पै अंतरीक्षं विराजै सही, तीन-छत्रे फिरें शीस रत्ने यही।13।
वृक्ष शोकापहारी अशोकं लसै, दुंदुभी नाद औ पुष्प खते खसै। देह की ज्योति से मंडलाकार है, सात भौ भव्य तामें लखै सार है।14।
दिव्यवानी खिरै सर्वशंका हरे, श्रीगनाधीश झेलें सुशक्ती धरै। धर्मचक्री तुही कर्मचक्री हने, सर्वशक्री नमें मोदधारे घने।15। भव्य को बोधि सम्मेद शिव गये, तत्र इन्द्रादि पूजै सुभक्तीमये। हे कृपासिंधु मोपै कृपा धारिये, घोर संसारसों शीघ्र मो तारिये।16।
जय जय अभिनंदा आनंदकंदा, भवसमुद्र वर पोत इवा।
भ्रम-तम शतखंडा, भानुप्रचंडा, तारि तारि जगरैन दिवा।17। ॐ ह्रीं श्री अभिनंदननाथ जिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा।।
(छन्द कवित्त) श्री अभिनंदन पापनिकंदन, तिनपद जो भवि जजै सुधार।
ताके पुन्य-भानु वर उग्गे, दुरित-तिमिर फाटै दुःखकार।। पुत्र-मित्र धन-धान्य कमल यह, विकसै सुखद जगतहित प्यार। कछुक-काल में सो शिव पावै, पढ़े-सुने जिन जजै निहार।181
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री सुमतिनाथ- जिन-पूजा (रचयिता - वृन्दावनदास)
संजम-रतन-विभूषन-भूषित, दूषन-वर्जित श्री जिनचंद। सुमति-रमा-रंजन भव-भंजन, संजयंत-तजि मेरु-नरिंद।।
मातु-मंगला सकल मंगला, नगर विनीता जये अमंद। सो प्रभु दया-सुधारस गर्भित, आय तिष्ठ इत हरि दुःख दंद ।1। ॐ हीं श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्।
ॐ ह्रीं श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः संस्थापनम्। ॐ ह्रीं श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।
(छन्द कवित्त तथा कुसुमलता)
पंचम-उदधितनों सम उज्जवल, जल लीनों वर-गंध मिलाय। कनक-कटोरी माँहिं धारिकरि, धार देहु सुचि मन-वच-काय।।
हरि-हर-वंदित पाप-निकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवन के राय।
तुम पद-पद्म सद्म-शिवदायक, जजत मुदित-मन उदित सुभाय।। ॐ ह्रीं श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
मलयागिर घनसार घसौं वर, केशर अर करपूर मिलाय। भव-तप-हरन चरन पर वारों, जनम-जरा-मृत ताप पलाय।। हरि-हर-वंदित पाप-निकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवन के राय।
तुम पद-पद्म सद्म-शिवदायक, जजत मुदित-मन उदित सुभाय।। ॐ ह्रीं श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय भवाताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
शशि-सम उज्जवल सहित गंधतल, दोनों अनी शुद्ध सुखदास।
सौ लै अखय-संपदा-कारन, पुञ्ज धरौं तुम चरनन पास।। हरि-हर-वंदित पाप-निकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवन के राय।
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तुम पद-पद्म सद्म-शिवदायक, जजत मुदित-मन उदित सुभाय।। ॐ ह्रीं श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय अक्षय पद प्राप्तये अक्षतान्निर्वपामीति स्वाहा।3।
कमल केतकी बेल चमेली, करना अरु गुलाब महकाय। सो ले समर-शूल छय-कारन, जजौं रन अति-प्रीति लगाय।।
हरि-हर-वंदित पाप-निकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवन के राय।
तुम पद-पद्म सद्म-शिवदायक, जजत मुदित-मन उदित सुभाय।। ॐ ह्रीं श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय काम-बाण विध्वंसाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
नव्य गव्य पकवान बनाऊँ, सुरस देखि दृग-मन ललचाय। सौ लै छुधा-रोग छय-कारण, धरौं चरण-ढिंग मन हरषाय।।
हरि-हर-वंदित पाप-निकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवन के राय।
तुम पद-पद्म सद्म-शिवदायक, जजत मुदित-मन उदित सुभाय।। ॐ ह्रीं श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
रतन-जड़ित अथवा घृत-पूरित, वा कपूरमय-जोति जगाय।
दीप धरौं तुम चरनन आगे, जातें केवलज्ञान लहाय।। हरि-हर-वंदित पाप-निकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवन के राय।
तुम पद-पद्म सद्म-शिवदायक, जजत मुदित-मन उदित सुभाय।। ॐ ह्रीं श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विध्वंसनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
अगर तगर कृष्णागरु चंदन, चूरि अगिनि में देत जराय।
अष्ट-करम ये दुष्ट जरतु हैं, धूम धूम यह तासु उड़ाय॥ हरि-हर-वंदित पाप-निकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवन के राय।
तुम पद-पद्म सद्म-शिवदायक, जजत मुदित-मन उदित सुभाय।। ॐ ह्रीं श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
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श्रीफल मातुलिंग वर दाडिम, आम निंबु फल-प्रासुक लाय।
मोक्ष-महाफल चाखन-कारन, पूजत हौं तुमरे जुग पाय।। हरि-हर-वंदित पाप-निकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवन के राय। तुम पद-पद्य सद्म-शिवदायक, जजत मुदित-मन उदित सुभाय।। ॐ ह्रीं श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8
जल चंदन तंदुल प्रसून चरु दीप धूप फल सकल मिलाय। नाचि राचि सिरनाय समरचौं, जय-जय-जय-जय जिनराय।। हरि-हर-वंदित पाप-निकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवन के राय।
तुम पद-पद्म सद्म-शिवदायक, जजत मुदित-मन उदित सुभाय।। ॐ ह्रीं श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।9।
पंचकल्याणक-अर्ध्यावली (रूप चौपाई) संजयंत तजि गरभ पधारे, सावन-सेत-दुतिय सुखकारे। रहे अलिप्त मुकुर जिमि छाया, जजों चरन जय-जय जिनराया।। ॐ ह्रीं श्रावणशुक्ल-द्वितीयादिने गर्भमंगल-प्राप्ताय श्री समतिनाथ जिनेन्द्राय
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।1।
चैत-सुकल-ग्यारस कहँ जानों, जनमें सुमति सहित त्रय-ज्ञानों।
मानों धरयो धरम-अवतारा, जजौं चरन-जुग अष्ट-प्रकारा।। ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां जन्ममंगल-प्राप्ताय श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।
बैशाख-सुकल-नौमि भाखा, ता दिन तप-धरि निजरस चाखा।
पारन पद्म-सद्म पय कीनों, जजत चरन हम समता भीनों।। ॐ ह्रीं बैशाखशुक्ल-नवम्यां तपोमंगल-प्राप्ताय श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।3।
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सुकल-चैत-एकादश हाने, घाति सकल जे जुगपति जाने।
समवसरन-मँह कहि वृषसारं, जजहुँ अनंत-चतुष्टयधार।। ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।4।
चैत-सुकल-ग्यारस निरवानं, गिरि-समेद त्रिभुवन मान।
गुन-अनंत निज निरमलधारी, जजौं देव सुधि लेहु हमारी।। ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।5।
जयमाला
(दोहा) सुमति तीन सौ छत्तीसों, सुमति-भेद दरसाय। सुमति देहु विनती करों, सुमति विलम्ब कराय।। दयाबेलि तहँ सुगुन-निधि, भविक मोद-गण-चंदासुमति-सतापति सुनतिकों, ध्यावों धरि आनंद। पंच-परावरतन-हरन, पंच-सुमति सित देन। पंच-लब्धिदातार के, गुन गाऊँ दिनरैन।।
(छन्द भुजंगप्रयात) पिता मेघराजा सबै सिद्ध काजा, जपै नाम जाकौ सबै दुःख भाजा। महासूर इक्ष्वाकु वंशी विराजै, गुण-ग्राम जाको सबै ठौर छाजै।। तिन्हों के महापुण्यसों आप जाये, तिहुँ लोक में जीव आनंद पाये। सुनासीर ताही धरी मेरु धायो, क्रिया जन्म की सर्व कीनी यथा यो।। बहुरि तात को सौंपि संगीत कीनों, नमें हाथ जोरें भलो भक्ति भीनों। बिताई दशै लाख ही पूर्व बालै, प्रजा लाख उन्तीस ही पूर्व पालै।।
कछु हेतु भावना बार भाये, तहां ब्रह्म लौकांत के देव आये। गये बोधि ताही समै इन्द्र आयो, धरे पालकी में सु उद्यान ल्यायो।। नमैं सिद्ध को केशलोंचे सबै ही, धर्यो ध्यान शुद्ध जु घाती हने ही। लह्यो केवलं औ समोसर्न साजं, गणाधीश जू एकसौ सोल राज।। खिरै शब्द तामैं छहों द्रव्य धारे, गुनौ पर्जय उत्पाद व्यय ध्रौव्य सारे। तथा कर्म आठों तनी थित्ति गाजं, मिलै जासु के नाश” मोच्छराज।।
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धरै मोहिनी सत्तरं कोड़कोड़ी, सरित्पत्प्रमाणं थिति दीर्घ जोड़ी। अवधिज्ञान दृग्वेदनी अंतरायं, धरै तीस कोड़ाकोड़ी सिंधुकाय।।
तथा नामगोतं कुड़ाकोड़ि बीसं, समुद्रप्रमाणं धरै सत्तईसं। सु तैंतीस अब्धि धरे आयु अब्धि, कहे सर्व कर्मोतनी वृद्ध लब्धि।।
जघन्य प्रकारे धरै भेद ये ही, मुहूर्त वसू नामगोतं गने ही। तथा ज्ञान दृग्मोह प्रत्यूह आयं, सुअन्तर्मुहूर्तं धरै थित्ति गाय।।
तथा वेदनी बारहे ही मुहूर्त, धरै थित्ति ऐसे भन्यो न्याय जुत्तं। इन्हें आदि तत्त्वार्थ भाख्यो अशेषा, लह्यो फेरि निर्वाण माहीं प्रवेशा।।
अनन्तं महन्तं सुसन्तं सुतन्तं, अमन्दं अफन्दं अनन्दं अभन्तं। अलक्षं विलक्षं सुलक्षं सुदक्षं, अनक्षं अवक्षं अभक्षं अतक्ष।। अवर्णं सुवर्णं अमर्णं अकर्णं, अभर्णं अतर्णं अशर्णं सुशण। अनेकं सदेकं चिदेकं विवेकं, अखण्डं सुमण्डं प्रचण्डं सदेकं।।
सुपर्मं सुधर्मं सुशर्मं अकर्म, अनन्तं गुनाराम जैवन्त धर्म। नमैं दास वृंदावन शर्न आई, सबै दुःखतें मोहि लीजै छुड़ाई।।
तुम सुगुन अनन्ता, ध्यावत संता, भ्रमतम भंजन मार्तंडा। सतसत करचंडा भविकज मंडा, कुमति कुवलभन गन हंडा।। ॐ ह्रीं श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
(छन्द-रोड़क) सुमतिचरन जो जज, भविक जन मनवकारई। तासु सकलदुखदंद फंद ततछिन छय जाई।।
पुत्रमित्र धनधान्य, शर्म अनुपम सो पावै। 'वृन्दावन' निर्वाण, लहे जो निहचै ध्यावै।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री पद्मप्रभ- जिन-पूजा ( रचयिता
(छन्द रोड़क मदावलिप्तकपोल)
वृन्दावनदास)
पदम-राग-मनि-वरन-धरन, तन-तुंग अढ़ाई शतक दंड अघ-खंड, सकल-सुर सेवत आई।। धरनि तात विख्यात, सु सीमाजू के नंदन | पदम-चरन धरि राग, सु थापों इत करि वंदन ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (आह्वाननम् )।
ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः (संस्थापनम् )। ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् (सन्निधिकरणम्) ।
(चाल होली की, ताल जत्त)
पूजों भावसों, श्री पदमनाथ- पद सार, पूजों भावसों। टेक। गंगाजल अतिप्रसुक लीनों, सौरभ सकल मिलाय। मन-वच-तन त्रय-धार देत ही, जनम-जरा- मृतु जाय। पूजौं भावसों, श्री पदमनाथ-पद सार, पूजौं भावसों।।
ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागि र कपूर चन्दन घसि, केशर संग मिलाय। भवतपहरन चरन पर वारौं, मिथ्याताप मिटाय ॥
पूजों भावसों, श्री पदमनाथ-पद सार, पूजों भावसों।
ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय भवाताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
तंदुल उज्जवल गन्ध अनी जुत, कनक थाल भर लाय।
पुंज धरौं तुम चरनन आगैं, मोहि अखय पद दाय ॥
पूजों भावसों, श्री पदमनाथ- पद सार, पूजों भावसों । ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
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पारिजात मन्दार कल्पतरु, जनित सुमन शुचि लाय। समरशूल निरमूल करन कौं, तुम पद-पद्म चढ़ाय ।।
पूजों भावसों, श्री पदमनाथ-पद सार, पूजों भावसों। ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय काम-बाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
घेवर बावर आदि मनोहर, सद्य सजे शुचि भाय। क्षुधा रोग निरवारन कारन, जजौं हरष उर लाय ।।
पूजों भावसों, श्री पदमनाथ-पद सार, पूजों भावसों। ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक ज्योति जगाय ललित वर, घूम रहित अभिराम। तिमिर मोह नाशन के कारन, जजौं चरण गुणधाम ।।
पूजों भावसों, श्री पदमनाथ-पद सार, पूजों भावसों। ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय मोहान्ध
कृष्णागर मलयागि र चन्दन, चूरि सुगन्ध बनाय। अग्नि मांहि जारों तुम आगैं, अष्ट करम करि जाय ।।
पूजों भावसों, श्री पदमनाथ-पद सार, पूजों भावसों। ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरस वरन रसना मन भावन, पावन फल अधिकार। तासौं पूजों जुगम चरन यह, विघन करम निरवार ।।
पूजों भावसों, श्री पदमनाथ-पद सार, पूजों भावसों। ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
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जल फल आदि मिलाय गाय गुण, भगति भाव उमगाय। जजौं तुम्हें शिव तिय वर जिनवर, आवागमन मिटाय ।।
पूजों भावसों, श्री पदमनाथ-पद सार, पूजों भावसों। ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक अर्घ्य (छन्द द्रुतविलम्बित तथा सुन्दरी मात्रा 16) असित माघ सु छट्ठ बखानिये, गरभ मंगल ता दिन मानिये। उरध ग्रीवकसौं चय राज जी, जजत इन्द्र जजै हम आज जी।।
ॐ ह्रीं माघ कृष्णा षष्ठ्या गर्भकल्याणक-प्राप्ताय श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
सुकल कार्तिक तेरस कों जये, त्रिजग जीव सु आनन्द को लये। नगर स्वर्गसमान कुसम्बिका, जजतु हैं हरिसंजुत अम्बिका।। ॐ ह्रीं कार्तिक-शुक्ला त्रयोदश्यां जन्मकल्याणक-प्राप्ताय
श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
सुकल तेरस कार्तिक भावनो, तप धर्यो वन षष्टम पावनो। करत आतम ध्यान धुरन्धरो, जजत हैं हम पाप सबै हरो।। ॐ ह्रीं कार्तिकशक्ला त्रयोदश्यां तपकल्याणक-प्राप्ताय श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
सुकल पूनम चैत सुहावनी, परम केवल सो दिन पावनी। सुर सुरेश नरेश जजै तहाँ, हम जजें पद पंकज को इहां।।
ॐ ह्रीं चैत्र पूर्णिमायां ज्ञानकल्याणक-प्राप्ताय श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
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असित फागुन चौथ सुजानियो, सकल कर्म महा रिपु हानियो। गिरि समेदथ की शिव को गये, हम जजै पद ध्यान विर्षे लये।। ॐ ह्रीं फाल्गुन कृष्णा चतुर्थ्यां मोक्षकल्याणक-प्राप्ताय श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
जयमाला
(घत्ता) जय पद्म जिनेशा, शिव सद्देशा, पादपद्म जजि पद्मेशा। जय भवतम भंजन, मुनिमन कंजन, रंजन को दिवसाधेशा।।
(छन्द रूप चौपाई 16 मात्रा) जय जय जिन भवि जन हितकारी, जय जय जिन भवसागरतारी।
जय जय समवसरण धन धारी, जय जय वीतराग हितकारी।। जय तुम सात तत्त्व विधि भाख्यौ, जय जय नव पदार्थ लखि आख्यो।
जय षट द्रव्य पंचजुत काया, जय सब भेद सहित दरशाया। जय गुणथान जीव परमानों, जय पहिले अनन्त जिय जानो।।
जय दूजे सासादन माहीं, तेरह कोड़ि जीव थित आंही।। जय तीजे मिश्रित गुणथाने, चार अधिक शत कोड़ि प्रमाने। जय चौथे अविरति गुण जीवा, कोड़ि सातसौ रहे सदीवा।।
जय जिय देशवरत में शेषा, तेरह कोड़ि जीव तिथि वेशा। जय प्रमत्त षट शुन्य दोय वसु, पांच तीन नव पांच जीव लसु।। जय जय अपरमत्त गुन कोरं, लच्छ छयानवै सहस बहोरं। निन्यानवे एकशत तीना, एते मुनि तित रहहिं प्रवीना।। जय जय अष्टम में दुई धारा, आठ शतक सत्तानों सारा। उपशम में दुइसो निन्यानों, क्षपक मांहि तसु दूने जानों।।
जय इतने इतने हितकारी, नवें दशें जुग श्रेणी धारी। जय ग्यारे उपशम मग गामी, दौसे निन्यानौं अघगामी।। जय जय खीणमोह गुणथानों, मुनि शत पांच अधिक अट्ठानों।
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जय जय तेरह में अरहंता, जुग नभ पन वसु नव वसु तंता।।
एते राजतु हैं चतुरानन, हम वन्दैं पद थुतिकरि आनन। जय अजोग गुण में जे देवा, मनसौ ठानों करों सु सेवा तित तिथि अ इ उ ऋ लृ भाषत, करि थिति फिरि शिव आनन्द चाखत। ए उत्कृष्ट सकल गुणथानी, तथा जघन मध्यम जे प्रानी।। तीनों लोक सदन के वासी, नित गुण परज भेद परकाशी। तथा और द्रव्यन के जेते, गुण परजाय भेद हैं तेते।। तीनों काल त अनन्ता, सो तुम जानत जुगपत सन्ता। सोई दिव्य वचन के द्वारे, दे उपदेश भविक उद्धारे || फेरि अचल थल वासा कीनों, गुण अनन्त निज आनन्द भीनों। चरम देह तैं किंचित ऊनो, नर आकृति तित हैं नित गूनों ।। जय जय सिद्ध देव हितकारी, बार बार यह अरज हमारी। मोकौं दुःख सागर तें काढ़ो, वृन्दावन जाँचतु हैं ठाढ़ो।।
ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
जय जय जिनचंदा पद्मानन्दा, परम सुमति पद्माधारी। जय जन हितकारी, दया विचारी, जय जय जिनवर अविकारी || (छन्द-रोड़क)
जजत पद्म पद-पद्म सद्म ताके सुपद्म
वृद्धि सुमित्र सकल-आनंदकंद शत।
लहत स्वर्गपदराज, तहाँतें चय इत आई। चक्रीको सुख
भोगि अंत शिवराज कराई ||
।। इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री सुपार्श्वनाथ जिन-पूजा ( रचयिता श्री वृन्दावन)
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जय-जय जिनिंद गनिंद इन्द, नरिंद गुन-चिंतन करें।
तन हरी-हर मनसम हरत मन, लखत उर-आनन्द भरें ।।
नृप सुपरतिष्ठ वरिष्ठ इष्ट, महिष्ठ शिष्ठ पृथी-प्रिया।
तिन नन्दके पद-वन्द वृन्द, अमंद थापत जुतक्रिया।
ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्) ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
उज्ज्वल-जल शुचि-गंध मिलाय, कंचनझारी भरकर लाय। दयानिधि हो, जय जगबंधु दयानिधि हो ।
तुम पद पूजों मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय। दयानिधि हो, जय जगबंधु दयानिधि हो।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।। 1 ।।
मलयागिरचंदन घसि सार, लीनो भवतप भंजनहार ।
दयानिधि हो, जय जगबंधु दयानिधि हो ।
तुम पद पूजों मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय।
ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय संसारताप - विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।। 2 ।
देवजीर सुखदास अखंड उज्ज्वल जल - छालित सित मंड। दयानिधि हो, जय जगबंधु दयानिधि हो ।
तुम पद पूजों मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।। 31
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प्रासुक सुमन सुगंधित सार, गुंजत अलि मकरध्वजहार।
दयानिधि हो, जय जगबंधु दयानिधि हो।।
तुम पद पूजों मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय। ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।।4।
छुधाहरण नेवज वर लाय, हरों वेदनी तुम्हें चढ़ाय।
दयानिधि हो, जय जगबंधु दयानिधि हो।। तुम पद0॥ ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।।5।।
ज्वलित दीप भरकरि नवनीत, तुम ढिग धारत हों जगमीत।
दयानिधि हो, जय जगबंधु दयानिधि हो।।
तुम पद पूजों मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय। ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।।6।
दशविधि गन्ध हुताशन माहिं, खेवत क्रूर-करम जरि जाहिं।।
दयानिधि हो, जय जगबंधु दयानिधि हो।।
तुम पद पूजों मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय। ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।।7।
श्रीफल केला आदि अनूप, ले तुम अग्र धरो शिवभूप।
दयानिधि हो, जय जगबंधु दयानिधि हो।।
तुम पद पूजों मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय। ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षमहाफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा॥8॥
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आठों दरब साजि गुनगाय, नाचत राचत भगति बढ़ाय।
दयानिधि हो, जय जगबंधु दयानिधि हो।।
तुम पद पूजों मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय। ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।9।।
पंचकल्याणक
छन्द द्रुतविलम्बित तथा सुन्दरी सुकल भादव छ? सुजानिये, गरभमंगल ता दिन मानिये।
करत सेव शची रचि मात की, अरघ लेय जजों वसु-भांत की।। ॐ ह्रीं भाद्रपदशुक्ला-षष्ठ्या गर्भमंगल-प्राप्ताय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।।
सुकल जेठ दुवादिशि जन्मये, सकल जीव सु आनन्द तन्मये।
त्रिदशराज जजें गिरिराजजी, हम जजै पद मंगल साजजी।। ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्ला-द्वादश्यां जन्ममंगल-प्राप्ताय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।
जनमके तिथि श्रीधर ने धरी, तप समस्त प्रमादन को हरी।
नृपमहेन्द्र दियो पय भावसो, हम जजें इत श्रीपद चावसों।। ऊँ ह्रीं ज्येष्ठशुक्ला-द्वादश्यां तपोमंगल-प्राप्ताय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।31
भ्रमर फागुन छट्ठ सुहावनो, परम केवल ज्ञान लहावनो।
समवसन विषै वृष भाखियो, हम जजें पद आनन्द चाखि यो।। ऊँ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-षष्ठ्यां केवलज्ञान-प्राप्ताय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।4।
असित फागुन सातय पावनों, सकल कर्म कियो छय भावनो।
गिरिसमेद थकी शिव जातु हैं, जजत हि सब विघ्न विलातु हैं।। ऊँ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-सप्तम्यां मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।5।
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जयमाला (दोहा)
तुंग अंग धनु दोय-सौ, शोभा सागरचन्द । मिथ्या- तपहर सुगुनकर, जय सुपास सुखकंद। 1। छन्द कामिनी मोहन
जयति जिनराज शिवराज हितहेत हो, परमवैराग आनन्द भरि देत हो । गर्भ के पूर्व षट्मास धनदेव ने, नगर निरमापि वाराणसी सेवने | 2 | गगनसों रतन की धार बहु वरषहीं, कोडि त्रै अर्द्ध त्रैवार सब हरषहीं। तात सदन गुनवदन रचन रची, मातुकी सर्वविधि करत सेवा शची | 3 | भयो जब जनम तब इन्द्र-आसन चल्यो, होय चकित तुरित अवधितैं लखि भल्यो। सप्त पग जाय शिर नाय वन्दन करी चलन उमग्यो तबै मानि धनि धनि घरी | 4 |
सात विधि सैन गज वृषभ रथ बाज ले, गन्धरव नृत्यकारी सबै साज ले। गलित-मद-गण्ड ऐरावती साजियो, लच्छ-जोजन सुतन वदन सत राजियो। 5 । वदन वसु-दन्त प्रति-दन्त सरवन भरे, तासु-मधि शतक पनबीस कमलिनि खरे। कमलिनी मध्य पनवीस फूले कमल, कमलप्रति कमलमँह एकसौ-आठ दल।6। सर्वदल कोड़-शत-वीस परमान जू, तासुपर अपछरा नचहिं जुतमान जू। तततता तततता विततता ताथई, धृगतता धृगतता धृगतता में लई | 7 | धरत पग सनन नन सनन नन गगन में, नूपुरें झनन नन झनन नन पगन में। नचत इत्यादि कई भाँति सों मगन में, केई तित बजत बाजे मधुर पगन में। 8 । ईदृदृम सुदृम दृम मृदंगनि धुनै, केई झल्लरि झनन झंझनन झंझनै केई सारंगि संसाग्रहिं साध सुर, केई बीना पटह बंसि बाजें मधुर 9
केई तनननन तनननन ताने पुरै, शुद्ध उच्चारि सुर केई पाठें फुरै। केई झुक-झुकि फिरे चक्र-सी भामनी, धृगगतां धृगगतां पर्म-शोभा बनीं। 10। केई छिन निकट छिन दूर छिन थूल-लघु धरत वैक्रियक परभावसों तन सुभगु। केई करताल-करताल तल में धुनें, तत वितत घन सुषिर जात बाजें मुनै।11।।
इन्द्र आदिक सकल साज संग धारिके, आय पुर तीन फेरी करी प्यार ते।
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सचिय तब जाय परसूत-थल मोदमें, मातु करि नींद लीनों तुम्हें गोद में।12।
आन-गिरवान नाथहिं दियो हाथ में, छत्र अर चमर वर हरि करत माथ में। चढ़े गजराज जिनराज गुन जापियो, जाय गिरिराज पांडुकशिला थापियो।13।
लेय पंचम उदधि-उदक कर-कर सुरनि, सुरन कलशनि भेर सहित चर्चित पुरनि। सहस अरु आठ शिर कलश ढारे जबँ, अघघ घघ घघघ घघा भभभ भभ भौ तबैं।14।
धधध धध धधध धध धुनि मधुर होत है, भव्यजन हंसके हरस उद्योत है। भयो इमि न्हौन तब सकल गुन रंग में, पोछि श्रृंगार कीनों शची अंग में। 151 आनि पितुसदन शिशु सौंपि हरि थल गयो, बालवय तरुन लहि राजसुख भोगयो। भोग तज जोग गहि, चार अरि को हने, धारि केवल परम धरम दुइविधि भने।16।
नाशि अरि शेष शिवथानवासी भये, ज्ञानदृग शर्म वीरज अनन्ते लये। दीन जन की करुण वानि सुन लीजिये, धरमके नन्दको पार अब कीजिये।17।
(घत्ता) जय करुनाधारी, शिवहितकारी तारन तरन जिहाजा हो। सेवत नित वन्दे मनआनंदे, भवभय मेटनकाजा हो।18। ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय पूर्णायँ निर्वपामति स्वाहा।
श्रीसुपार्श्व पदजुगल जो, जजे पढ़े यह पाठ। अनुमोदे सो चतुर नर, पावे आनन्द ठाठ।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री चन्द्रप्रभ पूजन (रचयिता - वृन्दावनदास)
छप्पय
चारु चरन आचरन, चरन चितहरन चिह्नचर,
चन्द चन्द तन चरित, चंद-थल चहत चतुर नर । चतुक चण्ड चकचूरि, चारि चिचक्र गुनाकर,
चंचल चलित सुरेश, चूल-नुत चक्र धनुरधर ॥ चर-अचर-हितू तारन-तरन, सुनत चहकि चिरनंद शुचि । जिनचंदचरन चरच्यो चहत, चित चकोर नचि रच्चि रुचि ॥ दोहा
धनुष डेढ सौ तुंग तन, महासेन नृपनन्द । मातु लछमना उर जये, थापों चन्द - जिनन्द ॥
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ( स्थापनम् ) (स्थापनम् ) ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (सन्निधिकरणम्)
गंगा ह्रद निरमल नीर, हाटक भृंगभरा, तुम चरन जजों वर वीर, मेटो जनम जरा ।
श्री चंदनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै, मन वच तन जजत अमंद, आतम जोति जगै ॥
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीखण्ड कपूर सुचंग, केशर रंगभरी ।
घसि प्रासुक जल के संग, भव आताप हरी ॥
श्री चंदनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै,
मन वच तन जजत अमंद, आतम जोति जगै ॥
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।
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तन्दुल सित सोम समान सम लय अनियारे । दिय पुंज मनोहर आन तुम पदतर प्यारे ॥
श्री चंदनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै,
मन वच तन जजत अमंद, आतम जोति जगै॥ ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
सुरद्रुम के सुमन सुरंग, गंधित अलि आवै। तासों पद पूजत चंग, काम विथा जावै ॥
श्री चंदनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै,
मन वच तन जजत अमंद, आतम जोति जगै॥ ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
नेवज नाना परकार, इन्द्रिय बलकारी। सो लै पद पूजों सार, आकुलताहारी ॥
श्री चंदनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै,
मन वच तन जजत अमंद, आतम जोति जगै॥ ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
तम भंजन दीप संवार, तुम ढिंग धारतु हों। मम तिमिर मोह निरवार, यह गुन धारतु हो ।
श्री चंदनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै,
मन वच तन जजत अमंद, आतम जोति जगै॥ ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोहान्धकारविध्वंसनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
दश गंध हुताशन माँहिं, हे प्रभु खेवतु हों। मम करम दृष्ट जरि जाहिं, या” सेवतु हो ।
श्री चंदनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै, ___ मन वच तन जजत अमंद, आतम जोति जगै॥ ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
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अति उत्तम फल सु मंगाय, तुम गुन गावतु हों। पूजों तन मन हरषाय, विघन नशावतु हो ।
श्री चंदनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै,
मन वच तन जजत अमंद, आतम जोति जगै॥ ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
सजि आठों दरब पुनीत, आठों अंग नमों। पूजों अष्टम जिन मीत, अष्टम अवनि गमों ॥
श्री चंदनाथ दुति चंद, चरनन चंद लगै,
मन वच तन जजत अमंद, आतम जोति जगै॥ ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
पंचकल्याणक छन्द तोटक (वर्ण १२) कलि पंचम चैत सुहात अली, गरभागम मंगल मोद भली।
हरि हर्षित पूजत मातु पिता, हम ध्यावत पावत शर्म सिता ॥ ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णपञ्चम्यां गर्भकल्याणकप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
कलि पौषइकादशि जन्म लयो,तब लोकविषै सुख थोक भयो।
सुरईश जजें गिरशीश तबै, हम पूजत हैं नुत शीश अबै । ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
तप दुद्धर श्रीधर आप धरा, कलि पौष इग्यारसि पर्व वरा ।
निज ध्यानविर्षे लवलीन भये, धनि सो दिन पूजत विघ्नगये ॥ ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां तपःकल्याणकप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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वर केवलभानु उद्योत कियो, तिहुँ लोक तणों भ्रम मेट दियो।
कलि फाल्गुन सप्तमी इन्द्र जजे, हम पूजहिं सर्व कलंक भजे ॥ ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णसप्तम्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
सित फाल्गुन सप्तमि मुक्त गये, गुणवन्त अनन्त अबोध भये ।
हरि आय जजें तित मोद धरे, हम पूजत ही सब पाप हरे ॥ ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्लसप्तम्यां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
दोहा हे मृगांक-अंकितचरण, तुम गुण अगम अपार । गणधर से नहिं पार लहिं, तौ को वरनत सार ॥
पै तुम भगति हिये मम, प्रेरे अति उमगाय । ताते गाऊँ सुगुण तुम, तुम ही होउ सहाय ॥
पद्धरिछन्द जय चन्द्र जिनेन्द्र दया-निधान, भवकानन हानन दैवप्रमान । जय गरभ जनम मंगल दिनन्द, भवि जीव विकासन शर्म कन्द ॥१॥
दश लक्ष पूर्व की आयु पाय, मन वांछित सुख भोगे जिनाय । लखि कारण द्वै जग नैं उदास, चित्यो अनुप्रेक्षा सुख निवास ॥२॥ तित लौकांतिक बोध्यो नियोग, हरि शिविका सजि धरियो अभोग । तापै तुम चढि जिनचन्दराय, ता छिन की शोभा को कहाय ॥३॥ जिन अंग सेत सित चरम ढार, सित छत्र शीस गल-गुलक हार । सित रतनजड़ित भूषण विचित्र, सित चन्द्र-चरण चरचैं पवित्र ॥४॥ सित तन-द्युति नाकाधीश आप, सित शिविका कांधे धरि सुचाप ।
सित सुजस सुरेश नरेश सर्व, सित चित में चिन्तत जात पर्व ॥५॥ ___ सित चन्द-नगर निकसि नाथ, सित वन में पहुँचे सकल साथ। सित सिला शिरोमणि स्वच्छ छांह, सित तप तित धारौ तुम जिनांह ॥६॥
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सित पय को पारण परम सार, सित चन्द्रदत्त दीनों उदार । सित कर में सो पयधार देत, मानो बाँधत भवसिन्धु सेत ॥७॥ मानो सुपुण्यधारा प्रतच्छ, तित अचरज पन सुर किय ततच्छ । फिर जाय गहन सित तप करंत, सित केवलज्योति जग्यो अनन्त ।
लहि समवसरण रचना महान, जाके देखत सब पापहान । जहं तरु अशोक शौभै उत्तंग, सब शोकतनो चूरै प्रसंग ॥९॥
सुर सुमनवृष्टि नभतें सुहात, मनु मन्मथ तज हथियार जात । बानी जिन मुखसौं खिरत सार, मनु तत्त्व प्रकाशन मुकुरधार ॥१०॥
जहँ चौसठ चमर अमर ढुरंत, मनु सुजसमेघ झरि लगिय तन्त । सिंहासन है जहँ कमल जुक्त, मनु शिवसरवर को कमलशुक्त ॥११॥
दुंदुभि जित बाजत मधुर सार, मनु करम जीत को है नगार । सिर छत्र फिरै त्रय श्वेतवर्ण, मनु रतन तीन त्रय ताप हर्ण ॥१२॥
तन प्रभातनों मण्डल सुहात, भवि देखत निज भव सात सात । मनु दर्पण द्युति यह जगमगाय, भविजन भव मुख देखत सुआय ॥१३॥ ___ इत्यादि विभूति अनेक जान, बाहिज दीसत महिमा महान । ताको वरणत नहिं लहत पार, तौ अन्तरंग को कहै सार ॥१४ ॥
अनअन्त गुणनि-जुत करि विहार, धरमोपदेश दे भव्य तार। फिर जोगनिरोधि अघाति हान, सम्मेद थकी लिय मुकतिथान ।।।।
वृन्दावन वन्दत शीश नाय, तुम जानत हो मम उर जु भाय । तारौं का कहों सु बार-बार, मन वांछित कारज सार-सार ॥१६॥
घत्तानन्द जय चन्द-जिनंदा आनंदकंदा, भव-भय-भंजन राजै हैं । रागादिक-द्वन्द्वा हरि सब फन्दा, मुकति माँहि थिति साजै हैं ।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय महायँ निर्वपामीति स्वाहा ।
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चौबोला
आठों दरब मिलाय गाय गुण, जो भविजन जिनचन्द जजैं । ताके भव-भव के अघ भाजैं, मुक्त सारसुख ताहि सजैं ॥ जम के त्रास मिटैं सब ताके, सकल अमंगल दर भजैं । वृन्दावन ऐसो लखि पूजत, जातैं शिवपुरि राज रजैं ॥
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री पुष्पदंत जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन)
पुष्पदन्त भगवन्त सन्त सुजपंत तंत गुन। महिमावन्त महन्त कन्त शिवतिय-रमन्त मुन।।
काकन्दीपुर जन्म पिता सुग्रीव रमासुत।
स्वेतवरन मनहरन तुम्हें थापों त्रिवार नुत।। ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
होली चाल मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त जिनराय,
मेरी अरज सुनीजे। पुष्पदन्त जिनराय।। हिमवनगिरिगत गंगाजल भर, कंचनभुंग भराय। करम-कलंक निवारनकारन, जजों, तुम्हारे पाय।।
मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त जिनराय।। ऊँ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।
बावन चन्दन कदलीनंदन, कुंकुम-संग घसाय। चरचों चरन हरन मिथ्यातम, वीतराग गुणगाय।।
मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त जिनराय । ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय भवाताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
शालि अखंडित सौरभ-मंडित, शशिसम द्युति दमकाय। ताको पुंज धरों चरननढिग, देहु अखय पदराय।।
मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त जिनराय।। ऊँ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।3।
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सुमन सुमन-सम परिमल-मंडित, गुंजत अलिगन आय। ___ ब्रह्मपुत्र-मद भंजन-कारन, जजों तुम्हारे पाय।। मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त जिनराय, मेरी अरज सुनीजे।
मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त जिनराय।। ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
घेवर बावर फेनी गोंजा, मोदन मोदन लाय। क्षुधावेदनी-रोग हरनकों, भेंट धरों गुणगाय।।
मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त जिनराय।। ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
वाति-कपूर दीप-कंचनमय, उज्ज्वल ज्योति जगाय। तिमिरमोह-नाशक तुमको लखि, धरों निकट उमगाय।।
मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त जिनराय।। ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
दश वर गंध धनंजय के संग, खेवत हौं गुन गाय।
अष्टकर्म ये दुष्ट जरें सो, धूम धूम सु उड़ाय।।
___ मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त जिनराय।। ऊँ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
श्रीफल मातुलिंग शुचि चिरभट, दाडिम आम मंगाय। तासों तुम पदपद्म जजत हों, विघन सघन मिट जाय।।
मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त जिनराय।। ऊँ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
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जल फल सकल मिलाय, मनोहर, मन-वचन-तन हुलसाय। तुमपद पूजों प्रीति लायकै, जय-जयत्रिभुवनराय।।
मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त जिनराय।। ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।9।
पंचकल्याणक नवमी तिथिकारी फागुन धारी, गरभमाहिं थिति देवा जी। तजि आरणथानं कृपानिधानं, करत शची तित सेवा जी।।
रतनन की धारा परम उदारा परी व्योमतें सारा जी। मैं पूजौं ध्यावौं भगति बढ़ावौं, करो मोहि भव पारा जी।।
ऊँ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-नवम्यां गर्भमंगल-प्राप्ताय श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।।
मंगसिर सितपच्छं परिवा स्वच्छं, जनमे तीरथनाथा जी। तब ही चव-भेवा निरजर येवा, आय नये निज माथा जी।।
सुरगिर नहवाये, मंगल गाये, पूजे प्रीति लगाई जी। मैं पूजों ध्यावौं भगति बढ़ावौं, निजनिधि हेतु सहाई जी।। ॐ हीं मार्गशीर्षशुक्ला-प्रतिपदायां जन्मकमंगल-प्राप्ताय श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।
सित मंगसिर मासा तिथि सुखरासा, एकदम के दिन धारा जी। तप आतमज्ञानी आकुलहानी, मौन सहित अविकारा जी।।
सुरमित्र सुदानीके घर आनी, गो-पय पारन कीना जी। तिनको मैं वन्दौं पापनिकंदौं, जो समतारस-भीना जी।। ऊँ ह्रीं माघशीर्षशुक्ला-प्रतिपदायां तपोमंगल-प्राप्ताय श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
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सित कार्तिक गाये दोइज घाये, घातिकरम परचंडा जी । केवल परकाशे भ्रमतम नाशे, सकल भविक सुख मंडा जी ।। गनराज अठासी आनंदभासी, समवसरण वृषदाता जी । हरि पूजन आयो शीश नमायो, हम पूजें जगत्राता जी।। ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्ला-द्वितीयायां ज्ञानमंगल-प्राप्ताय श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।4।
भादव सित सारा आठै धारा, गिरिसमेद निरवाना जी। गुन अष्ट-प्रकारा अनुपम धारा, जय-जय कृपा निधाना जी ।। तित इन्द्र सु आयौ, पूज रचायौ, चिह्न तहाँ करि दीना जी। मैं पूजत हों गुन ध्यान महीसौं, तुमरे रसमें भीना जी।। ऊँ ह्रीं भाद्रपदशुक्ला- अष्टम्यां मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
जयमाला (दोहा)
लच्छन मगर सुश्वेत तन तुंग धनुष शत एक सुरनर-वंदित मुकतपति, नमों तुम्हें शिर टेक। 1 ।
पुहुपदन्त गुनवदन है, सागरतोय समान । क्योंकर-कर अंजुलिनकर, करिये तासु प्रमान।1।
छन्द तामरस
पुष्पदन्त जयवन्त नमस्ते, पुण्य तीर्थंकर सन्त नमस्ते। ज्ञान-ध्यान अमलान नमस्ते, चिद्विलास - सुख - ज्ञान नमस्ते।3। भवभय-भंजन देव नमस्ते, मुनिगणकृत पद- सेव नमस्ते। मिथ्या-निशि दिनइन्द्र नमस्ते, ज्ञानपयोदधि-चन्द्र नमस्ते।4। भवदुःख-तरु निःकन्द नमस्ते, राग-दोष -मद- हनन नमस्ते । विश्वेश्वर गुनभूर नमस्ते, धर्म सुधारस पूर नमस्ते।5।
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केवलब्रह्मप्रकाश नमस्ते, सकल-चराचरभास नमस्ते। विघ्नमहीश्वर विज्जु नमस्ते, जय ऊरधगति-रिज्जु नमस्ते।6।
जय मकराकृतपाद नमस्ते, मकरध्वज-मदवाद नमस्ते। कर्मभर्म-परिहार नमस्ते, जय-जय अधम-उधार नमस्ते।7।
दयाधुरंधर धीर नमस्ते, जय-जय गुन-गम्भीर नमस्ते। मुक्तिरमनि-पति वीर नमस्ते, हर्ता भवभय-पीर नमस्ते।8। व्यय-उत्पति-थितिधार नमस्ते, निज-अधार अविकार नमस्ते।
भव्य-भवोदधिकार नमस्ते, वृन्दावन निस्तार नमस्ते।9।
घत्ता जय-जय जिनदेवं हरिकृतसेवं, परम धरम-धन धारी जी। मैं पूजौं ध्यावौं गुनगन गावों, मेटों विथा हमारी जी।10। ऊँ ही श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा।
छन्द
पुहुपदंत पद सन्त, जजें जो मनवचनकाई। नाचे गावें भगति करें, शुभ-परनति लाई।। सो पावें सुख सर्व, इन्द्र अहिमिंद तनों वर। अनुक्रमतें निरवान, लहें निहचै प्रमोद धर।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।
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श्री शीतलनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन)
छन्द मत्तमातंग शीतलनाथ नमो धरि हाथ, सुमाथ जिन्हों भवगाथ मिटाये। अच्युतते च्युत मात-सुनन्द के, नन्द भये पुर भद्दल आये।। वंश-इक्ष्वाकु कियो जिन भूषित, भव्यनको भव-पार लगाये।
ऐसे कृपानिधि के पदपंकज, थापतु हों हिय हर्ष बढ़ाये।1। ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
अष्टक (छंद वंसततिलका) देवापगा सुवर वारि विशुद्धि लायो, भृगज्ञर हेम भरि भक्ति हियो बढ़ायो।
रागादिदोषमल-मर्दन हेतु येवा। चर्चों पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
श्री खंडसार वर कुंकुम गारि लीनों। कं-संग स्वच्छ घिसि भक्ति हिये धरीनों।।
रागादिदोषमल-मर्दन हेतु येवा। चर्चों पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
मुक्ता-समान सित तंदुल सार राजे। धारंत पुंज कलिकुंज समस्त भाज।।
रागादिदोषमल-मर्दन हेतु येवा। चर्चा पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।3।
श्री केतकी प्रमुख पुष्प अदोष लायो। नौरंग जंगकरि भुंग सुरंग पायो।।
रागादिदोषमल-मर्दन हेतु येवा। चर्चों पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा।। ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।40
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नैवेद्य सार चरु चारु संवारि लायो। जांबूनद-प्रभृति भाजन शीश नायो । रागादिदोषमल-मर्दन हेतु येवा । चर्चों पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
स्नेह-प्रपूरित सुदीपक-जोति राजे । स्नेह-प्रपूरित हिये जजतेऽघ भाजे।। रागादिदोषमल-मर्दन हेतु येवा। चर्चों पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा।। ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 6।
कृष्णागुरु-प्रमुख गंध हुताश माहीं। खेव वा वसुकर्म जरंत जाही।। रागादिदोषमल-मर्दन हेतु येवा । चर्चों पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा।। ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
निम्बाम्र कर्कटि सु दाडिम आदि धारा । सौवर्ण गंध फल-सार सुपक्व प्यारा।। रागादिदोषमल-मर्दन हेतु येवा । चर्चों पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा ।। ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। 8 ।
शुभ श्रीफलादि वसु प्रासुक-द्रव्य साजे । नाचे रचे मचत बज्जत सज्ज बाजे।। रागादिदोषमल-मर्दन हेतु येवा । चर्चों पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | 9 |
पंचकल्याणक
आठें वदी चैत सुगर्भ माँहीं, आये प्रभू मंगलरूप थाहीं। सेवैं शची मातु अनेक-भेवा, चर्चों सदा शीतलनाथ देवा।। ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णा - अष्टम्यां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 1 ।
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श्री माघ की द्वादशि श्याम जायो, भूलोक में मंगल सार आयो। शैलेन्द्र पै इन्द्र फनिन्द जज्जे, मैं ध्यान धारौ भवदुःख भज्जे।।
ऊँ ह्रीं माघकृष्णा-द्वादश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।
श्री माघ की द्वादशि श्याम जानो, वैराग्य पायो भवभाव हानो। ध्यायो चिदानन्द निवार मोहा, चर्चों सदा चर्न निवारि कोहा।।
ॐ ह्रीं माघकृष्णा-द्वादश्यां तपोनमंगल-मंडिताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।3।
चतुर्दशी पौषवदी सुहायो, ताही दिना केवललब्धि पायो। शोभै समोसृत्य बखानि धर्मं, चर्चों सदा शीतल पर्म शम।। ॐ ह्रीं पौषकृष्णा-चतुर्दश्यां केवलज्ञानमंगल-मंडिताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।40
कुवार की आ3 शुद्ध बुद्धा, भये महामोक्ष-सरूप शुद्धा। सम्मेद” शीतलनाथ स्वामी, गुनाकरं तासु पदं नमामी।। ॐ ह्रीं आश्विनशुक्ला-अष्टम्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।5।
जयमाला
छंद (लोलतरंग) आप अनंत-गुनाकर राजे, वस्तुविकाशन भानु समाजे। मैं यह जानि गही शरना है, मोहमहारिपुको हरना है।1।
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दोहा
हेम-वरन तन तुंग धनु, नव्वै अति अभिराम। सुरतरु-अंक निहारि पद, पुनि-पुनि करों प्रणाम।2।
छन्द तोटक जय शीतलनाथ जिनन्दवरं, भवदाह-दवानल मेघझरं। दुख-भूभृत-भंजन वज्र समं, भवसागर-नागर पोत-परं।3। कुह-मान-मयागद-लोभ हरं, अरि विघ्नगयंद मृगिंद वरं। वृष-वारिदवृष्टन सृष्टिहि तू, परदृष्टि विनाशन सुष्टु पितू।4।
समवसृत-संजुत राजत हो, उपमा अभिराम विराजतु हो। वह बारह-भेद सभाथित को, तित धर्मबखानि कियो हितको।5।
पहले महि श्रीगणराज रजें, दुतिये महिं कल्पसुरी जु सज। त्रितिये गणनी गुन भूरि धरै, चवथे तिय-ज्योतिष जोति भरें।6।
तिय-विंतरनी पनमें गनिये, छहमें भुवनेसुर-तिय भनिये। भुवनेश दशों थित सत्तम हैं, वसुमें वसु-विंतर उत्तम हैं।7। नव में नभ-जोतिष पंच भरे, दशमें दिवि-देव समस्त खरे। नरवन्द इकादश में निवसें, अरु बारह में पशु सर्व लसें।8। तजि वैर, प्रमोद धरें सब ही, समता-रस मग्न लसें तब ही। धुनि दिव्य सुनें तजि मोहमलं, गनराज असी धरि ज्ञानबल।9। सबके हित तत्त्व बखान करें, करुना-मन-रंजित शर्म भरें। वरने षद्रव्य तनें जितने वर भेद विराजतु हैं तितने।10।
पुनि ध्यान उभै शिवहेतु मना, इक धर्म दुती सुकलं अधुना। तित धर्म सुध्यान तणों गुनियो, दशभेद लिखे भ्रम को हनियो।11।
पहलो अरि नाश अपाय सही, दुतियो जिन बैन उपाय गही। त्रिति जीवविषं निजध्यावन है, चवथो सु अजीव रमावन है।12।
पनमों सु उदै-बलटारन है, छहमों अरि-राग-निवारन है। भव-त्यागन-चिंतन सप्तम है, वसुमों जितलोभ न आतम है।13।
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नवमों जिनकी धुनि सीस धरे, दशमों जिनभाषित हेत करे। इमि धर्म तणों दश भेद भन्यो, पुनि शुक्लतणो चदु येम गन्यो।14।
सुपृथक्त-वितर्क-विचार सही, सुइकत्व-वितर्क-विचार गही। पुनि सूक्ष्मक्रिया-प्रतिपात कही, विपरीत-क्रिया-निरवृत्त लही।15। इन आदिक सर्व प्रकाश कियो, भवि-जीवन को शिव-स्वर्ग दियो। पुनि मोक्षविहार कियो जिनजी, सुखसागर मग्न चिरं गुनजी।16।
अब मैं शरना पकरी तुमरी, यसुधि लेहु दयानिधि जी हमरी। भव-व्याधि निवार करो अब ही, मति ढील करो सुख द्यो सब ही।17।
(छन्द घत्तानन्द) शीतल जिन ध्याऊँ भगति बढ़ाऊँ, ज्यों रतनत्रयनिधि पाऊँ। भवदंद नशाऊँ शिवथल जाऊँ, फेर न भव-वन में आऊँ।।18।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय महायँ निर्वपामीति स्वाहा।
छन्द मालिनी दिढरथसुत श्रीमान् पंचकल्याणकधारी, तिनपद-जुगपद्मं, जो जजै भक्तिधारी। सहजसुख धनधान्य, दीर्घ सौभाग्य पावे, अनुक्रम अरि दाहै, मोक्ष को सो सिधावै।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।
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श्री श्रेयांसनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन)
छन्द रूपमाला तथा गीता
विमल-नृप विमला-सुअन, श्रेयांसनाथ जिनन्द सिंहपुर जन्मे सकल हरि, पूजि धरि आनन्द ।। भव-बंध ध्वंसनि-हेत लखि मैं शरन आयो येव।
थापौं चरनजुग उरकमल में, जजन - कारन देव
ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम् )
ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम् ) ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
छन्द गीता तथा हरिगीता
कलधौत वरन उतंग हिमगिरि पद्म-द्रहतैं आवई । सुरसरित प्रासुक-उदकसों भरि भृंग धार चढ़ावई ।। श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवनवन्द आनन्दकन्द है। दुखदंद-फंद-निकंद पूरनचन्द जोतिअमंद हैं।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 1 ।
गोशीर वर करपूर कुंकुम-नीर - संग घसों सही। भवताप-भंजन-हेत भवदधि सेत चरन जजों सही || श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवनवन्द आनन्दकन्द है।। दुखदंद-फंद-निकंद पूरनचन्द जोतिअमंद हैं।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 2।
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सितशालि शशिदुति शुक्ति सुन्दर मुक्तकी उनहार हैं। भरि धार पुंज धरंत पदतर अखयपद करतार हैं।। श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवनवन्द आनन्दकन्द है।।
दुखदंद-फंद-निकंद पूरनचन्द जोतिअमंद हैं।। ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।3।
सद सुमन सुमन-समान पावन, मलयतें मधु झंकरें। पद-कमलतर धरतें तुरित सो मदनको मद खंकरें।। श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवनवन्द आनन्दकन्द है।।
दुखदंद-फंद-निकंद पूरनचन्द जोतिअमंद हैं।। ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4
यह परम मोदक आदि सरस सँवारि सुन्दर चरु लियो। तुव वेदनी-मदहरन लखि, चरचों चरन शुचिकर हियो।। श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवनवन्द आनन्दकन्द है।।
दुखदंद-फंद-निकंद पूरनचन्द जोतिअमंद हैं।। ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।51
संशय-विमोह-विभरम-तम-भंजन दिनन्द समान हो। तातें चरनढिग दीप जोऊँ देहु अविचल ज्ञान हो।। श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवनवन्द आनन्दकन्द है।।
दुखदंद-फंद-निकंद पूरनचन्द जोतिअमंद हैं।। ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
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वर अगर तगर कपूर चूर सुगन्ध भूर बनाइया। दहि अमरजिह्वविर्षे चरनढिग करमभरम जराइया।। श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवनवन्द आनन्दकन्द है।।
दुखदंद-फंद-निकंद पूरनचन्द जोतिअमंद हैं।। ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
सुरलोक अरु नरलोक के फल पक्व मधुर सुहावने। ले भगति सहित जजौं चरन शिव परम-पावन पावने।। श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवनवन्द आनन्दकन्द है।।
दुखदंद-फंद-निकंद पूरनचन्द जोतिअमंद हैं।। ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
जल मलय तंदुल सुमन चरु अरु दीप धूप फलावली। करि अरघ चरचों चरनजुग प्रभु मोहि तार उतावली।। श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवनवन्द आनन्दकन्द है।।
दुखदंद-फंद-निकंद पूरनचन्द जोतिअमंद हैं।। ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक (छन्द आर्या) पुष्पोत्तर तजि आये विमलाउर जेठकृष्ण छटटै को। सुरनर मंगल गाये पूजों मैं नासि कर्म का को।।
ऊँ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णा-षष्ठ्या गर्भमंगल-मंडिताय श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।।
जन्मे फागुनकारी, एकादशि तीन-ग्यानदृगधारी। इक्ष्वाकु-वंशतारी, मैं पूजों घोर-विघ्न-दुख-टारी।। ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-एकादश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।
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भवतनभोग असारा, लख त्याग्यो धीर शुद्ध तप धारा।
फागुनवदि इग्यारा, मैं पूजों पाद अष्ट-परकारा।। ऊँ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-एकादश्यां निःक्रमणमहोत्सव-मंडिताय
श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
केवलज्ञान सु जानन, माघबदी पूर्णतित्थको देवा। चतुरानन भवभानन, वंदौं ध्यावौं करों सुपद सेवा।। ऊँ ह्रीं माघकृष्णा-अमावस्यायां ज्ञानमंगल-मंडिताय श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।4।
गिरि समेदतें पायो, शिवथल तिथि पूर्णमासि सावन को। कुलिशायुध गुनगायो, मैं पूजों आप निकट आवन को।। ऊँ ह्रीं श्रावणशुक्ला-पूर्णिमायां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
छन्द लोल तरंग शोभित तुंग शरीर सु जानों, चाप असी शुभलक्षन मानो। कंचनवर्ण अनूपम सोहै, देखत रूप सुरासुर मोहै।1।
छन्द पद्धड़ी जय-जय श्रेयांस जिन गुणगरिष्ठ, तुम पदजुग दायक इष्टमिष्टा जय शिष्ट शिरोमणि जगतपाल, जय भवि-सरोजगन प्रात काल।2।
जय पंचमहाव्रत-गजसवार, लै त्यागभाव दलबल सु लार। जय धीरजको दलपति बनाय, सत्ता छितिमहँ रनको मचाय।3। धरि रतन तीन तिहुँशक्ति हाथ, दश-धरम-कवच तपटोप माथ। जय शुकलध्यान कर खड्ग धार, ललकारे आठों अरि प्रचार।4।
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तामें सबको पति मोह-चण्ड, ताकों ततछिन करि सहस - खण्ड । फिर ज्ञान-दरस- प्रत्यूह हान, निजगुन- गढ़ लीनों अचल-थान। 5। शुचि ज्ञान दरस सुखवीर्य सार, हुई समवशरण रचना अपार तित भाषे तत्त्व अनेक धार, जाकों सुनि भव्य हिये विचार।6।
निजरूप लह्यो आनन्दकार, भ्रम दूर करनको अति उदार। पुनि नय-प्रमान - निच्छेप सार, दरसायो करि संशय - प्रहार । 7। तामें प्रमान जुगभेद एव, परतच्छ-परोछ रजै स्वमेव।
प्रच्छ के भेद दोय, पहिलो है संविवहार सोय । 8 । ताके जुग-भेद विराजमान, मति-श्रुति सोहें सुन्दर महान। है परमारथ दुतियो प्रतच्छ, हैं भेद-जुगम ता माँहिं दच्छ।9। इक एकदेश इक सर्वदेश, इकदेश उभैविधिसहित वेश । वर अवधि सुमनपरजय विचार, है सकलदेश केवल अपार | 10 चर-अचर लखत जुगपत प्रतच्छ, निरद्वन्द रहित - परपंच पच्छ। पुनि है परोच्छ महँ पंच भेद, समिरति अरु प्रतिभिज्ञान वेद। 11। पुनि तरक और अनुमान मान, आगमजुत पन अब नय बखान। नैगम संग्रह व्यौहार गूढ़, ऋजुसूत्र शब्द अरु समभिरूढ़ ।12। पुनि एवंभूत सु सप्त एम, नय कह जिनेसुर गुन जु ते । पुनि दरव क्षेत्र अर काल भव, निच्छेप चार विधि इमि जनाव। 13 इनको समस्त भाष्यौ विशेष, जा समुझत भ्रम नहिं रहत लेश। निज ज्ञानहेत ये मूलमन्त्र, तुम भाषे श्री जिनवर सु तन्त्र। 14। इत्यादि तत्त्व उपदेश देय, हनि शेष-करम निरवान लेय। गिरवान जजत वसु दरब ईस, वृन्दावन नितप्रति नमत शीश। 15।
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छन्द
श्रेयांस महेशा सुगुन जिनेशा, वज्रधरेशा ध्यावतु है।
हम निशदिन वन्दैं पापनिकंदैं, ज्यौं सहजानंद पावतु हैं। 16
ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय जयमाला - पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। सोरठा
जो पूजें मना श्रेयनाथ पदपद्म को। पावें इष्ट अघाय, अनुक्रमसौं शिवतिय वरै।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री वासुपूज्य जिन-पूजा (रचयिता - वृदावन)
(छन्द रूपकवित्त) श्रीमत वासुपूज्य जिनवर-पद, पूजत-हेत हिये उमगाय। थापों मनवचतन शुचि करके, जिनकी पाटलदेव्या माय।। महिष-चिह्न पद लसे मनोहर, लाल वरन तन समतादाय।
सो करुनानिधि कृपादृष्टिकरि, तिष्ठहु सुपरितिष्ठ इह आय। ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
अष्टक (छन्द जोगीरासा आंचलीवंध) गंगाजल भरि कनककुंभ में, प्रासुक गंध मिलाई। करम-कलंक विनाशन कारन, धार देत हरषाई।। वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद, वासव सेवत आई।
बालब्रह्मचारी लखि जिनको शिवतिय सनमुख धाई।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
कृष्णागरु मलयागिर चंदन, केशरसंग घिसाई। भवआताप विनाशन-कारन, पूजों पद चितलाई।। वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद, वासव सेवत आई।
बालब्रह्मचारी लखि जिनको शिवतिय सनमुख धाई।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
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देवजीर सुखदास शुद्धवर सुवरन थार भराई । पुंज धरत तुम चरनन आगे, तुरित अखय-पद पाई।।
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद, वासव सेवत आई। बालब्रह्मचारी लखि जिनको शिवतिय सनमुख धाई ।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। 3।
पारिजात संतान कल्पतरु-जनित सुमन बहु लाई। मीनकेतु-मद भंजनकारन, तुम पदपद्म चढ़ाई।।
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज - पद, वासव सेवत आई। बालब्रह्मचारी लखि जिनको शिवतिय सनमुख धाई।।
ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
नव्यगव्य आदिक रसपूरित, नेवज तुरत उपाई। क्षुधारोग निरवारन - कारन, तुम्हें जजों शिरनाई।।
वासुपूज्य वसुपूज- तनुज - पद, वासव सेवत आई। बालब्रह्मचारी लखि जिनको शिवतिय सनमुख धाई ||
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
दीपकजोत उदोत होत वर, दशदिश में छवि छाई । तिमिरमोहनाशक तुमको लखि, जजो चरन हरषाई || वासुपूज्य वसुपूज- तनुज - पद, वासव सेवत आई। बालब्रह्मचारी लखि जिनको शिवतिय सनमुख धाई ।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय मोहान्धकार- विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
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दशविध गंधमनोहर लेकर, वातहोत्र में ढाई । अष्टकर ये दुष्ट जरतु हैं, धूप सुधूम उड़ाई
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज - पद, वासव सेवत आई। बालब्रह्मचारी लखि जिनको शिवतिय सनमुख धाई || ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। 7।
सुरस सुपक्क सुपावन फल लै कंचन - थार भराई । मोक्ष-महाफलदायक लखि प्रभु, भेंट धरों गुनगाई || वासुपूज्य वसुपूज-तनुज - पद, वासव सेवत आई। बालब्रह्मचारी लखि जिनको शिवतिय सनमुख धाई ।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
जलफल दरब मिलाय गाय गुन, आठों अंग नमाई । शिवपदराज हेत हे श्रीपति ! निकट धरों यह लाई ||
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज - पद, वासव सेवत आई। बालब्रह्मचारी लखि जिनको शिवतिय सनमुख धाई।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद - प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक (छंद पाईता)
कलि छट्ट असाढ़ सुहायौ, गरभागम मंगल पायौ।
दशमें दिवितें इत आये, शतइन्द्र जजे सिर नाये।
ॐ ह्रीं आषाढ़ कृष्णा-षष्ठ्यां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 1।
कलि चौदस फागुन जानो, जनमे जगदीश महानो। हरि मेरु जजे तब जाई, हम पूजत हैं चितलाई। ऊँ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा - चतुर्दश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 2।
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तिथि चौदस फागुन श्यामा, धरियो तप श्री अभिरामा। नृप सुन्दर के पय पायो, हम पूजत अति सुख थायो। ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-चतुर्दश्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।3।
सुदि माघे दोइज सोहे, लहि केवल आतम जो है। अनअंत गुनाकर स्वामी, नित वंदों त्रिभुवन नामी। ऊँ ह्रीं माघशुक्ल-द्वितीयायां ज्ञानमंगल-मंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।4।
सित भदव चौदस लीनों, निरवान सुथान प्रवीनों। पुर चंपाथानक सेती, हम पूजत निजहित हेती। ऊँ ह्रीं भाद्रशुक्ल-चतुर्दश्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।5।
जयमाला (दोहा)
चंपापुर में पंच वर, कल्याणक तुम पाय।
सत्तर धनु तन शोभनों, जै जै जै जिनराय।1। महासुखसागर आगर-ज्ञान, अनंत-सखामत मुक्त महान। महाबलमंडित खंडितकाम, रमाशिवसंग सदा बिसराम।2।
सुरिंद फनिंद खगिंद नरिंद, मुनिंद जजें नित पादारविंद। प्रभु तुम अंतरभाव विराग, सुबालहितें व्रतशीलसों राग।3। कियो नहिं राज उदास सरूप, सुभावन भवत आतमरूप। अनित्य-शरीर प्रपंच-समस्त, चिदातम नित्य सुखाश्रित वस्त।4
अशर्म नहीं कोउ शर्न सहाय, जहां जिय भोगत कर्मविपाय। निजातम को परमेसुर शन, नहीं इनके बिन आपद हन।5।
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जगत्त जथा जल-बुदबुद येव, सदा जिय एक लहै फलमेव। अनेक प्रकार धरी यह देह, भ्रमें भवकानन आन न नेह।6। अपावन सात कुधात भरीय, चिदातम शुद्ध सुभाव धरीय। धरे इनसों जब नेह तबेव, सुआवत कर्म तबै वसुभेव।7। जबै तन-भोग-जगत्त-उदास, धरें तब संवर निर्जर आस। करे जब कर्मकलंक विनाश, लहे तब मोक्ष महासुखराशा8। तथा यह लोक नराकृत नित्त, विलोकियते षट्-द्रव्यविचित्त। सु आतमजानन बोधिविहीन, धरे किन तत्त्व प्रतीत प्रवीन।9।
जिनागमज्ञान रु संजम भाव, सबै निजज्ञान विना विरसाव। सुदुर्लभ द्रव्य सुक्षेत्र सुकाल, सुभाव सबे जिहतें शिवहाल।10। लयो सब जोग सुपुन्य-वशाय, कहो किमि दीजिय ताहि गँवाय। विचारत यों लौकान्तिक आय, नमें पदपंकज पुष्प चढ़ाय।11। कह्यो प्रभु धन्य कियो सुविचार, प्रबोधि सु येम कियो जु विहार। तबै सौधर्मतनों हरि आय, रच्यो शिविका चढि आय जिनाय।12। ____धरे तप पाय सु केवलबोध, दियो उपदेश सुभव्य संबोध। लियो फिर मोक्ष महासुख-राश, नमै नित भक्त सोई सुखआश।13।
धत्तानंद नित वासव-वंदत, पापनिकंदत, वासुपूज्य व्रत ब्रह्मपती। भवसंकल-खंडित, आनंद-मंडित, जै जै जै जैवंत जती।14। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
सोरठा छंद वासुपूज्य पद सार, जजों दरबविधि भावसों। सो पावै सुखसार, भुक्ति मुक्तको जो परम।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री विमलनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन)
छंद सहस्रार-दिवि त्यागि, नगर-कम्पिला जनम लिय।
कृतधर्मानृप-नन्द, मातु-जयसेना धर्मप्रिय।। तीन लोक वर-नन्द, विमलजिन विमल विमलकर।
थापों चरनसरोज, जनजनके हेतु भावधर।। ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथ जिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
अष्टक (सोरठा) कंचनझारी धारि, पद्मद्रह को नीर ले।
तृषारोग निरवारि, विमल विमलगुन पूजिये।। ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
मलयागर करपूर देववल्लभा संग घसि।
हरि मिथ्यातम-भूर, विमल विमलगुन जजतु हों।। ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
वासमती सुखदास, स्वेत निशापतिको हँसै।
पूरे वांछित आस, विमल विमलगुन जजत ही।। ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।।
पारिजात मंदार, संतानक सुरतरु-जनित।
जजों सुमन भरि थार, विमल विमल गुन मदनहर।। ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
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नव्यगव्य रसपूर, सुवरण-थाल भरायके।
छुधावेदनी चूर, जजों विमलपद विमलगुन।। ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
मणिक-दीप अखण्ड, गो छाई वर गो दशों।
हरो मोहतम-चंड, विमल विमलमति के धनी।। ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
अगुरु तगर घनसार, देवदारु कर चूर वर।
खेवों वसु अरि जार, विमल विमल-पदपद्म ढिग।। ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।71
श्रीफल सेव अनार, मधुर रसीले पावने।
जजों विमलपद सार, विघ्न हरें शिवफलकरें। ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
आठों दरब संवार, मन-सुखदायक पावने।
जजों अरघ भरथार, विमल विमल शिवतिय रमण।। ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।9।
पंचकल्याणक
(छन्द द्रुतविलम्बित तथा सुन्दरी) गरभ जेठ बदी दशमी भनों, परम-पावन सो दिन शोभनों।
करत सेव सची जननी-तणी, हम जो पदपद्म शिरोमणी।। ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णा-दशम्यां गर्भमंगल-प्राप्ताय श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।।
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शुकलमाघ तुरी तिथि जानिये, जनम-मंगल तादिन मानिये।
हरि तबै गिरिराज विर्षे जजे, हम समर्चत आनन्दको सजे।। ऊँ ह्रीं माघशुक्ला-चतु,यां जन्ममंगल-प्राप्ताय श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।
तप धरे सितमाघ तुरी भली, निज सुधातम ध्यावत हैं रली।
हरि फनेश नरेश जजें तहाँ, हम जजें नित आनन्दसों इहाँ।। ऊँ ह्रीं माघशुक्ला-चतु,यां तपोमंगल-प्राप्ताय श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।31
विमल माघछठी हनि घातिया, विमलबोध लयो सब भासिया।
विमल अर्घ चढ़ज्ञय जजों अबै, विमल-आनन्द देह, हमें सबै।। ऊँ ह्रीं माघशुक्ला-षष्ठ्यां केवलज्ञान-प्राप्ताय श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।4।
भ्रमरसाढ़छठी अति पावनों, विमल सिद्ध भये मन भावनों।
गिरसमेद हरी तित पूजिया, हम जजै इत हर्ष धरै हिया।। ऊँ ह्रीं आषाढकृष्णा-षष्ठयां मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।51
जयमाला दोहा गहन चहत उडुगन गगन, छिति-तिथि के छहँ जेम। तिमि गुन-वरनन वरनन, माँहि होय तव केम।।1।।
साठ धनुष तन तुंग है, हेम वरन अभिराम।। वर वराह पद-अंक लखि, पुनि पुनि करों प्रनाम।।2।।
छन्द-तोटक जय केवलब्रह्म अनन्तगुनी, तुम ध्यावत शेष महेश मुनी। परमातम पूरन पाप हनी, चित-चिंतत-दायक इष्ट धनी।।3।।
भव-आतप-ध्वंसन इन्दु-करं, वर सार रसायन शर्मभरं। सब जन्म-जरा-मृतु-दाहहरं, शरनागत-पालन नाथ वरं।।4।। नित सन्त तुम्हें इन नामनि-तें, चित-चिन्तत हैं गुनगामनि-तैं।
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अमलं अचलं अटलं अतुलं, अरलं अछलं अथलं अकुल।।5।।
अजरं अमरं अहरं अडरं, अपरं अभरं अशरं अनरं। अमलीन अछीन अरीन हने, अमतं अगतं अरतं अघने।।6।। अछुधा अतृषा अभयातम हो, अमदा अगदा अवदातम हो। अविरुद्ध अक्रुद्ध अमानधुना, अतलं असलं अनअन्त-गुना।।7।।
अरसं सरसं अकलं सकलं, अवचं सवचं अमचं सबलं। इन आदि अनेक प्रकार सही, तुमको जिन सन्त जपें नित ही।8।
अब मैं तुमरी शरना पकरी, दुख दूर करो प्रभुजी हमरी। हम कष्ट सहे भवकानन में, कुनिगोद तथा थल-आनन मे।।9।।
तिति जामन मर्न सहे जितने, कहि केम सकें तुमसों तितने। सुमुहूरत अन्तर माहिं धरे, छह त्रै त्रय छः छहकाय खरे।।10।
छिति वह्नि वयारिक साधरनं, लघु थूल विभेदनि सों भरनं। परतेक वनस्पति ग्यार भये, छह हजार दुवादश भेद लये।।11।
सब द्वै त्रय भू षट छः सु भया, इक इन्द्रियकी परजाय लया।। जुग इन्द्रिय काय असी गहियो, तिय इन्द्रिय साठनिमें रहियो।।12।।
चतुरिंद्रिय चालिस देह धरा, पनइन्द्रियके चवबीस वरा। सब ये तन धार तहाँ सहियों, दुखघोर चितारित जात हियो।।13।। __ अब मो अरदास हिये धरिये, सुखदंद सबै अब ही हरिये।। मनवांछित कारज सिद्ध करो, सुखसार सबै घर रिद्ध भरो।।14।।
घत्ता जय विमलजिनेशा, नुत-नाकेशा, नागेशा नरईश सदा। भवताप-अशेषा, हरन निशेशा, दाता चिन्तित शर्म सदा।।15।। ॐ हीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा श्रीमत विमल-जिनेशपद, जो पूजें मनलाय। पूजे वांछित आश तसु, मैं पूजौं गुनगाय।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।
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श्री अनन्तनाथ जिन-पूजा ( रचयिता - श्री वृन्दावन)
छन्द - कवत्ति पुष्पोत्तर-तजि नगर- अजुध्या जनम लिया सूर्या उर आय,
सिंघसेन नृपके नन्दन, आनन्द अशेष भेर जगराय।
गुन- अनंत भगवंत धरे, भवदंद हरे तुम हे जिनराय, थापतु हों त्रय बार उचारिके, कृपासिन्धु तिष्ठहु इत आय।।
ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्) ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम् ) ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
अष्टक (छन्द गीता तथा हरिगीता)
शुचि नीर- निरमल गंगको ले, कनक-भृंग भराइया।
मल - करम धोवन - हेत, मन-वच - काय धार ढराइया ।।
जगपूज परम-पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनों ।
शिवकंतवंत मंहत ध्यावौं, भ्रतवन्त नशावनो ।।
ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु- विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 1 ।
हरिचन्द कदलीनंद कुंकुम, दंतताप - निकंद सब पाप-रुज-संताप-भंजन, आपको लखि चंद है ।।
जगपूज परम-पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनों ।
शिवकंतवंत मंहत ध्यावौं, भ्रतवन्त नशावनो ।।
ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्राय भवाताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 2।
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कनशाल दुति उजियाल हीर, हिमाल गुलकनि तें घनी। तसु पुंज तुम पदतर धरत, पद लहत स्वच्छ सुहावनी।।
जगपूज परम-पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनों।
शिवकंतवंत मंहत ध्यावौं, भ्रतवन्त नशावनो।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।3।
पुष्कर अमरतरु-जनित वर, अथवा अवर कर लाइया। तुम चरन-पुष्करतर धरत, सरशूर सकल नशाइया।। जगपूज परम-पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनों।
शिवकंतवंत मंहत ध्यावौं, भ्रतवन्त नशावनो।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
पकवान नैना घ्रान रसना, को प्रमोद सुदाय हैं। सो ल्याय चरन-चढ़ाय रोग-छुधाय नाश कराय है।। जगपूज परम-पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनों।
शिवकंतवंत मंहत ध्यावौं, भ्रतवन्त नशावनो।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
तममोह भानन जानि आनन्द, आनि सरन गही अबै। वर दीप धारों बारि तुमढिग, स्व-पर ज्ञान जु द्यो सबै।। जगपूज परम-पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनों।
शिवकंतवंत मंहत ध्यावौं, भ्रतवन्त नशावनो।। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
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यह गंध चूरि दशांग सुन्दर, धूर्मध्वजमें खेयहों। वसुकर्म-भर्म जराय तुम ढिग, निज-सुधातम वेयहों।। जगपूज परम-पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनों।
शिवकंतवंत मंहत ध्यावौं, भ्रंतवन्त नशावनो।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।71
रसथक्व पक्व सुभक्व चक्व, सुहावने मृदु पावने। फलसार-वृन्द अमंद ऐसो, ल्याय पूज रचावने।। जगपूज परम-पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनों।
शिवकंतवंत मंहत ध्यावौं, भ्रतवन्त नशावनो।। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
शुचि नीर चन्दन शालिशंदन, सुमन चरु दीवा धरों। अरु धूप फल जुत अरघ करि, कर-जोर-जुग विनति करों।।
जगपूज परम-पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनों।
शिवकंतवंत मंहत ध्यावौं, भ्रतवन्त नशावनो।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक (छंद सुन्दरी तथा द्रुतविलंबित)
असित कार्तिक एकम भावनो, गरभको दिन सो गिन पावनो। किय सची तित चर्चन चावसों, हम जजें इत आनंद भावसों।।
ऊँ ह्रीं कार्तिककृष्णा-प्रतिपदायां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।।
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जनम जेठवदी तिथि द्वादशी, सकल मंगल लोकविषै लशी। हरि जजे गिरिराज समाजतैं, हम जजैं इत आतम काजतैं ।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णा- द्वादश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 21
भव शरीर विनस्वर भाइयो, असित जेठ दुवादशि गाइयो । सकल इंद्र जजैं तित आइकैं, हम जजैं इत मंगल गाइदैं ||
ऊँ ह्रीं ज्येष्ठ कृष्णा-द्वादश्यां तपोमंगल-मंडिताय श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 3।
असित चैत अमावसको सही, परम केवलज्ञान जग्यो कही । ही समोसृत धर्म धुरंधरो, हम समर्चत विघ्न सबै हरो ।। ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-अमावस्यायां ज्ञानमंगल-मंडिताय श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 4।
असित चैत अमावस गाइयौ, अघत घाति हने शिव पाइयो । गिरि समेद जजें हरि आयकैं, हम जजें पद प्रीति लागइदैं | |
ॐ ह्रीं चैत्र कृष्णा - अमावस्यायां मोक्षमंगल-मंडिताय श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 1 ।
जयमाला (दोहा)
गुण वरन म जितम, खं विहाय कर-मान तथा मेदिनी पदनि-करि, कीनों चहत प्रमान ॥ 1 ॥ जय अनन्त-रवि भव्यमन - जलज - वृन्द विहँसाय । सुमतिकोक-तिय थोक-सुख, वृद्ध कियो जिनराय ॥2॥
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(छंद नय मालिनी, चंडी तथा तामरस) अनन्त गुनवंत नमस्ते, शुद्ध ध्येय नित सन्त नमस्ते। लोकालोक विलोक नमस्ते, चिन्मूरत गुनथोक नमस्ते ॥3॥
रत्नत्रयधार धीर नमस्ते, करमशत्रुकरि कीर नमस्ते। चार अनंत महन्त नमस्ते, जय जय शिवतिय-कंत नमस्ते ॥4॥ पंचाचार-विचार नमस्ते, पंचकरण - मदहार नमस्ते । पंच-पराव्रत-चूर नमस्ते, पंचमगति सुखपूर नमस्ते ॥5॥ पंचलब्धि- धरनेश नमस्ते, पंचभाव - सिद्धेश नमस्ते । छहों दरब गुनजान नमस्ते, छहों काल पहिचान नमस्ते ॥6॥ छहों काय रच्छेश नमस्ते, छह सम्यक उपदेश नमस्ते । सप्तव्यसन-वन-वन्हि नमस्ते, जय केवल अपरह्नि नमस्ते॥7॥
सप्ततत्त्व गुन भनन नमस्ते, सप्त शुभ्रगति - हनन नमस्ते। सप्तभंगे के ईश नमस्ते, सातों नय कथनीश नमस्ते ॥ 8॥ अष्टकरम-मल-दल्ल नमस्ते, अष्टजोग निरशल्ल नमस्ते । अष्टम-धराधिराज नमस्ते, अष्टगुननि-सिरताज नमस्ते॥9॥ जय नवकेवल प्राप्तनमस्ते, नव- पदार्थथिति - आप्त नमस्ते । दशों धरम-धरतार नमस्ते, दशों बंध- परिहार नमस्ते ॥ 10 ॥ विघ्नमहीधर-विज्जु नमस्ते, जय ऊरधगति-रिज्जु नमस्ते। तन कनकंदुति पूर नमस्ते, इक्ष्वाकुवंश - कंजसूर नमस्ते ॥ 11 ॥ धनु पचास तन उच्च नमस्ते, कृपासिंधु गुन- शुच्च नमस्ते। सेही-अंक निशंक नमस्ते, चितचकोर - मृगअंक नमस्ते।।12।
राग-दोष-मद-टार नमस्ते, निजविचार दुखहार नमस्ते। सुर-सुरेश-गन-वृन्द नमस्ते, वृन्दकरो सुखकंद नमस्ते ।। 13॥
छंद घत्तानंद
जय-जय जिनदेवं, सुरकृतसेवं, नित कृतचित हुलासधरं। आपद - उद्धारं, समतागारं वीतराग - विज्ञान भरं ॥ 14 ॥
ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय जयमाला-महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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(छंद महावलिप्तकपोल तथा रोड़क)
जो जन मन-वच-काय लाय, जिन जजे नेह-धर, वा अनुमोदन करे करावे पढ़े पाठ वर ताके नित नव होय, सुमंगल आनन्द दाई । अनुक्रम तें निरवान, लहे सामग्री पाई।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री धर्मनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन)
(माधवी तथा करीट छन्द) तजिके सरवारथ-सिद्ध विमान, सुभान के आनि आनन्द बढ़ाये।
जगमात सुव्रति के नन्दन होय, भवोदधि-डूबत जंतु कढ़ाये।। जिनको गुन-नामहिं माहिं प्रकाश है, दासनिको शिवस्वर्ग मँढाये।
तिनके पद पूजन-हेत त्रिबार, सुथापतु हों यह फूल चढ़ाये।। ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
अष्टक मुनि-मन-सम शुचि नीर अति, मलय मेलि भरि झारी। जनम-जरा-मृत-ताप-हरन को, चरचों चरन तुम्हारी।। परमधरम-शम-रमन धरमजिन, अशरन-शरन निहारी।
पूजौं पाय गाय गुन-सुन्दर नाचें दे दे तारी॥ ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
केशर चन्दन कदली-नन्दन, दोह निकन्दन लीनो। जल-संग घस लसि शशि-समकर, भव-आताप हरीनो।। परमधरम-शम-रमन धरमजिन, अशरन-शरन निहारी।
पूजौं पाय गाय गुन-सुन्दर नाचें दे दे तारी।। ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
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जलज जीर सुखदास हीर हिम, नीर किरन-सम लायो।
पुँज धरत आनन्द भरत भव-दंद-हरत हरषायो।। परमधरम-शम-रमन धरमजिन, अशरन-शरन निहारी।
पूजौं पाय गाय गुन-सुन्दर नाचें दे दे तारी।। ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।31
सुमन सुमन-सम सुमणि-थाल भर, सुमनवृन्द विहसाई।
सुमन्मथ-मद-मंथनके कारन, चरचों चरन चढ़ाई।। परमधरम-शम-रमन धरमजिन, अशरन-शरन निहारी।
पूजौं पाय गाय गुन-सुन्दर नाचें दे दे तारी।। ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
घेवर बावर अर्द्ध-चन्द्र-सम, छिद्र-सहस्र विराजै।
सुरस मधुर तासों पद पूजत, रोग असाता भाज।। परमधरम-शम-रमन धरमजिन, अशरन-शरन निहारी।
पूजौं पाय गाय गुन-सुन्दर नाचें दे दे तारी।। ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
सुन्दर नेह-सहित वर-दीपक, तिमिर-हरन धरि आगे। नेह-सहित गाऊँ गुन श्रीधर, ज्यों सुबोध उर जागे।। परमधरम-शम-रमन धरमजिन, अशरन-शरन निहारी।
पूजौं पाय गाय गुन-सुन्दर नाचें दे दे तारी।। ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
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अगर तगर कृष्णागर तव दिव, हरिचन्दन करपूरं। चूर खेय जलजवन मांहि जिमि, करम जरें वसु कूर।। परमधरम-शम-रमन धरमजिन, अशरन-शरन निहारी।
पूजौं पाय गाय गुन-सुन्दर नाचें दे दे तारी।। ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
आम्र कम्रक अनार सारफल-भार मिष्ट सुखदाई। सो ले तुम-ढिग धरहुँ कृपानिधि, देहु मोच्छ-ठकुराई।। परमधरम-शम-रमन धरमजिन, अशरन-शरन निहारी।
पूजौं पाय गाय गुन-सुन्दर नाचें दे दे तारी।। ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
आठों दरब साज शुचि चितहर, हरषि-हरषि गुनगाई। बाजत दृम दृम दृम मृदंग गत, नाचत ता थेई थाई।। परमधरम-शम-रमन धरमजिन, अशरन-शरन निहारी।
पूजौं पाय गाय गुन-सुन्दर नाचें दे दे तारी।। ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।9।
पंचकल्याणक (राग-टप्पा) पूजों हो अबार, धरम जिनेसुर पूजो। पूजों हो।टेक।
आठ सित बैशाखकी हो, गरभ-दिवस अधिकार। जगजन-वांछित पूजों, पूजों हो अबार। धरम जिनेसुर पूजो। पूजों हो। ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्ला-अष्टम्यां गर्भमंगल-प्राप्ताय श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।।
शुकल माघ तेरसि लयो हो, धरम धरम-अवतार।
सुरपति सुरगिर पूज्यो, पूजों हो अबार।। धरम जिनेसुर पूजो। पूजों हो। ऊँ ह्रीं माघशुक्ला-त्रयोदश्यां जन्ममंगल-प्राप्ताय श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।
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माघशुक्ल तेरस लयो हो, दुर्द्धर तप अविकार
सुरऋषि सुमनन पूजों, पूजों हो अबार | धरम जिनेसुर पूजो । पूजों हो ।
ॐ ह्रीं माघशुक्ला - त्रयोदश्यां तपोमंगल-प्राप्ताय श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 3।
पौषशुक्ल पूनम हने अरि, केवल लहि भवितार।
गणसुर नरपति पूज्यो, पूजों हो, अबार। धरम जिनेसुर पूजो पूजों हो ।
ऊँ ह्रीं पौषशुक्ला - पूर्णिमायां केवलज्ञान-प्राप्ताय श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 4।
कल तिथि चौथ की हो, शिव समेदतैं पाय।
जगत-पूजपद पूजों, पूजों हो अबार । धरम जिनेसुर पूजो । पूजों हो।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठ शुक्ला - चतुथ्र्यां मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 5 ।
जयमाला – दोहा
घनाकार करि लोक-पट, सकल- उदधि-मसि तंत।
लिखै शारदा कलम गहि, तदपि न तुव गुन- अंत || 1 | (छन्द-पद्धरि)
जय धरमनाथ जिन गुन-महान, तुम पदको मैं नित धरों ध्यान जय गरभ-जनम-तप-ज्ञानयुक्त, वर- मोच्छ सुमंगल शर्म-भुक्त॥2॥ जय चिदानन्द आनन्दकन्द, गुनवृन्द सु ध्यावत मुनि अमन्द। जीवन हेतु मित्त, तुम ही हो जग में जिन पवित्त ॥3॥ तुम समवसारण में तत्त्वसार, उपदेश दियो है अति उदार ।
मैं
कोंजे भवि निजत चित्त, धारें ते पावें मोच्छ - वित्त॥4॥ तुम मुख देखत आज पर्म, पायो निज आतमरूप धर्म। मोकों अब भवदधितें निकार, निरभय-पद दीजे परमसार॥5॥ तुम सम मेरो जगमें न कोय, तुमही ते सब विधि काज होय ।
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तुम दया धुरन्धर धीर वीर, मेटो जगजनकी सकल पीर।।6।। तुम नीति-निपुन विन रागरोष, शिव-मग दरसावतु हो अदोष। तुम्हरे ही नाम-तने प्रभाव, जगजीव लहें शिव-दिव-सुराव।।7।। ता” मैं तुमरी शरण आय, यह अरज करतु हों शीश नाय। भव-बाधा मेरी मेट मेट, शिव-राधासों करौं भेंट-भेंट।।
जंजाल जगत को चूर चूर, आनन्द-अनूपम पूर पूर। मति देर करो सुनि अरज एव, हे दीनदयाल जिनेश देव।।9।।
मोको शरना नहिं और ठौर, यह निहचै जानों सुगुन-मौर। वृन्दावन वंदत प्रीति लाय, सब विघन मेट हे धरम-राय।।10।।
(छन्द - घत्तानंद) जय श्रीजिनधर्मं, शिवहितपर्मं, श्रीजिनधर्मं उपदेशा। तुम दयाधुरंधर विनतपुरन्दर, कर उर-मन्दर परवेशा॥11॥ ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय जयमालापूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
जो श्रीपति-पद-जुगल, उगल मिथ्यात जजे भव। ताके दुख सब मिटहिं, लहे आनन्द-समाज सब।। सुर-नर-पति पद भोग, अनुक्रम तैं शिव जावे। वृन्दावन यह जानि धरमजिनके गुन ध्यावे।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।।
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श्री शान्तिनाथ जिनपूजन ( कविवर वृन्दावनदास )
या भवकानन में चतुरानन, पाप पनानन घेरि हमेरी । आतम जानन मानन ठानन, वानन होन दई शठ मेरी ॥ ता मद भानन आपहि हो, यह छानन आन न आनन टेरी । आन गही शरनागत को अब, श्रीपतजी पत राखहु मेरी || ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतरतु अवतरतु संवौषट् ।
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठतु तिष्ठतु ठः ठः ।
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अत्र मम सन्निहितो भवतु भवतु वषट् ।
हिमगिरि-गतगंगा, धार अभंगा प्रासुक संगा भरि भृंगा, जरजनम-मृतंगा, नाशि अघंगा, पूजि पदंगा मृदुहिंगा । श्रीशान्ति-जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं, चक्रेशं, हनि अरि-चक्रेशं, हे गुनधेशं दयामृतेशं मक्रेशं ॥ ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
वर बावन-चंदन, कदली-नंदन, घनआनंदन सहित घसों । भवताप निकंदन, ऐरानन्दन, वंदि अमंदन, चरन वसों ॥ श्रीशान्ति-जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं, चक्रेशं,
हनि अरि-चक्रेशं, हे गुनधेशं दयामृतेशं मक्रेशं ॥ ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।
हिमकर करि लज्जत, मलय सुसज्जत, अच्छत जज्जत भरि था । दुखदारिद गज्जत, सदपदसज्जत, भवभयभज्जत अतिभारी ॥ श्रीशान्ति-जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं, चक्रेशं,
हनि अरि-चक्रेशं, हे गुनधेशं दयामृतेशं मक्रेशं ॥ ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
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मन्दार सरोजं, कदली जोजं, पुंज भरोजं मलयभरं । भरि कंचनथारी, तुम ढिंग धारी, मदनविदारी, धीरधरं ॥ श्रीशान्ति-जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं, चक्रेशं,
हनि अरि-चक्रेशं, हे गुनधेशं दयामृतेशं मक्रेशं ॥ ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पाणि निर्वपामीति स्वाहा ।
पकवान नवीने पावन कीने, षटरस भीने सुखदाई। मन मोदन हारे, छुधा विदारे, आगे धारे गुन गाई ॥ श्रीशान्ति-जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं, चक्रेशं,
हनि अरि-चक्रेशं, हे गुनधेशं दयामृतेशं मक्रेशं ॥ ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
तुम ज्ञान प्रकाशे, भ्रमतम नाशे, ज्ञेय विकाशे, सुखरासे । दीपक उजियारा, यातें धारा, मोह निवारा, निज भासे ॥ श्रीशान्ति-जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं, चक्रेशं,
हनि अरि-चक्रेशं, हे गुनधेशं दयामृतेशं मक्रेशं ॥ ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
चन्दन करपूरं करि वर चूरं, पावक भूरं, माँहिं जुरं । तसु धूम उड़ावै, नाचत आवै, अलि गुंजावै, मधुरस्वरं ॥
श्रीशान्ति-जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं, चक्रेशं,
हनि अरि-चक्रेशं, हे गुनधेशं दयामृतेशं मक्रेशं ॥ ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
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बादाम खजूरं दाडिम पूरं, निंबुक भूरं लै आयो । तासों पदजज्जौं, शिवफल सज्जौं, निजरस रज्जों, उमगायो ॥ श्रीशान्ति-जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं, चक्रेशं,
हनि अरि-चक्रेशं, हे गुनधेशं दयामृतेशं मक्रेशं ॥ ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
वसु द्रव्य सँवारी तुम ढिग धारी, आनन्दकारी दृगप्यारी । तुम हो भवतारी, करुनाधारी, यातै थारी, शरनारी ॥ श्रीशान्ति-जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं, चक्रेशं, हनि अरि-चक्रेशं, हे गुनधेशं दयामृतेशं मक्रेशं ॥ ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
पंचकल्याणक अ
असित सातय भादव जानिये, गरभमंगल ता दिन मानिये । सचि कियो जननी-पद- चर्चनं, हम करें इत ये पद अर्चनं ॥
ॐ ह्रीं भाद्रपदकृष्णसप्तम्यां गर्भकल्याणकमण्डिताय श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
जनम जेठ चतुर्दशी श्याम है, सकल इन्द्र सु आगत धाम है ।
गजपुरै गजसाजि सबै तबै गिरि जजैं इत मैं जजि हों अबै ॥
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां जन्म मंगलमण्डिताय श्रीशान्तिनाथ - जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
भव शरीर सुभोग असार हैं, इमि विचार तबै तप धार हैं I
भ्रमर चौदस जेठ सुहावनी, धरमहेत जजों गुन पावनी ॥
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां तप: मंगलमण्डिताय श्रीशान्तिनाथ-जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
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शुकल पौष दशैं सुखरास है, परम केवलज्ञान प्रकाश है।
भवसमुद्र -उधारन देव की, हम करें नित मंगल सेवकी ॥ ॐ ह्रीं पौषशुक्लदशम्यां ज्ञानमंगलमण्डिताय श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
असित चौदशि जेठ हने अरी, गिरिसमेदथकी शिवतिय वरी।
सकल इन्द्र जज तित आइकैं, हम जजै इत मस्तक नाइकें । ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां मोक्ष मंगलमण्डिताय श्री शान्तिनाथ-जिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
रथोद्धता छन्द चन्द्रवर्त्म तथा चन्द्रवत्स (११ वर्ण लाटानुप्रास)
शान्ति शान्तिगुन मंडिते सदा, जाहि ध्यावत सुपंडिते सदा । मैं तिन्हें भगतिमंडिते सदा, पूजि - हों कलुष-हंडिते सदा ॥१॥
मोक्षहेत तुम ही दयाल हो, हे जिनेश गुन रत्नमाल हो । मैं अबै सुगुनदाम ही धरों, ध्यावते तुरत मुक्तितिय वरों ॥२॥
पद्धरि (१६ मात्रा) जय शान्तिनाथ चिद्रूपराज, भवसागर में अद्भुत जहाज । तुम तजि सरवारथसिद्धि थान, सरवारथजुत गजपुर महान ॥३॥ तित जनम लियो आनंद धार, हरि ततछिन आयो राजद्वार । इन्द्रानी जाय प्रसूत-थान, तुमको कर में लै हरष मान ॥४॥
हरि गोद देय सो मोदधार, सिर चमर अमर ढारत अपार । गिरिराज जाय तित शिला पाण्डु, तापै थाप्यो अभिषेक माँडु ॥५॥
तित पंचम उदधि तनों सुवार, सुरवर कर करि ल्याये उदार । तब इन्द्र सहसकर करि अनन्द, तुम सिर धारा ढार्यो सुमन्द ॥६॥ अघ घघ घघ घघ धुनि होत घोर, भभ भभ भभ धध धध कलशशोर ।
दृम दृम दृम दृम बाजत मृदंग, झन नन नन नन नन नूपुरंग ॥७॥
तन नन नन नन नन तनन तान, घन नन नन घंटा करत ध्वान । ताथेई थेई थेई थेई थेई सुचाल, जुत नाचत नावत तुमहिं भाल ॥८॥
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चट चट चट अटपट नटत नाट, झट झट झट हट नट शट विराट । इमि नाचत राचत भगत रंग, सुर लेत जहाँ आनंद संग ॥९॥
इत्यादि अतुल मंगल सुठाठ, तित बन्यो जहाँ सुरगिरि विराट । पुनि करि नियोग पितुसदन आय, हरि सौंप्यौ तुम तित वृद्ध थाय ॥१०॥
पुनि राजमॉहिं लहि चक्ररत्न, भोग्यो छखंड करि धरम जत्न । पुनि तप धरि केवलऋद्धि पाय, भविजीवन को शिवमग बताय ॥११॥ __ शिवपुर पहुँचे तुम हे जिनेश, गुनमण्डित अतुल अनंत भेष । मैं ध्यावतु हों नित शीश नाय, हमरी भवबाधा हरि जिनाय ॥१२॥
सेवक अपनो निज जान जान, करुना करि भौभय भान भान । यह विघनमूल तरु खण्ड खण्ड, चितचिन्तित आनन्द मण्ड मण्ड ॥१३॥ घत्ता- श्री शान्ति महंता शिवतियकंता, सुगुन अनन्ता भगवन्ता । भव भ्रमन हनंता, सौख्य अनन्ता, दातारं तारनवन्ता ॥१४॥
ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय महाघु निर्वपामीति स्वाहा ।
रूपक सवैया शान्तिनाथ जिनके पद पंकज, जो भवि पूजै मनवचकाय, जनम जनम के पातक ताके, ततछिन तजिकैं जाय पलाय । मनवाँछित सुख पावै, सौ नर, बाँचें, भगतिभाव अतिलाय,
ताते वृन्दावन नित वन्दै जा शिवपुर-राज कराय ॥
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।
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श्री कुंथुनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन)
(छन्द - माधवी तथा किरीट) अज-अंक अजै पद राजै निशंक, हरे भवशंक निशंकित-दाता। मदमत्त-मतंगके माथे गंथे, मतवाले तिन्हें हने ज्यों अरिहाता।। गजनागपुरै लियो जन्म जिन्हों, रविप्रभ के नंदन श्रीमति-माता। सहकुंथु सुकुंथुनिके प्रतिपालक, थापौं तिन्हें जुत-भक्ति विख्याता।। ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
__ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
कुंथु सुन अरज दास-केरी, नाथ सुन अरज दास-केरी।
भवसिन्धु पर्यो हो नाथ, निकारो बांह पकर मेरी। प्रभु सुन अरज दास-केरी, नाथसुन अरज दास-केरी। जगजाल-परयो हों वेगि निकारो बांह पकर मेरी।टेक। सुर-सरिताको उज्ज्वल-जल भरि , कनकभंग में री।
मिथ्यातृषा निवारन-कारन, धरों धार नेरी।।
कुंथु सुन अरज दास-केरी, नाथ सुन अरज दास-केरी। ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
बावन-चंदन कदलीनंदन, घसिकर गुन टेरी।
तपत मोह-नाशन के कारन, धरों चरन नेरी।।
कुंथु सुन अरज दास-केरी, नाथ सुन अरज दास-केरी। ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय भव-आताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।21
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मुक्ताफल-सम उज्ज्वल अक्षत, सहित मलय ले री ।
पुंज धरों तुम चरनन आगें अखय-सुपद दे री कुंथु सुन अरज दास-केरी, नाथ सुन अरज दास-केरी।
ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।3।
कमल केतकी बेला दौना, सुमन सुमन-से री।
समरशूल निरमूल-हेतु प्रभु, भेंट करों तेरी ||
कुंथु सुन अरज दास-केरी, नाथ सुन अरज दास-केरी |
ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
घेवर बावर मोदन मोदक, मृदु उत्तम पेरी।
तासों चरन जजों करुनानिधि, हरो छुधा मेरी।। कुंथु सुन अरज दास-केरी, नाथ सुन अरज दास-केरी।
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। 5।
कंचन - दीपमई वर - दीपक, ललित - जोति घेरी ।
सो ले चरन जजों भ्रम-तम- रवि, निज - सुबोध दे |
कुंथु सुन अरज दास-केरी, नाथ सुन अरज दास-केरी।
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार- विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
देवदारु हरि अगर तगर करि चूर अगनि खेरी।
अष्ट करम ततकाल जरे ज्यों, धूम धनंजे री॥
कुंथु सुन अरज दास-केरी, नाथ सुन अरज दास-केरी ।
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म - दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। 7।
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लोंग लायची पिस्ता केला, कमरख शुचि ले री। मोक्ष-महाफल चाखन-कारन, जजौं सुकरि ढेरी।।
कुंथु सुन अरज दास-केरी, नाथ सुन अरज दास-केरी। ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
जल चंदन तंदल प्रसून चरु, दीप धूप ले री। फलजुत जजन करौं मन सुख धरि, हरो जगत-फेरी।। ___ कुंथु सुन अरज दास-केरी, नाथ सुन अरज दास-केरी। ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक (छन्द - मोतियादाम) सुसावन की दशमी कलि जान, तज्यो सरवारथसिद्ध विमान।
भयो गरभागम-मंगल सार, जजें हम श्रीपद अष्ट-प्रकार।। ऊँ ह्रीं श्रावणकृष्णा-दशम्यां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।।।
महा बैशाख सु एकम शुद्ध, भयो तब जनम तिज्ञान-समृद्ध।
कियो हरि मंगल मंदिर-शीस, जजें हम अत्र तुम्हें नुत-शीत।। ॐ ह्रीं वैशाखशुक्ल प्रतिपदि जन्ममंगल-प्राप्ताय श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।
तज्यो षट्खंड विभौ जिनचंद, विमोहित-चित्त चितार सुछंद।
धरे तप एकम शुद्ध विशाख, सुमग्न भये निज-आनंद चाख।। ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्ल-प्रतिपदि तपोमंगल-प्राप्ताय श्रीकुन्थुनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।3।
सुदी तिय चैत सु चेतन शक्त, चहूँ-अरि छयकरि तादिन व्यक्त।
भई समवसृत भाखि सुधर्म, जजौं पद ज्यों पद पाइय पर्म।। ॐ ह्रीं चैत्रशुक्ला-तृतीया केवलज्ञान-प्राप्ताय श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।4।
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सुदी वैशाख सु एकम नाम, लियो तिहि द्यौस अभय-शिवधाम।
जजे हरि हर्षित मंगल गाय, समर्चतु हों तुहि मन-वच-काय।। ॐ ह्रीं वैशाखशुक्ल-प्रतिपदि मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।5
जयमाला (अडिल्ल छन्द) षट्खंडन के शत्रु राजपद में हने। धरि दीक्षा षटखंडन पाप तिन्हें दनें।। त्यागि सुदरशन चक्र धरम चक्री भये। करमचक्र-चकचूर सिद्ध दिढ-गढ़ लये।1।
ऐसे कुंथु जिनेश तने पदपद्म को। गुन-अनंत-भंडार महासुख-सद्मको।। पूजों अरघ चढ़ाय पूरणानंद हो। चिदानंनद अभिनंदन इन्द्रगन-वंद हो।1।
(पद्धिरि छन्द) जय-जय जय-जय श्रीकुंथुदेव, तुम ही ब्रह्मा हरि त्रिंबुकेव। जय बुद्धि विदांबर विष्णु ईश, जय रमाकांत शिवलोक शीश।3।
जय दया-धुरंधर सृष्टिपाल, जय-जय जगबंधु सुगुन-माल। सरवारथ-सिद्ध विमान छार, उपजे गजपुर में गुन-अपार।4। सुर-राज कियो गिर न्हौन जाय, आनंद-सहित जुत-भगतिभय। पुनि पिता सौंपि कर मुदित अंग, हरि तांडव-निरत कियो अभंग।5।
पुनि स्वर्ग गयो तुम इत दयाल, वय पाय मनोहर प्रजापाल। षट्खंड विभौ भोग्यो समस्त, फिर त्याग जोग धार्यो निरस्त।6। तब घाति-घात केवल उपाय, उपदेश दियो सब-हित जिनाय। जाके जानत भ्रम-तम विलाय, सम्यक्दर्शन निर्मल लहाय।7।
तुम धन्य देव किरपा-निधानु, अज्ञान-क्षमा-तमहरन भानु। जय स्वच्छगुनाकर शुक्त सुक्त, जय स्वच्छ सुखामृत भुक्ति मुक्त।8।
जब भौ-भय-भंजन कृत्यकृत्य, मैं तुमरो हौं निज भृत्य भृत्य। प्रभु अशरन-शरन अधार धार, मम विघ्न-तूलगिरि जार-जार।9। जय कुनय-यामिनी सूर-सूर, जय मन-वाँछित-सुख पूर-पूर। मम करमबंध दिढ चूर-चूर, निजसम आनंद दे भूर-भूर।10।
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अथवा जबलौं शिव लहौ नाहिं, तबलो ये तो नित ही लहाहिं । भव-भव श्रावक-कुल जनम-सार, भव-भव सतमति संतसंग धार। 11। भव-भव निज-आतम-तत्त्वज्ञान, भव भव तप-संयम - शील- दान । भव-भव अनुभव नित चिदानंद, भव-भव तुम आगम हे जिनंद। 12 । भव-भव समाधि-जुत-मरन सार, भव-भव व्रत चाहों अनागार। यह मोकों हे करुणानिधान, सब जोग मिला आगम-प्रमान | 13। जबलों शिव-सम्पति लहों नाहिं, तबलों मैं इनको नित लहाँ हि । यह अरज हिये अवधारि नाथ, भवसंकट हरि, कीजे सनाथ | 14 | (छंद-घत्तानंद)
जय दीनदयाला, वर-गुनमाला, विरदविशाला सुख - आला।। मैं पूजों ध्यावों शीश नमावों, देहु अचल-पदकी चाला। 15 ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय जयमाला - पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(छंद-रोड़क)
कुंथु जिनेसुर पादपद्म जो प्रानी ध्यावें । अलि-सम कर अनुराग, सहज सो निज-निधि पावें।। जो बांचें सरधहें, करें अनुमोदन पूजा। वृन्दावन तिंह पुरुष-सदृश, सुखिया नहिं दूजा ।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री अरहनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन)
(छप्पय छन्द) तप-तुरंग-असवार, धार तारन-विवेक कर। ध्यान-शुकल-असि-धार शुद्ध-सुविचार-सुबखतर।। भावन-सेना, धर्म-दशों सेनापति थापे। रतन-तीन धरि सकति, मंत्रि-अनुभो निरमापे।।
सत्तातल मोह-सुभटि धुनि,त्याग-केतु-शत अग्र धरि।
इह-विध समाज सज राज को, अर-जिन जीते कर्म-अरि।। ऊँ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
अष्टक (छंद-त्रिभंगी) कन-मनि-मय झारी, दृग-सुखकारी, सुर-सरितारी नीर भरी। मुनिमन-सम उज्ज्वल, जनम-जरा-दल, सोलैं पद-तल धारकरी। प्रभु दीनदयालं, अरि-कुल-कालं, विरद विशालं सुकुमालं।
हरि मम जंजालं, हे जगपालं, अरगुन-मालं, वरभाल।।1। ऊँ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
भव-ताप-नशावन, विरद सुपावन, सुनि मनभावन, मोद भयो। तारौं घसि बावन, चंदन-पावन, तुमहिं चढ़ावन, उमगि अयो।। प्रभु दीनदयालं, अरि-कुल-कालं, विरद विशालं सुकुमालं।
हरि मम जंजालं, हे जगपालं, अरगुन-मालं, वरभाल।। 2।। ऊँ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय भवाताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
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तंदुल अनियारे, श्वेत सँवारे, शशिति टारे, थार भरे। पद-अखय सुदाता, जगविख्याता, लखि भवत्राता पुंज धरे।। प्रभु दीनदयालं, अरि-कुल-कालं, विरद विशालं सुकुमालं।
हरि मम जंजालं, हे जगपालं, अरगुन-मालं, वरभाल।।3।। ऊँ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।।
सुरतरु के शोभित, सुरन मनोभित, सुमन अछोभित ले आयो। मनमथ के छेदन, आप अवेदन, लखि निरवेदन गुन गायो।। प्रभु दीनदयालं, अरि-कुल-कालं, विरद विशालं सुकुमालं।
हरि मम जंजालं, हे जगपालं, अरगुन-मालं, वरभाल।। 4।। ऊँ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
नेवज सज भक्षक प्रासुक अक्षक, पक्षक रक्षक स्वच्छ धरी। तुम करम-निकक्षक, भस्म कलक्षक, दक्षक पक्षक रक्ष करी।। प्रभु दीनदयालं, अरि-कुल-कालं, विरद विशालं सुकुमालं।
हरि मम जंजालं, हे जगपालं, अरगुन-मालं, वरभाल।। 5।। ऊँ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय क्षधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
तुम भ्रमतम-भंजन मुनि-मन-कंजन, रंजन गंजन मोह-निशा। रविकेवलस्वामी दीप जगामी, तुमढिग आमी पुण्य-दृशा।। प्रभु दीनदयालं, अरि-कुल-कालं, विरद विशालं सुकुमालं।
हरि मम जंजालं, हे जगपालं, अरगुन-मालं, वरभाल।। 6।। ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
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दश-धूप सुरंगी गंध अभंगी वह्नि वरंगी-माहिं हवे।
वसुकर्म जरा धूम उड़ावें, तांडव भावें नृत्य पवें।। प्रभु दीनदयालं, अरि-कुल-कालं, विरद विशालं सुकुमालं।
हरि मम जंजालं, हे जगपालं, अरगुन-मालं, वरभाल।। 7।। ऊँ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
रितुफल अतिपावन, नयन-सुहावन, रसना-भावन, कर लीनें। तुम विघन-विदारक, शिवफल-कारक, भवदधि-तारक चरचीने।। प्रभु दीनदयालं, अरि-कुल-कालं, विरद विशालं सुकुमालं।
हरि मम जंजालं, हे जगपालं, अरगुन-मालं, वरभाल।। 8।। ऊँ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
सुचि स्वच्छ पटीरं, गंधगहीरं, तंदलशीरं, पुष्प-चरु।
वर दीपं धूपं, आनंदरूपं, ले फल-भूपं, अर्घ करूँ।। प्रभु दीनदयालं, अरि-कुल-कालं, विरद विशालं सुकुमालं।
हरि मम जंजालं, हे जगपालं, अरगुन-मालं, वरभाल।। 9॥ ऊँ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक (छन्द चौपाई) फागुन सुदी तीज सुखदाई, गरभ सुमंगल ता दिन पाई।
मित्रादेवी उदर सु आये, जजे इन्द्र हम पूजन आये। ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्ला-तृतीयायां गर्भमंगल-प्राप्ताय श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।।
मंगसिर शुक्ल चतुर्दशि सोहे, गजपुरजनम भयो जग मोहे।
___ सुर-गुरु जजे मेरु पर जाई, हम इत पूजै मनवचकाई।। ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्ला-चतुर्दश्यां जन्ममंगल-प्राप्ताय श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।
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मंगसिर सित दसमी दिन राजे, तादिन संजम धरे विराजै।
अपराजित-घर भोजन पाई, हम पूजें इत चित-हरषाई।। ऊँ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्ला-दशम्यां तपोमंगल-प्राप्ताय श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।3।
कार्तिक सित द्वादशि अरि चूरे, केवलज्ञान भयो गुन पूरे।
समवसरन तिथि धरम बखाने, जजत चरन हम पातक-भाने।। ऊँ ह्रीं कार्तिकशुक्ला-द्वादश्यां ज्ञानमंगल-प्राप्ताय श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।40
चैत कृष्ण अमावसी सब कर्म, नाशि वास किय शिव-थल पर्म।
निहचल गुन-अनंत भंडारी, जजों देव सुधि लेहु हमारी।। ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-अमावस्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।
जयमाला (दोहा-छन्द) बाहर भीतर के जिते, जाहर अर दुखदाय। ता हर कर जिन भये, साहर शिवपुर-राय।।1। राय-सुदरशन जासु पितु, मित्रादेवी माय। हेमवरन-तन वरष वर, चउ-असि-सहस सु आय।।2।।
__(छन्द तोटक) जय श्रीधर श्रीकर श्रीपति जी, जय श्रीवर श्रीभर श्रीमति जी। भवभीम-भवोदधि-तारन हैं, अरनाथ नमों सुखकारन हैं।।3।।
गरभादिक-मंगल सार धरे, जग-जीवनि के दुखदंद हरे। कुरुवंश-शिखामनि तारन हैं, अरनाथ नमों सुखकारन हैं।।4।।
करि राज छखंड विभूतिमई, तप धारत केवलबोध ठई। गण तीस जहाँ भ्रमवारन हैं, अरहनाथ नमों सुखकारन हैं।।5।। भवि-जीवनको उपदेश दियौ, शिव-हेतु सबै जन धारि लियो। जगके सब-संकट-टारन हैं, अरनाथ नमों सुखकारन है।।6।। कहि बीस-प्ररूपन सार तहाँ, निजशर्म-सुधारस-धार जहाँ। गति-चार हृषीपन धारन हैं, अरनाथ नमों सुखकारन हैं।।7।। षट्-काय तिजोग तिवेद मथा, पनवीस कषा वसु-ज्ञान तथा।
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सुर संजम-भेद पसारन हैं, अरनाथ नमों सुखकारन हैं। 8 ॥ रस दर्शन लेश्या भव्य जुगं, षट् सम्यक् सैनिय भेद युगं। जंग हार तथा सु अहारन हैं, अरनाथ नमों सुखकारन हैं || 9 ||
गुनथान-चतुर्दस-मारगना, उपयोग दुवादश-भेद भना। इमि बीस विभेद उचारन हैं, अरनाथ नमों सुखकारन हैं || 10 ॥ इन आदि समस्त बखान कियो, भवि-जीवनि ने उर-धार लियो । कितने शिव-वादिन धारन हैं, अरनाथ नमों सुखकारन हैं । । 11।। फिर आप अघाति विनाश सबै, शिवधाम विषै थित कीन त । कृतकृत्य प्रभू जगतारन हैं, अरनाथ नमों सुखकारन हैं ।। 12 ।
अब दीनदयाल दया धरिये, मम कर्म - कलंक सबै हरिये । मनको कछु पारन हैं, अरनाथ नमों सुखकारन है ।। 13॥ (घता छन्द)
जय श्रीअरदेवं, सुरकृतसेवं, समताभेवं, दातारं अरिकर्मविदारन, शिवसुखकारन, जय जिनवर जग त्रातारं।।14।। ऊँ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(छन्द-आर्या)
अरजिनके पदसारं जो पूजै द्रव्य भावसों प्रानी। सो पावै भवपारं, अजरामर - मोक्षथान सुखखानी ।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री मल्लिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन)
(अडिल्ल) अपराजित तें आय नाथ मिथलापुर जाये। कुंभरायके नन्द, प्रजापति मात बताये।। कनक-वरन तन तुंग, धनुष पच्चीस विराजे।
सो प्रभ तिष्ठह आय निकट मम ज्यों भ्रम भाजे।। ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
___ ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
(अष्टक - छन्द जोगीरासा) सुर-सरिता-जल उज्ज्वल ले कर, मनि गार भराई। जनम-जरा-मृत नाशन-कारन, जजहुँ चरन जिनराई।। राग-दोष-मद-मोह हरनको, तुम ही हो वरवीरा।
यातें शरन गही जगपतिजी, वेग हरो भवपीरा।।1।। ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
बावनचंदन कदली-नंदन, कुंकुमसंग घिसायो। लेकर पूजौं चरनकमल प्रभु, भवआताप नसायो।। राग-दोष-मद-मोह हरनको, तुम ही हो वरवीरा।
याते शरन गही जगपतिजी, वेग हरो भवपीरा।। 2।। ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
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तंदुल शशि-सम उज्ज्व ल लीनें, दीने पुंज सुहाई। नाचत गावत भगति करत ही, तुरित अखैपद पाई।।
राग-दोष-मद-मोह हरनको, तुम ही हो वरवीरा।
याते शरन गही जगपतिजी, वेग हरो भवपीरा।। 3।। ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
पारिजात मंदार सुमन, संतान जनित महकाई। मारसुभट-मद-भंजन-कारन, जजहुँ तुम्हें शिरनाई।।
राग-दोष-मद-मोह हरनको, तुम ही हो वरवीरा।
याते शरन गही जगपतिजी, वेग हरो भवपीरा।। 4।। ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पंनिर्वपामीति स्वाहा।
फेनी गोझा मोदन मोदक, आदिक सद्य उपाई। सो लै छुधा-निवारन-कारन जजहुँ चरन लवलाई।। राग-दोष-मद-मोह हरनको, तुम ही हो वरवीरा।
यातें शरन गही जगपतिजी, वेग हरो भवपीरा।।5।। ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विध्वंसनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तिमिरमोह उरमंदिर मेरे, छाय रह्यो दुखदाई। तासु नाश कारन को दीपक, अद्भुत-जोति जगाई।।
राग-दोष-मद-मोह हरनको, तुम ही हो वरवीरा।
यातें शरन गही जगपतिजी, वेग हरो भवपीरा।। 6।। ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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अगर तगर कृष्णागर चंदन चूरि सुगंध बनाई । अष्टकरम जारनको तुमढिग, खेवत हौं निजराई।। राग-दोष-मद-मोह हरनको, तुम ही हो वरवीरा । यातैं शरन गही जगपतिजी, वेग हरो भवपीरा ।। 7 । ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीफल लौंग बदाम छुहारा, एला केला लाई । मोक्ष-महाफल-दाय जानिके, पूजैं मन हरखाई।। राग-दोष -मद-मोह हरनको, तुम ही हो वरवीरा । यातैं शरन गही जगपतिजी, वेग हरो भवपीरा ।। 8 ॥
ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल फल अरघ मिलाय गाय गुन, पूजौं भगति बढ़ाई। शिवपदराज हेत हे श्रीधर, शरन गहो मैं आई || राग-दोष-मद-मोह हरनको, तुम ही हो वरवीरा । यातैं शरन गही जगपतिजी, वेग हरो भवपीरा || 9॥
ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अनघ्यपद-प्राप्तये अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक (लक्ष्मीधरा छन्द)
चैत की शुद्ध एकैं भली राजई, गर्भकल्यान कल्यान को छाजई। कुंभराजा प्रजापति माता तने, देव देवी जजे शीश नाये घने ।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्ल प्रतिपदि गर्भमंगल-प्राप्ताय श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 1 ।
मार्गशीर्षे सुदी-ग्यारसी राजई, जन्मकल्यानको द्यौस सो छाई । इन्द्र नागेंद्र पूजें गिरिंदें जिन्हें, मैं जजौं ध्यायके शीश नावैं तिन्हें ।। ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्ला - एकादश्यां जन्ममंगल-प्राप्ताय श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 21
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मार्गशीर्षे सुदीग्यारसीके दिना, राजको त्याग दीच्छा धरी है जिना। दान गोछीरको नन्दसेनें दयो, मैं जजौं जासु के पंच अचरज भयो।।
ऊँ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्ला-एकादश्यां तपोमंगल-प्राप्ताय श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
पौषकी श्याम दजी हने घातिया, केवलज्ञान-साम्राज्य-लक्ष्मी लिया। धर्मचक्री भये सेव शक्री करें, मैं जजों चर्न ज्यों कर्म वक्री टरें।
ऊँ ह्रीं पौषकृष्णा-द्वितीयायां केवलज्ञान-प्राप्ताय श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।40
फाल्गुनी सेत पांचै अघाती हते, सिद्ध आले बसै जाय सम्मेदतें। इन्द्रनागेन्द्र कीन्हीं क्रिया आयके, मैं जजों सो मही ध्यायके गायके।।
ऊँ ह्रीं फाल्गुनशुक्ला-पंचम्यां मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।।
जयमाला (घत्तानंद छन्द) तुअ नमित सुरेशा, नर नागेशा, रजत नगेशा भगति भरा। भवभयहरनेशा, सुखभरनेशा, जै जै जै शिव-रमनि-वरा।1।
पद्धरि छन्द जय शुद्ध-चिदातम देव एव, निरदोष सुगुन यह सहज टेव। जय भ्रमतम-भंजन-मारतंड, भवि भवदधि-तारन को तरंड।2। जय-गरभ-जनम-मंडित जिनेश, जय छायक-समकित बुद्धभेस। चौथे किय सातों प्रकृतिछीन, चै-अनंतानु मिथ्यात-तीन।3। सातंय किय तीनों आयु नास, फिर नवें अंश नवमें विलास। तिन-माहिं प्रकृति-छत्तीस चूर, या भाँति कियो तुम ज्ञानपूर।4।
पहिले महँ सोलह कहँ प्रजाल, निद्रानिद्रा प्रचला प्रचला। हनि थानगृद्धि को सकल-कुब्ब, नर-तिर्यग्गति-गत्यानुपुब्ब।5।
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इक-बे-ते-चौ-इन्द्रीय-जात, थावर आतप उद्योत घात। सूच्छम-साधारन एक चूर, पुनि दुतिय - अंश वसु कर्यो दूर 16
चौ-प्रत्याप्रत्याख्यान चार, तीजे सु नपुंसक-वेद टार। चौथे तिय-वेद विनाश कीन, पांचें हास्यादिक छहों छीन । 7 । नर-वेद छठें छय नियत धीर, सातयें संज्वलन-क्रोध चीर । आठवें संज्वलन-मान भान, नवमें माया-संज्वलन हान ।8। इमि घता नवें दशमें पधार, संज्वलन-लोभ तित हूँ विदार। पुनि द्वादशके द्वय-अंश माँहिं, सोलह चकचूर कियो जिनाहिं | 9 | निद्रा-प्रचला इक भाग माहिं, दुति-अंश चतुर्दश नाश जाहिं । ज्ञानावरनी-पन दरश-चार, अरि अंतराय - पांचों प्रहार | 10 इमि छय-त्रेशठ केवल उपाय, धरमोपदेश दीन्हों जिनाय । नव-केवललब्धि-विराजमान, जय तेरमगुन - थिति गुनअमान। 11। गत चौदहमें द्वै भाग तत्र, क्षय कीन बहत्तर तेरहत्र । वेदनी - असाताको विनाश, औदारि - विक्रिया-हार नाश | 12 | तैजस्य-कारमानों मिलाय, तन पंच-पंच बंधन विलाय । संघात-पंच घाते महंत, त्रय - अंगोपांग सहित भनंत। 13। संठान-संहनन छह-छहेव, रस- वरन - पंच वसु-फरस भेव । जुग-गंध देवगति-सहित पुव्व, पुनि अगुरुलघू उस्वास दुव्व। 14।
पर-उपघातक सुविहाय नाम, जुत-अशुभगमन प्रत्येक खाम। अपरज थिर-अथिर अशुभ- सुभेव, दुरभाग सुसुर- दुस्सुर अभेव। 15। अन-आदर और अजस्य - कित्त, निरमान नीच - गोतौ विचित्त । ये प्रथम बहत्तर दिय खपात, तब दूजे में तेरह नशाय।16। पहले सातावेदनी जाय, नर-आयु मनुष-गति को नशाय। मानुषगत्यानु सु पूरवीय, पंचेन्द्रिय- जात प्रकृति विधीय।17। त्रस-बादर परजापति सुभाग, आदर-जुत उत्तम गोत पाग। जसकीरती तीरथप्रकृति-जुक्त, ए तेरह छयकरि भये मुक्त। 18।
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जय गुनअनंत अविकार धार, वरनत गनधर नहिं लहत पार।
ताकों मैं वंदौं बार बार, मेरी आपत उद्धार धार।191 सम्मेदशैल सुरपति नमंत, तव मुकतथान अनुपम लसंत। वृन्दावन वंदत प्रीति-जय, मम उरमें तिष्ठहु हे जिनाय।20।
घत्तानन्द जय-जय जिनस्वामी, त्रिभुवननामी, मल्लि विमल-कल्यानकरा।
भवदंद-विदारन आनंद-कारन, भविकुमोद निशिईश वरा।21। ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय जयमाला-महायँ निर्वपामीति स्वाहा।
(शिखरिणी) जजें हैं जो प्रानी दरब अरु भावादि विधिसों, करें नाना भाँति भगति थुति औ नौति सुधिसों। लहै शक्री चक्री सकल सुख सौभाग्य तिनको, तथा मोक्षं जावे जजत जन जो मल्लिजिनको।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।
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श्री मुनिसुव्रतनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन)
(मत्तगयंद छन्द) प्रानत-स्वर्ग विहाय लियो जिन, जन्म सु राजगृही-महँ आई।
श्रीसुहमित्त पिता जिनके, गुनवान महापदमा जसु माई।। बीस धनू तनु श्याम छबी, कछु-अंक हरी वर वंश बताई।
सो मुनि सुव्रतनाथ प्रभू कहँ थापतु हौं इत प्रीत लगाई।। ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
___ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
अष्टक (गीतिका) उज्जवल सुजत जिमि जस तिहारौ, कनक-झारीमें भरों।
जर-मरन-जामन हरन-कारन, धार तुम पदतर करौं। शिव-साथ करत सनाथ सुव्रतनाथ, मुनि गुनमाल हैं।
तसु चरन आनन्दभरन तारन-तरन विरद विशाल हैं।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
भवताप-घायक शान्तिदायक, मलय हरि घसि ढिग धरों। __ गुनगाय शीस नमाय पूजत, विघनताप सबै हरों।।
शिव-साथ करत सनाथ सुव्रतनाथ, मुनि गुनमाल हैं।
तसु चरन आनन्दभरन तारन-तरन विरद विशाल हैं।।2।। ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
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तंदुल अखण्डित दमक शशिसम, गमक-जुत थारी भरों। पद-अखय-दायक मुकति-नायक, जानि पद-पूजा करों ।। शिव-साथ करत सनाथ सुव्रतनाथ, मुनि गुनमाल हैं। तसु चरन आनन्दभरन तारन - तरन विरद विशाल हैं || 3 | ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
बेला चमेली रायबेली, केतकी करना सरों ।
जगजीत मनमथ-हरन लखि प्रभु, तुम निकट ढेरी करों। शिव-साथ करत सनाथ सुव्रतनाथ, मुनि गुनमाल हैं।
तसु चरन आनन्दभरन तारन - तरन विरद विशाल हैं॥4॥
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पकवान विविध मनोज्ञ पावन, सरस मृदुगुन विस्तरों। सो लेय तुम पदतर धरत ही छुधा - डाइनको हरों ।। शिव-साथ करत सनाथ सुव्रतनाथ, मुनि गुनमाल हैं।
तसु चरन आनन्दभरन तारन तरन विरद विशाल हैं || 5 ||
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक अमोलिक रतन-मणिमय, तथा पावनघृत भरों। सो तिमिर - मोह विनाश आतम-भास कारण ज्वै धरों || शिव-साथ करत सनाथ सुव्रतनाथ, मुनि गुनमाल हैं। तसु चरन आनन्दभरन तारन - तरन विरद विशाल हैं ||6|| ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार- विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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करपूर चन्दन चूर भूर, सुगन्ध पावक में धरों। तसु जरत जरत समस्त पातक, सार निज सुखकों भरों।।
शिव-साथ करत सनाथ सुव्रतनाथ, मुनि गुनमाल हैं।
तसु चरन आनन्दभरन तारन-तरन विरद विशाल हैं।।7।। ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीफल अनार सु आम आदिक पक्वफल अति विस्तरों।
सो मोक्षफल के हेत लेकर, तुम चरण आगे धरों।। शिव-साथ करत सनाथ सुव्रतनाथ, मुनि गुनमाल हैं।
तसु चरन आनन्दभरन तारन-तरन विरद विशाल हैं।।8।। ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जलगंध आदि मिलाय आठों दरब अरघ सजों वरों।
पूजौं चरन रज भगतिजुत, जातें जगत-सागर तरों।। शिव-साथ करत सनाथ सुव्रतनाथ, मुनि गुनमाल हैं।
तसु चरन आनन्दभरन तारन-तरन विरद विशाल हैं।।9।। ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक
दोहा तिथि दोयज सावन श्याम भयो, गरभागम मंगल मोद थयो। हरिवृन्द-सची पितु-मातु जजें, हम पूजत भ्यौं अघ-ओघ भनें।।
ॐ ह्रीं श्रावणकृष्णा-द्वितीयायां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा॥1॥
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बैसाख बदी दशमी वरनी, जनमे तिहिं द्योस त्रिलोकधनी।
सुरमन्दिर ध्याय पुरन्दर ने, मुनिसुव्रतनाथ हमैं सरनै।। __ऊँ ह्रीं वैशाखकृष्णा-दशम्यां जन्ममंगल-प्राप्ताय श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।2।
तप दुद्धर श्रीधर ने गहियो, वैसाख बदी दशमी महियो। निरुपाधि समाधि सुध्यावत हैं, हम पूजत भक्ति बढ़ावत हैं।। ___ऊँ ह्रीं वैशाखकृष्णा-दशम्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।3।
वर केवलज्ञान उद्योत किया, नवमी वैसाख बदी सुखिया। हनि मोहनिशा भनि मोखमगा, हम पूजि चहैं भवसिन्धु थगा।। ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णा-नवम्यां ज्ञानमंगल-मण्डिताय
पजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।4।।
वदि बारसि फागुन मोच्छ गये, तिहुंलोक-शिरोमणि सिद्ध भये। सु अनन्त-गुनाकर विघ्न-हरी, हम पूजत हैं मनमोद भरी।।
ऊँ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-द्वादश्यां मोक्षमंगल-मण्डिताय श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।5।।
जयमाला
(दोहा) मुनिगण-नायक मुक्तिपति, सूक्त व्रताकर उक्त।
भुक्ति-मुक्ति-दातार लखि, वन्दों तन-मन उक्त।1। जय केवल-भान अमान धरं, मुनि स्वच्छ सरोज-विकासकरं। भव-संकट भंजन लायक हैं, मुनिसुव्रत सुव्रत-दायक हैं।2। घन-घात-वनं दव-दीप्त भनं, भविबोध-त्रषातुर मेघघनं।
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नित मंगलवृन्द वधायक हैं, मुनिसुव्रत सुव्रत - दायक हैं। 3 । गरभादिक मंगलसार धरे, जगजीवन के दुखदंदहरे। सब तत्त्व-प्रकाशन नायक हैं, मुनिसुव्रत सुव्रत - दायक हैं। 4। शिवमारग-मण्डन तत्त्व कह्यो, गुनसार जगत्रय शर्म लह्यो। रुज रागरु दोष मिटायक हैं, मुनिसुव्रत सुव्रत - दायक हैं। 51 समवसृतमें सुनार सही, गुनगावत नावत भालमही। अरु नाचत भक्ति बढ़ायक हैं, मुनिसुव्रत सुव्रत-दायक हैं। 61
नूपुरकी धुनि होत भनं, झननं झननं झननं झननं। सुरलेत अनेक रमायक हैं, मुनिसुव्रत सुव्रत-दायक है।7। घननं घननं घन घंट बजैं, तननं तननं तनतान सजे । दृमदृग मिरदंग बजायक हैं, मुनिसुव्रत सुव्रत - दायक हैं। 8 । छिन में लघु और छिन थूल बनें, जुत हाव-विभाव विलासपने। मुखतें पुनि यों गुनगायक हैं, मुनिसुव्रत सुव्रत-दायक हैं।9।
धृगतां धृगतां पग पावत हैं, सननं सननं सु नचावत हैं। अति आनन्द को पुनि पायक हैं, मुनिसुव्रत सुव्रत-दायक हैं। 10 अपने भवको फल लेत सही, शुभ भावनि तैं सब पाप दही। तित तैं सुख को सब पायक हैं, मुनिसुव्रत सुव्रत - दायक हैं। 11। इन आदि समाज अनेक तहाँ, कहि कौन सके ज विभेद यहाँ। धनि श्री जिनचन्द सुधायक हैं, मुनिसुव्रत सुव्रत-दायक है।12। पुनि देश विहार कियो जिन ने, वृष- अमृतवृष्टि कियो तुमने। हमको तुमरी शरनायक है, मुनसुव्रत सुव्रत-दायक है।।13। हम पै करुनाकरि देव अबै, शिवराज-समाज सु देहु सबै । जिमि होहुँ सुखाश्रम-नायक हैं, मुनसुव्रत सुव्रत-दायक है।।14।। भवि वृन्दतनी विनती जु यही, मुझ देहु अभयपद-राज सही । हम आनि गही शरनायक हैं, मुनिसुव्रत सुव्रत-दायक हैं। 15।
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(घत्तानंद) जय गुनगनधारी, शिवहितकारी, शुद्धबुद्ध चिद्रूपपती।
परमानंददायक, दास सहायक, मुनिसुव्रत जयवंत जती।16। ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
श्रीमुनिसुव्रत के चरन, जो पूजें अभिनन्द। सो सुर-नर सुख भोगिकें, पा सहजानन्द।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री नमिनाथ जिन-पूजा ( रचयिता - श्री वृन्दावन)
रोड़क
श्री नमिनाथ जिनेन्द्र नमों विजयारथ नन्दन। विख्यादेवी-मातु सहज सब पाप निकन्दन अपराजित तजि जये मिथिलपुर वर आनन्दन। तिन्हें सु थापों यहाँ त्रिधा करि के पदवन्दन ।
ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम् ) ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम् )
ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
सुरनदी-जल उज्ज्वल पावनं, कनक-भृंग भरों मन-भावनं । जजतु हौं नमिके गुण गायके, जुग - पदांबुज प्रीति लगायके।।
ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।1।
हरिमलय मिलि केशरसों घसों, जगतनाथ भवाताप को नसों ॥। जजतु हौं नमिके गुण गायके, जुग-पदांबुज प्रीति लगायके।।
ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 2 ।
गुलक के सम सुन्दर तंदुलं, धरत पुंज सु भुंजत संकुलं।
तु हौं नमिके गुण गायके, जुग - पदांबुज प्रीति लगायके ।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। 3।
कमल केतकी बेलि सुहावनी, समरसूल समस्त नशावनी।। मि गुण गायके, जुग-पदांबुज प्रीति लगायके।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय कामबाण - विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
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शशि सुधासम मोदक मोदनं, प्रबल दुष्ट छुधामद खोदनं।। तु हौं नमिके गुण गायके, जुग-पदांबुज प्रीति लगायके ।। ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। 5।
शुचि घृताश्रित दीपक जोइया, असम मोह-महातम खोइया ।। जजतु हौं नमिके गुण गायके, जुग-पदांबुज प्रीति लगायके ।। ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 61
अमरजिह्व-विषे दशगंध को, दहत दाहत कर्म के बंधको जजतु हौं नमिके गुण गायके, जुग-पदांबुज प्रीति लगायके।। ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
फलसुपक्व मनोहर पावने, सकल विघ्न समूह नशावने ।। तु हौं नमिके गुण गायके, जुग-पदांबुज प्रीति लगायके ।। ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। 8 ।
जल - फलादि मिलाय मनोहरं, अरघ धरत ही भवभयहरं । । जौं नमिके गुण गायके, जुग - पदांबुज प्रीति लगायके ।। ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अनघ्यपद-प्राप्तये अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक
गरभागम-मंगलचारा, जुग आश्विन श्याम उदारा। हरि हर्ष जजे पितुमाता, हम पूजें त्रिभुवन त्राता ॐ ह्रीं आश्विन कृष्णा-द्वितीयायां गर्भमंगल-प्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 1 ।
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जनमोत्सव श्याम असाढ़ा, दशमी दिन आनन्द बाढा।
हरि मन्दर पूजे जाई, हम पूजें मन-वच-काई।। ऊँ ह्रीं आषाढ़कृष्णा-दशम्यां जन्ममंगल-प्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।2।
तप दुद्धर श्रीधर धारा, दशमी कलि षाढ़ उदारा। निज आतम रस पूर्ण लायो, हम पूजत आनन्द पायो।।
ऊँ ह्रीं आषाढकृष्णा-दशम्यां तपोमंगल-प्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।31
सित मंगसिर ग्यारस चूरे, चव घाति भये गुण पूरे।
समवसृत केवलधारी, तुमको नित नौति हमारी।। ऊँ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्ला-एकादश्यां केवलज्ञान-प्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।41
वैसाख चतुर्दशि श्यामा, हनि शेष वरी शिव वामा। सम्मेद थकी भगवन्ता, हम पूजें सुगुन अनन्ता। ऊँ ह्रीं वैशाखकृष्णा-चतुर्दश्यां मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।51
जयमाला
(दोहा) आयु सहस दस वर्ष की, हेम-वरन तनसार।
धनुष पंचदश तुंग तन, महिमा अपरम्पार।।1।। जय-जय-जय नमिनाथ कृपाला, अरिकुल गहन दहन दवज्वाला। जय-जय धरम-पयोधर धीरा, जय भव-भंजन गुन-गम्भीरा।।2।।
जय-जय परमानन्द गुनधारी, विश्व-विलोकन जनहितकारी।
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अशरन - शरन उदार जिनेशा, जय-जय समवशरण आवेशा || 3 || जय-जय केवलज्ञान-प्रकाशी, जयचतुरानन हनि भवफांसी। जय त्रिभुवनहित उद्यमवंता, जय जय जय जय नमि भगवंता ॥4॥ जैतु सप्त तत्त्व दरशायो, तास सुनत भवि निज-रस पायो । एक शुद्ध अनुभव निज भाखे, दो विधि राग-दोष छै आखे॥5॥ दो श्रेणी दो नय दो धर्म, दो प्रमाण आगमगुन शर्मं । ती लोक त्रयोग तिकालं, सल्ल पल्ल त्रय वात बलालं ॥6॥ चार बन्ध संज्ञा गति ध्यानं, आराधन निछेप चउ दानं । पंचलब्धि आचार प्रमादं, बन्धहेतु पैंताले सादं॥7॥ गोलक पंचभव शिव-भौनें, छहों दरब सम्यक अनुकौने । हानि - वृद्धि तप समय समेता, सप्तभंग - वानी के नेता ॥ 8 ॥ संयम समुद्धात भय सारा, आठ करम मद सिध-गुन धारा । नवों लबधि नवतत्त्व प्रकाशे, नोकषाय हरि तूप हुलाशे ॥9॥
दशों बन्धके मूल नशये, यों इन आदि सकल दरशाये। फेर विहरि जगजन उद्धारे, जय-जय ज्ञान - दरश अविकारे॥10॥ जय वीरज जय सूक्षमवन्ता, जय अवगाहन गुण वरनंता। जय-जय अगुरु लघू निरबाधा, इन गुनजुत तुम शिवसुख साधा।।11।। कहत के गनधारी, तौ को समरथ कहे प्रचारी । तातैं मैं अब शरनें आया, भवदुख मोटि देहु शिवराया || 12 बार-बार यह अरज हमारी, हे त्रिपुरारी हे शिवकारी | पर-परणति को वेगि मिटावो, सहजानन्द स्वरूप भिटावो ॥13॥ वृन्दावन जाँचत शिरनाई, तुम मम उर निवसो जिनराई । जबलों शिव नहिं पावों सारा, तबलों यही मनोरथ म्याहा ॥14॥
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(धत्तानन्द छन्द) जय-जय नमिनाथं हो शिवसाथं, और अनाथके नाथ सदं। ठातें शिर नायौ, भगति बढ़ायो, चिह्न चिह्न-शतपत्र पद।।15।। ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय जयमाला-महाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा श्रीनमिनाथ तने जुगल, चरन जजें जो जीव। सो सुर-नर सुख भोगकर, होवें शिवतिय पीव।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री नेमिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन)
(छंद लक्ष्मी तथा अर्द्धलक्ष्मीधरा) जैतिजै जैतिजै जैतिजै नेम की, धर्म-औतार दातार श्योचैन की। श्री शिवानंद भौफंद निःकन्द, ध्यावै जिन्हें इन्द्र नागेन्द्र औ मैन-की।।
परमकल्यान के देनहारे तुम्ही, देव हो एव तातें करौं ऐन-की। थापि हौ वार ते शुद्ध उच्चार कें, शुद्धताधार भो-पार कू लेन-की।। ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
___ ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
अष्टक (चाल होली) दाता मोक्षके, नेमिनाथ जिनराय, दाता॥टेक।। गंग-नदी कुश प्राशुक लीनो, कंचन-भुंग भराय। मन-वच-तनतें धार देत ही, सकल कलंक नशाय।।
दाता मोक्षके, नेमिनाथ जिनराय, दाता मोक्षके।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
हरिचन्दन-जुत कदलीनन्दन, कुंकुम संग घिसाय। विघनताप-नाशन के कारन, जजौं तिहारे पाय।।
दाता मोक्षके, नेमिनाथ जिनराय, दाता मोक्षके।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय भवाताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
पुण्यराशि तुम जस-सम उज्ज्वल, तंदुल शुद्ध मंगाय। अखय-सौख्य भोगन के कारन, पुंज धरौं गुनगाय।।
दाता मोक्षके, नेमिनाथ जिनराय, दाता मोक्षके।। ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।।
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पुण्डरीक सुरद्रुम करनादिक, सुमन सुगंधित लाय। दर्पक मनमथ-भंजनकारन, जजहुँ चरन लवलाय।।
दाता मोक्षके, नेमिनाथ जिनराय, दाता मोक्षके।। ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
घेवर बावर खाजे साजे, ताजे तुरत मँगाय। क्षुधा-वेदनी नाश करन को, जजहुँ चरन उमगाय।।
दाता मोक्षके, नेमिनाथ जिनराय, दाता मोक्षके।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय क्षुधाराग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
कनक-दीप नवनीत पूरकर, उज्ज्वल-जोति जगाय। तिमिर-मोह-नाशक तुमकों लखि, जजहुँ चरन हुलसाय।।
दाता मोक्षके, नेमिनाथ जिनराय, दाता मोक्षके।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
दशविध गंध मँगाय मनोहर, गुंजत अलिगन आय। दशो बंध जारन के कारन, खेवौं तुम-ढिंग लाय।।
दाता मोक्षके, नेमिनाथ जिनराय, दाता मोक्षके।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
सुरस वरन रसना मनभावन, पावन फल सु मंगाय। मोक्ष-महाफल कारन पूजौं, हे जिनवर तुम पाय।।
दाता मोक्षके, नेमिनाथ जिनराय, दाता मोक्षके।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
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जल फल आदि साज शुचि लीने, आठों दरब मिलाय। अष्ठम छिति के राज करनको, जजौं अंग वसु नाय।।
दाता मोक्षके, नेमिनाथ जिनराय, दाता मोक्षके।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।9।
पंचकल्याणक (पाइता छंद) सित कातिक छट्ठ अमंदा, गरभागम आनन्दकन्दा।
शचि सेय शिवा-पद आई, हम पूजत मनवचकाई।। ऊँ ह्रीं कार्तिकशुक्ला-षष्टयां गर्भमंगल-प्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।।।
सित सावन छट्ठ अमन्दा, जनमे त्रिभुवन के चन्दा।
पितु-समुद महासुख पायो, हम पूजत विघन नशायो।। ॐ ह्रीं श्रावणशुक्ला-षष्ट्यां जन्ममंगल-प्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।2।
तजि राजमती व्रत लीनो, सित सावन छट्ठ प्रवीनो।
शिवनारी तबै हरषाई, हम पूर्जे पद शिरनाई।।। ऊँ ह्रीं श्रावणशुक्ला-षष्ट्यां तपोमंगल-प्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
सित आश्विन एकम चूरे, चारों घाती अति करे।
लहि केवल महिमा सारा, हम पूर्जे अष्ट प्रकारा।। ऊँ ह्रीं आश्विनशुक्ल प्रतिपदि केवलज्ञान-प्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।4।
सित षाढ़ सप्तमी चूरे, चारों अघातिया करे।
शिव ऊर्जयन्ततें पाई, हम पूर्जे ध्यान लगाई।। ऊँ ह्रीं आषाढशुक्ला-सप्तम्यां मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।51
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जयमाला (दोहा)
श्याम छवी तनु चाप दश, उन्नत गुननिधि-धाम । शंख-चिह्न पद में निरखि, पुनि-पुनि करों प्रनाम।। 1 । (पद्धरी छंद)
जै जै जै नेमि जिनिंद चन्द, पितु-समुद देन आनन्दकन्द। शिवमात-कुमुद-मनमोददाय, भविवृन्द-चकोर सुखी कराय।।2।
जयदेव अपूरव मारतंड, तुम कीन ब्रह्मसुत सहस खंड | शिवतिय-मुख-जलज-विकाशनेश, नहिं रहो सृष्टि मेंतम अशे॥3॥ भविभीत-कोक कीनों अशोक, शिवमग दरशयो शर्म थोक जै जै जै जै तुम गुनगंभीर, तुम आगम - निपुन पुनीत धीर।4। तुम केवलजोति-विराजमान, जै जै जै जै करुना निधान । तुम समवसरन में तत्त्वभेद, दरशायो जातें नशत खेद || 5 || तित तुमको हरि आनंदधार, पूजत भगतीजुत बहु-प्रकार। पुनि गद्य-पद्यमय सुजस गाय, जै बल - अनंत गुनवंतराय।।6।। जय शिवशंकर ब्रह्मा महेश, जय बुद्ध विधाता विष्णुवेष | जय कुमति-मतंगन को मृगेंद्र, जय मदन-ध्वांतकों रवि जिनेंद्र || 7 | जय कृपासिंधु अविरुद्ध बुद्ध, जय रिद्धि-सिद्धि - दाता प्रबुद्ध जय जगजन-मन-रंजन महान, जय भवसागर मँह सुष्टु यान ॥ 8 ॥ भगति करें ते धन्य जीव, ते पावैं दिव शिवपद सदीव ।
देव विविध प्रकार, गावत नित किन्नर की जु नार||9|| वर भगत माहिं लवलीन होय, नाचें ताथेई थेईथेई बहो ।
मैं
तुम करुणासागर सृष्टिपाल, अब मोकों वेगि करो निहाल ॥10॥ दुख अनंत वसु-करम-जोग, भोगे सदीप नहिं और रोग। तुमकों जगमें जान्यो दयाल, हो वीतराग गुन रतन - माल।।11।। तातें शरना अब गही आय, प्रभु करो वेग मेरी सहाय। यह विघन-करम मम खंड-खंड, मनवांछित कारज मंड-मंड || 12 ||
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संसार-कष्ट चकचूर चूर, सहजानन्द मम उर पूर पूर। निज-पर-प्रकाश-बुधि देइ देइ, तजिके विलंब सुधि लेइ लेइ॥13॥
हम जांचत हैं यह बार-बार, भवसागरतें मो तार-तार। नहिं सह्यो जात यह जगत दुःख, तातें विनवौं हे सुगुन-मुक्ख।।14।।
घतानन्द श्रीनेमिकुमारं जितमदमारं, शीलागारं, सुखकारं। भव-भय-हरतारं, शिव-करतारं, दातारं धर्माधारं।।15।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय जयमाला-महायँ निर्वपामीति स्वाहा।
(मालिनी) सुख धन जस सिद्धी पुत्र पौत्रादि वृद्धी।। सकल मनसि सिद्धी होतु है ताहि रिद्धी।। जजत हरषधारी नेमि को जो अगारी।। अनुक्रम अरि जारी सो वरे मोक्षनारी।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।
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श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री वृन्दावन)
प्रनत-देवलोक तें आये, वामादे-उर जगदाधार। विश्वसेन-सुत नुत-हरिहर हरि-अंक हरित-तन सुखदातार।। जरत नाग-जुग बोधि दियो जिहिं, भुवनेसुरपद परमउदार।
ऐसे पारसको तजि आरस, थापि सुधारस-हेत विचार।1 ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजि नेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
सुर-दीरधि सों जल-कुम्भ भरों, तुव पादपद्यतर धार करों।
सुखदाय पाय यह सेवत हौं, प्रभुपाशर्व पार्श्वगुन सेवत हौं।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।
हरिगंध कुंकुम कर्पूर घसों, हरि-चिह्न हेरि अरचें सरसों।
सुखदाय पाय यह सेवत हौं, प्रभुपार्श्व पार्श्वगुन सेवत हौं।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय भवाताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
हिम हीर नीर जस मान शुचं, वरपुंज तंदुल तवाग्र मुचं।
सुखदाय पाय यह सेवत हौं, प्रभुपार्श्व पार्श्वगुन सेवत हौं।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।।
कमलादिपुष्प धनुपुष्प धरी, मदभंजन-हेत ढिग पुंज करी।
सुखदाय पाय यह सेवत हौं, प्रभुपार्श्व पार्श्वगुन सेवत हौं।। ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
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चरु नव्य गव्य रस सार करों, धरि पादपद्मतर मोद भरों।
सुखदाय पाय यह सेवत हौं, प्रभुपार्श्व पार्श्वगुन सेवत हौं।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
मणि दीप जोति, जगमग्ग मई, ढिग धारतें स्वपरबोध ठई।
सुखदाय पाय यह सेवत हौं, प्रभुपार्श्व पार्श्वगुन सेवत हौं।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
दश-गंध खेय मन माचत हैं, वह धूम धूम-मिसि नाचत है।
सुखदाय पाय यह सेवत हौं, प्रभुपार्श्व पार्श्वगुन सेवत हौं।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
फल पक्व शुद्ध रसजुक्त लिया, पदकंज पूजिहौं खोलि हिय।
सुखदाय पाय यह सेवत हौं, प्रभुपार्श्व पार्श्वगुन सेवत हौं।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
जल आदि साजि सब द्रव्य लिया, कनथार धार नुतनृत्य किया।
सुखदाय पाय यह सेवत हौं, प्रभुपार्श्व पार्श्वगुन सेवत हौं।। ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक पक्ष वैशाखकी श्याम दूजी भनो, गर्भकल्यान को द्यौस सोही गनों।
देव-देवेन्द्र श्रीमातु सेवें सदा, मैं जजौं नित्य ज्यों विघ्न होवे विदा।। ऊँ ह्रीं वैशाखकृष्णा-द्वितीयायां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।।
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पौषकी श्याम एकादशी को स्वजी, जन्मलीनों जगन्नाथ धर्मध्वजी।
नाग-नागेन्द्र नागेन्द्र पै पूजिया, मैं जजों ध्यायकें भक्ति धारों हिया।। ऊँ ह्रीं पौषकृष्णा-एकादश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।
कृष्णएकादशी पौषकी पावनी, राजको त्याग वैराग धर्यो वनी।
ध्यान चिद्रपको ध्याय साता मई, आपको मैं जजों भक्ति भावे लई। ऊँ ह्रीं पौषकृष्णा-एकादश्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।3।
चैतकी चौथि श्यामा महाभावनी, ता दिना घातिया घाति शोभा बनी।
बाह्य आभ्यन्तरे छन्द लक्ष्मीधरा, जयति सर्वज्ञ मैं पादसेवा करा॥ ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-चतुर्थ्यां केवलज्ञान-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।4।
सप्तमी शुद्ध शोभे महासावनी, ता दिना मोच्छ पायो महापावनी।
शैलसम्मेदतें सिद्ध राज भये, आपकों पूजतें सिद्ध काजा ठये।। ॐ ह्रीं श्रावणशुक्ला-सप्तम्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।5।
जयमाला पार्श्व पर्म-गुनराशि है, पार्श्व कर्म-हरतार। पार्श्व शर्म-निजवास दो, पार्श्व धर्म-धरतार।।1।। नगर-बनारसि जन्म लिय, वंश-इक्ष्वाकु महान।
आयु बरष-शत तुंग नव, हस्त सुनो परमान।।2।। जय श्रीधर श्रीकर श्रीजिनेश, तुव गुणगण फणि गावत अशेष। जय-जय-जय आनन्द-कन्द चन्द, जय-जय भवि-पंकज को दिनन्द।।3।।
जय-जय शिवतिय बल्लभ महेश, जय ब्रह्मा शिवशंकर गनेश। जय स्वच्छ चिदंग अनंगजीत, तुम ध्यावत मुनिगण सुहृद मीत।4।।
जय गरभागम-मंडित महंत, जग जनमन-मोदन परम सन्त। जय जनम-महोच्छव सुखद धार, भवि-सारंग को जलधर उदार।।5।
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हरि गिरिवर पर अभिषेक कीन, झट तांडव निरत अरंभ दीन। बाजन बाजत अनहद अपार, को पार लहत वरणत अवार।।6।।
दृमदृम दृमदृम दृम दृम मृदंग, घनन नननन घण्टा अभंग। छमछम छमछम छम छुद्र घण्ट, टमटम टमटम टंकोर तंट।।7।।
झननन झननन नूपुर झंकोर, तननन तननन नन तान शोर। सननन नननन गगन मांहिं, फिरि फिरि फिरि फिरि फिरिकी लहांहि।।8।।
ताथेइ थेइ थेइ थेइ धरत पाव, चटपट अटपट झट त्रिदशराव।
करके सहस्र करको पसार, बहुभांति दिखावत भाव प्यार।।9।। निज-भगति प्रगट जित करत इन्द्र, ताकों क्या कहिं सकि है कविन्द्र। जहँ रंगभूमि गिरि राज पर्म, अरु सभा ईस तुम देव शर्म।।10।
अरु नाचत मघवा भगति रूप, बाजे किन्नर बज्जत अनूप। सो देखत ही छवि बनत वृन्द, मुखसों कैसे वरनै अमन्द।।11।।
धन घडी सोय धन देव आप, धन तीर्थंकर प्रकति प्रताप। हम तुमको देखत नयन-द्वार, मनु आज भये भवसिन्धु पार।।12।।
पुनि पिता सौंपि हरि स्वर्गजाय, तुम सुखसमाज भोग्यौ जिनाय। फिर तप धरि केवलज्ञान पाय, धरमोपदेश दे शिव सिधाय।।13।। __ हम सरणागत आये अबार, हे कृपासिन्धु गुण-अमलधार। मो मनमें तिष्ठहु सदाकाल, जबलो न लहों शिवपुर रसाल।।14।। __ निरवाण-थान सम्मेद जाय वृन्दावन वंदत शीस-नाय। तु ही सब दुख-दंद-हरण, तातें पकरी यह चरण-शरण।।15।
घतानंद जय-जय सुखसागर, त्रिभुवन-आगर, सुजस-उजागर, पार्श्वपती। वृन्दावन ध्यावत, पूज रचावत, शिवथल पावत शर्म अती।।16।।
ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
पारसनाथ अनाथनिके हित, दारिदगिरिकों वज्रसमान। सुखसागर-वर्द्धन को शशिसम, दव-कषायको मेघमहान।।
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तिनको पूजे जो भविप्रानी, पाठ पढ़े अतिआनन्द आन। सो पावे मनवांछित सुख सब, और लहे अनुक्रमनिरवान।।17।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।
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श्री महावीर जिन-पूजा (रचयिता - वृन्दावनदास)
अथ स्थापना - मत्तगयन्द छन्द श्रीमत वीर हरें भव-पीर, भरें सुख-सीर अनाकुलताई, केहरि-अंक अरीकरदंक, नये हरि-पंकति-मौलि सुआई। मैं तुमको इत थापतु हौं प्रभु, भक्ति समेत हिये हरषाई,
हे करुणा-धन-धारक देव इहाँ अब तिष्ठहुँ शीघ्रहि आई ॥ ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम्) ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (सन्निधिकरणम्)
अष्टक
क्षीरोदधि सम शुचि नीर, कंचन-भंग भरों, प्रभु वेग हरो भव-पीर, यातें धार करों। श्रीवीर महा अतिवीर सन्मति नायक हो,
जय वर्द्धमान गुण-धीर सन्मति-दायक हो ॥ ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
मलयागिर-चन्दन सार, केशर-संग घसौं । प्रभु भव-आताप निवार, पूजत हिय हुलसौं ॥
श्रीवीर महा अतिवीर सन्मति नायक हो,
जय वर्द्धमान गुण-धीर सन्मति-दायक हो ॥ ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।
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तन्दुल सित शशि-सम शुद्ध, लीनों थार भरी । तसु पुंज धरों अविरुद्ध, पावों शिव-नगरी ॥
श्रीवीर महा अतिवीर सन्मति नायक हो,
जय वर्द्धमान गुण-धीर सन्मति-दायक हो । ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
सुरतरु के सुमन समेत, सुमन सुमन प्यारे ।
सो मन्मथ-भंजन हेत, पूजौं पद थारे । श्रीवीर महा अतिवीर सन्मति नायक हो,
जय वर्द्धमान गुण-धीर सन्मति-दायक हो । ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पाणि निर्वपामीति स्वाहा।
रस-रज्जत सज्जत सद्य, मज्जत थार भरी।
पद जज्जत रज्जत अद्य, भज्जत भूख-अरी ॥
श्रीवीर महा अतिवीर सन्मति नायक हो,
जय वर्द्धमान गुण-धीर सन्मति-दायक हो । ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
तम-खण्डित मण्डित-नेह, दीपक जोवत हों। तुम पदतर हे सुख-गेह, भ्रम-तम खोवत हों ॥
श्रीवीर महा अतिवीर सन्मति नायक हो,
जय वर्द्धमान गुण-धीर सन्मति-दायक हो । ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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हरिचन्दन अगर कपूर, चूर सुगन्ध करा । तुम पदतर खेवत भूरि, आठों कर्म जरा ॥
श्रीवीर महा अतिवीर सन्मति नायक हो,
जय वर्द्धमान गुण-धीर सन्मति-दायक हो । ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
ऋतुफल कलवर्जित लाय, कंचन-थार भरों । शिव-फल-हित हे जिनराय, तुम ढिंग भेंट धरों॥
श्रीवीर महा अतिवीर सन्मति नायक हो,
जय वर्द्धमान गुण-धीर सन्मति-दायक हो ॥ ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जलफल वसु सजि हिमथार,तन-मनमोद धरों। गुण गाऊँ भव-दधि तार, पूजत पाप-हरों ॥
श्रीवीर महा अतिवीर सन्मति नायक हो,
जय वर्द्धमान गुण-धीर सन्मति-दायक हो ॥ ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
पञ्चकल्याणक - राग टप्पा चाल मोहि राखो हो सरना, श्रीमहावीर जिनरायजी, मोहि राखो हो सरना । गरभ साढ़ सित छट्ठ लियो थिति, त्रिशला उर अघ-हरना।
सुर सुरपति तित सेव करें नित, मैं पूजों भव-तरना।। मोहि राखो हो सरना, श्रीमहावीर जिनरायजी, मोहि राखो हो सरना ॥ ॐ ह्रीं आषाढशुक्लषष्ठयां गर्भकल्याणकप्राप्ताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
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जनम चैत सित तेरस के दिन, कुण्डलपुर कन वरना।
सुरगिरि सुरगुरु पूज रचायो, मैं पूजों भव-हरना । मोहि राखो हो सरना, श्रीमहावीर जिनरायजी, मोहि राखो हो सरना । ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लत्रयोदश्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
मगसिर असित मनोहर दशमी, तादिन तप आचरना ।
नृप-कुमार घर पारन कीनों, मैं पूजों तुम चरना ॥ मोहि राखो हो सरना, श्रीमहावीर जिनरायजी, मोहि राखो हो सरना ॥ ॐ ह्रीं मार्गशीर्षकृष्णदशम्यां तपःकल्याणकप्राप्ताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
शुकलदशैं वैशाख दिवस अरि, घातिचतुक छयकरना
केवल लहि भवि भव-सर तारे, जजों चरन सुख भरना ॥
मोहि राखो हो सरना, श्रीमहावीर जिनरायजी, मोहि राखो हो सरना । ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लदशम्यां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
कार्तिक श्यामअमावस शिवतिय, पावापुर तें वरना।
गनफनिवृन्द जसैं तित बहुविधि, मैं पूजों भयहरना ॥ __ मोहि राखो हो सरना, श्रीमहावीर जिनरायजी, मोहि राखो हो सरना ॥ ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णामावस्यायां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
छन्द हरिगीता, २८ मात्रा गनधर असनिधर, चक्रधर, हलधर गदाधर वरवदा, अरु चापधर विद्यासुधर, तिरसूलधर सेवहिं सदा । दुख हरन आनन्द-भरन तारन, तरन चरन रसाल हैं, सुकुमाल गुन-मनिमाल उन्नत, भाल की जयमाल है ॥
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छन्द घत्तानन्द जय त्रिशला नन्दन, हरिकृत वन्दन, जगदानन्द चन्दवरं । भवतापनिकन्दन, तन कन मन्दन, रहितसपन्दन नयनधरं ॥
छन्द तोटक जय केवल-भानु कलासदनं, भवि-कोक-विकासनकंज-वनं । जग-जीत-महारिपु-मोह-हरं, रज-ज्ञान-दृगांवर चूर-करं ॥१॥
गर्भादिक-मंगल-मण्डित हो, दुख-दारिद को नित खण्डित हो। जग माहिं तुम्हीं सत-पण्डित हो, तुम ही भव-भाव विहण्डित हो ॥२॥
हरिवंश-सरोजन को रवि हो, बलवन्त महन्त तुम्हीं कवि हो । लहि केवल धर्म-प्रकाश कियो, अबलों सोइ मारग राजति यो ॥३॥
पुनि आप तने गुन माँहिं सही, सुर मग्न रहैं जितने सब ही। तिनकी वनिता गुन गावत हैं, लय माननि सौं मन -भावत हैं ॥४॥
पुनि नाचत रंग उमंग भरी, तुअ भक्ति विर्षे पग येम धरी । झननं झननं झननं झननं, सुर लेत तहाँ तननं तननं ॥५॥
घननं घननं घन घण्ट बजै, दृमदं, दृमदं मिरदंग सजै । गगनांगन-गर्भगता सुगता, ततता ततता अतता वितता ॥६॥ धृगतां धृगतां गति बाजत है, सुरताल रसाल जु छाजत है। सननं सननं सननं नभ में, इक रूप अनेक जु धारि भ्रमें ॥७॥ कई नारि सुबीन बजावति हैं, तुमरो जस उज्ज्वल गावति हैं। कर-ताल विर्षे करताल धरें, सुरताल विशाल जु नाद करें ॥८ ॥
इन आदि अनेक उछाह भरी, सुर भक्ति करें प्रभु जी तुमरी । तुम ही जग-जीवन के पितु हो, तुम ही बिन कारन ते हितु हो ॥९ ॥
तुम ही सब विघ्न-विनाशन हो, तुम ही निज आनन्द-भासन हो । तुम ही चित चिन्तित-दायक हो, जगमाँहिं तुम्हीं सब लायक हो ॥
तुमरे पन मंगल माँहिं सही, जिय उत्तम पुन्न लियो सब ही। हम तो तुमरी सरनागत है, तुमरे गुन में मन पागत है ॥११॥
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प्रभु मो हिय आप सदा बसिये, जब लों वसु कर्म नहीं नसिये । तब लों तुम ध्यान हिये वरतो, तब लों श्रुत चिन्तन चित्त रतो ।
तब लों व्रत चारित चाहतु हों, तब लों शुभ भाव सुगाहतु हों। तब लों सत-संगति नित्त रहो, तब लों मम संजम चित्त गहो ॥१३ ॥
जब लों नहिं नाश करौं अरि को, शिव-नारि वरौं समता धरि को। यह द्यो तब लों हमको जिन जी, हम जाचतु हैं इतनी सुन जी ॥१४॥
घत्तानन्द श्रीवीर-जिनेशा नमित-सुरेशा, नाग-नरेशा भगति भरा । वृन्दावन ध्यावै विघन नशावै, वांछित पावै शर्म-वरा ॥ ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय पूर्णाघु निर्वपामीति स्वाहा ।
दोहा
श्री सनमति के जुगल पद, जो पूजै धरि प्रीति । वृन्दावन सो चतुर नर, लहै मुक्ति नवनीत ॥
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री आदिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी)
(अडिल्ल)
सुषम दुषम तिथि मेटि कर्मभू थापि ही, नृपपद तजि वैराग्य भये प्रभु आप ही। ऐसे आदि जिनेस आदि तीर्थंकरा, आह्वानन विधि करूँ विविध नमिकें खरा।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
(गीता छन्द) विमल नीर मनोग्य शीतल, सरद शशि सम स्वेत ही।
आमोद मिश्रित हिमन उद्भव, रवै मधु कर प्रीत ही।। जरमरण सम्भव नाश कारण, कनक भाजन लेय ही।
श्री आदिनाथ जिनेन्द्र के, गुण चरण चरचूं धेय ही।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
उद्यान आश्रित नीव अमिली, आदि तरु कटु मिष्ट ही।
गो सीर गन्ध समीरनै लगि होय चन्दन सुष्ट ही।। सो मलयजा काश्मीर घसि, भवताप नाशन लेय ही।।
श्री आदिनाथ जिनेन्द्र के, गुण चरण चरचूं धेय ही।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
सरिता गंगा नीर सींची, सालि सुभग सुहावनी। नृप भोग जोग्य मनोग्य पिण्डन, सरल डिंडी पावनी।। पद अखै कारण क्षालि जलतें, पुंज पंच करेय ही।
श्री आदिनाथ जिनेन्द्र के, गुण चरण चरचूं धेय ही।। ॐ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।31
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मन्दारु मेरु सुपारिजाती, सुमन वर्ण सुहावने। चंचरीक ध्यावै पवन परसै, चक्षुकू रलियावने।। सो कामवाण विध्वंस कारण, कनक भाजन लेय ही।
श्री आदिनाथ जिनेन्द्र के, गुण चरण चरचूं धेय ही।। ॐ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
सुरभि घृत पकवान सुन्दर, सद्य विविध बनाय ही। दीप्ति रस धरि स्वर्ण भाजन, लखे मन ललचाय ही।।
सो क्षुधा भंजन रसन रंजन, चारु चरु चखुप्रेय ही।
श्री आदिनाथ जिनेन्द्र के, गुण चरण चरचूं धेय ही।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
त्रैलोक के उतपाद व्यय ध्रुव, समै एक लखाय ही। तम मोह पटल बिलाय ज्यों, घन पवननै नसि जाय ही।।
सो ज्ञान कारण दीप मणिमय, तेज भास्कर लेय ही।
श्री आदिनाथ जिनेन्द्र के, गुण चरण चरचूं धेय ही। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
अगर संग हुतास धारै, सुरभितैं मधु धाव ही। व्रत धूम्र लखि दिग्पाल चिन्तै, नील क्षितधर आव ही।। सो अष्ट कर्म विध्वंस कारण, मलय चन्दन खेय ही।
श्री आदिनाथ जिनेन्द्र के, गुण चरण चरचूं धेय ही।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
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मधुर पक्क फलौघ सुन्दर, ललित वर्ण सुहावनै।
सुखदाय लोचन क्षुधा मोचन, घ्राणरंजन पावनै।। फल मुक्ति कारण अमर तरु के, थाल भरि करि लेय ही।
श्री आदिनाथ जिनेन्द्र के, गुण चरण चरचूं धेय ही।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय मोक्षमहाफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।।
नीर गन्ध इत्यादि वसुविधि, अर्घ करि पद जिन तनै। जो पूजि ध्यावें वन्दि सतवें, ठानि उत्सव अति घनै।।
सुर होय चक्री काम हलधर, तीर्थ पद की श्रेय ही।
सुख रामचन्द्र लहन्ति शिव के, आदि जिनवर धेय ही।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।9।
पंचकल्याणक (चौपाई)
तजि सरवारथ सिद्धि विमान, दोयज साढ असित भगवान।
मरुदेव्या उर में अवतार लयो जजू गुणचित अविकार।।1।। ॐ ह्रीं आषाढकृष्णा-द्वितीयायां गर्भकल्याणक-प्राप्ताय श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
नौमी चैत असित जन्मये, आसन कम्प सुरनि के थये।
पूजे सुर गिरि सनपन ठानि, वृषभनाथ पूजू धरि ध्यान।।2।। ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-नवम्यां जन्मकल्याणक-प्राप्ताय श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
सत सुत जुग जिय कन्या दोय, तजि उपाधि सब मुनिवर होय।
___ ध्यान धरयो नौ चैत असेत, पूजे मैं पूजू शिव हेत।।3।। ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-नवम्यां तपकल्याणक-प्राप्ताय श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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फागुन असित इकादसि ज्ञान, उपज्यो धर्म कह्यो भगवान।
चतुर निकाय देव नर-नारि, पूजे मैं पूजूं भव तारि।।4।। ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-एकादश्यां ज्ञानकल्याणक-प्राप्ताय श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
माघ असित चौदसि विधि सेन, हने मोक्ष पायी शिव दैन।
सुर नर खग कैलाश सु थान, पूजे मैं पूनँ धरि ध्यान।।5।। ऊँ ह्रीं माघकृष्णा-चतुर्दश्यां मोक्षमंगल-मण्डिताय श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला (अडिल्ल)
आदि जिनेश्वर आदि लब्धि केवलमई, समोशरण धनदेव रच्यौ को बरनई। द्वादश जोजन ठीक महाशोभा धरै, बीस सहस सोपान सुरासुर जै करें।
जय धूप साल पण रतन चूर, ढिग मानसथम्भ उद्योत सूर। चउवापी मधि अम्बुज सुहाय, लखि मानी को मद भंग थाय।।1।। जय खाई मधि नीरज मराल, वन कल्पलता बहु कुसुम जाल। प्राकार रतनमय तेज मान, चउ गोपुर प्रति द्वै धूप दान।।2।। सत सात तोरण द्वै नाट साल, सुरतिय गावें जिन गुण विशाल। वन सुरतरु चैत्य अशोक आम, धुज वरण-वरणा वन सर्व ठाम।।3।।
चामीकर वेदी चऊ दुवार, वन च्यारि फेरी शोभा अपार। कलधौत सार दूजो उतंग, चव गोपुर पूरव उत सुचंग।।4।।
चउ वन वेदी वन चार-चार, कहुँ नन्दी परवत गेह सार। सिद्धारथ द्रुम मनहर सरूप, जिन बिम्बांकित बहुत पुनि सरूप।।5।।
कहुँ लता भवन गावै कल्यान, बहु बाजै बीन मृदंग तान। नाचें किन्नर गन्धर्व गीत, जिन गुण गावें अपछर संगीत।।6।। __ सब द्वारपाल कर गदा नूप, कर जोर चले सुर खचर भूप। फिरि फटिक कोट शोभा अमान, चऊ गोपुर मंगल द्रव्य जान।।7।
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मधि सभा बनी द्वादश अनूप, सित चन्द्रकान्ति मणि को सु तूप
गन्धकुटी आमोद सार, धुज शिखर कलश उद्योत का ॥ 8 ॥ जय आदि पीठ षोडश सिवान, मनु षोडश भावन के निधन जय दुतयि पीठ वसु गुण चढ़ाय, जय तृतीय पीठ वसु भव लखाय॥9॥ जय सिंहपीठ परि कंवल सार, जिन अन्तरीक्ष आनन सुच्यार । जय भामण्डल छवि कोटि फान, अरू छत्र तीन तैं शीश लजान॥10॥ जय तरु अशोक शोक दूर, जख चवर करें चउसठि हजूर । है मागधि भाषा कोस च्यार, सुर पुष्प वृष्टि शोभा अपार।।11।। नभ दुन्दभि बाजै अति गंभीर, अध द्वादश कोटिन शब्द भीर। सुर असुर करें जय नन्द-नन्द, चालै समीर अति मन्द मन्द।।12।। जय देव नन्त चतुष्ट धार, दरसन सुख वीरज ज्ञान सार। जय तीन काल ध्वनि दिव्य होय, सुनि समझि जाय दस प्राण सोय॥13॥ भू दर्पण सम कंटक न कोय, षट् ऋतु फल फूल सुगन्ध होय। जन्माविरोध प्राणी न रोष, पद कमल रचैं जखि सर्व तोष॥14॥ प्रभु गुण अनन्त भाषे न जांय, मैं अल्प बुद्धि सुरगुरु थकांय। मैं अरज करूँ करि धारि शीश, मुझ तारि-तारि भवतें जगी ॥15॥
घत्ता
इह जिन गुण सारं, अमल अपारं, जो भवि जन कण्ठे धरई । हनि जर-मरणावलि, नासि भवावलि, रामचन्द्र शिवतिय वरई । ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री अजितनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी)
सकल कर्म हनि जिनं शिव खेत मैं, गिरि सम्मेदतें गये तिनां के हेत मैं। आह्वानन संस्थापन अरु सन्निधि करूँ,
मन वच तन करि शुद्ध बार त्रय उच्चरूँ।। ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
(त्रिभंगी छन्द) गंगा सम नीरं, प्रासुक सीरं, कनक रतनमय भुंग भरौं। जर मरण पिपासं, हरि सब त्रासं, मन वच तन त्रय धार करौं।। श्रीअजित जिनेश्वर, पुहमि नरेश्वर, सुर नर खग वन्दित चरणं।
मैं पूजूं ध्याऊँ, गुण गण गाऊँ, शीश नवाऊँ, अघ हरणं।। ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
मलयागर ल्यावै, अगर मिलावै, केसर युत घनसार घसैं। भवताप निवारण, शिव सुख कारण, पूजि जिनेश्वर पाप नसँ।। श्रीअजित जिनेश्वर, पुहमि नरेश्वर, सुर नर खग वन्दित चरणं।
मैं पूनँ ध्याऊँ, गुण गण गाऊँ, शीश नवाऊँ, अघ हरणं।। ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
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तन्दुल सु अखिण्डत, सौरभि मण्डित, मुक्तासम जिनपद आगें।
करि पुंज पियारी, भव भ्रम टारी, लहे अखै पद भय भागें।। श्रीअजित जिनेश्वर, पुहमि नरेश्वर, सुर नर खग वन्दित चरणं।
मैं पूजूं ध्याऊँ, गुण गण गाऊँ, शीश नवाऊँ, अघ हरणं।। ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।3।
देखत ही सोहै, सब मन मोहै, कुसुम कनकमय रतन जड़ा।
सुर नर पशु सारे, काम विदारे, पूजत बाण मनोज उड़ा।। श्रीअजित जिनेश्वर, पुहमि नरेश्वर, सुर नर खग वन्दित चरणं।
मैं पूनँ ध्याऊँ, गुण गण गाऊँ, शीश नवाऊँ, अघ हरणं।। ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
अति मिष्ट मनोहर, घेवर गूजा, फेनी मोदक थाल भरूँ। बहु क्षुधा सतायो, पूजन आयो, हरो वेदना अरज करूँ। श्रीअजित जिनेश्वर, पुहमि नरेश्वर, सुर नर खग वन्दित चरणं।
मैं पूनँ ध्याऊँ, गुण गण गाऊँ, शीश नवाऊँ, अघ हरणं।। ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
धरि कनक रकावी, रतन सु दीपक, जोति ललित करि प्रभु आगै।
सब मोह नसावे, ज्ञान बधावै, लखि आयो पर बुधि भागे।। श्रीअजित जिनेश्वर, पुहमि नरेश्वर, सुर नर खग वन्दित चरणं।
__ मैं पूनँ ध्याऊँ, गुण गण गाऊँ, शीश नवाऊँ, अघ हरणं।। ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
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कृष्णागर लेऊँ, जिन ढिग खेऊँ, गन्ध दसों दिसि धावत हैं। बहु मधुकर आवें, परिमल भावें, कष्ट कर्म जरि जावत हैं।। श्रीअजित जिनेश्वर, पुहमि नरेश्वर, सुर नर खग वन्दित चरणं।
मैं पूजूं ध्याऊँ, गुण गण गाऊँ, शीश नवाऊँ, अघ हरणं।। ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।71
अति मिष्ट मनोहर, नैनन के हर, उत्तम प्रासुक फल लावें। श्रीजिन पद धारे, चउ गति टारे, मोक्ष महाफल लहु पावै।। श्रीअजित जिनेश्वर, पुहमि नरेश्वर, सुर नर खग वन्दित चरणं।
मैं पूनँ ध्याऊँ, गुण गण गाऊँ, शीश नवाऊँ, अघ हरणं।। ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय मोक्षमहाफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
शुभ निरमल, नीरं, गन्ध गहीरं, तन्दुल पहुप सु चरु ल्यावें। पुनि दीपं धूपं, फल सु अनूपं, अरघ राम करि गुण गावें।। श्रीअजित जिनेश्वर, पुहमि नरेश्वर, सुर नर खग वन्दित चरणं।
मैं पूजूं ध्याऊँ, गुण गण गाऊँ, शीश नवाऊँ, अघ हरणं।। ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।9।
पंचकल्याणक
(दोहा) विजय विमान थकी भये, विजया गर्भ मझार।
जेठ अमावसि अवतरे, जनँ भवार्णव तार।।1।। ऊँ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णा-अमवस्यायां गर्भमंगल-मण्डिताय श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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माघ शुकल दशमी
सुरा, जन्म जिनेस निहार ।
सुर
गिरि सनपन करि जजे, मैं पूजूँ पद सार॥2॥ ऊँ ह्रीं माघशुक्ला दशम्यां जन्मकल्याणक-सहिताय श्री अजितनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माघ शुक्ल दशमी धर्यो, तप वन में जिनराय । सुर नर खग पूजा करी, हम पूजैं गुण गाय ॥3॥ ऊँ ह्रीं माघशुक्ला दशम्यां तपोमंगल-मण्डिताय श्री अजितनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पोह शुक्ल एकादशी, केवलज्ञान उपाय । कहो धर्म पद जुग जजे, महाभक्ति उर लाय।।4। ऊँ ह्रीं पौषशुक्ला-एकादश्यां ज्ञानकल्याणक-मण्डिताय श्री अजितनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चैत शुक्ल पंचमि विषै, अष्ट कर्म हनि मोख। अजित सम्मेदाचल थकी, गए जजूँ गुण धोख ॥5॥ ॐ ह्रीं चैत्रशुक्ला-पंचम्यां मोक्षमंगल-मण्डिताय श्री अजितनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला (दोहा)
सकल तत्त्वज्ञायक सुधा, गुण पूरण भगवान। धरम धुरन्धर परम गुरु, नमूं नमूं धरि ध्यान ॥1॥ पद्धडि छन्द
जय जय श्री अजित जिनेस देव, तुम चरण करूँ दिनरैन सेव जय मोक्षपन्थ दातार धीर, जय कर्मसैल - भंजन सुवीर ।। 1 ॥ जय पंच महाव्रत धरन हार, तजि राज्य सबै वन ध्यान धार। जय पंच समिति पालक जिनन्द, त्रय गुप्ति करन वसि धरम कन्द|2|
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धरि ध्यान भए चिद्रूप भूप, गिरि मेरु समानौ अचल रूप। जय घात करम को नास ठान, उपजायो केवलज्ञान भान || 3 ||
तब समवशरण रचना बनाय, हरि हरष्यो मन आनन्द पाय। कुछ करिहों वरणन भक्ति भाय, जिम बोलत है पिक अम्ब खाय ॥ 4 ॥ जय पंच रतनमय धूलसाल, चउ गोपुर मन मोहन विशाल । जय मानसथम्भ सुरंग चंग, लखि मानी नावैं आय अंग || 5 || चउ वापि निर्मल नीर सार, शुभ बोलत जहँ चकवा मरार। जल भरी खातिका गिरद रूप, पुष्पनि की बाड़ी अति अनूप ||6|| शुभ कोट दिपें जिम तेन भान, नृतशाला में गावें कल्यान। पुनि वन शोभा वरणी न जाय, राजत वेदी बहु धुज उड़ाय॥7॥ फिर कोट हेममय सुघरसार, बहु कल्पद्रुम वन शोभकार। नव रतन राशि शोभित उतंग, ऊँचे मन्दिर जहँ बहु सुरंग ॥ 8 ॥ फिर फटिक कोट शोभा अमान, मंगल द्रव्यादिक धूप दान मधि द्वादश बनी सभा अनूप, मुनि सुर नर पशु बैठे सुभूप ॥ 9 ॥
विचि तीन रतनमय तुंग पीठ, वेदी सिंहासन कमल ईठ। जिन अन्तरिक्ष आनन सु चार, धर्मोपदेश दे भव्य तार || 10 सिर छत्र तीन उद्योत कार, तरु है अशोक जन शोक टार । गन्धोद विष्ट जुत पुष्प विष्ट, नभि दुन्दुभि बाजै मिष्ट-मिष्ट।।11।। अति धवल चँवर चैसठ ढुराय, भामण्डल छवि वरणी न जाय। ऐसी विभूति जिनराज देव, नमि-नमि फुनि - फुनि करहों जु सेव॥12॥ (घत्ता)
श्री अजित जिनेसुर, नमत सुरेसुर, पूजे खेचरगण चरणं। नरपति बहु ध्यावें, शिव पद पावें, रामचन्द्रभव भय हरणं ।।13।। ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री सम्भवनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी)
(दोहा)
सम्भव करम हने सबै, शिव सम्मेद” पाय।
आह्वान स्थापन करूँ मम सनिहति भव आय।।1।। ॐ ह्रीं श्रीसम्भवनाथजिन! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्रीसम्भवनाथजिन! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीसम्भवनाथजिन! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
(त्रिभंगी छन्द) मैं तृष्णा सतायो, अति दुख पायो, जल लायो प्रभु तुम आगे। भरि कंचन झारी, घार उतारी, जन्म मृती तत्छिन भाग।।
सम्भव भव तोर्यो, मोह मरोर्यो जोर्यो आतमसों नेहा।
हूँ पूजू, ध्याऊँ, शीश नवाऊँ, तारि-तारि विमल जु केहा।। ऊँ ह्रीं श्रीसम्भवनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
भव ताप सतायो, तुम ढिंग आयो, चन्दन ल्यायो अति सीरा। हो सिद्ध निरञ्जन, भवभय भञ्जन, तुम पूर्जे हरि भव पीरा।।
सम्भव भव तोर्यो, मोह मरोर्यो जोर्यो आतमसों नेहा।
हूँ पूजू, ध्याऊँ, शीश नवाऊँ, तारि-तारि विमल जु केहा।। ऊँ ह्रीं श्रीसम्भवनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
भव वास बसेरा, तोरो मेरा, मैं चेरा तुम गुण गाऊँ। तन्दुल सु अखण्डित, सौरभ मण्डित, पूज करूँ शिव पद पाऊँ।।
सम्भव भव तोर्यो, मोह मरोर्यो जोर्यो आतमसों नेहा।
हूँ पूजू, ध्याऊँ, शीश नवाऊँ, तारि-तारि विमल जु केहा।। ॐ ह्रीं श्रीसम्भवनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
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यो काम महाबल, वसि करि लीनों, हरि हर पृथिवी के सारे। मैं पूजन आयो, प्रासुक लायो, कुसुम मदनसर हरि प्यारे।।
सम्भव भव तोर्यो, मोह मरोर्यो जोर्यो आतमसों नेहा।
हूँ पूजू, ध्याऊँ, शीश नवाऊँ, तारि-तारि विमल जु केहा।। ॐ ह्रीं श्रीसम्भवनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
यह क्षुधा हत्यारी, अति दुखकारी, मोहि सतावत है तातें। वर मोदक ल्यायो, पूजन आयो, हरी वेदना प्रभु यातें।। सम्भव भव तोर्यो, मोह मरोर्यो जोर्यो आतमसों नेहा।
हूँ पूजू, ध्याऊँ, शीश नवाऊँ, तारि-तारि विमल जु केहा।। ॐ ह्रीं श्रीसम्भवनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोह महातम छाय रह्यो, मम ज्ञान हन्यौ, अति दुख दीनो। मणि दीपक ल्यायो, ध्वान्त नसायो पूजत पद चेतन चीनो।।
सम्भव भव तोर्यो, मोह मरोर्यो जोर्यो आतमसों नेहा।
हूँ पूजू, ध्याऊँ, शीश नवाऊँ, तारि-तारि विमल जु केहा।। ऊँ ह्रीं श्रीसम्भवनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
ये दुष्ट जु कर्म बड़े अधर्म, दुःख देवें कबलौं गावें। कृष्णागर धूपं, मलय अनूपं, पद खेवें लहु जरि जावें।। सम्भव भव तोर्यो, मोह मरोर्यो जोर्यो आतमसों नेहा।
हूँ पूजू, ध्याऊँ, शीश नवाऊँ, तारि-तारि विमल जु केहा।। ऊँ ह्रीं श्रीसम्भवनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
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मोक्ष महामग रोक रह्यो, अन्तराय कर्म बल मो रोधा। फल प्रासुक लाऊँ, तोहि चढ़ाऊँ, मोक्ष मिलावो हो बोधा।।
सम्भव भव तोर्यो, मोह मरोर्यो जोर्यो आतमसों नेहा।
हूँ पूजू, ध्याऊँ, शीश नवाऊँ, तारि-तारि विमल जु केहा।। ऊँ ह्रीं श्रीसम्भवनाथजिनेन्द्राय मोक्षमहाफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
शुचि निर्मल नीरं, गन्ध गहीरं, तन्दुल पुष्पं चरु लायो। मणि दीपं धूपं, फल सु अनूपं, अरध रामचन्द्र करि गायो।।
सम्भव भव तोर्यो, मोह मरोर्यो जोर्यो आतमसों नेहा।
हूँ पूजू, ध्याऊँ, शीश नवाऊँ, तारि-तारि विमल जु केहा।। ऊँ ह्रीं श्रीसम्भवनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक (दोहा) फाल्गुन सुदी अष्टमी, चये नव ग्रीवकतै इन्द्र।
सेना दे उर अवतरे, जनूं धर्म के कन्द।।1।। ऊँ ह्रीं फाल्गुन शुक्ला-अष्टम्यां गर्भकल्याणक-प्राप्ताय श्रीसम्भवनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
कातिक सुदी पूनम सुरा, सम्भव सुर गिरि लेय। जन्म महोत्सव करि जजे, हम पूजें गुण ध्येय।।2।। ऊँ ह्रीं कार्तिकशुक्ला-पूर्णिमायां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीसम्भवनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पूनम मगसिर शुकलही, जगतराज्य तजि देव। तप धरि मुनि द्वै वन बसे, जजू चरण वसु भेव।।3।। ऊँ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्ला-पूर्णिमायां तपोमंगल-मंडिताय श्रीसम्भवनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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चौथ असित कार्तिकवि, ध्यान खड्ग गहि वीर। घाति हानि केवल लयो, जजूं ज्ञान हित धीर।।4।। ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णा-चतुर्थ्यां ज्ञानमंगल-मंडिताय श्रीसम्भवनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
चैत शुकल षष्ठी विर्षे, शेष करम निरवार। मोक्षवरांगनपति भये, जजू गुणोध उचार।।5।। ऊँ ह्रीं चैत्रशुक्ला-षष्ठयां मोक्षकल्याणक-मंडिताय श्रीसम्भवनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला (दोहा)
सम्भव निज सम्भव हो, मो सम्भव हरि नाथ। करूँ बिनती सुमरि गुण, नमूं शीश धरि हाथ।।1।।
(अडिल्ल) काल तुर्य गयौ पौण शेष रह्यो पाव ही, उपजे सम्भवनाथ जगत के रावही। माता सेनादेवि जितारि पिता नमू, स्रावस्ती भवथान पूजि अघकू वमू॥1॥
धनुष चारसौ तुंग कनकवपु सोहनो, सठि लख पूरव आयु अश्व चिह्न मोहनो। वंश इक्ष्वाकुसिंगार पूर्व लख तप कियो, घाति कर्म चउजारि ज्ञान केवल लियो।।2।।
समोशरण धनदेव रच्यौ शोभा घनी, ग्यारा योजन बीच एक सत पन गनी। बीच महात्रय पीठ कमलपर जिन लसैं, अन्तरीक्ष मुख चार छत्र शशिकू हँसे।।3।।
चैसठि चँवर जखेश करें अतिही छज, साढा द्वादश कोडि जाति दुन्दुभि बजे। दिव्य धुनि भवि तारे भव” नाथ जी, मोकू भव” तारि देव! गहि हाथजी।।4।।
इह संसार मझारि महादुःख मैं सहूँ, तुमतें छाने नाहि मुख” कहूँ। याते कारज मोहि तुमतें सही, औरनतें कहाकाज शरणि तेरी गही।।5।। तेरो नाम अपार उदधि नवका भली, तेरो नाम उचारि होहि सबही रली।
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तेरो नाम जपन्त उरग द्वै माल ही, तेरो नाम जपन्त सिंह द्वै स्यालही।।6।।
तेरो नाम जपन्त रोग सबही टरै, तेरो नाम जपन्त ऋद्धि घर मैं भरे। तेरो नाम जपन्त ज्वाल जल पेखिये, तेरो नाम जपन्त दुरद मृग देखिये।।7।।
तेरो नाम प्रसाद श्वान सुर थाययो, मो मन मैं तुम नाम भली विधि आइयो। तो अब चिन्ता कोन मोक्षि पन पायस्यौं, सुर पद की कहा बात मुक्ति द्वै चायस्यौं।।8।।
दोहा सम्भव जिनकी थुति इहै, जो पढसी मनलाय।
रामचन्द सुख शिव भले, पावै सहज सुभाय।। ऊँ ह्रीं श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।।
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श्री अभिनन्दन जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी)
(अडिल्ल) घाति हने लहि ज्ञान बोधि भवगिरि ठये, हनि अघाति अभिनन्दन सिवालै थिर भये। आह्वानादि विधि ठानि वारत्रय उच्चरूँ,
सम्बौषट् ठः ठः वषट् त्रयविध करूँ।।1। ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दननाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीअभिनन्दननाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दननाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
(त्रिभंगी छन्द) उत्तम जल प्रासुक, अम सुवासित, गंगादिक हिम तटहारी। तुम पूजन आयो, अति सुख पायो, हरो जनम मृतु दुखकारी।। अभिनन्दन स्वामी अन्तरयामी, अरज सुनो अति दुख पाऊँ।
भव-वास वसेरा, हरि प्रभु मेरा, मैं चेरा तुम गुण गाऊँ।। ऊँ ह्रीं श्रीअभिनन्दननाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ कुंकुम ल्यावै, चन्दन मिलावै, अगर मेलि घनसार घसै।
श्रीजिनवर आगै, पूज रचावै, मोहताप ततकाल नसै।। अभिनन्दन स्वामी अन्तरयामी, अरज सुनो अति दुख पाऊँ।
भव-वास वसेरा, हरि प्रभु मेरा, मैं चेरा तुम गुण गाऊँ।। ऊँ ह्रीं श्रीअभिनन्दननाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
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मुकतासम तन्दुल, अमल अखण्डित, चन्द किरण सम भरि थारी। करि पुञ्ज मनोहर, जिनपद आज, लहौं अखै पद सुखकारी।। अभिनन्दन स्वामी अन्तरयामी, अरज सुनो अति दुख पाऊँ।
भव-वास वसेरा, हरि प्रभु मेरा, मैं चेरा तुम गुण गाऊँ।। ऊँ ह्रीं श्रीअभिनन्दननाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मन्दार जु सुन्दर, कुसुम सुल्या३, गन्धलुब्ध मधुकर आवै। जिनवर पद आगैं, पूज रचावें, समरवाण नसि के जावै।। अभिनन्दन स्वामी अन्तरयामी, अरज सुनो अति दुख पाऊँ।
भव-वास वसेरा, हरि प्रभु मेरा, मैं चेरा तुम गुण गाऊँ।। ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दननाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
नानाविध चरु लै, मिष्ट मनोहर, कनकथाल भरि तुम आगें। पूजन कू ल्यायौ, अति सुख पायो, रोग क्षुधादि सवै भागें।। अभिनन्दन स्वामी अन्तरयामी, अरज सुनो अति दुख पाऊँ।
भव-वास वसेरा, हरि प्रभु मेरा, मैं चेरा तुम गुण गाऊँ।। ऊँ ह्रीं श्रीअभिनन्दननाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुझ मोह सताओ, अति दुख पायो, ज्ञान हो करिकै जोरा। मणिदीप उजारा, तुम ढिंग धारा, हरो तिमिर प्रभुजी मोरा।। अभिनन्दन स्वामी अन्तरयामी, अरज सुनो अति दुख पाऊँ।
भव-वास वसेरा, हरि प्रभु मेरा, मैं चेरा तुम गुण गाऊँ।। ऊँ ह्रीं श्रीअभिनन्दननाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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किसनागर ल्यावें, अगर मिलावें, भरि धूपायन प्रभु आगें। खेये शुभपरिमलतें, मधु आवै, करम जरै निज सुख जागे।। अभिनन्दन स्वामी अन्तरयामी, अरज सुनो अति दुख पाऊँ।
भव-वास वसेरा, हरि प्रभु मेरा, मैं चेरा तुम गुण गाऊँ।। ऊँ ह्रीं श्रीअभिनन्दननाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
फल उत्तम ल्या, प्रासुक मोहन, गन्ध सुगन्धे रसवारे। भरि थाल चढ़ावें, सो फल पावें, मुक्ति महा तरु के प्यारे।। अभिनन्दन स्वामी अन्तरयामी, अरज सुनो अति दुख पाऊँ।
भव-वास वसेरा, हरि प्रभु मेरा, मैं चेरा तुम गुण गाऊँ।। ऊँ ह्रीं श्रीअभिनन्दननाथ जिनेन्द्राय मोक्षमहाफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
करि अर्घ महाजल, गन्ध सु लेकरि, तन्दुल पुष्प सु चरु मेवा। मणि दीप सु धूपं, फल जु अनूपं, रामचन्द फल शिवा सेवा।। अभिनन्दन स्वामी अन्तरयामी, अरज सुनो अति दुख पाऊँ।
भव-वास वसेरा, हरि प्रभु मेरा, मैं चेरा तुम गुण गाऊँ।। ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दननाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
___ पंचकल्याणक (दोहा) अष्टमि सित बैसाख तजि, विजय विमान सुरिन्द। अवतरि गर्भ सिधारया, लयो जजू गुण वृन्द।।1। ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्ला-अष्टम्यां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीअभिनन्दननाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जन्म माघ सुदी द्वादशी, सुरपति लखित इत आय। सनपन करि सुर गिरि जजे, हम जजि हैं गुण गाय।।2।।
ऊँ ह्रीं माघशुक्ला-द्वादश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीअभिनन्दननाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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श्वेत माघ द्वादशि दिना, अभिनन्दन धरि धीर। जगतराज तृणवत् तज्यो, जजू चरण शिवसीर।।3।।
ऊँ ह्रीं माघशुक्ला-द्वादश्यां तपोभूषण-भूषिताय श्रीअभिनन्दननाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पौष शुकल चउदसि हने, घाति करम जिनदेव। कह्यो धर्म केवलि भये, जजू चरण जुग एव।।4।। ऊँ ह्रीं पौषशुक्ला-चतुर्दश्या ज्ञानकल्याण-मंडिताय श्रीअभिनन्दननाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
सित षष्टमि वैशाख सिव, गये शेष हनि कर्म। जजू चरणजुग भक्ति करि, देहु देव निज धर्म।।5।। ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्ला-षष्ठयां मोक्षकल्याणक-मंडिताय श्रीअभिनन्दननाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला (दोहा) अभिनन्दन आनन्द के, दाता जगत विख्याता। करूँ नमन त्रिविधा सदा, मुझ आनन्द करि तात।।1।।
(पद्धरि छन्द) जय अभिनन्दन आनन्द कन्द, जय तात स्वयम्बर धर्मवृन्द। जय देवि सिधारथ उदर सार, अवतार अयोध्यापुर मझार।1। वपु कनक चाप त्रयसै पचास, इक्ष्वाकु व्योममधि रवि उजास। प्रभु पूरव आय पचास लख्य, तप धारि हने चउघाति अख्य।2। केवल उत्सव सुर असुर आय, जय शब्द ठानि कीन्हौं अघाय। समवादि भूमि अद्भुत अपार, रचि थुति आरम्भी इन्द्रसार।3।
रसना सहस्र करिकै भनन्त, तब पार लहैं नहिं गुण अनन्त। मैं अल्प बुद्धि किम करूँ बखान, तुम भक्ति जु प्रेर्यो देव आन।4।
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जय तीन जगत पति के सुनाथ, सुर गुरु नमूं मैं जोरि हाथ। जगस्वामिन के तुम स्वामि देव, जगपूज्यनि के तुम पूज्य एव।5।
तुम ज्ञाता में सर्वज्ञ ईश, तपसिन में तुम पिसी गिरीश। तुम जोगिन में जोगी महन्त, हो परम जिनेश्वर जिन कहन्त।6। जय विश्व उधारण दुख निवार, निरवांछि हितू जग के आधार। जय अक्षय श्रीराजित अपार, निरग्रन्थ महा भुवि के मझार।7। जब सची आदि करि सेव्य पांय, मैं स्तवू महान ब्रह्म-चारणाय। तुम सकल द्रव्य परजय लखान, जगपतहिं चख्य निर्मुक्ति ज्ञान।8।
तुम दरसन रविकरि तम अज्ञान, जुत पाप नसै प्रगटे कल्यान। हूँ नमूं चरण जुग जोरि पान, गणसिन्धु शरण तुम नाहि आन।9। हूँ धन्य भयो तुम निकट आय, मो जीतव धनि तुम चरण पाय। तुम धन्यनाथ किरपानिधान, चन्दराम कह दे मुक्ति थान।10।
(घत्ता) इह थुति अभिनन्दन, पाप निकन्दन, जो भवि गावै सुर धरई।
द्वै दिवि अमरेसुर, पुहमि नरेसुर, लहु पावइ शिवसुख वरई।। ऊँ ह्रीं श्रीअभिनन्दननाथ जिनेन्द्राय पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री सुमतिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री राम चन्द्र जी ) (आडिल्ल)
सम्वौषट् ठः ठः वषट् त्रिविधा करूँ, आह्नानादि विधि ठानि वारत्रय उच्चरूँ। सुमति जिनेश्वर पाय जजन के काजही, गिरि समेद कल्याण मोक्ष विराजही॥1॥ ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्) ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम् ) ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
(गीता)
अति शुद्ध उत्तम नीर प्रासुक, मिश्र गन्ध मिलाइये। भरि हेम झारि पूजि जिनपद, जनम मरण नसाइये।। श्रीसुमति जिनवर सुमति द्यौ, मुझ पूजिहूँ वसु भेवही। मैं अनन्त काल अकाज भटक्यो, बिना तेरी तेवही ।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 1 ।
कर्पूर केसर अगर लेकर, घसो चन्दन बावना। जिन पूजि भविजन भावसेती, मोह ताप नसावना।। श्रीसुमति जिनवर सुमति द्यौ, मुझ पूजिहूँ वसु भेवही। मैं अनन्त काल अकाज भटक्यो, बिना तेरी तेवही ।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 2।
तन्दुल सुनिर्मल लेहु दीरघ, जानि मुक्ताफल यही। जिन चरण आगैं पुंज करिये, अखैपद पावै सही। श्रीसुमति जिनवर सुमति द्यौ, मुझ पूजिहूँ वसु भेवही । मैं अनन्त काल अकाज भटक्यो, बिना तेरी तेवही ।। ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। 3।
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मणि वरण कुसुम सुगन्ध प्रासुक, अमर तरु के ल्याइये। जिनपद-कमल आगे चढ़ाइये, मदन वाण नसाइये।। श्रीसुमति जिनवर सुमति द्यौ, मुझ पूजिहूँ वसु भेवही।
मैं अनन्त काल अकाज भटक्यो, बिना तेरी तेवही।। ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
सरस मोदक मिष्ट घेवर, कनक थाल भराइये। जिन पूजि भव नैवेद्य सेती, क्षुधा रोग नसाइये।। श्रीसुमति जिनवर सुमति द्यौ, मुझ पूजिहूँ वसु भेवही।
मैं अनन्त काल अकाज भटक्यो, बिना तेरी तेवही।। ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
तेज मणिमय दीप सुन्दर, करत मत को नाशही। जिन पूजि भविजन भान सेती, होय ज्ञान प्रकाशही।। श्रीसुमति जिनवर सुमति द्यौ, मुझ पूजिहूँ वसु भेवही।
मैं अनन्त काल अकाज भटक्यो, बिना तेरी तेवही।। ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
कर्पूर कृष्णागर सुचन्दन, धूप दहन हुतासन। बरखेय भवि जिनचरण आगे, अष्ट कर्म विनासन।। श्रीसुमति जिनवर सुमति द्यौ, मुझ पूजिहूँ वसु भेवही।
मैं अनन्त काल अकाज भटक्यो, बिना तेरी तेवही।। ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
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बादाम श्रीफल चारु पुंगी, मधुर मनहर ल्याइये। पद कमल जिनके पूजितै ही, मोक्षि के फल पाइये।। श्रीसुमति जिनवर सुमति द्यौ, मुझ पूजिहूँ वसु भेवही।
मैं अनन्त काल अकाज भटक्यो, बिना तेरी तेवही।। ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय मोक्षमहाफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
नीर गन्ध सुगन्ध तन्दुल, पुष्प चरु अरु दीप ही। वर धूप फल लै अर्घ दीजै, रामचन्द्र अनूप ही।। श्रीसुमति जिनवर सुमति द्यौ, मुझ पूजिहूँ वसु भेवही।
मैं अनन्त काल अकाज भटक्यो, बिना तेरी तेवही।। ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।9।
पंचकल्याणक वैजयन्त विमान तजि, श्रावण दुतिया स्वेत। मंगला उर अवतार जिन, लयो जजू शिव हेत।।1।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्ला-द्वितीयायां गर्भमंगलमंडिताय श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।।
चैत शुकल एकादशी, जन्म महोत्सव इन्द। सनपन करि सुरगिर जजे, जसुमति गुणबृन्द।।2।। ऊँ ह्रीं चैत्रशुक्ला-एकादश्यां जन्मकल्याण-शोभिताय श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।
नौमी सित वैशाख तप, धर्यो मोह रिपु चूर। नगन दिगम्बर वन बसे, जजू सुमति गुणभूरि।।3।। ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्ला-नवम्यां तपोभूषण-भूषिताय श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।3।
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चैत्र शुकल एकादशी, केवल ज्ञान उपाय। कह्यो धर्म दुविधा मुदा, जजू चरण गुणगाय।।4।। ॐ ह्रीं वैशाखशुक्ला-एकादश्यां ज्ञानभूषण-भूषिताय श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।4।
एकादस सित चैत की, शेष करम हनि मोख। शिखर समेद थकी गये, जजू चरण गुणघोख।।5। ॐ ह्रीं चैत्रशुक्ला-एकादश्यां मोक्षकल्याण-भूषिताय श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।5।
जयमाला (दोहा) सुमति सुमति दायक सदा, घायक कुमति कलेस। लायक शिव पद देन के, ज्ञायक लोक असेस।।
(पद्धडि छन्द) जय सुमति चरण दुति नख महान, जय करमभरम-तमहरण भान। जय मेघपिता चितपदम लाल, विकसावन कू रवि प्रात काल।।1।।
जय मात सुमंगला उदर सार, अवतार लयो त्रय ज्ञान धार। दुति कनक धनुष त्रियसै सु काय, चालीस लख्य पूरव सु आय।।2।।
जय वंश इक्ष्वाकु सिंगार देव, तजि सज धर्यो तप सुष्ट एव। जय पंच महाव्रत धरन धीर, जय पंच सुमति पालन सुबीर।।3।।
जय तीन गुप्ति वशिकरण सूर, महि ध्यान खड्ग चउ घाति चूर। केवल उपजे समवादि सार, रवि रचि चन्द्र करी थुति नाहि पार।।4।।
जय निराभरण भासुर अपार, निरआयुध निर्भय निरविकार। निरमोह निराकृत सर्वदोष, निरईह जगत हित धर्मघोष।।5।। जय कृपानाथ प्रतिपाल सृष्ट, जिनवांछितार्थ फलदाय इष्ट। जय भव्य भवार्णव तार देव, दुःकर्म-दाघ जल-वृष्टि एव।।6।।
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तुम मोक्ष मार्ग दरसाव भान, भवसन्तति-द्रुम-जालन कृसान। तुम गुणगण को नहिं पार नाथ, हूँ करूँ विनतितुम जोरि हाथ।।7।
भव तारण विरद निहारि देव, हूँ सदा करूँ तुम चरण सेव। हो करुणानिधि जगपति अवार, शिव देहु अखै सुख को भण्डार॥8॥
(घत्ता) इह जिन गुणमाला, परम रसाला, रामचन्द्र जो कण्ठ धरै। द्वै सिद्ध निरंजन, भवभय भंजन, मोखरमा ततकाल वरै।। ऊँ ह्रीं श्री सुमतिनाथजिनेनद्राय महायँ निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्रीपद्मप्रभ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी)
(दोहा) पदम करम हनि केवल लै भवि बोधिये, करि अघाति निरमूल शिखरतें शिव गये।
आह्वानन संस्थापन मम सन्निहित करूँ, संवौषट् ठः ठः वषट् त्रय उच्चरूँ।। ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
अष्टक (चाल जोगीरासा) तनमय झारी भरि करि प्रासुक नीर सुल्याऊँ। जन्मजरामृति नाशनकरण श्रजिन चरण चढ़ाऊँ।। पदम जिनेश्वर पदमादायक घायक हो भवकेरा।
द्वै चेरा प्रभु तुम गुण गाऊँ पाऊँ गुण मैं तेरा।। ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
केसर अगर कपूर सु लैकरि, मेलि घसावें। भव आताप निवारण कारण, श्रीजनपूज रचावें।। पदम जिनेश्वर पदमादायक घायक हो भवकेरा।
द्वै चेरा प्रभु तुम गुण गाऊँ पाऊँ गुण मैं तेरा।। ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
अछित अखण्डित दीरघ उज्जवल, चन्द्र किरण सम ल्यावै।
श्रीजिनवर पद पूजि मनोहर, तुरत अखै पद पावै।। पदम जिनेश्वर पदमादायक घायक हो भवकेरा।
द्वै चेरा प्रभु तुम गुण गाऊँ पाऊँ गुण मैं तेरा।। ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।3।
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पंच वरणमय कुसुममनोहर, प्रासुक चक्खु सुहावै।। गन्ध सुगन्धी मधुकर आवे, पूजत काम न सावें।। पदम जिनेश्वर पदमादायक घायक हो भवकेरा।
द्वै चेरा प्रभु तुम गुण गाऊँ पाऊँ गुण मैं तेरा।। ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
घेवर मिष्ट मनोहर मोदक फेनी गूंजा ल्यावें। श्रीजिनवर पद चरुतें पूजै, रोग क्षुधा नशि जावै।। पदम जिनेश्वर पदमादायक घायक हो भवकेरा।
द्वै चेरा प्रभु तुम गुण गाऊँ पाऊँ गुण मैं तेरा।। ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
दीप रतनमय ध्यान्त विनाशन, कनक रकाबी धारें। श्रीजिनवरपद पूजत ही नर, मोह मिथ्यात्व विदा।। पदम जिनेश्वर पदमादायक घायक हो भवकेरा।
द्वै चेरा प्रभु तुम गुण गाऊँ पाऊँ गुण मैं तेरा।। ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
चन्दन अगर कपूर सुगन्धित, धरि धूपायण माहीं। श्रीजिनवरपद आगें खेये, अष्ट करम जरि जाहीं।। पदम जिनेश्वर पदमादायक घायक हो भवकेरा।
द्वै चेरा प्रभु तुम गुण गाऊँ पाऊँ गुण मैं तेरा।। ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
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श्रीफल लोंग बदाम सुपारी, एला आदि मगावें। श्रीजिनवर पद फलतें पूजें, मुक्ति महाफल पावै।। पदम जिनेश्वर पदमादायक घायक हो भवकेरा।
द्वै चेरा प्रभु तुम गुण गाऊँ पाऊँ गुण मैं तेरा।। ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय मोक्षमहाफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
जल गन्धाक्षत पुष्प सु चरुले, दीप सु धूप मंगावै। उत्तम फल ले अर्घ बनावें, रामचन्द सुख पावें।। पदम जिनेश्वर पदमादायक घायक हो भवकेरा।
द्वै चेरा प्रभु तुम गुण गाऊँ पाऊँ गुण मैं तेरा।। ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।9।
पंचकल्याणक ऊपरि ग्रीवकतें चये, षष्ठी माघ असेत।
गर्भ सुसीमा अवतरे, जजू त्रिविध धरि हेत।।1।। ऊँ ह्रीं माघकृष्णा-षष्ठयां गर्भकल्याण-मण्डिताय श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
कार्तिक तेरसि कृष्ण ही, जनमे श्रीजिनराय।
___ इन्द महोत्सव करि जज, जजिहूँ तूर बजाय।।2।। ऊँ ह्रीं कार्तिककृष्णा-त्रयोदश्यां जन्ममंगल-मण्डिताय श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
महाभूति साम्राज्य तजि, कार्तिक तेरसि याम।
बसे अटवि तप धारि जिन, जजू चरण अभिराम।।3।। ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णा-त्रयोदश्यां तपोमंगल-मण्डिताय श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वामीति स्वाहा।
पूनम चैत हने अरी, घाति कर्म धरि ध्यान।
केवल ज्ञान उपाइयो, जजू पदम भगवान।।4।। ऊँ ह्रीं चैत्रशुक्ला-पूर्णिमायां ज्ञानमंगल-मण्डिताय श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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चौथि कृष्ण फागुन विषे, हनि अघाति जिनराय।
मोक्ष समेद थकी गये, जजू चरण गुणगाय।।5।। ऊँ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-चतुर्थ्यां मोक्षकल्याण-मण्डिताय श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला (दोहा) पदमनाथ के पदमपद, महा-अरुण अविकार। नमूं उभैकर शीश धरि, देहु देव मति सार।।1।।
(पद्धरि छन्द) जय पद्मनाथ कौसंविधान, ऊपर ग्रैवक तजिकें विमान। आये जु सुसीमा गर्भसार, वदि माघ षष्ठि चित्रा सुवार।1। वदि कातिक तेरसि जन्म एव, आये तित चतुर्निकाय देव। जय नन्द-नन्द करते अपार, गिरि मेरु कियो अभिषेक सार।2।
धरि पदमनाम हरि पूजि पाय, नृप धारण के दरवार लाय। बहु नृत्य कर्यो को कर बखान, लखि मगन भये पित मात आन।3।
जिन वृद्ध भये तन अरुणभान, धनु दोय सतक पंचास जान। नृप बाल पूर्व उनतीस लख्य, सुख मगन भये तजि राजदख्य।4।
षट् वर्ष कर्यो तप घोर वीर, ऋतु ग्रीषम में गिरि शिखर धीर। रवि किरण तपै मनु अग्निज्वाल, धरि ध्यान खड़े निरभै विशाल।5। ऋतु पावस तरुतल चतुरमास, धरि जोग खड़े अहिलिप्त डांस। ऋतु शीत तरंगनि ताल वास, बाजै समीर अनुभव विलास।6। धरि ध्यान अग्नि चउ घाति जारि, लहि ज्ञान चराचर सब निहारि।
समवादि सहित करिकै विहार, धर्मोपदेश दे भव्यतार।7। षट् वर्ष घाटि लख पूर्वज्ञान, सब आयु पूर्व लख तीस जान। फागुन वदि चौथि समेद थान, हनि के अघाति पहुँचे निर्वान।8।
हूँ करूँ विनती जोरि हाथ, मुझ देहु अखै पद पदमनाथ।
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तुम कारण बिन जगबन्धु देव, इह प्रचुर भवार्णव को न छेव।9।
(घत्ता) कार्तिक तिथि कारी, तेरसि तपधारी, चैत पुनम प्रभु ज्ञानवरं। सुर-नर-खग आये, गुणगण गाये, रामचन्द नमि ध्यान करं।। ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय महायँ निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री सुपार्श्वनाथ जिन-पूजा ( रचयिता - श्री रामचन्द्र जी ) सुरपति नरपति फणी सभा-मधि निती, वाणी सुन प्रतिबुद्ध होय आतम मुणी । जिन सुपास पद-जुगल नमूं सिरनायकें, आह्वानादि विधि करूँ एकचित थाय ॥ 1 ॥
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्) ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम् ) ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
(गीता छन्द)
हिम सैल निरगत नीर शीतल, स्वच्छ मुनि - चित तुल्य ही। भरि भृंग धार जिनाग्र देवे, लहै सुक्ख अतुल्य ही। भव-पासि नासि सुपास जिनवर, तरे भवि बहुतार ही। मुझ तारि जिनवर शरणि आयो, विरद तोहि निहार ही
ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।1।
घन सार अगर मिलाय केसर, घसों चन्दन बावना। जिन पूजि परम उछाह सेती, मोह ताप नसावना ।। भव-पासि नासि सुपास जिनवर, तरे भवि बहुतार ही । मुझ तारि जिनवर शरण आयो, विरद तोहि निहार ही ।।
ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय संसारताप - विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
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दीरघ अखण्डित सरल तन्दुल, सोम सम मन हरस ही।
करि पुंज जिनवर चरण आगै, अखै पद पावै सही।। भव-पासि नासि सुपास जिनवर, तरे भवि बहुतार ही।
मुझ तारि जिनवर शरणि आयो, विरद तोहि निहार ही। ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।31
मन्दार मेरु सुपारिजातक, पुहप चक्षु सुहावना। जिन पूजि भविजन भाव सेती, समरवाण नसावना। भव-पासि नासि सुपास जिनवर, तरे भवि बहुतार ही।
मुझ तारि जिनवर शरणि आयो, विरद तोहि निहार ही।। ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
रस खण्ड उत्तम-घृत किये, पकवान सरब सुहावने। भरि कनक-थार जिनेन्द्र पूजै, क्षुधा-रोग नसावने।। भव-पासि नासि सुपास जिनवर, तरे भवि बहुतार ही।
मुझ तारि जिनवर शरणि आयो, विरद तोहि निहार ही।। ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
मणिदीप-जोति उद्योत सुन्दर, ध्वान्त-नासन भान ही। भवि कनक-भाजन धरि जिनागर, लहै अविचल ज्ञान ही।।
भव-पासि नासि सुपास जिनवर, तरे भवि बहुतार ही।
मुझ तारि जिनवर शरणि आयो, विरद तोहि निहार ही।। ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।।6।।
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धूप धूम्र सुगन्ध सौरभ, दसों दिस में वै रहै। अलि गुञ्ज करत दिगन्तराले, पूजि जिन वसु-क्रम दहै।।
भव-पासि नासि सुपास जिनवर, तरे भवि बहुतार ही।
मुझ तारि जिनवर शरणि आयो, विरद तोहि निहार ही।। ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।।7॥
बादाम श्रीफल लौंग पिस्ता, मिष्टखारिक ल्याव ही। जिन पूजि परम उछाह सेती, मुक्ति के फल पाव ही।। भव-पासि नासि सुपास जिनवर, तरे भवि बहुतार ही।
मुझ तारि जिनवर शरणि आयो, विरद तोहि निहार ही।। ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षमहाफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।।8।।
नीर गन्ध सुगन्ध-तन्दुल, पुष्प चरु अरु दीप ही। शुभ धूप फल ले अर्घ कीजै, रामचन्द्र अनूप ही।। भव-पासि नासि सुपास जिनवर, तरे भवि बहुतार ही।
मुझ तारि जिनवर शरणि आयो, विरद तोहि निहार ही।। ॐ ह्रीं श्रीसुपापार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।9।
पंचकल्याणक (दोहा) ग्रीवक मध्य-थकी चये, षष्ठी भादव सेत।
पृथ्वीदे उर अवतरे, जजू मोक्ष के हेत।।1।। ॐ ह्रीं भाद्रपदशुक्ला-षष्ठ्या गर्भमंगल-मण्डिताय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जेठ शुकल द्वादशि विर्षे, जनमे सुरपति आय।
नृत्य तूर धुनि करि जजे, मैं जजि हूँ गुण गाय।।2।। ऊँ ह्रीं ज्येष्ठशुक्ला-द्वादश्यां जन्मकल्याण-शोभीताय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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तृणवत तजि साम्राज्य तप, धर्यो अरनि में जाय।
जेठ शुकल द्वादशि विर्षे जजू पदमजुग ध्याय।।3।। ऊँ ह्रीं ज्येष्ठशुक्ला-द्वादश्यां तपोभूषण-भूषिताय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
कृष्ण षष्ठि फाल्गुन हने, घाति कर्म धरि धीर।
कह्यो धर्म लहि ज्ञान जिन, जजू हरो भव पीर।।4।। ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-षष्ठयां ज्ञानमंगल-मण्डिताय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
सप्तमि फाल्गुन कृष्ण ही, हनि अघाति शिवथान।
गये सम्मेदाचल थकी, जजू मोक्ष कल्यान।।5।। ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-सप्तम्यां मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला (दोहा) जिन सुपास के चरणजगु, नमूं हिये धरि ध्यान। सकल तत्त्व ज्ञायक सुधी, घायक कर्म वितान।1।
चौपाई देव सुपासतणे पद दोय, त्रिविध नमूं अतिहरषित होय। तजि मधि-ग्रीव बनारस राय, सुपरतिष्ठ पृथ्वी भेद माय।।1।।
तिनके गर्भ लयो अवतार, सित भादव षष्ठी दिन सार। जन्म जेठसुदी द्वादशी भयो, वंश इक्ष्वाकु कृतारथ भयो।2। हरित वरण तन दुयसै दण्ड, आयु पूर्व लख वीस अखण्ड। राज्यपूर्व लख चउदह भोग, जेठ शुक्ल द्वादशी धरि जोग।3।
सप्त वरस तप करि वरवीर, ध्यान खड्ग गहि साहस धीर। घाति हने लहि केवलज्ञान, फागुन वदि छठि तूर्य कल्यान।।4।। सुरपति नरपति खगपति आय, थुति कीन्हीं किम कहैं बनाय। पै तुम भक्ति थकी नरनाथ, करूँ निलज द्वै धरि सिर हाथ।।5।। जय-जय दोष अष्टदस हन्त, जै-जै शिवसुन्दरि के कन्त।
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जै-जै निराभरण निरमोह, जै-जै निर आयुध निरकोह।।6।।
जय निरलोभ निराकृतमान, मय शिवपन्थ दिखावन भान। जय बिन कारण जग हितकार, पतित उधारण विरद निहार।।7।। ___ आयो शरणि तिहारी नाथ, इस भवतें डूबत गहि हाथ। काढि-काढि करि विलम न देव, सही विरद तुम तारण देव।।8।।
(दोहा) हनि अघाति सम्मेदतें, फाल्गुन सप्तमि स्याम। जिन सुपास शिवकू गये, नमों जोरि कर राम।।1। ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मर्हायँ निर्वपामति स्वाहा।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।
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श्रीचन्द्रप्रभ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी )
(अडिल्ल)
शुभ अतिशय चौंतीस प्रातिहारिज अधिका ही, अनन्त चतुष्टयजुक्त दोष अष्टादस नाहीं ।
आह्वानन विधि करूं नाय सिर सुधकरि मनही, लोक मोहतम-हरन दीप अद्भुत ससि जिनही । 1 ।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम् )
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम् ) ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
(गीता छन्द) हिमसैल निरगत तोय सीतल मधुर सुरगण की परेँ।
भरि भृंग जिनवर-चरण आगैं धार दे भव-मृति हरें।।
श्री चन्द्रप्रभ दुतिचन्द को पद -कमल-नख- ससि लग रह्यो। आतंकदाह निवारि मेरी, अरज सुन मैं दुख सह्यो।।
ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।1।
भवताप-दाह दहन्त मोकूँ एक छिन न विसारही। घनसार मलय थकी जिनेसुर पूजिहूँ दुख टारही|
श्री चन्द्रप्रभ दुतिचन्द को पद -कमल-नख- ससि लग रह्यो ।
आतंकदाह निवारि मेरी, अरज सुन मैं दुख सह्यो ।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 2 ।
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संसार-उदधि अपार तारन भक्ति प्रभु तुमरी सही। शुभ सालि पुंज जिनाग्र करिहूँ लहूँ वसुगुण वसुमही।। श्री चन्द्रप्रभ दुतिचन्द को पद-कमल-नख-ससि लग रह्यो।
आतंकदाह निवारि मेरी, अरज सुन मैं दुख सह्यो।। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।31
अति सुभट मार प्रचंड सरतें हने सुर-नर पशु सबै। शुभ कुसुमस्यौं पद पूजिहूँ जिन हरो मनमथ दुख अबै।। श्री चन्द्रप्रभ दुतिचन्द को पद-कमल-नख-ससि लग रह्यो।
आतंकदाह निवारि मेरी, अरज सुन मैं दुख सह्यो।। ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
यह क्षुधा मोकू दहैं नितही, नेक सुख नाहिं पावहीं।
चरु मिष्टा पद पूजिहूँ जिन! क्षुधारोग नसावहीं।। श्री चन्द्रप्रभ दुतिचन्द को पद-कमल-नख-ससि लग रह्यो।
आतंकदाह निवारि मेरी, अरज सुन मैं दुख सह्यो।। ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
अति मोहतम मम ज्ञान ढक्यो, स्व-पर पद न हिं बेवहीं।
तुम चरण पूँजू रतन-दीपक, करो तमको छेवही।। श्री चन्द्रप्रभ दुतिचन्द को पद-कमल-नख-ससि लग रह्यो।
आतंकदाह निवारि मेरी, अरज सुन मैं दुख सह्यो।। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
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शुभ मलय अगर सुगन्ध सौरभ-थकी अलि वहु आवहीं।
जिन-चरन आगे धूप खेये, कर्म वसु, जरि जावहीं।। श्री चन्द्रप्रभ दुतिचन्द को पद-कमल-नख-ससि लग रह्यो।
आतंकदाह निवारि मेरी, अरज सुन मैं दुख सह्यो।। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।71
शुभ मोक्ष-मग अंतराय रोक्यो, मोहि निरबल जानिकै। जिन मोक्ष द्यो तव चरन पूँजू, फल मनोहर आनिकैं।। श्री चन्द्रप्रभ दुतिचन्द को पद-कमल-नख-ससि लग रह्यो।
आतंकदाह निवारि मेरी, अरज सुन मैं दुख सह्यो।। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
जल गन्ध तन्दुल पुष्प चरु ले, दीप धूप फलौघही। कनथाल अर्घ बनाय शिव-सुख, रामचन्द्र लहै सही।। श्री चन्द्रप्रभ दुतिचन्द को पद-कमल-नख-ससि लग रह्यो।
आतंकदाह निवारि मेरी, अरज सुन मैं दुख सह्यो।। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।9।
पंचकल्याणक
(दोहा) चैत असित पंचमि चये, वैजयन्त तें इन्द्र। उदर सुलछना अवतरे, जनँ त्रिविध गुणवृन्द।। ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-पंचम्यां गर्भमंगल-मण्डिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।1।।
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असित पोह एकादशी जनमे जुत त्रय ज्ञान। वासव उत्सव करि जजे, जनँ जन्म-कल्याण।। ऊँ ह्रीं पौषकृष्णा-एकादश्यां जन्मकल्याणक-सहिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।2।
चन्द्रपुरी साम्राज्य तजि कृष्ण एकादशी पोह।
धरयो उग्र तप बन विषै जघु नाशहित द्रोह।। ऊँ ह्रीं पौषकृष्णा-एकादश्यां तपकल्याणक-सहिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।3।।
फाल्गुन सप्तमि कृष्णही घाति हने लहि ज्ञान।
भव्यातम बोधे घने जजहूँ ज्ञान कल्याण।। ऊँ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-सप्तम्यां ज्ञानकल्याणक-सहिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।4।।
सुकल फागुन सप्तमी, शेष कर्म हनि मोख।
गये समेदाचल थकी, जर्जे गुणन के कोख।। ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्ला-सप्तम्यां मोक्षकल्याणक-मंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।5।।
जयमाला
(दोहा) वसुजिन वसु कर्म हानि के, बसे धरा वसु जाय। हरो हमारे कर्म वसु, न[ अंग वसु नाय।।1।।
(चाल- अहो जगत गुरु की) अहो चन्द्र दुतिनाथ, ज्ञायक अन्तरजामी, सकल लोक तिरकाल, लखे जुगपत गुणधामी।
जे चर-अचर अपार, अनागततीत उपायो,
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लोकालोक निहारि, लखे कछु नाहिं छिपायो।।2।। भाख्या ज्यों कर माँहि, सिधारथ धारि निहारे,
अथवा अंगुरी रेख, लखे कर-जुत इकवारे। ऐसौ ज्ञान अपार, और कहुँ नाहिं सुन्यो है, दरसन को परताप, तुहे जिन माँहि भन्यौ है।।3।। मैं दुख पायो घोर, चतुरगति माँहिं घनेरे,
तुमतें छाने नाहिं, कहा भाखू जिन मेरे। पय शिशुकी सब बात, ख्यापित जननी जाने, माँग्या बिन नहिं देहि, तोय पयधन न खाने।।4।। देखो करम अपार सुभट जड़ चेतन नाहिं,
चेतन] करि रंक, चोर जिम बाँधत जाहीं। सातों अवनि मझारि नरक दारुण दुख देही, कोऊ सर– नाहिं, धरम बिन निहचै येही।।5।। तिरयंचगति दुख घोर, सहे बिन संजम धारे,
भूख-प्यास लदि भार मार दे पीठ मझारे। मारत बधकर धाय, जाल मधि उड़न पखेरू, पकरि कसाई लेय, सरनि नाहिं जिहिवेरू।।6। मानुष गति कुल नीच, बिकल इन्द्र चखि नाहिं,
भूपति आगे दौरि, तुबक काँधे धरि जाहीं। अहि-निशि चैकी देय मेह सिय घाम सहे ही, बिन दरसन दुख येह, घने चिरकाल लहे ही।।7।।
कोऊ पुन्यवस आय, घाल तपतें सुर थायों, हस्ती घोटक बैल, महिष असवारी धायो।
पूरन आयु जु थाय, तबै माला मुरझानी, आरति तें तजि प्रान, कुसुम भव पाय अज्ञानी।।8।।
ऐसे दुःख अपार, सहे थिरता नहिं पाई,
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क्रोध-मन-छल-लोभ-थकी दिन-दिन अधिकाई। तुम करुणानिधि लेखि, सरनि आयो ततकारी, दुख को कर निरवार, अहो जगपति जगतारी॥9॥
जगनायक जगदीश, जगोत्तम दृष्टि निहारो, मोर्चे दास विचारि, करो विपतें निरवारो। जाव सुसंगति पाय, सहे दुख और न होती, यह निश्चै करि जान लखे तुम बानी सेती।।10।
करम विचारे कौन, भूल मेरी अधिकाई, अगनि सहै घनघात, लोहकी संगति पाई।
ऐसे या वपुसंग सहे, दुख और न सेती, धनि बानी तुम देवसुनी गुरु के मुख एती।।11। तुम अनुकंप पसाय, तनँ दुर-ध्यान विकारो,
वरनादिकतें भिन्न, लखू चिद्रूप हमारो।
जोति स्वरूपी देव, बसै याही घट माहीं, तुमको ढूँढूँ सुथान, लखू तुम ध्यान उपाहीं।।12।।
तेरे ध्यान-प्रताप, करम जरि जाय अनन्ता, रामचन्द्र करि ध्यान लहे सुख नर गुणवन्ता। इह भव सुक्ख अपार, और भव सुर-पद पावै, अनुक्रमतें निरवान, जिनके सुर धर करि गा३।।13।।
(दोहा) वसु द्रव्यले सुध भवतें, जनूँ तिहारे पाय। देहु देव शिव मुझ अबै, अहो चन्द दुति राय।।14।। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभस्वामिने महायँ निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।
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श्री पुष्पदन्त जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी)
___ (आडिल्ल) तीन गुपति व्रत-पंच-महा पन-समिति ही, द्वादश-तप उपदेश सुधारे सन्त ही। पुष्पदन्तजिन पाय नमूं सिरनाय ही, आह्वानन विधि करूँ एक चित थाय ही।1। ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजनेन्द्र! अब मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
(सोरठा) क्षीर-उदधि-सम नीर, भरि झारि त्रय-बार दे।
नसै जन्मृति-पीर, पुष्पदन्त जिनवर जजे।। ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
कृष्णागर घनसार, कुंकुम गन्ध मिलायकैं।
भव-आताप निवार, पुष्पदन्त जिनवर जजे।। ऊँ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
तन्दुल धवल अनूप, मुक्ताफल ससि-किरण-सम।
होइ मुक्ति को भूप, पुष्पदन्त जिनवर जजे।। ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।3।
कुसुम कल्पतरू लेय, मन मोहै चखि भावने।
वाण मनोज हरेय, पुष्पदन्त जिनवर जजे।। ऊँ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
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खण्ड घिसत चरु सार, रसना-रंजन आनिये।
होय क्षुधा-निरवार, पुष्पदन्त जिनवर जजे। ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
दीप रतनमय ज्योति, कंचन भाजन में धरें।
द्वै है ज्ञान उद्योत, पुष्पदन्त जिनवर जजे।। ऊँ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
अगर कपूर मिलाय, धूप दहन शुभ कीजिये।
अष्ट कर्म जरि जाय, पुष्पदन्त जिनवर जजे।। ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।।
उत्तम फल अति सार, नासा नेत्र सुहावने।
होय मुक्ति भरतार, पुष्पदन्त जिनवर जजे।। ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
अर्घ अनूप बनाय, रामचन्द्र वसु द्रव्यते।
होय मुकति को राय, पुष्पदन्त जिनवर जजे।। ऊँ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय अनर्घ्य पद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।9।
पंचकल्याणक (दोहा) फागुन नवमी कृष्ण ही, आरण स्वर्ग विहाय।
रामादे उर अवतरे, जनँ गर्भ दिन ध्याय।। ऊँ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-नवम्यां गर्भमंगल-शोभिताय श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।।
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अगहन सित प्रतिपद विषै, तीन ज्ञानदेव जनमे हरि सुरगिर जजे, जजूँ मोक्ष हित एव ॐ ह्रीं माघशीर्षशुक्ला- प्रतिपदायां जन्मकल्याणक - शोभिताय श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 2।
सित प्रतिपद अगहन धर्यो, तप तजि राज्य - महान । सुर-नर-खगपति पद जजे, जजिहूँ तपकल्यान।। ॐ ह्रीं माघशीर्षशुक्ला-प्रतिपदायां तपोभूषण-भूषिताय श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 3।
दोयज कार्तिक शुकल ही, घातिकर्म हनि ज्ञान । लह्यो धर्म दुविधा कह्यो, जजिहूँ ज्ञान कल्यान ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्ला-द्वितीयायां ज्ञानमंगल-मण्डिताय श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।4।
भादव सित अष्टमि हने, सकलकर्म शिवथान । गये समेदाचल थकी, जजिहूँ मोक्ष कल्यान ।। ॐ ह्रीं भाद्रपदशुक्ला-अष्टम्यां मोक्षकल्याणक-सहिताय श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
जयमाला
(दोहा)
पुष्पदन्त के विमल गुण, सकल सुखाकर पेख । सुमति-सुमरि वरणन करूँ, करि-करि हरष विशेष।।
चाल- सीमन्धर जिनवन्दस्यां जगसार हो। पुष्पदन्त जिनवन्दस्यां जगसार हो, काकन्दीपुर थान। पिता नमूँ सुग्रीव जी, जगसार हो, वंश इक्ष्वाकु महान।।
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महानवंश इक्ष्वाकु में चय, स्वर्ग आरणनै भये। धन देवि रामा मात के उर, कृष्ण फागुन में थये।। गर्भावतार-कल्याण सुरपति, ठानि सुरलोकें गये। जननी सुसेवा राखि धनपति, मास नव सुखसों गये।।1। अगहन सित प्रतिपद भली, जगसार हो, जनम सुराधिप जानि। मेरु सुदर्शन ले गये, जगसार हो, छीरोदक शुभ आनि।।
आनि जल अभिषेक करि फुनि, नृत्य तूर बजाइये। कहि पुष्पदन्त पिता सु जननी, सोपि मंगल गाइये।।
फुनि नृत्य ताण्डव हरी कीनों, कौन उपमा दीजिये। जन्म-कल्याण उछाह मन मैं, राखि नितहि जजीजिये।।2।। तन शशि सम धनु सत्त भलो जगसार हो, आयु पूरब लखदोय। लख पूरव सुख भोगिकें, जगसार हो, विरक्त भव होय।।
होय विरक्त सुकल परिवा, मास मगसिर वन गये। नमः सिद्धेभ्यः कह लोंच कीनो, ध्यान में प्रभु थिर भये।।
हरि केश पंचम-उदधि खेपे, आय पद-पूजा करी। निःकर्म-कल्याण सुमहिमा, पुण्य करता अघहरी।।3।। बरष चार बहु तप करे, जगसार हो, ध्यान अग्नि परजालि। कातिक सुदि दोयज भली, जगसार हो, घाति-चतुक लहु बालि।।
लहु बालि घाति उपाय केवल, लोक करवत् पेखही। समवादि सहित विहार करिकें, लहो धर्म विसेखही।। तुम वचन-अमृत पानतें, उर-दाह ततखिण ही मिट्यो। लखि ज्ञान-कल्याण सुमहिमा, मोह-तम मेरा फट्यो।।4।। गणधर-हरि-मुनि थुति करी, जगसार हो, सो थुति उनसों होय। धनि दिन यो धनि या घड़ी, जगसार हो, धनि-धनि मो चखि दोय।। दोय मो चखि तुम दरस देख्यो, परसि पद धनि कर भये।
धनि धन्य ये वसु अंग मेरे, ध्यान कर तुमको नये।।
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धनि भई रसना आज मेरी, नाथ थुति तुम करत ही। धनि उभे पद तुम धाम आयो, सबै कारज सरल ही।।5।। निर-अम्बर सुन्दर घने, जगसार हो, दिग-अम्बर सुखदाय। निराभरण तन अति लसे, जगसार हो, को रवि को शसि काय।।
ससि काय लांछित अभ्रसम, दिन हीन-वृद्धि सदा भमै। तुम चरण-नखदुति कोट रवि ना, और उपमा को पमै।।
दरस-ज्ञान-चरित्र-भूषण, देखि शिव-तिय हो खुसी। आलिंग देने भई सनमुख, तुहे छवि लखि अति हसी।6।। निर-आयुध निरभै घने, जगसार हो, कोप तणों नहिं लेश। मोह-सुभट किम जय कियो, जगसार हो, जुत-परिवार महेश।।
महेश हस्ती ध्यानपै संनाह, संजम अति छिमा। प्रपलाय असुरन संग लागौ, रही ना तसु की जमा।। जो फेरि निकट न आवही, जुत समर स्वपनन के विखें।
हरि-हरादिक के हिये, बासी करो जग के अखें।।7॥ तुम गुण गुणपति मन धरे, जगसार हो, ये वच कहे न जाय। ज्यों तारे सब गगन के, जगसार हो, ये कर में न समाय।। कर में न तारे आय ज्यों, गुरु सहस-रसना धार ही।
वरणन करे तो पार पावै, रह्यो पौरष हार ही।। मैं बुधि-बिना थुति करन उमग्यो, होय कैसें नाथजी। शशिबिम्ब जल में बाल बिनु बुध, गहै किम गहि हाथजी।।8।।
मैं विनऊँ कर जोरिकें, जगसार हो तुम गुण को नहिं छेव। इस भव में बहु दुःख सहा, जगसार हो, देहु अचल-पद देव।।
देव! अचल-पद देहु मोकू, शरण चरणन की गही। करि रामचन्द्र लहन्त, शिव जो गायसी सुर धरि सही।। इत होय मंगल नित नये घर, ऋद्धि-सिद्धि अनेकही। अज्ञान-तिमिर बिलाय ततछिन, हिये होय विवेकही।।9।।
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(घत्ता) अष्टमि सित भाद्रं, नाशि अघात्यं, पुष्पदन्त शिवनगर गये। सुर-नर-खग आये, मंगल गाये, गिर समेद कल्याण थये।।1। ऊँ ह्री श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय महायँ निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि॥
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श्री शीतलनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी)
(आडिल्ल) शीतल जुग-क्रम नमू, धर्म-दशधा इम भाख्यो। उत्तम क्षमा सु आदि अन्त ब्रह्मचर्य सु आख्यो।।
सुनि प्रतिबुध द्वै भव्य मोक्ष-मारगडू लागे।
आह्वानन विधि करूँ चरण-जुग करि अनुरागे।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
ऋतु शरद इन्दु समान अंग, सु स्वच्छ शीतल अति घणो।
भरि हेम झारी धार देवै, नीर हिमवन-गिरि तणो।। भवि पूजि शीतलनाथ जिनवर, नशें भव के ताप ही।
आतंक जाय पलाय शिव-तिय, होय सनमुख आप ही।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
कर्पूर नीर सुगन्ध केसरि, मिश्र चन्दन बावना। जिनराज पूजे दाह नासे, होय सुख रलियावना।। भवि पूजि शीतलनाथ जिनवर, नशें भव के ताप ही।
आतंक जाय पलाय शिव-तिय, होय सनमुख आप ही।। ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
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-खण्डनकार ही ।
उत्तम अखण्डित सालि उज्ज्वल, दुरति-ख करि पुञ्ज श्रीजिन चरण आगैं, अखै-पद-करतार ही। भवि पूजि शीतलनाथ जिनवर, नशें भव के ताप ही। आतंक जाय पलाय शिव-तिय, होय सनमुख आप ही
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। 31
निरदोष-अर्घ अनेक विधि के, कुसुम पावन ल्याय ही।
जिन चरण चरचि उछाह सेती, समरवाण नसाय निर्वपामीति स्वाहा | 4 ॥ ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय कामबाण - विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
पकवान सुन्दर सुरहि घित करि, छहों रस के मिष्ट ही । धरि कनक-भाजन पूजि जिनवर, T नारी दुष्ट ही।। भवि पूजि शीतलनाथ जिनवर, नशें भव के ताप ही। आतंक जाय पलाय शिव-तिय, होय सनमुख आप ही
ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।।
मणि-दीप जोत उद्योत सुन्दर, कनक-भाजन धारिये। जिन पूजि भविजन मोह नारी, सप्त-तत्त्व निहारिये।। भवि पूजि शीतलनाथ जिनवर, नशें भव के ताप ही। आतंक जाय पलाय शिव-तिय, होय सनमुख आप ही ।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार - विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 61
श्रीखण्ड अगर कपूर उत्तम, कनक-धूपायन भरें।
भवि खेय श्रीजिनचरण आगे, दुष्ट कर्म सबै जरें ।। भवि पूजि शीतलनाथ जिनवर, नशें भव के ताप ही ।
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आतंक जाय पलाय शिव-तिय, होय सनमुख आप ही।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
फल लेहि उत्तम मिष्ट मोहन, लौंग श्रीफल आदि ही। जिन चरण पूजै मुक्ति के फल, लहै अचल अनादि ही। भवि पूजि शीतलनाथ जिनवर, नशें भव के ताप ही।
आतंक जाय पलाय शिव-तिय, होय सनमुख आप ही।। ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
नीर गन्ध सुगन्ध तन्दुल, पुष्प अरु अति दीप ही। करि अर्घ धूप समेत फल ले, रामचन्द्र अनूप ही।। भवि पूजि शीतलनाथ जिनवर, नशें भव के ताप ही।
आतंक जाय पलाय शिव-तिय, होय सनमुख आप ही।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।9।
पंचकल्याणक
(दोहा) चैत्र कृष्ण अष्टमि चये, अच्युततें भगवन्त। उदर सुनन्दा अवतरे, जनँ मोक्ष के कन्त।। ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णा-अष्टम्यां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।।
कृष्ण द्वादशी माघ की, जनमे श्रीजिनराय। उत्सव करि वासव जजे, मैं जजिहूँ जुग पाय।। ऊँ ह्रीं माघकृष्णा-द्वादश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।
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असित माघ द्वादशि तजी, तृणवत् भूति महान । नगन दिगम्बर वन बसे, जजूँ दसम भगवान || ऊँ ह्रीं माघकृष्णा- द्वादश्यां तपोनमंगल-मंडिताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । 3।
पौष चतुरदशि श्याम ही, शुकल - ध्यान - असि धारि। हने कर्म चउ-घातिया, जजूँ देव मुझ तारि ऊँ ह्रीं पौषकृष्णा - चतुर्दश्यां केवलज्ञानमंगल-मंडिताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 4।
अष्टमी सित आसोज की, गये मोक्ष भगवान । वसु विधि पद पंकज जजूँ, मोहि देहु शिवथान || ॐ ह्रीं आश्विनशुक्ला - अष्टम्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 51
जयमाला (दोहा)
शीतल तुम पद-कमल-जुग, नमूँ शीश धरि हाथ। भवदधिध-डूबत काढि मो, कर अवलम्ब दे हाथ ॥ 1॥ चाल - मंगल की
शीतल पद जुग नमूँ उभैकर जोरिही, भद्दलपुर अवतरे अच्युत पद छोरिही। दिढरथ-तात विख्यात सुनन्दा - मायजी, चैत कृष्ण वसु गर्भ लिये सुखदायजी सुखदाय गर्भ कल्याण काजे आय सुरपति सब मिले, जननी सुसेवा राखि धनपति आप सुरलोकें चले।
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षट्मास ले नवमास दिन में वार-त्रय मणि वर्षये, गर्भ-कल्याण महन्त-महिमा देखि सब जन हर्षये । 1 ।
पूर्वाषाढ नक्षत्र माघ वदि द्वादशी, जनमे श्रीजिननाथ नभोगण सब हँसी ।
चतुरनिकाय मझारि घण्टादि बजे भले, नये मौलि फुनि पीठ सबै हरि के चले ।। चले पीठ अवधितें जिन- जन्म निश्चै हरि लखो, डग सप्त चलि नुति ठानि वासव मेरु चलने कूं अखो । जिन लेय पाण्डुक वनविषें अभिषेक करि पूजा करि, पित-मात दे जन्मा कल्याणक ठानि थल चालो हरि । 2 । वरण तनतुंग निवै धनु को सही, लछिन श्रीवछ आयु पूर्व-लख की कही । नीति-निपुण करि राज तजौ तृणवत् तबै, लौका कसुर आय सम्बोधि चले सबै।। सम्बोधि आये माघ-द्वादशि-कृष्ण श्रीजिनवर गये, नमः सिद्धेभ्यः कहि लौंच कीनों उपधि तजि कर मुनि भये सुर-असुर नृपगण ठानि पूजा धवल-मंगल गायही, निःकर्म-कल्याणक सुमहिमा सुनत सब सुख पायही । 3। षष्टमि धरि निज-ध्यान-विषै प्रभु थिर भ पूरण करि अनिकाज सेयपुर में गये। क्षीरदान जुत-भक्ति पुनर्वसुजी दिये, हरषि देव आश्चर्य पंच ततखिण किये ।। आश्चर्य-कत्र्ता रत्न वर्षे अर्ध द्वादश कोडि ही, धरि ध्यान-सुकल उपाय केवल घाति चारों तोडि ही चर-अचर लोक-अलोक जुगपति देखि सबही वर्णिये, सुनिइन्द्र ज्ञानकल्याण-उत्सव पौष वदि चउदशि किये।4। योजन साढा-सात लसै समवादि ही,
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लखि मुनि में गणदेव इकासी आदि ही
पूरन सहस-पचीस हीन वर्ष - तीन ही, विहरे केवल पाय आयु भई छीन ही भई छीन समेद गिरितैं आश्वनी सित अष्टमि सही, असि ध्यान-सुकल थकी अघाते नै मुक्ति - तिया लही। सब इन्द्र आय कियो महोत्सव मोक्ष-मंगल गायही, हूँ नमूँ शीतलनाथ के पद-कमल गुणगण ध्याही।5। वसु-खित वसु-कर्म हानि बसे वसु-गुणमई, ज्ञानावरणी घाति विश्व जान्यो सही । देखो लोक - अलोक हने दृशनावली, वेद को कर नाश अबाध भले वली ।
फुनि वली शुद्ध चरित्र में थिर मोह नाश थकी भये, अवगाह-गुण छय-आयुतें निरकय नाम गये थये।
गुण गण अगुरलघु छय-गोत के अन्तराय-छय बलवन्त ही, सिध भये शीतलनाथ जी तिरकाल वन्दे सन्त ही | 6 | वसु-गुण ये विवहार नियत अनन्त ही, जानें गणधर पैन बखानत जन्त ही ।
ज्यों जलनिधि विस्तार कहैं करते इतों, बाल न मरम लहन्त न जानत है कितों ।
कितनी न जानै उदधि है जिम तुहे गुण वरणन करूँ, मैं भक्तिवश वाचाल हैं कछु शंक मन नाहीं धरूँ।
देहु तेरी करूँ विनती अहो शीतलनाथजी, चन्द्रराम शरण तिहार आयो जोरि करि के हाथजी । 7 । दोहा
शीतल के पद-कमल जुग, त्रिविध नमूँ सुख पाय। भवदुख-ताप मिटाइयो, अहो दशम जिनराय ।। 1 ॥ ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। ।। इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री श्रेयांसनाथ जिन-पूजा ( रचयिता - श्री रामचन्द्र जी ) (अडिल्ल)
सभालोक-सुनि धर्म अंग-द्वादश श्रुत सारे, भये आनन्दित सबै श्रेयजिन भवि बहुततारे।
प्रशमचित्त करि कोप हन्यो वन्दू जुगकर ही, आह्वानन विधि करूँ चरण जुग - हिय में धरही। 1 ।
ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम् )
ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
(मोतीदाम छंद)
हिमन-उद्भव स्वच्छ-गंगोदकं, कनक - कुम्भ- भरेन सुगन्धिकं । जनम-मृत्यु-जरा-क्षय-कारणं, परिजजे श्रेयांस-पदाब्जकं ।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 1 ।
अगर-चन्दन-कुंकुम-द्रव्यकं, भ्रमर-कोटि भ्रमन्ति सुगन्धिनं ।
प्रचुर- दुक्ख-भवार्णव-नाशनं, परिजजे श्रेयांस-पदाब्जकं ।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथ जिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 2।
सरल सालि - अखण्ड मनोहरं, लसत सोममरीचि समानकं । सुभग-सौख्य अखैपद-कारणं, परिजजे श्रेयांस-पदाब्जकं ।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। 3।
कुसम-ओघ कल्पतरु-पावने, हरत चक्षि सुगन्ध-सुहावने।
अशुभ काम मनोद्भव-नाशनं, परिजजे श्रेयांस - पदाब्जकं ।।
ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय कामबाण - विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। 4।
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सरस मोदक, घेवर, बावरं, लसत कांचन-पात्र चरूत्तम।
प्रचुर-रोग-क्षुधा-निरनाशनं, परिजजे श्रेयांस-पदाब्जकं।। ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
कनक-कांचन-पात्र सुदीपं, लसत ज्योति विवर्जित-धूम्रकं।
अखिल-मोह विध्वंसन-कारणं, परिजजे श्रेयांस-पदाब्जकं।। ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
अगर कृष्ण कपूर सुचन्दनं, सुरभितागत षट्पद-वृन्दकं।
निचय कर्म हुतासन जारनं, परिजजे श्रेयांस-पदाब्जकं।। ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।71
मधुर श्रीफल चारु इत्यादिकं, ललित गन्ध महारस अद्भुतं।
अतुल-सौख्य महाफलदायकं, परिजजे श्रेयांस-पदाब्जकं।। ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
सलिल गन्ध सु तन्दुल पुष्पकं, चरु सु दीप सु धूप फलौघकं।
परम-मुक्ति सुथान-प्रदायकं, परिजजे श्रेयांस-पदाब्जकं।। ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक (दोहा) पुष्पोत्तर” हरि चये, विमला-उर अवतार। षष्ठी जेठ असेतही, लयो जनँ अवतार।।1।।
ऊँ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णा-षष्ठ्या गर्भमंगल-मंडिताय श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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फाल्गुन श्याम-एकादशी, जनमे श्रीभगवान्। चतुरनिकाय सुराधिपा, जजे जनँ हितज्ञान।।2।। ऊँ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-एकादश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
फाल्गुन ग्यारसि कृष्ण ही, तज्यो उपधि दुखकार। धर्यो ध्यान चिद्रूप को, जनँ देहु मति सार।।3।। ऊँ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-एकादश्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
माघ-अमावसि ज्ञान ही, तज्यो उपधि दुखकार। घाति-करम चउ जय कियो, जनूँ भवार्णवतार।।4।। ऊँ ह्रीं माघकृष्णा-अमावस्यां ज्ञानमंगल-मंडिताय श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्रावण सुदी पूनम गये, हनि अघाति शिवथान। सुर नर खग तिन मिल जजे, जगूं मोक्ष कल्यान।।5।। ऊँ ह्रीं श्रावणशुक्ला-पूर्णिमायां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
(दोहा) श्रेय तणे पदकमल-जुग, न[ उभे कर जोर। चतुर इहै भवतार तुम, हो निहचै नहिं ओर।1।
चाल-पंचमंगल की जय-जय-जय श्रेयांस नमूं सिरनायही, चय पुष्पोत्तर-थकी सिंघपुर आयही।
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विमलाउर अवतार जेठ वदी छठि लियौ,
गर्भकल्याणक इन्द्र सबै मिलि कियौ।। कियो गरभकल्याण सुरपति रुचिकवासिनिप्रति कह्यौ, तुम करहु सेवा जननिकेरी छप्पन, सुन करि सुख लह्यौ।
फुनि धनद वर्षा रतनकेरी मास नव षट् लों करी, वा समै हिरदै बसहु मेरे धन्य दिन धनि वा घरी।1।
फागुन ग्यारसि कृष्ण ज्ञान त्रयजुत भये, चले सिंघासन मौलि अवधि लखि हरि नये। सब मिलि उत्सव ठानि इन्द्र शत आयही,
मेरु शिखर ले जाय स्नान करायही। कराये सनपन पूज कीनी, बसन-भूषण धारही, लखि रूप तृपति न इन्द्र हूवो सहसलोचन कारिही। नृप विमल के दरबार सुरपति नृत्य ताण्डव अति कर्यो, श्रेयांस नाथ उचारि वासव पिता लखि आनन्द भयौँ।।2।।
श्रमजल-रहित शरीर आदि संहनन लह्यो, आदि लसै संस्थान धवल श्रोणित कह्यौ। बल अनन्त वपु-शोभ नहीं मल तन विषै,
शुभ-लच्छिन शुभगन्ध बैन हितमिल लखै।। अखै हितमित सहज अतिशय लहे दस जिन-जनमही, तन हेम अस्सी-दण्ड-आयु, सुलाख-चवरासी कही। करि राज वरस वियाल लखही त्यागि तृणवत वन गये, सुर-असुर फाल्गुन, कृष्ण, ग्यारसि, ठानि उत्सव सब नये।3।
धरत चरित मन, ज्ञान जिनेश्वरकू भयो, षष्ठम पूरण ठानि अरिठपुर में गयो। तहां दयो पयदान नाह नरनन्द ही,
वरसे रतन अपार भयो सुख कन्द ही।। सुखकन्द बरस उभै कयौं तप घोर द्वादश विधि तदा,
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असिध्यान-शुकल थकी हने, चतुघाति दुस्तर विधि जदा। सुर-असुर ज्ञान-कल्यान पूजा, ठानि बहु थुति उच्चरी, सौ द्यौस पावन माघ मावस, सकल मंगल की घरी।4।
तब ही केवलज्ञान भयो लखि धनद ही, समोशरण रचि सार लखे सुखवृन्द ही। मध्य महा त्रयपीठ कमलपर जिन ठये,
अन्तर अंगुल च्यारि अनन्त चतुष्टये।। भये अनन्त चतुष्ट प्रभु, सिर छत्र तीन विराजही, जखि चंवर चवसठि ढरे, अतिसित थकी शशिदुति लाजही।
सुर पुष्पवृष्टि रु बजे दुन्दुभि, तरु अशोक सुहावनो, दिव्यधुनि सुख होत श्रवणन, प्रभामण्डल पावनो।5।
शत-योजन सुभिक्ष व्योमगति हलत ना, छाप न आनन च्यारि भौंह चखि चलत ना।
सब-विद्या-परमेश न प्राणीवध हवै,
ब. केश नख नाहिं क्षुधादि न सम्भवै।। सम्भवै मागधि भाष सब जन, तोष षट्क्रतु फल फलै,
सब शत्रु मैत्री ठान अठ-दह मुकरभू वृष चल चले। जुत-गन्धवात गन्धोदि वरषा, विमल-नभ सुर जय करे, खित वात सोधे द्रव्य-मंगल, कमल पद-तल सुर धरै।6।
इम गुण-युक्त जिनेश, विहरि भवि तारही, बरस लाख-इकबीस, ज्ञान प्रभु धारही।
शेष रह्यो इक मास, समेदाचल ठये, हनि अघाति शिवथान, पूनम श्रावण गये।। गये श्रावण शुकल पूनम, मोक्ष तब हरि आयही, वसुभेव पूजा ठानि उतसव, मोक्षमंगल गायही। सो मोक्षमंगल देहु मोकू, श्रेयजुत श्रियनाथ जी, चन्दराम ध्यावे वंदि सतवें, जोरिमैं जुग हाथ जी।7।
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दोहा
श्रेयतणे पद मो हिये, तिष्ठौ आठौं जाम।
मो हिय श्रेयपदां विर्षे, रहो होय शिव ताम।। ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय महायँ निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री वासुपूज्यजिन-पूजा रचयिता - श्री रामचन्द्र जी
रोला छन्द वासुपूज्य जिन नमूं रतनत्रय-शेखर धार्यो। द्वादश-तप-सिंगार वधू-शिव दृष्टि निहार्यो।।
कण्ठालिंगन दैन लुब्ध द्वै सनमुख आई।
आह्वानन विधि करूँ वारत्रय मनवचकाई।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
त्रिभंगी छन्द छीरोदधि नीरं, निर्मलं-क्षीरं, मिश्रगन्ध शुभ भृगभरं। जिनवरपद सारं, जजि अविकारं, जनम-मृत्यु के दाह-हर।।
चम्पापुर थानं, शुभ-कल्यानं, वासुपूज्य जिनराज वरं। वसुविधि करि अरच, भव-दुख विरचै, पर सब सुख तार घरं।। ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।1।
अति शीतल चन्द, दाह-निकन्दन, केसर अगर कपूर घसौ।। शुभ सौरभि आवै मधुकर धावै, पूजि जिनेश्वर पाप नसौं।।
चम्पापुर थानं, शुभ-कल्यानं, वासुपूज्य जिनराज वरं। वसुविधि करि अरचे, भव-दुख विरचे, परचै सब सुख तार घरं।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
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सित सालि-अखण्डं, दुरित-विहण्डं, सोम-समा मनहर ल्यावै। श्रीजिनपद आगें, पूज रचावें, तुरत अखैपद भवि पावै।।
चम्पापुर थानं, शुभ-कल्यानं, वासुपूज्य जिनराज वरं। वसुविधि करि अरच, भव-दुख विरच, परचै सब सुख तार घरं।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।।
सुरतरु के ल्यावें, चक्खि सुहावें, कुसुम-गन्ध दश-दिशि धावै। श्रीजिनवर अरचे शिवतिय परचे, मदनवान लहु नसि जावै।।
चम्पापुर थानं, शुभ-कल्यानं, वासुपूज्य जिनराज वरं। वसुविधि करि अरच, भव-दुख विरचै, परचै सब सुख तार घरं।। ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
चरु मिष्ट मनोहर, घेवर बावर, कनकथाल भर अति प्यारी।
श्रीजिनवर आणु, पूज रचावें, हरहु वेदना दुखकारी।।
चम्पापुर थानं, शुभ-कल्यानं, वासुपूज्य जिनराज वरं। वसुविधि करि अरच, भव-दुख विरच, परचै सब सुख तार घरं।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
शुभ रतन-सुदीपक कनकरकाबी, ललि त-जोति धर प्रभु आगें। तम-मोह नसावै, अति सुख पावै, स्वपर लखै निज-गुण जागें।।
चम्पापुर थानं, शुभ-कल्यानं, वासुपूज्य जिनराज वरं। वसुविधि करि अरच, भव-दुख विरचै, परचै सब सुख तार घरं।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
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अगर कपूरं, चन्दन चूरं, शुभ-धूपायन मांहि भरें। श्रीजिनपद आगें, खेय मनोहर, अष्टकर्म ततकाल जरें।।
चम्पापुर थानं, शुभ-कल्यानं, वासुपूज्य जिनराज वरं। वसुविधि करि अरचे, भव-दुख विरचे, परचै सब सुख तार घरं।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
शुभ श्रीफल ल्यावै, लौंग मिलावें, पुंगी खारिक मनहारे। श्रीजिनपद आगैं, पूज रचावें, लहैं मुक्तिफल सुखकारे।।
चम्पापुर थानं, शुभ-कल्यानं, वासुपूज्य जिनराज वरं। वसुविधि करि अरच, भव-दुख विरचे, परचै सब सुख तार घरं।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
अति निर्मल नीरं, गन्ध गहीरं, तन्दल पुष्पं सु चरु लावें। पुनि दीपं धूपं, फल सु अनूपं, अर्घ रामकरि गुण गावै।।
चम्पापुर थानं, शुभ-कल्यानं, वासुपूज्य जिनराज वरं। वसुविधि करि अरचे, भव-दुख विरचै, परचै सब सुख तार घरं।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक महाशुक्रतें चय लयो, श्यामा-उर अवतार।
षष्ठी साढ़ असेत ही, जजूं भवार्णवतार।। ऊँ ह्रीं आषाढ़कृष्णा-षष्ठ्यां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।।
चउदसि फागुन कृष्ण ही, वासव-जन्मकल्यान।
कीनौ उत्सव करि महा, मैं जजिहूँ धरि ध्यान।। ऊँ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-चतुर्दश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।
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फाल्गुन चउदस श्यामही, लखि भव अनित-असार।
राज त्यागि तप वन धर्यो, जनँ चरण सुखकारं। ऊँ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-चतुर्दश्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।3।
माघ शुक्ल द्वितीया हने, घाति-करम धरि ध्यान।
कह्यो धर्म केवल भयो, जनँ ज्ञान कल्यान।। ऊँ ह्रीं माघशुक्ल-द्वितीयायां ज्ञानमंगल-मंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।4।
भादव चउदसि शुकल ही, हनि अघाति भगवान।
लही मोक्ष सुखमय सदा, जनूँ मोक्ष-कल्यान।। ॐ ह्रीं भाद्रशुक्ल-चतुर्दश्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।5।
जयमाला
सोरठा अरुण वरण अविकार, वासुपूज्य जिनकी छवी। ध्याऊँ भवदधि पार, देहु सुमति विनती करूँ।।1।।
अडिल्ल वासुपूज्य जिनतने पंच कल्याणही, चम्पापुर में भये नमूं धरि ध्यानही।
षष्ठी श्याम अषाढ गर्भ विजयातने, महाशुक्रतै आय जिनेश्वर ऊपने।1। फाल्गुन चउदशि कृष्ण जनम प्रभु को भयो, तीनूं लोक मझारि महा आनन्द थयो। नये मुकुट फुनि पीठ सुरासुर के हले, जन्मकल्याणक काज सबै वासव चले।2।
मेरु शिखर ले जाय स्नान करायही, वासुपूजि धरि नाम पिता घर आयही। तांडवनृत्य महान शक्र हित धरि कर्यो, भूप लख्यो वसुदेव महा आनन्द भर्यो।3। सत्तरि धनुष उत्तंग काय जिम भानही, लाख बहत्तर आयु महिष चिन्ह जानही।
राज कर्यो चिरकाल महासुखदायही, सबै विनश्वर जानि भावना भायही।4। फाल्गुन चउदशि श्याम देवऋषि आयकें, पुष्पांजलि शुभदेय सम्बोधे ध्यायके।
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इन्द्र सिंगार बनाय कल्याणक तप कर्यो, पाडल-तरुतल जाय जोग वन में धर्यो।5। मनपरजै भयो ज्ञान ततच्छिन ही जबै, षष्ठम पूरण ठानि असनहित जिन तबै।
पुर सिद्धारथ गये दान सुन्दर दयो, वरषे रतन अपार हरष अति ही भयो।6। वरष एक छदमस्थ विविध-विध तप करे, ध्यान शुकल असि थकी घाति-चउ जिन हरे। उपज्यो केवलज्ञान उभै सित माघ ही, करी धर्म की वृष्टि मिट्यौ भवदाघ ही।7।
विहरे आरज देश बोधि भविलोग ही, गये चम्पापुर मांहि निरोध्यो जोगही। हनि अघाति शिवथान गये जिनराय ही, भादव सित चउदशो सुरासुर ध्यान ही।8। मोक्षकल्याण-थान पूजि उतसव कौं, मंगल गान उचारि महा आनन्द धर्यो। रामचन्द्र कर जोरि नमैं करुणापती, मोकू भवतें तारि अरज सुनियो इती।9।
घत्ता छन्द चम्पापुर-थानं, पंच-कल्यानं सुर-नर-खग वन्दत सबही। हूँ पूजूं ध्याऊँ गुणगण गाऊँ, वासुपूज्य दे शिव अबही।।1।। ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय महायँ निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री विमलनाथ जिन-पूजा ( रचयिता - श्री रामचन्द्र जी )
रोला छन्द
परम-सरूपी व्रती विवेकी ज्ञानी ध्यानी ।
प्राणी -हित उपदेश देय मिथ्यात - जघानी ||
शिव-सुख भोगी विमल- पाय बन्दूं जुग करकें । आह्वानन विधि करूँ त्रिविध त्रयवार उचरिकें॥1॥
ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम् ) ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
अष्टक
(द्रुतविलम्बित छन्द)
विमल-शीतल-सुजल सुधारया, जनम-मृत्यु- जरा छय-कारया। सकल-सौख्य विधानक नायकं, परिजजे विमलं चरणाब्जकं ।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 1 ।
अगर कृष्ण कपूर सुकुंकुमा, ऋणित भृंग-घटावलि गन्धना । अखिल-दुःख भवादिक नासनं, परिजजे विमलं चरणाब्जकं ।।
ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 2।
अछित उज्ज्वल खण्ड न तीक्षणं, लसत चन्द - समान मनोहरं । विगत-दुःख सुनाथ सुदायकं, परिजजे विमलं चरणाब्जकं ।।
ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। 3।
कलप वृक्ष-भवेन सुगन्धिना, कुसुम-चारु हरै चखि पावनं। प्रबल बाण मनोद्भव नाशनं, परिजजे विमलं चरणाब्जकं ।।
ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
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सरस मोदक मिष्ट मनोहरं, सुभग कांचन-पात्र सुथापितं। असम-दुःख क्षुधादि-विध्वंसनं, परिजजे विमलं चरणाब्जकं ।। ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
मणि-उद्योत महातम - नाशनं, लसत दीप सुकांचन - पात्रकं । अखिल-मोह विध्वंसन-कारणं, परिजजे विमलं चरणाब्जकं ।।
ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार- विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 6 ।
अगर चन्दन धूप सुगन्धिना, मधुप-कोटि रवन्त दिगालयं । अशुभ-कर्म-महा-दुठ-जारनं, परिजजे विमलं चरणाब्जकं।।
ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म - दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
सुपकमिष्ट रसामृत पावनं, सुभग श्रीफल आदि फलौघकं। परम-मोक्षमहाफल-दायकं, परिजजे विमलं चरणाब्जकं ।।
ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। 8 ।
सलिल गन्ध सुतन्दुल पुष्पकं, चरु सुदीप सुधूप फलौघकं। परम-मुक्ति-सुथान-विधायकं, परिजजे विमलं चरणाब्जकं ।।
ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 9।
पंचकल्याणक (दोहा)
श्यामादे उर अवतरे, सहसरार- तैं आय। दशमी जेठ असेत ही, जजिहूँ हरष उपाय॥1॥ ऊँ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णा-दशम्यां गर्भकल्याण-मण्डिताय श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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माघ शुक्ल तिथि चैथि को, जनमे सुरपति आय। सुर गिरि सनपन करि जजे, मैं जजिहूँ गुण गाय।।2।। ॐ ह्रीं माघशुक्ला-चतु,यां जन्ममंगल-मण्डिताय श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
तज्यो राज कम्पिलापुरी, श्रीजिनवर वन जाय। चैथि माघ सित तप-धर्यो, जजिहूँ तूर बजाय।।3।। ऊँ ह्रीं माघशुक्ला-चतु,यां तपोमंगल-पमण्डिताय श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
माघ शुकल षष्ठी विर्षे, हने घातिया जान। कह्यो धर्म केवलि भये, जजहूँ ज्ञानकल्यान।।4।।
ऊँ ह्रीं माघशुक्ला-षष्ठ्यां केवलज्ञान-प्राप्ताय श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
अष्टमि साढ़ असेत ही, हने अघाति शिवथान। गये विमल सुर सर जजे, जजिहूँ मोक्ष कल्यान।।5।।
ॐ ह्रीं आषाढकृष्णा-षष्ठयां मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला दोहा
विमल विमल-मति दीजिये, हो करुणापति मोहि। करूँ विनती जोरिकर, नमूं-न| पद तोहि।।
(अहो जगत गुरु देव की चाल) अहो विमल जिन देव, सुनियो अरज हमारी। इह संसार-मझारि और न शरणि निहारी।।1।
सुनिये हरि-हर देव, काल सबै ही खाये।
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उनको शरणो कौन, आपु नहीं थिर थाये।।2।। तुम निरभै तजि मोह, ध्यान शुकल प्रभु ध्यायो। उपज्यो केवल ज्ञान, लोकालोक लखायो।।3।।
समवशरण की भूति, दोष या लखि भागे। सुपन न तो ढिंग थाय, असुरन के संग लागे।।4।।
धरो जनम नहिं फेरि, मरण नहिं निद्रा नासी। रोग नाहि, नहिं शोक मोह की तोरी फांसी।।5।। विस्मय को नहिं लेश, धीर भय प्रकृति विदारी। जरा नांहि नहिं खेद, पसेव न चिन्ता टारी।।6।। मद नाहीं नहिं वैर, विषय नहीं रति नहीं कातें। प्यास हनी हनि भूख, अष्टदश दोष न यात।।7।
नमूं शीश धरि हाथ, ख्यात देवन के देवा। छयालिस गुण-भण्डार, करूँ प्रभु तेरी सेवा।।8।।
न| दिगम्बर रूप, नमूं लखि निश्चल-आसन। मुद्रा शान्ति निहार, नमूं नमिहूँ तुम शासन।।9।।
न| कृपानिधि तोहि, नमूं जगकरता थे ही। अशरण कू तुम शरण, हरो भव के दुख ये ही।।10।। ___ जामन, मरण, वियोग, सोग इत्यादि घनेरे। फेरि नआनू निकट, करो प्रभु ऐसी मेरे।।11। तुम लखि दीन दयाल, शरणि हम यातें आये। ऐसे देव निहारि, भागि- तुम प्रभु पाये।।12।।
रामचन्द्र कर जोरि, अरज करिहै जिन ऐसी। विपति यहै जग मांहि, सबै तुम जानत तैसी।।13।।
यातें कहनी नाहि, हरो जिन साहिब मेरे।
बिन-कारण जग-बन्धु, तुही अन-मतलब केरे।।14।। शरण-गहे की लाज, राखि जगपति जिन स्वामी। करुणा करि संसार, विमल जिन अन्तरयामी।।13।।
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दोहा
विनती विमल जिनेश की, जो पढसी मन लाय। जनम-जनम के पाप सब, ततछिन जायं पलाय ।। ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री अनन्तनाथ जिन-पूजा ( रचयिता - श्री रामचन्द्र जी )
(अडिल्ल)
वाह्य-अभ्यन्तर त्यागि परिग्रह जति भये । बहुजन-हित शिवपन्थ दिखायो हरि गये।। ऐसे अन्त जिनेश, पाय नमिहूँ सदा । आह्वानन विधि करूँ त्रिविध करिकें मुदा ॥1॥
ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम् )
ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम् ) ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
नाराच छन्द
क्षीर-नीर हीर- गौर सोम-शीत धारया ।
मिश्र - गन्ध रत्न - भंग पाप नाश कारया ।।
अनन्तनाथ -पाय- सेव मोख्य-सौख्य दाय है।
अनन्तकाल-श्रमज्वाल पूजतैं नसाय है ।।
ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 1 ।
कुंकमादि चन्दनादि गन्ध शीत-कारया ।
सम्भवेत अन्तकेन भूरि-ताप- हारया।।
अनन्तनाथ -पाय- सेव मोख्य-सौख्य दाय है।
अनन्तकाल-श्रमज्वाल पूजतैं नसाय है।।
ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय भवाताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 2।
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श्वेत इन्दु कुन्द हार खण्ड-ना अखित्त ही।
दुर्ति खण्डकार पुंज धारिये पवित्त ही।। अनन्तनाथ-पाय-सेव मोख्य-सौख्य दाय है।
अनन्तकाल-श्रमज्वाल पूजते नसाय है।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।3।
सुरोपुनीत पुष्पसार पंच-वर्ण ल्यावही। गन्ध-लुब्ध भृगवृन्द शब्द धारि आवही।। अनन्तनाथ-पाय-सेव मोख्य-सौख्य दाय है।
अनन्तकाल-श्रमज्वाल पूजते नसाय है।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
मोदकादि घेवरादि मिष्ट स्वादसार ही। हेम-थाल धारि भव्य दुष्ट-भूख टारही।। अनन्तनाथ-पाय-सेव मोख्य-सौख्य दाय है।
अनन्तकाल-श्रमज्वाल पूजते नसाय है।। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
रत्न-दीप तेज भान हेमपात्र धारिये। भवान्धकार दुःखभार मूल निवारिये।। अनन्तनाथ-पाय-सेव मोख्य-सौख्य दाय है।
अनन्तकाल-श्रमज्वाल पूजते नसाय है।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
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देवदारु कृष्ण सार चन्दनादि ल्यावही। दशांग धूप धूम्र-गन्ध भृगवृन्द धावही।। अनन्तनाथ-पाय-सेव मोख्य-सौख्य दाय है।
अनन्तकाल-श्रमज्वाल पूजते नसाय है।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
श्रीफलादि खारिकादि हेमथाल में भरे। सुष्ठ मिष्ट गन्धसार चक्खि नासिका हरे।। अनन्तनाथ-पाय-सेव मोख्य-सौख्य दाय है।
अनन्तकाल-श्रमज्वाल पूजते नसाय है।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
छप्पय सलिल शीत अति स्वच्छ मिष्ट चंदन मलयागर। तन्दुल सोम-समान पुष्प सुरतरु के ला वर॥ चरु-उत्तम अति मिष्ट पुष्ट रसना-मन-भावन।
मणि-दीपक तमहरण धूप कृष्णागर-पावन।। लहि फल उत्तम कनकथाल भरि, अरघ रामचन्द इम करे।
श्री अनन्तनाथ के चरण-जुग, वसुविधि अरचे शिव वरै।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक
(दोहा) पुष्पोत्तर” चय लियो, सूर्यादे उर आय। कार्तिक पडिवा कृष्ण ही, जजहूँ तूर बजाय।। ऊँ ह्रीं कार्तिककृष्णा-प्रतिपदायां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।।
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जेठ असित द्वादशि वि, जनम सुराधिप जान। सनपन करि सुरगिर जजे, जजहूँ जनम कल्यान।। ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णा-द्वादश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।
जगत-राज्य तृणवत् तज्यो, द्वादशि जेठ असेत। लौकान्तिक सुरपति जजे, मैं जजहूँ शिवहेत।। ऊँ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णा-द्वादश्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।3।
चैत अमावसि अरि हने, घाति कर्म सुखदाय। कह्यो धर्म केवलि भये, जजू चरण सुखदाय।। ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-अमावस्यायां ज्ञानमंगल-मंडिताय श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।41
चैत अमावसि शिव गये, हनि अघाति भगवान। सुर-नर-खगपति मिलि जजे, जजहूँ मोक्षकल्यान।। ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-अमावस्यायां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।।
जयमाला
(दोहा) काल अनन्तानन्त भव, जीव अनन्तानन्त। जिन उतपति-व्यय-ध्रुव कहीं, नमूंऽनन्त भगवन्त।।1।।
चाल - त्रिभुवन गुरु स्वामी जी जय अनन्त जिनेश्वरजी, पुष्पोत्तर” स्वरजी,
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सिंघसेन नरेसुर के चय सुत भयेजी। सूर्यादे माताजी, जग पुण्य-विख्याताजी,
तिनके जगत्राता गर्भविर्षे थयेजी।1। कातिक अँधियारीजी, परिवा अविकारीजी,
साकेत-मझारि कल्याण हरि कियोजी। षट्मास अगारेजी, मणि-स्वर्ण-घनेरेजी,
वरषे नृपकेरे मन्दिर धनंजयो जी।2। द्वादशि अँधियारीजी, जनमे हितकारीजी,
प्रभु जेठ-मझारि सुरासुर आयकै जी। सुरगिरि लै आये जी, भव-मंगल गाये जी,
अभिषेक रचाये पूजे ध्यायकै जी।3। फिर पितु घर लायेजी नचि तूर बजायेजी,
लखि अंग नमाये मात-पिता त जी। तन हेम-महाकविजी, पच्चास धनू रविजी, लख-तीस कहे कवि आयु भई सबै जी।4। नृप-पदवी-धारीजी, लखि-पणदह सारीजी,
सब अनिति विचारि तपोवनकू गये जी। बदी जेठ द्वादशिजी, तप देखि स्वरा ऋषिजी,
पद-पूजि गये नसि पाप सबै गये जी।5। षष्टम करि पूरोजी, भोजन-हित सूरोजी,
पुर धर्म सनूरो आवत देखिकैजी। नवभक्ति-थकी पयजी, विसाख तहाँ दयजी, मणि-विष्टि अखय करि सुरगण पेखिकै जी।6। धरि ध्यान शुकल तबजी, चउ-घाति हनै जबजी,
सुर आय मिले सब ज्ञान-कल्याण ही जी। बदी चैत अमावशिजी, जखि भक्ति तुहे वशिजी, समवादि रच्यौ तसु उपमा भी नहीं जी।7।
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समवादि जिते भविजी, सुनि धर्म तिरे सबजी, प्रभु आयु रही जब मास-तणी तबै जी।
सम्मेद पधारेजी, सब जोग संघारेजी, सम-भाव विथारि वरी शिवतिय जबैजी।8। वसु-गुण-जुत भूषितजी, भव छार बसे तितजी,
सुख-मगन भये जित मावस चैत की जी। सुर सब मिलि आयेजी, शिव मंगल गायेजी, वह पुण्य उपाय चले तुम गुण थकी जी।9। गुण-वृन्द तुम्हारेजी, बुध कौन उचारेजी,
गणदेव निहारे पै वच ना कहैं जी। चन्दराम करै थुतिजी, वसु-अंग-थकी नतिजी,
गुण पूरण द्यौ मति मर्म तुहे लहैजी।10। प्रभु अरज हमारीजी, सुनिज्यो सुखकारीजी,
भव में दुखभारी निवारौ हो धणीजी। तुम शरण सहाईजी, जग के सुखदाईजी, शिवदे पितु माई कहो कबलौं धणीजी।।11।।
(घात्ता छंद) इति गुण-गण सारं, अमल-अपारं, जिन अनन्त के हिय धरई। हनि जर-मरणावलि, नासि भवावलि! शिव-सुन्दरि ततछिन वरई।।
ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय महायँ निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।
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श्री धर्मनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द जी)
(रोला छन्द) सार दरब-षट् कहे पदारथ-नव शुभ भाखे। सप्त-तत्त्व वरणये काय पंचासति आखे।। लोक-तीन-थिति कही धर्म जिनवर वृषदायक। आह्वानन विधि करूँ प्रणमि त्रिविधा शिवनायक।।
ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
___ ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
मद अवलिप्तकपोल छन्द अति-निर्मल शुचि-नीर तीर्थ-उद्भव भुंग धारै। शीतल मिश्रित-गन्ध-सुरभि” मधु झंकारै।। जनम-मृत्यु-आताप दुरित-दारित दुख-खण्डनाजघु चरण धरि भक्ति धर्म जिन शिव के मण्डन।
ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
कृष्णागर कशमीर नीर घनसार सुचन्दन। षट्पद-औघ भ्रमन्त सुरभितें दाह-निकन्दन।। जनम-मृत्यु-आताप दुरित-दारित दुख-खण्डन।
जगँ चरण धरि भक्ति धर्म जिन शिव के मण्डन। ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
सोम-किरण-सम श्वेत शुद्ध डण्डीर अखण्डित। अति-निर्मल चखि-हरे, सालि-शुभ सौरभ-मण्डित।।
जनम-मृत्यु-आताप दुरित-दारित दख-खण्डन।
जनँ चरण धरि भक्ति धर्म जिन शिव के मण्डन। ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।31
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पंच-वर्ण-मय कुसुम कल्पतरु के मन भावै। गन्ध-लुब्ध मधु भ्रमै समर के बाण नसावै।। जनम-मृत्यु-आताप दुरित-दारित दुख-खण्डन।
जनँ चरण धरि भक्ति धर्म जिन शिव के मण्डन। ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथ जिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4
उज्ज्वल ललित पवित्र कनक-भाजन चरु धारै।
मधुर घृत्त-रस-युक्त क्षुधा लखनै निरवारै।। जनम-मृत्यु-आताप दुरित-दारित दुख-खण्डन।
जनँ चरण धरि भक्ति धर्म जिन शिव के मण्डन। ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
मणिमय निर्मित दीप-कान्ति तम-औघ विदारै। विकसत द्वै वरबोध स्वपर लखि गुण विस्तारै।। जनम-मृत्यु-आताप दुरित-दारित दुख-खण्डनाजजूं चरण धरि भक्ति धर्म जिन शिव के मण्डन।
ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
अगर कृष्ण करपूर सुरभि चन्दन के दाहन।
धूप निर्जरा करै हरै अघ द्वै शिव गाहन।। जनम-मृत्यु-आताप दुरित-दारित दुख-खण्डन।
जनँ चरण धरि भक्ति धर्म जिन शिव के मण्डन। ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
सुर तरु के फल भूरि कनक-भाजन भरि पावन।
श्रीफल मिष्ट बदाम चक्षु-नासा-मन-भावन।। जनम-मृत्यु-आताप दुरित-दारित दख-खण्डन।
जजूं चरण धरि भक्ति धर्म जिन शिव के मण्डन। ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
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जल गन्धाक्षत पुष्प दीप चरु धूप मिलावै । अर्घ रामचन्द करै नेमि फल शिव-सुख पावै।। जनम-मृत्यु-आताप दुरित-दारित दुख-खण्डन। जजूँ चरण धरि भक्ति धर्म जिन शिव के मण्डन
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 9।
पंचकल्याणक (दोहा)
सर्वारथ-सिधितैं चये, गर्भ सुव्रतासार तेरसि सित बैशाख की, लयो जजूँ भवतार ॥
ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्ला - अष्टम्यां गर्भमंगल-मण्डिताय श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।1।
जनम माघ सुदी त्रयोदशी, सुरपति लखि इत आय। सुरगिरि ले सनपनि जजे, मैं जजहूँ गुण गाय ||
ॐ ह्रीं माघशुक्ला - त्रयोदश्यां जन्ममंगल-मण्डिताय श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 2।
माघ शकल तेरसि तज्यौ, तृणवत राज महान । धर्यौ धीर तप वन विषै, जजूँ धर्म भगवान
ॐ ह्रीं माघशुक्ला - त्रयोदश्यां तपोमंगल-मण्डिताय श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । 3 ।
पौष शुक्ल पूनम हने, घाति कर्म लहि ज्ञान।
कही सकल थिति लोक की, जजूँ बोध कल्याण।।
ॐ ह्रीं पौषशुक्ला - पूर्णिमायां ज्ञानमंगल-मण्डिताय श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।4।
जेष्ट शुक्ल तिथि चैथी ही, हनि अघाति शिवथान।
गये समेदाचल थकी, जजूँ मोक्ष कल्याण।
ऊँ ह्रीं ज्येष्ठशुक्ला-चतुर्थ्यां मोक्षमंगल-मण्डिताय श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
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जयमाला दोहा बन्दं श्री जिन-धर्म के, पद-नख-मण्डन भान। ममता-रजनी-हरण-दिन, भदधि-तारण-जान।।
(चौपाई) सर्वारथसिधतें अहमिन्द्र, चयकर रतनापुरी गुणवृन्द। पिता भानु गुणवन्त अपार, मात सुव्रता गर्भ मझारि।1। आये सित तेरसि वैशाख, नये मुकट हरिधरि अभिलाख। चले सबै सुर जुत-परिवार, गर्भकल्याणक कीनौ सार।2। षट् नव मास थकी मणिविष्ट, वार-तीन दिन माहीं सुविष्ट। करी धनद, सुरि छप्पन पाय, सेवै माता को सुखदाय।3। जनम माघ सुदी तेरसि भयो, तीन-ज्ञान-जुत अचरत थयो। बाजे घण्ट सुमन की विष्ट, इन्द्र चले सब नुति करि इष्ट।4। माया-शिशु धरि शचि जिनन्द, प्रदच्छिन दीनी सानन्द। वासव नमि लीने हरषाय, चले मेरु पाण्डुक वन जाय।5। छीरोदधिलें जल शुभ लाय, सनपन करि भव-मंगल गाय। बाजे साढा-बारा-कोरि, जाति धुनै करि नृत्त बहोरि।6। पूजि पदाम्बुज पितु घरलाय, ताण्डव निरत कियो सुरराय। धर्मनाथ कहि निजथल गये, बाल-चन्द्रसम बढ़ते भये।7। तन कंचन धनु पन-चालीस, आयु वरष लख-दस की ईस। पांच लाख वर्ष कीनो राज, कछु कारण लखि धर्म-जिहाज।8।
तृणवत् त्याग्यो भावन भाय, देव ऋषि नय पूजे पाय। और सुरासुर-खग-अवनीस, सिविका ले थापे वन ईस।9।
कच-लोंचत उपज्यो मनज्ञान, षष्टम धरि तिष्टे भगवान। तेरसि माघ शुकल सुरराय कर्यो कल्याण-तप सुखदाय।10। __ वर्द्धमानपुर भोजन काज, गये दयो पय धर्म-जिहाज। कोटि अर्ध-द्वादश मणि-धार, भई वृष्टि धरसेनि अगार।11।
वरष एक तप दुर्धर धारि, पूनम पोष ध्यान परजारि।
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भस्म घातिया कर वरवीर, केवलज्ञान उपायो धीर।12। वरष अढाई लख उपदेश, भविजन भव” तारि असेश। शेष मास एक आयु जु रहो, गिरसमेद पहुँचे प्रभु सही।13। जोग-निरोधि करे समभाव, हानि अघाति भये शिवराव। चतुर्निकाय देवता आय, उत्सव कीनों मंगल गाय।14। सो मंगल दे जिनपति मोहि, जोरि उभै कर विनऊँ तोहि। जो चर-अचर लोकत्रय मांहि, तुम” परणति छानी नांहि।151
याते मो मन की सब बात, हो त्रिभुवनपति कर विख्यात। रामचन्द्र विनवै प्रभु तोहि, धर्मनाथ जिन दे शिव मोहि।16।
(घत्ता छन्द) इति श्री जिनधर्म, गुणगणपरमं जो भवि मनवचनतन गावै। लहि सुर-सुखसारं, अमल-अपारं, नर द्वै शिव-सुख बहु पावै।।
ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय महायँ निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।
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श्रीशान्तिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी)
शांति जिनेश्वर नमूं तीर्थ वसु दुगुण ही, पंचमिचक्रि अनंग दुविध-षट् सुगुण ही। तृणवत् ऋद्धि सब छारि तप शिववरी,
आह्वानन विधि करूँ वार-त्रय उच्चरी।। ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
शैल हेम ने पतत वापिका शव्यौमही। रत्नभंग-धारि नीर शीत अंग सोमही।। रोग-शोक आधि-व्याधि पूजते नशाय हैं।
अनंत-सौख्यसार शांतिनाथ सेय पाय हैं।। ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
चन्दनादि कुंकुमादि गन्धसार ल्यावही।
भृग-वृन्द गूंज तै समीरसंग ध्यावही।। रोग-शोक आधि-व्याधि पूजते नशाय हैं।
अनंत-सौख्यसार शांतिनाथ सेय पाय हैं।। ऊँ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
इन्दु कुंद हार तै अपार श्वेत साल ही। दुर्ति खंडकार पूंज धारिये विवाल ही।। रोग-शोक आधि-व्याधि पूजते नशाय हैं।
अनंत-सौख्यसार शांतिनाथ सेय पाय हैं।। ऊँ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।।
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पंचवर्ण पुष्पसार ल्याइये मनोग्य ही। स्वर्णथाल धारिये मनोज-नारा-जोग्य ही।। रोग-शोक आधि-व्याधि पूजते नशाय हैं।
अनंत-सौख्यसार शांतिनाथ सेय पाय हैं।। ऊँ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
खण्ड घृतकार चारु सद्य मोदकादि ही। सुष्ट मिष्ट हेमथाल धारि भव्य स्वादि ही।। रोग-शोक आधि-व्याधि पूजते नशाय हैं।
अनंत-सौख्यसार शांतिनाथ सेय पाय हैं।। ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
दीप-जोति को उद्योत धूम होत ना कदा। रत्नथाल धारि भव्य मोह-ध्वांत द्वै विदा।। रोग-शोक आधि-व्याधि पूजते नशाय हैं।
अनंत-सौख्यसार शांतिनाथ सेय पाय हैं।। ऊँ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
अगर-चन्दनादि द्रव्य-सार सर्व धार ही। स्वर्ण-धूपदोन में हुताश-संग जार ही।। रोग-शोक आधि-व्याधि पूजते नशाय हैं।
अनंत-सौख्यसार शांतिनाथ सेय पाय हैं।। ऊँ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
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घोटकेन श्री फलेन हेमथाल में भरे। जिनेश के गुनोघ गाय सर्व एनकू हरे।। रोग-शोक आधि-व्याधि पूजते नशाय हैं।
अनंत-सौख्यसार शांतिनाथ सेय पाय हैं।। ऊँ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
छप्पय
सरद-इन्दु-सम अंबु तीर्थ-उद्भव तृष-हारी। चंदन दाह-निकंद शालि शशिते द्युति भारी।। सुरतरु के वर कुसुम सद्य चरु पावन धारै।
दीप रतनमय जोति धूपतै मधु झंकारै।। फल उत्तम करि अरघ शुभ रामचन्द कनक-थाल भरि।
शांतिनाथ के चरण-जुग वसु-विधि अरचैं भव-धरि।। ऊँ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।9।
पंचकल्याणक (दोहा) सर्वारथ-सिद्धि मैं चये, भादों सप्तमि श्याम।
एरादे-उर अवतरे जगूं गर्भ अभिराम।। ऊँ ह्रीं श्रीं भाद्रपदकृष्णा-सप्तम्यां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।।
जेठ चतुर्दसि कृष्ण की, जन्में श्री भगवान। सनपन करि सुरपति जजे, मैं जजहूँ धरि ध्यान।। ॐ हीं ज्येष्ठकृष्णा-चतुर्दश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।
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जेठ असित चउदसि धर्यो, तप तजि राज-महान सुर-नर-खगपति पद जजैं, मैं जजहूँ भगवान । ॐ ह्रीं ज्येष्ठ कृष्णा - चतुर्दश्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । 31
पौष शुक्ल दशमी हने, घाति-कर्म दुखदाय केवल लहि वृष भाखियो, जजूँ शांति पद ध्याय।। ऊँ ह्रीं पौषशुक्ला दशम्यां ज्ञानमंगल-मंडिताय श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।4।
कृष्ण चतुर्दसि जेठ की, हनि अघाति शिवथान। गये सम्मेदचल थकी, जजूँ मोक्ष कल्यान ।। ऊँ ह्रीं ज्येष्ठ कृष्णा - चतुर्दश्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 5।
जयमाला (सोरठा)
शान्ति-जिनेश्वर-पाय, बंदूँ मन-वच-काय तै। देहु सुमति जिनराय, ज्यौं विनति रुचि करौं। शान्ति करम-वसु हानिकैं, सिद्ध भये शिवजाय। शान्ति करो सब लोक में, अरज यहै सुखदाय
शान्ति करो जग शांति जी ॥1॥
धन्य नगरी हथनापुरी, धन्य पिता- विश्वसेन । धन्य उदर ऐरासती, शान्ति भये सुखदेन॥शान्ति0॥2॥ भादां सप्तमी स्यामही, गर्भ-कल्याणक ठानि । रतन धनद वरषाइयो, षट् -नव मास महान | | शान्ति0॥3॥
जेठ असित चउदश विषै, जनम-कल्याणक इन्द मेरु कर्यो अभिषेक कैं, पूजि नचे सुरवृन्द | | शान्ति ॥4॥
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हेम बरन तन सोहनो, तुंग धनुष - चालीस
आयु बरस-लख नरपती, सेवत सहस-बत्तीस | | शान्ति0॥5॥ षट् खण्ड नवनिधि तिय सवै, चउदह - रतन भंडार । कछु कारण लखिकैं तजे, षणचव आशिय अगार ॥ | शान्ति0॥6॥ देव ऋषी सब आयकै, पूजि चले ज
लेय सुरां शिविका धरी, बिरछ - नंदीश्वर शोधि| | शान्ति0॥7॥ कृष्ण चतुरदसि जेठकी, मनपरजै लहि ज्ञान । इन्द्र कल्याणक-तप कर्यो, ध्यान धर्यो भगवान ||शान्ति0॥8॥ षष्टम करि हित असनकै, पुर सोमनस मंझार
गये दयो पयमित्त जी, बरषे रतन - अपार | | शान्ति0॥ 9 ॥ सहित वसु-गुणी, बरस करे तप-ध्यान।
पौष शुक्ल दशमी हने, घाति लह्यो प्रभु - ज्ञान | शान्ति 0।10। समवशरन धनपति रच्यो, कमलासन पर देव। इन्द्र-नरा षट्-द्रव्य की, सुनि थिति थुति कर एव || शान्ति0॥11॥ धन्य जुगलपद मो तनौ, आयो तुम दरबार
धन्य उभय-चक्षु भये, वदन - जिनंद निहार ॥ शान्ति012৷ आज सफल कर ये भये, पूजत श्री जिन पाय
शीस सफल अबही भयो, धोक्यो तुम प्रभु आय | शान्ति 0।।13।। आज सफल रसना, भई तुम गुणगान करंत।
धन्य भयौ हित मो तनो, प्रभु - पद ध्यान धरं । | शान्ति0॥14॥ आज सफल जुग मो तनौ, श्रवन सुनत तुम बैन। धन्य भये वसु-अंग ये, नमत लयो अति - चैन || शान्ति0॥15॥ राम कहै तुम गुण-तणा, इन्द्र लहै नहीं पार।
मैं मति-अल्प अजान हूँ, होय नहीं विस्तार | | शान्ति ॥16॥ वर्ष-सहस-पच्चीसही, षोडश कम उपदेश ।
देय समेद पधारिये, मास रह्यो इक शेष || शान्ति0॥17॥
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जेठ असित चउदसि गये, हनि अघाति शिवथान। सुरपति उत्सव अति करे, मंगल मोक्ष-कल्यान।।शान्ति0॥18॥
सेवक अरज करै सुनो, हे करुणानिधि देव। दुखमय भवदधि तै मुझै तारि करूँ तुम सेव।।शान्ति0॥10॥
घत्ता-छन्द इति जिन-गुणमाला, अमल रसाला जो भवि कंठे धरई। हुय दिवि अमरेश्वर, पुहमि नरेश्वर, शिव-सुंदरि ततछिन वरई।। ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री कुंथुनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी)
(अडिल्ल) जो परशंसा करें राग तासैं नाहींकरें विरोध न दुष्ट थकी दुख ना कहीं। शुद्धातम में लीन कुन्थ जिनकू न, आह्वानन विधि ठानि सबै अघकू बनूं।। ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
____ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) । ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
त्रिभंगी छन्द अति-आमय दुसतरतें तृट थवे, दुख पावै अति ही भारी। तिस नासन-काण पूजन आयो, तीरथ को जल भरि झारी।। श्री कुन्थु जिनेश्वर आपन से चर, लखि पोषे षट् धरि करुणा।
मैं काल-अनन्त अकाज गमायो, अब तारौ तुम पद-शरणा।। ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
भव-गाहत श्रमतें दाह भयो, मुझ, छिन सुख नाहीं का वरणा। घसि कुंकुम चन्दन दाह-निकन्दन, पूजन ल्यायो हरि-शरणा।। श्री कुन्थु जिनेश्वर आपन से चर, लखि पोषे षट् धरि करुणा।
मैं काल-अनन्त अकाज गमायो, अब तारौ तुम पद-शरणा।। ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय भव-आताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
इह संसार-अपार-उदधिकू, तारण भक्ति तुही नवका। सित तन्दुल ल्यावै पुंज बनावें, लहु पावै ते सुख शिव का।। श्री कुन्थु जिनेश्वर आपन से चर, लखि पोषे षट् धरि करुणा।
मैं काल-अनन्त अकाज गमायो, अब तारौ तुम पद-शरणा।। ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।3।
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सुर-असुर, विद्याधर हरिहर, प्रतिहर, ब्रह्मा भ्रष्ट मदन की । सुरतरु के कुसुम-थकी पद पूजूँ, हरो समर इन दुख दीने।। जिनेश्वर आपन से चर, लखि पोषे षट् धरि करुणा । मैं काल-अनन्त अकाज गमायो, अब तारौ तुम पद- शरणा।। ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
श्री
दोष अठारा यातैं होवैं, क्षुधा तृपति ना नित खातैं। सद-घेवर, मोदक पूजन ल्यायो, हरो वेदना-दुख यातैं।। श्री कुन्थु जिनेश्वर आपन से चर, लखि पोषे षट् धरि करुणा । मैं काल-अनन्त अकाज गमायो, अब तारौ तुम पद - शरणा।। ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। 5।
मोह-महातप छाय रह्यो मम, ज्ञान हर्यो अति दुख दीना । मणिदीप-उजारा तुम-ढिग धारा, स्वपर लखै तम है छीना।। श्री कुन्थु जिनेश्वर आपन से चर, लखि पोषे षट् धरि करुणा । मैं काल-अनन्त अकाज गमायो, अब तारौ तुम पद- शरणा।।
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार- विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
कारागार इहै में मुझ, मूदि महा दुख विधि पारें । विधि-इन्धन जारन भरि धूपायन, अगर हुतासन-संग जारें।। श्री कुन्थु जिनेश्वर आपन से चर, लखि पोषे षट् धरि करुणा । मैं काल-अनन्त अकाज गमायो, अब तारौ तुम पद-शरणा।। ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। 7।
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मोक्षिनगर मम रोकि रह्यो, अन्तराय-करम मुझ बल हरिकै।। शिव-कारण फल ले पूजन आयो, स्वर्ण-थाल तुम ढिग भरिकैं।।
श्री कुन्थु जिनेश्वर आपन से चर, लखि पोषे षट् धरि करुणा।
मैं काल-अनन्त अकाज गमायो, अब तारौ तुम पद-शरणा।। ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
जल गन्धाक्षत पुष्प दीप चरु, धूप फलोत्तम अर्घ करें।
श्रीजिन-गुण गावें तूर बजावें,रामचन्द्र शिवरमणि वरें।। श्री कुन्थु जिनेश्वर आपन से चर, लखि पोषे षट् धरि करुणा।
मैं काल-अनन्त अकाज गमायो, अब तारौ तुम पद-शरणा।। ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।9।
पंचकल्याणक (दोहा) दशमी श्रावण कृष्ण ही, तजि सरवारथ सिद्धि। गर्भ लयो श्रीमति-उदर, जर्जे देहु शिव ऋद्धि।। ॐ ह्रीं श्रावणकृष्णा-दशम्यां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।।
प्रतिपद सित वैसाख ही, जनम सुराधिप जानि। उत्सव करि सुरगिरि जजे, मैं जजहूँ भव हानि।। ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्ला-प्रतिपदायां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।
तज्यो षट्खंड विभौ जिनचंद, विमोहित-चित्त चितार सुछंद। धरे तप एकम शुद्ध विशाख, सुमग्न भये निज-आनंद चाख।। ॐ ह्रीं वैशाखशुक्ला-प्रतिपदायां तपोमंगल-मंडिताय श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।3।
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चैत शुकल तृतिया हने, घात करम लहि ज्ञान। कह्यो धर्म सुनि भवि तिरे जजहूँ ज्ञान कल्यान।। ॐ ह्रीं चैत्रशुक्ला-तृतीयायां ज्ञानमंगल-मंडिताय श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।4।
पडिवा सित वैशाख ही, सकल-कर्म हनि मोखि।
गये सम्मेदाचल थकी, जजूं चरण गुण-घोखि।। ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्ला-प्रतिपदायां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।5।
जयमाला (दोहा) जय कुन्थु जिनेश्वरजी, बन्दूँ परमेश्वरजी, सरवारथसिद्धि थकी, चय आइयेजी। श्रीमति-उर थायेजी, नृप-सूर्य सुहायेजी, बदि श्रावण दशमी मंगल गाइएजी।1। वारणपुर-थानाजी, हरि जन्म-कल्यानाजी, मिलि आए वैशाख शुकल परिवा सबैजी। सुरगिरि ले आयेजी, जल छीर सुल्यायेजी, अभिषेक सिंगार करी पूजा सबैजी।2। फिर पितु-ढिग ल्यायेजी, नचि तूर बजायेजी, लखि अंग नमाये मात-पिता सबैजी। तन-कंचन सोहैजी, रवि-कोटिक को है जी, धनु तुंग पैंतीस अजा-लच्छ फबैजी।3।
वय बाल बिहाईजी, नृप-पदी पाईजी, शुभ-चक्र इत्यादि भण्डार विर्षे भयेजी। षट्-खण्ड के भूपाजी, बलधार अनूपाजी, सुर संग मझारि इत्यादि सबै जयेजी।4।
नृप-शेखर धाराजी, सेवै पद साराजी, बत्तीस हजार तिया तिगुणी लहीजी। कछु कारण पायोजी, भव चंचल भायोजी, नवनिधि सिंगार विभौ विषवत् तजोजी।5। लौकान्तिक आयेजी, पद पुष्प चढायेजी, नुति कर थुति ठानि सम्बोधि घरां गयेजी। शिव का हरि कीनीजी, मिलि कांधै लीनीजी, वन जाय तिलक-तरु तलि ठयेजी।6। सिंगार उतारेजी, शिर-केश उपारेजी, नमः सिद्धि उचारि सुधातम ध्याइयोजी।
वैशाख उजारेजी, परिवा तप धारेजी, तबही मनज्ञान जिनेश्वर पाइयोजी।7। षष्ठम करि पूरोजी, भोजन-हित सूरोजी, पुर मन्दिर धीर लखत भूपा धरेजी।
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वरदत्त निहारेजी, नमः तिष्ठ उचारेजी, पय-दान सुरां लखि पंचाश्चर्य करेजी।8। षोडष वर्ष ताइंजी, करि तप अधिकाईजी, आतम-लव ल्याय हने चउ-घातियाजी। केवल लहि ज्ञानीजी, त्रैलोक्य बखान्योजी, सित-तीज कल्यानौ चैत सुरां कियोजी।9।
सब आरज विहरेजी, भवि तारि घनेरीजी, सब आयु निवेरि सम्मेदाचल गयेजी। बैशाख सु प्रतिपदजी, अघाति करे रदजी, तब मोक्ष-महापद कुन्थुजिना गायेजी।10।
श्रीजिनवर स्वामीजी, गुणपूरण-धामीजी, करुणानिधि-नामी अरज सुनो करूँजी। भव-वास महा-वनजी, इसमें सुख ना छिनजी, बिन-कारण ये जन बैर करै डरूँजी।11।
तुम शरण-सहाईजी, बिन-कारण भाईजी, हो त्रिभुवन-राई शरणि तुहे गहूँजी। गुणगण सब थारेजी, रामचन्द उचारेजी, हरि बैर हमारे सौख्य सदा लहँजी।12।
(घत्ता छन्द) गुणगण-अविकारं, भवधि-तारं, कुन्थु जिनेवर के अमलं। सुर-नर-खग ध्यावे, शिवपद पावें, रामचन्द पद जजि कमल।1। ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री अरनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी )
(अडिल्ल)
तजि षट्खण्ड भू ऋद्ध जीर्ण-तृणवत् सबै, शुद्धात मे लीन भये अर जिन जबै ।
ध्यान-खड्गतैं हने करम-वसु मैं नमूँ, आह्वनन विधि ठानि सबै अधकूं बहूँ।।
ॐ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम् )
ॐ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम् )
ऊँ ह्रीं श्रीअरनाथजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
(गीता छंद )
शरद ऋतु के इन्दुतैं सित, तीर्थ-उद्भव नीर ही । भरि भृंग-मणिमय धार देवें, नसै त्रिविधा - पीर ही ।। अरनाथ दुस्तर हानि अरि, वसु मोक्ष निरभै ह्वै गये।
शत-इन्द्र आय उछाह कीनो, जजूँ पुलकित अंग ये॥1॥
ऊँ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।1।
घनसार अगर मिलाय कुंकुम, घसत परिमल दिग महै। चंचरीक शब्द-करन्त आवैं, पूजि जिन भवताप दहै।। अरनाथ दुस्तर हानि अरि, वसु मोक्ष निरभै ह्वै गये।
शत-इन्द्र आय उछाह कीनो, जजूँ पुलकित अंग ये।। 2।।
ॐ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय भवाताप - विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 2।
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सित शालि शशितैं खण्ड नाहीं, सरल दीरघ आन ही। करि पुंज जिनवर चरण आगैं, लहै अविचल थान ही
अरनाथ दुस्तर हानि अरि, वसु मोक्ष निरभै ह्वै गये। शत-इन्द्र आय उछाह कीनो, जजूँ पुलकित - अंग ये ।। 3 ।। ऊँ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। 3।
शुभ - कुसुम चारु अपार - परिमल, कल्पतरु के पावने। चखि-घ्राण-हारी भरूँ थारी, समर - बाण नसावने || अरनाथ दुस्तर हानि अरि, वसु मोक्ष निरभै ह्वै गये। शत-इन्द्र आय उछाह कीनो, जजूँ पुलकित अंग ये। 4।।
ॐ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
वर-खण्ड घृत पकवान सुन्दर, स्वर्ण - भाजन में भरे । अति-मिष्ट रसना-भावने, जिन- पूजि रोग क्षुधा हरै || अरनाथ दुस्तर हानि अरि, वसु मोक्ष निरभै ह्वै गये। शत-इन्द्र आय उछाह कीनो, जजूँ पुलकित अंग ये ॥ 5 ॥
ॐ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। 5।
मणि-दीप-जोति उद्योत-अद्भुत, ध्वान्त-नाशन भान ही।
धरि कनक-भाजन पूजि-जिनवर, लहैं केवलज्ञान ही ।।
अरनाथ दुस्तर हानि अरि, वसु मोक्ष निरभै ह्वै गये।
शत-इन्द्र आय उछाह कीनो, जजूँ पुलकित अंग ये।। 6 ।।
ॐ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 61
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घनसार अगर दशांग धूप सु, स्वर्ण-धूपायन भरें। जिन-चरण आगें खेय भविजन, दुष्ट कर्म सबै जरें।।
अरनाथ दुस्तर हानि अरि, वसु मोक्ष निरभै द्वै गये।
शत-इन्द्र आय उछाह कीनो, जनूं पुलकित-अंग ये।। 7॥ ऊँ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
बादाम श्रीफल दाख खारिक, आदि फल बहु-मिष्ट ही। भरि कनक-थाल जिनान धारे, पाय शिव-फल सुष्ट ही।।
अरनाथ दुस्तर हानि अरि, वसु मोक्ष निरभै द्वै गये। शत-इन्द्र आय उछाह कीनो, जजूं पुलकित-अंग ये।। 8।। ॐ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
वर नीर गन्ध सुगन्ध तन्दुल, पुष्प चरु अरु दीप ही। करि अर्घ धूप फलार्घ ले करि, रामचन्द्र अनूप ही।।
अरनाथ दुस्तर हानि अरि, वसु मोक्ष निरभै द्वै गये।
शत-इन्द्र आय उछाह कीनो, जनँ पुलकित-अंग ये।। 9॥ ऊँ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक
(दोहा) फागुन सुदी तृतीया चये, अपराजित इन्द।
उदर सुमित्रा अवतरे, जनूं देव गुण-वृंद।। ऊँ ह्रीं फाल्गुनशुक्ला-तृतीयायां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।।
अगहन चउदशि शुकल ही, जनमे जुत त्रय ज्ञान।
हरि सनपन करि गिरि जजे, जजहूँ जनम कल्याण।। ऊँ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्ला-चतुर्दश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।21
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मगसिर दशमी शुकल ही, षट्खण्ड राज-महान।
तृणवत् तजि तप वन धर्यो, जजूं चरन धरि ध्यान।। ऊँ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्ला-दशम्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।3।
कार्तिक द्वादशि शुकल ही, घाति-कर्म हनि ज्ञान।
लह्यौ धर्म-दुविधा कह्यो, जजहूँ ज्ञानकल्यान। ऊँ ह्रीं कार्तिकशुक्ला-द्वादश्यां ज्ञानमंगल-मंडिताय श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।4।
चैत अमावश शिव गये, सर्व कर्म हनि देव।
चतुरनिकाय सुरा जजे, मैं जजहूँ वसु-भेव।। ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-अमावस्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।5।।
जयमाला (दोहा) अर-जिनके पद-कमल-जुग, बन्दूँ शीश नवाय। देहु सुमति विनती रचूँ, पढ़ें पाप नशि जाय।।1। अर अराति-वसु हानि के, शिवतिय के पति थाय। सुख-अनन्त ता संग लहैं, बन्दू गुण मन-लाय।।
बुध हो, अर-जिन ध्यावौ भावसोंजी।।2।। ध्यायत शिव-पदवी लहै, नर-पद की इह बात। भृत्य होय सुरपति रहै, देखों फल अवदात।। बुध हो, अर-जिन ध्यावौ भावसोंजी।। 3॥
हस्तनागपुर मैं न, पिता सुदर्शन-पाय। मात सुमित्रा-कूखि मैं, आए त्रिभुवन-राय।। बुध हो, अर-जिन ध्यावौ भावसोंजी।। 4।। फागुन सुद तृतिया को, सुरपति गर्भकल्यान। रतन-वृष्टि धनपत करी, षट् नव मास महान।। बुध हो, अर-जिन ध्यावौ भावसोंजी।। 5।।
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मगसिर सुदी चउदशि विषै, जनमे सुरपति आया। करि सनपन सुर गिरि जजे, पूजे तूर बजाय ।। बुध हो, अर-जिन ध्यावौ भावसोंजी ॥ 6॥ आयु असी चउ-सहस की, तन कंचन धनु तीस। मुकट-बन्ध नरपति करें, सेवा सहस-बतीस बुध हो, अर-जिन ध्यावौ भावसोंजी ॥ 7 ॥ कछु कारण प्रभु पायकैं, भव-तन-भोग विनिन्दि। देव ऋषी सब आयकैं, बोधि चले पद वन्दि ||
हो, अध्याव भावसोंजी ॥ 8 ॥ मगसिर सुदी दशमी तजे, षट्खण्ड रतन-महान। छिनवैं सहस, तिया तजी अम्ब तलैं धारि ध्यान || बुध हो, अर-जिन ध्यावौ भावसोंजी ॥ 9॥ षष्ठम पूरौ करि चले गजपुर भोजन-काज । प्रभु के कर पर कर कर्यो, अपराजित महाराज। बुध हो, अर-जिन ध्यावौ भावसोंजी || 10 नवधा-भक्ति सुरां लखो, करी वृष्टि सुख पाय। साढा-द्वादश कोटि ही, मणि- सुवरण बरसाया। बुध हो, अर-जिन ध्यावौ भावसोंजी।। 11॥
षोडश वरष करे भले, उग्र उग्र तपसार । कातिक सुदी द्वादशि हने, घाति-करम दुखकार। बुध हो, अर-जिन ध्यावौ भावसोंजी ॥ 12।
केवलज्ञान उपायकैं, को धर्म भवतार | द्वादश-व्रत श्रवक तणे, दस-विधि वृष अनगार।। बुध हो, अर-जिन ध्यावौ भावसोंजी ॥ 13 ॥ चैत अमावश सब सुरां, आये चतुर- निकाय मोख-सुथानक पूजिकैं, ध्याये मंगल गाय।।
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बुध हो, अर-जिन ध्यावौ भावसोंजी।। 14।। विरहि सम्मेदाचल गये, आयु रही इक मास। जोग-निरोधि अघातिया, हनि लीनो शिववास।। बुध हो, अर-जिन ध्यावौ भावसोंजी।। 15।।
अविनाशी सुखमय तहां, ज्ञानरूप निरवाधा लखें काल भव की सबै, परणति बोध अगाध।। बुध हो, अर-जिन ध्यावौ भावसोंजी।। 16।। तुम करुणानिधि जगपती, जगनायक भगवान। रामचन्द विनीत करें, द्यौ मुझ अविचल-ज्ञान।। बुध हो, अर-जिन ध्यावौ भावसोंजी।। 17॥ ध्यावत शिव-पदवी लहै, नर-पद की कहा बात। भृत्य होय सुरपति चलै, देखो फल अवदात।। बुध हो, अर-जिन ध्यावौ भावसोंजी।। 18।।
(घता छन्द) अर-जिन गुण-सारं, बिबुध अपारं, गावत अहनिशि मन-धरई। तसु कीरत देवा-खग-नृप सेवा, ठानत उत्सव बहु करई।1।।
ॐ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय महायँ निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री मल्लिनाथ जिन-पूजा ( रचयिता - श्री रामचन्द जी )
(अडिल्ल)
मलि सनाह सजि शील मदन-दुस्तर हर्यो,
अनुप्रेक्षा- सर साधि मोहभट जय कर्यो ।
प्रवज्या शिव का साजि वरांगण शिव वरी, आह्वानन विधि करूं प्रणमि गुण हिय धरी ॥
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम् ) ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
( नाराच छन्द)
इन्दु कुन्द छारतैं अपार-श्वेत वारही। मिश्र गन्ध भृंग धारिकैं निकारि धारही || अनेक गीत, नृत्य, तून ठानिये विनोदस्यौं ।
अनर्घ-द्रव्य ल्याय मल्लिनाथ पूजि मोदस्यौं । । 1 ॥
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
गन्ध चन्दनाहि ले भवादि- दाहकूं हरै। शरद ह्वै सनेह उष्ण बूंद एक जो परै ।।
अनेक गीत, नृत्य, तून ठानिये विनोदस्यौं ।
अनर्घ-द्रव्य ल्याय मल्लिनाथ पूजि मोदस्यौं॥ 2॥
ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
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राय-भोग्य के मनोग्य तन्दुलौघ सार ही । सरल चित्त-हार श्वेत पुंज भव्य धार ही ।। अनेक गीत, नृत्य, तून ठानिये विनोदस्यौं । अनर्घ-द्रव्य ल्याय मल्लिनाथ पूजि मोदस्यौं। 3 ॥
ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
सुरोपुनीत पुष्पसार पंच-वर्ण ल्याइये। जिनेन्द्र अग्र धारिकैं मनोजकूं नसाइये।
अनेक गीत, नृत्य, तून ठानिये विनोदस्यौं ।
अनर्घ-द्रव्य ल्याय मल्लिनाथ पूजि मोदस्यौं॥ 4॥
ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय कामबाण - विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मोदकादि घेवरादि घृत खण्ड करें। स्वर्ण-थाल धारतैं क्षुध्यादि रोगकूं हरें ।। अनेक गीत, नृत्य, तून ठानिये विनोदस्यौं । अनर्घ-द्रव्य ल्याय मल्लिनाथ पूजि मोदस्यौं॥5॥
ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विध्वंसनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नदीप तेज भान हेम - थाल में भरें। जिनेन्द्र-अग्र धारि भव्य मोह-ध्वान्तकूं हरें ।। अनेक गीत, नृत्य, तून ठानिये विनोदस्यौं ।
अनर्घ-द्रव्य ल्याय मल्लिनाथ पूजि मोदस्यौं॥ 6॥
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार - विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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दशांग धूप चन्दनादि स्वर्ण-पात्र में भरें। हुतास-संग धारि कर्म-औघ भव्य के ज।।
अनेक गीत, नृत्य, तून ठानिये विनोदस्यौं।
अनर्घ-द्रव्य ल्याय मल्लिनाथ पूजि मोदस्यौं।। 7॥ ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।71
मिष्ट सुष्ठु श्रीफलादि घ्राण-चक्खिकू हरें। मनोग्य चित्त-हार पूज-जोग्य थाल में भरें।।
अनेक गीत, नृत्य, तून ठानिये विनोदस्यौं।
अनर्घ-द्रव्य ल्याय मल्लिनाथ पूजि मोदस्यौं।। 8।। ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
(छप्पय) सलिल सुच्छ शुभ गन्ध मलयतें मधु झंकार। तन्दुल शशितें श्वेत कुसुम-परिमल विस्तारै।।
क्षुधा-हरण नैवेद रतन-दीपक तम नासै। धूप दहै वसु-कर्म मोख-मग फल परकास।।
इम अघ्र करें शुभ-द्रव्य ले, रामचन्द्र कनथाल भरि। ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
___पंचकल्याणक (दोहा) चैत शुक्ल प्रतिपद चये अपराजिततें इन्द्र। प्रजावती-उर अवतरे, जनूँ मल्लिगुण-वृन्द।। ॐ ह्रीं चैत्रशुक्ला-प्रतिपदायां गर्भमंगल-मण्डिताय श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।।
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अगहन सुदी एकादशी, सुरपति चुरनिकाय। सुरगिरि सनपन करि जजे, मैं जजहूँ गुण गाय।। ऊँ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्ला-एकादश्यां जन्ममंगल-मण्डिताय श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।2।
भवभय-करि तृणवत् तज्यौ , जगत-राज धर धीर।
सित अगहन एकादशी, जनँ धर्यो तप वीर।।। ऊँ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्ला-एकादश्यां तपोमंगल-मण्डिताय श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।।
पौष कृष्ण दोयज हने, घाति-कर्म दुख-दाय। केवल लै वृष भाखियो, जनूँ ज्ञान गुण गाय।। ऊँ ह्रीं पौषकृष्णा-द्वितीयायां ज्ञानमंगल-मण्डिताय श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।41
फाल्गुन पंचमि शुकल ही, शेष-कर्म हनि मोख। गये सम्मेदाचल थकी, शित-हित पद गुण-घोख।। ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्ला-पंचम्यां माक्षमंगल-मण्डिताय श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।।
जयमाला (दोहा) बालपनैं मल्लिनाथ जी, विषय-अरनि दुख-कार। प्रगट भस्म तप-अग्नितें, करे न[ पद सार।।1।
(पद्धरि छन्द) जय तीन-जगतपति मल्लिदेव, भव-उदधितार तुम शरण एव। जय धर्म-तीर्थ-करता जिनेश, जगबन्धु बिना-कारन महेश।1। जय तीर्थराज किरपा-निधान, जय मुक्तिरमा-भरता सुजान।
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जयस्वयंबुद्ध शम्भू महान, जय ज्ञानचक्षि-करि विश्व जान।2।
जय स्व-पर-हितू मदमोह-सूर, दीक्षा-कृपाण गहि तुरत चूर। जय तेरह चारित अमल धार, हत-राग-द्वेष वय अति कुमार।3। तुम ज्ञानपोत लहि भवि अनेक, भव-सिन्धु तरे संसय न एक। तुम वचनामृत-तीरथ महान, द्वै पावन जे करिहैं सनान।4।
दुःकर्म-पंक छिन ना रहाय, तुम बैन-मेघ करिकें जिनाय। तुम ज्ञान-भान करिकें महेश, द्वै तिमिर-मोह को छय अशे।5।
शिव-पन्थ भव्य निर्विघ्न जाय, तेरी सहाय निर्वान पाय। बहुत जोगीश्वर तम शरण थाय, निर्वान गए जासी अघाय।6।
जय दर्शन-ज्ञान-चरित्त-ईश, धर्मोपदेश-दाता महीश। जय भव्यनि कर तारन-जिहाज, भवसिन्धु-प्रचुर तुम नाम पाज।7। तुव नाम मन्त्र जो चित धरेय, सर्वारथ-सिधि शिव-सौख्य लेय। मैं विनऊँ त्रिविधा जोरि हाथ, मुझ देहु अछै-पद मल्लिनाथा8।
(घत्ता-छन्द) श्रीमल्लि जिनेश्वर नमतसुरेश्वर, वसु-विधि करि जुग-पद चरचै। दुह-जर-मरणावलि नसै भवावलि, रामचन्द्र शिवतिय परच।। ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि॥
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श्री मुनिसुव्रतनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी)
(अडिल्ल) सकल परीषह जीति ध्यान-असिौं हने, घाति-चतुक लहि ज्ञान भव्य बोधे घने। मुनिसुव्रत जिन-पाय न| शिर नायकैं,
आह्वानन विधि करूँ चरण लव ल्यायकैं।। ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
(चाल-जोगीरासा) इन्दु शरद ऋतु का अंगतै सित, मुनि-चित्त-सम अधिकारी।
शीत सुगन्ध तट प रसत नासै, तीर्थोदक भरि झारी।। __मुनिसुव्रत जिनने पद पूजें, दोष दुगुण-नव नासै।
लोक सकल कर-रेख ज्यौं देखै, ऐसौ ज्ञान प्रकारौ।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
घसि मलियागर कुंकुम के संग, कृष्णागर घन सारं। दाह-निकन्दन परिमलते अलि, धावत वृन्द अपारं।।
मुनिसुव्रत जिनने पद पूजें, दोष दुगुण-नव नासै।
लोक सकल कर-रेख ज्यौं देखै, ऐसौ ज्ञान प्रकासै।। 2। ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
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चन्दकिरण-सम उज्ज्वल दीरघ, मन-रंजन अनियारे। तन्दुल-औघ अखण्डित ले करि, पुंज करौं दृग-हारे।।
मुनिसुव्रत जिनने पद पूजें, दोष दुगुण-नव नासै।
लोक सकल कर-रेख ज्यौं देखै, ऐसौ ज्ञान प्रकास।। 3।। ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
कुसुम मनोहर पंच वरण ही, सुरतरु के शुभ ल्यावें। गन्ध सुगन्धे घ्राणहि रंजन, गुंजत षट्पद आवें।। मुनिसुव्रत जिनने पद पूजें, दोष दुगुण-नव नासै।
लोक सकल कर-रेख ज्यौं देखै, ऐसौ ज्ञान प्रकास।। 4।। ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मोदक गूंजा घेवर फेनी, सुरही घीव बनावै।।
रसना रंजन रसतें पूरे, कंचन थाल भरावें।। मुनिसुव्रत जिनने पद पूजें, दोष दुगुण-नव नासै।
लोक सकल कर-रेख ज्यौं देखै, ऐसौ ज्ञान प्रकास।।5।। ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा
दीप र तनमय ज्योति मनोहर, सुवरण-भाजन धारें। ध्वान्त नसै जिम मेघ पवन , रवि आतम विसतारें।।
मुनिसुव्रत जिनने पद पूजें, दोष दगुण-नव नासै।
लोक सकल कर-रेख ज्यौं देखै, ऐसौ ज्ञान प्रकारौ।। 6॥ ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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कृष्णागर मलियागर चन्दन, धूप दशांग मगावें। स्वर्ण-धूपायन संग-हुतासन, जारत मधुकर आवै।।
मुनिसुव्रत जिनने पद पूजें, दोष दुगुण-नव नासै।
लोक सकल कर-रेख ज्यौं देखै, ऐसौ ज्ञान प्रकास।। 7।। ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनायधूपं निर्वपामीति स्वाहा।
फल उत्तम मनहर बहु नीके, श्रीफल दाख मगावै। पुंगी खारिक आदि घनेरे, घ्राणन-चक्खि-सुहावै।।
मुनिसुव्रत जिनने पद पूजें, दोष दुगुण-नव नासै।
लोक सकल कर-रेख ज्यौं देखै, ऐसौ ज्ञान प्रकारौ।। 8।। ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चन्दन तन्दुल चरु दीपक, धूप कुसुम फल ल्यावें।
अर्घ करें चन्द्र वसुविधि ऐसे, सो शिव के सुख पा३।। ___ मुनिसुव्रत जिनने पद पूजें, दोष दुगुण-नव नासै।
लोक सकल कर-रेख ज्यौं देखै, ऐसौ ज्ञान प्रकास।। 9॥ ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक - दोहा प्राणत-स्वर्ग थकी चये, श्यामा-उर अवतार।
श्रावण दोयज कृष्ण ही, लयो, घ्र पद सार।। ॐ ह्रीं श्रावणकृष्णा-द्वितीयायां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा॥1॥
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दशमी बदी वैशाख ही, जनमे जुत-त्रय-ज्ञान। सकल सुरासुर गिरि जजे, मैं जजहूँ धरि ध्यान।।
ऊँ ह्रीं वैशाखकृष्णा-दशम्यां जन्ममंगल-प्राप्ताय श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।2।
कृष्ण दशमी वैशाख तप, धर्यो परिग्रह त्याग। नगन दिगम्बर वन बसे, जजू चरण जुत-राग।।
ऊँ ह्रीं वैशाखकृष्णा-दशम्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।3।।
नौमी बदी वैशाख ही, हने घाति दुख-दाय। कह्यो धर्म केवलि भये, जनूँ चरण गुण गाय।। ऊँ ह्रीं वैशाखकृष्णा-नवम्यां ज्ञानमंगल-मण्डिताय
पजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।4।।
फाल्गुन द्वादशी कृष्ण की, हनि अघाति निरवाण।
गये सुरासुर पद जजे, जजहूँ मोक्षकल्याण।। ऊँ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-द्वादश्यां मोक्षमंगल-मण्डिताय श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।5।।
जयमाला (दोहा) श्री मुनिसुव्रत जिनतेने, नमूं जुगल-पद सार। भवदधि तारणतरण हो, पतित-उधारणहार।।1।।
(चाल- समीन्धर जिनवन्दस्यां जगसार हो) मुनिसुव्रत जिनवन्दस्यां जगसार हो, नगर कुसागर भूप। पिता नमूं सुहमित्तजी जगसार हो, श्रीहरिवंश अनूप।।
अनूप श्रावण दूज कारी, सुरग प्राणततै चये।
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तब मात श्यामा गर्भ आये, लोकत्रय में सुख भये।। सुर-असुर के नय मुकट कंपे, पीठ सब हरि आय ही। गर्भकल्यान महन्त महिमा, ठानि मंगल गाय ही।।1।। षट्-नव-मास त्रिकाल ही जगसार हो, वरषे रतन अपार। बदी दशमी वैशाख की जगसार हो, जिन जनमे तिहँबार।। __ तिहँबार घण्टा आदि बाजे, सबै सुर मिलि आयही। जिन लेय पाण्डुक वन नह्वाये, क्षीर-जल शुभ ल्यायही।।
सिंगार करि पितु मात सोंपे, नृत्य ताण्डव हरि कर्यो। लखि हृदै हरषित भये दम्पति, नाम मुनिसुव्रत धर्यो।।2।। श्याम-वरण तन तुंग है, जगसार हो, बीस धनुष परिमान। तीस सहस वृष आयु है, जगसार हो, कछ-लांछिन शुभ जान।।
शुभ राजपद दस सहस कीनो, त्यागि तृणवत् वन गये। नमः सिद्धेभ्यः कहि लोंच कीनो, ध्यान में प्रभु थिर थये।।
तबही भयो मतिज्ञान सुर-नर, पूजि पद गुण गाइये। वैशाख दशमी कृष्ण चम्पक वृक्ष तालि व्रत भाइये।।3।। करि षष्टम मिथुला गये, जगसार को, भोजन-हित जिनराय। विश्वसेन-नृपजी दयो, जगसार हो, पय लखि सुर हरषाय।।
हरषाये सुर आश्चर्य कीनो, पंच फिरि वन जायही। तप करे ग्यारा वरष द्वादश, भाँति निरभै थायही।।
वैशाख नवमी कृष्ण हरिये, घाति-चउ धरि ध्यानही। लहि ज्ञान लोक-अलोक पेख्यो, भयो बोधकल्यानही।।4।। समोशरण धनपति रच्यो, जगसार हो, मानसथम्भ-त्रिशाल। चउ-चउ गोपुर सोहने, जगसार हो, खाई सजल मराल।। मराल वन-वन कल्पतरु, फुनि चैत्र चम्पक अम्बही। धुन शैल सरित सतूप सुर, तिय नचै हलत नितम्बही।। मधि सभा द्वादश सभामण्डप, कमल-आसन जिन ठये।
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चतु-वक्त्र अंगुल-च्यारि, अन्तर भई धुनि सुनि हरषये।।5।। तरु अशोक त्रय-छत्र है, जगसार हो, चवसठि चँवर ढुरन्त। जोजन वाणी मागधी, जगसार हो, दुन्दुभि मधुर घुरन्त।।
घुरन्त दुन्दभि सुमन वरपै, तुंग-आसन त्रय लसै। तम-पटल भामण्डल विध्वंसै कोटि-रवि की छवि नसै।। वसु प्रातिहारिज-सहित आरिज, देश के भवि बोधिही।
सम्मेदगिरि समभाव प्रणये, भूरि जोग निरोधही।।6।। फागुन द्वादशि कृष्णही, जगसार हो, ध्यान शुकल-असि धार। हनि अघाति शिवपुर लयो, जगसार हो, सुख-अनन्त-भण्डार।।
भण्डार सुख अविकार अवपु सु हीनवृद्ध नहीं कदा। त्रैलोक की तिरकाल परणति, ज्ञान-गर्भित है सदा।। तित जनम-मरण जरा न व्यापै, नांहि सेवक भूपही।
चिद्रूप वसु-गुणमयी राजै, सदा एक सरूपही।।7। तुम गुण सुर-गुरु वरण, जगसार हो, जिह्वा सहस बनाय। तौऊ पार लहैं नहीं, जगसार हो, तो हम पै किम थाय।।
किम थाय हमपै तुहे वरणन, देवगुरु से थकि रहे। हो कृपानाथ अनाथ के पति, इहैं भव दुख मैं सहे।। तुम तरण-तारण दुख-निवाण, तारि भवतें नाथ जी। रामचन्द्र शरणि निहारि आयो, जोरिके जुग हाथजी॥8॥
(दोहा) श्री मुनिसुव्रत देव की, विनती परम रसाल।
जो पढसी सुनिसी सदा, पासी मोक्ष विशाल।।9॥ ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री नमिनाथ जिन-पूजा ( रचयिता - श्री रामचन्द्र जी )
रोड़क
शुक्ल ध्यान परजालि भस्म करि घाति ही । केवलज्ञान उपाय धर्म कहि ख्याति ही ।। प्रतिबुद्ध भवि भये मूँ नमि पाय ही । आह्वानन विधि करूँ तिष्ठ इत आय ही। ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्) ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम् ) ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
(गीता छन्द)
सरित्-गंगा हिमन-परवत, थकी धाव ही। भरत-सनमुख होय नभतैं, परी कुण्ड में आव ही।।
सो नीर निरमल अतिहि, शीतल तृषा-नाशन लेय ही। नमिनाथ जिनके चरण पूजूँ, अमल गुणगण धेय ही।।
ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।1।
उद्यान निरजन मांहि पन्नग, घाम दुखतैं अति भ्रमैं। लखि मलय चन्दन दाह-कन्दन, तासपे सुखतैं रमैं।। सो दारु प्रासुक-नीरतैं घसि, कनक-भाजन लेय ही।।
नमिनाथ जिनके चरण पूजूँ, अमल गुणगण धेय ही || 2 ||
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथ जिनेन्द्राय संसारताप - विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 2 ।
शरद-इन्दु-समन उज्ज्वल, ध मधुकर भमैं।
सरल दीरघ नांहि खण्डित, ज्योति मुक्ता की दमैं।।
सो अखित जलतैं क्षालि भविजन, उभैकर में लेय ही ।
नमिनाथ जिनके चरण पूजूँ, अमल गुणगण धेय ही॥ 3॥ ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद - प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।3।
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कनक-मणिमय सुधर धरिये, पंचवरण सुहावने। जावित्रि आदि अनेक विधि ही, अमर-तरु के पावने।।
सो कुसुम अद्भुत घ्राणहारी, लगें मधु कू प्रेय ही।
नमिनाथ जिनके चरण पूर्जे, अमल गुणगण धेय ही।।4।। ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
खण्ड घृत पकवान सुन्दर, सद्य अनुपम सोहने। अति मिष्ट रसना हरै देखत, क्षुधा-डायन कू हन।।
सो सुष्ट मोदक चारु फैनी, स्वर्ण-भाजनदेय ही।
नमिनाथ जिनके चरण पूजूं, अमल गुणगण धेय ही।। 5।। ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
दीप मणिमय ज्योति सुन्दर, धूमवर्जित ललित ही। तम मोह पटल विलाय ऐसें, पवन ज्यौं घन चलत ही।। सो कनक-भाजन धारि भविजन, चक्खिकू अति प्रेय ही।
नमिनाथ जिनके चरण पूर्जे, अमल गुणगण धेय ही।। 6।। ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
सुभग धूप दशांग चूरण, स्वर्ण-धूपायन भरै। तसु सुरभितें मधु भमैं अति ही, दसौं दिशि मैं रव करै।।
सो द्रव्य भविजन लेहि उत्तम, अगनि के संग खेय ही।
नमिनाथ जिनके चरण पूर्जे, अमल गुणगण धेय ही।। 7।। ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
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बादाम श्रीफल चारु पुंगी, आदि शुभ रलियावने। तसु गन्ध द्वै घ्राण रद्म, लखे चक्खि-सुहावने।। कनक थाल फलते भरों उत्तम, अमर तरु के लेय ही।
नमिनाथ जिनके चरण पूर्जे, अमल गुणगण धेय ही।। 8॥ ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
विमल नीर सुगन्ध चन्दन, अछित श्वेस उजास ही। वर कुसुम चरुतै क्षुधा नासैं, दीप”तम नास ही।।
रामचन्द्र इम अर्घ कीजै, धूप फल शुभ लेय ही। नमिनाथ जिनके चरण पूजूं, अमल गुणगण धेय ही।। 9॥ ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक (दोहा) अपराजित” हरि चये, विपुला-उर अवतार।
दोयज श्याम असोज ही, लयो जनँ भवतार।। ॐ ह्रीं आश्विनकृष्णा-द्वितीयायां गर्भमंगल-मण्डिताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।।
दशमी असित आषाढ़ ही, जनम सुराधिप जान।
सुरगिरि ले सनपन जजे, जजहूँ जनमकल्यान।। ॐ ह्रीं आषाढकृष्णा-दशम्यां जन्ममंगल-प्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।2।
बदी अषाढ़ दशमी तज्यौ, जगत राज्य तप धार।
सुथिर भए निज ध्यान में, जनँ चरण-जुग सार।। ऊँ ह्रीं आषाढकृष्णा-दशम्यां तपोमंगल-प्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।3।
मगसिर सुदी एकादशी, हन घातिया कर्म।
कह्यो धम्र केवलि भये, जजू चरण तजि भर्म।। ऊँ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्ला-एकादश्यां केवलज्ञान-प्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।4।
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चतुरदशी वैशाख बदि, हनि अघाति शिवथान।
गये सम्मेदाचल थकी, जजहूँ मोक्षकल्यान।। ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णा-चतुर्दश्यां मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्रीनमिनाथ जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।।
जयमाला (दोहा) इन्द्र नमत मणि मुकट की, नेक न दति दरसाय। नमि जिन नखमण्डल थकी, त्रिविध नम तिन पाय।।1।।
__ (पद्धति छन्द) जय नमि जिनवर के जुगल पाय, प्रण मनवचतन शीश नाय। अपराजित नाम विमान सार, चय आये मिथिलापुर मंझार।।1।। विजयारथ-तात इक्ष्वाक-वंश, विपुलादेवी-उर सहस-अंश। अश्विनि कुवार दोयज असेत, जिन गर्भ लयो हरि धारि हेत।।2।।
आये कल्याण गरभादि काज, करि उत्सव चाले देवराज। धनपति करि है तिरकाल वृष्ट, षट्मास आदि नव रत्न सुष्ट।।3।।
जय जिन जनमे त्रय-ज्ञान धार, आषाढ़ कृष्ण दशमी मझार। आये सब चतुरनिकाय देव, निज-निज वाहन निज नारि एव।4।। तब सची जाय परसूति थान, नमि गुप्त लये जिन तेज भान। हरि नमसकार करि गोद लेय, सिर छत्र तीन ईशान इय।।5।। फुनि सनतकुमार महिन्द-इन्द, सित-चवर करें शोभा अमन्द। सुरगिरि पाण्डुक वन मांहि जाय अभिषेक कर्यो जल क्षीर लाय।।6।।
सचि पोंछि करै श्रृंगार सार, बहु तूर बजै तिन को नर पार। वसु-विधि पूजा करि निरति ठानि, सन्तोषे सात-पिताति आन।।7।
तन-हेम धनुष पणदह उतंग, दस सहस वरष की आयु चंग। करि राज तज्यौ भयभीत होय, भवभोग विनश्वर काय जोय।।8।। तबही लौकान्तिक आय देव, सम्बोधि चले निज ठानि एव। सौधर्म आदि सुर खचर भूप, शिविका ले चाले वन अनूप।।9।।
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तरु बकुल तलैं सिरकेश टारि, तजि उपाधि सुधातम - ध्यान धार आषाढ़ कृष्ण दशमी महान, इन्द्रादि चले करि तपकल्यान॥10॥ करि षष्ठम नगरी सुजग मांहि, अन काज गये नृपद लखांहि । पय-दान दियो सुर भक्ति देख, आश्चर्य करे पण - विधि बसे । । 11॥ नव मास महातप उग्र ठानि, धरि ध्यान शुकल चउघाति हानि। अगहन सित चउथ सुज्ञान-भास, उपज्यौ सुर-असुर कल्यान ठान।।12। समवादि सहित करिकैं विहार, सम्मेद ठये बहु भव्य तार। वैशाख
कृष्ण चौदशि मझारि, शिववधू वरी सु अघाति जारि॥13॥ तब चतुर-निकायक देव आय, वसु-भेव पूजि बहु पुनि उपाय। करि उत्सव मंगल मोक्ष ठान, निज थान गये करि के कल्यान ॥14॥
जय महा अमल-गुण-सहित धार, जे लोक बोधदर्पण मझार। दर्शन जब जुगपत लखत भूप, बल अनन्त काल ध्रुव एक रूप।।15।। सुहमन्त देश सूच्छम अपार, गुण अगुरलघु हल को न भार। तन चर्म कछू अवगाह हीन, नहिं आमय अव्यावाध चीन।।16।। गुण अष्ट इहै निहचै अनन्त, को वरणि सकै भुवि - मांहि सन्त। मैं विनऊँ श्रीनमिनाथ देव, मुझ देहु सदा तुम चरण सेव।। 17॥ हो कृपानाथ जगपति जगीश, तुम तारण तरण निहारि ईश ।
मैं शरणि गही मुझ तारि नाथ, रामचन्द नमै धरि शीश हाथ 18॥ (घत्ता)
इह नमि गुणमाला, परम रसाला, मन-वच-तन कण्ठै धरई । ह्वै सिद्धि निरंजन, भव-दुख भंजन, अगणित सुख शिव-संग करई ॥ ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय पूर्णायं निर्वपामीति स्वाहा।
।। इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री नेमिनाथ जिन-पूजा ( रचयिता - श्री रामचन्द्र जी )
(अडिल्ल)
घणे जन्तु र कर्यौ नेमि सुनि गिरि गये। तजि रजमति, भव अनित पेखि, मुनिवर भये।। ध्यान - खड्ग गहि हने कर्म शिव-तिय वरी । आह्वानन विधि करूँ प्रणमि गुण हिय-धरी।
ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्) ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम् ) ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
(त्रिभंगी छन्द)
निर्मल ल्याय महातीर्थोदक, कनक - रतनमय भरि झारी । मनवचतन सुध करि जिनपद पूजे, नसै जन्म-मृति दुखकरी।।
श्रीनेमि जिनेश्वर के पद वन्दूँ, राजमति - सी ततछिन छारी। पशुवनि की वसुनि करुणा धरि, जाय चढ़े प्रभु गिरनारी।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ कुंकुम ल्यावैं अगर मिलावैं, चन्दनतें घनसार घसैं। तसु परसि समीर चलै अति शीतल, महा-दाह ततकाल नरौं। श्रीनेमि जिनेश्वर के पद वन्दूँ, राजमति -सी ततछिन छारी। पशुवनि की वसुनि करुणा धरि, जाय चढ़े प्रभु गिरनारी ॥ 2 ॥ ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
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शुभ सालि अखण्डित सौरभि-मण्डित, शशि-सम उज्जवल अनियारे।
भूपनकू मोसर मुक्ता-सी दुति पुंज करें भवि मनहारे। श्रीनेमि जिनेश्वर के पद वन्दूँ, राजमति-सी ततछिन छारी। पशुवनि की रव सुनि करुणा धरि, जाय चढ़े प्रभु गिरनारी।। 3॥ ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
कुसुम मनोहर घ्राणन के हर, पंच वरण अति सुखकारी। सुर-तरु के पावन चखि-ललचावन, अति मृदुतै भवि भरि थारी।।
श्रीनेमि जिनेश्वर के पद वन्दै, राजमति-सी ततछिन छारी। पशुवनि की रव सुनि करुणा धरि, जाय चढ़े प्रभु गिरनारी।। 4।। ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
अति मिष्ट मनोहर घेवर फैनी, मोक गूझा भरि थारी। रसना के रंजन रस के पूरे, क्षुधा-निवारन बलकारी।। श्रीनेमि जिनेश्वर के पद वन्,, राजमति-सी ततछिन छारी।
पशुवनि की रव सुनि करुणा धरि, जाय चढ़े प्रभु गिरनारी।।5।। ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीप-रतनमय जोति मनोहर, कनक रकावी मैं धारें। तम मोह नसै जिम पावन थकी घन, स्वपर लखै गुण विस्तारै।।
श्रीनेमि जिनेश्वर के पद वन्दै, राजमति-सी ततछिन छारी।
पशुवनि की रव सुनि करुणा धरि, जाय चढ़े प्रभु गिरनारी।। 6।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ धूप दशांग हुताशन के संग, लैं धूपायन मांहि भरै। तसु सौरभितै मधु गुंजत आवे, अष्टकर्म ततकाल जरै।।श्री017॥ ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
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पुंगी दाख बदाम छुहारा, एला श्रीफल-जुत ल्यावैं। भरि कनक थाल में मन के रंजन, मोक्ष - महाफल लहु पावैं ।।
श्रीनेमि जिनेश्वर के पद वन्दूँ, राजमति -सी ततछिन छारी। पशुवनि की वसुनि करुणा धरि, जाय चढ़े प्रभु गिरनारी ॥ 8 ॥ ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
सलिल स्वच्छ मलयागर चन्दन, अछित कुसुम चरु भरि थारी । मणिदीप दशांग धूप फल उत्तमं अर्घ राम करि सुखकारी ॥
श्रीनेमि जिनेश्वर के पद वन्दूँ, राजमति-सी ततछिन छारी।
पशुवनि की रव सुनि करुणा धरि, जाय चढ़े प्रभु गिरनारी ॥ 9॥
ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनघ्यपद-प्राप्तये अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक (दोहा)
षष्ठी कार्तिक कृष्ण ही, अपराजित अहमिन्द
चय शिवदेव्या उर लयो, जजूँ चरण गुणवृन्द।।
ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्ला - षष्ठ्यां गर्भमंगल-मण्डिताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। 1।
जनमे श्रावण षष्ठि सित, वासव चतुरनिकाय
सनपन करि सुर-गिरि जजे, मैं जजहूँ गुणगाय
ॐ श्रावणशुक्ला-षष्ट्यां जन्ममंगल-मण्डिताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 2।
षष्ठी श्रावण शुकल ही, तजि विवाह सुकुमार । उर्जयन्त-गिरि तप धर्यौ, जजूँ चरण भवतार।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्ला-षष्ट्यां तपोमंगल-मण्डिताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।3।
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सुदी कुवार प्रतिपद हने, घाति-कर्म दुखदाय।
घाति कर्म केवल भये, जनँ चरण गुण गाय॥ ऊँ ह्रीं आश्विनशुक्ल-प्रतिपदि ज्ञानमंगल-मण्डिताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।4।
शुकल षाढ़ सप्तमि गये, शेष कर्म हनि मोख।
शिव-कल्याण सुरपति को, जनूं चरण गुण घोख।। ॐ ह्रीं आषाढ़शुक्ला-सप्तम्यां मोक्षमंगल-मण्डिताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
जयमाला (रोला छन्द) लखि अनित्य भव, तज्यौ राज तृणवत् तप धार्यो, करि बहु विधि उपवास सकल आगम विसतार्यो। ___ मुनि सुप्रतिष्ठित न[ भावना षोड्श भज्ञये, करि समाधि अहिमिन्द भये तीर्थंकर थाये।।1।।
(पद्धरी छंद) जय समुदविजै शिवदेवि माय, श्रीनेमि जिनेश्वर गर्भ आय। तिष्ठे कार्तिक बदि षष्ठि देव, गर्भहि कल्याण आये स्वयेव।1। हरिवंश-व्योम मधि सुष्ठु भान, सित श्रावण षष्ठी जनम थान।
सौरीपुरतें सुरमेरु लेय, जन्माभिषेक करि गुण भनेय।2। जयदेव महाबल धरन बाल, द्रह प्रचुर नीर मनु कुसुम माल। जय धीर-धुरधर मेरु श्रृंग, अति पावन लावनि सकल अंग।3। जय दोष-निराकृत धर्म-घोख, भवतारक सम्भव-करन मोख। जय मोहन मूरति सिष्ट पाल, पितृ-मात-पद्म रवि प्रातः काल।4।
बहु नृत्य ठानि पितु मातु देय, जय वृद्ध भये गिन राज हेय। सित श्रावण षष्ठी जन्तु पेखि, भयभीत भये भव विशेखि।5 तप धारि तज्यौ परिगह-पिशात, नुति सिद्धों को करि त्याग वाच। गहि खड्ग चऊ घातिया मार, लहि केवल सित प्रतिपद कुआर।6।
धनदेव रच्यौं समवादिसार, जिन अन्तरीक्ष करिकै विहार।
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वन-ग्राम-नगर-पुर-सर्वदेश, कहि धर्म भव्य तारे महेश | 7 | भवकूप इहै अघ को भण्डर, तिसमें दुख हैं सुख ना लगार। तुम तारण विरद निहारि देव, मैं शरण गही मुझि तारि देव | 8 | दिन सप्तमि सित आषाढ़ मोखि, जिन प्रकृति पिचासी शेष सोखि । गिरनारि शिखर निर्वाण थान, रामचन्द नमै निति धारि ध्यान | 9 | घता छन्द
इह पंच कल्याने, सुरपति ठाने, नरपति खगपति निति ध्यावैं । जो पढ़ें पढ़ावैं, सुर धरि गावें, सो शिव के सुख लहु पावैं ।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय पूर्णायं निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी)
अडिल्ल पारस मेरु समान ध्यान में थिर भये, कमठ किये उपसर्ग सबै छिन में जये। ज्ञान-भान उपजाय हानि विधि शिव वरी,
आह्वानन विधि करूँ प्रणमि त्रिविधा करी।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
(गीता छन्द) शरद-इन्दु-समान उज्ज्वल, स्वच्छ मुनि-चित सारसौ। शुभ मलयमिश्रित भंग भरिहूँ, शीत अति ही तुसारसौ।। सो नीर मनहर तृषा-नाशन, हिमन-उदभव ल्याय हो।
श्रीपार्श्वनाथ-जिनेन्द्र पूनँ, हृदै हरष उपाय ही।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
घनसार अगर मिलाय कुंकुम, मलय-संग घसाय ही।
अतिशीत होय सनेह उष्ण जु, बून्द एक रलाय ही।। सो गन्ध भवतपनाश-कारण, कनक-भाजन ल्याय ही।।
श्रीपार्श्वनाथ-जिनेन्द्र पूनँ, हृदै हरष उपाय ही।। 2॥ ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
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सरित-गंगा अम्बु-सींची, सालि उज्जवल अति घनी।
दुति धरै मुक्ता की मनोहर, सरल दीरघ जुत अनी।। सो अछित औघ अखण्ड कारण, अखै पदकू ल्याय ही।।
श्रीपार्श्वनाथ-जिनेन्द्र पूजूं, हृदै हरष उपाय ही।। 3।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
कनक-निर्मय रतन-जडिये, पंच वरण सुहावने। प्रसून सुन्दर अमर तरु के, गन्धजुत अति पावने।। सो लेय समर निवार-कारण, घ्राण-चक्खि-सुहाय ही।
श्रीपार्श्वनाथ-जिनेन्द्र पूनँ, हृदै हरष उपाय ही।।4।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
लछिमी-निवास-सरोज-उद्भव, तथा सो मथकी झरै। आमोद पावन मिष्ट अति चित, अमी भुज्जन को हरै।। सो चारु रसनैवेद-कारण, क्षुधा-नाशन ल्याय ही।।
श्रीपार्श्वनाथ-जिनेन्द्र पूनँ, हृदै हरष उपाय ही।। 5।। ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कनक-दीप मनोग मणिमय, भान-भासुर मोहने।
तम नसै ज्यौं घन-पवन नासै, धूमवर्जित सोहने।। मम मोह-निविड विध्वंस-कारण, लेय जिनगृह आय ही।।
___ श्रीपार्श्वनाथ-जिनेन्द्र पूनँ, हृदै हरष उपाय ही।। 6॥ ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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श्रीखण्ड अगर दशांग धूप सु, कनक-धूपायन भरें।
आमोदतै अलिवृन्द आवें, गूंजते मनकू हरें।। वसु-कर्म दुष्ट विध्वंस-कारण, अग्निसंग जराय ही।।
श्रीपार्श्वनाथ-जिनेन्द्र पूनँ, हृदै हरष उपाय ही।। 7॥ ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अति मिष्ट पक्क मनोग्य पावन, चक्खि-घ्राणनईं हरै। अलि गुंज करत सुगन्ध-सेती, सुधा की सर भरि करै।। सो फल मनोहर अमरतरु के, स्वर्णथाल भराय ही।।
श्रीपार्श्वनाथ-जिनेन्द्र पूनँ, हृदै हरष उपाय ही।। 8।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
सलिल सुच्छ सु अगर चन्दन, अछित उज्ज्वल ल्याय ही।
वर कुसुम चरुतै क्षुधा नाश, दीप ध्वान्त नसाय ही।। करि अर्घ धूप मनोग्य फल लै, राम शिवसुख-दाय ही।।
श्रीपार्श्वनाथ-जिनेन्द्र पूनँ, हृदै हरष उपाय ही।। 9॥ ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक
(दोहा) प्राणत-स्वर्ग थकी चये, वामा-उर अवतार।
दोज असित वैसाख ही, लयो जजॅ पद-सार।। ऊँ ह्रीं वैशाखकृष्णा-द्वितीयायां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।।
पौह कृष्ण एकादशी, तीन-ज्ञान-जुत देव।
जनमैं हरि सुर गिरि जजे, मैं जजहूँ करि सेव।। ऊँ ह्रीं पौषकृष्णा-एकादश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।
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दुद्धर-तप सुकुमार-वय, काशी-देश विहार।
पौह कृष्ण एकादशी, धर्यो जनँ गुण गायं। ॐ ह्रीं पौषकृष्णा-एकादश्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।3।
कृष्ण चैथि शुभ चैत को, हने घाति लहि ज्ञान।
कह्यौ धर्म दुविधा मुदा, जजू बोध भगवान।। ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-चतुथ्यां ज्ञानमंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।4।
सप्तमि श्रावण शुक्ल ही, शेष कर्म हनि वीर।
अविचल शिवथानक लयो, जनँ चरण धर धीर॥ ऊँ ह्रीं श्रावणशुक्ला-सप्तम्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।51
जयमाला
पार्श्वनाथ-जिन के नमूं, चरण-कमल जुगसार। प्रचुर भवार्णव तुम हाँ, मुझ तारौ भव-तार।।1।। (चाल - ते साधु मेरे उर बसो मेरी हरदु पातक पीर)
श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र वन्दूँ, शुद्ध मन-वच-काय। धनि पिता अश्वसेनजी, धनि धन्य वामा माय।।
धनि जनम काशी देश में वाराणसी शुभ ग्राम। प्रभु पास द्यो मुझ दास की सुनि अरज अविचल-ठाम।।1।।
अतिशय मनोहर सजल-जलद-समन सुन्दर काय।
मुख देखिकैं ललचाय लोचन नैक तृपति न थाय।। पद-कमल-नख-दुति चपल-चपला कोटि-रवि-छवि खाम। प्रभु पास द्यो मुझ दास की सुनि अरज अविचल-ठाम।।2।।
द्वै अधोमुख पंचाग्नि तपतो कमठ को चर कूर। तित अगनि जरते नाग बोधे देय वच वृष-पूर।। वे भये हैं धरणेन्द्र-पदमा भवनत्रिक ऋधि-धामै।
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प्रभु पास द्यो मुझ दास की सुनि अरज अविचल-ठाम।।3।।
इम उरग मरत निहारिकैं सब अथिर शरण न जोय। संसार यो भ्रम जाल है जिम चपल चपला होय।।
हूँ एक चेतन सासतो शिव लहूँ तजिकै धाम। प्रभु पास द्यो मुझ दास की सुनि अरज अविचल-ठाम।।4।।
इम चितवता लोकान्त के सुर आय पूजे पाय। परणाम करि सम्बौधि चाले चितवते गुण ध्याय।। धनि धन्य वय सुकुमार में तप धर्यो अतिबल-धाम।। प्रभु पास द्यो मुझ दास की सुनि अरज अविचल-ठाम।।5।।
वन्, समै जिन धरी दिछया विहरि अतिछिति जाय। तित ठये बन मैं दुष्ट वो सुर कमठ को चर आय।।
अतिरूप भीषण धारिमै फुकार पन्नग श्याम।। प्रभु पास द्यो मुझ दास की सुनि अरज अविचल-ठाम।।6।।
द्वै तुंग धारण सिंध गरज्यौ उपल रज बरसाय। करि अगनि-वरषा मेघ-मूसल तडित परलय-वाय।। प्रभु धीर वीर अत्यन्त निरभय असुर को बल खाम। प्रभु पास द्यो मुझ दास की सुनि अरज अविचल-ठाम।।7।।
वाही समै धरणेनन्द्र को नय मुकुट कंप्यो पीठ।
हरि आय सिंघासन रच्यो फणमण्ड कीनों ईठ।। तब असुर करनी भई निरफल अचल जिन जिम धाम। प्रभु पास द्यो मुझ दास की सुनि अरज अविचल-ठाम।।8।।
धरि ध्यान जोग निरोधिकै चउघाति कर्म उपारि। लहि ज्ञान केवलौं चराचर-लोक सकल निहारि।।
समवादि-भूति कुबेर कीनी कहै किम बुद्धि खाम।। प्रभु पास द्यो मुझ दास की सुनि अरज अविचल-ठाम।।9।।
हरि करी नुति कर जोरि विनती धन्य दिन इह बार। धनि घड़ी या प्रभु पार्श्वजी हम लहैं भव को पार।। धनि धन्य वाणी सुनी मैं अघ-नासनी पुनि धाम।।
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प्रभु पास द्यो मुझ दास की सुनि अरज अविचल - ठाम ।।10।। - कर्म नाशिविनाशि वपु शिवनयरि पाई वीर। वसु-द्रव्यतैं वह थान पूजे टरैं सबही पीर ।। सो अचल हैं सम्मेदपैं मम भाव हैं वसु जाम। प्रभु पास द्यो मुझ दास की सुनि अरज अविचल - ठाम ।।11। कर जोर रामचन्द भाषै अहो धन देव
भवि बोधिकैं भवसिन्धु तारे तरण-तरण टेव मैं नमत हूँ मोतार अबही ढील क्यों तुम काम | प्रभु पास द्यो मुझ दास की सुनि अरज अविचल - ठाम ।।
निति पढ़ें जे नर-नारी सब ही करै तिनकी पीर ।
सुर-लोक लहि नर नोय चक्री काम हलधर वीर।। फुनि सर्व कर्म जु घाति कैं लहि मोख सब सुख धाम।। प्रभु पास द्यो मुझ दास की सुनि अरज अविचल - ठाम।। 13॥ ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्रीमहावीर जिन-पूजा (रचयिता - श्री रामचन्द्र जी)
(अडिल्ल) बोध शुद्ध परकासक इक प्रभु भान ही, लोक-अलोक-मझारि और नहीं आन ही।
प्रणम श्रीवर्द्धमान वीर के पाय ही,
आह्वानन विधि करूँ विमल गुण ध्याय ही।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
(गीता छन्द) कर्पूर-वासित शरद-शशि-सम धवल हार तुषारतें। मुनि चित्तसौं अति विमल सौरभि, रवे मधुकर प्यारत।। सो हिमन-उद्भव कुम्भ मणिमय, नीर भरि तृष छेय ही।
श्रीवीरनाथ जिनेन्द्र के जुग, चरण चरचूँ ध्येय ही।1। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलय नीर कपूर शीतल, वरण पूरण इन्द ही। आमोद बहुलि समीरतें, दिग रवै मधुकर-वृन्द ही।। सो द्रव्य भवतप नाश कारण, कनक-भाजन लेय ही।
श्रीवीरनाथ जिनेन्द्र के जुग, चरण चरचूँ ध्येय ही।।2।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
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हिमन-उद्भव सरित सींचो, सालि सित शशि-दुति धरें। दीरघ अखिण्डत सरल पिण्डन, मुक्त-सी मनकूं हौं।
पुंजकारण अखै पद के उभै कर में लेय ही। श्रीवीरनाथ जिनेन्द्र के जुग, चरण चरचूँ ध्येय ही॥3॥ ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मन्दार मेरु सुपारि तरु के, सुमन गन्धाशक्त ही। मधुवृन्द आवैं भविन के, चखि लखैं होय पवित्त ही। सो समरवाण विध्वंस कारण, कुसुम उत्कर लेय ही। श्रीवीरनाथ जिनेन्द्र के जुग, चरण चरचूँ ध्येय ही॥4॥
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय कामबाण - विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पदमा-निवास सरोज आश्रित, सुधा की आमोदस्यौं। चित सुध भुञ्जन को तृपति ह्वै, वै मधुकर मोदस्यौं।
सोही पीयूष क्षुणा - विध्वंसन, चारु चरु कर लेय ही। श्रीवीरनाथ जिनेन्द्र के जुग, चरण चरचूँ ध्येय ही ॥5॥ ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रैलोक्य मांहि जिनेन्द्र महिमा, तेजतैं दरसाय ही । पाप-तम दिगदसौं निवड सु, मूलतैं नशि जाय ही।। सो दीप मणिमय तेज भास्कर, कनक-भाजन लेय ही। श्री वीरनाथ जिनेन्द्र के जुग, चरण चरचूँ ध्येय ही || 6 ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोहान्धकार- विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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धूप संग हुताश जारे, धूम्र बृज दिग में हवै। दिग्पाल चिन्तै मनो छितिधर, नील से आवें इहै।। सो मलय परिमल घ्राण रज्जन, सुरनिकों अति प्रेय ही।
श्रीवीरनाथ जिनेन्द्र के जुग, चरण चरचूँ ध्येय ही।।7।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ फलोत्कर पक्क मधुरे, स्वर्ण से मनकू हरें।
आमोद पावन पुंज करहूँ, मनोवांछित फल करें।। भरि थाल कनकमय अमर तरु के, लखे चखि] प्रेय ही।
श्रीवीरनाथ जिनेन्द्र के जुग, चरण चरचूँ ध्येय ही।।8।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीर गन्ध इत्यादि द्रव्य ले, कमलपद सनमति तने। जो जजै ध्यानै बन्दि सत4, ठानि उत्सव अति घने।।
सुर होय चक्री काम हलधर, तीर्थ पद को श्रेय ही। सुख रामचन्द लहन्त शिव के, अर्घ करि प्रभु ध्येय ही।।9।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक
(दोहा) ___षष्ठी शुक्ल अषाढ़ ही, पुष्पोत्तर” देव।
चय त्रिशला-उर अवतरे, जजूं भक्ति धरि एव।1। ऊँ ह्रीं आषाढशुक्ला-षष्ट्यां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्र शुकल तेरसि सुरां, कीनों जन्म-कल्यान।
छीर-उदधिक् मेरुपै, मैं जजहूँ धरि ध्यान।2। ऊँ ह्रीं चैत्रशुक्ला-त्रयोदश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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अगहन दशमी कृष्ण ही, तप धार्यौ वन जाय। सुरनरपति पूजा करी, मैं जजहूँ गुण गाय | 3 |
ऊँ ह्रीं मार्गशीर्षकृष्णा-दशम्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दशमी सित वैशाख ही, घाति कर्म चक चूर केवलज्ञान उपाइयो, जजूँ चरण गुण भूर 4
ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्ला-दशम्यां ज्ञानमंगल-मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्तिक बदी मावस गये, शेष कर्म हनि मोख । पावापुरतैं वीरजी, जजूँ चरण गुण घोख | 5 |
ऊँ ह्रीं कार्तिककृष्णा-अमावस्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला (दोहा)
सनमति सन्मति द्यौ मुझे, हो सनमति-दातार । होत अमल विस्तार। 1।
इहै भक्ति पावन जगत,
(पद्धरि छन्द)
जय महावीर दुति अमल भान, सिद्धारथ - चित- अम्बुज - फुलान। जय त्रिशला - चखि- कुमुदनि अनूप, प्रफुलावनकूं मुख चन्दरूप।1। जय कुण्डलपुर जिन जन्म-स्थान, हरिवंश व्योम-मधि सुष्ठु भान । जय कनक वरण कर-सप्त काय, हरि - चिन्ह बहत्तर वरष आय । 2 ।
जय इन्द्र कह्यौ अति वीर सूर, सुनि देव चल्यौ ह्वै सर्प क्रूर। फुंकार ज्वाल विकराल देख, कीडत कुमार भाजै विशेख | 3 | प्रभु धीर महा पन्नग अज्ञान, करि कीड़ हर्यौ मद को वितान
प्रगट देव नय पूजि पाय, परशशि कह्यौ महावीर राय।4। लखि पूरव भव अनुप्रेख चिन्त, भयभीत भये भवतैं अत्यन्त। लौकान्त आय थुति पूज पाय, निज थान गये सुर-असुर आय।5। रचि शिविका करि उत्सव अपार, वन जाय धरे प्रभु तजि सिंगार
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नुति सिद्ध लौंच कच नगन धाय, धरि षष्ठम व्रत चिद्रूप लाय।6। तप द्वादश-द्वादश वर्ष ठान, चउघाति हने गहि खड्ग धयान। जय नन्त चतुष्टय लब्ध देव, वसु प्रातिहार्य अतिशय सुमेव।7।
जय भव्यनिकर भवसिन्धु तार, मैं प्रणमूं जुग-कर शीश धार। जय समर पिटप जारन हुताश, जय मोह-तिमर नाशन-प्रकाश।8।
जय दोष अठारा रहित देव, मुझ देहु सदा तुम चरण सेव। हूँ करूँ विनती जोरि हाथ, भव तारणतरण निहारि नाथ।9।
(घत्ता छन्द) श्रीवीर जि नेश्वर नमत सुरेश्वर, वसुविधि करि जुगपद चरचं।
बहु तूर बजावें गुणगण गावे, रामचन्द मन अति हरष।।1।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।
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श्री ऋषभदेव जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल )
स्थापना- गीता छन्द नगरी अयोध्या नाभिराजा, पिता मरुदेवी जने। इक्ष्वाकुवंश शरीर सुवरण, पाँचसौ धनु सोहने।। पूरब चैरासी लाख आर्वल जिह्न वृषभ गनीजिये। सर्वार्थसिद्धि विमानतें चय, आदिनाथ कहीजिये।।
दोहा सो आदीश्वर जगतपति, सब जीवन रखपाल।
मुकतिरमा के कन्थवर, आओ यहां विशाल।। ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्) ____ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठौ तिष्ठौ ठः ठः। (स्थापनम्) ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
अष्टक द्रुतविलंबित छन्द परम नीर सुगन्ध नियोजितं, मधुर वाणिन भौंर सुगुंजितं।
कनकभाजन ले भरि हाथ में, करि त्रिशुद्ध जजों रिषिनाथ मैं।। ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा ।
चन्दन बावन वाम घसो मयो, हिमपरा शुभमिश्रित सोलयो।
कनकपात्र भरों धरि हाथ में, करि त्रिशुद्ध जजों रिषिनाथ में। ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा ।
अमल अक्षत राजन भागके, गुलक लज्जित तज्जित शोक के।
सुभग भाजन में ले हाथ में, करि त्रिशुद्ध जजों रिषिनाथ में।। ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षताम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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कलपपादप तें उपजे भये, परमगन्ध प्रसारित ते लये।
हरषपूर्वक लीजे हाथ में, करि त्रिशूल जजों रिषिनाथ मैं।। ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्राय कामवाणविनाशनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा ।
चतुर चारु पचावत भाव सों, घृतसुपूरित अद्भुत चावसों।
अमियमय लड़वा धरि हाथ में, करि त्रिशुद्ध जजों रिषिनाथ मैं।। ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
रतन दीपक देत उदोत ही, दशदिशा उजियार सो होत ही।
प्रभु तने लखि धरि सुहाथ में, करि त्रिशुद्ध जजों रिषिनाथ मैं। ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा ।
उठत धूम घटा चहुं ओर तें, भ्रमतभूरि अली सबछोरतें। दहन धूप लिये इमि हाथ में, करि त्रिशुद्ध जजों रिषिनाथ मैं।। ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा ।
मधुरसा रसना सुखदाय जो, क्रमुक श्रीफल सुन्दरलायसो। ___ इमिफलौघ लिये शुभ हाथ में, करि त्रिशुद्ध जजों रिषिनाथ मैं। ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा ।
करि सु ये इकठो दरब सवै, धरत भाजनमें अतिसोफवै।
अरघ सुन्दर लेय सो हाथ में, करि त्रिशुद्ध जजों रिषिनाथ मैं।। ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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पंचकल्याणक - गीता छन्द
सवार्थसिद्धि विमान तजि, आषाढ़-वदि द्वितीया दिना।
मरुदेवी के सो गरभ आये, रंजित सिगरे जना।। हमहूँ इहाँ अब अरघ ल्याय, बजाय तूर सुछन्दसों। गुण गायगाय सरांहि तुअछवि, जजों अति आनन्दसों।।
ओं ह्रीं अषाढकृष्णद्वितीयाम्यां गर्भकल्याणक प्राप्ताय श्री ऋषभनाथ जिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
मधुमास वदि नौमी दिना, जनमे भये अति सौहिला।
पूजे तुम्हें इन्द्रादि ने ले, जायके पांडुकशिला।। हमहूँ इहाँ अब अरघ ल्याय, बजाय तूर सुछन्दसों। गुण गायगाय सरांहि तुअछवि, जजों अति आनन्दसों।। ___ओं ह्रीं चैत्रकृष्णनवम्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्री ऋषभनाथ जिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
वदि चैत नौमी स्वयं दीक्षित, भये प्रभु शुभ भावसों। सुर असुर नरपति सकल तहुँ, पूजे तुमहिं अतिचावसों।।
हमहूँ इहाँ अब अरघ ल्याय, बजाय तूर सुछन्दसों। गुण गायगाय सरांहि तुअछवि, जजों अति आनन्दसों।।
ओं ह्रीं चैत्रकृष्णनवम्यां तपः कल्याणकप्राप्ताय श्री ऋषभनाथ जिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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फागुन वदी एकादशी शुभ, ज्ञान केवल पाइयो। सुर रचित हाटकपीठ पै, धर्मोपदेश सुनाइयो । हमहूँ इहाँ अब अरघ ल्याय, बजाय तूर सुछन्दसों। गुण गायगा सरांहि छवि, जजों अति आनन्दसों ।। ओं ह्रीं फाल्गुनकृष्णौकादश्म्यां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्री ऋषभनाथ जिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
चौदस वदी शुभ माघ की, कैलास ऊपर जायके। नरवान हूवो करी पूजा, इन्द्रने चित ल्यायके || हमहूँ इहाँ अब अरघ ल्याय, बजाय तूर सुछन्दसों। गुण गायगाय सरांहि तुअछवि, जजों अति आनन्दसों ।।
ओं ह्रीं माघकृष्णचतुर्दश्यां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्री ऋषभनाथ जिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाल - त्रिभंगी छन्द
जय जय गुणधामं, दरशन बामं, जीतो कामं, लोभंते । जय जय दुखहारी, सुयश विथारी, करुणाधारी जैनपते ।। जय नाभीनन्दन, कलुषनिकन्दन, भविजनवन्दन, गुणअगरे । जय जय मनरंगभनि, सुजसहिसुनिसुनि, अधमातारिपुनि, आपतरे।।
नाराच छन्द
दिनेशतें अधिक्क तेज, की महान राशि हो । कमोदिनी भवीन के, भले सुधानिवास हो । नमों नमों रिषीश तोहि, काम के निवार हो । कलंक पंक छालने, सदा घटाऽकार हो || प्रवीन हो, प्रतापवान, सर्व के सुजान हो। गणी फणी अणीस के, सदैव एक ध्यान हो ।।
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नमो नमों रिषीश तोहि, काम के निवार हो। कलंक पंक छालने, सदा घटाऽकार हो।। अनादि हो अनन्तज्ञान, केवल प्रकाश हो। निरक्षरी धुनीश नाथ, मोद के निवास हो।। नमो नमों रिषीश तोहि, काम के निवार हो। कलंक पंक छालने, सदा घटाऽकार हो।। कृपाल धर्मपाल दीनपाल काल-नाश हो। अनेक रिद्धि के धनी महा सुरूपवास हो।। नमो नमों रिषीश तोहि, काम के निवार हो।
कलंक पंक छालने, सदा घटाऽकार हो।। प्रवीन हो पवित्र हो, भवाब्धि पारगामि हो। निहार के करन्नहार, ईश सर्व जामि हो।। नमो नमों रिषीश तोहि, काम के निवार हो।
कलंक पंक छालने, सदा घटाऽकार हो।। अलोक लोक लोकने, विशाल चक्षुवान हो। महान दीप्तिवान मोह, शत्रु को कृपान हो।। नमो नमों रिषीश तोहि, काम के निवार हो। कलंक पंक छालने, सदा घटाऽकार हो।।
गुणौध रत्न के प्रभू अपार पारवार हो। भवाब्धि डूबते तिन्हें, अजान बाहुधार हो।। नमो नमों रिषीश तोहि, काम के निवार हो। कलंक पंक छालने, सदा घटाऽकार हो।। सदैव मोक्षवाम के, संयोग के सिंगार हो। कछूक ऊन देहतें, सुज्ञान के अकार हो।। नमो नमों रिषीश तोहि, काम के निवार हो। कलंक पंक छालने, सदा घटाऽकार हो।।
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चराचर जिते कहे, तिन्हें दयालु छत्र हो।
सुमन्नरंगलाल के, सुनेत्र के नक्षत्र हो।। नमो नमों रिषीश तोहि, काम के निवार हो। कलंक पंक छालने, सदा घटाऽकार हो।।
घत्ता
जय जय गुणधारी, मायाहारी, विपतिविदारी, जसकरणं। जय सुखसंचारी, परमविचारी, अधम उधारी, तुअशरणं।। ओं ह्री श्री ऋषभनाथजिनेन्द्राय महार्ण्यम्।
(गीता छन्द) जो करें मन वच तन सुपूजा, आदिनाथ प्रभू तनी।
सो इन्द्र चन्द्र धनेन्द्र चक्री, पट्ट पावे यों भनी।। फिर होय शिवतिय को धनी, सुअनन्त सुख को भोगता।
जरमरन आवागमन होय न, होय सहज निरोगता।
ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्राय नमः
(इस मंत्र की जाप्य देना)
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री अजितनाथ जिन-पूजा ( रचयिता - कविवर मनरंगलाल )
स्थापना- गीता छन्द
अमरकृत नगरी विनीता, शत्रुजित राजा तहां विजय नाम विमान तजि, विजया तने सुत भे इहां।। गजचिन्ह अजित सुवर्ण तनु, धुन चारसै साढ़े गनो। सत्तर औ द्वै लख पूर्व आउष, वंश इक्ष्वाकू भनो।।
अजितनाथ जिनदेव को, बार बार सिर नाय । आह्वानन करियत इहां, प्रभुगुण रूप सराय ।।
ओं ह्रीं श्री अजितनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (इति आह्वाननम्) ओं ह्रीं श्री अजितनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठौ तिष्ठौ ठः ठः । (स्थापनम् )
ओं ह्रीं श्री अजितनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट् (सन्निधिकरणम्)
अष्टक मालिनी छन्द
फटिक मनि समानं, मिष्ट ओदक सुआने। भरि पुरट सुकुम्भं, देखही प्यासे भाने।। अजित जिनपदाग्रे, शुद्ध मन तें चढ़ाऊँ। जनम जनम दोषं, खोदि ततछिन वहाऊँ।। ओं ह्रीं श्री अजितनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा ।
ले सुभग बी, धारिता पटीरं । मधुकर है लोभी, जे भ्रमें आय तीरं।। अजित जिनपदाग्रे, शुद्ध मन तें चढ़ाऊँ। जनम जनम दोषं, खोदि ततछिन वहाऊँ।। ओं ह्रीं श्री अजितनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा ।
सुकृत । जनित मानो, चारु तन्दुल बनाये। उठत छटा छहरे, देखि नयना लुभाने।। अजित जिनपदाग्रे, शुद्ध मन तें चढ़ाऊँ । जनम जनम दोषं, खोदि ततछिन वहाऊँ।। ओं ह्रीं श्री अजितनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षताम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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कलपरुह सुपुष्पं, गुंजितं भौंर भारी। लखन वरन नाना, घ्रान नयना सुखारी।। अजित जिनपदाग्रे, शुद्ध मन तें चढ़ाऊँ। जनम जनम दोषं, खोदि ततछिन वहाऊँ। ओं ह्रीं श्री अजितनाथजिनेन्द्राय कामवाणविनाशनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा ।
षट् रस परिपूर्णा, देश व्यञ्जन बनाये। अधिक सुरभि सी, भूख बिन सो सुहाये।। अजित जिनपदाग्रे, शुद्ध मन तें चढ़ाऊँ। जनम जनम दोषं, खोदि ततछिन वहाऊँ।। ओं ह्रीं श्री अजितनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
मणि के शुभ दीये, दोय हाथान लीये। बहु करत उदोतं, अन्धकारं विलीये।। अजित जिनपदाग्रे, शुद्ध मन तें चढ़ाऊँ। जनम जनम दोषं, खोदि ततछिन वहाऊँ।। ओं ह्रीं श्री अजितनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा ।
करम दहन अर्थं, ल्याय धूपं सुगन्धं। लखि गन्ध दुरेफा, देत दक्षिना सुछन्द।। अजित जिनपदाग्रे, शुद्ध मन तें चढ़ाऊँ। जनम जनम दोषं, खोदि ततछिन वहाऊँ।।
ओं ह्रीं श्री अजितनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा ।
फल ललित सुहाने, पक्व मीठे सुजाने। तजि सकल अजाने, दिव्य भावान आने।। अजित जिनपदाग्रे, शुद्ध मन तें चढ़ाऊँ। जनम जनम दोषं, खोदि ततछिन वहाऊँ।।
ओं ह्रीं श्री अजितनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा ।
जल चन्दन सुअक्षत, पुष्प नैवेद्य दीयो। वर धूप फलौघा, अय सौन्दर्य कीयो।। अजित जिनपदाग्रे, शुद्ध मन तें चढ़ाऊँ। जनम जनम दोषं, खोदि ततछिन वहाऊँ। ओं ह्रीं श्री अजितनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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दोहा
जेठ अमासव के दिना, गर्भ स्थित जगदीश। तास चरण को अध्य से, जजों नाय निज शीश। ओं ह्रीं ज्येष्ठकृष्णामावस्यायां गर्भकल्याणकप्राप्ताय श्री अजितनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
माघ सुदी दसमी दिना, महिमंडल पर जात।
अरघ लेय शुभ हाथ सों, पूजत पातक जात।। ओं ह्रीं माघकृष्णाएकादशम्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्री अजितनाथजिनेन्द्राय अयम् निर्वपामीति स्वाहा ।
माघ सुदी नवमी कही, ता दिन दीक्षा लेत। अजित प्रभू को अध्य ले, पूजों भाव-समेत।। ओं ह्रीं माघकृष्णनवम्यां तपः कल्याणकमण्डिताय श्री अजितनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
पौष सुदी एकादशी ता दिन केवल पाय। जगत पूज्य के चरनयुग, पूजों अध्य बनाय।।
ओं ह्रीं पौषशुक्लैकादश्यां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्री अजितनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
चैत्र सुदी पांचे दिना, सम्मेद शिखर तें वीर। अव्यय पद प्रापत भये, मैं पूजों धर धीर।। ओं ह्रीं चैत्रशक्लपंचम्यां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्री अजितनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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जयमाल - त्रिभंगी छन्द जय जिनवर दूजा, सुरपति पूजा, तो सम दूजा और नहीं। जय घटघटपरघट दिग कीन्हेंपट निपट कठिनपट धरत सही।। जय शिवतियकिय बस, लेत अधररस, प्रसरत भूजस किम कहिये।
जय जय गुण सीमा बड़ी महीमा, दरसन ही मा दुख दहिये।।
चौपाई छन्द जय जय अजित धरम-धुरधारी, बिनकारन जग बान्धव भारी। जय मदमोचन लोचनज्ञाना, देखत लोकालोक महाना।।
कामपंकनासन भगवाना, प्रलयकाल के मेघसमाना। देखत तुम पातकनस जाई, गरुड़लखे ज्यों व्याल पराई।। चिन्तामणी कहा तुम आगे, पर सुखदाई आप अभागे।
आपु तरे तुम औरन तारे, इह उपमा तुम कहत पुकारे।। कहत कल्पतरु तुम सम कोई, तुम आगे से कछुनहिं होई। वहथावर अरुकाष्ठ विचारा, तुम अनन्त महिमागुणधारा।।
सूर चन्द जे कहे अनेका, तुम पटतर नहिं द्वै में एका। ज्ञान सूर आनन तुम चन्दा, अहनिश रहत सदैव अमंदा।। कंटक सहित कमलदल सारे, तुम पद कंट दोष तें न्यारे। यातें कमल कछू नहिं कहिये, तुमपद आगे कहा सरहिये।। तुमपदतट लोटत शिवनारी, करत आलिंगन भुजा पसारी। तुमको धोक देत जो कोई, मुकति रमिनको भरता होई।। पारस पत्थर कंचन करे, तो क्या अधिक बातकों धरे। तुम पद भेटत दीनदयाला, तुमसम सो होवे ततकाला।। करमचक्रपर चढि यह जीवा, भ्रमत चहूँगति मांहि सदीवा। ताहि उतारन तुम ही देवा, समरथ जानि करों पदसेवा।।
याते नमो नमों जिनराई, नमो नमों मम होउ सहाई। इह विनती कर जोरे करों, भवसागर अबके नहिं परों।
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घत्ता
इह वरमाला, अजित प्रभू की, कण्ठमाहि जो नर, धरसी। करसी सो अतिसुख, मेंट सकलदुख, भवसागर फिर नहिं परसी। ओं ह्री श्री अजितनाथ जिनेन्द्राय सर्वसुख प्राप्तये पूर्णार्घ्यम्। शार्दूलविक्रीडत छन्द
जो या श्रीअजितेशपाद जजि हैं, कारिकृतामोदना । सो धान्यादिक पुत्र मित्र वनिता, पावे सदा पावना।। आयू हो विपुला आरोगतनुता, जावे न मा पार्श्वतें। पोछेतें शिववाम जाय शुभले, भोगे सुखं सास्वते।।
ओं ह्रीं श्री अजितनाथजिनेन्द्राय नमः (इस मंत्र का जाप्य देना)
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।।
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श्री सम्भवनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल)
स्थापना- गीता छन्द नगरी सवित्री पितु जितारी, सुसैन माता के घरै।
ग्रैवेकतं संभव सु हूवे, कनकप्रभा सुतनू धेरै।। उन्नत धनुष कहि चारि शत, इक्ष्वाकुवंश शिरोमणि। लख पूर्व साठि विशाल आउष, वाजि चिह्न तपोधनी।।
दोहा सो सम्भव भवभ्रमनहर, मुकतितिया गलहार।
इहां विराजो आनि तनि, मो पै है किरपार।। ओं ह्रीं श्री सम्भवनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (इति आह्वाननम्)
ओं ह्रीं श्री सम्भवनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठौ तिष्ठौ ठः ठः। (स्थापनम्) ओं ह्रीं श्री सम्भवनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट् (सन्निधिकरणम्)
अष्टक - त्रिभंगी छन्द लै घनरस चोखा, गंध नतोखा, अमल अदोखा, मुनि मनसो। कंचन के घट भरि, बहुत विनय धरि, कमलपत्र करि, छादित सो।।
सम्भवढिग ल्याऊँ, बहुगुण गाऊँ, चरन चढ़ाऊँ, हरष हिये।
जासों शिव डेरा, करम निवेरा, होय सबेरा, आश किये।। ओं ह्रीं श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा ।
तिलपरण घसांऊँ, कुंकुम ल्याऊँ, ताहि मिलाऊँ शुभ चित से। भरि रतन कटोरा, दश दिशि छोरा, गुंजत भौंरा अति हित से।। सम्भवढिग ल्याऊँ, बहुगुण गाऊँ, चरन चढ़ाऊँ, हरष हिये।
जासों शिव डेरा, करम निवेरा, होय सबेरा, आश किये।। ओं ह्रीं श्री सम्भवनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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वर जाह्नवि तोयं, सिंचित होयं, तन्दुल सोयं, बहुउजले। तिन उज्जलताई, चन्द्र न पाई, क्षीर दधि को, हँसत भले।। सम्भवढिग ल्याऊँ, बहुगुण गाऊँ, चरन चढ़ाऊँ, हरष हिये।
जासों शिव डेरा, करम निवेरा, होय सबेरा, आश किये।। ओं ह्रीं श्री सम्भवनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
सुमनादिक सुमना, चुन अति नीके, कहे शास्त्र मधि लावन सो। कंचन के भाजन, भर शुभ भवन, महा सुहावन पावन सो।। सम्भवढिग ल्याऊँ, बहुगुण गाऊँ, चरन चढ़ाऊँ, हरष हिये।
जासों शिव डेरा, करम निवेरा, होय सबेरा, आश किये।। ओं ह्रीं श्री सम्भवनाथजिनेन्द्राय कामवाणविनाशनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा ।
खासे से पूवे, गोघृत हूवे, पत्री डूबे, मधुर बड़े। तिनकी मधुराई, बरनि न जाई, सुधा लजाई, निज मनड़े।। सम्भवढिग ल्याऊँ, बहुगुण गाऊँ, चरन चढ़ाऊँ, हरष हिये।
जासों शिव डेरा, करम निवेरा, होय सबेरा, आश किये।। ओं ह्रीं श्री सम्भवनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
दीपक कर धरिके, गोघृत भरिके, वार्तिक करके अति जरता। घटपट दरशावत, तिमिर नशावत, जोति जगावत सुख करता।। सम्भवढिग ल्याऊँ, बहुगुण गाऊँ, चरन चढ़ाऊँ, हरष हिये।
जासों शिव डेरा, करम निवेरा, होय सबेरा, आश किये।। ओं ह्रीं श्री सम्भवनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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दश अंगी धूपं, अति शुचि रूपं, ल्याय अनूपं भव बढ़े। धूपं दधि मांहीं, दहन कराहीं, दिग महकाहीं धूम कढ़े || सम्भवढिग ल्याऊँ, बहुगुण गाऊँ, चरन चढ़ाऊँ, हरष हिये । जासों शिव डेरा, करम निवेरा, होय सबेरा, आश किये।। ओं ह्रीं श्री सम्भवनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा ।
जातीफल एला फल ले केला, नारीकेला आदि घने । शुभगुण्ड पियाला, अवर रसाला, भरि भरि थाला कनक तने ।। सम्भवढिग ल्याऊँ, बहुगुण गाऊँ, चरन चढ़ाऊँ, हरष हिये। जासों शिव डेरा, करम निवेरा, होय सबेरा, आश किये ।। ओं ह्रीं श्री सम्भवनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा ।
सम्वर भद्रम्वर, शाली सितसर, सारंगप्रिय अरू विंजन ले। वसु सारंग खासा, धूप सुवासा, फल इम अरघ सुहावन ले।। सम्भवढिग ल्याऊँ, बहुगुण गाऊँ, चरन चढ़ाऊँ, हरष हिये।
जासों शिव डेरा, करम निवेरा, होय सबेरा, आश किये ।। ओं ह्रीं श्री सम्भवनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
सकर छन्द
फाल्गुन सुसित पख अष्टमी, को गर्भ स्थिति नाथ । श्री आदि षट्कुलवासिनी, अरु रुचिकवासिनि साथ।।
करि प्रश्न उत्तर देत माता, सुगरभ तुव परताप। हम अरघ ल्याय सुपाद पूजत, हरो मो सिम पाप || अहीं फाल्गुनकृष्णाष्टम्यां गर्भकल्याणक प्राप्ताय श्री सम्भवनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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कार्तिक सुदी शुभ पौर्णमासी, जनम होत महान । मिथ्यात तम के हरन को जनु, प्रगट भूपर भान ।। रचिनींद माया मात को ले, लीन शचि निजअंक। मैं अरघ सों तुम जजों जुगपद, करहु मोहि निःशंक।। ओं ह्रीं कार्तिकशुक्लपौर्णमास्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्री सम्भवनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
अगहन महीना पौर्णमासी, के दिना भगवन्त । चढ़ पालकी पर जाय वन कच, लोंच करत महन्त ।। सब डार जगको भार भारहिं, होत नगन शरीर ।
मैं अरघ ले पदकंज पूजों, हरो सम्भव पीर ॥ ओं ह्रीं मगसिरशुक्लपौर्णमास्यां तपकल्याणकप्राप्ताय श्री सम्भवनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
कार्तिकवदी शुभचौथ के दिन, ज्ञान उपजत जानि । समवसरन विशाल अनुपम, रचत धनपति आनि।। तहां बैठी आनन चारि सोहत, है सुदुंदुभि वाज। वह रूप मनवच सुमरिकें, ले अध्य पूजत आज ।। ओं ह्रीं कार्तिक कृष्णचतुर्थ्यां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्री सम्भवनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
चैत्रशुक्ल षष्ठी समेद तें, लियो सिद्धथानक जाय। तहँ अंगवर्जित अलख मूरति, ज्ञानमय शुभ पाय ।।
नहिं होत आवागमन तहंतें, रहें सुख में पूर। जिनचरन को ले अरघ पूजों, होत संकट दूर ओं ह्रीं चैत्रशुक्लषष्ठायं मोक्षकल्याणकमण्डिताय श्री सम्भवनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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जयमाला - झूलना छन्द
अष्टपद मत्त गज जे हरत सुखजलज, तोरि तिन दन्त तुम करत सूने। धन्य भुजदण्ड धर प्रवर, परचंड, वर घ्यानमय खड्ग गहि करम लूने।। सिद्ध अति अति दुर्ग थल जीति हूवे, अचल अन्तकी देह तें कछुक ऊने। अरज मनरंग की नाथ सुनिये तनक, होय तव भक्ति मो भावनै दजे।।
भुजंगप्रयात छन्द नमो जय नमों जय सुसैना के नंदा, तु आसा हमारी चकोरी के चन्दा।।
करो नाथ दाया कहों हूँ सुटेरी। प्रभू मेटिये दीनता आज मेरी।। न देखे तिहारे भले पाद-पद्मं, महामोक्ष के मूल आनन्द सा।। सयातें भई मोहि संसार फेरी। प्रभू मेटिये दीनता आज मेरी।। वसो हूँ चिरंकाल नीगोद माहीं, धरे भौ जु अन्तार माहूर्त माहीं। छ तीनै-रु तीनै छ छै अङ्क हेरी। प्रभू मेटिये दीनता आज मेरी।। अन्तैहि भागे कहे आखरा के। कह्यो ज्ञान एतोहि ताके विपाके।। कध्यो हू लहो जानि थावार केरी। प्रभू मेटिये दीनता आज मेरी।। तहाँ पंचधा भेद में दःख भारी। सहे जो कही जात नाहीं सम्हारी।। भयो दीन यों पाप की संचि ढेरी। प्रभू मेटिये दीनता आज मेरी।। भयो संख आदी गिंडोला द्विइन्द्री। पुनः कान-खज्जूर हूवी तिइन्द्री।
द्विरेफादि दे चारि इन्द्रीय हेरी। प्रभू मेटिये दीनता आज मेरी।। महामच्छ की आदि पर्याय पाई। करी भूरि हिंसा कहीं नाहिं जाई।। मर्यो नर्क में जाय कीन्हीं न देरी। प्रभु मेटिये दीनता आज मेरी।। वहां छेदना भेदना ताड़नाई। तपायो गयो शूल सेज्या पड़ाई।।
इन्हें आदि दे कष्ट पाये घनेरी। प्रभू मेटिये दीनता आज मेरी।। बसो गर्भ में आयके मैं कहूं क्या। बसों अंग सारे मुख औंधा करूं क्या।।
रह्यो भूति हा कर्म के जाल घेरी। प्रभू मेटिये दीनता आज मेरी।। भयो, यन्त्रिका सों मनो तार काढ्यो। तहां मोहि ऐसा बड़ो दुःख बाढ़यो।। ___ भई बाल अवस्था मनीषा न नेरी। प्रभू मेटिये दीनता आज मेरी।। युवा वय भई काम की चाह बाढ़ी। वियोगी भयो शोक की रीति काढ़ी।।
न देखे तुम्हें हां भले चित्त सेरी। प्रभू मेटिये दीनता आज मेरी।।
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जरा - रोग ने घेर के मोहि किन्हों। महा राजरोगी भलो दाव लीन्हों ।। झड्यो ज्यों पको पान काला निलेरी । प्रभू मेटिये दीनता आज मेरी || कोई पुण्य से देव को पट्ट लीनो। वहां जाय के मैं भयो देव हीनो
ह्या दुःख मनसा न भाषे बने । प्रभू मेटिये दीनता आज मेरी भ्रम्यो चारिहूँ और साता न पाई । तिहारे बिना और को मो सहाई ।। यही जानि के काटि दे कर्म बेरी । प्रभू मेटिये दीनता आज मेरी ||
घत्ता- सम्भव जयमाला, नासत काला, आनन्द जाला, कण्ठ धरे। सोविद्याभूषण, नासै दूषण, शिवतियसंग नित भोग करे।। ओं ही श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय । सर्वसुख प्राप्तये पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
दोहा - सम्भवनाथ प्रसाद ते, होउ सकल सुख भोग। पुत्र पौत्र परताप जस, सुरगश्री-संयोग।।
ओं ह्रीं श्री सम्भवनाथजिनेन्द्राय नमः (इस मंत्र की जाप्य देना)
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।।
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श्री अभिनन्दननाथ जिन-पूजा ( रचयिता - कविवर मनरंगलाल )
स्थापना - गीता छन्द
नगरी अयोध्या नृपति संवर, सिद्धि अर्था है त्रिया। कपि चिन्ह वंश इक्ष्वाकु अभिनन्दन, सुजाके प्रिया।।
वपु वरन सुवरन धनु ऊँचाई, तीनसौ साढ़े कही। तजि विजय नाम विमान लख, पंचास पूर्वायू लही॥ भुजंगप्रयात छन्द
तजि सब जगत समाज, भये लोक चूड़ामणी । अभिनन्दन महाराज, करि करुणा यहां आव अब ।।
ओं ह्रीं श्री अभिनन्दननाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (इति आह्वाननम्)
ओं ह्रीं श्री अभिनन्दननाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठौ तिष्ठौ ठः ठः। (स्थापनम् ) ओं ह्रीं श्री अभिनन्दननाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट् (सन्निधिकरणम्)
अथाष्टक - गीता छन्द
जल पदम हृदको ल्याय उज्ज्वल, कनकघट भरवाय के। दे धार तुम पद-पद्म को अति, मन अनन्द बढ़ाय के।
अब द्रव्यक्षेतर काल भव अरु, भाव परिवर्तन मई । संसार पन विधि इमभिनन्दन, नाशिये जग के जई || ओं ह्रीं श्री अभिनन्दननाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा ।
गोशीर्ष कष्णाअगरु फटिके, देवप्यारी ल्यावहूँ। घसवाय करि कंचन कटोरी, नाथ पदहिं चढ़ावहूँ ।। अब द्रव्यक्षेतर काल भव अरु, भाव परिवर्तन मई । संसार पन विधि इमभिनन्दन, नाशिये जग के जई ।।
ओं ह्रीं श्री अभिनन्दननाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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तन्दुल प्रछाले नीर प्रासुक, खरे भरि ले थार में।
चन्द्रकान्त समान तिनसों, करों पूजा सार मैं।।
अब द्रव्यक्षेतर काल भव अरु, भाव परिवर्तन मई।
__ संसार पन विधि इमभिनन्दन, नाशिये जग के जई। ओं ह्रीं श्री अभिनन्दननाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
कुन्द चम्पक राय बेला, कुंज और कदम्ब के। ले फूल नाना भांति तिनसों जजों पद अभिनन्द के।। अब द्रव्यक्षेतर काल भव अरु, भाव परिवर्तन मई।
संसार पन विधि इमभिनन्दन, नाशिये जग के जई।। ओं ह्रीं श्री अभिनन्दननाथजिनेन्द्राय कामवाणविनाशनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा ।
गोक्षीर तन्दुल सरकरा जुत, फेनि शतछिद्रा बनी। लखि क्षुधा रोग नसात तिनसों, पूजहूँ जगके धनी।। अब द्रव्यक्षेतर काल भव अरु, भाव परिवर्तन मई।
संसार पन विधि इमभिनन्दन, नाशिये जग के जई।। ओं ह्रीं श्री अभिनन्दननाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
कनक दीयो सुरभि सी, कपूर वाती बारिके। सब दिशा करत उद्योत तासों, जजोंपद हित धारिके।। अब द्रव्यक्षेतर काल भव अरु, भाव परिवर्तन मई।
संसार पन विधि इमभिनन्दन, नाशिये जग के जई।। ओं ह्रीं श्री अभिनन्दननाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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वर धूपदह में धूप धरि दह, धूम करि सुदिगावली। भरपूर महकत जजों प्रभुपद, जले मोह महाबली।। अब द्रव्यक्षेतर काल भव अरु, भाव परिवर्तन मई।
संसार पन विधि इमभिनन्दन, नाशिये जग के जई। ओं ह्रीं श्री अभिनन्दननाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा ।
दारु फल अरु केसरी वर, रक्तकुसुम दशांगुली। भरिले विशाल सुथाल प्रभुपद, जजोंजोरि करांगुली।। अब द्रव्यक्षेतर काल भव अरु, भाव परिवर्तन मई।
संसार पन विधि इमभिनन्दन, नाशिये जग के जई।। ओं ह्रीं श्री अभिनन्दननाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वामीति स्वाहा ।
जल गन्ध अक्षत फूल चरुवर, दीप धूप फलौघ ले। शुभ अरघसों पदकमल पूजत, करमगण जासों जले।। अब द्रव्यक्षेतर काल भव अरु, भाव परिवर्तन मई।
संसार पन विधि इमभिनन्दन, नाशिये जग के जई।। ओं ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अयम् निर्वपामीति स्वाहा ।
पंचकल्याणक
गरथ स्थित महाराजा, वैसाख सित षष्ठी दिना कैसे। जिमि सीपी मधि मुक्ता, राजे अभिनन्दन प्रभु वैसे।।
ओं ह्रीं वैशाखशुक्लाष्टम्यां गर्भकल्याणकप्राप्ताय श्री अभिनन्दननाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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माघ सुदी द्वादसि को, जन्मे अखण्ड प्रताप धरि सूर। जग मिथ्यातम सारो, निज किरनन तें कियो दर।।
ओं ह्रीं माघशुक्लचतुर्दश्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्री अभिनन्दननाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
माघ शुक्ल द्वादशि दिन, द्वादश भावन भाय प्रभू मनमें।
योगाभ्यास सम्हारा, तजि गृह जाय वसे वनमें।।
ओं ह्रीं माघशुक्लद्वादश्यां तपःकल्याणकप्राप्ताय श्री अभिनन्दननाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
पौष सुदी भूतादीन, केवलपद लहि है महाज्ञानी।
चतुरानन मनभावन, जगपावन करत सुखखानी।। ___ओं ह्रीं पौषशुक्लचतुर्दश्यां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्री अभिनन्दननाथजिनेन्द्राय अयम् निर्वपामीति स्वाहा ।
वैशाख सुदी षष्ठी, ज्ञानावरणादि कर्म निरमुक्तं। सिद्धपती पद लीन्हों, सम्मत्तादि अष्ट गुणयुक्तं।।
ओं ह्रीं वैशाखशुक्लषष्ठयां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्री अभिनन्दननाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
अथ जयमाल - छन्द चौपैया स्वामी अभिनन्दन के अति सुन्दर, पद सरोजसम सोहें। है भौंरा भविजन तिन ऊपर लहि, आनद सुखिया होहें।। तनित पराग धरे तिनतर की सिर, पावन कर जग मोहे। ते निसिदौस वसो मेरे घट फिर, देखों मद अरि कोहे।।
छन्द सुग्विणी जब अभिनन्द संसार की आस ना। खूब कीन्हों तिहूं लोक में वासना। नेक हेरो हमारी तनै हालिमा। दूर हो जाय मो भाव की कालिमा।।
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काम जीत्यो भली भांति के देव तैं। थान लीन्हों महाध्यान के भेव तें।।
नेक होरी हमारी तनै हालिमा। दूर हो जाय मो भाव की कालिमा।। क्रोध की मान की लोभ की मोह की। टैव राखी न माया तनी छोह की।।
नेक होरी हमारी तनै हालिमा। दूर हो जाय मो भाव की कालिमा।। ध्यानमय दण्ड ले पाप फोरे सभी। चौथ औतार भू मांहि हूओ सही।।
नेक होरी हमारी तनै हालिमा। दूर हो जाय मो भाव की कालिमा।। अब्धि मण्डूकि की आस मो है रही। ताहि तूं स्वाति को बूंद आछो सही।। नेक होरी हमारी तनै हालिमा। दूर हो जाय मो भाव की कालिमा।। अष्ट कर्माटवी ने महाऽमित्र हौ। झूठ की लाल सूखावने मित्र हो।। नेक होरी हमारी तनै हालिमा। दूर हो जाय मो भाव की कालिमा।। पञ्च इन्द्री महाकम्बु को केहरी। शक्र लोटे सदा आय तो देहरी।। नेक होरी हमारी तनै हालिमा। दर हो जाय मो भाव की कालिमा।। लोक में एक तू पुण्य की है ध्वजा। ले जो आसरो सो करे है मजा।। नेक होरी हमारी तनै हालिमा। दूर हो जाय मो भाव की कालिमा।। झांझरी नाव मो बोझ गरुवा भरी। वायु वाहै महाअब्धि मांही परी।। नेक होरी हमारी तनै हालिमा। दूर हो जाय मो भाव की कालिमा।। अन्ध को लाकड़ी ज्यों मुझे नाम तो। डूबते धार आलम्ब के पाव तो।। नेक होरी हमारी तनै हालिमा। दूर हो जाय मो भाव की कालिमा।। भौ महाअब्धि के पारगामी सुनो। कान लागाय के व्याधि मेरी लुनो।। नेक होरी हमारी तनै हालिमा। दूर हो जाय मो भाव की कालिमा।। दीन के काज की कीजिये देर ना। नाथ कीजे मुकति अब कहा हेरना।। नेक होरी हमारी तनै हालिमा। दूर हो जाय मो भाव की कालिमा।।
घत्ता छन्द मरहटा अभिनन्दन स्वामी, अन्तरजामी, की पूरी जायमाल। जो पढ़े पढ़ावे, मनवचतनकरि, सो पावे शिव हाल।। तहँ वसे निरन्तर, काल अनन्ते, आसन अचल कहो जू। फिर जनम न पावे, मरन न आवे, जग गुण गावे रोजू।। ओं ह्री श्री अभिनन्दननाथजिनेन्द्राय सर्वसुख प्राप्तये पूर्णार्घ्यम्।
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सोरठा अभिनन्दन भगवन्त, तो प्रसाद तें जगत जन। सुखिया होय महन्त, ईति भीति सब छांडिके।।
ओं ह्रीं श्री अभिनन्दननाथ जिनेन्द्राय नमः
(इस मंत्र की जाप्य देना)
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री सुमतिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल)
स्थापना- गीता छन्द कौसिला नगरी मेघप्रभ पितु, मंगला माता कही। शुभ वैजयन्त विमान तजि, हवे सुमतिजिन सुत सही।। पग चकव अंक इक्ष्वाकुवंश, चालीस लख पूर्वायु है। जिनकाय हाटक वरनधनुसौ, तीन कोसु उचाउ है।।
सोरठा सुमतिनाथ भगवान, सुमति देउ मो दीन लखि।
भव-जल तारन जान, आय यहां तिष्ठो प्रभू।। ओं ह्रीं श्री सुमतिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (इति आह्वाननम्) ____ओं ह्रीं श्री सुमतिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठौ तिष्ठौ ठः ठः। (स्थापनम्) ओं ह्रीं श्री सुमतिनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट् (सन्निधिकरणम्)
अथाष्टक - नाराच छन्द महान गन्ध धार नीर, ल्याइये सुछीर सों। पवित्र कुम्भ हेमके, भराइये गहीर सों।। पदाब्ज द्वै सुबुद्धिनाथ, के सुबुद्धि देत ही।
जजों अनन्त दर्शज्ञान, सौख्य वीर्य हेत ही।। ओं ह्रीं श्री सुमतिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा ।
हिमोपरा सुगन्ध सार, कों घसी की भयोपरम्। लियाय सीतकार सा, महान तप्तता-हरम्।। पदाब्ज द्वै सुबुद्धिनाथ, के सुबुद्धि देत ही।
जजों अनन्त दर्श ज्ञान, सौख्य वीर्य हेत ही।। ओं ह्रीं श्री सुमतिनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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कहे अखण्ड अच्छतं, पवित्र श्वेत भाव ही। भरे महान थार ल्याय, कन्द का जलावही।। पदाब्ज द्वै सुबुद्धिनाथ, के सुबुद्धि देत ही।
जजों अनन्त दर्शज्ञान, सौख्य वीर्य हेत ही।। ओं ह्रीं श्री सुमतिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा
गुलाब बन्धु द्वैपदा, सुसेवती चुनाय के। हजारपत्र को सुकेंज, हेम को बनाय के।। पदाब्ज द्वै सुबुद्धिनाथ, के सुबुद्धि देत ही।
जजों अनन्त दर्शज्ञान, सौख्य वीर्य हेत ही।। ओं ह्रीं श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय कामवाणविनाशनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा ।
पचाय अन्न चारुचारु, थार में भराय के। सुहाथ मांहि ले शुद्ध, भावको लगाय के।। पदाब्ज द्वै सुबुद्धिनाथ, के सुबुद्धि देत ही।
जजों अनन्त दर्शज्ञान, सौख्य वीर्य हेत ही।। ओं ह्रीं श्री सुमतिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
कपूर बाति दीप में, बड़ी उदोत त्यागती। कहूँ न लेश धूम को, महान, ज्योति जागती।। पदाब्ज द्वै सुबुद्धिनाथ, के सुबुद्धि देत ही।
जजों अनन्त दर्शज्ञान, सौख्य वीर्य हेत ही।। ओं ह्रीं श्री सुमतिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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करूँ मँगाय धूप सार, अग्नि के सुसन्मुखा । सुखारि होय आयके, सुवास ले शिलीमुखा ।।
पदाब्ज द्वै सुबुद्धिनाथ, के सुबुद्धि देत ही । जजों अनन्त दर्शज्ञान, सौख्य वीर्य हेत ही।।
ओं ह्रीं श्री सुमतिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा ।
लवंग मालती सुता, शुकप्रिया सुद्रावड़ी | निकोचकं सुगोस्तनी, भराय थालिका बड़ी ।।
पदाब्जद्वै सुबुद्धिनाथ, के सुबुद्धि देत ही । जजों अनन्त दर्शज्ञान, सौख्य वीर्य हेत ही।।
ओं ह्रीं श्री सुमतिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा ।
सुवारि गन्ध अक्षतं, प्रसून के चरू -वरं । सुदीप धूप और फलं, बनाय अघ्य सुन्दरीम् ॥ पदाब्ज द्वै सुबुद्धिनाथ, के सुबुद्धि देत ही
जजों अनन्त दर्शज्ञान, सौख्य वीर्य हेत ही ।।
ओं ह्रीं श्री सुमतिनाथजिनेन्द्राय अनघ्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
पंचकल्याणक - सोरठा
श्रावन सित पख जान, द्वैत महादिन जान शुभ रहे गर्भ में आन, पूजों तिनपद अध्य सों। ओं ह्रीं श्रावणशुक्ल द्वितीयायां गर्भकल्याणकमण्डिताय श्री सुमतिनाथजिनेन्द्राय अघ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
चैत्र सुदी परवान, रुद्र संख्य तिथि के दिना । जन्म लीन भगवान, , सुमतिप्रभू भवभीति हर।। ओं ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्याँ जन्मकल्याणक प्राप्ताय श्री सुमतिनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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जान सुदी वैसाख, नौमी दिन तपग्रहण किया। छांडि सकल मन भाख, जजों अघ्य ले तिन चरण ।। ओं ह्रीं वैशाखशुक्लनवम्यां तपकल्याणक प्राप्ताय श्री सुमतिनाथजिनेन्द्राय अघ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
केवल ज्ञान प्रकाश, एकादशि सुदि चैत की । इन्द्र रहत पद पास, मैं पूजत शुभ अध्य सों || ओं ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय श्री सुमतिनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
चैत सुदी गिन लेहु, एकादशि सम्मेद तै। जगत जलांजलि दे, परम निरंजन होत ।। ओं ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्याँ निर्वाणकल्याणक प्राप्ताय श्री सुमतिनाथजिनेन्द्राय अध्यम्।
जयमाल - त्रिभंगी छन्द
जय दुरमति खंडन विपतिविहंडन, पातिकदण्डन सुमतिपती। जय शिवसुखमंडन भवभ्रमछंडन, जय परमेश्वर परम- जती॥1॥ जयतुममुखचन्दा लखि भविवृन्दा, लहत अनन्दा विगिरिमिता । जयगुणरत्नाकर शचिपतिचाकर, रहत निशाकर गुणकविता॥2॥ तोटक छन्द नहि स्वेद नहीं मल रंच कहो, शुभ शोणित क्षीरसमान लहो । वज्रवृषभनाराच संहननम्, सम चौसंस्थान भलो गननम् ॥3॥
अतिसुन्दर रूप सुहावत है, सहजै तनगन्ध सुआवत है। दससौ अरु आठ सुलक्षणते, सब विघ्न नसें तुव अक्षन ते ॥4॥ वीर रमिता, प्रियवैन भले निकसें उचिता । जनमें तब के दश जे अतिशय, अब केवल के कहिये अतिशय ॥5॥ बसै कही कोस सुभिक्ष महा चलिवो शुभ अम्बरको सुमहा
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वध जीव भयो न कितौ सुनिये, न अहार कह्यो मन में गुनिये ||6||
उपसर्ग न केवल-ज्ञान भये, शुभ आनन सोहत चार लये। सब ईश्वरता विद्यापन की, कहुँ छांह न लेश परे तन की॥7॥ करजा चिकुरा नहिं वृद्धि कदा, पलकें न लगे कहुँ नेक सदा। इमि केवलज्ञान तने दश हैं, अमरान किये शुभ चौदह हैं|| 8 ॥ शुभवाण खरे अर्ध मागधिया, तजि देहें सबै तहँ वैर जिया । फल फूलत वृक्ष छहों ऋतु के, जन पावत चैन सवै हित के ॥9॥
चले मंद बयारि सुगन्ध मई, शुभ आरसि जेम सुभूमि भई । और गन्ध मिली जलकी बरषा, तहँ होत लखो जिय मो हरषा । 10 ॥
बिन कंटक आदिक भूमि कही, कमलों परि है गति देव सही। फल भार नमें सब धान्य जहाँ, मलवर्जित कीन्ह अकाश महा॥11॥ सुर चारि प्रकार आहवान करें, अति ही चित में सुनन्द धरें। अरिशासनचक्र अगारि चले, वसु मंगल द्रव्य सुहात भले।।12।। प्रभु के अतिशय वर देव कृता, अपनी मति माफिक में उकता। कहिये प्रतिहाज नाथ तने, सुनतेहि नसें जगफँद घने।।13।। नहि राखत शोक अशोक दली, तसु ऊपर गुंजत भूरि अली। वरषै सुमना मुख ऊपर को, अरु हेठ कहो सो रहै तरको ।।14।।
ध्वनि दिव्य निरझरि नीसरिता, इकयोजन घोष मिता धरिता । चतुषष्टि कहे वन चामर ही, लिय ढोरत ठाडि मुखावर ही ।। 15।। छवि आसन की गिरि में सुथरी, द्युतिमंडल सो भव सप्त धरी । सुरदुंदुभि बारह कोटि बजे, अधकोटि अधिक्क महा गरजें।।16।।
त्रय छत्र क्षपाकर ज्यों उकता, उडु से मनु सेव्य रहे मुकता । प्रतिहारज अष्ट विभूति रही, तिहि धारि भये अरिहन्त सही ॥17॥ करि चारिय घातिय घात जबै, लहि नन्त चतुष्टय पट्ट तबै। दर्शन अरु ज्ञान सुसौख्य बलं, इन चारहु ते तुव देव अलं।।18।। व्यवहार कहे गुण छालिस जे, निहचै नयतें गुण नन्त सचे।
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सुसुरेश नरेश गणेश जिते, असुरेश कहे धनईश तिते।।19॥
तव पावत पार न एक रती, भगवान बड़े तुम हो सुमती। विनती सुन ले अपने जन की, अब मेंट विचा सुगरीबन की।।20।
धनि रीति कही जुअ वाहन की, जग वूड़त ताहि निवाहन की। प्रभु तो प्रभुता कबलों कहिये, लखिके छवि तो चुप द्वै रहिये।।21।। ओं ह्री श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय सर्वसुख प्राप्तये पूर्णार्घ्यम्।
घत्ता जिन सुमति विशाला, जम में आला, तिन जयमाला, यह सुथरी। जो कंठी करि है, आनद धरि है, ना मारे तिहि काल अरी॥22॥
सोरठा सुमति सुखकार, घनइव गरजन करि सहित। वर्षों आनंद धार, भविजन खेती ऊपरे।।
ओं ह्रीं श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय नमः
(इस मंत्र की जाप्य देना)
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री पद्म प्रभ जिन-पूजा
( रचयिता - कविवर मनरंगलाल )
स्थापना- गीता छन्द
नगरी कुसम्बी पिता धारन, है सुसीमा माय सो। जिन पदम भव धरि पद्म अंक, सुवरण तनु धनु ढाइसौ।।
ग्रैवेयक ऊपरलौ तजो, तेतीसलाख पूर्वायु सो । शुभवंश भूषितकरि इक्ष्वाकू, गये शिवालय चावसों।। सोरठा - सोइ पदम जिनेश, धरे अंक पद पद्म छवि। आय वसो लवलेश, प्राणन के प्यारे यहाँ ।।
ओं ह्रीं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (इति आह्वाननम्) ओं ह्रीं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठौ तिष्ठौ ठः ठः । (स्थापनम् ) ओं ह्रीं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट् (सन्निधिकरणम्)
अथाष्टक
छन्द चामरा
नीर ल्याय सीयरो, महान मिष्ट सारसों । आनि शुद्ध गन्ध मेलि, वेश तीन धारसों ।। पद्मनाथ देव के, पदारविन्द जानिके । पंचभाव हेतु मैं, जजों आनन्द ठानिके॥ ओं ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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श्वेत चन्दनम् कपूर, सो मिलाय धारतो । पात्र में घसाय ल्याय, गन्ध को पसार तो।। पद्मनाथ देव के, पदारविन्द जानिके। पंचभाव हेतु मैं, जजों आनन्द ठानिके|| ओं ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा ।
तन्दुलम् भले सुपाण्डु वर्ण खण्ड वर्जितम् । हेमथार में धराय, चन्द्रकान्ति लज्जितम्।। पद्मनाथ देव के, पदारविन्द जानिके । पंचभाव हेतु मैं, जजों आनन्द ठानिके ॥ ओं ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
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पंचवर्ण के प्रसून, गन्धता बड़ी बहै। पाय पाय गन्ध भूरि, मग्नता अली गहै।। पद्मनाथ देव के, पदारविन्द जानिके। पंचभाव हेतु मैं, जजों आनन्द ठानिके।। ओं ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय कामवाणविनाशनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा ।
क्षीर मोदकादि वृन्द, स्वच्छपात्र में धरों। भाव को लगाय पाय, चैन पापको हरों।। पद्मनाथ देव के, पदारविन्द जानिके। पंचभाव हेतु मैं, जजों आनन्द ठानिके।। ओं ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
धूप को न लेश शुद्ध, वर्ति का कपूर की। रत्नदीप में धराय, अन्धकार दूर की। पद्मनाथ देव के, पदारविन्द जानिके। पंचभाव हेतु मैं, जजों आनन्द ठानिके।। ओं ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा ।
धूप गन्धसार औ, कपूर को मिलाय के। धूप दाह मांहिं खेय, धूम को बढ़ाय के।। पद्मनाथ देव के, पदारविन्द जानिके। पंचभाव हेतु मैं, जजों आनन्द ठानिके।।
ओं ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा ।
मोच दन्तवीज वातशत्रु ल्याय के घने। कामबल्लभादि जे, फलौघ मिष्टता घने।। पद्मनाथ देव के, पदारविन्द जानिके। पंचभाव हेतु मैं, जजों आनन्द ठानिके।।
ओं ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा ।
तोय गन्ध अक्षतं, प्रसून सूप औ दिया। धूप ले फलातिसार, अध्य शुद्ध यों किया।। पद्मनाथ देव के, पदारविन्द जानिके। पंचभाव हेतु मैं, जजों आनन्द ठानिके।। ओं ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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पंचकल्याणक - छन्द शिखरणी वदी षष्ठी जानो, सुभतर कहो माघ महिना। वसे माता कुक्ष्यां रतनवरषे, कहा कहिना।। जजों में ले अध्य, पदमप्रभ के द्वन्द्व चरणा। बसो मेरे ही में, सतत अबके लेहुँ शरणा।
ओं ह्रीं माघकृष्णषष्ठ्यां गर्भकल्याणकप्राप्ताय श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
मति श्रुती अवधी, लसत शुभ ज्ञानं अलख को। भली त्रयोदश्यां, कार्तिक महीना प्राकपख को।। प्रभू जन्मे भू पै, दिनपति मनोकोटि उदितम्। लखे जाके नित्य, भविकजलजा होत मुदितम्।। ओं ह्रीं कार्तिककृष्णत्रयोदश्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
कही त्रयोदश्यां, कार्तिक महीना पक्ष पहिला। तजी मायासारी, वनमधि वसे छाँडि महिला।।
करें सो देवाधिप, सकल सानन्द मनसों। जजों में ले अर्घ्य, मनवाचन वा शुद्ध तनसों।। ओं ह्रीं कार्तिककृष्णत्रयोदश्यां तप कल्याणकप्राप्ताय श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
कही पूनो आछी, मधुमहिनमा केरि जु दिना। हने घाती चारों, महत शुभ ले ज्ञान सुजिना।। महामिथ्या रूपी, तमहरण को भानु प्रगटा। नसें जाके देखे दअन कलुषाकी अतिघटा। ओं ह्रीं चैत्रशुक्लपौणमास्यां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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वदी चैथहि जानो, सुभग महिना फाल्गुन कहा। बड़ी संयोगम् शुभ, मुक्तिरमणी सो तिन लहा।।
करी पूजा भारी, शिखरपर निर्वाण पदकी। यहां मैं ले अध्य, जजन करिये पद्मपद की। ओं ह्रीं फाल्गुनकृष्णसप्तम्यां निर्वाणकल्याणकप्राप्ताय श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
अथ जयमाल - छन्द दंडिका जय तन छवि छज्जै, रवि द्युति लज्जै, शरद समय शशि इव सुखदो। लखि भय सिग भज्जै भविगण गज्जै, अनन्त चतुष्टमय सुखतो।।
चउ घाती चूरे, गुण-गण पूरे, क्षपक श्रेणि चढि ज्ञान लहो। इन्द्रादिक ध्यावत शीश नवावत, सुयश फैलि तिहुँ लोक रही।।1।।
छन्द मुक्तदान नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु जिनेश, न राखत हो तुम लेश कलेश। रखावन को जनकी सब लाज, बड़े प्रभू पद्म गरीबनवाज।।2।।
न शत्रु न मित्र समान समस्त, करे कर्मादिक शत्रु निरस्त। लियो शिव करिके आतमकाज, बड़े प्रभू पद्म गरीबनवाज।।3।। छः द्रव्य पंचासति काय प्रशस्त, दिखावन सूर सदैव न अस्त। बतावन कौ सिग तत्त्व-समाज, बड़े प्रभू पद्म गरीबनवाज।।4।। पदार्थ त्रिकाल जनावन दक्ष, मनावन को शुभ आनि प्रतक्षा भजावन संशय संकट गाज, बड़े प्रभू पद्म गरीबनवाज।।5।। छः काय कही तिनने तुम रक्ष, बनाय दही दुखदा पन अक्ष। नशावन को तृष्णा अति खाज, बड़े प्रभू पद्म गरीबनवाज।।6।। किये कृत पाप दूर कर अस्त, स्वरूप-म्हार भये तुम मस्त। सिंहासन पै अन्तरिक्ष विराज, बड़े प्रभू पद्म गरीबनवाज।।7।। सुशील कृपाण लिये निज हस्त, कियो पण सायक लस्त पलस्त लही विजगीषु कहो सुकहाज, बड़े प्रभू पद्म गरीबनवाज।।8।।
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प्रभु तुम हो अवलम्बन हस्त, निकास किसी भगवान उरस्त। भवाब्धि परे जिनको महाराज, बड़े प्रभू पद्म गरीबनवाज॥9॥ मानीनकि लखि के मनथम्भ, बनी न रहे कित कोउक दम्भ। प्रताप तिहार कहो सिरताज, बड़े प्रभू पद्म गरीबनवाज।।10। न होंठ न तालु लगें कहुँ रंच, धुनि निकले नहिं अक्षर संच। गणी परखें हरखें दुख त्याज, बड़े प्रभू पद्म गरीबनवाज।।11। तजी लक्ष्मी की सबै तुम आस, सुआय रही इकठी पद पास। पुनीतपने की सुपाय गनाज, बड़े प्रभू पद्म गरीबनवाज।।12। सुकीरत फैल रही चहुँ ओर, लजावहि चन्दहि कुन्दहि जोर। डराय मने मिथ्यातम भाज, बड़े प्रभू पद्म गरीबनवाज।।13।। पलोटत पाय सदा शिव-तीय, कथा कथनी दिविभामि तनीय। करो बश में मन चंचलबाज, बड़े प्रभू पद्म गरीबनवाज।।14।। न होय मुझे जबलग शिव-सिद्धि, लहों तबलों पद-भक्ति-समृद्धि। यही सुनि मो तनि लेहु अवाज, बड़े प्रभू पद्म गरीबनवाज।।15।।
घत्ता यह मुक्ति निशानी, सब जगजानी, आनददा, जयमाल पढ़े। सो होय अजाची, मनरंग सांची, फेर न जाचकपन पकड़े।। ओं ह्री श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय सर्वसुख प्राप्तये पूर्णार्घ्यम्।
पदमनाथ वर वीर, तुअ पायन परताप तें। जगप्राणिन की पीर, रहे न ओ भवभव तनी।।
ओं ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः (इस मंत्र की जाप्य देना)
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री सुपार्श्वनाथ जिन-पूजा ( रचयिता कविवर मनरंगलाल )
स्थापना- गीता छन्द
है पुर बनारस नृप प्रतिष्ठित, मात पृथवि सुहावनी।
धनु द्विशत उन्नतका शुभ चिन्ह थियो त दोहा- सो सुपार्श्व शिवतियतने, चुम्बत अधर विशाल।
चय मध्य ग्रेवेकतें सुपारस, देह हरित प्रभावनी।। आयुष, पूर्व लख वीसी भनी । लसत, वंश सबनि शिरोमनी ।।
सतत हरत दुख दीन के, आवो यहां कृपाल।
ओं ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (इति आह्वाननम्)
ओं ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठौ तिष्ठौ ठः ठः। (स्थापनम्) ओं ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट् (सन्निधिकरणम्)
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अथाष्टक - इन्द्रवज्रा
पानी अमीमान लियाय मिष्टं, शुद्धं भरों कंचन पात्र शिष्टं ।
दोनों सुपार्श्व प्रभु पाद केरी, पूजा करों होय आनन्द ढेरी।
ओं ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा ।
बू ना कहीं सो सुरभी मँगाई, चन्दा लजे जानि जाकी सिराई।।
दोनों सुपार्श्व प्रभु पाद केरी, पूजा करों होय आनन्द ढेरी। ओं ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा ।
ल्याऊँ महा अक्षत पाय साता, खंडं बिना खंड भलेऽवदाता ।
दोनों सुपार्श्व प्रभु पाद केरी, पूजा करों होय आनन्द ढेरी।
ओं ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
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लेके खरे फूल सुगन्धकारी, मीठी अली लेय पराग भारी।।
दोनों सुपार्श्व प्रभु पाद केरी, पूजा करों होय आनन्द ढेरी। ओं ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय कामवाणविनाशनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा ।
पूवा पुरी खजजल ल्याय फेणी, लाडू महा तुच्छ बतास फैणी।।
दोनों सुपार्श्व प्रभु पाद केरी, पूजा करों होय आनन्द ढेरी। ओं ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम्।
दीयो सुकलधौत जराय बाती, लायो प्रभू पास अंधेर घाती।।
दोनों सुपार्श्व प्रभु पाद केरी, पूजा करों होय आनन्द ढेरी। ओं ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा ।
धुआँ उठे तापर भोर छावा, गुंजै करे धूप इह भांति ल्यावा।।
दोनों सुपार्श्व प्रभु पाद केरी, पूजा करों होय आनन्द ढेरी। ओं ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा ।
पिस्ता सुबादाम नवीन हेरे, थारा भराऊँ कलधौत केरे।।
दोनों सुपार्श्व प्रभु पाद केरी, पूजा करों होय आनन्द ढेरी। ओं ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा ।
पा च अ फू न, दी धू फ गनाऊँ, आठो मिला अध्य महा बनाऊँ।
दोनों सुपार्श्व प्रभु पाद केरी, पूजा करों होय आनन्द ढेरी। ओं ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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पंचकल्याणक - छन्द दोधक मादवशुक्ल छठीतिथि जानी, गरभ धरे पृथिवी महारानी। तासम आनंदकार न दूजा, अध्य बनाय करों पदपूजा।।
ओं ह्रीं भाद्रपदशुक्लषष्ठयां गर्भकल्याणक प्राप्ताय श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जेठ सुदी जो द्वादशि जानी, जन्म लियो भुवि पै सुखदानी। मैं युगपाद-सरोज निहारी, पूजत हों धरि अध्य सिधारी।।
ओं ह्रीं ज्येष्ठशुक्लद्वादश्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्री सुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
द्वादशि जेठ तनी उजियानी, तादिन होत दिगम्बर भारी। पादसरोज जजों जिनजी के, जाकरि कर्मशत्रु अति फीके।।
ओं ह्रीं ज्येष्ठशुक्लद्वादश्यां दीक्षाकल्याणकमण्डिताय श्री सुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
फाल्गुन की छठिजान अंधेरी, केवलपट्ट लहो गुण ढेरी। पूजत इन्द्र सभाकर माँही पूजत मैं कर अध्य कराहीं।।
ओं ह्रीं फाल्गुनकृष्णषष्ठयां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्री सुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
सप्तमि फाल्गुन कृष्ण विचारी, जाय समेद महाहितकारी। लीन शिवालय थान विशाला, अध्य बनाय जजो तिरकाला।।
ओं ह्रीं फाल्गुनकृष्णसप्तम्यां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्री सुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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जयमाल - मनहरण भूप सुप्रतिष्ठित के वंश सर मांहि जात, देखे चित्त ना आघात आनन्द बढ़े रहें। आवे मकरन्द बड़ी दशो दिशा फैल रही, आय भवि भौंरा, नित्य ऊपर मढ़े रहें। तीन लोक इन्दिरा सुवास पाय हरषात, कर्णिका सुनख जोति तासों उमड़े रहे।। तेरे युग चरण सरोज देखि देखिके, कमल विचारे एक पायन खड़े रहें।
चौपाई जय आनन्दघन सुकृत निवासा। पुजवत सब जग जन की आसा।
जय सुपार्श्व देवन के देवा। हुतभुकलपन करत पद सेवा। जो पदनख पर धुति उमड़ाहीं। तापर कोटि काम लजि जाहीं।।
जय सुपार्श्व देवन के देवा। हुतभुकलपन करत पद सेवा। जय दारिद चूरन भगवाना। पूरन छवि-सागर गुण नाना।। जय सुपार्श्व देवन के देवा। हुतभुकलपन करत पद सेवा। भरम-हरण जय सरम निकेता। कायोत्सर्ग धारि शिव लेता।।
जय सुपार्श्व देवन के देवा। हुतभुकलपन करत पद सेवा। जय पण ऊन शतक गण ईशा। सुन सुन गिरा नवावत शीशा।।
जय सुपार्श्व देवन के देवा। हुतभुकलपन करत पद सेवा। जय बिन भूषण भूषित देहा। बिना वसन आनन्द के गेहा।।
जय सुपार्श्व देवन के देवा। हुतभुकलपन करत पद सेवा। तुम प्रताप विष अम्मृत सरिसा। रंक होय निहचै करि हरिसा।।
जय सुपार्श्व देवन के देवा। हुतभुकलपन करत पद सेवा। जल थल हो विषम सम नीके। पन्नग होय हार छवि हीके।।
जय सपार्श्व देवन के देवा। हतभकलपन करत पद सेवा। प्रभु प्रताप पावक सियराई। दुअन महा पीतम हो जाई।। जय सुपार्श्व देवन के देवा। हुतभुकलपन करत पद सेवा। वन शुभनगर अचल गृहरूपा। मृगपति मृगसो होय अनूपा।।
जय सुपार्श्व देवन के देवा। हुतभुकलपन करत पद सेवा। तुम प्रताप हो आल पताला। तुम प्रताप हो आल श्रृंगाला।।
जय सुपार्श्व देवन के देवा। हुतभुकलपन करत पद सेवा। शस्त्र होय अम्बुज दल माना। वज्रपात सिर छत्र समाना।।
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जय सुपार्श्व देवन के देवा। हुतभुकलपन करत पद सेवा। सहस जीभ कर जो प्रभुताई। कथन करे तो पार न पाई।। जय सुपार्श्व देवन के देवा। हुतभुकलपन करत पद सेवा। मैं नर हीनबुद्धि कहँ पाऊँ। जो प्रभु तो महान गुण गाऊँ।।
जय सुपार्श्व देवन के देवा। हुतभुकलपन करत पद सेवा। भक्ति-सहाय करो जयमाला। दुखी जाने प्रभु करहु निकाला।। जय सुपार्श्व देवन के देवा। हुतभुकलपन करत पद-सेवा।।
घत्ता
इह दारिदहरिणी, संकटअरनी, जयमाला, सुखकी करनी। जो पढ़े निरन्तर, मनवचतन करि, सो पावे अष्टमधरनी।। ओं ह्री श्री सुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय सर्वसुख प्राप्तये पूर्णार्म्यम्।
शार्दूल विक्रीडित जो यह शुद्ध सुपार्श्वनाथ प्रभु की, पूजा करे कारिता। अनुमोदे मन वचन काय सतत, संसार सो हारिता।। पावै ईशपनो महा विभुपनो, लोके अलोके लखे। पूजें देवपती त्रिकाल चरणा, आनन्द पावे अखे।।
ओं ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय नमः।
(इस मंत्र की जाप्य देना)
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।
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श्री चन्द्रप्रभ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल)
स्थापना- गीता छन्द शुभ चन्द्रपुर नृप महासेन, सुलक्षणा माता जने। सो चन्द्रप्रभु वपु चन्द्रसमपद, चन्द्र अंक सुहावने।। तजि वैजयन्त विमान वंश, इक्ष्वाकु नभके भानु भे। आऊष दशलख वर्ष उन्नत, डेढ़ सै धनुमान भे।।
सोरठा कुकुदचन्द्र भगवान, भविकफुल्ल प्रफुलित करन।
अमिय करावत पान, अत्र आय तिष्ठो प्रभो।। ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (इति आह्वाननम्) ___ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठौ तिष्ठौ ठः ठः। (स्थापनम्) ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट् (सन्निधिकरणम्)।
अष्टक - जोगीरासा छन्द रतननजडित कनकमय भाजन, तामधि गंगा पानी। फटिकसमान मिलाय अगरजा, गंध बहे मनमानी।।
चन्द्रप्रभ के पदनख ऊपर, कोटि चन्द्रदुति लाजे।
दरवित भावित भाव शुद्धकरि, जजों सप्तभय भाजे।। ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरघसि चन्दन नीको, भलौ सिताभ्र मिलाऊँ। अग्निशिखा मिश्रितकरि आछो, कनककटोरा ल्याऊँ ।
चन्द्रप्रभ के पदनख ऊपर, कोटि चन्द्रदुति लाजे।
दरवित भावित भाव शुद्धकरि, जजों सप्तभय भाज।। ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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तन्दुल धवल प्रछाल मनोहर, मिष्ट अमी समतूला। चुने खंडवर्जित अतिदीरघ, लखे मिटत क्षुधशूला।।
चन्द्रप्रभ के पदनख ऊपर, कोटि चन्द्रदुति लाजे। ___ दरवित भावित भाव शुद्धकरि, जजों सप्तभय भाजे।। ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
वर मचकुन्द कुन्द कुन्दन के, पुष्प सम्हारि बनाये। नशत कामकी विथा चढ़ावत, पावत संख मन भाये।।
चन्द्रप्रभ के पदनख ऊपर, कोटि चन्द्रदुति लाजे।
दरवित भावित भाव शुद्धकरि, जजों सप्तभय भाजे।। ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय कामवाणविनाशनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा ।
सूपकार कृत षट्-रसपूरित, व्यंजन नाना भांती। पुष्टि करत हर लेत क्षीनता, क्षुधारोग को घाती।। चन्द्रप्रभ के पदनख ऊपर, कोटि चन्द्रति लाजे।
दरवित भावित भाव शुद्धकरि, जजों सप्तभय भाजे।। ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
निश्चल ज्योति महादीपक की प्रभु चरनन के तीरा। ल्याय धरो हित पाय आपनो, हतै न ताहि समीरा।।
चन्द्रप्रभ के पदनख ऊपर, कोटि चन्द्रति लाजे।
दरवित भावित भाव शुद्धकरि, जजों सप्तभय भाज।। ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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कंचन जड़ि त धूप को आयन, जामधि धूप जराऊँ। उठम धूम्रमिस करम जरों वसु, फेरि न जगमें जाऊँ।।
चन्द्रप्रभ के पदनख ऊपर, कोटि चन्द्रदुति लाजे । दरवित भावित भाव शुद्धकरि, जजों सप्तभय भाजे॥ ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा ।
वृन्दारक कुसुमाकर द्राक्षा, क्रमुक रसाल घनेरे। इन्हें आदि फल नानाविधि के, कंचन धार भरेरे।। चन्द्रप्रभ के पदनख ऊपर, कोटि चन्द्रदुति लाजे । दरवित भावित भाव शुद्धकरि, जजों सप्तभय भाजे।।
ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा ।
ले जलगंध अक्षत वर कुसुमा, चरु दीपक मणि केरा। धूप महाफल अरघ बनाऊँ, पदपूजन की बेरा ।
चन्द्रप्रभ के पदनख ऊपर, कोटि चन्द्रदुति लाजे । दरवित भावित भाव शुद्धकरि, जजों सप्तभय भाजे।
ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अनघ्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
शिखरणी छन्द
कही पांचें आछी, असित पखकी चैत्र महिना। महाप्यारी रानी, भल सुलक्षना नाम कहिना ।। वसे रात्रि स्वामी, सुभग दिन जाके उदरमा । जजों के अध्य, मिलत जिहि सो धाम परमा ।। ओं ह्रीं चैत्रकृष्णपंचम्यां गर्भकल्याणकण्डिताय श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अघ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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जनो माता भू पै, शुभ इकदशी पौषवदि की। बजे घंटा आदी, भे सब अपुनसों छोभ आधि की ।। वहाँ पूजा किन्हीं, अमरपति ने जन्मदिन की । यहाँ मैं ले अर्घ्यं, यजन करता चन्द्र जिनकी ।। ओं ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
कपाली संख्या की, तिथि वदी कहि पौष पल में। धरी दीक्षा स्वामी, विभव तजि आरण्यथल में।।
डरे शत्रू सारे, कलमष कहे आदि जितने । लिये अर्घ्यं भारी, चरण युग पूजों तुअ तने|| ओं ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां तपः कल्याणकप्राप्ताय श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
भये ज्ञानी स्वामी, असित सातय फाल्गुन वदी । निवारे चौधाती, जगतजनतारे सुजलदी ।। करे पूजा थारी, सुरनर कहे आदि सबते। इहाँ मैं ले अर्ध्यम् पुजहूँ मनलगी आस कबते। ओं ह्रीं फाल्गुनकृष्णसप्ताम्यां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
सुदी सातें, जानो, सुभग महिना फाल्गुन कहा। भये स्वामी तादिन, सो शिखरतें सिद्धप महा बजे बाजे भारी, सुर नरन कृत आनन्द वरतें । करों पूजा थारी, शुभ अरध ले आज करतें । ओं ह्रीं फाल्गुनशुक्ल सप्ताम्यां निर्वाणकल्याणकप्राप्ताय श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अघ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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जयमाल - झूलना महासेन कुलचन्द गुणकला के वृन्द, नहिं निकट आवे कदा मोहि-मंथी। देखि तुम कांति अति शांतिता की सुगति, लाजि निजमन स्वपद रहत मंथी। बड़ी छवि छटाधर असित तो तिमिर, हर अहर्निश मन्दता लेश नाहीं। कहत मनरंग नित करे मन रंग, जो धरे मन प्रभू के चरण मांहीं।
भुजंगप्रयात नमस्ते नमस्ते, नमस्ते जिनन्दा, निवारे भलीभांति, के कर्मफन्दा। सुचन्द्रप्रभू नाथ, तोसो न दूजा। करों जानि के पाद, की जासु पूजा।
लखे दर्श तेरो महादर्श पावे। जो पूजे तुम्हें आप, ही सो पुजावे। सुचन्द्रप्रभू नाथ, तोसो न दूजा। करों जानि के पाद, की जासु पूजा। जो ध्यावे तुम्हें आप, ने चित्त माहीं। तिसे लोक ध्यावें, कछू फेर नाहीं। सुचन्द्रप्रभू नाथ, तोसो न दूजा। करों जानि के पाद, की जासु पूजा। गहे पन्थ तो सो, सुपन्थी कहावे। महापन्थ सो शुद्ध, आपै चलावे। चन्द्रप्रभू नाथ, तोसो न दूजा। करों जानि के पाद, की जासु पूजा। जो गावे तुम्हें ताहि, गावें मुनीशा। जो पावे तुम्हें ताहि, पावें गणीशा। सुचन्द्रप्रभू नाथ, तोसो न दूजा। करों जानि के पाद, की जासु पूजा। प्रभूपाद मांही भयो, जो ऽनुरागी। महापट्ट ताको, मिले वीतरागी। सुचन्द्रप्रभू नाथ, तोसो न दूजा। करों जानि के पाद, की जासु पूजा। प्रभू जो तुम्हें नृत्य, कर कर रिझावें। रिझावें तिसे शक्र, गोदी खिलावे। सुचन्द्रप्रभू नाथ, तोसो न दूजा। करों जानि के पाद, की जासु पूजा।
धरे पादकी रेणु, माथे तिहारी। न लागे तिसे मोह, दृष्टि जु भारी। सुचन्द्रप्रभू नाथ, तोसो न दूजा। करों जानि के पाद, की जासु पूजा। लहे पक्ष तो जो, वो है पक्षधारी। कहावे सदा सिद्धि, को सो विहारी। सुचन्द्रप्रभू नाथ, तोसो न दूजा। करों जानि के पाद, की जासु पूजा। नमावे तुम्हें सीस, जो भाव सेरी। नमें तासु को लोक, के जीव हेरी। सुचन्द्रप्रभू नाथ, तोसो न दूजा। करों जानि के पाद, की जासु पूजा।
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तिहारो लखे रूप, ज्यों दौस देवा । लगे भोर के चाँद से जे कुदेवा । सुचन्द्रप्रभू नाथ, तोसो न दूजा । करों जानि के पाद, की जासु पूजा। भलीभाँती जानी, तिहारी सुरीती । भई मेरे जी में, बड़ी सो प्रतीती। सुचन्द्रप्रभू नाथ, तोसो न दूजा । करों जानि के पाद, की जासु पूजा। भयो सौख्य जो मो, कहो नाहिं जाई । जनों आज ही सिद्धि, की ऋद्धि पाई। सुचन्द्रप्रभू नाथ, तोसो न दूजा । करों जानि के पाद, की जासु पूजा। करों वीनती मैं, दुहू हाथ जोरी। बड़ाई करो सो, सबै नाथ थोरी। सुचन्द्रप्रभू नाथ, तोसो न दूजा । करों जानि के पाद, की जासु पूजा। थके जो गणी चारि हूँ ज्ञान धारें। कहा और को पार, पावें विचारे। सुचन्द्रप्रभू नाथ, तोसो न दूजा । करों जानि के पाद, की जासु पूजा।
घत्ता
चन्द्रप्रभनामा, गुणकी दामा पढेभिरामा, धरि मनही । अन्तक परछाहीं, परिहैनाहीं, तापर कबहूँ, झूठ नहीं। ओं ह्री श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय सर्वसुख प्राप्तये पूर्णार्घ्यम् । दोहा
पन्थी प्रभु मन्थी मथन कथन तुम्हार अपार । करो दया सब पै प्रभो, जामें पावें पार |
ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय नमः । (इस मंत्र की जाप्य देना)
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री पुष्पदन्त जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल)
काकन्द नगरी पितु सुग्रीवक, रमा माता जासु की। इक्ष्वाकु वंश सुफेद देह, उचाव धनुशत तासु की।। स्वर्ण आरण तजि द्विपूरब, लाख सुआयु धरौ भली। पग तरे चिह्न सुमगर सोहत, पुष्पदन्त महाबली।।1।।
आवो यहाँ कृपाल, कृपा करो तनि अब आयके, मैं करूँ पूजन अष्टविध मन, वचन सीश नवायके।
जो सरें मेरे काज अटके, करम ठक घेरे खड़े,
तो बिना निवरण होत नाही, महाभ्रम झगड़े पड़े।।2।। ओं ह्रीं श्री पुष्पदन्तजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (इति आह्वाननम्)
ओं ह्रीं श्री पुष्पदन्तजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठौ तिष्ठौ ठः ठः। (स्थापनम्) ओं ह्रीं श्री पुष्पदन्तजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट (सन्निधिकरणम्)
अष्टक - उपेन्द्रवज्र निर्मल जहां श्रीद्रह को सुनीर। लेकर भरे कुम्भ महा गहीर।।
सु पुष्प-दन्त प्रभु पाद-पद्म। पूजू मिले जो निर्वाण-सा।। ओं ह्रीं श्री पुष्पदन्तजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा
तन मन घसों, चन्दन काशमीरा। लगे न जो अन्तक, की समीरा।।
सु पुष्प-दन्त प्रभु पाद-पा। पूजू लिये जो निर्वाण-सद्य।। ओं ह्रीं श्री पुष्पदन्तजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा ।
सुतन्दुलं लज्जित, मार गोती। लिये महा तेज, अभेद मोती।।
सु पुष्प-दन्त प्रभु पाद-पा। पूजूं लिये जो निर्वाण-सद्य।। ओं ह्रीं श्री पुष्पदन्तजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
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भले भले फूल, चुनाय लीन्हे। स्व अंजली में, इकठे सु कीन्हे।।
सु पुष्प-दन्त प्रभु पाद-पा। पूजूं लिये जो निर्वाण-सद्य।। ओं ह्रीं श्री पुष्पदन्तजिनेन्द्राय कामवाणविनाशनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा ।
सच्छिद्र फेणी, खुरमा सु ताजे। भरे महा थार, अनन्द खाजे।।
सु पुष्प-दन्त प्रभु पाद-पद्म। पूजू लिये जो निर्वाण-सद्य।। ओं ह्रीं श्री पुष्पदन्तजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
दीया जरे ज्योति, महाप्रकाशी। फटे महा जो, तम की उरासी।
सु पुष्प-दन्त प्रभु पाद-पा। पूजू लिये जो निर्वाण-सद्य।। ओं ह्रीं श्री पुष्पदन्तजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा ।
कही महा धूप, सुगन्ध कारी। दसों दिशा जासु, सुगन्ध जारी।।
सु पुष्प-दन्त प्रभु पाद-पद्म। पूजू लिये जो निर्वाण-सद्य।। ओं ह्रीं श्री पुष्पदन्तजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा ।
दंशागुली दाख, बदाम गोला। भरे महा थार, महा अमोला।।
सु पुष्प-दन्त प्रभु पाद-पा। पूजू लिये जो निर्वाण-सा।। ओं ह्रीं श्री पुष्पदन्तजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा ।
अडिल्ल छन्द हर्षि हर्षि जिस भूरि, सुतूर बजाय के। आठों अंग नवाय, बड़ा हित पाय के।। महा सुअरघ बनाय, भले गुण उच्चरों। तेरे शुभयुग-पदन, सरोजन पै धरों।। ओं ह्रीं श्री पुष्पदन्तजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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पंचकल्याणक - सोरठा नौमी वदी महान, फाल्गुन की शुभ जा दिना। गरभ रहे भगवान, जजों अध्य सों चरन-युग।। ओं ह्रीं फाल्गुनकृष्णनवम्यां गर्भकल्याणकप्राप्ताय श्री पुष्पदन्तजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
जनमे प्रभु गुण-खान, मगसिर सुदि एकम दिना। नमों जोरि युग पान, जजों अरघ सों चरणयुग।। ओं ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लप्रतिपदायां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्री पुष्पदन्तजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
सुदि एकम अगहान, तप लीन्हों घरवार तजि। धरत महाशुभ ध्यान, जजों अध्य सों चरन-युग।। ओं ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लप्रतिपदायां तपकल्याणकप्राप्ताय श्री पुष्पदन्तजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
उपजो केवल-ज्ञान कार्तिक सुदि द्वितिया दिना। भये सुयोगि भगवान, जजों अरघ सों चरणयुग।। ओं ह्रीं कार्तिकशुक्लदितीयायां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्री पुष्पदन्तजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
सुदि अष्टमि परवान, भादों मास समेद तें। शिवपद लियो महान, जजो अरघ सों चरणयुग।। ओं ही भाद्रपदशुक्लाष्टम्यां मोक्षकल्याणकमंडिताय श्री पुष्पदन्तजिनेन्द्राय अयम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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जयमाला - काव्य छन्द जय कुल-कमल-निदेश, चन्द्र भ्वि कुकुद प्रकाशी। जय अघरन प्रताप, करन सख सिद्धि निवासी।।
जय नवीन वर ज्ञान, मित्र के शुभ उदयाचल। जय अडिग्ग धरिध्यान, सुवनरद लहत परमफल।।
पद्धरि छन्द जय जन्म मरण रुज के हकीम। परमेश्वर परतापी सुसीम।। जग जीव उधारण को महन्त। जय नमो नमो प्रभु पुष्पदन्त।। जय खलक जपत तेरो स्वरूप। सो अलख महा आनन्दकूप।। जग जीव उधारण को महन्त। जय नमो नमो प्रभु पुष्पदन्त।। हो लोभ महारिपु को कुखेम। सब जीवन पै राखत सुक्षेम।। जग जीव उधारण को महन्त। जय नमो नमो प्रभु पुष्पदन्त।। जय आदि अन्त वर्जित सदैव। आनादि निधन हो महादेव।। जग जीव उधारण को महन्त। जय नमो नमो प्रभु पुष्पदन्त।। संशय-वन-दाहन को कृशानु। जय मिथ्यातम-नाशन सुभानु।। जग जीव उधारण को महन्त। जय नमो नमो प्रभु पुष्पदन्त।। जयलोक अलोकहि लखत येम। धात्रीफल लीन्हें हरत जेम।। जग जीव उधारण को महन्त। जय नमो नमो प्रभु पुष्पदन्त।।
जय ज्ञान-महा-लोचन अपार। सब दरशी भे सर्वज्ञ सार।। जग जीव उधारण को महन्त। जय नमो नमो प्रभु पुष्पदन्त।। गुण पर्यय द्रव्य कहे त्रिकाल। प्रभु वर्तमान सम लखत हाल।। जग जीव उधारण को महन्त। जय नमो नमो प्रभु पुष्पदन्त।।
जय परम-हंस सम्यक्तव सार। परमावगाढ़ के धरनहार।।
जग जीव उधारण को महन्त। जय नमो नमो प्रभु पुष्पदन्त।। निज-परणति में भे परम लीन। प्रभु पर-परणति लखि त्याग कीन्ह।।
जग जीव उधारण को महन्त। जय नमो नमो प्रभ पृष्पदन्त।। जय दुराराध्य दुख करन शान्ति। तन फटिकसमान महान कान्ति।।
जग जीव उधारण को महन्त। जय नमो नमो प्रभु पुष्पदन्त।। जय दीनबन्धु तुम गुण अपार। सुरगुरु कथि पावत नाहिं पार।।
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जग जीव उधारण को महन्त । जय नमो नमो प्रभु पुष्पदन्त।। याते प्रभु अब करुणा करहु जन जाति आपनो सुक्ख देहु ||
छन्द काव्य
पुष्पदन्त भगवन्त तनी यह जयमाला । पढ़े पढावे कण्ठ करे सो सब में आला || होय महा गुणवृन्द त्रास सुपने नहिं पावे।
लेय सिद्धिपद अचल फेरि नहिं लोक मँझावे ||
ओं ह्री श्री पुष्पदन्तजिनेन्द्राय सर्वसुख प्राप्तये पूर्णार्घ्यम्।
सोरठा
पुष्पदन्त भगवान्, तुम चरणन परतापतें। बरतो सकल जहान, पुत्र पौत्र परताप सुख।।
ओं ह्रीं श्री पुष्पदन्तजिनेन्द्राय नमः। (इस मंत्र की जाय देना)
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री शीतलनाथजिन-पूजा ( रचयिता - श्री मनरंगलाल )
है नगर भद्दिल भूप द्रढरथ सुष्टु नंदा ता तिया ।
तजि अचुत-दिवि अभिराम शीतलनाथ सुत ताके प्रिया।। इक्ष्वाकुवंशी अंक श्रीतरु हेम-वरण शरीर हैं।
धनु नवे उन्नत पूर्व लख-इक आयु सुभग परी रहे।। सोरठा
सो शीतल सुख-कंद तजि परिग्रह शिव-लोक गे। छूट गयो जग-धंध करियत तौ आह्वान अब।।
ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्) ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम् ) ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
नित तृषा- पीड़ा करत अधिकी दाब अबके पाइयो । शुभ-कुंभ- कंचन-जडित गंगा-नीर भरि ले आइयो ।। तुम नाथ शीतल करो शीतल मोहि भवकी तापसों। मैं जजौं युग-पद जोरि करि मो काज सरसी आपसों।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 1 ।
जाकी महकसों नीम आदिक होत चन्दन जानिये । सो सूक्ष्म घसि के मिला केसर भरि कटोरा आनिये।। तुम नाथ शीतल करो शीतल मोहि भवकी तापसे । मैं जजौं युग-पद जोरि करि मो काज सरसी आपसे ॥
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 2 ।
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मैं जीव संसारी भयो अरु मर्यो ताको पारना। प्रभु पास अक्षत ल्याय धारे अखय-पद के कारना।। तुम नाथ शीतल करो शीतल मोहि भवकी तापसे।
मैं जजौं युग-पद जोरि करि मो काज सरसी आपसे।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।31
इन मदन मोरी सकत थोरी रह्यो सब जग छाय के। ता नाश-कारन सुमन ल्यायो महाशुद्ध चुनाय के।। तुम नाथ शीतल करो शीतल मोहि भवकी तापसे।
मैं जजौं युग-पद जोरि करि मो काज सरसी आपसे।। ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
क्षुध-रोग मेरे पिंड लोगों देत माँगे ना धरी। ताके नसावन-काज स्वामी ले चरू आगे धरी।। तुम नाथ शीतल करो शीतल मोहि भवकी तापसो।
मैं जजौं युग-पद जोरि करि मो काज सरसी आपसो।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
अज्ञान तिमिर महान अन्धकार करि राखो सबै। निज-पर सुभेद पिछान कारण दीप ल्यायो हूँ अबै।। तुम नाथ शीतल करो शीतल मोहि भवकी तापसे।
मैं जजौं युग-पद जोरि करि मो काज सरसी आपसे।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
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जे अष्ट कर्म महान अतिबल घेर मो चेरा कियो। तिन करें नाश विचारि के ले धूप प्रभु ढिंग क्षेपियो।।
तुम नाथ शीतल करो शीतल मोहि भवकी तापसे।
मैं जजौं युग-पद जोरि करि मो काज सरसी आपसे।। ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
शुभ मोक्ष मिलन अभिलाष मेरे रहत कब की नाथ जू। फल मिष्ट नाना भाँति सुधरे ल्याइयौ निज हाथ जू।। तुम नाथ शीतल करो शीतल मोहि भवकी तापसे।
मैं जजौं युग-पद जोरि करि मो काज सरसी आपसे।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वामीति स्वाहा।8।
जल गंध अक्षत फूल चरु दीपक सुधूप कही महा। फल ल्याय सुन्दर-अरघ कीन्हो दोष सो वर्जित कहा।।
तुम नाथ शीतल करो शीतल मोहि भवकी तापसे।
मैं जजौं युग-पद जोरि करि मो काज सरसी आपसे।। ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक
चैत्र वदी दिन आट गर्भावतार लेत भये स्वामी, सुर-नर-असुरन जानी, जजहूँ शीतल प्रभु नामी। ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-अष्टम्यां गर्भकल्याणक-प्राप्ताताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।।
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माघ वदी द्वादशि को जन्मे भगवान् सकल सुखकारी, मति-श्रुति-अवधि विराजे, पूजों जिन चरण हितकारी। ॐ ह्रीं माघकृष्णा- द्वादश्यां जन्मकल्याणक-प्राप्ताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 21
द्वादश माघ वदी में, परिग्रह तजि वन बसे जाई, पूजत तहाँ सुरासुर, हम यहां पूजत गुण गाई । ॐ ह्रीं माघकृष्णा-द्वादश्यां तपकल्याणक-प्राप्ताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 31
चौदशि पौष वदी मैं, जग-गुरु केवल पाये भये ज्ञानी, सो मूरति मनमानी, मैं पूजो जिन-चरण सुख-खानी । ऊँ ह्रीं पौषकृष्णा - चतुर्दश्यां ज्ञानकल्याणक-प्राप्ताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 4।
आश्विनी सुदि अष्टमिदिन मुक्ति पधारे समेद गिरिसेती, पूजा करन तिहारी, नसत उपाधि जगत की जेती । ॐ ह्रीं आश्विनशुक्ला - अष्टम्यां मोक्षकल्याणक-प्राप्ताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 5।
जयमाला
जय शीतल जिनवर, परमधर, छवि के मंदिर शिव - भरता, जयपुत्र सुनंदा के गुणवृन्दा, सुख के कंदा दुख-हरता। जय नासादृष्टि हो परमेष्ठी, तुम पद नेष्टी अलख भये, जय तपो-चरनमा रहत-चरनमा, सुआचरणमा, कलुष गये । स्रग्विणी छन्द जय सुनंदा के नंदा तिहारी कथा । भाष
पार पावे कहावे यथा।।
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नाथ तेरे कभी होत भव-रोग ना। इष्ट-वियोग ना अनिष्ट-संयोग ना।। अग्नि के कुंड में वल्लभा रामकी। नाम तेरे बची सो सती काम की।। नाथ तेरे कभी होत भव-रोग ना। इष्ठ-वियोग ना अनिष्ट-संयोग ना।। द्रौपदी चीर बाढ़ो तिहारी सही। देव जानी सबों में सुलज्जा रही।। नाथ तेरे कभी होत भव-रोग ना। इष्ट-वियोग ना अनिष्ट-संयोग ना।। कुष्ठ राखो न श्रीपाल को जो महा। अब्धिसे काढ़ लीनो सिताबी तहाँ।। नाथ तेरे कभी होत भव-रोग ना। इष्ट-वियोग ना अनिष्ट-संयोग ना।। अंजना काटि फांसी गिरो जो हतो। औ सहाई तहाँ तो बिना को हतौ।। नाथ तेरे कभी होत भव-रोग ना। इष्ट-वियोग ना अनिष्ट-संयोग ना।।
शैल फूटो गिरौ अंजनी पूत के। चोट जाके लगी ना तिहारै तके। नाथ तेरे कभी होत भव-रोग ना। इष्ट-वियोग ना अनिष्ट-संयोग ना।। कूदियो शीघ्र ही नाम तो गायके। कृष्ण काली नथो कुंड में जाय के।। नाथ तेरे कभी होत भव-रोग ना। इष्ट-वियोग ना अनिष्ट-संयोग ना।।
पाँडवा जे घिरे थे, लखागार में। राह दीन्ही तिन्हें ते महाप्यार में।। नाथ तेरे कभी होत भव-रोग ना। इष्ट-वियोग ना अनिष्ट-संयोग ना।। सेठ को शूलिकापे धरो देख के। कीन्ह सिंहासनो आपनो लेखके।। नाथ तेरे कभी होत भव-रोग ना। इष्ट-वियोग ना अनिष्ट-संयोग ना।।
जो गिनाये इन्हें आदि देके सबै। पाद-परसादते भे सुखारी सबै।। नाथ तेरे कभी होत भव-रोग ना। इष्ट-वियोग ना अनिष्ट-संयोग ना।।
वार मेरी प्रभू देर कीन्हीं कहा। कीजिये दृष्टि दया की मोपे अहा।। नाथ तेरे कभी होत भव-रोग ना। इष्ट-वियोग ना अनिष्ट-संयोग ना।। धन्य तू धन्य तू धन्य तू मैं न हा। जो महा पंचमो ज्ञान नीके लहा।। नाथ तेरे कभी होत भव-रोग ना। इष्ट-वियोग ना अनिष्ट-संयोग ना।।
कोटि तीरथ हैं तेरे पदों के तले। रोज ध्यावें मुनी सो बतावें भले।। नाथ तेरे कभी होत भव-रोग ना। इष्ट-वियोग ना अनिष्ट-संयोग ना।। जानिके यों भली भाँति ध्याऊँ तुझे। भक्ति पाऊँ यही देव दीजे मुझे।। नाथ तेरे कभी होत भव-रोग ना। इष्ट-वियोग ना अनिष्ट-संयोग ना।।
आपद सब दीजे भार-झोकि यह पढ़त-सुनत जयमाल,
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होय पुनीत! कारण अरु जिह्वा वरते आनंद जाल। पहुँचे जहँ कबहूँ पहुँच नहीं, नहिं पाई सो पावे हाल,
नहीं भयो कभी सो होय सवेरे भाषत मनरंगलाल।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय महायँ निर्वपामीति स्वाहा।
सोरठा भो शीतल भगवान, तो पद-पक्षी जगत में, हैं जेते परवान, पक्ष रहे तिन पर बनी।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री श्रेयांसनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल)
स्थापना- गीता छन्द सिंहपुर राजा विमल, जाके तिया विमला भली, तजि पुहुपउत्तर श्रेयांसुत भये, हेम वरण महाबली।
धनु असी उन्नत चिह्न गेंडा, महत बंश इक्ष्वाकु है, शुभ वरष लखचउ असी आयुष, पुण्य कोसु विपाक है।।
तजि राज्यभूति, धरी दीक्षा, तप करो अतिघोर ही, बल शुक्ल श्रेणी क्षपक चढ़ि , लहि ज्ञान पंचमी जो रही। करि करि विहार उतारि अधमनि, भव उदधितें तुम प्रभू,
पुनि आपहू शिवनाथ लिय सो, यहां नित आवो प्रभू।। ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (इति आह्वाननम्)
ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठौ तिष्ठौ ठः ठः। (स्थापनम्) ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट् (सन्निधिकरणम्)
छन्द मालिनी घनरस भरि चोखा, रत्न थारी मंझारी, मलय हरि सुधारी, दीर्घ्य-सौगन्ध-कारी।
लयमन भरि पूजों, पाद श्रेयाँस के रे, नसत असत कर्म, ज्ञान वर्णादि मेरे।। ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा।
समुन सुरभि तामें, मेल्हि के जो कपूरै। अतिनिकट सुजाके, भौंर गुंजार पूरै।।
लयमन भरि पूजों, पाद श्रेयाँस के रे, नसत असत कर्म, ज्ञान वर्णादि मेरे। ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा।
अखत अखत नीके, श्वेत मीठे सुभारी। जल करि परछाले, खंड बजे हकारी।। लयमन भरि पूजों, पाद श्रेयाँस के रे, नसत असत कर्म, ज्ञान वर्णादि मेरे।। ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
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सुमन गुथित माला, पंचधा वर्ण वाला। लखत लगें नीके, घ्राण होवे खुशाला।।
लयमन भरि पूजों, पाद श्रेयाँस के रे, नसत असत कर्म, ज्ञान वर्णादि मेरे।। ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथ जिनेन्द्राय कामवाणविनाशनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा।
सुरभि घृत पचाई, शुद्ध नैवेद्य ताजी। कनक जडित थारा, माँह नीके सुसाजी ।।
लयमन भरि पूजों, पाद श्रेयाँस के रे, नसत असत कर्म, ज्ञान वर्णादि मेरे।। ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
परम बरत बाती, धूम जामें न होई। तिमिर कटत जासों, दीप ऐसी संजोई ।।
लयमन भरि पूजों, पाद श्रेयाँस के रे, नसत असत कर्म, ज्ञान वर्णादि मेरे।। ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा।
जलत ज्वलन मांही, धूप गन्धे छटासों। उड़त मगन भौंरा, पाय धूआं घटासो।। लयमन भरि पूजों, पाद श्रेयाँस के रे, नसत असत कर्म, ज्ञान वर्णादि मेरे।। ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।
मधुर माधुर पाके, आम्र निम्बू नरंगी। रसचलित सो नाहीं, कीजिये जानि अंगी।। लयमन भरि पूजों, पाद श्रेयाँस के रे, नसत असत कर्म, ज्ञान वर्णादि मेरे।। ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा।
अब करियत अध्य, मेल्हि के द्रव्य आठो। मन वचन तन लीन्हें, हाथ उच्चारि पाठों।।
लयमन भरि पूजों, पाद श्रेयाँस के रे, नसत असत कर्म, ज्ञान वर्णादि मेरे।। ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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पंचकल्याणक - छन्द चालो
वदि जेठ तनी छठि जानी, जिन गरभ रहे सुखखानी । जाँ पूजत सुरपति आई, हम पूजत अघ्य बनाई ।। ओं ह्रीं ज्येष्ठ कृष्णषष्ट्यां गर्भकल्याणक प्राप्ताय श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
फाल्गुनवदि ग्यारसि नीकी, जननी विमला जिनजी की। जनिपुत्र भई खुशहाला, पूजों जिनपद सुखजाला। ओं ह्रीं फाल्गुनकृष्णैकादश्यां जन्मकल्याणकमण्डिताय श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
वदि फाल्गुन ग्यारसि भाई, भावन द्वादशि जु कहाई । प्रभु त भवनवासी, तुम पाद जजों गुणरासी ॥ ओं ह्रीं फाल्गुनकृष्णैकादश्यां तप कल्याणकसहिताय श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
ऋद्धी केवल शुभ पाई।
वदि माघ अमावस गाई, प्रभु नाशत कष्ट घनेरे, ले अध्य जजों पद तेरे || ओं ह्रीं माघकृष्णामावस्यायां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
श्रावण की पूरनमासी, सम्मेदशिखर ते पासी । शिवरमणी परणी जाई, तुम चरण जजों शिरनाई || ओं ह्रीं श्रावणशुक्लपौर्णमास्यां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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जयमाला - त्रिभंगी छन्द
जय पद सर तेरे, तीक्षण टेरे, कहत घनेरे, गरभ हरी । जय तिन गति सूधी, धरत न मूंदी, बातन मूंदी, यह सुथरी ।। जय काल निसाने, देखत भाने, चूक न जाने, निज मनसों । जय होत तीरमो, हरतपीरमो, हियतुतीरमो, तनि निवसो । पद्धरि छन्द
जय विमलतनय तुअ पदसरोज । मन वच तन नमियत तिन्हें रोज || अब श्रेय करो श्रेयांस नाथ। मैं तुम्हें पाय हूवो सनाथ। मेरे नहिं एक और आस । चित रहत सतत तो चरण पास || अब श्रेय करो श्रेयांस नाथ। मैं तुम्हें पाय हूवो सनाथ। तुम राज्यमा सब त्याग दीन। आनन्दसहित वनवास की ।। अब श्रेय करो श्रेयांस नाथ। मैं तुम्हें पाय हूवो सनाथ। व्रत महा समिति पण गुपति तीन । इमि तेरह - विधि चरित्र लीन || अब श्रेय करो श्रेयांस नाथ। मैं तुम्हें पाय हूवो सनाथ। तप द्वादश अन्तर बाह्य भेद । युत तपत तपस्या नित अभेद ।। अब श्रेय करो श्रेयांस नाथ। मैं तुम्हें पाय हूवो सनाथ। उत्तम क्षम आदिक कहत धर्म । तिनके तुम धारक हो सुमर्म ।।
अब श्रेय करो श्रेयांस नाथ। मैं तुम्हें पाय हूवो सनाथ। द्वादश भावन भाई महान । अध्रुव आदिक ये भेद जान ।। अब श्रेय करो श्रेयांस नाथ। मैं तुम्हें पाय हूवो सनाथ। धारि तीन रतन उर में विशाल | है आप अजाची करत हाल। अब श्रेय करो श्रेयांस नाथ। मैं तुम्हें पाय हूवो सनाथ। संयम पन इन्द्री दमन रूप। धरि होत भये तिहुँ लोक - भूप।। अब श्रेय करो श्रेयांस नाथ। मैं तुम्हें पाय हूवो सनाथ। पर-कारज-कारी तुम दयाल । तो सम दूजो नहिं लोक-पाल।। अब श्रेय करो श्रेयांस नाथ। मैं तुम्हें पाय हूवो सनाथ । घट घट के अन्तर लीन देव । जन कहत विलक्षण सकल देव ||
अब श्रेय करो श्रेयांस नाथ। मैं तुम्हें पाय हूवो सनाथ। पग धरत होत तीरथ महान । सो परसत पावत अचल थान।।
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अब श्रेय करो श्रेयांस नाथ। मैं तुम्हें पाय हवो सनाथ। जाके मन तेरे चरण दोय। ता गेह कमी कबहूँ न होय।।
अब श्रेय करो श्रेयांस नाथ। मैं तुम्हें पाय हूवो सनाथ। तुम चरण तनो परसाद पाय। बिनश्रम चिन्तामणि मिलत आय।।
अब श्रेय करो श्रेयांसनाथ। मैं तुम्हें पाय हवो सनाथ।। बलिहारी इन चरणों की जाऊँ नहिं फेर धराऊँ कतहुँ नाऊँ।। अब श्रेय करो श्रेयांस नाथ। मैं तुम्हे पाय हवो सनाथ।
घत्ता श्रेयनाथ भगवन्त, तनी यह जयमाला, मनवचनतनहिं लगाय, पढ़े जो सुनहिं त्रिकाला। सिद्धि ऋद्धि भरपूर, रहे ता गृह के मांही, मंगल वृद्धि महान, होय नहिं घटे कदाही। ओं ह्री श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्राय सर्वसुख प्राप्तये पूर्णाऱ्याम्।
सोरठा श्रेयनाथ भगवान, श्रेयकरण को प्रण भले। लियो कहत मतिमान, सो करिये सब जग विषे।।
ओं ह्रीं श्री श्रेयांसनाथजिनेन्द्राय नमः।
(इस मंत्र की जाप्य देना)
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री वासुपूज्य जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल)
स्थापना- गीता छन्द शुभ पुरी चम्पा, नृपति जहं वसु, पूज्य विजया ता तिया। तजि महाशुक्र विमान ता घर, वासुपूज्य भये प्रिया।।
हेमवरन उचाव सत्तरि, चाप वंस इक्ष्वाकु हैं। सत्तरि औ दोलख वर्ष आउष, अंक महिष भला कहैं।।
सोरठा वासुपूज्य जिनदेव, तजि आपद जिनपद लयो।
करत इन्द्र पदसेव, मैं टेरत इह आव अब।। ओं ह्रीं श्री वासुपूज्यजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (इति आह्वाननम्) ____ओं ह्रीं श्री वासुपूज्यजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठौ तिष्ठौ ठः ठः। (स्थापनम्) । ओं ह्रीं श्री वासुपूज्यजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट् (सन्निधिकरणम्)
अथाष्टक - नाराच छन्द भरि सलिल महाशुचि भारी, दे तीन धार सुखकारी।
पदपूजन करहुँ बनाई, जासों गति चार नसाई।। ओं ह्रीं श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा।
घसि पावन चंदन लाऊँ, नानाविध गंध मिलाऊँ।।
पदपूजन करहुँ बनाई, जासों गति चार नसाई।। ओं ह्रीं श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षत ते दीर्घ अखण्डे, अतिमिष्ठ महाद्युति मण्डे।।
पदपूजन करहुँ बनाई, जासों गति चार नसाई।। ओं ह्रीं श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
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वृन्दार कनक के फूला, बहु ल्याय धरों सुखमूला।।
पदपूजन करहुँ बनाई, जासों गति चार नसाई।। ओं ह्रीं श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय कामवाणविनाशनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा।
मधुरा पक्कान घनेरा, ले मोदक लाडू पेरा।।
पदपूजन करहुँ बनाई, जासों गति चार नसाई।। ओं ह्रीं श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
करि रत्नतनो शुभ दीयो, निज हाथन पै घरि लीयो।।
पदपूजन करहुँ बनाई, जासों गति चार नसाई।। ओं ह्रीं श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा।
कृष्णागरु धूप मिलाई, दहिये शुभ ज्वाल मँगाई।।
पदपूजन करहुँ बनाई, जासों गति चार नसाई।। ओं ह्रीं श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।
फल आम नारंगी केला, बादाम छुहार घनेरा।। __पदपूजन करहुँ बनाई, जासों गति चार नसाई।। ओं ह्रीं श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा।
ले आठों द्रव्य सुहाई, जल आदिक जे शुभ लाई।
पदपूजन करहुँ बनाई, जासों गति चार नसाई। ओं ह्रीं श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय अनध्यपदप्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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पंचकल्याणक -छन्द काव्य आषाढ वदी छठि गाई, जिन गर्भ रहे सुखदाई। हम गर्भ दिना लखि सारा, ले अध्य जजें हितकारा।।
ओं ह्रीं अषाढकृष्णषष्ठयां गर्भकल्याणकप्राप्ताय श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
वदि फाल्गुन चौदसि जानी, विजया ने जने सुखखानी। वह सूरति मो मन भाई, जजिये पद अध्य बनाई।। ओं ह्रीं फाल्गुनकृष्णचतुर्दश्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
वदि फाल्गुन चौदसि दीक्षा, लीनी अपनी शुभ इच्छा। तब देवन जय जय किन्हीं, हम पूजन हैं गुण चीन्ही।। ओं ह्रीं फाल्गुनकृष्णचतुर्दश्यां दीक्षामहोत्सवमण्डिताय श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जिन माघ सुदी दुतिया के, अपराह्न समय सुख जाके। उपजो पद केवल बेरा, पद पूजि लहो शिव डेरा।।
ओं ह्रीं माघशुक्लद्वितीयायां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
चम्पापुर तें सुख-दानी, भादों सुदि चौदशि मानी। अविनाशी जाय कहाये, ले अध्य जजों गुण गाये।। ओं ह्रीं भाद्रपदशुक्लचतुर्दश्यां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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जयमाला
जय जय विजयासुत सकल जगत नुत, अष्ट-कर्म-च्युत जित मयना।।
गुण-सिन्धु तिहारे चरण निहारे, सफल हमारे भे नयना।। जो हती कालिमा कुगुरु लखन की, भाजि गई सो इक पलमा।।
पाई मैं साता नाशि असाता, शान्ति परी मो अन्तरमा।।
जय जिनेन्द्र, जय जिनेद्र जिय जिनेन्द्र देव जू। पूलोमजापती करें, पदारविन्द सेव जू।। दीनबन्धु दीन के, सम्हारि काज कीजिये। मो तने निहारि आप, में मिलाय लीजिये।
राग द्वेष नाशि के, भये सुवीतराग जू। मुक्ति-बल्लभा तनो, जगो महान भाग जू।। दीनबन्धु दीन के, सम्हारि काज कीजिये। मो तने निहारि आप, में मिलाय लीजिये।। भूख प्यास जन्म रोग, जरा मृत्युरोग ना। खेद वेद भीति भव, हूँ अचम्भ सोग ना।। दीनबन्धु दीन के, सम्हारि काज कीजिये। मो तने निहारि आप, में मिलाय लीजिये।। नींद मोह जाति लाभ, आदि दे नहीं मदा। वर्जित अरत्ति है गदा, अचन्ति भाव तो सदा। दीनबन्धु दीन के, सम्हारि काज कीजिये। मो तने निहारि आप, में मिलाय लीजिये।।
दोष नाशि के अदोष, देव तू प्रमान है। दोष-लीन देव जो, कुदेव के समान है।। दीनबन्धु दीन के, सम्हारि काज कीजिये। मो तने निहारि आप, में मिलाय लीजिये।। पाय के कुदेव साथ, नाथ मैं महा भमो। लक्ष चार औ अशीति, योनि माँझ ही गमो।। दीनबन्धु दीन के, सम्हारि काज कीजिये। मो तने निहारि आप, में मिलाय लीजिये।।
देख तो पदारविन्द, नाथ शुद्धि मो भई। जानि के कुदेव त्याग, रूप बुद्धि परनई।। दीनबन्धु दीन के, सम्हारि काज कीजिये। मो तने निहारि आप, में मिलाय लीजिये।।
जो पदारविन्द नाथ, शीश पै नहीं वहे। बूड़ते समुद्र यान, छांडि पाहने गहे।। दीनबन्धु दीन के, सम्हारि काज कीजिये। मो तने निहारि आप, में मिलाय लीजिये।। तो बिना न देव जीव, मोक्ष राह पावही। तो विवेक पाय और, को न देख पावही।। मान त्याग भाव तो, चरन्न में लगावहीं। सो अमान पूज्यमान, सिद्धि ठान जावहीं।।
तो प्रसाद नाथ पंगु, ला चढ़े पहार पै। जो चढ़े अचम्भ नाहिं, जीत लेय मार पै।। दीनबन्धु दीन के, सम्हारि काज कीजिये। मो तने निहारि आप, में मिलाय लीजिये।।
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मूक बोले वैन मिष्ट, इष्टता धरे महा। तो प्रभाव सिद्धिनाथ, होय ना कहा कहा।। दीनबन्धु दीन के, सम्हारि काज कीजिये। मो तने निहारि आप, में मिलाय लीजिये।।
रेणुका पदारविन्द, की महा-पुनीत सो। सीस पै धरै सुधार, होत है अभीत सो।। दीनबन्धु दीन के, सम्हारि काज कीजिये। मो तने निहारि आप, में मिलाय लीजिये।। भे भवाब्धि पार जे, निहारि रूप तो तनो। मनरंगलाल को प्रभो, सदा सहाय तू बनो।। दीनबन्धु दीन के, सम्हारि काज कीजिये। तो तने निहारी आप, में मिलाय लीजिये।।
घत्ता
वासुपूज्य जिनराज, प्रभू की शुभ जयमाला। करम तनों ऋण हरण, काज वरनी सुखशाला। पढ़त सुनत बुधि बढ़त, नशत दारिद दुखदाई, जस उमड़त दश दिशा, धरम सों होत मिताई।। ओं ह्री श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय सर्वसुखप्राप्तये पूर्णार्घ्यम्।
वासु-पूज्य महाराज, तुव पदनख अति चन्द्रद्युति। निज निज साधो काज, जासु चन्द्रिका में सकल।
ओं ह्रीं श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय नमः।
(इस मंत्र की जाप्य देना)
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।
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श्री विमलनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल)
स्थापना- गीता छन्द कम्पिला नगरी सुकृत वरमा, पिता श्यामा मात के। सुत विमल वंश इक्ष्वाकु अंक, वराह शुभ जगतान के।।
साठ धनु उन्नत सुकंचन, वर्ण देह विराजही। सहस्रारतें चय साठ लख, वर्षे सुआऊषा लहीं।। प्रभु विमलमतिकर विमलमतिमो, विमलनाथ सुहावने। गुणकन्द छन्द अमन्द आनन, जगतफन्द मिटावने।। अब लगी मो मन की सुआशा, पादपूजन की भली।
तनि करो किरपा धरो पग इह, आय जो पाऊँ रली।। ओं ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (इति आह्वाननम्)
ओं ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठौ तिष्ठौ ठः ठः। (स्थापनम्) ओं ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट् (सन्निधिकरणम्)
अष्टक मैं ल्याय सुभग कबन्ध, मन्द मन्द घिसायके। मिलवाय तृषा निकन्दकारन, झारिका भरवायके।। प्रभु विमल पाप-पहार-तोड़न, वज्रदण्ड सुहावने।
पद जजों सिद्धिसमृद्धिदायक, सिद्धिनायक तो तने।। ओं ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा।
घसवाय चन्दन अगरजा, कर्पूर वासव वल्लभा। धरि रतनजडित सुवर्णभाजन, मांहिं जाकी अतिप्रभा।। प्रभु विमल पाप-पहार-तोड़न, वज्रदण्ड सुहावने।
पद जजों सिद्धिसमृद्धिदायक, सिद्धिनायक तो तने।। ओं ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा।
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अतिदीर्घ तन्दुल धवल छाले, पुंज साजें थार मे। घनचन्द्रलज्जित शरद ऋतुके, कुन्द सकुचे हार में।। प्रभु विमल पाप-पहार-तोड़न, वज्रदण्ड सुहावने।
पद जजों सिद्धिसमृद्धिदायक, सिद्धिनायक तो तने।। ओं ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
बहु अमलकमल अनूप अनुपम, सहसदल विकसे कहे।
सो धारि कर पर देखि शुभतर, भाकर वरते लये।। प्रभु विमल पाप-पहार-तोड़न, वज्रदण्ड सुहावने।
पद जजों सिद्धिसमृद्धिदायक, सिद्धिनायक तो तने।। ओं ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय कामवाणविनाशनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा।
शतछिद्र फेनी धवल चन्द्र, समान कान्ति धरे घनी। वर क्षीरमोदक शालि ओदन, मिले खंडा सोहनी।। प्रभु विमल पाप-पहार-तोड़न, वज्रदण्ड सुहावने।
पद जजों सिद्धिसमृद्धिदायक, सिद्धिनायक तो तने।। ओं ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
मणिदीपदीप्त सुजोति दशदिश, लगे झोक न पौनकी। ना बुझत धरि कंचन रकैबी, कान्ति प्रसरत जौनकी।। प्रभु विमल पाप-पहार-तोड़न, वज्रदण्ड सुहावने।
पद जजों सिद्धिसमृद्धिदायक, सिद्धिनायक तो तने।। ओं ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा।
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ले धूप गन्ध मिलाय बहुविध, धूम की सुघटा लिये। सो खेय धूपायन विर्षे, सब कर्मजाल प्रजालिये।। प्रभु विमल पाप-पहार-तोड़न, वज्रदण्ड सुहावने।
पद जजों सिद्धिसमृद्धिदायक, सिद्धिनायक तो तने।। ओं ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।
ले क्रमुक पिस्ता लांगली, अरु दाख बादामें घनी। शुभआम्र कदलीफल अनूपम, देवकुसुमा सोहनी।। प्रभु विमल पाप-पहार-तोड़न, वज्रदण्ड सुहावने।
पद जजों सिद्धिसमृद्धिदायक, सिद्धिनायक तो तने।। ओं ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ जिवन चंदन अक्षतं, सुमना प्रवर चरु ले दिया।। और धूप फल इकठे सुकरि के, अरघ सुन्दर मैं किया।। प्रभु विमल पाप-पहार-तोड़न, वज्रदण्ड सुहावने।
पद जजों सिद्धिसमृद्धिदायक, सिद्धिनायक तो तने।। ओं ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक - छन्द मालती जेठ वदी दशमी गनिये प्रभु, गर्भावतार लियो दिने छाये, इन्द्र महोत्सव कर सुरसुरी बहु, राखि गयो जननी ढिग पाछे। देवि करें जननी की तहां बहु, सेव अभेव अनँदही आखे, मैं अब अध्य बनाय जजों पद चाह नहीं मन औरहु राखे।
ओं ह्रीं ज्येष्ठकृष्णदशम्यां गर्भकल्याणक प्राप्ताय श्री विमलनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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माघसुदी तिथि चौथी के दिन, सुक्कृतवर्म घरे सुतिया के। __ निर्मलनाथ प्रसूत भये जग, भूषण हैं वर मुक्तिप्रियाके। जों लग केवलकी पदवी नहिं, लेत आहार निहार न जाके, पूजत इन्द्र शची मिलि के सब, मैं पूजते हों पदयुग ताके। __ओं ह्रीं माघशुक्लचतु,यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय
श्री विमलनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
माघ सुदी शुभ चौथ कहावत, छोड़त यावत राज-विभूती, वास कियो वनमें मनमें लख, जानि सबै जग की करतूती।। केश उपारि सुखारि भये शिव, आस लगी सुख की सुप्रसूती, मैं पदकंज सुधारि जजों अब, मोहि खिलाहू सो अमरूती।
ओं ह्रीं माघशुक्लचतुथ्यां तपःकल्याणकप्राप्ताय श्री विमलनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
केवलघातक जो प्रकृति सो, तिरेसठ घात करी तुम नीके, माघ सुदी छठि में उपजो पद, केवल भे प्रभु दीन दनी के। दे उपदेश उतारि भवोदधि, काज सिधारि दिये सबही के, पूजत मैं पद अध्य बनायके, तो लखि देव लगे सब फीके।
ओं ह्रीं माघशुक्लषष्ठयां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्री विमलनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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छांडि सयोग सुथान लियो सुअयोग कहो जिहिकी थित आनी, पंचहि ह्रस्व समय तिहि भूरि, कहे अवसान समय युगभानी। जानि पचासी अघातिय की, प्रकृतीतिनमें सुबहरिमानी, अन्त समय करि तेरह चूरन, सिद्ध भये पद पूजहु जानी।
दोहा शुभ अषाढ़ कृष्णष्टमी, विमल भये मल-दूर। पूरि रहे शिवगण विषे, जजहुँ अरघ ले भूरि। ओं ह्रीं आषाढकृष्णाष्टम्यां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्री विमलनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला - त्रिभंगीछन्द जय सुक्कृत वरमा, के शुभ घर मा, पूरन करमा, भे परमा, जयकरतसुघरमा, रहित अधरमा, रहित जगन्मा, पदतरमा। जौगुणतोतरमा, नहिंगणधरमा, वसतअकरमा शिवसरमा, आवो तजिशरमा जो तुअ घरमा फेरि न भरमा दरदरमा।
भुजंगप्रयास छन्द गुणावास श्यामाभली जासुअम्बा, भये पुत्र जाके दिखाये अचम्भा। रहे जासु के द्वार पै देव देवा, नमों जय हमें दीजिये पाद-सेवा।। लखी चाल मैं नाथ तेरी अनूठी, बिना अस्त्रबांधे करे शत्रु मेठी। लई जय तिहूँ लोक में जीत एवा। नमों जय हमें दीजिये पाद-सेवा।। पड़ी कण्ठ में नाथ के मुक्तिमाला, विराजे सब एकही रूपशाला।
सकाशास ते लगा देन जेवा, नमों जय हमें दीजिये पादसेवा।। लखे रूप तेरौ करे शुद्धताई, न लागे कभी ताहि कर्मादि काई। महाशान्तिता सौख्य ही में धरेवा। नमों जय हमें दीजिये पाद-सेवा।। प्रभूनाम रूपी दिया जीभ द्वारे, धरे वारि सो बाह्याभ्यन्तर निहारे।
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पिछाने भली-भांति सो आत्मभेवा । नमों जय हमें दीजिये पाद सेवा ।। न देखी कभी सो लखे मुक्तिवामा, तहां जाय के वेश पावे अरामा । विराजे तिहूँ लोक में जो मथेवा । नमों जय हमें दीजिये पाद-सेवा।।
नबावे तुम्हें लोक में माथ जेते, करें पादपूजा भलीभांति तेते। तिन्हों की सदा त्रास भव की कटेवा । नमों जय हमें दीजिये पाद-सेवा।। अतः देव तुभ्यं नमस्कार कीजे, बढ़ाई तिहूँ लोक में पाय लीजे। सर्व जन्म की कालिमा को मिटेवा । नमों जय हमें दीजिये पाद - सेवा ।।
महालोभरूपी घटा को हवा जू, बलीमान शुण्डाल कण्ठीरवा तू। न राखी कतौ दोष की जानि ठेवा । नमों जय हमें दीजिये पाद - सेवा ।। तृष्णा महामन को नहा तू, मिटवन्न को व्याधि एकै कहा तू । न दूजा 'कोऊ और तो सो कहेवा । नमों जय हमें दीजिये पाद - सेवा ।। नहीं शर्ण कोऊ बिना तुम हमारो, तिहूँ लोक में देखि ही देखि हारो । पायो प्रभू सो को शुद्ध लेवा | नमों जय हमें दीजिये पाद - सेवा ।। जगत काल को है चबेना बनाई, कछू गोद लीन्हें कछू ले चाई। हे पाद में जानि रक्षा कि टेवा । नमों जय हमें दीजिये पाद - सेवा ।।
भलो वा बुरा जो छु हो तिहारो, जगन्नाथ दे साथ मो पै निहारो।
बिना साथ तेरे न एकौ बनेवा । नमों जय हमें दीजिये पाद - सेवा || चले काम व्यारी झरे झूठ पानी, नवैया हमारी महा- बोझ यानी । करैया तुहीं नाथ मो पार खेवा, नमो जय हमें दीजिये पाद - सेवा ।।
घत्ता
की जयमाल |
मति माफिक हम करी महत यह, विमलनाथ प्रभु पढ़त सुनत मन वचन तन नीके, नशत दोष दुख ताके हाल सुमति बढ़त नित घटत कुमति मम, दुरत रहत दुश्मन जो काल भरम नाशि शुभ शर्म दिखावत, करम न पावत जाकी चाल ।। ओं ह्री श्री विमलनाथजिनेन्द्राय सर्वसुखप्राप्तये पूर्णार्घ्यम् ।
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सोरठा विमनाथ जगदीश, हरहु दुष्टता जगत की। तुम पद तर सुखदीश, सो करिये सब जगत पै।।
ओं ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय नमः।
(इस मंत्र की जाप्य देना)
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री अनन्तनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल)
स्थापना- गीता छन्द अवध नगरी बसत सुन्दर, धराधिप हरिसेन हैं, ता तिया सुरजा सुत सुजाके, नन्त जिन सुखदेन हैं। तजिपुष्प उत्तर धनुष अधशत, वपु उचाई स्वर्ण में,
इक्ष्वाकुवंशी अंक सेहि, आउ तिस लख वर्ण में। सोरठा- जो अनन्त भगवन्त, तजि सब जग शिवतिय लई,
भजत सदा सब सन्त, आय यहां तिष्ठो प्रभो। ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (इति आह्वाननम्)
ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठौ तिष्ठौ ठः ठः। (स्थापनम्) ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट् (सन्निधिकरणम्)
अथाष्टक हिमवन द्रह को नीर, ल्याय मन मोहनो, पय-समान अति-निर्मलदीसत सोहनो। प्रभु अनन्त युगपाद, सरोज निहारी के, जजहुँ अटल पद-तेहु, हर्ष उर धारि के। ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा।
मलयज घसों मिलाय, शुद्ध कर्पूर ही, गन्ध जासु अति प्रसरित, दशदिश पूरही। प्रभु अनन्त युगपाद, सरोज निहारी के, जजहुँ अटल पद-तेहु, हर्ष उर धारि के। ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा।
तन्दुल धवल विशाल, बड़े मन भवने, उठत छटा छवि तिन, अति दीखत पावने। प्रभु अनन्त युगपाद, सरोज निहारी के, जजहुँ अटल पद-तेहु, हर्ष उर धारि के। ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
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सुमन मनोहर चम्प, चमेली देखिये, प्रफुलित कमल गुलाब, मालती के लिये।। प्रभु अनन्त युगपाद, सरोज निहारी के, जजहुँ अटल पद-तेहु, हर्ष उर धारि के। ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय कामवाणविनाशनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा।
हरत क्षुधा अति, करत पुष्टता मिष्टते, व्यञ्जन नाना भांति, थार भर इष्टते।। प्रभु अनन्त युगपाद, सरोज निहारी के, जजहुँ अटल पद-तेहु, हर्ष उर धारि के। ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय क्षधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक ज्योति जगाय, गाय गुणनाथ के, निज पर देखन काज, ल्याय निजहाथ के प्रभु अनन्त युगपाद, सरोज निहारी के, जजहुँ अटल पद-तेहु, हर्ष उर धारि के। ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा।
खेऊँ धूप मँगाय, धूपदह में भली, जासु गन्धकरि होत, सुमतवारे अली। प्रभु अनन्त युगपाद, सरोज निहारी के, जजहुँ अटल पद-तेहु, हर्ष उर धारि के।
ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।
मधुर वर्ण नाना, फल भरि थार में, ल्याय चरण ढिग धरहुँ, बड़े सतकार में। प्रभु अनन्त युगपाद, सरोज निहारी के, जजहुँ अटल पद-तेहु, हर्ष उर धारि के।
ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा।
पय चन्दन वर तंदुल सुमना सूप ले, दीप धूप फल अध्य, महासुख कूप ले। प्रभु अनन्त युगपाद, सरोज निहारी के, जजहुँ अटल पद-तेहु, हर्ष उर धारि के। ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अयम् निर्वपामीति स्वाहा।
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पंचकल्याणक नृप सौध ऊपर हरिष चित अति, गाय गुण अमलान,
षट् मास आगे रतन बरषा, करत देव महान। कार्तिक वदी एकम कहावत, गर्भ आये नाथ, हम चरण पूजत अरघ ले-मन, वचन नाऊं माथ। ओं ह्रीं कार्तिककृष्णप्रतिपदायां गर्भकल्याणकप्राप्ताय श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ जेठ महिना वदी द्वादशि, के दिना जिनराज, जन्मे भयो सुख जगत के चढ़ि , नागसहित समाज। शचिनाथ आय सुभाव पूजा, जनम दिन की कीन, मैं जजत युगपद रघ सों प्रभु, करहु संकट छीन।
ओं ह्रीं ज्येष्ठकृष्णद्वादश्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
वदि जेठ द्वादशि जाय वन में, केश लुंचत धीर, तजि बाह्याभ्यन्तर सकल परिग्रह, ध्यान धरत गंभीर।
मैं दास तुम पद यहां पूजत, शुद्ध अरघ बनाय, तहँ जजत इन्द्रादिक सकल गुण, गाय चित हरषाय।
ओं ह्रीं ज्येष्ठकृष्णद्वादश्यां तपकल्याणकप्राप्ताय श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
अम्मावसी वदि चैत की लहि, ज्ञान केवल सार, करि नाम सार्थक प्रभु अनन्त, चतुष्ट लहत अपार।
करुणा-निधान सुख के, भव उदधि के पोत, मैं जजत तम पद कमल निरमल, बढ़त आनन्द सोत।
ओं ह्रीं चैत्रकृष्णामावस्यायां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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वदि पञ्चदशि कहि चैत की, करुणा-निधान महान,
सम्मेद-पर्वत ते जगत गुरु, होत भये निर्वान। तहँ देव चतुरनिकाय विधिकरि, चरण पूजे सार, ___ मैं वहाँ पूजत अध्य लीन्हे, पद सरोज निहार।
ओं ह्रीं चैत्रकृष्णामावस्यायां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला - त्रिभंगी छन्द जय जिन अनन्त वर गुण महन्त, वर परम शान्ति कर दुख न दरे।
निज कारज कारी जन हितकारी, अधम उधारी शर्म धरें। जय जय परमेश्वर कहत वचनफुर, रहत सदा सुर पग पकरे। प्रभु करहु निवेरा पातक-घेरा, मनरंग चेरा नमत खरे।
पद्धरि छन्द जय जय अनन्त भगवन्त सन्त, जग गावत पद-महिमा महन्त।
ते पावत जावत सिद्धराज, जाके मारग में दिवि-समाज।। प्रभु-मूरत भय-भंजन-विशेष, भविजन सुख पावत देखि देखि। रञ्जन भवि-नीरत-वन दिनेश, निरअञ्जन अञ्जन विनु विशेष।। घट आवत जाके तुम दयाल, सो घट घट की जानत त्रिकाल। भटकत नहिं जो संसार मांहि, नहिं अटकत कोई काज ताहि।। फटकत नहिं जाकी ओर मोह, पटकत सो चैपट मांझ दोह। लटकत निज जाकी कृत पताक, भटकत माया बेली झटाक।। सटकत लखि जाको रूप मान, वच ताके गटकत सिग जहान। छटकत चहुँ गिरदा सुजस जासु, खटकतनहिं दृग मधि छवि सुतासु।।
तुम धन्य धन्य किरपा निधान, जो कर जानि जग निज-समान। इह खूबी का पर कहिय जाय, जय जय जग-जीवन के सहाय।।
जय जय अपार पारा न वार, गुण कहि हार जिह्वा हजार। मथि डारो तुम वैरी मनोज, बलिहारी जैयत रोज-रोज।।
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जय अशरण को तुम शरण एक, सब लायक दायक शुभ-विवेक। जग-नायक मन-भायक सरूप, जय नमो नमो आनन्द-कूप।। जय तु-वारिधि वेला-निशेष, नहिं राखत आरति जानि लेश। दुति ऊपर वारो कोटि भानु, प्रभु नासत मिथ्या तम महानु।।
तुम नाम लेत करुणा-निधान, टूटत गाढ़े बन्धन महान। पवनाशन पग तल चापि लेत, विषम-स्थल जाको नित सुखेत।।
ऐरावत-सम अति क्रोधवान, सनमुख आवत दन्ती महान। वश होय तिहारे नामलेत, जय जय शुभ अतिशय के निकेत।
तुम नाम लक्ष जाते निधान, नहिं अग्नि करे दग्धायमान। पावे ठरा वटमारी न कोय, इह प्रभुता जानत सकल लोय।।
करुण कटाक्ष तनि करो हाल, जासों मैं होऊँ अति निहाल। वसु कर्म विगोऊँ निमिष-मात्र, जाऊँ निजपद तजि सकल-गात्र।। घत्ता- इह अनन्त भगवन्त तनी, सुन्दर जयमाला।
पढ़ि जाने जो कोय होय, गुणगण की गाला॥ सुनत धुनत अतिक्रोध बोध, पावे सुखकारी। जाय पढ़े ते मिलत सिद्धितिय, जो अतिपयारी।। ओं ह्री श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय सर्वसुखप्राप्तये पूर्णार्म्यम्। सोरठा- हे अनन्त जिनराज, कलुष काट करिये जलद।
पूरण पुण्य समाज, जो सुख पावे जगतजन।।
ओं ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय नमः।
(इस मंत्र की जाप्य देना)
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री धर्मनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल)
स्थापना- गीता छन्द पुर रतन राजा भानु जाके, सुव्रता रानी महा। सुत भये ताके धर्मनायक, वज्र अंक भला कहा।। इक्ष्वाकुवंशी हेम सा तनु, वरष दशलख आयु है। सर्वार्थसिद्धि विमान तजि, पैंताल धनुष उचाव है। दोहा- सो वृषनाथ जहाज सम, तारण को जग जीव।
करुणा करि आवो यहां, दुखरोधन शिवपीव।। ओं ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (इति आह्वाननम्) ___ ओं ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठौ तिष्ठौ ठः ठः। (स्थापनम्) ओं ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट् (सन्निधिकरणम्)
अष्टकम् ले अतिमिष्ट अमल गंगाजल, नानागन्ध मिलाये। पुरट कुम्भ शुभ रतनजडितसो, जवन समेत धराये। धर्मनाथजिन धर्मधुरन्धर, तिन पद जलरुह केरी,
जजन आत्मअनुभवके कारण, कीजत आज भलेरी। ओं ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा।
हुतभुकलयनप्रिया युत चन्दन, नाम अरगजा जाको। मिले कपूर सुगन्ध उड़ावत, ल्याय कटोरा ताको।।
धर्मनाथजिन धर्मधुरन्धर, तिन पद जलरुह केरी,
जजन आत्मअनुभवके कारण, कीजत आज भलेरी। ओं ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा।
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शालि महाअवदात मधुर अति, दीरघ कान्ति धनेरी। भरि कलधौत तने शुभ धारा, सुन्दर पुञ्ज बनेरी ॥ धर्मनाथजिन धर्मधुरन्धर, तिन पद जलरुह केरी, जजन आत्मअनुभवके कारण, कीजत आज भलेरी | ओं ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
सुमन सुमन वच तनसो चुनि चुनि, चम्प चमेली केरे ।
ललित गुलाब तामरस फूले, औरहु फूल घनेरे।। धर्मनाथजिन धर्मधुरन्धर, तिन पद जलरुह केरी, जजन आत्मअनुभवके कारण, कीजत आज भलेरी। ओं ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय कामवाणविनाशनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्ध अन्न घृत मांहि पक्व करि, व्यंजन अधिक बनाऊँ। भरि धारा चितचाव बढ़ावत, सो प्रभु आगे ल्याऊँ ॥ धर्मनाथजिन धर्मधुरन्धर, तिन पद जलरुह केरी, जजन आत्मअनुभवके कारण, कीजत आज भलेरी। ओं ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जोति जगाय पाय चितसाता, घातित मोह अँधेरा। रतनन जटित कनकमय दीपक, कर पर धरहुँ सबेरा।। धर्मनाथजिन धर्मधुरन्धर, तिन पद जलरुह केरी,
जजन आत्मअनुभवके कारण, कीजत आज भलेरी। ओं ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा।
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महकत दिगावली जा खेये, ऐसी धूप भी सो दाहि धूप में प्रभु आगे लेत सुवास अली सो।। धर्मनाथजिन धर्मधुरन्धर, तिन पद जलरुह केरी, जजन आत्मअनुभवके कारण, कीजत आज भलेरी | ओं ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।
चिरभट आम्रपनस दाडिम ले, दाख कपित्थ बिजौरे । भरि-भरि धार सदा फल नीके, करि करि भव सुधरे ॥
धर्मनाथजिन धर्मधुरन्धर, तिन पद जलरुह केरी, जजन आत्मअनुभवके कारण, कीजत आज भलेरी। ओं ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा।
धरि धरि चाव भाव दोऊ शुभ, अन्तर बाहर केरे । करि करि अघ्य बनाय गाय नित, कहें सुगुण बहुतेरे || धर्मनाथजिन धर्मधुरन्धर, तिन पद जलरुह केरी, जजन आत्मअनुभवके कारण, कीजत आज भलेरी। ओं ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक - अडिल्ल छन्द
मात सुव्रता उर में जिनवर आनियो, तेरसि सुदि वैशाख तनी शुभ जानियो । गर्भ महोत्सव इन्द्र भली विधि सों कियो, मैं पूजत हों अघ्य लिये हुलसो हियो। ओं ह्रीं वैशखशुक्लत्रयोदश्यां गर्भकल्याणकप्राप्ताय श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
माघ महीना तेरसि उजियारी कही, जगत उधारण दीन बन्धु प्रगटे मही । भविक चकोरा देखि देखि आनंद हिये, लिये अध्य मैं पूजत शिव आशा किये।
ओं ह्रीं माघशुक्लत्रयोदश्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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विषयभोग सब विष के सम जाने मने, राजपाट धनधान्य पुत्र दारा जने।।
माघ श्वेत त्रयोदशि के दिन छाडि के, संजम ले वन वसे जजहुँ पद जानिके। ओं ह्रीं माघशुक्लत्रयोदश्यां तपकल्याणकप्राप्ताय श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
___ पौष पूर्णिमा के दिन केवल होत ही, भयो जगत मधि क्षोभ और उद्योत ही।
निज-निज वाहन चढि इन्द्रादिक आय के, जजत भये हित पाय जजहँ मैं भाय के। ओं ह्रीं पौषपौर्णमास्यां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
निज-कारज पर-कारज करि जिन धर्म जू, जेठ तनी सित चैथ हने वसुकर्म जू।
___मुक्तिकन्यका वरी शिखर-सम्मेद से। मैं पूजत युग चरण बडी उम्मेद से। ओं ह्रीं ज्येष्ठशुक्लचतु,याम् मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाल त्रिभंगी छन्द
जय धरमनाथ वर धरम धराधर, आत्मधरम हर टेकधरी, तजि सकलअनातम, लहि अध्यातम, रात मिथ्यातम नाशकरी।
जय तुअ पद पक्षी पावत पक्षी, जो शिवनक्षी प्रगट बने, मन वच तन ध्यावे मनरंग गावे, कष्ट न पावे, सो सुपने।।
स्रग्विणी छन्द जय मुदा रूप तेरे क्षुणा रोग ना, ना तृषा ना मृषा ऽऽलस्य ना शोक ना।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना, फेरि होवे न या लोक में आवना। तात ना मात ना मित्र ना शत्रु ना। पुत्र दारादि एकौ कहे कुत्र ना।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना, फेरि होवे न या लोक में आवना। वर्ण ना गन्ध ना ना रस स्पर्श ना। भेद ना खेद ना स्वेद ना दर्श ना।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना, फेरि होवे न या लोक में आवना। कर्म ना भर्म ना और नोकर्म ना। पञ्च इन्द्री मई रंच हूँ न शर्म ना।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना, फेरि होवे न या लोक में आवना। राग ना रोष ना गान ना मोह ना। पाप ना पुण्य ना बन्ध ना छोह ना।।
परिये नाथ मेरी मनोकामना, फेरि होवे न या लोक में आवना।
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मार्गणा ना गुणस्थान संस्थान ना। जीव-समास ना क्लेश-स्थान ना।।
परिये नाथ मेरी मनोकामना, फेरि होवे न या लोक में आवना। मक्षि छहपादि ना शंख कंखादि ना। लिंग ना विंग ना ज्ञान मर्याद ना।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना, फेरि होवे न या लोक में आवना। ना उदय कोउ ना वर्गणा वर्ग ना। शीत तत्तादि कोउ ही उपसर्ग ना।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना, फेरि होवे न या लोक में आवना। आदि ना अन्त ना वद्ध ना बाल ना। ना कलंकादि एकौ कहो काल ना।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना, फेरि होवे न या लोक में आवना। गर्ज ना हर्ज ना कर्म ना दर्ज ना। श्लेष्म औ वात पितादि का मर्ज ना।।
परिये नाथ मेरी मनोकामना, फेरि होवे न या लोक में आवना। धार ना पार ना नाहीं आकार ना। पार ना वार ना कोई संस्कार ना।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना, फेरि होवे न या लोक में आवना। नाहिं वीहार आहार नीहार ना। तोहि योगी बतायें तरन तारना।। परिये नाथ मेरी मनोकामना, फेरि होवे न या लोक में आवना। योग ना कामसंयोग को हेतु ना। एक राजै सदा ज्ञान में चेतना।। पूरिये नाथ मेरी मनोकामना, फेरि होवे न या लोक में आवना। देव यातें नमों तोहि है फेर ना। कीजिये काज मेरो करो देर ना।। पूरिये नाथ मेरी मनोकामना, फेरि होवे न या लोक में आवना।
घत्ता मालती छन्द जो जिन-धर्म तनी जयमाल, धरे निज-कण्ठ महा-सुख पावे। होय न लोक जिसे निहचें, जनमादि बड़े दुख ताहि मिटावे। पाय सो काल सुलब्धि भया, फिरि जायके सिद्धि इते नहीं आवे। लोक अलोक लखे सुख सों वह, ताहि सबै जग सीस नाववें। ओं ह्री श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय सर्वसुखप्राप्तये पूर्णार्घ्यम्।
छन्द एहो स्वामी धर्म देवाधिदेवा, पूजे ध्यावे तोहि इंद्रादि एवा। जेते प्राणी लोकमें तिष्ठमाना, ते ते पावें तो दया सौख्य जाना।
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ओं ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय नमः। (इस मंत्र की जाप्य देना)
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।
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श्री शान्तिनाथ जिन-पूजा ( रचयिता - कविवर मनरंगलाल )
स्थापना- गीता छन्द
शुभ हस्तिनापुर नृपति जहँ हैं, विश्वसेन महाबली, पितु मातु ऐरा शांति सुत भवे, कनक छबि देही भली।
कुरुवंश आयुष वरष लख, चालीस धनु ऊँचे खरे, सर्वार्थसिद्धिविमान तजि मृग, चिन्ह धरि इह अवतरे ।
जो होय चक्री रतिपती अरु, तीर्थ करता सोहने, कर का सब विधि सबनके फिरि, भये शिवतिय मोहने। सोहरो पातक करो किरपा, धरो चरण यहां तनी ।
मैं करो पूजा होउँ जासों, शुद्ध पातक को हनी ।
ओं ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (इति आह्वाननम् )
ओं ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठौ तिष्ठौ ठः ठः। (स्थापनम् ) ओं ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट् (सन्निधिकरणम्)
नीको नीर गंगादी को, जीते नीके नाम क्षीरो - दधी को ।
कीजे
पूजा शान्ति स्वामी सु तेरी, जासें नासे कालिमा काल केरी || ओं ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा।
जाकी आछी गन्ध ले भौंर माते। ऐसी गन्ध चन्दनादी सुता ।। पूजा शान्ति स्वामी सु तेरी, जासें नासे कालिमा काल के || ओं ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा।
गंगा पानी, सींचे हूये ऽवदाता । शाली सोने पात्र मौ धारि साता।। कीजे पूजा शान्ति स्वामी सु तेरी, जासें नासे कालिमा काल के ओं ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
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नाना रंग के स्वर्ग माहीं भये जे । ते ले आने पुष्प सुरभी लये जे।। कीजे पूजा शान्ति स्वामी सु तेरी, जासें नासे कालिमा काल केरी।। ओं ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय कामवाणविनाशनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा।
मिष्टं
पुष्ट शुद्ध पक्वान्न की । जिह्वा काजे सौख्यदा जानि लीने।। पूजा शान्ति स्वामी सु तेरी, जासें नासे कालिमा काल केरी ॥ ओं ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
क
दाय लीयो द्यौततो सो बनाई। नासे जासों मोह अन्धेरताई || क पूजा शान्ति स्वामी सु तेरी, जासें नासे कालिमा काल के || ओं ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा।
खेऊँ धूपं शुद्ध ज्वाला प्रजाली। फैले धुँआ छादितं अंशुमाली।।
की पूजा शान्ति स्वामी सु तेरी, जासें नासे कालिमा काल केरी।। ओं ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।
जे पिस्ता दाख बादाम नीके। नीके नीके रत्न - धारा भरीके || पूजा शान्ति स्वामी सु तेरी, जासें नासे कालिमा काल के || ओं ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा।
आठों द्रव्यों कीजिये एक ठाहीं । लेके अघ्य भाव के नाथ माँही
कीजे पूजा शान्ति स्वामी सु तेरी, जासों नासे कालिमा काल केरी। ओं ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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पंचकल्याणक - शिखरिणी छन्द
महा ऐरादेवी, कमल - नयनी चन्द्र- वदना, सुकेशी चम्पा -भा, वपु लख शची होत अदना ।
से जाके स्वामी, गर्भ सतमी भाद्र सितना, जजों मैं ले अध्यम्, नसत भव है पाप कितना।
ओं ह्रीं भाद्रपदशुक्लसप्तम्यां गर्भकल्याणकप्राप्ताय श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
वदी जाने जो चौ, दशि सुभग है जेठ महिना, जने माता भू पै, हूवो खलक को भाग दाहिना । महाशोभा भारी, शचिपति करी जन्म दिन की, करों पूजा मैं इहाँ, शुभ अरघ ले शान्ति जिनकी ।
ओं ह्रीं ज्येष्ठ कृष्णचतुर्दश्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
तिथी भूता नीकी, सुभग महिना जेठ बदि मा, तजी बाधा सारी, मगन हूवे साता उदधि मा।
तहां देवाधीशं, चरण-युग पूजे अघ हरे, यहाँ मैं ले पूजों, अरघ शुभ ते पाद सुधरे।
ओं ह्रीं ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां तपकल्याणकप्राप्ताय श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
दशाख्या संख्या की, तिथि शुभ कही पौष शुक्ला, हने घाती चारों, जदिन धरके ध्यान शुक्ला। विराजे सो आछे, समवसृति में ईश जग के, जजों में ले अरघं, कलुष नशि जावें कुमग के
ओं ह्रीं पौषशुक्लैकादश्यां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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किते पापी तारे, जग-भ्रमण तें क्यों सरहिये, भलो जानो भता, दिन महिनमो जेठ कहिये। लियो नीके स्वामी, सिखर परतें सिद्धिथल को,
जजों आछो अघ्यं, ले चरण भूलों न पल को। ओं ह्रीं ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
त्रिभंगी छन्द जय जय गुणगणधर, धर्म-चक्र-धर, मुकति-वधू-वर, रटत मुनी। जय त्याग सुदर्शन, लहत सुदर्शन, चित अति परसन, परम धुनी।
जय जय अघ टारन, कुमति निवारन, तुम पद तारन तरन सदा। जय जो तुम ध्यावत, कष्ट न पावत, करम तनों ऋण, होत अदा।
नाराच छन्द पदारविन्द शुद्ध जानि, देव जाति चारिके, नमें सदा आनन्द पाप, मन्दरता प्रचारिके। जिनेन्द्र शान्तिनाथ की, सदा सहाय लीजिये, महान मोह अन्त के, अनन्त काल जीजिये।।
लखे पवित्र होत नैन, चैन चित्त में बढ़े। महामिथ्यात्व अन्धकार, तातकाल में कटे।। जिनेन्द्र शान्तिनाथ की, सदा सहाय लीजिये, महान मोह अन्त के, अनन्त काल जीजिये।। नशाय जाय कोटि जन्म, के अरिष्ट देखते।
भले सु वीतराग भाव, होय रूप पेखते।। जिनेन्द्र शान्तिनाथ की, सदा सहाय लीजिये, महान मोह अन्त के, अनन्त काल जीजिये।। निशाप सो मुखारविन्द, देखि पाकशासना। चकोर के अधीन रूप, और की चितासना।।
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जिनेन्द्र शान्तिनाथ की, सदा सहाय लीजिये, महान मोह अन्त के, अनन्त काल जीजिये।। विनाशनीय चक्रवर्ति, की विभूति त्याग के। भये सुधर्म चक्रवर्ति, आत्मपन्थ लागि के।। जिनेन्द्र शान्तिनाथ की, सदा सहाय लीजिये, महान मोह अन्त के, अनन्त काल जीजिये।। नमो नमों सदा आनन्द, कन्द तोहि ध्यावहीं। गणाधिपति जे अनन्त, मोक्ष-पन्थ पावहीं।। जिनेन्द्र शान्तिनाथ की, सदा सहाय लीजिये, महान मोह अन्त के, अनन्त काल जीजिये।।
अनंगरूप धारि मार, मर्दि मर्दि कर दियो। निरस्त के कुभाव भाव, शुद्ध आप में कियो।। जिनेन्द्र शान्तिनाथ की, सदा सहाय लीजिये, महान मोह अन्त के, अनन्त काल जीजिये।।
महान ज्ञानभानु सो, उदोत होत नाथ जू। विवेक नेत्रवान आप, जानि भये सनाथ जू।। जिनेन्द्र शान्तिनाथ की, सदा सहाय लीजिये, महान मोह अन्त के, अनन्त काल जीजिये।। खगेश बाल पाद तो, सहाय होत जासु को। कहा करे महान काल, व्याल कृष्ण तासु को।। जिनेन्द्र शान्तिनाथ की, सदा सहाय लीजिये, महान मोह अन्त के, अनन्त काल जीजिये।। अनादिकर्म-काष्ठ जालि, बालि होत भये महा। प्रकाशवान लोक में, न दूसरो कहो कहा।। जिनेन्द्र शान्तिनाथ की, सदा सहाय लीजिये, महान मोह अन्त के, अनन्त काल जीजिये।।
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अनेक देव देखिया, न देव तो समान को लखा
न मैं कभी कहूँ अनन्त ज्ञानवान को।। जिनेन्द्र शान्तिनाथ की, सदा सहाय लीजिये, महान मोह अन्त के, अनन्त काल जीजिये।।
रहूँ विहाय नाथपाद, कौन ठौर जायके। कृपाल दीन जानि के, दयाल हो बनाय के।। जिनेन्द्र शान्तिनाथ की, सदा सहाय लीजिये, महान मोह अन्त के, अनन्त काल जीजिये।।
घत्ता
जो पढ़े अहर्निश शुद्ध यह, जयमाल शान्तिजिनेश की। ताके न धन की होय कमती, करे हास्य धनेश की।। पद पास लोटे रोज रानी, रति अवर की क्या चली। पुनि भोग दिवि के, भोग सुन्दर, वरे शिवरामा भली ओं ह्री श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय सर्वसुखप्राप्तये पूर्णार्घ्यम्।
शार्दल विक्रीडित छन्द स्वामी शान्तिजिनेन्द्र के पद भले, जो पूजसी भाव से।
सो पासी अमलान पट्ट सततं, वैकुण्ठ में चाव से।। सम्यक्त्वादिक अष्ट शुद्ध गुण को, धारे भलीभांति सो। होसी लोकपती सहाय सबका, जोगी भने शान्ति सो।।
ओं ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय नमः।
(इस मंत्र की जाप्य देना)
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री कुन्थुनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल)
स्थापना- गीता छन्द शुभ नागपुर जहां सूर राजा, पट्टरानी श्रीमती। जिन-कुन्थु जिन घर पुत्र हुये, सरवार्थ सिधि तें आगही।। वपु कनक छवि धरि धनुष पैंतिस, छाग चिन्ह विराजही। आयुष्य पञ्चानव सहस की, वंश कुरु मधि छाजही।।
मालती छन्द सा जिनराज गरीब-निबाज, निबाजहु मोहि यहां पग धारो। पूजों जो मनल्याय भली विधि, आज गरीबन को हित पारो।। काल अनादि तनी दुविधा मुझ, सो अबके दुविधा पद टारो।
मैं भवकूप परो जिनजीजो, आपन जानि सिताव निकारो।। ओं ह्रीं श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (इति आह्वाननम्)
ओं ह्रीं श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठौ तिष्ठौ ठः ठः। (स्थापनम्) । ओं ह्रीं श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट् (सन्निधिकरणम्)
अष्टक द्रुतविलम्बित छन्द अमल नीर सुभिक्षुक चित्त सो, परम कुम्भ भरे लब नित्य सो।
यजन कुन्थु जिनेश्वर की करों, जिमि न जाचक की पदवी धरो।। ओं ह्रीं श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा।
अधिक शीतल चन्दन ल्याय के। अधिक सो कर्पूर मिलाय के।।
यजन कुन्थु जिनेश्वर की करों, जिमि न जाचक की पदवी धरो।। ओं ह्रीं श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा।
सदक उज्ज्वल खण्ड विहाय के। सुभग मन्द प्रक्षालित भाव के।।
यजन कुन्थु जिनेश्वर की करों, जिमि न जाचक की पदवी धरो।। ओं ह्रीं श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
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कनक के शुभ पहुप बनावहूँ। विधि अनेकन के शुभ ल्यावहूँ।।
यजन कुन्थु जिनेश्वर की करों, जिमि न जाचक की पदवी धरो।। ओं ह्रीं श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय कामवाणविनाशनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा।
नशत रोग क्षुधा तिहिं देखते। इमि सु व्यञ्जन लय प्रमोदते।।
यजन कुन्थु जिनेश्वर की करों, जिमि न जाचक की पदवी धरो।। ओं ह्रीं श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
ज्वलित दीपक जोति प्रकाश ही। दश दिशा उजियार सुभास ही।।
यजन कुन्थु जिनेश्वर की करों, जिमि न जाचक की पदवी धरो।। ओं ह्रीं श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा।
दहन कीजे धूप मँगाय के। अगनि में प्रभु सन्मुख आय के।। यजन कुन्थु जिनेश्वर की करों, जिमि न जाचक की पदवी धरो।। ओं ह्रीं श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।
क्रमुक दाख बदाम निकोतमा। सरस ले अह लै कम होत ना।। यजन कुन्थु जिनेश्वर की करों, जिमि न जाचक की पदवी धरो।। ओं ह्रीं श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
जल चन्दन अक्षत पहुप, चरु वर दीपक आनि।
धूप और फल मेलि के, अध्य चढ़ाऊँ जानि।। ओं ह्रीं श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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पंचकल्याणक - छन्द चाली सावन दशमी अँधियारी, जिन गर्भ रहे हितकारी। प्रभु कुन्थु तने युगचरणा, ले अरघजजों दुखहरणा।।
ओं ह्रीं श्रावणकृष्णदशम्यां गर्भकल्याणकप्राप्ताय श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
पडिवा वैशाख सुदी की, लक्ष्मीमति माता नीकी। जिन कुन्थ जने सुख पायो हम हूँ यहाँ अध्य चढ़ायो।। ओं ह्रीं वैशाखशुक्लप्रतिपदायां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
करि दूर परिग्रह ताको, वैशाख सुदी पडिवा को। सिर के जिन केश उपारे, मैं पूजें अरघ सिधारे।। ओं ह्रीं वैशाखशुक्लप्रतिपदायां तपकल्याणकप्राप्ताय श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
सुदि चैत तृतीया ज्ञानी, हुये प्रभु मुक्ति-निशानी।
तहँ देव अवेदन आनी, पूजे हम पूजे जानी।। ओं ह्रीं चैत्रशुक्लतृतीयायां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
तिथि शुभ वैशाख उजेरी, पडिवा समेदगिरी सेरी। करुणानिधि शिवतिय पाई, मैं पूजों अध्य बनाई।। ओं ह्रीं वैशाखशुक्लप्रतिपदायां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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जयमाल - त्रिभंगी छन्द
जय चक्री वीरा, कामशरीरा, नाशत पीरा, जगजनकी । जय गणपतिनायक, होसुखदायक शोभालायक, छवि तनकी।। जय कुन्थु प्यारे, जग उजियारे, सबसुख धारे, अलखगती। जय शिवुरधरिये, आनंदभरिये, जल्दी करिये, विपुलमती॥ तोटक छन्द
जय सूर तनय तब मूरति मा, तप तेज तनी जनु पूरतिमा। जय शुक्र शतक्रतु सेव सदा, कुरु कुन्थु जिनाधिप कर्म अदा।। धरि काम सभी रति नाम तिमा । चित राखत ना कहुँ आरति मा जय शुक्र शतक्रतु सेव सदा, कुरु कुन्थु जिनाधिप कर्म अदा ।। षटखण्ड तनी तजि राज्य- रमा, निज - आतम-भूति करी करमा जय शुक्र शतक्रतु सेव सदा, कुरु कुन्थु जिनाधिप कर्म अदा ।।
मुष्टिक का तने सिरमा । घर त्याग वसे शिव मन्दिर मा ।। जय शुक्र शतक्रतु सेव सदा, कुरु कुन्थु जिनाधिप कर्म अदा धरि जीव उधारन की तकमा । जग जीत लियो यह कौतुक मा ।। जय शुक्र शतक्रतु सेव सदा, कुरु कुन्थु जिनाधिप कर्म अदा ।। करि शांति सुभाव हि जोर दमा । मन आतम घायक चोर दमा।। जय शुक्र शतक्रतु सेव सदा, कुरु कुन्थु जिनाधिप कर्म अदा ।। भट मोह अरी पर मारन मा। नहि चूक प्रभू तिहि मारन मा ।। जय शुक्र शतक्रतु सेव सदा, कुरु कुन्थु जिनाधिप कर्म अदा || दुखदा छल वोरि दियो नद मा । चिदरूप विराजित आनद मा ।।
जय शुक्र शतक्रतु सेव सदा, कुरु कुन्थु जिनाधिप कर्म अदा।। लहि ज्ञान दिवाकर लोक तमा। हनि होत भये प्रभु शुक्लतमा। जय शुक्र शतक्रतु सेव सदा, कुरु कुन्थु जिनाधिप कर्म अदा।। गृहत्याग रहे जन तो धरमा । तिनको न विक्रोध तनी घरमा ।। जय शुक्र शतक्रतु सेव सदा, कुरु कुन्थु जिनाधिप कर्म अदा ।। तुम पादन राज हिये कलिमा । धरि सूर कहावत सो कलिमा।।
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जय शुक्र शतक्रतु सेव सदा, कुरु कुन्थु जिनाधिप कर्म अदा।।
प्रभु नाम रहें जिन तुण्डन मा। हैं पावन वे सब तुण्डन मा।। जय शुक्र शतक्रतु सेव सदा, कुरु कुन्थु जिनाधिप कर्म अदा।। तुम नाम सहाय हमें कलिमा। नहिं दूसर देख परे कलिमा।। जय शुक्र शतक्रतु सेव सदा, कुरु कुन्थु जिनाधिप कर्म अदा।। कमी न कछू प्रभु तो बलमा। जय हो जय हो सब के बलमा।। जय शक्र शत-क्रतु सेव सदा। कुरु कुन्थु जिनाधिप कर्म अदा।
घत्ता मालती छन्द कुन्थु तनी वर या जयमाल, भवाब्धि तनी तरनी जग गावे। यो जन आस तजे जग की, चढिया पर सो शिवलोक मँझावे।
पावे चैन अनन्त तहां, मनरंग अनंग की रीति गमावे। को कवि भू पर सिद्ध इसो, जहँ के सुख की कथनी कथि पावे। ओं ह्री श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय सर्वसुखप्राप्तये पूर्णार्घ्यम्।
सोरठा कुन्थुनाथ भगवान, जे भवबाधा में पड़े। तिन सबको कल्यान, करो अपनी ओर लखिं।
ओं ह्रीं श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय नमः।
(इस मंत्र की जाप्य देना)
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।।
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श्री अरहनाथ जिन-पूजा ( रचयिता कविवर मनरंगलाल )
स्थापना- गीता छन्द
शुभ नागपुर जहां नृप सुदर्शन, वंश कुरु मित्रा तिया, ताह अपराजित विमानहिं, त्याग अरह भये पिया। पाठीन-लक्षण धनुष त्रिंशत, कनकवर्ण प्रभा धरी, चैरासी सहस प्रमाण वरषन, की सु आऊषा परी। दोहा
सो करुणानिधि विमल चित, सहस छ्यानवे बाल, तजि, शिवकामिनि वर भये, यहां धरो पगताल ।
ओं ह्रीं श्री अरहनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (इति आह्वाननम्) ओं ह्रीं श्री अरहनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठौ तिष्ठौ ठः ठः। (स्थापनम् ) ओं ह्रीं श्री अरहनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट् (सन्निधिकरणम्)
अष्टक, वसन्ततिलका छन्द
पानी महान भरि शीतल झारिका में, धारा-प्रमान भवि-लोभन गन्ध जामें । पूजों सदा अरह-पाद-सरोज दोऊँ, नासें कलंक जनमादि जरा विगोॐ ओं ह्रीं श्री अरहनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा।
काश्मीर पूरित कपूर सु चन्दनादी, नीके घसों मधुप लुब्धत शब्द-वादी पूजों सदा अरह-पाद-सरोज दोऊँ, नासें कलंक जनमादि जरा विगोॐ।। ओं ह्रीं श्री अरहनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा।
चन्दा समान अवदात अखण्ड शाली, नीके प्रछालित अनेक भराय थाली ।
पूजों सदा अरह-पाद-सरोज दोऊँ, नासें कलंक जनमादि जरा विगोॐ।। ओं ह्रीं श्री अरहनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
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चम्पा कदम्ब सरसीरुह कुन्द केरी, माला बनाय निज नैन बनाय हेरी ।। पूजों सदा अरह-पाद-सरोज दोऊँ, नासें कलंक जनमादि जरा विगोॐ॥ ओं ह्रीं श्री अरहनाथजिनेन्द्राय कामवाणविनाशनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा।
नाना-प्रकार पकवान क्षुधापहारी, मेवा अनेकन मिलाय सु-मिष्ट भारी ।। पूजों सदा अरह-पाद-सरोज दोऊँ, नासें कलंक जनमादि जरा विगोऊँ।। ओं ह्रीं श्री अरहनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
छाती।
दीपवली ज्वलित जोत कपूर वाली, धारूं जिनाधिप पदाग्र जुड़ाय पूजों सदा अरह-पाद-सरोज दोऊँ, नासें कलंक जनमादि जरा विगो || ओं ह्रीं श्री अरहनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा।
धूपादि चन्दन मिलाय कपूर नाना, एकाग्र चित्त कर खेउँ, विलाय माना।। पूजों सदा अरह-पाद-सरोज दोऊँ, नासें कलंक जनमादि जरा विगोॐ।। ओं ह्रीं श्री अरहनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।
मीठे रसाल कदली- फल नारिकेला, पिसता बदाम अखरोट लिये घनेरा।। पूजों सदा अरह-पाद-सरोज दोऊँ, नासें कलंक जनमादि जरा विगोॐ।। ओं ह्रीं श्री अरहनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा।
जल चन्दन वर अक्षत पुहुप सुधारिके, नानाविध चरु दीपक धूप प्रजारिके। फल सु मिष्ट ले सुन्दर अघ्य बनाइये, अरहनाथ पद ऊपर नित्य चढ़ाइये। ओं ह्रीं श्री अरहनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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पंचकल्याणक
छन्द मालती तेईसा है गुणशील तनी सरिता अर-नाथ तनी जननी सुखदानी, भाग्य सराहत लोक सबे धनि, दीरघ भाग्यवती महारानी। जा सम और न दूजी तिय महि-मण्डल मांझ कहूँ पहिचानी,
फाल्गुन की सित तीज दिना तसु, कूखि वसे जिन पूजहुँ जानी।। ओं ह्रीं फाल्गुनशुक्लतृतीयां गर्भकल्याणकप्राप्ताय श्री अरहनाथजिनेन्द्राय अध्यम्।
चौदशि सेत कही अगहान, तनी अर जादिन जन्म लियो है। तादिन की प्रभुता सुनिके भवि, जीवन केर जुड़ात हियो है।। इन्द्र शची मिलके सब देवन, आयके जन्म उत्साह कियो है।
सो दिन जानि विचारि सभी वह, आनन्द सों हम अध्य दियो है।। ओं ह्रीं मगसिरशुक्लचतुर्दश्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्री अरहनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
सुन्दर हे अगहान सुदी दश-मी, शुभ को गनियो तिथि भारी। सोचत तादिन एम प्रभू जग, जाल सदा जिय हो दुखकारी।। लेत दिगम्बर भेष भलो तृण, जीरण के सम त्यागत नारी॥
सो जिनदेव सहाय हमें नित, होउ चढ़ावत अध्य सिधारी।। ओं ह्रीं मगसिरशुक्लचतुर्दश्या तपकल्याणकप्राप्ताय श्री अरहनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
कार्तिक बारसि सेत दिना लहि, केवल ज्ञान महान अनूठा। इन्द रची समवस्मृति सुन्दर, योजन एक गनावत हूँठा।।
बैठत देव सिंहासन ऊपर, अन्तरीक्ष जहां भरि मूठा।
पूजत अध्य बनाय तुम्हें फिर, चूमिहिगो कँह काल अँगूठा।। ओं ह्रीं कार्तिकशुक्लद्वादश्यां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्री अरहनाथजिनेन्द्राय अध्यम्।
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चैत्र अमावस को जगदीश्वर, छांडि दियो गुण चौदम ठाणा, एकसमय मधि सिद्ध पती जिन, देव भये सुरनायक जाना। ले निज साथ प्रिया पृतना करि, मोद समेदपहार पिछाना।
कर निरवान तनी विधि ठाना, यहां हम पूजत पाद महाना।। ओं ह्रीं चैत्रकृष्णामावस्यायां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्री अरहनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
काव्य छन्द जय जय अरह जिनेन्द्र देवाधि देववर। जय जय मिथ्या-निशाहरण को महत दिवाकर। जय अकलंक स्वरूप दोष-मोचन अति सोहै। जय तियलोक मँझार, दीनपति तोसम को है।।
पद्धरि छन्द जय मित्रा-देवी के सुनन्द, मुख शोभित तुम अकलंक चन्द। जय दुरित-मिमिर-नाशक-पतंग, माया-वेली-भंजन-मतंग।1।। जय चक्र किंकणी छत्र दण्ड, चूड़ामणि चरम अरु असि प्रचण्ड। ये सात अचेतन मणि महान, प्रभु छांडि दीन तृणके समान।।2।।
रति रानी सेनानी मतंग, प्रोहित शिल्पी गृहपति तुरंग। सातों चेतन मणि मन विचारि, लखि अथिर हृदय संवेग धारि।।3।।
जो नाना पुस्तक देत दान, सो तजी काल-निधि सहित ज्ञान। असि मसि साधन जो महत काल, तासों निस्पृही भये कृपाल।।4।।
हाटक-भाजन मणि-जटित सार, नैसर्प देत नाना प्रकार। तसु त्यागत छिन में है प्रबुद्ध, निज अंजलि भोजन करत शुद्ध।।5।।
चैथी पाण्डुक निधि नाम होय, अरपै सब रसमय धान्य सोय। तातें संवर करि जगत-पाल, जग-जीवन को कीन्हें निहाल॥6॥
जो अर्पत पाटम्बर विशाल। तसु नाम पद्मनिधि कहत हाल। तिहिं त्याग कीन्ह दिगवसन नाथ, जय कीजे स्वामी अब सनाथ।।7।।
निधि मानव नाना शस्त्र देत, ता ऊपर रंच न करत हेत।
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भये शान्त-स्वभवी तीन लोक, जीते प्रभु ने हूये अशोक।।8। पिंगला देता भूषक अनेक, तसु आस छांडि किय नगन भेक। यह प्रभु की प्रभुताई मनोग, कर इन्द्रीवश शुभ धरत योग।।9।।
निधि संख कहावत जो प्रधान, वादित्र देत सो वे प्रमान। सो छाँड़ी जस पटहा बजाय, जय धन्य धन्य स्वामी सहाय।।10।
निधि सर्व-रत्न नामा मनोग, बहु रतनन देवे को सुयोग। तिहि कांच खंडवत् त्याग दीन, निजहिय में धारत रतन तीन।।11।।
इन आदि अनेकन राज्य अंग, द्वै तिनसों विरकत सा निसंग। अध ऊध्व मध्य परताप जास, छिटको रवि तें अधिको प्रकाश।।12।।
जय जय साताकारी जिनन्द, छवि ऊपर वारों कोटि चन्द। जय चिन्तित अध्यादिक सुदेत, चिन्तामणि इव करुणा समेत।।13।
जय पाप-प्रहारी अगम-पन्थ, जय शिव-तिय के आछे सुकन्ध। जय गुण-निधान कल्याण-रूप, जय तीन लोक जे भले भूप।।14।
हे चतुरानन प्रणमों सुतोहि, करिये प्रभु साता-रूप मोहि। यह अरज हमारी मान लेहु, मो तनि तुम अपनी दृष्टि देहु।।15।।
अडिल्ल छन्द अरह जिनेन्द्र तनी शुभ जयमाला बनी, जो धारत निजकण्ठ होय शोभ घनी। शिव-रमणी तसु आय अलिंगे आपही,
मनरंग स्वर्ग श्रिया की, का कथनी कही।। ओं ह्री श्री अरहनाथजिनेन्द्राय सर्वसुखप्राप्तये पूर्णार्यम्।
दोहा यामिनीश भगवान मुख, पद-कुवलय युत मोद। लखि लखि भविक चकोर अलि, सुख लीजो भरि गोद।। ओं ह्रीं श्री अरहनाथ जिनेन्द्राय नमः।(इस मंत्र की जाप्य देना)
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री मल्लिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल)
स्थापना- गीता छन्द नृप कुम्भ मिथिला, पुरी अद्भुत, मातृनाम प्रजावती। ता पुत्र अपराजित विमानहिं, त्यागि मल्लि भये जती।। पच्चीस धनुष उचाव लक्षण, कुम्भ कनकप्रभा बनी। आऊष पचपन सहस वरष, इक्ष्वाकु-वंश-शिरोमनी।।
दोहा कुम्भा-चिन्ह धारी प्रभो, कुम्भ-नृपति-सुत आज।
आय चरन धारी इहां, जो सुधरे मम काज।। ओं ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (इति आह्वाननम्)
ओं ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठौ तिष्ठौ ठः ठः। (स्थापनम्) ओं ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट् (सन्निधिकरणम्)
वसन्ततलिका छन्द आछो प्रवाह गंगा-जल नीर तासों, झारी भराय शुभ रुक्मतनीय जासों। श्रीमल्लिनाथ जगदीश निशल्य कारी, पूजों सदा जजत इन्द्र सदेव धारी।। ओं ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा।
श्री चन्दनादि बहु गन्ध मिलाय धारी। गूंजे द्विरेफ तसु ऊपर पुञ्ज भारी।। श्रीमल्लिनाथ जगदीश निशल्य कारी, पूजों सदा जजत इन्द्र सदेव धारी।। ओं ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा।
जो चन्द्रमण्डल लजावत शुद्ध शाली। खण्डं बिना विमल दीर्घ सु साजि थाली।। श्रीमल्लिनाथ जगदीश निशल्य कारी, पूजों सदा जजत इन्द्र सदेव धारी॥ ओं ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षताम् निर्वपामीति स्वाहा।
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चम्पा कदम्ब मचकुन्द सुकुन्द केरे। लीये सुगन्धित प्रफुल्ति फूल हेरे।। श्रीमल्लिनाथ जगदीश निशल्य कारी, पूजों सदा जजत इन्द्र सदेव धारी।। ओं ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय कामवाणविनाशनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा।
फेनी सुमोदक अनेक प्रकार नीके। मीठे अमान करि शुद्ध विहाय फीके।। श्रीमल्लिनाथ जगदीश निशल्य कारी, पूजों सदा जजत इन्द्र सदेव धारी।। ओं ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
माणिक्य दीपक महान तमापहारी। दिक्चक्र सम्यक प्रकाशित तेजधारी।। श्रीमल्लिनाथ जगदीश निशल्य कारी, पूजों सदा जजत इन्द्र सदेव धारी।। ओं ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा।
भू चक्र पूरित सुगन्ध सुधूप आनी। दाहूँ जिनाधिप पदाग्र महान जानी।। श्रीमल्लिनाथ जगदीश निशल्य कारी, पूजों सदा जजत इन्द्र सदेव धारी।। ओं ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।
द्राक्षा बदाम-शुभ आम्र कपित्थ लीये। नानाप्रकार भरि भार सुझाव कीये।। श्रीमल्लिनाथ जगदीश निशल्य कारी, पूजों सदा जजत इन्द्र सदेव धारी।। ओं ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा।
पानी सुगन्ध वर अक्षत पुष्पमाला। नैवेद्य दीप अरु धूप फलौघ आला।। श्रीमल्लिनाथ जगदीश निशल्य कारी, पूजों सदा जजत इन्द्र सदेव धारी।। ओं ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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पंचकल्याणक छन्द काव्य चैत्र शुक्ल पडिवा वसे, गरभ माहिं जित मल्लिा पूजत शुद्ध अध्य ले, दरि होत सब शल्लि॥ ओं ह्रीं चैत्रशुक्लप्रतिपदयायां गर्भकल्याणकप्राप्ताय मल्लिनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
मगसिर सुदि एकादशी, जन्मलीन महाराजा
अध्य लिये पूजत तिन्हें, बढ़त पुण्य-समाज।। ओं ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लैकादश्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
मगसिर सुदि ग्यारसि दिना, केश सुलुञ्च करन्त। पूजत तिन पद अध्य सों, पातक सकल नशन्त।। ओं ह्रीं मगसिरशुक्लैकादश्ययां तपःकल्याणकप्राप्ताय श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा
करम मल्लि निरशल्लि करि, पौष दोज वदि मांहि। लहत नवल केवल लबधि, पूजो अध्य चढ़ांहि।
ओं ह्रीं पौषकृष्णद्वितीयायां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
पाँचे फाल्गुन शुक्ल की, त्यागि समेद पहार। अष्टकर्म हनि सिध भये, जजों अध्य ले थार।। ओं ह्रीं फाल्गुनशुक्लपञ्चम्यां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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जयमाल - झूलना छन्द
सुनिधी, सुभ मूरत बनी, माथ नावैं गणी राज तोही । जानि सुन्दर गिरा, असुर नर खग सुरा, लोक की इन्दिरा आन मोही । छवी ते देखते, भजत दुःख दूरते, मिलत पद अटल, जो कहत वो ही। हे दयापाल, मम हाल पै हाल दे, करो जेम निष्कर्म आनन्द होही। त्रोटक छन्द
जय लोकित लोक अलोक नमो, सब शोषित शोक अशोक नमों। जय सिद्धि-सुथानक-वासकरम्, प्रणमामि मल्लि जिनदेव वरम्।। जय पोषित आतम-धर्म नमों । प्रभु नाश किये वसु-कर्म न मों। जय सिद्धि-सुथानक-वासकरम्, प्रणमामि मल्लि जिनदेव वरम् ।। जय भवदधि-तार जहाज नमों। सब राखत हो जन- लाज नमों ॥। जय सिद्धि-सुथानक-वासकरम्, प्रणमामि मल्लि जिनदेव वरम् ।। जय दारिद-भञ्जन नाथ नमों । सुख-वारिधि-वर्धक साध नमों। जय सिद्धि-सुथानक-वासकरम्, प्रणमामि मल्लि जिनदेव वरम् ॥ जय ज्ञान - कृपाण प्रचण्ड नमों। भट मोह करो शत-खण्ड नमों ।। जय सिद्धि-सुथानक-वासकरम्, प्रणमामि मल्लि जिनदेव वरम्।। जय पाप-पहार - समीर नमों। जन की हर ले भव - पीर नमों ॥। जय सिद्धि-सुथानक-वासकरम्, प्रणमामि मल्लि जिनदेव वरम् ।। जयदेह महादश ताल नमों । करुणाकर नाथ कृपाल नमों ।। जय सिद्धि-सुथानक-वासकरम्, प्रणमामि मल्लि जिनदेव वरम्।। जय नायक भाषत तथ्य नमो । सब बातन में समरथ्थ नमों || जय सिद्धि-सुथानक-वासकरम्, प्रणमामि मल्लि जिनदेव वरम् ।। तुम आतम-भूति प्रशस्त नमों। किय भूषित लोक समस्त नमों ।। जय सिद्धि-सुथानक-वासकरम्, प्रणमामि मल्लि जिनदेव वरम्।। जय काम कलंक निवार नमों। तुम भये भवसागर पार नमों ।। जय सिद्धि-सुथानक-वासकरम्, प्रणमामि मल्लि जिनदेव वरम्।। जय आनन चारि प्रसन्न नमों । अरु दोष अठरह शून्य नमों
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जय सिद्धि-सुथानक-वासकरम्, प्रणमामि मल्लि जिनदेव वरम् ।। जय इन्द्रप्रपूजित पाद नमों। अन-अक्षर निस्सृत नाद नमों ।। जय सिद्धि-सुथानक-वासकरम्, प्रणमामि मल्लि जिनदेव वरम् ।। जय मान-बली-हत वीर नमों । गुण-मण्डित हैं सब धीर नमों जय सिद्धि-सुथानक-वासकरम्, प्रणमामि मल्लि जिनदेव वरम्। पद दे अपनो जगदीश नमों मनरंग नवावत शीश नमो ॥ जय सिद्धि-सुथानक-वासकरम्, प्रणमामि मल्लि जिनदेव वरम् ।।
घत्ता
भवि जन मन प्यारे, तारे दुखी बहु का कहूँ, कहि कवि-जन हारे, नारे लगी गणना तहूँ।
तिह कर जयमाला, आला महागल जो धरे, निज शिव-बाला, वाला बने भव सो हरे ।
ओं ही श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय सर्वसुखप्राप्तये पूर्णार्घ्यम्।
सोरठा
अहो मल्लि जिनदेव, करिये करुणा जगत पै। जो सुख पावै एव, तो विन सुख कहुँ रंच ना। ओं ह्रीं श्री अरहनाथ जिनेन्द्राय नमः । ( इस मंत्र की जाप्य देना)
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री मुनिसुव्रतनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल)
स्थापना- गीता छन्द नृपसदन नगरी कहत ताको, भूप नाम सुमन्त है। श्यामा सुरानी जासु सुत मुनि, सुव्रत नाम महन्त है।। तनु श्याम ऊँचे बीस धनु हरि, वंश कच्छप अंक है। तजि स्वर्गप्राणत तीस सहस, सुवर्ष आयु निशंक है।।
दोहा हे मनिसुव्रतनाथ, जगत-कष्ट दारुण हरण।
मों पर धरिये हाथ, यहां चरण ढारो प्रभो।। ओं ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (इति आह्वाननम्) ____ओं ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठौ तिष्ठौ ठः ठः। (स्थापनम्) ओं ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट् (सन्निधिकरणम्)
अष्टक - चौपाई छन्द शीतल नीर कपूर मिलाय। हाटक तने कलश भरवाय।
पूजों श्री मुनिसुव्रत पाय। पूजत सकल अरिष्ट नसाय।। ओं ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा।
केशर मलयागिर कर्पूर। मिले कटोरा भरि-भरि पूर।।
पूजों श्री मुनिसुव्रत पाय। पूजत सकल अरिष्ट नसाय।। ओं ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्ता-फल सम शुध अति प्यारे। अक्षत धवल सम्हारि सिधारे।।
पूजों श्री मुनिसुव्रत पाय। पूजत सकल अरिष्ट नसाय।। ओं ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
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नाना वरण तने ले फूल। निकसत तिनतें गन्ध सुधूल।।
पूजों श्री मुनिसुव्रत पाय। पूजत सकल अरिष्ट नसाय।। ओं ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय कामवाणविनाशनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा।
व्यञ्जन नाना भांति बनाय। मिष्ट-मिष्ट देखत मन भाय।।
पूजों श्री मुनिसुव्रत पाय। पूजत सकल अरिष्ट नसाय।। ओं ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
घृत पूरित दीपक ले आनो। प्रज्वलित जाकरि तिमिर पलानो।।
पूजों श्री मुनिसुव्रत पाय। पूजत सकल अरिष्ट नसाय।। ओं ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा।
धूपायन कञ्चन को लेय। तामें धूप दशांगी खेय।।
पूजों श्री मुनिसुव्रत पाय। पूजत सकल अरिष्ट नसाय।। ओं ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।
मातुलिंग कदली फल भरे। थर ल्याय कञ्चन मणि जरे।।
पूजों श्री मुनिसुव्रत पाय। पूजत सकल अरिष्ट नसाय।। ओं ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा।
नीर आदि वसु द्रव्य मिलाय। शुभ-भवन सों अध्य बनाय।।
पूजों श्री मुनिसुव्रत पाय। पूजत सकल अरिष्ट नसाय।। ओं ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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पंचकल्याणक - अडिल्ल छन्द श्रावण वदि दुतिया मुनिसुव्रतनाथ जू, श्यामा उर में वसे सकल सुख साथ जू। वर्षावत शुभ रत्न इन्द्र शोभा करी, मैं पूजत ले अध्य धन्य सुख की घरी।।
___ओं ह्रीं श्रावणकृष्णद्वितीयायां गर्भकल्याणकप्राप्ताय श्री मुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
वदि वैशाख महीना दशमी रोज ही, आनन्दकन्द जिनेन्द्रचन्द्र प्रगटे मही। जन्म महोत्सव विधिपूर्वक कीनों हरी, मैं पूजत ले अध्य धन्य सुख की घरी।।
ओं ह्रीं वैशाखकष्णदशम्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्री मुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
दशमी वदि वैशाख तपस्या काज जू, वसे लोंच करि वन में तज सब राज जू। सो किरपा कर धन्य सुमति दीजे खरी, मैं पूजों ले अध्य धन्य सुख की घरी।।
ओं ह्रीं वैशाखकृष्णदशम्यां तपकल्याणकप्राप्ताय श्री मुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
नौमी वदि वैशाख मांहि लहि ज्ञान को, पतित उधारे केते गए निर्वान को। तीनों लोक मँझार सु कीरति विस्तरी, मैं पूजों ले अध्य धन्य सुख की घरी।।
ओं ह्रीं वैसाखकृष्णदशम्यां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्री मुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
वदि फाल्गुन की द्वादशि तिथि नीकी कही, गिरि समेद तें लीन्हीं अष्टम जो मही। तिन्हें अष्टमद मोचि शोचि पदवी खरी, मैं पूजों ले अध्य धन्य सुख की घरी।।
ओं ह्रीं फाल्गुनकृष्णद्वादश्यां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्री मुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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जयमाला - त्रिभंगी छन्द जय जय मुनिसुव्रत, धरत महाव्रत, कर रिमल, चित परम भये।
देवन के देवा, सब सुख देवा, शचिपति सेवा, मांहि ठये।। जय जय गुणसागर, जगत उजागर, हो नरनागर, दोष हरे। तेरी अद्भुत गति, लखत न गणपति, मनरंग नितप्रति, पैर परे।।
सृग्विणी छन्द जय कृपा-कन्द आनन्द रूप सदा, हेरि हार्यो बिड़ौजा न तृष्णा कदा। देव धरी छविह मारकी मारनी, रोग शोक व्यथा भव व्यथा टारनी।। गोहनी मुक्ति बामा तनी वोहनी। सोहनी तीन भू की महा-मोहिनी।। देव धरी छविह मारकी मारनी, रोग शोक व्यथा भव व्यथा टारनी।। चन्द्र की चन्द्रिका को तिरस्कारिनी। सूर की जोति शोभा अनन्ती बनी।। देव धरी छविह मारकी मारनी, रोग शोक व्यथा भव व्यथा टारनी।। पूद्गलाणु जेते लोक में थे भले। ल्याय धाता रची एक भा-मण्डली।। देव धरी छविह मारकी मारनी, रोग शोक व्यथा भव व्यथा टारनी।। कर्मनाशा शिवाशा दुराशा नहीं। दृष्टि नासा धरे ना हिं रासा कही।। देव धरी छविह मारकी मारनी, रोग शोक व्यथा भव व्यथा टारनी।। क्षत्पिपासादि द्वाविंश पीरा हरी। रूप सौन्दर्य की है पताका खरी।। देव धरी छविह मारकी मारनी, रोग शोक व्यथा भव व्यथा टारनी।। लोकते जासु के लोक होवे नहीं। लोक को भद्रकारी सुलोको कहीं।। देव धरी छविह मारकी मारनी, रोग शोक व्यथा भव व्यथा टारनी।। ज्ञान की राजधानी बखानी वरा। लोक जानी प्रवानी सुहानी गिरा।। देव धरी छविह मारकी मारनी, रोग शोक व्यथा भव व्यथा टारनी।। दक्ष जो की गहे पक्ष प्यारी भले। चक्रधारी तनी लक्ष पावे दले।। देव धरी छविह मारकी मारनी, रोग शोक व्यथा भव व्यथा टारनी।। खूब खूबी लसे जो वसे ना कही। जाहि देखे नसे पाप जेते सही।। देव धरी छविह मारकी मारनी, रोग शोक व्यथा भव व्यथा टारनी।। राम केसौरु शेषो न लेशो लहे। पार गामे गनेसो कलेसो दहे।।
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देव धरी छविह मारकी मारनी, रोग शोक व्यथा भव व्यथा टारनी।। पाद राजीव जो जीवरा जी धरे। सो मिजाजी महामोह माजी करे।। देव धरी छविह मारकी मारनी, रोग शोक व्यथा भव व्यथा टारनी।। जे जना आन तेरी सदा ही कीरें। ते शिताबी भली मुक्ति वामा वरें।। देव धरी छविह मारकी मारनी, रोग शोक व्यथा भव व्यथा टारनी।।
और झठी सभी बात तेरे बिना। रोज जापे महा जो महा सो गिना।। देव धरी छविह मारकी मारनी, रोग शोक व्यथा भव व्यथा टारनी।। मन्दभागी न जाने तिहारी ना कथा। वर्ण वीवर्ण आंधी लखे ना यथा। देव धारी छविह मारकी मारनी। रोग शोक व्यथा भवव्यथा टारनी।।
छन्द इह जयमाला मुनिसुव्रत की, जो भवि पढ़ त्रिकाल। द्वै निरद्वन्द्व बन्ध सब तजि के, जागे ताकर भला।। पराधीन नहिं होय कदाचित, पावे आनंद जाल। तजि जग भवन भवन सिद्धनको, सो न परसेहाल।। ओं ह्री श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय सर्वसुखप्राप्तये पूर्णार्घ्यम्।
दोहा हे करुणानिधि शर्मनिधि, मुनिसुव्रत व्रत सीव। तो प्रसाद भवि जीव सब, फूलो फलो सदीव।
ओं ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय नमः।
(इस मंत्र की जाप्य देना)
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री नमिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल)
स्थापना- गीता छन्द शुभ वसत मिथिलापुरी जननी, नाम विपुला जानिये। पितु नाम आछो विजयरथ नमिनाथ, तिन सुत मानिये।।
इक्ष्वाकुवंशी हेम सा तनु, कञ्ज चिन्ह सुहावने। दस सहस वरष सुआयु पद्रह, चाप उँचे ही बने।।
दोहा भो परमेश्वर परम गुरु, परमानन्द निधान।
करि करुणा मुझ दीन प, यहां विराजो आन।। ओं ह्रीं श्री नमिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (इति आह्वाननम्) _____ओं ह्रीं श्री नमिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठौ तिष्ठौ ठः ठः। (स्थापनम्) ओं ह्रीं श्री नमिनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट् (सन्निधिकरणम्)
अथाष्टक छन्द मधुर मधुर पयसा, शरद चन्दा सु जैसा, मुनिवर चित जैसा, ल्याव पानीय तैसा।
नमि जिनवर केरे, कञ्ज आभा सु हेरे, पद अमल घनेरे, पूजिये भक्ति प्रेरे।। ओं ह्रीं श्री नमिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा।
घसित ले पटीरं, शुद्ध जासों शरीर। भ्रमत भ्रमत तीरं, जो हरे सदा पीरं।। नमि जिनवर केरे, कञ्ज आभा सु हेरे, पद अमल घनेरे, पूजिये भक्ति प्रेरे।। ओं ह्रीं श्री नमिनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा।
चुनि चुनि सित आने, वेश तन्दुल बखाने। परम रुचिर जाने, देखि नैना लुभाने।। नमि जिनवर केरे, कञ्ज आभा सु हेरे, पद अमल घनेरे, पूजिये भक्ति प्रेरे।। ओं ह्रीं श्री नमिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
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सुमन सुमन पियारे, चारु मन्दार वारे । कलियन कहना रे, खूब फूले सिधारे।। नमि जिनवर केरे, कञ्ज आभा सु हेरे, पद अमल घनेरे, पूजिये भक्ति प्रेरे॥ ओं ह्रीं श्री नमिनाथजिनेन्द्राय कामवाणविनाशनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा।
चतुर जनन साजी, पक्व नैवेद्य ताजी । क्षुध रुजसि गमाजी, देखि चन्दा सुलाजी।। नमि जिनवर केरे, कञ्ज आभा सु हेरे, पद अमल घनेरे, पूजिये भक्ति प्रेरे। ओं ह्रीं श्री नमिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
बहु तिमिर नसावे, दीर्घ उद्योग ल्यावे । निज परहिं लखावे, दीप एवं बनावे।। नमि जिनवर केरे, कञ्ज आभा सु हेरे, पद अमल घनेरे, पूजिये भक्ति प्रेरे ॥ ओं ह्रीं श्री नमिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा।
दहन करत नीके, धूप नाना सुरंगी । जिह पर बहुभृगी, नृत्यते होय रंगी। नमि जिनवर केरे, कञ्ज आभा सु हेरे, पद अमल घनेरे, पूजिये भक्ति प्रेरे।। ओं ह्रीं श्री नमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।
फल शुकप्रिय नीके, आम्र नीबू न फीके। दरशन शुभ ही के, रत्नथारा भरीके।। नमि जिनवर केरे, कञ्ज आभा सु हेरे, पद अमल घनेरे, पूजिये भक्ति प्रेरे॥ ओं ह्रीं श्री नमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा।
गीता छन्द
जल गन्ध अक्षत सुमनमाला, चरु सु दीप जरायके । वर धूप नाना मधुर फल ले, अध्य शुद्ध बनायके || पदअमल आकृति देखि दुखहर, पूजिये हरषाय के। जो जजें भोगे अनुपम, इन्द पदवी पायके।
ओं ह्रीं श्री नमिनाथजिनेन्द्राय अनघ्यपदप्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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पंचकल्याणक - सोरठा विपुला माता जान, क्वांर वदी द्वितीया दिना।
गर्भ बसे भगवान, तिन पद पूजों अध्य सों।। ओं ह्रीं आश्विनकृष्णद्वितीयायां गर्भकल्याणकप्राप्ताय श्री नमिनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
वादि आषाढ़ तिथि वेश, दशमी जन्म लियो प्रभू।
नमत सकल अमरेश, तिन पद पूजों अध्य सों।। ओं ह्रीं अषाढकृष्णदशम्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्री नमिनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
भये दिगम्बर वेश, वदि आषाढ़ दशमी दिना।
लीनो आतम देश, तिन पद पूजों अध्य सों।। ओं ह्रीं अषाढकृष्णदशम्यां तपकल्याणकप्राप्ताय श्री नमिनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
ग्यारसि अगहन श्वेत, ज्ञानभाव उद्योत ते।
जीत अघाती खेत, तिन पद पूजों अध्य सों।। ओं ही मार्गशीर्षशुक्लैकादश्यां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्री नमिनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
चौदश वदि वैशाख, पर्वत सुभग समेद तें।
अष्टकरम करि राख, तिन पद पूजों अध्य सों।। ओं ही वैशाखकृष्णचतुर्दश्यां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्री नमिनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला - त्रिभंगी छन्द जय जय निसप्रेही, मुक्ति सनेही, हो निर्गेही, कुशल भये, जय जय सिंहासन, ऊपर आसन, करि वच भाषन, सुथलथये।
जय जय तह केरे, सुख बहुतेरे, भुगतत मेरे, कलुप हरो, जय जय नमि स्वामी, अन्तर्यामी, मनरंग को, निजदास करो।
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छन्द
जय मंगलरूप प्रताप धरे, करुणारस पूरित देव खरे। जगजीवन के मनभायक हो, नमिनाथनमों शिवदायक हो ।।
मन माख ने राखत एक रती, परमागम भाषत शुद्धमती । सुख इन्द्रिन केर नशायक हो, नमिनाथ नमों शिवदायक हो ।। लहि केवल तेरस ठाम ठये, अकलंक भये अरु दोष गये। सब ज्ञेय पदारथ ज्ञायक हो, नमिनाथ नमों शिवदायक हो । चतुरानन देखत पाप बिलै, दश चार रत्न नवनिद्धि मिलै। गणनायक के प्रभु नायक हो, नमिनाथ नमों शिवदायक हो। प्रभु मूरति आनन्दरूप बनी, दुति लञ्जित कोटि दिनेश तनी । तुम दीनन के दुखघायक हो, नमिनाथ नमों शिवदायक हो।।
समवस्सृत सार विभूति घनी, पद पूजत इन्द्र, नरेन्द्रगणी। जिनराज सदा सब लायक हो, नमिनाथ नमों शिवदायक हो । प्रभु कान्ति विलोकित मान हनी, दुति चन्द्रसकोच करी अपनी यममारण तीक्षणसायक हो, नमिनाथ नमों शिवदायक हो । । जगमाँहि कुतीरथ उत्थयिता तुमभूरि उधार करे पतिता। प्रभुतीरथ के प्रभुपायक हो, नमिनाथ नमों शिवदायक हो ।।
भव अर्णव पार उतीर्णभये, प्रभुआप तरे पर तार किये। तिहुँलोकन मांहि सहायक हो, नमिनाथ नमों शिवदायक हो ।। अरिहन्त स्वरूप विशल लहो, इषकेतन मारण लोभ दहो । चब घातिय कम्र्म क्षपायक हो, नमिनाथ नमों शिवदायक हो । प्रभु मागधि भाष खिरे सुथरी, मुनि जीवन की सब भ्रांति हरी । चवेदन के प्रभु गायक हो, नमिनाथ नमों शिवदायक हो ।।
सिगकारज करि कृतकृत्य भये, गुणपूरित आनदलेत भये। भट मोह की चोट बचायक हो, नमिनाथ नमों शिवदायक हो ।
इकनाथ बिना सिगरी कछुना, तिहितें शरण गहिये अधुना।
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ममता हरता निकषाय कहो, नमिनाथ नमों शिवदायक हो ।। कविराज थकेबुधि मो कितनी, वरणों कहलो छविनाथ तनी । तुम भाव धरे शुभदायक हो, नमिनाथ नमों शिवदायक हो ।।
छन्द
श्री नमिनाथ जिनेश कृपाकर, की जयमाल महासुखकारी, जानि मने निज कण्ठ धरे नर, सो सब सौक्ख करे नितजा । जाकर त चले दिविसे, अमराधिप आय करे बहुधारी, कोकहि बात बढ़ावहि जाकह, आपुन आप मिले शिवनारी। ओं ह्री श्री नमिनाथजिनेन्द्राय सर्वसुखप्राप्तये पूर्णार्घ्यम्। सोरठा
भोमनाथ दयाल, ऋद्धि सिद्धिदायक सदा । तुम प्रसाद जग - पाल, आनंद बरतो भविन के ||
ओं ह्रीं श्री नमिनाथजिनेन्द्राय नमः । (इस मंत्र की जाय देना)
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।।
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श्री नेमिनाथ जिन-पूजा ( रचयिता कविवर मनरंगलाल )
स्थापना- गीता छन्द
शुभ नगर द्वारावती राजत, समुद-विजय प्रजापती, तसु गेह देवी शिवा ताके, नेमिनाथ भये जती। तन श्याम वर्ष हजार आर्वल, धनुष दश से शोभितम्, यदुवंशकुलमणि शंख लक्षण, धर्यो तजि अपराजितम्। दोहा
-
समुदविजय के लाड़ले, पशुन छुड़ावन हार । रजमति बाला त्यागि के, जाय चढ़े गिरनार || तहँ शुभ आतमध्यान धरि, पायो केवल - ज्ञान। शिवदेवी के नन्दवर, यहाँ विराजो आन
ओं ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (इति आह्वाननम्)
ओं ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठौ तिष्ठौ ठः ठः । (स्थापनम् ) ओं ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट् (सन्निधिकरणम्)
गीता छन्द
शुभ कुम्भ कञ्चन सों जडित मुख, कलश आकृतिको किये, भरवाय तिनमधि अमल पय पय, सममधुर शुचिता लिये।
श्री नेमिनाथ जिनेन्द्र के, चरणारबिन्द निहारि के, करि चित्तचातक चतुर चर्चित, जजत हूँ हितवारिके। ओं ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा।
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ले स्वेतचन्दन कृष्ण अगर, कपूर वासित शीतलम्, तसु गन्धवस मधुपावली, मदमत्त नृत्यत कैकल।।
श्री नेमिनाथ जिनेन्द्र के, चरणारबिन्द निहारि के,
करि चित्तचातक चतुर चर्चित, जजत हूँ हितवारिके। ओं ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं खण्ड एकौ सब अखण्डित, ल्याय अक्षत पावने, दिशि विदिशि जिनकी महककरि, महकै लगे मनभावने।।
श्री नेमिनाथ जिनेन्द्र के, चरणारबिन्द निहारि के,
करि चित्तचातक चतुर चर्चित, जजत हूँ हितवारिके। ओं ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
मनहरन वर्ण विशाल फूले, कमल कुन्द गुलाब के, केतकी चम्पा चारु मरुवा, पुष्प आव सुताव के।। श्री नेमिनाथ जिनेन्द्र के, चरणारबिन्द निहारि के,
करि चित्तचातक चतुर चर्चित, जजत हूँ हितवारिके। ओं ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय कामवाणविनाशनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा।
पक्कान्न पूरित गायघृत सों, मधुर मेवा वासितम्, गोक्षीर मिश्रित थारभरिभरि, क्षध पीर विनाशतम्।। श्री नेमिनाथ जिनेन्द्र के, चरणारबिन्द निहारि के,
करि चित्तचातक चतुर चर्चित, जजत हूँ हितवारिके। ओं ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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कञ्चन कटोरी मांही वाती, बारि के घनसार की, प्रभुपास धरत मिलतमग भव उदधि के उसपारकी।।
श्री नेमिनाथ जिनेन्द्र के, चरणारबिन्द निहारि के,
करि चित्तचातक चतुर चर्चित, जजत हुँ हितवारिके। ओं ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा।
अतिज्वलित ज्वाला मांहि खेवत, धूप धूम्र सुहावनी, वश गंध भौंरा पुञ्जता पर, करत रब सुख-वासिनी।।
श्री नेमिनाथ जिनेन्द्र के, चरणारबिन्द निहारि के,
करि चित्तचातक चतुर चर्चित, जजत हूँ हितवारिके। ओं ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।
फल आम्रदाडिम बर कपित्था, लाँगली अरु गोस्तनी,
खरबूज पिस्ता देवकुसुमा, नवल पुंगी पावनी।। श्री नेमिनाथ जिनेन्द्र के, चरणारबिन्द निहारि के,
करि चित्तचातक चतुर चर्चित, जजत हूँ हितवारिके। ओं ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा
जल गन्ध अक्षत् चारु पुष्प, नैवेद्य दीप प्रभाकरम्, वर धूप फल करि अध्य सुन्दर, नाग आगे ले धरम्।।
श्री नेमिनाथ जिनेन्द्र के, चरणारबिन्द निहारि के,
करि चित्तचातक चतुर चर्चित, जजत हूँ हितवारिके। ओं ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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पंचकल्याणक कातिक मास सुदी छठिके दिन, श्रीजिन नेमिप्रभु सुखकारी। गर्भ रहे यदुवंश प्रकाशक, भासत भानु समान सम्हारी।। मात शिवा हरषी मन में जनु, आज प्रसूति जनी महतारी।
सो दिन आज विचार यहाँ हम, पजत अध्य सँजोय के भारी।। ओं ह्रीं कार्तिकशुक्लषष्ठयां गर्भकल्याणकप्राप्ताय श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय अध्यम्।
श्रावण की शुक्ला छठि के दिन, जन्मत पातक दूर पलाने। जानि सुरेश गयो विधिपूर्वक, मात घरै जहँ आनन्द ठाने।। जाय शची धरि बालक दूसर, लेय जिनेश्वर होत रवाने।
जन्माभिषेक कियो उनने हम, अध्य चढ़ावत आनंद माने।। ओं ह्रीं श्रावणशुक्लषष्ठ्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
साजि चले यदुवंश शिरोमणि, व्याहन काज निशान वजाये। देखि पशू दुखिया बिललात कहो प्रभु ये किहि काज घिराये।।
सारथि के मुखतें सुनि बात, उदस भये पशुवान छड़ाये।
योग धर्यो छठि श्रावणकी, शुक्ला दिन जानिके अध्य चढ़ाये।। ओं ह्रीं श्रावणशुक्लषष्ठयां तपकल्याणकप्राप्ताय श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
लेकर योग रहे दिन छप्पन, लों छद्मस्थ प्रभू शिवगामी। क्वांर सुदी परिवा के दिना चव, घातिय घाते अन्तर्यामी।। केवलज्ञान लहो भगवान, दिवाकर भान भये जिनस्वामी।
सो दिन आप चितारी यहाँ, हम अध्य चढ़ावत हैं जिननामी।। ओं ह्रीं आश्विनशुक्लप्रतिपदायां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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मास अषाढ़ सुदी सातें गिर, नार पहारतें कीन्ह पयाना। जाय वसे शिवमन्दिर मांझ, अनन्त जहां सुखको नहिं माना।
जात मोक्ष कल्यान तबै, शचिनाथ समेत सवै गिरवाना। पूजि यथाविध गे घर सो हम पूजत अघ्य लिये तजिमाना।।
ओं ह्रीं आषाढशुक्लसप्तम्यां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जय यादव वर वंश तने श्रृंगार विश्वपति । जय पुरुषोत्तम कमलनयन प्रभु देत सुगति गति।
जय अनमित वर ज्ञान धरत वैकुण्ठ - विहारी । जय मिथ्यातम-तिमिर-हरन -सूरत हितकारी । तोटक छन्द
जय नेमि सदा गुणवास नमों, जय पूरहु मो मन आश नमों। जय दीन हितो मम दीन पनो, करि दूरी प्रभू पद दे अपनो।। जय कालिमा लोक तनी सगरी । तसु नाशन को तुम मेघ-झरी । जय दीन हितो मम दीन पनो, करि दूरी प्रभू पद दे अपनो।। जय काल वृकोदर नाशक हो मत जैन महान प्रकाशक हो । जय दीन हितो मम दीन पनो, करि दूरी प्रभू पद दे अपनो।। घनश्याम जसा तन श्याम लहो । घननाद बरोबर नाद लहो ||
जय दीन हितो मम दीन पनो, करि दूरी प्रभू पद दे अपनो।। जय लोक पितामह लोक दही । पितु मात घरै कुलचन्द सही जय दीन हितो मम दीन पनो, करि दूरी प्रभू पद दे अपनो।। तुम सोचत सोच न होत कदा। जय पूरित आनंदजाल सदा।। जय दीन हितो मम दीन पनो, करि दूरी प्रभू पद दे अपनो।। जय ज्ञान रतन्न तनीक्षिति हो। तुम राखत दसन की मिति हो । जय दीन हितो मम दीन पनो, करि दूरी प्रभू पद दे अपनो।। जयनाशत हो भव भ्रामरिका । तुम खोल दई शिव - पामरिका।। जय दीन हितो मम दीन पनो, करि दूरी प्रभू पद दे अपनो।।
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तुम देखत पाप पहार बिले। तुम देखत सज्जन कञ्चन खिले।। जय दीन हितो मम दीन पनो, करि दरी प्रभू पद दे अपनो।। तुम लोक तने शुभ भूषण हो। जिनराज सदा गतदूषण हो।। जय दीन हितो मम दीन पनो, करि दूरी प्रभू पद दे अपनो।।
तुम नाम जहाज चढ़े नर जे। वे पार भये सुखभाजन जे।। जय दीन हितो मम दीन पनो, करि दूरी प्रभू पद दे अपनो।।
कसमायध मारन हार भले। वस-कर्म महान कठोर दले।। जय दीन हितो मम दीन पनो, करि दूरी प्रभू पद दे अपनो।। तुमसे तुम ही नहिं दूसर को। सब छांडि ममत्तदया पर को।। जय दीन हितो मम दीन पनो, करि दूरी प्रभू पद दे अपनो।। तुम पाद तनी रज शीश धरे। जन सो शिवकामिनि जाय वरे।। जय दीन हितो मम दीन पनो, करि दूरी प्रभू पद दे अपनो।। प्रभुनेमि निशाप निसाप करो। मनरंग तनी मन-पीर हरो।। जय दीन हितो मम दीन पनो। कर दूर प्रभू पद दे अपनो।। यह शिवानन्द प्रभु नेमिचन्द्र की, गुणगर्भित जयमाला जो पढ़े पढ़ावे मन वच तनसों, निज दर से दर हाल। पातक सब चूरे, आनन्द पूरे, नासे यम की चाल।
पूरन पद होई लखे न कोई, भाषत मनरंजलाल। ओं ही श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय सर्वसुखप्राप्तये पूर्णार्घ्यम्।
सोरठा समुदविजय के नन्द, नेमिचन्द करुणायतन। तोरि देउ जग-फंद, जो स्वच्छन्द वरतै भविक।
ओं ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय नमः।
(इस मंत्र की जाप्य देना) ॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री पार्श्वनाथ जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल)
स्थापना- गीता छन्द नगरी बनारसि अश्वसेन सु, पिता वामा मात है। तजिस्वर्ग प्राणत पार्श्वस्वामी, लसत नवकार गात है। इक्ष्वाकुवंशी भुजंग लक्षण, वर्ष इकशत आव है। घनश्याम इव तन धरत आभा, देखि मो मन चाव है।
दोहा हे पारस भगवान अब दया-सिन्धु गम्भीर।
यहां आय तिष्ठो प्रभो, उसरि जाय भवपीर।। ओं ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (इति आह्वाननम्)
ओं ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठौ तिष्ठौ ठः ठः। (स्थापनम्) ओं ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
पन्नग ठकुराई, सहजै पाई, तुम वच सुनके, पवन भखी। तिनकी ठकुराई कहिय न जाई, प्रभु प्रभुताई, यह सुलखी। वामा के प्यारे, जग उजयारे, जल सों थारे, पद परसों।
जिन परसे सारे, पातक जारे, और सँवारे, शिव दरसों। ओं ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा।
सो भुजंग गुसाई, पुनि इतआई, फणकी छाई, करत भली। ताकरि मद हार्यो कमठ विचार्यो, प्रभुढिग धार्यो शीस चली। वामा के प्यारे, जग उजियारे, गंध सों थारे, पद, परसों।।
जिन परसे सारे, पातक जारे, और सँवारे, शिव दरसों। ओं ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा।
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प्रभुकेवल पाया ऐलविल आया, रुचिर बनाया, समवसृतं। तामांहि विराजे सूरज लाजे, इमि छवि छाजे, कहत श्रुतं। वामा के प्यारे, जग उजियारे, अक्षत सों थरे, पद, परसों।।
जिन परसे सारे, पातके जारे, और सँवारे, शिव दरसों। ओं ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
आसन तें सूचे, अंगुल ऊँचे, चव चव आनन, नाथ भये। तिनतें सुखदानी, खिरत सुवानी, सुनि भवि प्रानी सुगति गये। वामा के प्यारे, जग उजियारे, पुष्पसों थारे, पद, परसों।।
जिन परसे सारे, पातके जारे, और सँवारे, शिव दरसों। ओं ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामवाणविनाशनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा।
कछु इच्छा नाहीं, विन डग धारी, होत विहारी, परम गुरू। जिन प्राणिन केरा, तरव सबेरा, तितै नाथ मग होतसुरू। वामा के प्यारे, जग उजियारे, चारू सों थारे, पद, परसों।।
जिन परसे सारे, पातक जारे, और सँवारे, शिव दरसों। ओं ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा
बहु देशन माँही, प्रभु विहराहीं, भविजीवन, सम्बोधि दये। मिथ्यामत भारी, तिमिर विदारी, जिनमत रीजा करत भये। वामा के प्यारे, जग उजियारे, दीप सों थारे, पद परसों।।
जिन परसे सारे, पातक जारे, और सँवारे, शिव दरसों। ओं ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा।
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सो छवि हि तिहारी, आनंदकारी, रोज हमारी, पीर हरे। जाकी दुति भारी, जग विस्तारी, दरसतकारी, घननिंदरे। वामा के प्यारे, जग उजियारे, धूप सों थारे, पद, परसों।।
जिन परसे सारे, पातक जारे, और सँवारे, शिव दरसों। ओं ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु पारस स्वामी, अर्लामी, हो बड़नामी विश्वपती, थारे गुणगाऊँ, शीस नवाऊँ, बलि बलि जाऊँ, दे सुगती। वामा के प्यारे, जग उजियारे, फल सों थारे, पद, परसों।।
जिन परसे सारे, पातक जारे, और सँवारे, शिव दरसों। ओं ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा।
जल चन्दन शुभ अक्षत, पुष्प सुहावने। दीपक चरु वर धूप, फलौध सु पावने।
ये वसु द्रव्य मिलाय, अध्य कीजे महा।
तुम पद जजत निहाल, होत औ हित कहा। ओं ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक वैशाख वदी दतिया के, दिन गर्भ रहे निज मां के।
वाता उर आनंद बाढ़े, हम अध्य चढ़ावत ठाँड़े। ओं ह्रीं वैशाखकृष्णद्वितीयायां गर्भकल्याणकप्राप्ताय श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
वदि पौष इकादशि जानी, प्रभु जन्म लिये सुखखानी।
करि अध्य यहां हम ध्यावें, मनवांछित सुख अब पावें। ओं ह्रीं अषाढकृष्णएकादश्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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लखि पौष एकादशि कारी, प्रभु तादिन केश उपारी। तप काज रहे वन मांहीं, हम यहां पर अध्य चढ़ाहीं ॥
ओं ह्रीं अषाढ़ कृष्ण एकादश्यां तपकल्याणकप्राप्ताय श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अघ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
तिथि चैत्र चतुर्थी कारी, भये केवलपद के धारी। इन्द्रादिक सेवन आये, हमहूँ यहां अघ्य चढ़ाये।
ओं ह्रीं चैत्रकृष्णचतुथ्र्याम् ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
सुदि सातें श्रावण मासा, सम्मेद थकी गुण-वासा। लीन्हीं शिव की ठकुराई, पद पूजत अघ्य चढ़ाई।
ओं ह्रीं श्रावणशुक्लसप्तम्यां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला - त्रिभंगी छन्द
जय पारस देवा, आनंद देवा, सुरपति सेवा, करत रहें। जय जय अरिहन्ता, देह महन्ता, ध्यावत सन्ता दुख न लहे। जय दिगपटधारी, गगन विहारी, पाप प्रहारी, छवि सुथरी । जय जय कुलमंडन, विपति विहंडन, दुरमतिखंडन, मुकतिवरी। पद्धरि छन्द
जय अश्वसेन कुल-गगन-चन्द, जय वामा देवी के सुनन्द। जय पाशनाह (पार्श्वनाथ) भवभीर टाल, कर दे स्वमी अब के निहाल | जय-दुरित-तिमिर-नाशन पतंग। जय भविक कमल लखि होत दंग ।।
जय पाशनाह भवभीर टाल, कर दे स्वमी अब के निहाल || जय अजर अमर पद धरनहार। जय दुखी दुःख भंजन विचार। जय पास-नाह भव-भीर टाल कर दे वामी अब के निहाल || जय धारि पंचमा अचल ज्ञान। पंचमगति लीन्हीं सो महान || जय पाशनाह भवभीर टाल, कर दे स्वमी अब के निहाल || जय पंच-भाव धारन महन्त । सब भव-रोगन का करो अन्त ॥
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जय पाशनाह (पार्श्वनाथ) भवभीर टाल, कर दे स्वमी अब के निहाल।।
जय करत पुनीत पुनीत आप। जय दारिद-भंजन नाथ जाप।। जय पाशनाह भवभीर टाल, कर दे स्वमी अब के निहाल।। जय सिद्धि-शिला के वसनहार। जय ज्ञानमई चेतन प्रकार ।। जय पाशनाह भवभीर टाल, कर दे स्वमी अब के निहाल।। जय चिन्तितार्थ फल देत रोज। जो ध्यावे ताको खोज खोज।। जय पाशनाह भवभीर टाल, कर दे स्वमी अब के निहाल।। जय धन्य धन्य स्वामी दयाल। जय दीनबन्धु तुम लोकपाल ।। जय पाशनाह भवभीर टाल, कर दे स्वमी अब के निहाल।। जय तुम पदतर की रेणु अंग। जो धरे लहै सो छवि अनंग।। जय पाशनाह भवभीर टाल, कर दे स्वमी अब के निहाल।। जय तुम कीरति छाई जहान। चहुँधा छिटकी फूल समान।। जय पाशनाह भवभीर टाल, कर दे स्वमी अब के निहाल।। तुम अकथ कहनी कथै जौन। काकी मति एती है सु कैन।। जय पासनाह भव-भीर टाल। कर दे स्वामी अब के निहाल।। नित थके शेष के कथन गाय। नर दीनन को कह कथन आय।।
जय पाशनाह भवभीर टाल, कर दे स्वमी अब के निहाल।। जय करत अरज मनरंगलाल। हम पर किरपानिधि हो दयाल।। जय पाशनाह भवभीर टाल, कर दे स्वमी अब के निहाल।।
शार्दूल विक्रीडित छन्द या जयमाला पार्श्वनाथ जिनकी, आनन्दकारी सदा। जो धारे निजकण्ठ भाव धरिके, देखे न नीचे कदा।। ऊँचे ऊँचे पद लहत नर सो, ताकी कहों का कथा। पाछे भौदधि पार लेय सुख सों, आनन्द पावे यथा।। ओं ही श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय सर्वसुख प्राप्तये पूर्णार्घ्यम्।
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छन्द
जेते प्राणी मोह ने बांधि डारे, औरों के ते द:ख दीये निवारे। तेते धारे पादकी आश लावें, जासों जाकी श्रृंखला तोरि पावें।
ओं ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय नमः। (इस मंत्र की जाप्य देना)
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री वर्धमान जिन-पूजा (रचयिता - कविवर मनरंगलाल)
स्थापना- गीता छन्द शुभ नगर कुण्डलपुर सिद्धारथ, राय के त्रिसला तिया। तजि पुष्प उत्तर, तासु कुक्ष्या, वीर जिन जन्मन लिया।
कर सात उन्नत कनक सो तनु वंश वर इक्ष्वाकु है। है अधिक सत्तरि वरस आयुष, सिंह चिन्ह भला कहै।।
मालिनी छन्द सो जिन वीर दयानिधिके युग, पाद पुनीत पुनीत करेंगे। व्याधि मिटाव भवोदधिकी गुण, गावत गावत पार करेंगे। जावत मोक्ष न होय हमें शुभ, तावत स्थापन रोज करेंगे।
आय विराजहु नाथ इहां, हम पूजिके पुण्य भंडार भरेंगे। ओं ह्रीं श्री वर्धमानजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (इति आह्वाननम्) ___ओं ह्रीं श्री वर्धमानजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठौ तिष्ठौ ठः ठः। (स्थापनम्) ओं ह्रीं श्री वर्धमानजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट् ।(सन्निधिकरणम्)
अष्टकम् द्रुतविलम्बित छन्द कनक-कुम्भ सुवारि भराय के, विमले-भाव त्रिशुद्ध लगाय के।
चरम-देव जिनेश्वर वीर के, चरण पूजत नाशक पीर के।। ओं ह्रीं श्री वर्धमानजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा।
परम चन्दन शीतल वामना, करि सु केसर-मिश्रित पावना।
चरम-देव जिनेश्वर वीर के, चरण पूजत नाशक पीर के।। ओं ह्रीं श्री वर्धमानजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा।
धवल अक्षत चाव बढ़ाव ही। करि सु पुञ्ज महा मन भाव ही।।
चरम-देव जिनेश्वर वीर के। चरण पूजत नाशक पीर के।। ओं ह्रीं श्री वर्धमानजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
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पहुप माल बनाय हिराय के। जुगति सों प्रभु पास लियाय के।।
चरम-देव जिनेश्वर वीर के। चरण पूजत नाशक पीर के।। ओं ह्रीं श्री वर्धमानजिनेन्द्राय कामवाणविनाशनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा।
नवल घेवर बाबर लाय के। घृत सुलोलित पूव बनाय के।।
चरम-देव जिनेश्वर वीर के। चरण पूजत नाशक पीर के।। ओं ह्रीं श्री वर्धमानजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
करि अमौलक रत्न-मई दिया। जगत-ज्योति उदोत मई किया।।
___ चरम-देव जिनेश्वर वीर के। चरण पूजत नाशक पीर के।। ओं ह्रीं श्री वर्धमानजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा।
उठत धूम घटावलि जासु ते। हम सु धूप सुगन्धित तासु ते।।
चरम-देव जिनेश्वर वीर के। चरण पूजत नाशक पीर के।। ओं ह्रीं श्री वर्धमानजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।
पनस दाडिम आम्र पके भये, कनक-भाजन में भरके लिये।।
चरम-देव जिनेश्वर वीर के। चरण पूजत नाशक पीर के।। ओं ह्रीं श्री वर्धमानजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा।
अरघ ले शुभ भाव चढ़ाव के। धवल मंगल तूर जाय के।।
चरम देव जिनेश्वर वीर के। चरम पूजत नाशक पीर के। ओं ह्रीं श्री वर्धमानजिनेन्द्राय अनध्य पद प्राप्तये अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक - गाथा छन्द मास अषाढ़ सुदी में, षष्ठी दिन जान महासुखकारी।
त्रिशला गर्भ पधारे, तुम पद जजत अध्य सिरधारी।। ओं ह्रीं अषाढकृष्णषष्ठयां गर्भकल्याणकप्राप्ताय श्री वर्धमानाजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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चैत्र त्रयोदशि उजयारी, ता दिन जनमे प्रभाव विस्तारी।
अध्य महाकर धारी, जजत तिहारे चरण हितकारी।। ओं ह्रीं चैत्रशुक्लत्रयोदश्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्री वर्धमानजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
दशमी अगहन वदिमें, लखि जगअथिर भये वैरागी।
प्रभू महाव्रत धारे, हम पूजत होय बढ़भागी।। ओं ह्रीं मगशिरकृष्णदश्म्यां तप कल्याणकप्राप्ताय श्री वर्धमानजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञानी हवे, दशमी वैशाख सुदी के मांहीं।
सकल सुरासुर पूजे, हम इह पदलखि अध्य चढ़ाहीं।। ओं ह्रीं वैशखशुक्लदशम्यां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्री वर्धमानजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
कार्तिक नष्टकला दिन, पावापुर के गहन तें स्वामी।
मुकति तिया परनाई, हम चरण पूजि होत बढ़ नामी।। ओं ह्रीं कार्तिकामावस्यायां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्री वर्धमानजिनेन्द्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला - झूलना छन्द वीर-जिन धीरधर सिंह पग चिन्ह धर, तेज तप धरन जया शुर मारी। धर्म की धुराधर अखर विनु गिराधर, परमपद धरन जय मदनहारी।। दयाधर सीमांधर पंचवर नामधर, अमल छवि धरण जग शरमकारी। पंचापरावर्त की भर्मणा ध्वंसि के, अचलपद लहत जय जस विथारी।।
तोटक छन्द जय आनंद के घन वीर नामों, जय नाशक हो भव-भीर नमों। जय नाथ महासुखदायक हो, यमराज-विहंडन लायक हो।।1।।
जय चरमशरीर गंभीर नमों, जय चरम तीर्थंकर धीर नमों। जय लोक अलोक प्रकाशक हो, जन्मान्तर के दुख-नाशक हो।।2।।
जय कर्म-कुला-चल छेद नमों, जय मोह बिना निरखेद नमों।
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जय पूज्य प्रतार सदा सुथरा, प्रगठी चहुँ ओर प्रशस्त गिरा।।3।।
तनु सात सुहाथ विशाल नमों, कनकाभ महा दशताल नमों। शुभमूरति मो मन मांहि वसी, सिगरी तब ते भव-भ्रान्ति नसी।।4।।
जय क्रोध-दवानल-मेह नमों, जय त्याग करो जग नेह नमों। जय अम्बर छांडि दिगम्बर भये, गति अम्मर की धरि अम्मर भये।।5।।
जय धारक पंच-कल्याण नमों, जय रोज नमें गुणवान नमो। जय पाद गहे गणराज रहें शचि-नायक सो मुहताज रहें।।6।। जय भव-दधि-तारन-सेत नमों, जय जन्म उधारन हेत नमों। जय मूरति नाथ भल दरसी, करुणामय शान्ति क्षपाकरसी।।7।।
जय सार्थक नाम सुवीर नमों, जय धर्म धुरन्धर धीर नमों। जय ध्यान महान तुरी चढ़ के, शिव खेत लियो अति ही बढि के।।8।
जय पार न वार अपार नमों, जय मान बिना निरधार नमों। जय रूप रमाधर तो कथनी, कथि पार न पावत नाग-धनी।।9।।
जय देव महा-कृतकृत्य नमों, जय जीव उधारन व्रत्य नमों। जय अस्त्र बिना सब लोक जई, ममता तुमतें प्रभु दूर गई।।10।।
जय केवल-लब्धि नवीन नमों, सब वातन में परवीन नमों। जय आत्म्-महा-रस पीवन हो, तुम जीवन मूरत जीवन हो।।11।।
जय तारन देव सिपारस मो, सुनि ले चित दे इह वारस मो। दुख-दूषित मो मन की मनसा, नहिं होत अराम इकौ झिन सा।।12।।
तकि तो पद भेषज नाथ भले, तुम पास गरीब नि बाज चले। मन की मनसा सब पूरन को, तुम ही इहि लायक दूज न को।।13।।
इहि कारज के तुम कारण हो, चित लाय सुनो तुम तारण हो। जग-जीवन के रखपाल भले, जय धन्य धन्य किरपाल मिले।।14।।
सब मो मन की मनसा पुजि है, अब और कुदेव नहीं सुझि है। सुझि है तुमरे गुन गावन की, बुझि है तृष्णा भरमावन की।।14।।
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काव्य छन्द
पूरण यह जयमाल भई अन्तिम जिन के | पढ़त सुनत मनरंग कहै नसि है भव फेरी ॥ बस है शिवथल मांहि जहां काया नहिं हेरी ।
ज्ञान मई भगवान जाय ह्वै हैं गुण ढेरी || हरो मोहत जाल हाल शिवबाल निहारो। हरो मिथ्या जाल नाल चहूँ कित्ति पसारो ।। सारी कारज वेस लेस सम मान न धारो । धारो निजगुण चित्त मित्त जिनराज पुकारो। मरो न एकै काल माल विद्या की डारो । भारभार दुनिआवी जारो
जारो नहीं निज रीति प्रीति दुरगति की मारो। मारो सन्निधि होय दोह रंचक न विचवरो ।। ओं ह्री श्री वर्धमानजिनेन्द्राय सर्वसुखप्राप्तये पूर्णार्घ्यम्।
छप्पन-छन्द
होहु अनंग स्वरूप भूप को पद विस्तारो । तारो अपने न कुलै भुलैमद माया टारो || टारहु नहिं निज आनि, वानि ममता की गारो । गारौ ना कुलकानि, जानि के मदन प्रहारो मनरंग कहत धन्य धान्य, अरु पुत्र पौत्र करि घर भरो। श्रीवीरनाथ जिनराज तें, तुमको ये कारज सरो।।
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छन्द
विषस्थल सम होय, शत्रु मित्रत्व विचारे। सुत अर्थी सुत लहे, निर्धनी मरै भंडारे।। रोगी होय अरोग, शोक की भूमि विदारे।
नीचकुली कुल लहे, कुरूपी रूप सम्हारे। मन वचन काय जो पाठ यह, पढ़े पढ़ावे सुने नित। मनरंगलाल ता पुरुष को, देख इन्द्र होवे चकित।।
।। इति श्री चतुर्विंशति जिनपूजन।।
ओं ह्रीं श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः।
(इस मंत्र की जाप्य देना)
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।।
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श्री आदिनाथ जिन पूजन (रचयिता - जिनेश्वरदास)
नाभिराय मरुदेवि के नन्दन, आदिनाथ स्वामी महाराज, सर्वार्थसिद्धि तैं आप पधारे, मध्य लोक माँहिं जिनराज । इन्द्रदेव सब मिलकर आये, जन्म महोत्सव करने काज,
आह्वानन सब विधि मिलकरके, अपने कर पूजें प्रभु पाद ॥ ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । (इति आह्वाननम्)
___ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम्) ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (सन्निधिकरणम्)
क्षीरोदधि को उज्ज्वल जल ले, श्री जिनवर पद पूजन जाय। जन्म जरा दुःख मेटन कारन, ल्याय चढ़ाऊँ प्रभु जी के पाय ॥ श्री आदिनाथ के चरण कमल पर, बलि-बलि जाऊँ मन वच काय ।
हे करुणानिधि भव दुःख मेटो, या” मैं पूजों प्रभु पाय ॥ ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि चन्दन दाहनिकन्दन, कंचन झारी में भर ल्याय । श्री जी के चरण चढ़ावो भविजन, भव आताप तुरत मिट जाय ॥ श्री आदिनाथ के चरण कमल पर, बलि-बलि जाऊँ मन वच काय ।
हे करुणानिधि भव दुःख मेटो, याते मैं पूजों प्रभु पाय ॥ ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।
शुभशालि अखंडित सौरभ मंडित, प्रासुक जल सौं धोकर ल्याय।
श्रीजी के चरणचढ़ावो भविजन, अक्षयपद को तुरत उपाय ॥ श्री आदिनाथ के चरण कमल पर, बलि-बलि जाऊँ मन वच काय ।
हे करुणानिधि भव दुःख मेटो, यात्रै मैं पूजों प्रभु पाय ॥ ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
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कमल केतकी बेल चमेली, श्री गुलाब के पुष्प मँगाय । श्री जी के चरण चढ़ावो भविजन, कामबाण तुरतहि नसि जाय । श्री आदिनाथ के चरण कमल पर, बलि-बलि जाऊँ मन वच काय ।
हे करुणानिधि भव दुःख मेटो, या मैं पूजों प्रभु पाय ॥ ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
नेवज लीना षट्-रस भीना, श्री जिनवर आगे धरवाय। थाल भराऊँ क्षुधा नसाऊँ , जिन गुण गावत मन हरषाय ॥ श्री आदिनाथ के चरण कमल पर, बलि-बलि जाऊँ मन वच काय ।
हे करुणानिधि भव दुःख मेटो, या” मैं पूजों प्रभु पाय ॥ ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
जगमग जगमग होत दशों दिश, ज्योति रही मन्दिर में छाय।
श्री जी के सन्मुख करत आरती, मोहतिमिर नासै दुखदाय ॥ श्री आदिनाथ के चरण कमल पर, बलि-बलि जाऊँ मन वच काय ।
हे करुणानिधि भव दुःख मेटो, याते मैं पूजों प्रभु पाय ॥ ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
अगर कपूर सुगन्ध मनोहर चन्दन कूट सुगन्ध मिलाय । श्री जी के सन्मुख खेय धूपायन, कर्म जरे चहुँगति मिटि जाय ॥ श्री आदिनाथ के चरण कमल पर, बलि-बलि जाऊँ मन वच काय ।
हे करुणानिधि भव दुःख मेटो, यातें मैं पूजों प्रभु पाय ॥ ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
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श्रीफल और बादाम सुपारी, केला आदि छुहारा ल्याय । मोक्ष महाफल पावन कारन, ल्याय चढ़ाऊँ प्रभु के पाय ॥ श्री आदिनाथ के चरण कमल पर, बलि-बलि जाऊँ मन वच काय ।
हे करुणानिधि भव दुःख मेटो, याते मैं पूजों प्रभु पाय ॥ ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
शुचि निर्मल नीरं गन्ध सुअक्षत, पुष्प चरु ले मन हरषाय
दीप धूप फल अर्घ सुलेकर, नाचत ताल मृदंग बजाय ॥ श्री आदिनाथ के चरण कमल पर, बलि-बलि जाऊँ मन वच काय ।
हे करुणानिधि भव दुःख मेटो, या” मैं पूजों प्रभु पाय ॥ ॐ ह्रीं आदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
पञ्चकल्याणक का अर्घ सर्वारथ सिद्धि तैं चये, मरुदेवी उर आय ।
दोज असित आषाढ़ की, जनँ तिहारे पाय ॥ ॐ ह्रीं आषाढकृष्णद्वितीयायां गर्भकल्याणकप्राप्ताय श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
चैतवदी नौमी दिना, जन्मया श्री भगवान ।
सुरपति उत्सव अतिकरा, मैं पूजौं धरि ध्यान ॥ ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णनवम्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
तृणवत् ऋद्धि सब छाँड़ि के तप धार्यो वन जाय ।
नौमी चैत्र असेत की, जनँ तिहारे पाय ॥ ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णनवम्यां तपःकल्याणकप्राप्ताय श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
फाल्गुन वदि एकादशी, उपज्यो केवलज्ञान ।
इन्द्र आय पूजा करी, मैं पूजों इह थान ॥ ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्ण-एकादश्यां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
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माघ चतुर्दशि कृष्ण की, मोक्ष गये भगवान ।
भवि जीवों को बोधि के, पहुँचे शिवपुर थान ॥ ॐ ह्रीं माघकृष्णचतुर्दश्यां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला आदीश्वर महाराज मैं विनती तुमसे करूँ। चारों गति के माँहिं मैं दुःख पायो सो सुनो ॥ अष्ट कर्म मैं एकलो, यह दुष्ट महादुख देत हो। कबहूँ इतर निगोद में मोकूँ, पटकत करत अचेत हो ।
म्हारी दीनतणी सुन वीनती।टेक ॥ प्रभु कबहूँक पटक्यो नरक में, जठै जीव महादुख पाय हो । निष्ठुर निरदई नारकी, जठै करत परस्पर घात हो ।
म्हारी दीनतणी सुन वीनती।। प्रभु नरक तणां दुःख अब कहूँ, जठै करत परस्पर घात हो।
कोइयक बाँध्यो खंभस्यो, पापी दे मुदगर की मार हो । कोइयक काटें करोत सों, पापी अंगतणी दोयफाड़ हो ।
म्हारी दीनतणी सुन वीनती॥ प्रभु यहविधि दुःख भुगत्याघणां, फिर गति पाई तिरयंच हो।
म्हारी दीनतणी सुन वीनती॥ हिरणा बकरा बाछला, पशु दीन गरीब अनाथ हो। पकड़ कसाई जाल में, पापी काट काट तन खाय हो ।
म्हारी दीनतणी सुन वीनती॥ प्रभु मैं ऊंट बलद भैंसा भयो जा लादियो भार अपार हो। नहिं चाल्यौ जब गिर पडयो, पापी दे सोटन की मार हो।
म्हारी दीनतणी सुन वीनती॥ प्रभु कोइयक पुण्य संजोग , मैं तो पायो स्वर्ग निवास हो। देवांगना संग रमि रह्यो जठै भोगनि को परकास हो।
___ म्हारी दीनतणी सुन वीनती॥ प्रभु संग अप्सरा रमि रह्यो, कर कर अति अनुराग हो ।
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कबहुँक नंदनवन विर्षे प्रभु, कबहुँक वनगृह माँहि हो ।
म्हारी दीनतणी सुन वीनती॥ प्रभु यह विधिकाल गमाय मैं, फिर माला गई मुरझाय हो।
म्हारी दीनतणी सुन वीनती॥ देव थिती सब घट गई, फिर उपज्यो सोच अपार हो । सोच करत तन खिर पड्यो, फि र उपज्यो गरभ में जाय हो ।
म्हारी दीनतणी सुन वीनती॥ प्रभु गर्भतणा दुःख अब कहूँ, जठै सकुड़ाई की ठौर हो। हलन चलन नहिं कर सक्यो, जठै सघन कीच घनघोर हो।।
म्हारी दीनतणी सुन वीनती॥
माता खावै चरपरो, फिर लागै तन संताप हो। प्रभु जो जननी तातो भखै, फिर उपजै तन संताप हो ॥ म्हारी दीनतणी सुन वीनती॥
औंधे मुख झुल्यो रह्यो, फेर निकसन कौन उपाय हो । कठिन-कठिन कर नीसरो, जैसे निसरै जंत्री में तार हो ॥ म्हारी दीनतणी सुन वीनती॥
प्रभु फिर निकसत ही धरत्यां पड्यो, फिर लागी भूख अपार हो । रोय-रोय बिलख्यो घणों, दुख वेदन को नहिं पार हो ॥ म्हारी दीनतणी सुन वीनती॥
दोहा प्रभु दुःख मेटन समरथ धनी यातें लागूं तिहारे पाय हो। सेवक अरज करै प्रभु मोकूँ, भवदधि पार उतार हो ॥ म्हारी दीनतणी सुन वीनती॥
श्रीजी की महिमा अगम है, कोई न पावै पार ।
मैं मति अल्प अज्ञान हूँ, कौन करै विस्तार ॥ ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये महाघु निर्वपामीति स्वाहा ।
विनती ऋषभ जिनेश की, जो पढ़सी मन ल्याय ।
सुरगों में संशय नहीं, निहचै शिवपुर जाय ॥
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री आदिनाथजिन-पूजा, कुण्डलपुर (दमोह) (श्री उत्तम सागर जी महाराज)
स्थापना आदिम जिनेश्वर हैं बड़ेबाबा जगत उद्धार का। इस कर्म भूमि में प्रथम ही मुक्ति पथ उपदेश का।।
यह क्षेत्र कुण्डलपुर हुआ विख्यात प्रभु तव नाम से।
___ पूजें तुम्हें आह्वानन कर हम आओ प्रभु शिव-धाम से।। ऊँ ह्रीं श्री बड़ेबाबा आदिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर-अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्री बड़ेबाबा आदिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्री बड़ेबाबा आदिनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव-भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
क्रोध अग्नि को बुझाने दो क्षमा-जल हे! प्रभो। इस हेतु हम जल को चढ़ाकर पूजते हैं आपको।।
आदिम जिनेश्वर ये बड़ेबाबा इन्हें जो पूजते।
वे शीघ्र मनवांछित सभी फल पाय शिवपद पावते।। ऊँ ह्रीं श्री बड़ेबाबा आदिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु- विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
संतोषमय चन्दन मिले अब मेटने भव ताप को। इस हेतु चन्दन को चढ़ाकर पूजते प्रभु आपको।।
आदिम जिनेश्वर ये बड़ेबाबा इन्हें जो पूजते।
वे शीघ्र मनवांछित सभी फल पाय शिवपद पावते।। ऊँ ह्रीं श्री बड़ेबाबा आदिनाथजिनेन्द्राय संसारताप- विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
अब जन्म लेना ना पड़े, ज्यों अक्षतों का होत है। इस हेतु अक्षत को चढ़ाकर पूजा प्रभु की करत हैं।। __ आदिम जिनेश्वर ये बड़ेबाबा इन्हें जो पूजते।
वे शीघ्र मनवांछित सभी फल पाय शिवपद पावते।। ॐ ह्रीं श्री बड़ेबाबा आदिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।।
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गुण के सुगंधित पुष्प से दुर्गंध दुर्गुण की मिटे। इस हेतु पुष्पों को चढ़ाकर पाद प्रभु के पूजते।।
आदिम जिनेश्वर ये बड़ेबाबा इन्हें जो पूजते।
वे शीघ्र मनवांछित सभी फल पाय शिवपद पावते।। ॐ ह्रीं श्री बड़ेबाबा आदिनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
मम मोह की अति भूख मेटन आत्म-अमृत प्राप्त हो। इह हेतु चरुवर को चढ़ाकर पूजते हम आप को।।
आदिम जिनेश्वर ये बड़ेबाबा इन्हें जो पूजते।
वे शीघ्र मनवांछित सभी फल पाय शिवपद पावते।। ऊँ ह्रीं श्री बड़ेबाबा आदिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
मिथ्यात्वमय तम को मिटाने, ज्ञान-ज्योति मिले हमें। इस हेतु दीपक को चढ़ाकर पूजते हैं हम तुम्हें।।
आदिम जिनेश्वर ये बड़े बाबा इन्हें जो पूजते।
वे शीघ्र मनवांछित सभी फल पाय शिवपद पावते।। ऊँ ह्रीं श्री बड़ेबाबा आदिनाथजिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
ध्यान-अग्नि में जलाने, कर्मरूपी धूप को। इह हेतु हम ये धूप लेकर पूजते प्रभु आप को।।
आदिम जिनेश्वर ये बड़ेबाबा इन्हें जो पूजते।
वे शीघ्र मनवांछित सभी फल पाय शिवपद पावते।। ॐ ह्रीं श्री बड़ेबाबा आदिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-विनाशनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
धर्म का फल मोक्ष ही है वो मिले झट से हमें। इस हेतु से ये फल चढ़ाकर पूजते प्रभु हम तुम्हें ।।
आदिम जिनेश्वर ये बड़ेबाबा इन्हें जो पूजते।
वे शीघ्र मनवांछित सभी फल पाय शिवपद पावते।। ऊँ ह्रीं श्री बड़ेबाबा आदिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
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नष्ट आठों कर्म हो अरु आठ गण शिव के मिले। यह अर्घ्य याते हम चढ़ाते पूजते प्रभु नाम ले।।
आदिम जिनेश्वर ये बड़ेबाबा इन्हें जो पूजते।
वे शीघ्र मनवांछित सभी फल पाय शिवपद पावते।। ॐ ह्रीं श्री बड़ेबाबा आदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।9।
पंचकल्याणक (पाईता छंद) आषाढ़ वदि द्वितीय को, सर्वार्थसिद्धि सुख त्याग्यो। मरुदेवी के गर्भ में आये, प्रभु पूजत शिवसुख पाये।। ऊँ ह्रीं आषाढ़-कृष्णा द्वितीयायां गर्भकल्याणक-प्राप्ताय श्री बड़ेबाबा आदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ चैत्रकृष्णा नौमी था, तब जन्म हुआ बाबा का। थे धन्य अयोध्या-वासी, हम पूजें सुख-अभिलाषी।।
ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-नवम्यां जन्मकल्याणक-प्राप्ताय श्री बड़ेबाबा आदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
था चैत्रकृष्ण नौमी वो, जब धारे प्रभु दीक्षा को। प्रभु किये तपस्या भारी, हम पूजत पाप-निवारी।।
ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-नवम्यां तपकल्याणक-प्राप्ताय श्री बड़ेबाबा आदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
एकादश फागुन वदि को, प्रभु नाशे विधि घाती को। ___ हुये बाबा केवल ज्ञानी, हम पूज बने स्वज्ञानी।। ऊँ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-एकादश्यां ज्ञानकल्याणक-प्राप्ताय श्री बडेबाबा आदिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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फिर माघ कृष्ण चौदश को, प्रभु नाशे सब कर्मों को । तब पायो मोक्ष ठिकाना, हम पूजत शिवपद पाना ।। ॐ ह्रीं माघकृष्णा - चतुर्दश्यां मोक्षकल्याणक-प्राप्ताय श्री बड़ेबाबा आदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
जल सम शीतल शांत गुण, हम सब में भी आय।
जल धारा यूँ छोड़कर, पूजूँ प्रभु के पाय ।। (शांति धारा ) पुष्प समा शुचि गंध से, ज्ञान पुष्प खिल जाय। याते प्रभु पद पूजते, पुष्पांजलि चढ़ाय।। (दिव्य-पुष्पांजलिः) सोरठा
आदिनाथ भगवान, पूज्य बड़े बाबा रहे।
जपते इनका नाम,
शीघ्र सभी संकट टले ॥
जाप्य
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अर्हं नमः स्वाहा ।
जयमाला (शेर-छन्द) मध्यप्रदेश प्रांत में बुन्देलखण्ड है। और बुन्देलखण्ड में कुण्डलपूर है। कुण्डलपुर का पहाड़ तो यह कुण्डाकार है। इसी पहाड़ पे अनेकों जैन मंदिर हैं || 1 ||
तारे जैसे सारे मंदिर शोभते यहाँ। और बीच बाबा का यह मंदिर चन्द्र सा ।। अनेक भक्त यात्री यहाँ रोज आते हैं। बाबा के दरबार में ना जात-पात है || 2 || पहाड़ में से बड़े बाबा बाहर निकले हैं। मानों हमें मोक्ष को ले जाने आये हैं ।। कोई आदिनाथ कहे मेरे बाबा को ।
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कोई महावीर कहे मेरे बाबा को।।3।। किन्तु बड़े बाबा ही यह नाम बताता। सब में बड़े आदिनाथ है ही विख्याता।। ___ वीर श्रीधर आदि तुम्हें ध्याये हैं। अतः बड़ेबाबा ये तुम नाम पाये हैं।।4।। कोई कुछ भी रखते रहे नाम बाबा का। किन्तु सबके कष्ट हरना काम बाबा का।।
जो भी भक्त बाबा को छत्र चढ़ाता। निश्चित ही वो छत्रपति पदवी को पाता॥5॥
अभिषेक बाबा का जो भी देखे या करे। आधि-व्याधि संकट आदि उसको ना घेरे।। तेरी प्यारी-प्यारी मूरत मन को हर लेती। भक्तों की शुभ भावना को तृप्त कर देती।।6।।
बे बाबा तेरी कृपा सबसे निराली। कोई भी ना जाता तेरे द्वार से खाली।।
एक बार बाबा तुम्हें जिसने भी देखा। वह तो मालामाल होता सबने यह देखा।।7।।
बाबा तेरे नाम पे धन खर्च जो करे। रातों रात कुबेर जैसा उसका घर भरे।।
बाबा तेरे प्रताप से ही रोगी भक्त भी। बिना थके यहाँ आते चढ़के सब सीढ़ी।।8।। बाबा का बस नाम लेते काम सब होते। और दर्शन करने से तो पाप कट जाते।। बाबा तेरा परम भक्त ख्यात होता है। प्रमाण इसका विद्यासागर छोटे बाबा हैं।।9।
छोटे बाबा बड़े बाबा जब भी ये मिलें। लगता तब यूँ चंद्र सूर्य दोनों हैं मिलें।। बाबा तेरी महिमा से ही छोटे बाबा ये। संघ सहित आते यहाँ आते रहेंगे।।10।
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बाबा तेरी कीर्ति को हम कैसे गायेंगे। इंद्र गणधर गा ना पाये हम क्या गायेंगे || बाबाजी हम पूजते हैं याते आपको ।
उत्तम साधु बनकर तुम सम मोक्ष पाने को ।।11।।
दोहा
पूज्य बड़े बाबा रहे, सबके तारणहार इनके चरणों में करूँ, वन्दन बारम्बार ||
ऊँ ह्रीं श्री बड़ेबाबा आदिनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। शान्तिधारा। पुष्पांजलिः।
ज्ञानोदय छन्द
सतयुग में भी आदिनाथ बन, बता दिया शिव-पथ सब को। कलि-युग में भी बिना बोले के, बता रहे सात पथ हम को ।। ऐसे अनंत उपकारी हैं पूज्य बड़े बाबा हमरे ।
इन
पूजन
करके पाऊँ इन सम उत्तम मोक्ष अरे ।
।। इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री आदिनाथजिन-पूजन, (बड़ेबाबा) (रचयिता - सुब्रत सागर)
(सवैया मात्रिक छन्द-21 मात्रा) हे सुखकारी! अतिशयकारी, पूज्य बड़े बाबा सुखकार। कुण्डलपुर पर्वत पर शोभित, जिन्हें पूजते सुर-नर-नार।। पूजा को हम द्रव्य सँजोकर, करते आह्वानन नत माथ।
हृदय कमल के उच्चासन पर, आन विराजो मेरे नाथ।। ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़ेबाबा अहँ नमः हे वृषभजिनेन्द्र! अत्र अवतर-अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़ेबाबा अहँ नमः हे वृषभजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़ेबाबा अहँ नमः हे वृषभजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव-भव वषट्।
(सन्निधिकरणम्) (पुष्पांजलिं क्षिपेत्) (ज्ञानोदय छन्द) (लय-मेरी भावना)
बाह्य मैल से देह मलिन है, उसको जल से सब धोते। देह सजाकर सब खुश हैं पर, कर्म-रोग से सब रोते।। जनम जरा मृति राग द्वेष को, धोने को हम सब आये।
आज बड़ेबाबा के द्वारे, शुचि जल पूजन को लाये। ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़ेबाबा अहँ नमः जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध आग है महा भयंकर, जिसमें जलते संसारी। आतम-वैभव जला उसी में, दुखी भटकते नर नारी।। तन मन आतम शीतल करने, सभी ताप हरने आये।
आज बड़े बाबा के द्वारो, चन्दन पूजन को लाये।। ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़ेबाबा अहँ नमः संसारताप-विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
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धन बल सत्ता रूप सम्पदा, पा करके जड़ की माया। नश्वर जीवन में भूले हम, अक्षय-आतम ना ध्याया।। तजकर दुखद जगत पद सारे, प्रभु जैसे बनने आये।
आज बड़ेबाबा के द्वारे, अक्षत पूजन को आये।। ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़ेबाबा अहँ नमः अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
सब रोगों में महारोग हैं, कामदेव जिसको कहते। जिसके रोगी भव-भव भटकें, सब दुख संकट वे सहते।। तीन लोक के इस राजा पर, विजय प्राप्त करने आये।
आज बड़े बाबा के द्वारे, पुष्प समर्पण को लाये।। ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़ेबाबा अहँ नमः कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षुधा रोग के कारण हम सब, पाप बन्ध करते जाते। इसकी औषधि करने को हम, भक्ष्याभक्ष्य भखे जाते।। रोग निरन्तर बढ़ता जाता, इसे नाशने अब आये।
आज बड़े बाबा के द्वारे, शुभ नैवेद्य भेंट लाये।। ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़ेबाबा अहँ नमः क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोह तिमिर के कारण जग में, चारों ओर अँधेरा है।
महाबली इस राजा का ही, सारे जग में डेरा है।। ज्ञान-दीप के प्रभा पुंज को, देख मोह तम नश जाये।
आज बड़ेबाबा के द्वारे, दीपक पूजन को लाये। ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़ेबाबा अहँ नमः मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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अच्छे बुरे सभी कर्मों ने, हमको बाँधा इस जग में। सब जल जाता ये ना जलते, सुख-दुख देते पग-पग में।। धूप सुगन्धी तव-पद-रज से, कर्माष्टक झट जल जाये।
आज बड़ेबाबा के द्वारे, धूप चढ़ाने को लाये।। ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़ेबाबा अहँ नमः अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
फल की इच्छा से इस जग के, हमने काम किये सारे। पाये खुशी क्षणिक फल पाकर, दुखी हुये जब हम हारे।। दुखी जगत के सब फल तजकर, मोक्ष महाफल मन भाये।
आज बड़ेबाबा के द्वारे, शुभ फल पूजन को लाये।। ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़ेबाबा अहँ नमः मोक्षमहाफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
शुचि जल चन्दन अक्षत लाये, शुद्ध पुष्प नैवेद्य लिये। दीप धूप नाना फल मिश्रित, श्रेष्ठ अर्घ्य हम भेंट किये।। अर्घ्य चढ़ाने वाले भविजन, अनर्घ्य पद आतम पाये।
आज बड़ेबाबा के द्वारे, अर्घ्य चढ़ाने को लाये।। ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़ेबाबा अहँ नमः अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला -दोहा नाथ बड़े बाबा बड़े, स्वामी परम दयालं। भक्ति सहित गुणगान की, कथा करूँ जयमाल।।
(ज्ञानोदय छन्द)
मध्यप्रदेश दमोह जिले में, कुण्डलपुर इक ग्राम रहा। इसके दक्षिण में इक पर्वत, कुण्डलपुर शुभधाम रहा।।
ऊपर नीचे जहाँ बहुत से, मन्दिर प्रतिमाएँ प्यारी। बीचों-बीच बड़ेबाबा की, प्रतिमा है अतिशयकारी।।1।। अतिशय की है कथा निराली, किंवदन्ति व्यापारी की।
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ऐसे पर्वत पर प्रभु आये, खुशी प्रजा तब सारी थी।। पद्मासन प्रतिमा मनहारी, चर्चित देश विदेशों में। तब औरंगजेब था आया, धर्म विरोधी भेषों में।।2।।
मूर्ति विरोधी उसने जैसे, घात लगायी बाबा पर। दूध-धार बह शहद-मक्खियाँ, देखा भागा वह डरकर।। देखा अतिशय जब वह उसने, बना मूर्ति पूजक सच्चा। नहीं मूर्तियाँ अब तोदूँगा, नियम लिया उसने अच्छा।।3।।
पन्ना का राजा बे घर था, राज्य हारकर वह अपना। मन्दिर जीर्णोद्धार कराकर, पूर्ण हुआ उसका सपना।।
बहुत-बहुत है अतिशय प्यारे, श्रद्धा के आधार रहे। नाथ अनाथों के हो प्रभु तुम, सबको भाव से तार रहे।।4।।
चरण आपके तारणहारे, रोग शोक भय नाशक हैं। इसीलिए तो तुमको ध्याते, सच्चे योगी साधक हैं।।
विद्यागुरुवर छोटा बाबा, पहली बार यहाँ आये। मन्दिर छोटा सा देखा तो, बहुत बड़ा सब बनवाये।।5।।
उसमें बाबा जायें कैसे?, सभी ओर यह चर्चा थी। किन्तु फूल सी उड़कर पहुँची, भक्ति-पुण्य गुरु अर्चा थी। बहुत बड़ा यह अतिशय देखा, किये विहार बड़े बाबा। श्रद्धालु लाखों दर्शक थे, संघ सहित छोटे बाबा।।6।।
छोटेबाबा ने उच्चासन, दिया बड़ेबाबा को ज्यों। बड़ा संघ छोटे बाबा का, किया बड़ेबाबा ने त्यों।। अट्ठावन बहिनों की दीक्षा, हुयी आर्यिका श्रेष्ठ बनीं। दोनों बाबा इक दूजे का, रखते हैं नित ध्यानघनी।।7।। ज्ञान-सिन्धु के शुभाशीष से, कुण्डलपुर जब गुरु आये। कृपा बड़े बाबा की पाकर, समवशरण सी छवि पाये।। छोटे बाबा का सपना जो, हुआ समय पाकर सच्चा।
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बहुत विरोधी होने पर भी, दिया उच्च आसन अच्छा ॥४॥ जो भी आते द्वार आपके, मन वांछित फल पाते हैं। उभय लोक के वैभव पाकर, मुक्ति-रमा पा जाते हैं।। सो मिलकर हम भक्त पुकारें, टेर सुनो अब तो बाबा। सुव्रत धरकर तुमको गूंजे, अपने सम कर लो बाबा ॥ 9॥ दोहासद्-गुण के भण्डार हैं, वृषभनाथ भगवान । पूजा क्या? जयमाल क्या ? मैं बालक नादान ।। फिर भी श्रद्धावश किया, पूजन वा जयमाल उसका फल बस यह मिले, छूटे भव जंजाल । ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़ेबाबा अर्हं नमः जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूज्य बड़े बाबा करे, विश्वशान्ति कल्याण । प्राक जल की धार दे, हम पूजन भगवान ।।
कल्पवृक्ष के पुष्पसम, पुष्पांजलि पद लाय। सब कष्टों को मेट दो, वृषभनाथ जिनराय।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
. शांतिधारा
.पुष्पांजलिः
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श्री आदिनाथजिन-पूजन (चाँदखेड़ी) (रचयिता - रूपचन्द जैन)
नाभिराय मरुदेवी के नन्दन, हो अतिशय के धारी। कैलाश शैल से मोक्ष पधारे, जन-जन-मंगलकारी।। संवत् पाँच सौ बारह में हुई, प्रतिष्ठा शिवपद-धारी। बारापाटी से आन विराजे, चाँदखेड़ी अविकारी।।
जाना था सांगोद गए नहीं, बैल जुड़े थे भारी। किशनदास लाए कोटा के, थे दीवान सरकारी।। आह्वानन करता हूँ प्रभु का, जय-जय अतिशयधारी।
अत्र-अत्र, तिष्ठ-तिष्ठ, सन्निधिकरण सुखकारी।। ॐ ह्रीं अनिष्ट-निवारक श्रीआदिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर-अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं अनिष्ट-निवारक श्रीआदिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ही अनिष्ट-निवारक श्रीआदिनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव-भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
अष्टक भव-भव में जल पीते-पीते, अब तक तृष्णा ना शान्त हुई।
मुनि मन सम जल से पूजूं, मन में इच्छा आज हुई।। हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु! तुम पद-पूजा करता हूँ।
तुम सम शक्ति मिले मुझको भी, शीश चरण में धरता हूँ। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु- विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
तन-धन-जन की चाह-दाह, भव-भव में भ्रमण कराती है।
चन्दन से पूजन कर मन में शीतलता छा जाती है।। हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु! तुम पद-पूजा करता हूँ।
तुम सम शक्ति मिले मुझको भी, शीश चरण में धरता हूँ।। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय संसारताप- विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
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कर्मों ने निज आतम को तो, भव-वन में भटकाया है।
अक्षत से अक्षय सुख पाने, पूजन आज रचाया है। हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु! तुम पद-पूजा करता हूँ। तुम सम शक्ति मिले मुझको भी, शीश चरण में धरता हूँ।। ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। 3।
नाथ आपकी निशदिन पूजा, मन को निर्मल करती है। श्रद्धा सुमन चढ़ाने से, भव-कामवासना टलती है।
हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु! तुम पद-पूजा करता हूँ। तुम सम शक्ति मिले मुझको भी, शीश चरण में धरता हूँ।। ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
छह मास किया उपवास प्रभु ने, आतम बल प्रगटाने को। करता हूँ पकवान समर्पित, व्याधि-क्षुधा मिटाने को || हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु! तुम पद-पूजा करता हूँ। तुम सम शक्ति मिले मुझको भी, शीश चरण में धरता हूँ।। ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। 5।
यह दीपशिखा जगमग करती, होता बाहर में उजियारा । अब अन्तर लौ से ज्ञान जगे, मिट जाए मोह का अँधियारा।। हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु ! तुम पद-पूजा करता हूँ। तुम सम शक्ति मिले मुझको भी, शीश चरण में धरता हूँ।। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
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अष्टकर्म के नाशन को मैं, खेता धूप दशांग प्रभो। मन-वच-काय से तुम पद पूजूँ, गुण समूह से युक्त प्रभो।। हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु! तुम पद-पूजा करता हूँ। तुम सम शक्ति मिले मुझको भी, शीश चरण में धरता हूँ।। । ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
निज रत्नत्रय निधि पाने को, मैं शरण तुम्हारी आया हूँ। मुक्ति मिले भवभ्रमण टले इस हेतु विविध फल लाया हूँ।। हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु! तुम पद-पूजा करता हूँ। तुम सम शक्ति मिले मुझको भी, शीश चरण में धरता हूँ ।। ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय मोक्षमहाफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। 8 ।
बारह भावना भाता हूँ कि, मरण समाधि मैं पाऊँ। अर्पित करके रूप अर्घ, मम आत्मज्ञान को प्रगटाऊँ।
हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु! तुम पद-पूजा करता हूँ।
तुम सम शक्ति मिले मुझको भी, शीश चरण में धरता हूँ।।
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक
आषाढ़ वदी दोयज को माता मरुदेवी उदर में आए।
रत्नों की वर्षा हुई अनूपम, इन्द्रासन कम्पाए ।
ऊँ ह्रीं आषाढ़कृष्णा-द्वितीयायां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।1।
चैत्र वदी नवमी को प्रभु ने, जन्म लिया भवतारी। सौधर्मेन्द्र-इन्द्राणी दोनों, उत्सव करते भारी ।।
ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-नवम्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।2।
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नीलांजना-निधन को देख, वैराग्य भावना भाई। दुर्द्धर तप धारा जब प्रभु ने, चैत्र वदी नवमी आई।। __ ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णानवम्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
फाल्गुनकृष्ण एकादशी को, जिनवर को केवलज्ञान हुआ। धर्म देशना की वाणी से, भव्यों का कल्याण हुआ।। ऊँ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-एकादश्यां केवलज्ञान-मंडिताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।4।
अष्टापद कैलाशगिरि से, प्रभु ने पाया था निर्वाण। घर-घर-मंगलाचार हुए, था माघवदी चौदस को महान।। ॐ ह्रीं माघकृष्णा-चतुर्दश्यां कैलाश पर्वत से मोक्षमंगल-मंडिताय
श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।5।
जयमाला माघ सुदी छठ उत्तम मंगल संवत् सतरह सौ छियालीस। पंच कल्याणक में जगत-कीर्तिजी ने दी शुभ-आशीष।। तहसील खानपुर से लगा, चाँदखेड़ी एक ग्राम।
रूपेली तट पर बना, आदिजिनेश्वर-धाम।। गुफा के मध्य विराजे स्वामी, महिमा-प्रभु अतिशयकारी। शिल्पकला मोहित करती, प्रभु प्रतिमा है जन मनहारी।।
एक बार जो दर्शन पाता, बार-बार आने को कहता।। शान्तिसुधा पीने को मिलती, बैठ सामने सुमिरन करता।। वीतराग छवि है प्रभुवर की, शान्तमूर्ति अभिराम। अर्चन-पूजन से होते हैं, सफल मनोरथ काम।। नाथ आपके दर्शन से, अज्ञान तिमिर हो दूर।
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क्रोध-मान-माया-लालच भी, क्षण भर में हो चूर।।
आत्मशान्ति की इस बेला में, रत्नत्रय धारण कर। छुटकारा हो भव बन्धन से, मन-वच-तन वश में कर।। दशलक्षण धर्मों को धारें, जन-जन में कोई भेद नहीं। विश्व धर्म यह है सबका, जैनो का ही अधिकार नहीं।। मुनिनायक योगीश्वर हैं प्रभु, विमल वर्ण रवि तम-हारी। शरणागत जान जन्म-मरण से, मुक्त बनें निज-पद धारी।। तुम्ही आद्य-अक्षय-अनन्त प्रभु, ब्रह्मा-विष्णु या शंकर।। सहस्र नाम से जानें जन-जन, हे प्रभु तुमको आदीश्वर।।
चैत बदी नवमी को मेला, लगता यहाँ मंगलकारी। अभिनन्दन के योग्य चरण, हम वन्दन करते भवतारी।। संवत् दो सहस पैंतीस की, थी चैत बदी अष्टम प्यारी। अज्ञानियों की थी विफल हुई, विध्वंस योजना अविचारी।।
बुझी ज्योति जलधारा फूटी, रहा उपद्रव भी जब तक। अतिशय कोई समझ न पाया, संकट टला नहीं तब तक।। धन्य-धन्य मुनि दर्शन सागर, धर्म ध्वजा-यहाँ फहराई। आत्म-धर्म का बोध दिया, इक ज्ञान की ज्योति जगाई।। आचार्य देशभूषण जी को, जब हुई अतिशय-जानकारी।
आए थे वे प्रभु वन्दन को, हुआ महोत्सव भारी।।
संवत् दो हजार अड़तीस में, हुई प्रतिष्ठा प्यारी। बिन प्रभु के तो समोशरण भी, कहाँ लगें मंगलकारी।।
छम-छम धुंघरू बाजे, अक्षय तृतीया हितकारी। गन्धोदक की वर्षा होती, प्रभु की महिमा न्यारी।। लघु पंचकल्याणक विधान, फिर हुआ क्षेत्र पर भारी। यह भी आदीश्वर की महिमा, सुन लो अचरजकारी।। धन्य-धन्य आचार्य विमलसागर, समता का दिग्दर्शन।
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अमर हो गईं ये गाथाएँ, कुसुम-रूप का तुम्हें नमन ।। जिन भक्तों को तेरे चरणों में, हो मिला हुआ आश्रय। उनका बाल न बाँका होगा, यह तो है अब निश्चय ||
भारत भर में गूंज रही है, तव यश-अक्षय भेरी। देश-देश के यात्री करते, जय-जयकार प्रभु तेरी || ऊँ ह्री अनिष्ट निवारक - श्री आदिनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। आदीश्वर की जो भवि, नित पूजा करें। धन-धान्य सन्तान, अतुल निधि विस्तरें ।। होय अमंगल दूर, शरीर निरोग धरें। अनुक्रम से सुख पाय, मुक्तिश्री को वरें।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री आदिनाथ जिन-पूजा (रानीला) ( रचयिता
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ताराचन्द प्रेमी)
जीवनज्योति-धाम।
कर्मभूमि के अधिनायक जग ज वाणी में श्रुत जिनवाणी का झरता अविरत अमृत ललाम ।। हे पर शान्त जिन वीतराग दाता जग में अक्षय - विराम |
हे रानीला के ऋषभदेव चरणों में हो शत-शत प्रणाम ||
हे कृपा सिन्धु करुणा निधान, जीवन में समता भाव भरो। आओ तिष्ठो मम अन्तर में हे आदि प्रभो - हे आदि प्रभो ॥
ॐ ह्रीं श्रीदेवाधिदेव भगवान्ऋषभदेवजिनेन्द्र ! अत्र अवतर-अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीदेवाधिदेवभगवान्ऋषभदेवजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्)
ऊँ ह्रीं श्रीदेवाधिदेवभगवान्ऋषभदेवजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
देव हमारे मन के कलुषित भावों को निर्मल कर दो। अन्तर में पावन भक्ति सुधा का शीतल निर्मल जल भर दो।। कितने ही जीवन जीकर भी संतप्त भटकता आया हूँ। जल अर्पितं करके चरणों में प्रभु परम पदारथ पाने आया हूँ।। हे अतिशयकारी ऋषभदेव ! मेरे अन्तर में वास करो। हे महिमा मण्डित वीतराग जीवन में पुण्य - प्रकाश भरो।।
ऊँ ह्रीं श्रीदेवाधिदेवभगवान्ऋषभदेवजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।1।
रानीला की पावन माटी में प्रकट भए जिनवर स्वामी । पग थिरक उठे जय गूँज उठी जय ऋषभदेव अन्तरयामी।। चन्दन की गंध सुगंध लिए आताप मिटाने आया हूँ। तेरे चरणों की पूजा से मैं परम पदारथ पाने आया हूँ।। हे अतिशयकारी ऋषभदेव ! मेरे अन्तर में वास करो।
हे महिमा मण्डित वीतराग जीवन में पुण्य - प्रकाश भरो।।
ऊँ ह्रीं श्रीदेवाधिदेवभगवान्ऋषभदेवजिनेन्द्राय संसारताप - विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 2।
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तन्दुलकर में लेकर आया अक्षय विश्वास लिए उर। श्रद्धा के सुन्दर भाव जगे भक्ति के गीत भरे स्वर में || भव-भव में भटका व्याकुल मन अक्षय पद पाने आया हूँ। आदीश्वर! तेरी पूजा से मैं परम पदारथ पाने आया हूँ।। हे अतिशयकारी ऋषभदेव ! मेरे अन्तर में वास करो। हे महिमा मण्डित वीतराग जीवन में पुण्य - प्रकाश भरो। ऊँ ह्रीं श्रीदेवाधिदेवभगवान्ऋषभदेवजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। 3।
संसार असार, विनश्वर हैं फिर भी ये विषय सताते हैं। चहुँ गति के घोर अन्धेरे में भव प्राणी को भटकाते हैं ।। मम काम कषाय मिटाने को ये पुष्प सुगन्धित लाया हूँ। हे ऋषभ ! तुम्हारी पूजा से मैं परम पदारथ पाने आया हूँ ।। हे अतिशयकारी ऋषभदेव ! मेरे अन्तर में वास करो।
हे महिमा मण्डित वीतराग जीवन में पुण्य - प्रकाश भरो।।
ऊँ ह्रीं श्रीदेवाधिदेवभगवान्ऋषभदेवजिनेन्द्राय कामबाण - विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
ये
अगणित व्यंजन खा लेने पर भी मिटी न मन की अभिलाषा । क्षुधा 'वेदनी कर्मों की कैसी है जिनवर परिभाषा | हो जन्म-जन्म की शान्त नैवेद्य भावना लाया हूँ। आदीश्वर! तेरे चरणों में शश्वत सुख पाने आया हूँ।।
हे अतिशयकारी ऋषभदेव ! मेरे अन्तर में वास करो।
हे महिमा मण्डित वीतराग जीवन में पुण्य - प्रकाश भरो।।
ॐ ह्रीं श्रीदेवाधिदेवभगवान्ऋषभदेवजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। 5 ।
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है मोह तिमिर का अन्धकार, अन्तर में दीप जलाऊँगा। भव बन्ध कटे, आलोक जगे, भावों की ज्योति जगाऊँगा।। यह दीप समर्पण करके मैं मिथ्यात्व मिटाने आया हूँ।
आदीश्वर! तेरे चरणों में शाश्वत सुख पाने आया हूँ।। हे अतिशयकारी ऋषभदेव! मेरे अन्तर में वास करो।
हे महिमा मण्डित वीतराग जीवन में पुण्य-प्रकाश भरो।। ॐ ह्रीं श्रीदेवाधिदेवभगवान्ऋषभदेवजिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
भोगों में ऐसे भ्रमित रहा, पल भर भी स्थि र ना हो पाया। मिथ्या मति से भव-भव घूमा, समता-रस पान न कर पाया।। यह धूप दहन करके भगवन्, भव कर्म जलाने आया हूँ।
आदीश्वर तेरे चरणों में शाश्वत सुख पाने आया हूँ।। हे अतिशयकारी ऋषभदेव! मेरे अन्तर में वास करो।
हे महिमा मण्डित वीतराग जीवन में पुण्य-प्रकाश भरो।। ऊँ ह्रीं श्रीदेवाधिदेवभगवान्ऋषभदेवजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
फल अर्पित कर फल पाऊँगा, फल मोक्षमहाफलदायी है। फल से ही शुभ जीवन मिलता निष्फल जीवन दुखदायी है।। फल-फूल समर्पण करके मैं वरदान मुक्ति का पाऊँगा। चरणों की पूजा से जिनेन्द्र फिर परम पदारथ पाऊँगा।। हे अतिशयकारी ऋषभदेव! मेरे अन्तर में वास करो।
हे महिमा मण्डित वीतराग जीवन में पुण्य-प्रकाश भरो।। ऊँ ह्रीं श्रीदेवाधिदेवभगवान्ऋषभदेवजिनेन्द्राय मोक्षमहाफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
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मन और वचन है वीतराग, प्रभु अष्ट द्रव्य से अर्घ्य बना। पावन तन-मन, है भाव शुद्ध, चरणों में अर्पित, नेह बढ़ा।। होगा अनन्त सुख प्राप्त मुझे विश्वास हृदय में लाया हूँ। तेरे चरणों की पूजा से मैं परम पदारथ पाने आया हूँ। हे अतिशयकारी ऋषभदेव! मेरे अन्तर में वास करो।
हे महिमा मण्डित वीतराग जीवन में पुण्य-प्रकाश भरो।। ऊँ ह्रीं श्रीदेवाधिदेवभगवानऋषभदेवजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
आसोज सुदी दशमी के दिन, रानीला वासी धन्य हुए। प्रमुदित हो जयजयकार करें, जब आदि प्रभु जी प्रकट भये।।
चहुँदिश से भक्तजन आकर, के चरणों में अर्घ्य चढ़ाते है। दुःख रोग शोक भय सब तज कर निज जीवन सफल बनाते हैं।।
हे अतिशयकारी ऋषभदेव! मेरे अन्तर में वास करो।
हे महिमा मण्डित वीतराग जीवन में पुण्य-प्रकाश भरो।। ॐ ह्रीं श्रीदेवाधिदेवभगवान्ऋषभदेवजिनेन्द्राय आसौज सुदी दशमी को तेईस भगवान सहित प्रगटे तिन्हें
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा॥10॥
पंचकल्याणक अवधि ज्ञान से इन्द्र ने लिया हृदय में जान।
देव अयोध्या को चले पूजें गर्भ कल्याण।। मरुदेवी मां के महल मंगलाचार सखियां गा रहीं। गरिमा अयोध्या नगर की लख चांदनी शर्मा रही।
रत्नों की वर्षा हो रही, नप नाभि हर्षित हो रहे।
जिनराज मंगल जन्म के शुभ चिन्ह अंकित हो रहे।। ऊँ ह्रीं आषाढकृष्णा-द्वितीयायां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
नगर अयोध्या में हुआ आदि प्रभु अवतार। हर देहरी दीपावली, घर घर मंगलाचार।।
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जब प्रथम तीर्थंकर ऋषभ की सृष्टि में जय-जय जय हुई | शचि बाल-जिनवर छवि निरखति, मुदित मन हर्षित हुई || सौधर्म प्रभु के जन्म-मंगल का सुयश गाने लगा। आनन्दमय अनुभूति की रस वृष्टि बरसाने लगा।।
ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-नवम्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अन्त देख नीलांजना का, जागृत हुआ विराग । चले सम्पदा तज श्रमण राज-काज सब त्याग || वैराग्य की आई घड़ी, जिन ऋषभ जब वन को चले। कंठों से जय जयकार गूंजी, साधना दीपक जले || षट् मास बीते वन में तप का प्रबल साम्राज्य था। पशु पक्षियों की भावना में भी विरक्त विभाव था।।
ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-नवम्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तभी ज्ञान दीपक जले धवल हुआ भूलोक । कण-कण में विचरित हुआ दिवा-दिव्य आलोक।। कैवल्य की किरणें जगीं, निर्झर स्वयं झरने लगे। अरिहन्त जिन आराधना सुर-असुर सब करने लगे। वाणी में जन कल्याण का सत्यम्-शिवम् संदेश था। ये सकलसिद्ध परमात्म, न राग था न द्वेष था।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-एकादश्यां केवलज्ञान-मंडिताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
बढ़े मुक्ति पथ पर चरण गिरि कैलाश सुथान। ऋषभ जिनेश्वर ने जहाँ पाया पद निर्वाण ।। हिम सा प्रखर कैलाश गिरि छू चरण पावन हो गया। जिन आदि का वह सत्य शाश्वत स्वर सनातन हो गया ||
संसार को कर्तव्य पथ का ज्ञान विकसित हो गया। जिन आदि ब्रह्मा आदि शिव साकार जिनवर हो गया ।।
ॐ ह्रीं माघकृष्णा - चतुर्दश्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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जयमाला नाभिराज-नन्दन सदा, वन्दन करूँ त्रिकाल।
भव-भव की पीड़ा हरो, मरुदेवी के लाल।। हे जन-जन जीवन के युग-द्रष्टा समता दाता जिन प्रथम देव। संस्कृति सृष्टि के उन्नायक पुरुषार्थ साध्य साधक विवेक।।
जिन ऋषभ तुम्हारी वाणी का सर्वत्र गूंजता चमत्कार। जन-जन जीवन के सूत्रधार प्रणमें जिन चरणों में बार-बार।। हे आदि विधाता तुमने ही असि, मसि, कृषि का वरदान दिया। वाणिज्य, शिल्प, विद्या विवेक, जीवन का अनुपम ज्ञान दिया।।
हे नाभिराय के पुत्ररत्न, माँ मरुदेवी के मुदित भाल। हे प्रथम जिनेश्वर तीर्थंकर, मुक्ति पथ के पन्थी विशाल।। हे तीन लोक के जननायक, सर्वज्ञ देव जिन वीतराग। हे मानवता के मुक्ति दूत, अन्तर में उभरे अमर राग।। हित मित वचनों को हे जिनेश नियति सदा दोहरायेगी। हे परमपिता, हे परम ईश यह प्रकृति सदा गुण गाएगी।। रानीला की माटी में जिन प्रतिमा प्रगटी अतिशयकारी। आकर्षक सुन्दर वीतराग छवि लगती है मन को प्यारी।।
प्रस्तर में जैसे शिल्पी ने, छेनी से प्राण फूंक डाले। तेईस तीर्थंकर साथ, बीच में ऋषभ जगत के रखवाले।। इतना प्रभाव दर्शन करके सब पाप कर्म कट जाते हैं। जो भी रानीला जाते हैं मन वांछित फल पा जाते है।। सम्पूर्ण देश में ऐसी मन-मोहक प्रतिमा कहीं ना पाती है। थोड़ा सा ध्यान लगाते ही वो अपने आप बुलाती है।।
चौपाई प्रथम आदि जिन आदि विधाता, कर्म भूमि के ज्ञायक ज्ञाता। दिया सृष्टि को दिव्य दिवाकर, ज्ञान पुंज हे ज्ञान सुधाकर॥ धरम धरा के जन उन्नायक, मोक्ष पन्थ के शिव जिननायक।
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हुआ माटी में सोना, जैसे सुन्दर पुष्प
प्रथम तीर्थ स्वामी तीर्थंकर, नमूँ नमूँ जिन ऋषभ जिनेश्वर ।। पावन पुण्य-भूमि हरियाणा, रानीला है ग्राम सुहाना। प्रीति परस्पर जन मन भावन, जहाँ बन गई माटी चंदन | चमत्कार था विस्मयकारी, चकित रह गए सब नर नारी । उदित सलोना ।। प्रगट भये जिन अतिशयकारी, बाल चन्द्रमा सी छवि प्यारी ।। नृत्य करें जन नन्दन कानन, हर्षित इन्द्रों के इन्द्रासन ।। शोर मच गया हर जन मन में, गूंजी जय-जयकार भुवन में। हर जन-मन दर्शन को आया, मन चाहा फल उसने पाया। जो भी नियम पूर्वक ध्यावे, रोग-शोक संकट कट जावे।
तारा प्रेमी तुम्हारा, जन्म-जरा से हो निस्तारा ।। आदीश्वर स्वामी त्रिभुवन नामी कोटि नमामि जगख्याता। हे पाप निवारक जन उद्धारक शिवमग धारक पथ ज्ञाता ।। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऋषभ चरण वन्द न करें, नित प्रति सकल समाज । भक्ति भाव आराधना, सिद्ध होय सब काज ||
।। इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।।
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श्री आदिनाथ जिन-पूजा (साँगानेर) (रचयिता - लालचन्द जी राकेश)
ऋषभदेव हैं धर्म प्रवर्तक कर्म प्रर्वतक तीर्थंकर। कर्मनाश कर सिद्धभये हैं, भक्त धन्य हैं दर्शनकर।। साँगानेर वाले बाबा की प्रतिमा अतिशयकारी है। पाप नशाति संकट हरती, दर्शन की बलिहारी है।। भक्ति भाव से पूजन करते, दीपक ज्योति जलाते हैं।
रोते-रोते आते हैं जन, हँसते-हँसते जाते हैं।। प्रभु के दर्शन करने से अब निज-स्वरूप का ज्ञान हुआ।
निधत्त निकाचित कर्म कटे हैं, सम्यक् दर्शन प्राप्त हुआ।। ॐ ह्रीं श्रीं 1008 महाअतिशयकारी साँगानेरवाले बाबा आदिनाथजिनेन्द्र!
अत्र अवतर-अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्) ऊँ ह्रीं श्रीं 1008 महाअतिशयकारी साँगानेरवाले बाबा आदिनाथजिनेन्द्र!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीं 1008 महाअतिशयकारी साँगानेरवाले बाबा आदिनाथजिनेन्द्र!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
भावकर्म-जल द्रव्यकर्म-मल नो-कर्मों से दूषित हूँ। धारा जल की चरण चढ़ाकर कर्म कलंक मिटाता हूँ।।
साँगानेर है क्षेत्र अतिशय, अतिशयकारी महिमा है।
ऋषभदेव का अद्भुत वैभव, चतुर्थकाल की प्रतिमा है।। ऊँ ह्रीं श्रीं 1008 महाअतिशयकारी साँगानेरवाले बाबा आदिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय
जलं निर्वपामीति स्वाहा।
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संसार के भाव विभावों में, जलता मरता मैं आया हूँ। चन्दन प्रभु के चरण चढ़ाकर शान्त तपन कर पाया हूँ।।
साँगानेर है क्षेत्र अतिशय, अतिशयकारी महिमा है।
ऋषभदेव का अद्भुत वैभव, चतुर्थकाल की प्रतिमा है।। ऊँ ह्रीं श्रीं 1008 महाअतिशयकारी साँगानेरवाले बाबा आदिनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय
चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
सिद्ध प्रभु अक्षतपद है उस पद को अब पाना है। अक्षत प्रभु यह तुम्हें समर्पित, ऋषभदेव गुण माना है।।
साँगानेर है क्षेत्र अतिशय, अतिशयकारी महिमा है।
ऋषभदेव का अद्भुत वैभव, चतुर्थकाल की प्रतिमा है।। ऊँ ह्रीं श्रीं 1008 महाअतिशयकारी साँगानेरवाले बाबा आदिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान्
निर्वपामीति स्वाहा।
विषय-वासना के विषधर से भव-भव गया डासाया हूँ। हे विषहर! तुम निर्विष कर दो पुष्प चढ़ाने आया हूँ।।
साँगानेर है क्षेत्र अतिशय, अतिशयकारी महिमा है।
ऋषभदेव का अद्भुत वैभव, चतुर्थकाल की प्रतिमा है।। ऊँ ह्रीं श्रीं 1008 महाअतिशयकारी साँगानेरवाले बाबा आदिनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
भूख प्यास से दुःखी रहा मैं भक्ष्य अभक्ष्य न पहिचाना। नैवेद्य समर्पित करता हूँ मैं जैन धर्म अब पहिचाना।। साँगानेर है क्षेत्र अतिशय, अतिशयकारी महिमा है।
ऋषभदेव का अद्भुत वैभव, चतुर्थकाल की प्रतिमा है।। ऊँ ह्रीं श्रीं 1008 महाअतिशयकारी साँगानेरवाले बाबा आदिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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अज्ञान अंधेरे में भटका हूँ तत्त्व ज्ञान नहीं कर पाया। अज्ञान हटे अब ज्ञान जगे यह दीप जलाकर मैं लाया।।
साँगानेर है क्षेत्र अतिशय, अतिशयकारी महिमा है।
ऋषभदेव का अद्भुत वैभव, चतुर्थकाल की प्रतिमा है।। ऊँ ह्रीं श्रीं 1008 महाअतिशयकारी साँगानेरवाले बाबा आदिनाथजिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
आठ कर्म-मल ग्रहण किये हैं इसे जलाने आया हूँ। ऋषभदेव की भक्ति करके धूप अनल में खेता हूँ।। साँगानेर है क्षेत्र अतिशय, अतिशयकारी महिमा है।
ऋषभदेव का अद्भुत वैभव, चतुर्थकाल की प्रतिमा है।। ऊँ ह्रीं श्रीं 1008 महाअतिशयकारी साँगानेरवाले बाबा आदिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं
निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म कर्म सब किये अनेकों संसार सुखों का लक्ष्य रहा। धर्म करूँ फल मोक्ष मिले मुझे अतः श्रीफल चढ़ा रहा।।
साँगानेर है क्षेत्र अतिशय, अतिशयकारी महिमा है।
ऋषभदेव का अद्भुत वैभव, चतुर्थकाल की प्रतिमा है।। ऊँ ह्रीं श्रीं 1008 महाअतिशयकारी साँगानेरवाले बाबा आदिनाथजिनेन्द्राय मोक्षमहाफल-प्राप्तये फलं
निर्वपामीति स्वाहा।
जल चन्दन अक्षत पुष्प चरु यह दीप धूप फल लाया हूँ। पद अनर्घ मिल जाय मुझे, यह अर्घ समर्पित करता हूँ।।
साँगानेर है क्षेत्र अतिशय, अतिशयकारी महिमा है।
ऋषभदेव का अद्भुत वैभव, चतुर्थकाल की प्रतिमा है।। ऊँ ह्रीं श्रीं 1008 महाअतिशयकारी साँगानेरवाले बाबा आदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य
निर्वपामीति स्वाहा।
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पंचकल्याणक आषाढकृष्णा दूज तिथि को गर्भविशे प्रभुजी आये। पन्द्रह माह तक रत्न वृष्टि कर, देवों ने मंगल गाये।। माता मरुदेवी को निशि में, सोलह शुभ सपने आये।।
गर्भकल्याणक मनाने सुरगण, नाभिराय के घर आये।। ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्णा-द्वितीयायां श्री 1008 गुण-संयुक्त साँगानेरवाले बाबा श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय
गर्भकल्याणक-प्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। चैत्र बदी नवमी के शुभ दिन, ऋषभदेव ने जन्म लिया। नरकों में भी शान्ति हुई थी, स्वर्णमयी साकेत हुआ।।
शचि संघ ले इन्द्र अयोध्या, ऐरावत गज पर आया।
ऋषभदेव बालक को लेकर, मेरु पर अभिषेक किया।। ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णा-नवम्यां श्री 1008 गुण-संयुक्त साँगानेरवाले बाबा श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय
जन्मकल्याणक-प्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। चैत बदी की नवमी तिथि को ऋषभदेव वैराग्य हुआ। लौकान्तिक देवों ने आकर, उत्सव तपकल्याण किया।। विषयभोग तज विरत हुए प्रभु, गृह कुटुम्ब सब त्याग दिया।
केशलोच कर मौन लिया तब, भेष दिगम्बर धार लिया।। ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-नवम्यां श्री 1008 गुण-संयुक्त साँगानेरवाले बाबा श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय
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तपकल्याणक-प्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। ऋषभदेव अरिहन्त हुए हैं, फाल्गुन कृष्णा ग्यारस को। चार घातिया कर्म हने हैं, अनन्त-चतुष्टय पाने को।। स्वर्गपुरी के इन्द्रादिक ने समवशरण की रचना की।
ध्वनि खिरी तब समवशरण में ऋषभदेव भगवान की।। ऊँ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-एकादश्यां श्री 1008 गुण-संयुक्त साँगानेरवाले बाबा श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय
ज्ञानकल्याणक-प्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। चौदह दिन जब शेष आयु के, योगनाश को गमन किया। कैलाशगिरि पर ध्यान लगाकर, आठ कर्म का नाश किया।। माघ कृष्ण की चौदस तिथि को, मोक्षपुरी को गमन किया।
इन्द्रादिक देवों ने आकर, सिद्धक्षेत्र को नमन किया।। ॐ ह्रीं माघकृष्णा-चतुर्दश्यां श्री 1008 गुण-संयुक्त साँगानेरवाले बाबा श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय
मोक्षकल्याणक-प्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
महाअर्घ्य वैशाखशुक्ल की तीज तिथि को सुरगण साँगावति आये। विक्रम संवत सात शतक में, गजरथ पर जब प्रभु आये।।
आदिब्रह्मा ऋषभदेव हो, महिमा अतिशयकारी है। भूगर्भ जिनालय रत्नमयी है, महिमा उसकी न्यारी है।। पूज्य सुधासागर गुरुवर ने, तेरी महिमा बता दई। सारे जग के भव्य जनों ने, तेरी शक्ति जान लई।। धन्य हुआ मैं पूजा करके, पूज्य परम-पद पाना है। कर्म काटकर सिद्ध बनूं मैं, मोक्षपुरी को जाना है।। आधि-व्याधि सब संकट मेरे, पूजन से नश जाते हैं।
भव्य भक्त अब अर्घ सजाकर, तेरे चरण चढ़ाते हैं।। ॐ ह्रीं श्रीं महाअतिशयकारी साँगानेरवाले बाबा श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय महाअर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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जयमाला
ऋषभदेव भगवान हैं, अनुपम गुण की खान।
साँगानेर में आन विराजे, अतिशय बड़ा महान।। नमस्कार हो मन वचन तन से, ऋषभदेव भगवान प्रभु। बना हुआ हूँ भक्त तुम्हारा, तुमसा मैं बन जाऊँ प्रभु।।
साँगानेर वाले बाबा को, हृदय कमल पर पधराऊँ। जिनशासन जयवंत प्रभु की, जयमाला अब मैं गाऊँ।। सर्वार्थ सिद्धि से प्रभु आये थे, नगर अयोध्या जन्म लिया। तीन लोक में शांति भई थी, जन्म महोत्सव यहाँ हुआ।। नाभिराय हैं पिता तुम्हारे, अंतिम कुलकर कहलाये। मरुदेवी हैं मात तुम्हारी, आदिनाथ तुम कहलाये।। स्वर्णमयी थी काया प्रभु की स्वर्णमय साकेत हुआ। जन्मकल्याणक हुआ आपका, मेरु पर अभिषेक हुआ।।
लाख तेरासी पूर्वकाल तक, कर्म प्रवर्तक कहलाये। राजा बनकर राज्य किया था, मांडलीक प्रभु कहलाये।। नन्दा सुनन्दा पत्नी छोड़ी, पुत्र शतक को त्याग दिया। ब्राह्मी सुन्दरी पुत्री त्यागी, अक्षर अंक का ज्ञान दिया।। भेष दिगम्बर धारण करके, प्रथम श्रमण तुम कहलाये।
एक हजार बरस तप करके, तीर्थ प्रवर्तक कहलाये। कैलाशगिरि से मोक्ष पधारे, सिद्ध प्रभु पद प्राप्त किया। साँगानेर में आन विराजे, अतिशय अद्भुत् यहाँ किया।।
तेरह मील दूर जयपुर से, साँगानेर सुहाता है। चतुर्थ काल की प्रतिमा है यह, अतिशय क्षेत्र कहाता है।। __ प्राचीन नाम संग्रामपुरम् था, ग्रन्थों ने गाथा गाई। सात शतक यहाँ जैनी घर थे, धर्म दिगम्बर अनुयाई।। धन वैभव सम्पन्न सभी थे, प्रतिदिन पूजा करते थे।
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साँगानेर के इस वैभव से, पास राजा जलते थे। ईर्ष्याभाव भड़क उठा जब, धावा इस पर बोल दिया। धन-वैभव सब लूट मार कर, साँगानेर वीरान किया।। बाबा तेरे मंदिर को भी, तहस नहस करने आये। काँप गये देवों के आसन, यक्ष देव झट से आये। सारी सेना कीलित करके, तेरा अतिशय दिखा दिया। क्षमा-याचना की राजा ने, चरण-कमल में नमन किया।
सारी सेना मुक्त हुई तब बाबा का जयकार किया। संवत् सोलह सौ मंगल था साँगानेर आबाद हुआ ।। साँगा नृप ऋषभदेव को इष्ट देव स्वीकार किया। उद्धार करूँगा इस नगरी का, साँगा ने संकल्प किया। साँगा नृप 'चाँदी का श्रीफल कार्यक्रमों पर भिजवाता । बाबा का आशीष प्राप्त कर कार्य शुरू तब करवाता।। संग्रामपुरी का नाम बदल साँगा ने साँगावती किया। साँगावती भी नाम सुधारा, साँगानेर अब नाम दिया।। शदी आठवीं का मंदिर यह, अद्भुत और निराला है। कला पूर्ण बाहर भीतर है, सात मंजिलों वाला है। संवत सात शतक की घटना, दिव्य महा गजरथ आया। आदिनाथ की प्रतिमा को वह बिना सारथी के लाया ।। नगर द्वार पर रुका नहीं रथ, यहाँ रुका सहसा आकर। संघजी रथ से प्रतिमा को मंदिर में लाये जाकर || अदृश्य हुआ देवों का गजरथ, नभ से वाणी गूँज गई। भगवानदास संघी श्रावक ने, वाणी उर में धार लई || बहु बड़ी थी यहाँ बावड़ी, जिस पर जीर्ण-शीर्ण मंदिर | कहलाता था तल्ले वाला, तलघर थे वापी अन्दर। वापी को बंद किया संघी ने, तल पर मंदिर बनवाते । संवत् आठ शतक पन्द्रह में, संघी प्रतिष्ठा करवाते ।।
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सन उन्नीस सौ तैंतीस में, आचार्य शांतिसागर आये। आया स्वप्न एक दिन गुरु को गुफा रहस्य तब लख पाये।।
भूरे रंग का सर्प वहाँ है, यक्ष सुरक्षित बतलाये। तीजे तल तक गुरु जी पहुँचे, प्रथम जिनालय ले आये।।
सन् उन्नीस सौ चौरावन में, पूज्य सुधासागर आये। महातपस्वी, महाध्यानी हैं, जैनधर्म ध्वज फहराये।। बालयति हैं भावलिंगी हैं, मुनिपुंगव गुरु कहलाते।
साँगानेर वाले बाबा को अपने उर में पधराते।। गम्भीर धैर्य थे क्षुल्लक संघ में, मन ही मन में हषाये। सन् उन्नीस सौ निन्नायानवें में पुनः सुधासागर आये।। तीजी मंजिल से आगे तक, कोई अब तक नहीं गया। लेकिन सुधासागर के तप से यक्ष द्वार सब खोल गया।।
चौथी तल में जाकर गुरुजी, दूजा चैत्यालय लाये। प्रतिमा थी बत्तीस रत्न की, प्रथम बार गुरुजी लाये।। दशों लाख की जनता थी जब गुरुराज प्रतिमा लाये। रत्नमयी प्रतिमायें लखकर, जन-जन के मन हषाये।। शेष अभी हैं अनगिनत प्रतिमा, सुधासिन्धु ने बतलाई।
भूरे रंग का नागराज है, रास्ता उसने दिखलाई।। संघी मंदिर के उद्धारक, सुधासिन्धु कहलाते है।। वास्तुसार के ज्ञाता हैं मुनि, वास्तुदोष हटाते हैं।। कायाकल्प हुई मंदिर की, भक्तों के मन भाती है। चौबीसी ऊपर मंजिल में, सबके मन हर्षाती है।। इन्द्र शिरोधर मानस्तम्भ है, चतुर्मुखी प्रतिमा बैठी। दिग् चैत्यालय बने हुए हैं, फेरी में प्रतिमा बैठी।। मध्य विराजे पार्श्वनाथ त्रय, संकटमोचन हारी हैं। सौम्य मूर्ति है फनावली है, चिन्तामणी कहलाती हैं।। साँगानेर के आदिनाथ के, और अनेकों अतिशय हैं।
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कमलासन पर पद्मासन से, ऋषभदेव जी बैठे हैं।। तीन छत्र ऊपर सोने के, शोभा अद्भुत न्यारी है।
वीतराग मुद्रा है तेरी, सुर नर सबको प्यारी हैं।। तेरी पूजा जो कोई करता, विपदा सब टल जाती हैं।
भूत परेतों के बाधायें, पूजन से भग जाती हैं।। श्रद्धा से जो छत्र चढ़ाते, सुख सम्पत्ति सब पाते हैं।
जय जयकार करें बाबा की, पूजा का फल पाते हैं।। ऊँ ह्रीं श्री 1008 महाअतिशयकारी साँगानेर वाले बाबा आदिनाथजिनेन्द्राय पूर्णायँ निर्वपामीति
स्वाहा।
शरण आपकी आया हूँ मैं, प्रभु मेरा उद्धार करो। मेरी इस खाली झोली में, करुणा का भण्डार भरो।।
ध्यान धनेश्वर महामुनीश्वर तुमको बारम्बार नमन आदि जिनेश्वर हे परमेश्वर हो जावे सब ओर चमन।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री आदिनाथ जिन-पूजा (अयोध्या) (रचयिता - कल्याण कुमार शशि)
स्थापना हे ज्ञान दीप महिमामहीप, सादर समीप प्रभु आता हूँ। हे आदिनाथ कर दो सनाथ, चरणों में माथ नवाता हूँ।। आनन्दधाम नयनाभिराम, निष्काम नाम कहलाते हो। करुणावतार संकट निवार, भवसागर पार लगाते हो।। मैं शरणागत तव स्वागत में, नत होकर नयन बिछाता हूँ।
आवाहन करके नाथ तुम्हें, मन-मन्दिर में पधराता हूँ।। ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर-अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
अभिलाषाओं का दास बना, मैं फिरता हूँ मारा मारा। आत्मिक तृषा से विमुख हुआ, भटका मिथ्या तृष्णा द्वारा।। सागर का जल-पी-पीकर भी, जीवन प्यासा का प्यासा है।
अपवित्र तृषा मन को न छले, मन की पवित्र अभिलाषा है।। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
मैं भवाताप का शाप बना, मन मनस्ताप का सागर है।
अपने रत्नाकर को भूला, भटका अब मन का गागर है।। चन्दन शीतल कर देता है, यह सुनता गुनता आता हूँ।
मन की शीतलता पाने को, चन्दन की भेंट चढ़ाता हूँ।। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
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उत्कर्षण औ अपकर्षण की, आकुलताएँ भरमाती है। मन के मधुवन में ममताएँ, मन-मधुकर को बहकाती है।। तन्दुल सा निष्कलंक जीवन, मैं निज निःशंक न पाता हूँ।
आत्मिक मयंक पद पाने को, तन्दुल की भेंट चढ़ाता हूँ।। ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।।
मेरे विलास के जीवन में, सार्थक विकास मुरझाया है। समरस सुवास का नाम नहीं, मन में मधुमास समाया है।। अपने दुखदाता जीवन में, सुखसाता कहीं न पाता हूँ।
आतम-उपवन महकाने को, पुष्पों की भेंट चढ़ाता हूँ।। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।40
काषायिक छलबल का रिपुदल, पुद्गल को सबल बनाता है।
पर्याय-परिग्रह का संग्रह, मन में विग्रह उपजाता है।। चक्रेश्वर बनकर वसुधा का, मैं क्षुधा न कम कर पाया हूँ।
मृगतृष्णा पर जय पाने को, नैवेद्य चढ़ाने आया हूँ।। ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
कर्मों की मिथ्याती जगमग, मेरा मन बहुत रिझाती है। अध्यात्म-दीप की दिव्य-ज्योति, किंचित भी मुझे न भाती है।।
उर के अज्ञान अंधेरे में, अपना उत्थान न भाता है।
शिव की समीपता पाने को, चरणों में दीप जलाता हूँ।। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
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आताप पाप पर जय पाकर, मन का सन्ताप जलाना है। जो आत्मा को कंचन कर दे, ऐसा ईंधन दहकाना है ।। संहनन संज्वलन सहन नहीं, इनको झुलसाने आया हूँ। जो आत्मस्वरूप अनूप करे, वह धूप चढ़ाने आया हूँ।। ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। 7।
तुमने आगम को अपना कर, परमागम के पथ को परखा। संसार समागम को तजकर, परमातम फल का स्वाद चखा।
कर्मों के फल पाते पाते, निष्फल फल से घबराया हूँ। जो फल पाकर तुम सफल हुए, ऐसा फल पाने आया हूँ।। ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय मोक्षमहाफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। 8 ।
ये दुर्दमनीय कलुषताएँ, जो क्षमताएँ हर लेती हैं। मेरी अर्हन्त अवस्था को, जो प्रकट न होने देती हैं।
अपने चिन्तामणि-चेतन को, मैं बिखरा - बिखरा पाता हूँ।
आठों दुःख-कर्म नशाने को, आठों शुभ-द्रव्य चढ़ाता हूँ।।
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 9।
पंचकल्याणक
सोलह सपने मरु देवी ने, देखे देवों पर सुखदाई। कृष्णा आषाढ़ दुतिया के दिन, दैदीप्य गर्भ में निधि आई।
इन सपनों का फलितार्थ जान, मरूदेवी मन में हर्षाई। मानों पुण्योदय के फल से, यह कल्पलता सी निधि पाई।। ॐ ह्रीं आषाढ़ कृष्णा-द्वितीयायां गर्भमंगलमंडिताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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हो गये तिरोहित पाप-मेघ, आलोकित जय-जयकार हुआ। शुभचैत्र कृष्ण नवमी के दिन, आदित्य आदि अवतार हुआ ।।
अरुणोदय का निर्झर फूटा, रवि की किरणें जगमगा उठीं। मरुदेवी का गृह तीर्थ बना, नभ में दुंदुभि झनझना उठी।।
ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-नवम्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ चैत्र कृष्ण नवमी के दिन, तुमने जिनेन्द्र दीक्षाधारी। पूरे हजार वर्षों तप कर, महकायी तप की फुलवारी।। दुर्द्धर तप के अन्तर्बल से, निर्झर आलोक उमड़ आया। घातिया कर्म हनने का बल, तुमने आत्मा में प्रकटाया।।
ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-नवम्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
फाल्गुन कृष्णा एकादशि को, प्रभु आप बने केवलज्ञानी। चरणों में तिष्ठे धर्मचक्र, भाषाओं की वीणा वाणी। शुभ समवशरण के प्रांगण में, उठी जिनेश्वर की वाणी । अब मुक्तिरमा ने जिनवर की, अगवानी करने की ठानी।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-एकादश्यां ज्ञानसाम्राज्य-प्राप्ताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आस्रव की घोर निर्जराकर कर्मों का चक्रव्यूह तोड़ा।
जो सिद्ध शिला तक का पथ है उस पर संवर का रथ मोड़ा।
चौदहवें गुणस्थान की निधि अन्तमुहूर्त में प्रगटाली।
कृष्ण शुभ माघ चतुर्थी को शिव रमणी से भांवर डाली।
ऊँ ह्रीं माघकृष्णा-चतुर्थ्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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जयमाला
मैं सर्वप्रथम आदीश्वर को, मन वचन काय से ध्याता हूँ। चरणारविंद में गद्गद हो, श्रद्धा से शीश झुकाता हूँ।। अभिराम अयोध्या नगरी में, प्रभु जन्म आपने पाया है। इस साधारण साकेता की, माटी को स्वर्ण बनाया है ।। यह तीर्थंकर-प्रसवा नगरी, यश जैन धर्म का गाती है। अगणित तीर्थंकर की जननी, यश धर्म भूमि कहलाती है। इसके अवशेषों में दुर्लभ, मकरन्द धर्म का बिखरा है। यह युगारम्भ से महिमामय, कौशलपुर की वसुन्धरा है।। श्री नाभिराय चौदहवें नृप, मनु परम्परा के धारी थे। प्राचीन अयोध्या नगरी के, वैभवधारी अधिकारी थे । इनकी भार्या मरुदेवी ने, प्रिय ऋषभ देव सा सुत पाया।
तुमको पा नाभिनरेश सहित, सारा भूमण्डल हरषाया।। अजित अभिनन्दन सुमतिनाथ, और चौदहवें अनन्त जिनवर। ये इसी अयोध्या नगरी में, जन्मे हैं पांचों तीर्थंकर || तपशूर बाहुबलि स्वामी ने, अवतरण यहीं पर पाया है। जिनके घोर तप आचरण ने, चक्री का गर्व हिलाया है ।। शिव को जाने वाले पथ पर, इन सबने यहीं प्रवेश किया। संकट सागर से तिरने का, जग को महान सन्देश दिया।। जो अरुणोदय भूमण्डल में, अपने जिनमत ने देखा था। वह विश्व-विजय का स्वप्न तभी, चक्रेश भरत ने देखा था ।। इस अतिशय पूर्ण धरातल की, महिमा का पारावार नहीं। इसका कैसे गुणगान करें, शब्दावलि का भण्डार नहीं।। इस जन्म क्षेत्र की पांच भव्य, टोकें मन हरने वाली हैं।
मानों इसके अतीत की ये, टोकें करती रखवाली हैं ।। सम्मेद शिखर जी के तादात्म्य, इसका महात्म्य सुखकारी है।
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यह अनुपम तीर्थंकर नगरी, भक्तों को मंगलकारी है।। यह धर्मतीर्थ का रत्नाकर, जो बाह्य रूप में गगरी है। लोकोत्तर महामानवों की, गर्भस्य अयोध्या नगरी है।। अब धर्मकाल का परिवर्तन, इस साकेता पर छाया है। हुण्डावसर्पिणी के कारण, इसमें शैथल्य समाया है।। इस अवधपुरी में कई शेष, प्राचीन भव्य जिनमंदिर हैं। इनकी मनोज्ञ प्रतिमाओं में, तीर्थंकर औ आदीश्वर हैं।। कटरों के मन्दिर का दर्शन, मन में प्रमोद भर देता है। यह राजघाट का चित्रकूट, स्वयमेव हृदय हर लेता है।। प्रतिबिम्ब इकत्तीस फुट ऊँची, यह पहिले तीर्थंकर की है।
यह परम वीतरागी मुद्रा, वैराग्य भावना भरती है।।
आचार्य देशभूषण इसके, स्वयमेव प्रेरणादायक हैं। दिल्ली के पारस दास स्वयं, इस प्रतिमा के संस्थापक हैं।।
श्री शिव पुराण ऋग्वेद तथा, ब्रह्माण्ड पुराण बताते हैं। ये विविध नाम के आदि पुरुष, श्री आदिनाथ कहलाते हैं।। हे तीर्थंकर जिनराज ऋषभ, तुम जग के आदि विधाता हो।
गुरुपास्ति, धर्म स्वाध्याय ज्ञान, इसके महान निर्माता हो।। प्राचीन श्रमण संस्कृति के तुम, आध्यात्म-स्रोत व्याख्याता हो। वाणिज्य, शिल्प कृषि, असि, मसि के, तुम उपकारी जन्माता हो।। मति, श्रुत औ अवधि ज्ञान इनके, तुम जन्मजात अधिकारी को।
तुम मनपर्यय, केवल गुण के, प्रत्यक्ष परम पदधारी हो।। तनुजाएँ ब्राह्मी सुन्दरी दो, इनको महान विज्ञान दिया। इन योग्य पुत्रियों को पहला, अक्षर अंको का ज्ञान दिया।। गार्हस्थ्य धर्म जग को देकर, तुमने महान उपकार किया। निर्वाह नियम गृह का विधान, सीमाओं का, आधार दिया।। तुम हो समदर्शी सिद्ध बुद्ध, निस्सीम सम्पदा त्यागी हो।
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तुम निर्विकल्प चैतन्य रूप, शिव मन्दिर के अनुरागी हो।। द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय का, भौतिक बल तुम से हारा है। लब्धियाँ और उपयोग सहित, क्षय-क्षायिक दास तुम्हारा है।।
साताएँ तथा असाताएँ, इनमें न ममत्व तुम्हारा है। स्वयमेव वृक्ष की छाया से, पाता संसार सहारा है।। ममता से और विषमता से, किंचित न तुम्हारा नाता है। चरणों में आकर भक्त स्वयम्, मन की साता पा जाता है।। साकेतपुरी-पति ऋषभदेव, तुमको जो मन से ध्याते हैं। इन्द्रिय. कषाय पर जय पाकर. भव सागर से तिर जाते हैं।। घातिया कर्म की ज्वालाएँ, आत्मा की शान्ति जलाती हैं। शरणागत की यह विपदाएँ, स्वयमेव बिखरती जाती हैं।। तुम द्वन्द्व रहित निद्र्वन्द प्रभो, अनुराग तुम्हें न सुहाता है। चन्दन तरु पर आसक्त अनिल, मलयानिल बनता जाता है।। यह मेरी अन्तिम विनय प्रभो, करुणावतार स्वीकार करो। जित भाँति आप भव पार हुए, जिनराज हमें भी पार करो।
जिनवर की पूजा का प्रसाद, स्वयमेव महासुखदाता है। अपने निर्मल भावों का फल, जिन भक्त स्वयं पा जाता है।। मधुावन के फूलों की सुगन्ध, बिन बांटे जग को मिलती है। दिनकर की किरणों को छूकर, पंखुरी स्वयं खिल पड़ती है।। गुण ग्राहक को गुणवानों का, उपहार स्वयं मिल जाता है।
पुरवैया का पावन प्रसाद, गेहूं को स्वयं पकाता है।। दैदीप्य चन्द्रमा का आनन, चकवी को पास बुलाता है। इस तरह आपका दास प्रभो, शिव का निवास पा जाता है।। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथाजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
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हे कर्मदली हे महावबली, जो दर्श आपका पाते हैं। वे रिद्धि सिद्धियों को पाकर, स्वयमेव सिद्ध बन जाते हैं।। जिन राज आप हैं मुक्तजीव, हम संसारी कहलाते हैं। जो शरण आपकी आते हैं, वे मुक्त जीव बन जाते हैं।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।
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श्री आदिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - नंदन कवि)
(वसंततिलका) हे देव! पूज्य वृषभेश यहां पधारो, आह्वाननं मैं करत तिष्ठ सुतिष्ठ तारो। कीनो पवित्र वृषको उपदेश सारी,
पूजों सदा तव पदाब्ज भवाब्धि तारो।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभजिनेन्द्र! अत्र अवतर-अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीवृषभजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीवृषभजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
(त्रिभंगी) अघ भेदन दच्छ, शशि सम स्वच्छ तर्पित अच्छं, नीर भरों।
तसु धारा धारों, तृषा निवारों, कर्म विदारों पूज करों।। प्रथम सु तीर्थंकर, जगत हितंकर, हे अभयंकर, आदि जिन।
सब कर्म क्षयंकर, दया धुरंधर, जगजन शंकर शर्म घन।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
अघ धर्म निवारण शीतल कारण गंधसे पूजन, नित्य करों। जय धर्म उधारण हे भवतावरण करुणाकारण अर्ज करों।। प्रथम सु तीर्थंकर, जगत हितंकर, हे अभयंकर, आदि जिन।
सब कर्म क्षयंकर, दया धुरंधर, जगजन शंकर शर्म घन।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
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भरी अक्षत थारी अक्षनहारी तुम पद धारी सों अर्ची। अक्षय पदधारी भव-भव तारी अति सुखकारी सों पिरचों।। प्रथम सु तीर्थंकर, जगत हितंकर, हे अभयंकर, आदि जिन।
सब कर्म क्षयंकर, दया धुरंधर, जगजन शंकर शर्म घन।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।31
मदमदन विभंजन भवभयभंजन शिववधु-रंजन विश्वयते। शुभ कमल चढ़ाऊं कमला पाऊं अमला ध्याऊं जगदिदते।। प्रथम सु तीर्थंकर, जगत हितंकर, हे अभयंकर, आदि जिन।
सब कर्म क्षयंकर, दया धुरंधर, जगजन शंकर शर्म घन।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
सब मोदक मोदन रसना मोहन कर्म विमोचन सद्य करो।
नैवेद्य चढाऊं पूज रचाऊं गुणगण गाऊं पूजे करों।। प्रथम सु तीर्थंकर, जगत हितंकर, हे अभयंकर, आदि जिन।
सब कर्म क्षयंकर, दया धुरंधर, जगजन शंकर शर्म घन।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
मिथ्यान्ध निवारा अति उजियारा दीपक धारा पूज करों।
करु तुमपद आरति नाशे आरति भासे भारति ज्ञानधरों। प्रथम सु तीर्थंकर, जगत हितंकर, हे अभयंकर, आदि जिनं।
सब कर्म क्षयंकर, दया धुरंधर, जगजन शंकर शर्म घन।। ॐ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
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बहु धूप अनलमें कर्म जलनमें लयो शरण में चरणन में।
हे दूरी कृतमद देहु मोक्षपद पूजत तुमपद सेवन में। प्रथम सु तीर्थंकर, जगत हितंकर, हे अभयंकर, आदि जिन।
सब कर्म क्षयंकर, दया धुरंधर, जगजन शंकर शर्म घन।। ॐ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
बादाम सुश्रीफल बहु पुंगीफल ले अनेक फल सों अच्यों। बहू थार भराऊँ तुम यश गाऊँ शिवसुख पाऊँ सोम?।। प्रथम सु तीर्थंकर, जगत हितंकर, हे अभयंकर, आदि जिन।
सब कर्म क्षयंकर, दया धुरंधर, जगजन शंकर शर्म घन।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय मोक्षमहाफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
पावन जल चंदन अक्षत पुष्पन चरुवर दीपन धूप धरो।
वर अर्घ उतारों तुमपद धारों नंदन तारों पूज करों।। प्रथम सु तीर्थंकर, जगत हितंकर, हे अभयंकर, आदि जिनं।
सब कर्म क्षयंकर, दया धुरंधर, जगजन शंकर शर्म घन।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।9।
पंचकल्याणक
(तामरस) असित अषाढ़ सुदोज वखानी, गरभधरो प्रभु मात भवानी।
नर हरि देव नमे जिन माता, हम शिर नावत पावत साता।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय आषाढकृष्णा-द्वितीयायां गर्भमंगल-मंडिताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
असित सुचैत जये नवमीको, हरि अभिषेक किये प्रभुजीको।
__ कुसुम सुदेवन ने वरसाये, जय-जय शब्द किये हरसाये।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय चैत्रकृष्णा-नवम्यां जन्ममंगल-मंडिताय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
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भव तन भोग अनित्य विचारा इम मन धार तवे अपधारा।
सुर शिविका धर कानन धाये, धन-धन देव अहो धन जाये।। ॐ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय चैत्रकृष्णा-नवम्यां तपोमंगल-मंडिताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
असित सुफागुन ज्ञानसि पायो, सकल चराचर वस्तु लखायो।
पशु नर देव सु पूजन आये, हम इत मंजुल मंगल गाये।। ॐ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय फाल्गुनकृष्णा-एकादश्यां ज्ञानसाम्राज्य-प्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
असित सु चौदस माघ सुपायो, शिवरमणी वर के सुख पायो।
हरि हरादि जजे कयलाशा, जजत जिनेश नशे भवपासा।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय माघकृष्णा-चतुर्थ्यां मोक्षमंगल-मंडिताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला जय आदि जिनंद सुचंद नमो, जय इन्द्र नरिंद्र सुचंद नमो। जय मोह महा अरि फंद नमो, जय आनंद कंद जिनंद नमो।। युग आदि जिनं विभु देव नमो, जग जीवन के प्रभु देव नमो। जय लोक हितंकर नाथ नमो, युग में अभयंकर नाथ नमो।। जय आदि जिनेश महेश नमो, जय वंदित ईश सुरेश नमो। सुकृषि मसि आदि प्रकाश न मो, शिव मारग परकास नमो।। जयलोक अलोक विकास नमो, चिदआतम ज्योति विलास नमो।
शत पांच धनुष विशाल नमो, कनक महादुति भाल नमो।। भवसागर तारण सेत नमो, दुःख दंद निवारण हेत नमो। जय सात तत्त्व परकास नमो, जिनेश महेश महेश नमो।। समोसुत्ति संपति प्राप्त नमो, निरदोष जिनेश सु आप्त नमो।
जय श्रीधर श्रीकर देव नमो, जय श्रीवर श्रीभर सेव नमो।। जय मुक्ति रमापति पाद नमो, जय भव दुःख नाशक पाद नमो। जय दीनदयाल कृपाल नमो, जय नाथ अनाथन पाल नमो।।
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जग जीवन को उच्चार नमो, कृतकृत्य प्रभु जगतार नमो। जय केवल भान अमान नमो, जग पूज्य शिरोमन जात नमो।। भव संकट भंजन पाय नमो, नित मंगल वृन्द वधाय नमो । भगवंत सुसंत अनंत नमो, जयवंत महंत नमंत नमो। घत्ता (आर्या)
आदिश्वर जिनराजा, हे जग शिर ताजा, सुख साजा । भोदधितरण जहाजा, नंदन कीजे शिवका राजा ।। पशु नरदेव सुजन आये, हम इत मंजुल मंगल गाये।। ऊँ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(शिखरिणी)
महापापी तारे अधम नर जे अंजन नसे। निवारे दुःखों से विकट भव के संकट नसे। यही मेरी आशा हरहु भव फासा तुम नमें। नमूँ पूजूँ ध्याऊँ वृषभजिनको नंदन नमे
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री आदिनाथ जिन-पूजा ( रचयिता - ब्र. रवीन्द्र जैन)
दोहा
नमूँ जिनेश्वर देव मैं, परम सुखी भगवान । आरार्धं शुद्धात्मा, पाऊँ पद निर्वाण ।।
हे धर्म पिता सर्व जिनेश्वर, चेतन मूर्ति आदिनिजं, मेरा ज्ञायक रूप दिखाने दर्पण सम, प्रभु आदिनाथजिनं। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरण पा सहज सुधारस आप पिया, मुक्तिमार्ग दर्शा कर स्वामी, भव्यों प्रति उपकार किया। दोहा
साधक शिव पद का अहो, आया प्रभु के द्वार सहज शुद्धातम भावना, जिन-पूजा का सार ||
ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर- अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम् )
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
चेतन मय है सुख सरोवर, श्रद्धा पुष्प सुशोभित है, आनन्द मोती चरते हंस सुकेलि करें सुख पावे हैं। स्वानुभूति के कलश कनकमय, भरि भरि प्रभु को पूजें हैं, ऐसे धर्मी निर्मल जल से, मोह मैल को धोते हैं।
अथाह सरवर आत्म आनन्द रस छलकाय,
आत्म शान्त-रस पान से, जन्म मरण मिट जाय।
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु- विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
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मग्न प्रभु चेतन सागर में शान्ति जल से न्हाय रहे, मोह मैल को दूर हटाकर, भवाताप से रहित भये। तप्त हो रहा मोह ताप से सम्यक् रस में स्नान करूँ, समरस चन्दन से पूजू अरु तेरा पथ अनुसरण करूँ।
चेतन रस को घोलकर चरित सुगन्ध मिलाय,
भाव सहित पूजा करूँ, शीतलता प्रगटाय। ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्ष अगोचर प्रभो आप, पर अक्षत से मैं पूजा करूं, अक्षांतरित ज्ञान को करके, अक्षय पद को प्राप्त करूं।
अन्तर्लक्षी ज्ञान के द्वारा, प्रभुवर का सम्मान करूं, पूनँ जिनवर परम भाव से, निज सुख का आस्वाद करूँ।
अक्षय सुख का स्वाद लूँ, इन्द्रिय मन के पार,
सिद्ध प्रभु सुख मगन ज्यों, तिष्ठे मोक्ष मँझार। ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
निष्काम अतीन्द्रिय देव! अहो पूनँ मैं श्रद्धा सुमन चढ़ा, कृतकृत्य निष्काम हुआ, तब मुक्ति मार्ग में कदम बढ़ा। गुण अनंतमय पुष्प सुगन्धित, विकस रहे हैं आतम में,
कभी नहीं मुरझावे परमानन्द पाया शुद्धातम में। रत्नत्रय के पुष्प शुभ, खिले आत्म उद्यान,
सहज भाव से पूजते हर्षित हूँ भगवान। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
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तृप्त क्षुधा से रहित जिनेश्वर, क्या नैवेद्य से पूजा करूँ, अनुभव रसमय नैवेद्य साँचा, तुम चरणों में प्राप्त करूँ। चाह नहीं किंचित् भी स्वामी, स्वयं स्वयं में तृप्त रहूँ, सादि अनंत मुक्ति पद जिनवर, आत्म-ध्यान से प्रकट लहूँ। जग का झूठा स्वाद ये, चाख्यो बार अनंत, वीतराग जिन स्वाद लूँ, होवे भव का अन्त
ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अगणित दीपों का प्रकाश भी, दूर नहीं अज्ञान करे, आत्म-ज्ञान की एक किरण, ही मोहतिमिर को तुरंत हरे । अहो ज्ञान की अद्भुत महिमा, मोही नहिं पहचान सकें, आत्म-ज्ञान का दीप जलाकर, साधक तेरी पूजा करें स्वानुभूति प्रकाश में, भासे आत्म-स्वरूप,
राग-पवन लागे नहीं केवलज्योति अनूप
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
द्वेष भाव नहीं रहा, रागांश मात्र विशेष हुआ, ध्यान-अग्नि प्रगटी ऐसी, तहाँ कर्मेन्धन सब भस्म हुआ।
अहो आत्म-शुद्धि अद्भुत है, धर्म सुगन्धी फैल रही, दशलक्षण की प्राप्ति करने, प्रभु चरणों की शरण गही। स्व सन्मुख हो अनुभवँ ज्ञानानन्द स्वभाव, निज में ही हो लीनता, विनसै सर्व विभाव।
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
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सम्यक् दर्शन मूल अहो चारित्र वृक्ष पल्लवित हुआ, स्वानुभूति मय अमृत फल आस्वा, अति ही तृप्त हुआ। मोक्ष-महाफल भी आवेगा, निश्चय ही विश्वास अहो, निर्विकल्प हो पूर्ण लीनता, फल पूजा का प्रभू अहो।
निर्वाछक आनन्दमय, चाह न रही लगार,
भेद पूजक-पूज्य का, फल पूजा का सार। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय मोक्षमहाफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक् तत्त्व स्वरूप न जाना नहीं यथार्थतः पूज सका,
रागभाव को रहा पोषता, वीतरागता से चूका। काल लब्धि जागी अंतर में भास रहा है सत्य स्वरूप। पाऊँगा निज सम्यक् प्रभुता, भास रही निज माँहि अनूप।
सेवा सत्यस्वरूप की, ये ही प्रभु की सेव,
निज सेवा व्यवहार से, निश्चय आतमदेव। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक (सोरठा) द्वितीया कृष्णा असाढ़, मरुदेवी के गर्भ में। आय बसे प्रभु आप, सर्वार्थ सिद्धि विमान तें।। गर्भवास दुख रूप तहाँ भी प्रभु आनन्दमय।
माँ को कुछ नहिं कष्ट, रत्न पिटारे ज्यों रहे।। ऊँ ह्रीं आषाढकृष्णा-द्वितीयायां गर्भकल्याणक-प्राप्ताय
श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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नवमी कृष्णा चैत, भयो जन्म कल्याणमय। नरकों में भी नाथ, इक क्षण को साता भई।। इन्द्रादिक भी आय, कियो महोत्सव जन्म को।
मेरु पर अभिषेक, क्षीरोदधि तें प्रभु भयो।। ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-नवम्यां जन्मकल्याणक-प्राप्ताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
भासो जगत असार, देख निधन नीलांजना। नवमी कृष्णा चैत्र परम दिगम्बर पद धरो।। चिदानन्द पद सार, ध्यावन को मुनिपद धरो।
लौकान्तिक सुर आय अनुमोदा वैराग्य को।। ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-नवम्यां तपकल्याणक-प्राप्ताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
प्रगट्यो केवल ज्ञान, फाल्गुन कृष्ण एकादशी। धर्म तीर्थ सुखकार, हुआ प्रवर्तित आप से।। समझो तत्त्व स्वरूप, दिला देशना श्रवण कर।
पाई मुक्ति अनूप, भव्यन निज पुरुषार्थ तें।। ऊँ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-एकादश्यां ज्ञानकल्याणक-प्राप्ताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पायो अविचल थान, चौदश कृष्णा माघ दिन। गिरि कैलाश महान, तीर्थ प्रगट जग में भयो। सहज मुक्ति अविकार, शुद्धातम की भावना।
वर्ते प्रभु सुखकार, मैं भी तिष्ठू आप ढिंग।। ऊँ ह्रीं माघकृष्णा-चतुर्दश्यां मोक्षकल्याणक-प्राप्ताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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जयमाला
आदीश्वर वन्, सदा, चिदानन्द छलकाय। चरण शरण में आपकी, मुक्ति सहज दिखाय।। धन्य ध्यान में आप विराजे, देख रहे प्रभु आतमराम। ज्ञाता दृष्टा अहो जिनेश्वर, परम ज्योति मय आनंदधाम।। रत्नत्रय आभूषण साँचे, जड़ आभूषण का क्या काम।
रागद्वेष निःशेष हुए हैं, अस्त्र-शस्त्र का लेश न नाम।। तीन लोक के स्वयं मुकुट हो, स्वर्ण मुकुटका है क्या काम। प्रभु त्रिलोक के नाथ कहाओ, फिर भी निज में ही विश्राम।।
भव्य निहारें अहो आपको, आप निहारें अपनी ओर। धन्य आपकी वीतरागता, प्रभु प्रभुता का ओर न छोर।।
आप नहीं देते कुछ भी पर भक्त आप से ले लेते। दर्शन कर उपदेश श्रवण कर, तत्त्व ज्ञान को पा लेते।। भेदज्ञान अरु स्वानुभूत कर शिव पथ में लग जाते हैं। अहो आप सम स्व-श्रम द्वारा, निज प्रभुता प्रगटाते हैं।। जब तक मुक्ति नहीं होती, प्रभु पुण्य सातिशय होने से।
चक्री इन्द्रादिक के वैभव मिलें अन्न संग के तुष से।। पर उनको चाहे नहिं ज्ञानी, मिलें किन्तु आसक्त न हो। निजानन्द अमृत रस पीते, विष फल चाहे कौन अहो।। ध्याबैं नित वैराग्य भावना, क्षण में छोड़ चले जाते। मुनि दीक्षा ले परम तपस्वी, निज में ही रमते जाते।।
घोर परीषह उपसर्गों में मन सुमेरु नहिं कम्पित हो। क्षण-क्षण आनन्द रस वृद्धिंगत क्षपक श्रेणि आरोहण हो।। शुक्ल ध्यान बल घाति विनष्टे, अर्हत् दशा प्रगट होती। अल्प काल में सर्व कर्ममल, वर्जित मुक्ति सहज होती।। परमानन्दमय दर्श आपका, मंगल उत्तम शरण ललाम। निरावरण निर्लेप परम प्रभु, सम्यक् भावे सहज प्रणाम।।
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ज्ञान माँहि स्थापन कीना, स्व सन्मुख होकर अभिराम। स्वयं सिद्ध सर्वज्ञ स्वाभावी, प्रत्यक्ष निहारूँ आतमराम।।
प्रभु नन्दन मैं आपका, हूँ प्रभुता सम्पन्न।
अल्प काल में आपके, तिष्ट्गा आसन्न।। ऊँ श्री आदिनाथजिनेन्द्राय पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा।
दर्शन ज्ञान स्वभाव मय, सुख अनंत की खान। जाके आश्रय प्रगटता, अविचल पद निर्वान।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री आदिनाथ जिन-पूजा (रैवासा-राज.) (रचयिता - श्री लालचन्द जैन राकेश)
हे रैवासा के आदिनाथ! हे आदीश्वर! अतिशयकारी। हे मुक्तिकंत! सर्वज्ञ प्रभु! हे ऋषभदेव! भव-भय-हारी।। भक्ति भाव से प्रेरित होकर, प्रभु! हमने तुम्हें पुकारा है। भगवान् हमको भी पार करो, तुमने बहुतों को तारा है।। हम द्वार तुम्हारे आये हैं, करुणा कर नाथ निहारो तो।
मेरे उर के कमलासन पर, पधराओ प्रभो विराजो तो।। ऊँ ह्रीं श्री भव्योदय अतिशयक्षेत्र रैवासा-स्थित श्री 1008 भगवान्आदिनाथजिनेन्द्र!
अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्) ऊँ ह्रीं श्री भव्योदय अतिशयक्षेत्र रैवासा-स्थित श्री 1008 भगवान्आदिनाथजिनेन्द्र!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्री भव्योदय अतिशयक्षेत्र रैवासा-स्थित श्री 1008 भगवानआदिनाथजिनेन्द्र!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्) जन्म-जरा-मृत्यु के रोगों से, भगवान मैं सतत सताया हूँ।
प्रभुवर उनसे मुक्ति पाने, तेरे चरणों में आया हूँ।। हे रैवासा के आदिनाथ, भगवन् मेरा उद्धार करो।
दृढ़ता से बाहु पकड़ मेरी, संसार-जलधि से पार करो।। ॐ ह्रीं श्री भव्योदय अतिशयक्षेत्र रैवासा-स्थित श्री 1008 भगवानआदिनाथजिनेन्द्राय! जन्मजरामृत्यु
विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु अशुभ कर्म की ज्वाला से, युग-युग से जलता आया हूँ। तव पद-रज के हित चन्दन से, शीतलता पाने आया हूँ।।
हे रैवासा के आदिनाथ, भगवन् मेरा उद्धार करो।
दृढ़ता से बाहु पकड़ मेरी, संसार-जलधि से पार करो। ऊँ ह्रीं श्री भव्योदय अतिशयक्षेत्र रैवासा-स्थित श्री 1008 भगवानआदिनाथजिनेन्द्राय! संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
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हूँ शुद्ध-बुद्ध अविनाशी हूँ, अक्षय-शाश्वत पद मेरा है। अक्षय पद मुझको मिल जाये, प्रभु एक सहारा तेरा है।।
हे रैवासा के आदिनाथ, भगवन् मेरा उद्धार करो।
दृढ़ता से बाहु पकड़ मेरी, संसार-जलधि से पार करो।। ऊँ ह्रीं श्री भव्योदय अतिशयक्षेत्र रैवासा-स्थित श्री 1008 भगवानआदिनाथजिनेन्द्राय! अक्षयपद
प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
काम-पाश आबद्ध हुआ मैं, व्याकुल हूँ, तड़पाया हूँ। इससे छुटकारा मिल जाये, प्रभु पुष्प चढ़ाने आया हूँ।।
हे रैवासा के आदिनाथ, भगवन् मेरा उद्धार करो।।
दृढ़ता से बाहु पकड़ मेरी, संसार-जलधि से पार करो।। ऊँ ह्रीं श्री भव्योदय अतिशयक्षेत्र रैवासा-स्थित श्री 1008 भगवानआदिनाथजिनेन्द्राय! कामबाण
विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षधा-अनल की भीषण ज्वाला, किंचित् न शांत कर पाया हूँ।
नैवेद्य चढ़ाकर हे स्वामिन्! मैं उसे बुझाने आया हूँ।।
हे रैवासा के आदिनाथ, भगवन् मेरा उद्धार करो।
दृढ़ता से बाहु पकड़ मेरी, संसार-जलधि से पार करो।। ऊँ ह्रीं श्री भव्योदय अतिशयक्षेत्र रैवासा-स्थित श्री 1008 भगवानआदिनाथजिनेन्द्राय! क्षुधारोग
विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मेरे मानस में छाया है, आतम-गुण घाती मोह-तिमिर। मैं दीप सजाकर लाया हूँ, भगवन् मेटो संसार-तिमिर।।
हे रैवासा के आदिनाथ, भगवन् मेरा उद्धार करो।
दृढ़ता से बाहु पकड़ मेरी, संसार-जलधि से पार करो।। ऊँ ह्रीं श्री भव्योदय अतिशयक्षेत्र रैवासा-स्थित श्री 1008 भगवानआदिनाथजिनेन्द्राय! मोहान्धकार
विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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अष्ट कर्म दुष्टों के कारण, भव-भव में भरमाया हूँ। ध्यान-अग्नि से कर्म नशे, मैं धूप चढ़ाने आया हूँ।।
हे रैवासा के आदिनाथ, भगवन् मेरा उद्धार करो।
दृढ़ता से बाहु पकड़ मेरी, संसार-जलधि से पार करो।। ऊँ ह्रीं श्री भव्योदय अतिशयक्षेत्र रैवासा-स्थित श्री 1008 भगवानआदिनाथजिनेन्द्राय! अष्टकर्म
दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
चहुँ गति से छुटकारा पाकर, मम उर्ध्वगमन का भाव रहा। चरणों में चढ़ाकर फल भगवन्! मैं अक्षय मोक्षफल चाह रहा।।
हे रैवासा के आदिनाथ, भगवन् मेरा उद्धार करो।
दृढ़ता से बाहु पकड़ मेरी, संसार-जलधि से पार करो।। ऊँ ह्रीं श्री भव्योदय अतिशयक्षेत्र रैवासा-स्थित श्री 1008 भगवान्आदिनाथजिनेन्द्राय! मोक्षमहाफल
प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल फलादि वसु द्रव्य मिलाकर, यह अर्घ्य चढ़ाया है स्वामिन्।
हो अनर्घ पद प्राप्त सद्य ही, बस यही प्रार्थना है भगवन्।। ___ हे रैवासा के आदिनाथ, भगवन् मेरा उद्धार करो।
दृढ़ता से बाहु पकड़ मेरी, संसार-जलधि से पार करो। ऊँ ह्रीं श्री भव्योदय अतिशयक्षेत्र रैवासा-स्थित श्री 1008 भगवान आदिनाथजिनेन्द्राय! अनर्घ्यपद
प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक आषाढ वदी द्वितीया के शुभ दिन सर्वार्थ सिद्धि से आये हैं। ___माता के गर्भ बसे आकर, बहुरत्न कुबेर बरसाये हैं।।
हे रैवासा के आदिनाथ, भगवन् मेरा उद्धार करो।
दृढ़ता से बाहु पकड़ मेरी, संसार-जलधि से पार करो।। ॐ ह्रीं आषाढकृष्णा-द्वितीयायां गर्भकल्याणक-प्राप्ताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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चैत्रवदी नवमी तिथि शुभदा, जन्में त्रिभुवन सुखदाता हैं। इन्द्र किया अभिषेक मेरु पर, वह अक्षय पुण्य कमाता है।।
हे रैवासा के आदिनाथ, भगवन् मेरा उद्धार करो।
दृढ़ता से बाहु पकड़ मेरी, संसार-जलधि से पार करो।। ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-नवम्यां जन्मकल्याणक-प्राप्ताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्र कृष्णा नवमी जब आई, वैराग्य हुआ गृह त्याग दिया। छस मास योग ले दीक्षा ली, वन गये कठिन तप धार लिया।।
हे रैवासा के आदिनाथ, भगवन् मेरा उद्धार करो।
दृढ़ता से बाहु पकड़ मेरी, संसार-जलधि से पार करो।। ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-नवम्यां तपकल्याणक-प्राप्ताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
इक सहस्र वर्ष तप तपने से, प्रभु केवल ज्ञान उपाया है। फाल्गुन कृष्णा एकादशी को, यह शुभतम अवसर आया है।।
हे रैवासा के आदिनाथ, भगवन् मेरा उद्धार करो।
दृढ़ता से बाहु पकड़ मेरी, संसार-जलधि से पार करो।। ऊँ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-एकादश्यां ज्ञानकल्याणक-प्राप्ताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
प्राणी मात्र को दिव्यध्वनि से हितकारी उपदेश दिया। माघवदी चौदस तिथि शुभकर, प्रभु ने शिवपुर गमन किया।।
हे रैवासा के आदिनाथ, भगवन् मेरा उद्धार करो।
दृढ़ता से बाहु पकड़ मेरी, संसार-जलधि से पार करो।। ऊँ ह्रीं माघकृष्णा-चतुर्दश्यां मोक्षकल्याणक-प्राप्ताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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जयमाला
आदि-सुमति जिनदेव को, नमूं त्रियोग सम्हाल।
श्री भव्योदय तीर्थ की, गाता हूँ गुणमाल।। भारत का राजस्थान प्रान्त, जहाँ सीकर जिला सुहावन है। बस अठारह मील की दूरी पर, तहाँ रैवासा मनभावन है।। यह अतिशय प्राचीन क्षेत्र, नग-शोभा कही न जाती है। अरावलि पर्वत की माला, शिर मुकुट उसे पहनाती है।।1।। इक विशाल जिनधाम यहाँ पर, स्थापत्य कला मनहारी है। इसके स्तम्भों की संगणना, मन विस्मित करने वाली है।। मंदिर बीच वेदिका ऊपर, श्री आदिनाथ का समवशरण। दक्षिण बरामदे में राजित पट नव्य वेदिका शुभ्रवरण।।2।। यहीं सुशोभित सुमतिनाथ जी, थे प्रकट हुये अतिशयकारी। इनकी चरण छत्रिका निर्मित, है यथा स्थान जन-मन-हारी।।
मंदिर से एक किलोमीटर, दूरी पर नशियां शोभित है। चन्द्रानन चन्द्रप्रभु जिनकी, प्रमिता अतीव मनमोहित है।।3।। हाथ जोड़कर शीश नवाकर, जिनवर को करता हूँ प्रणाम। हे परमेश्वर विघ्न-विनाशक, सब पूरण करो हमारे काम।। शांतिनाथजी की प्रतिमाओं की, संख्या यहाँ आधिक्य लिये। धातु और पाषाणी दोनों, हैं अतिशोभन सौन्दर्य लिये।।4।।
चार बार तस्कर ले भागा, शांतिनाथ की प्रतिमा है। चारों बार सुप्राप्त हो गई, यह महाक्षेत्र की महिमा है।।
क्षेत्रोद्धारक, वाणीभूषण वास्तुशास्त्र के विज्ञाता। मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी, ससंघ पधारे रैवासा।।5।। देख भव्यता आदिनाथ की, मुनिवर अति भाव विभोर हुए। अतिशयता लख सुमतिनाथ की, श्री मुनिवर यों कथन किये।। भव्योदय अतिशय क्षेत्र है यह, यतिवर ने उसको नाम दिया।
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हो प्रगति क्षेत्र की दिनदूनी, सबने मिलकर संकल्प किया।।6।। ऊँ ह्रीं भव्योदय अतिशयक्षेत्र-स्थित श्री आदिनाथजिनेन्द्राय पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
करें वंदना क्षेत्र की मन-वचन काय सम्भाल। सकल आपदा नष्ट हो, रहें सदा खुशहाल।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।
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श्री आदिनाथ जिन-पूजा ( रचयिता - श्री राजमल जी)
जय आदिनाथ जिनेन्द्र जय-जय प्रथम जिन तीर्थंकरम्। जय नाभिसुत मरुदेवी के नन्दन ऋषभ प्रभु जगदीश्वरम्।। जय जयति त्रिभुवन तिलक चूड़ामणी वृषभ विश्वेश्वरम्। देवाधिदेव जिनेश जय-जय महाप्रभु परमेश्वरम्।।
ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्) ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम् ) ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
समकित जल दो प्रभु आदि निर्मल भाव भरूँ।
दुःख जन्म-मरण मिट जाय जल से धार करूँ ।। जय ऋषभदेव जिनराज शिवसुख के दाता। तुम सम हो जाता जीव स्वयं को जो ध्याता ।।
ऊँ ह्रीं श्रीऋषभनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
समकित चन्दन दो नाथ भव - सन्ताप हरूँ ।
चरणों में मलय-सुगन्ध हे प्रभु भेंट करूँ । जय ऋषभदेव जिनराज शिवसुख के दाता। तुम सम हो जाता जीव स्वयं को जो ध्याता ॥
ॐ ह्रीं श्री ऋषभनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
समकित तन्दुल की चाह मन में मोद भरे । अक्षत से पूजूँ देव अक्षय पद संवरे ।
जय ऋषभदेव जिनराज शिवसुख के दाता। तुम हो जाता जीव स्वयं को जो ध्याता ।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
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समकित के पुष्प सुरम्य दे दो हे स्वामी। यह काम भाव मिट जाय हे अन्तर्यामी।। जय ऋषभदेव जिनराज शिवसुख के दाता।
तुम सम हो जाता जीव स्वयं को जो ध्याता।। ऊँ ह्रीं श्रीऋषभनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
समकित चरु करो प्रदान मेरी भूख मिटे। भव-भव की तृष्णा-ज्वाल उर से दूर हटे।। जय ऋषभदेव जिनराज शिवसुख के दाता।
तुम सम हो जाता जीव स्वयं को जो ध्याता।। ऊँ ह्रीं श्रीऋषभनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समकित दीपक की ज्योति मिथ्यातम भागे। देखू निज सहज स्वरूप निज परणति जागे।। जय ऋषभदेव जिनराज शिवसुख के दाता।
तुम सम हो जाता जीव स्वयं को जो ध्याता।। ऊँ ह्रीं श्रीऋषभनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वामीति स्वाहा।
समकित की धूप अनूप, कर्म विनाश करे। निज ध्यान-अग्नि के बीच आठों कर्म जरें।। जय ऋषभदेव जिनराज शिवसुख के दाता।
तुम सम हो जाता जीव स्वयं को जो ध्याता।। ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
समकित फल मोक्ष महान् पाऊँ आदि प्रभु। हो जाऊँ सिद्ध समान सुखमय ऋषभ प्रभु।। जय ऋषभदेव जिनराज शिवसख के दाता।
तुम सम हो जाता जीव स्वयं को जो ध्याता।। ॐ ह्रीं श्रीऋषभनाथजिनेन्द्राय मोक्षमहाफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
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वसु द्रव्य अर्घ जिनदेव चरणों में अर्पित। पाऊँ अनर्घ पद नाथ अविकल सुख गर्भित।।
जय ऋषभदेव जिनराज शिवसुख के दाता।
तुम सम हो जाता जीव स्वयं को जो ध्याता।। ऊँ ह्रीं श्रीऋषभनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक शुभ आषाढ़ कृष्ण द्वितीया को मरुदेवी उर में आये।
देवों ने छ: मास पूर्व से रत्न अयोध्या बरसाये।। कर्म भूमि के प्रथम जिनेश्वर तज सर्वार्थ सिद्धि आये।
जय-जय ऋषभनाथ तीर्थंकर तीन लोक में सुख पाये।। ऊँ ह्रीं आषाढ़कृष्णा-द्वितीयादिने गर्भमंगल-प्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्र कृष्ण नवमी को राजा नाभिराय गृह जन्म लिया। इन्द्रादिक ने गिरि सुमेर पर क्षीरोदधि अभिषेक किया।। नरक तिर्यंच सभी जीवों ने सुख अन्तर्मुहूर्त पाया।
जय-जय ऋषभनाथ तीर्थंकर जग में पूर्ण हर्ष छाया।। ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णा-नवमीदिने जन्ममंगल-प्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्र कृष्णा नवमी को ही वैराग्य भाव उर छाया था। लौकान्तिक सुर इन्द्रादिक ने तप कल्याण मनाया था।। पंच महाव्रत धारण करके पांच मुष्टि केश लोंच किया।
जय प्रभु ऋषभदेव तीर्थंकर तुमने मुनिपद धार लिया।। ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-नवमीदिने तपोमंगल-प्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
एकादशी कृष्णा फाल्गुन को कर्म घातिया नष्ट हुए।
केवलज्ञान प्राप्त कर स्वामी वीतराग उत्कृष्ट हुए।। दर्शन ज्ञान अनन्त वीर्य सुख पूर्ण चतुष्टय को पाया।
जय प्रभु ऋषभदेव जगती ने समवशरण लख सुख पाया।। ऊँ ह्रीं फाल्गनकष्णा-एकादशीदिने ज्ञानमंगल-प्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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माघ बदी की चतुर्दशी को गिरि कैलाश हुआ पावन।
आठों करम विनाशे पाया परम सिद्ध पद मनभावन।। मोक्षलक्ष्मी पाई गिरि कैलाश शिखर, निर्वाण हुआ।
जय-जय ऋषभनाथ तीर्थंकर भव्य मोक्ष कल्याण हुआ।। ऊँ ह्रीं माघकृष्णा-चतुर्दशीदिने मोक्षमंगल-प्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला जम्बू दीप सु भरत क्षेत्र में नगर अयोध्यापुरी विशाल। नाभिराय चौदहवे कुलकर के सुत मरुदेवी के लाल।। सोलह स्वप्न हुए माता को पन्द्रह मास रत्न बरसे।
तुम आये सर्वार्थ सिद्धि से माता उर मंगल सरसे।। मति श्रुति अवधि ज्ञान के धारी जन्मे हुए जन्म कल्याण। इन्द्र सुरों ने हर्षित पाण्डुकशिला किया अभिषेक महान।।
राज्य अवस्था में तुमने जन-जन के कष्ट मिटाये थे। असि मसि कृषि वाणिज्य शिल्प विद्या षट्कर्म सिखाये थे।। एक दिवस जब नृत्य लीन सुरि नीलांजना विलीन हुई। है पर्याय अनित्य आयु उसकी पल भर में क्षीण हुई।। तुमने वस्तु स्वरूप विचारा जागा उर वैराग्य आधार। कर चिंतवन भावना द्वादश त्यागा राज्य और परिवार।। लौकान्तिक देवों ने आकर किया आपका जय जयकार। आस्रव हेय जानकर तुमने लिया हृदय में संवर धार।। वन सिद्धार्थ गये वट तरु नीचे वस्त्रों को त्याग दिया। ऊँ नमः सिद्धेभ्यः कहकर मौन हुए तप ग्रहण किया।। स्वयं बुद्ध बन कर्म भूमि में प्रथम सुजिन दीक्षाधारी। ज्ञान मनःपर्यय पाया धर पंच महाव्रत सुखकारी। धन्य हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस ने दान दिया।
एक वर्ष पश्चात् इक्षुरस से तुमने पारणा किया।। एक सहस्र वर्ष तप कर प्रभु शुक्ल ध्यान में हो तल्लीन। पाप पुण्य आस्रव विनाश कर हुए आत्म रस में लवलीन।।
चार घातिया कर्म विनाशे पाया अनुपम केवल ज्ञान।
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दिव्यध्वनि के द्वारा तुमने किया सकल जग का कल्याण।।
चौरा गणधर थे प्रभु के पहले वृषभसेन गणधर । मुख्य आर्यिका श्री ब्राह्मी श्रोता मुख्य भरत नृपवर।। भरत क्षेत्र के आर्य खण्ड में नाथ आपका हुआ विहार | धर्मचक्र का हुआ प्रवर्तन सुखी हुआ सारा संसार। अष्टापद कैलाश धन्य हो गया तुम्हारा कर गुणगान | आज तुम्हारे दर्शन करके मेरे मन आनन्द हुआ। जीवन सफल हुआ है स्वामी नष्ट पाप दुःख - द्वन्द हुआ।। यही प्रार्थना करता हूँ प्रभु उर में ज्ञान प्रकाश भरो। चारों गतियों के भव संकट मैं भी यही भावना भाता हूँ।
इसीलिए यह पूर्ण अर्घ चरणों में नाथ चढ़ाता हूँ।। ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवजिनेन्द्राय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वृषभ चिह्न शोभित चरण ऋषभदेव उर धार । मन वच तन जो पूजते वे होते भव पार।।
।। इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री अजितनाथजिन पूजा (दोहा)
श्री अजितेश्वर चरन को, बार बार सिरनाय । तिनके चरन सरोज की, पूजा करूँ बनाय (छप्पय)
तपकुंजर असवार धार दृढ़ विरागबख्तर । समवशरण भू माहिं, निरख मोहादि अरनि पर ।।
ध्यानधनुष कर धार, ज्ञानशर चाप चढ़ायो। अरि समूह के बीच, मोह अरि मार गिरायो । रज अन्तराय हनि छिनक में, जगदीश्वर पद प्रभु लियो । यह जानि जिनेश्वर जगत में, जिनपद पूजन मन भयो।।
ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिन! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथजिन! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम् )
ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिन ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
उज्जवल जल प्रासुक सार निर्मल मिष्ट महा जिनचरन अग्र त्रय धार धारत सुक्ख लहा।। अजितेश्वर दीन दयाल स्वपर प्रकाश करो । तुम सरनागत प्रतिपाल मम उर आन भरो।।
ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
गोशीर कपूर अनूप केसर संग घसों। पद पूज सुरासुर भूप अष्टम अवनि गमो ॥ अजितेश्वर दीन दयाल स्वपर प्रकाश करो।
तुम सरनागत प्रतिपाल मम उर आन भरो।।
ॐ ह्रीं श्री अजितनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
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हिम नीरज चन्द्र समान अक्षत शुचि लायो। जिनवर पद पूज महान अक्षय पद पायो।। अजितेश्वर दीन दयाल स्वपर प्रकाश करो।
तुम सरनागत प्रतिपाल मम उर आन भरो।। ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
शुचि उत्तम फूल महान, गुंजत अलि आवे। पद पूजत श्री भगवान, काम विथा आवे।। अजितेश्वर दीन दयाल स्वपर प्रकाश करो।
तुम सरनागत प्रतिपाल मम उर आन भरो।। ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
नेवज नाना विधि सार, उत्तम कर लीजे। निज क्षधारोग निरवार, श्री जिनवर पूजे।। अजितेश्वर दीन दयाल स्वपर प्रकाश करो।
तुम सरनागत प्रतिपाल मम उर आन भरो।। ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिने
-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बहुविध शुचि शक्ति समान दीपक जिन आगे।
धर पावो केवलज्ञान आतमनिधि जागे।। अजितेश्वर दीन दयाल स्वपर प्रकाश करो।
तुम सरनागत प्रतिपाल मम उर आन भरो।। ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
बहुविधि ले धूप महान सुन्दर गंध महा। पद पूजत जिन गुणखान, निज करूँ कर्म महा।।
अजितेश्वर दीन दयाल स्वपर प्रकाश करो।
तुम सरनागत प्रतिपाल मम उर आन भरो।। ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
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बहुविधि उत्तम फल सार प्राशुक शुद्ध महा। जिनवर के अग्र सु धार दिव-शिवसुक्ख महा।।
अजितेश्वर दीन दयाल स्वपर प्रकाश करो।
तुम सरनागत प्रतिपाल मम उर आन भरो।। ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय मोक्षमहाफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल फल वसुद्रव्य मिलाय सुन्दर अर्घ करों। पद पूजत श्री जिनराय कर्म कलंक हरों।। अजितेश्वर दीन दयाल स्वपर प्रकाश करो।
तुम सरनागत प्रतिपाल मम उर आन भरो।। ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक (दोहा) जेठ वदी मावस दिना भयो गर्भ कल्याण।
सो अजितेश जिनेश मम दीजो शिवसुख दान।। ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय ज्येष्ठकृष्णा-अमवस्यां गर्भमंगल-मंडिताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
माह सुदी दशमी दिवस जन्म भयो जिन देव।
मन वच काय लगाय के करो सुरासुर सेव।। ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय माघशुक्ला-दशम्यां जन्ममंगल-मंडिताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
माघ सुदी दशमी दिना है विराग बड़ भाग।
ता दिन तप धारी प्रभु शिवतिय जगो सुहाग। ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय माघशुक्ला-दशम्यां तपोमंगल-मंडिताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
चार घातिया कर्म अरि जीते अजित जिनेश।
पौष सुदी शुभ चौथ को, करी सुरासुर सेव।। ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय पौषशुक्ला-चतुर्थ्यां ज्ञानमंगल-मंडिताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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शुक्ल
पंचम दिवस, पायो अविचल थान।
सो अजितेश जिनेश मम सर्व कल्याण
ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय चैत्रशुक्ला-पंचम्यां मोक्षमंगल-मंडिताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
जय जय जगवन्दन कर्मनिकन्दन भव भय भंजन सूर बड़े । पूजक पाता शिव सुख साता सुर नर तासु हजूर खड़े । छन्द-मोतियादाम
जय जगमें अजितेश्वर देव, सदा सिर नाय करें सुर सेव समौश्रृत मण्डप मध्य महेश, लसैं चतुरानन आप जिनेश । अनूपम आसन सिंह समान, सु ताप पदम् महा छवि जान । विराजित है निरधार अनूप, सुआसन पद्म तिहूं जग भूप ।।
अशोक महातरु शोक हरंत, सु चौसठ चामर देव दुरंत। करै सुर पुष्प सुवृष्टि महान, मनो असरीर गिरै, पग आन।। धरे सिर छ सु तीन अनूप, करें पद सेव सुरासुर भूप । महासुर दुन्दभिनाद करंत, सुने भवि जीव महा हरषंत ।। प्रभावन सों शशि सूर लजन्त, लखै जिहि को भव सात लखंत। मुखांबुज से धुनि दिव्य खिरंत, सुधासम जीवन को हितवंत । अनन्त सुख-बल वीरजवंत, सुदर्शन ज्ञान तनो नहिं अन्त। सभा दश दोय विषै भवि जीव, करै वृष अमृतपान अतीव ।।
तुही जग में जयवंत महंत, तुही सबको हितदायक संत। कहूँ अब तोहि पुकार पुकार, जिनेश करो भवसागर पार।। दोहा
असरन शरण सहाय तुम, भव भंजन भगवान। हाथ जोड़ विनीत करूँ, कीजे आप समान ।। ॐ ह्री श्री अजितनाथ जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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वर्तमान जिनराय भरत के जानिये। पंचकल्याणक मान गये शिव थानिये। जो नर मन वचन काय प्रभू पूजै सही। सो नर दिव शिव पाय लहै अष्टम मही।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री सुमतिनाथ जिन-पूजा (रैवासा) सुमतिनाथ है सुमति प्रदाता, दयावान है तीर्थंकर। घाति अघाति कर्म हने हैं सिद्ध विराजित हे शंकर।।
रैवासा में प्रकट भई है, तेरी प्रतिमा मनहारी। पाप विनाशी संकट हरती, दर्शन की है बलिहारी।।
ठोकर खाते भटके आते, तेरे दर के ही खातिर। दया दृष्टि कर पाप मिटा दो, तेरे चरणों में हाजिर।।
वीतराग मुद्रा तेरी है, जग को मोहित कर लेती।
मोक्ष मार्ग का दिग्दर्शन कर भक्त की झोली भर देती।। ऊँ ह्रीं श्रीभव्योदय-अतिशयक्षेत्र-स्थित भूगर्भप्राप्त-अतिशयकारी रैवासावाले बाबा श्री 1008
गुणसंयुक्त श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्) ॐ ह्रीं श्रीभव्योदय-अतिशयक्षेत्र-स्थित भूगर्भप्राप्त-अतिशयकारी रैवासावाले बाबा श्री 1008
गुणसंयुक्त श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीभव्योदय-अतिशयक्षेत्र-स्थित भूगर्भप्राप्त-अतिशयकारी रैवासावाले बाबा श्री 1008
गुणसंयुक्त श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
विमल मलों से दूषित हूँ मैं, शुद्ध स्वभाव नशाया है। धारा जल की प्रभू चढ़ाकर, भव कलंक मिटाया है।।
क्षेत्र अतिशय भव्योदय है, अतिशयकारी महिमा है।
सुमतिनाथ का अद्भुत अतिशय भू से निकली प्रतिमा है।। ऊँ ह्रीं श्रीभव्योदय-अतिशयक्षेत्र-स्थित भूगर्भप्राप्त-अतिशयकारी रैवासावाले बाबा श्री 1008
गुणसंयुक्त श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
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निज आतम में इन कर्मों ने, भवआताप बढ़ाई है। शीतल चंदन समभावों से, शान्त तपन कर पायी है।
क्षेत्र अतिशय भव्योदय है, अतिशयकारी महिमा है।
सुमतिनाथ का अद्भुत अतिशय भू से निकली प्रतिमा है।। ऊँ ह्रीं श्रीभव्योदय-अतिशयक्षेत्र-स्थित भूगर्भप्राप्त-अतिशयकारी रैवासावाले बाबा श्री 1008
गुणसंयुक्त श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शाश्वत अक्षय पद पर बैठे, सुमतिनाथ भगवान प्रभु। अक्षय पद को पाने में, यह अक्षत तुम्हें चढ़ाऊँ प्रभु।।
क्षेत्र अतिशय भव्योदय है, अतिशयकारी महिमा है।
सुमतिनाथ का अद्भुत अतिशय भू से निकली प्रतिमा है।। ऊँ ह्रीं श्रीभव्योदय-अतिशयक्षेत्र-स्थित भूगर्भप्राप्त-अतिशयकारी रैवासावाले बाबा श्री 1008
गुणसंयुक्त श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
काम बाण से व्यथित रहा हूँ, चरण शरण में आया हूँ। निष्काम दशा को प्राप्त करूँ, यह पुष्प चढ़ाने आया हूँ।।
क्षेत्र अतिशय भव्योदय है, अतिशयकारी महिमा है।
सुमतिनाथ का अद्भुत अतिशय भू से निकली प्रतिमा है।। ॐ ह्रीं श्रीभव्योदय-अतिशयक्षेत्र-स्थित भूगर्भप्राप्त-अतिशयकारी रैवासावाले बाबा श्री 1008
गुणसंयुक्त श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षुधा तृषा से तृषित रहा हूँ, कर्म वेदनीय का मारा। नैवेद्य समर्पित करता हूँ, ये रोग क्षुधा नश जाय मेरा।।
क्षेत्र अतिशय भव्योदय है, अतिशयकारी महिमा है।
सुमतिनाथ का अद्भुत अतिशय भू से निकली प्रतिमा है।। ॐ ह्रीं श्रीभव्योदय-अतिशयक्षेत्र-स्थित भूगर्भप्राप्त-अतिशयकारी रैवासावाले बाबा श्री 1008
गुणसंयुक्त श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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मोहन मोहनीय कर्म अहो, निज पर का भेद मिटाता है। दीप ज्योति समज्ञान ज्योति से निज पर को समझाता है।।
क्षेत्र अतिशय भव्योदय है, अतिशयकारी महिमा है।
सुमतिनाथ का अद्भुत अतिशय भू से निकली प्रतिमा है।। ऊँ ह्रीं श्रीभव्योदय-अतिशयक्षेत्र-स्थित भूगर्भप्राप्त-अतिशयकारी रैवासावाले बाबा श्री 1008
गुणसंयुक्त श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप अनल में खेने को, मैं पूजक बनके आया हूँ। ध्यान अनल से कर्म दहें, यह भाव हृदय में लाया हूँ।।
क्षेत्र अतिशय भव्योदय है, अतिशयकारी महिमा है।
सुमतिनाथ का अद्भुत अतिशय भू से निकली प्रतिमा है।। ऊँ ह्रीं श्रीभव्योदय-अतिशयक्षेत्र-स्थित भूगर्भप्राप्त-अतिशयकारी रैवासावाले बाबा श्री 1008
गुणसंयुक्त श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सब धर्म कर्म का फल मैंने, संसार सुखों को माना है। यह भूल मिटाने फल लाया, मुक्ति का फल अब पाना है।
क्षेत्र अतिशय भव्योदय है, अतिशयकारी महिमा है।
सुमतिनाथ का अद्भुत अतिशय भू से निकली प्रतिमा है।। ॐ ह्रीं श्रीभव्योदय-अतिशयक्षेत्र-स्थित भूगर्भप्राप्त-अतिशयकारी रैवासावाले बाबा श्री 1008
गुणसंयुक्त श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय मोक्षमहाफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत पुष्प मिला, नैवेद्य दीप मैं लाया हूँ। धूप फलादि अर्घ चढ़ाकर सुमतिनाथ गुण गाता हूँ।।
क्षेत्र अतिशय भव्योदय है, अतिशयकारी महिमा है।
सुमतिनाथ का अद्भुत अतिशय भू से निकली प्रतिमा है।। ऊँ ह्रीं श्रीभव्योदय-अतिशयक्षेत्र-स्थित भूगर्भप्राप्त-अतिशयकारी रैवासावाले बाबा श्री 1008
गुणसंयुक्त श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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पंचकल्याणक श्रावण शुक्ला दूज तिथि को, नाथ गर्भ में आये थे। राज महल में सब ने मिलकर, मंगल गीत गाये थे।। मात मंगला को आकस्मिक, सोलह सपने आये थे।
पिता मेघरथ के महलों में, गर्भ कल्याण मनाये थे। ऊँ ह्रीं श्रावणशुक्ला-द्वितीयायां श्री 1008 गुणसंयुक्ताय श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय गर्भकल्याणक-प्राप्ताय
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
एकादश थी चैत्र शुक्ल की, स्वर्णमयी साकेत भई। जन्म लिया था नगर अयोध्या, नरकों में भी शान्ति भई।।
सौधर्म इन्द्र-इन्द्राणी लेकर ऐरावत पे आया था।
बाल सुमति को मेरु पर, ले जाकर न्हवन कराया था।। ऊँ ह्रीं चैत्रशुक्ला-एकादश्या श्री 1008 गुणसंयुक्ताय श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय जन्मकल्याणक-प्राप्ताय
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
नवमी तिथि, वैशाख शुक्ल को, सुमतिनाथ वैराग्य हुआ। सर्व परिग्रह तज के स्वामी, भेष दिगम्बर धार लिया।। केशलोंच तब किया प्रभु ने, आतम में लवलीन हुये।
मौन मुनि व्रत धारण करके, मुनियों के सरताज हुये।। ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्ला-नवम्यां श्री 1008 गुणसंयुक्ताय श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय तपःकल्याणक-प्राप्ताय
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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केवल ज्ञान हुआ प्रभु तुमको, चैत्र शुक्ल की ग्यारस को। सुमतिनाथ अरिहन्त हुये हैं, मोक्ष लक्ष्मी पाने को।। समवशरण की रचना करने, देव स्वर्ग से आये थे।
ध्वनि खिरी जब सुमतिनाथ की भव्य हृदय हर्षाये थे।। ऊँ ह्रीं चैत्रशुक्ला-एकादश्यां श्री 1008 गुणसंयुक्ताय श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय केवलज्ञानकल्याणक
प्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
सम्मेद शिखर पर आप विराजे, आठ कर्म को नाश किया। आठ गुणों को पाकर तुमने, सिद्ध प्रभु पद प्राप्त किया।। चैत्र शुक्ल की एकादश को, सुमतिनाथ को मोक्ष हुआ।
अजर अमर अविनाशी हो गये, शाश्वत पद को प्राप्त किया।। ॐ ह्रीं चैत्रशुक्ला-एकादश्यां श्री 1008 गुणसंयुक्ताय श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय मोक्षकल्याणक-प्राप्ताय
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
वन्दन करता मन वचन तन से सुमतिनाथ भगवान प्रभु। कृपा करना संकट हरना, तुम सा मैं बना जाऊँ प्रभु।। मैं अज्ञानी शरण में आया, ज्ञान मुझे मिल जाये प्रभु। जयमाला का भाव बनाकर, गुण गाऊँ मैं आज प्रभु।।
मात मंगला पिता मेघरथ, नगर अयोध्या में जन्मे। सुमतिनाथ है नाम तुम्हारा हर्ष हुआ था जन-जन में।। स्वर्णमयी थी काया प्रभु की, धनुष तीन सौ ऊंची थी।
राजपाट किया था प्रभु ने, प्रजा सारी हर्षित थी।। पुण्ययोग से आयी थी जो, त्याग दई संपति सारी।
अनंत चतुष्टय पाया प्रभु ने, अनंत गुण के भंडारी।। ध्वनि खिरी जब समवशरण में, भव्य जनों को तार दिया। रत्नत्रय की महिमा वरनी, मोक्ष मार्ग उपदेश दिया।।
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पंचकल्याणक हुये आपके, सम्मेद शिखर से मोक्ष हुआ। अष्ट गुणों को धारण करके, सिद्ध प्रभु पद प्राप्त किया।। आप अरूपी हो गये स्वामी, तब प्रतिमा का रूप दिया। जिसने देखा तव स्वभाव की सत् सत्ता का ज्ञान हुआ।
राजस्थान का सीकर मण्डल रैवासा यह ग्राम महान । भूमि अन्दर प्रतिमा थी यह, जिसका अतिशय हुआ महान्।। श्री सुदर्शन को सपने में, यक्ष ने प्रतिमा दिखलाई। प्रभात काल में उठ कर सबने, भूमि यहां की खुदवाई।। वीर निर्वाण चौबीस चैहत्तर, फाल्गुन शुक्ला तीज महान्। प्रकट हुये थे सुमतिनाथ जी, अद्भुत अतिशय हुआ महान्।।
चारों ओर हुआ जयकारा, हर्ष अपार मनाया था। दुःख दारिद्र हटा तब सबका, सुख वैभव धन पाया था।। एक दिवस मुनि सुधासागर जी रैवासा में आये थे। गम्भीर धैर्य क्षुल्लक थे संघ में, मन ही मन हर्षाये थे।। घोषित किया नाम भव्योदय, रैवासा है क्षेत्र महान् । देख अतिशय सुमतिनाथ का, अतिशय युक्त किया गुणगान।। राग द्वेष किये नित मैंने, करतूतें काली करता। दर्श प्रभु अब तेरा पाकर, निर्मल मन में अब करता।। स्वार्थों से संसार भरा है, तजना इसको शीघ्र प्रभु । प्रभु नमन कर निजानुभव से, मोक्ष महल पा जाऊँ प्रभु।।
भूत परेतों के संकट सब, पूजन से भग जाते हैं। मन वांछित फल को पाकर के, भक्त धन्य हो जाते हैं। सुमतिनाथ को वन्दन करता, सुमति मति मम हो जावे। `रैवासा के बाबा हो तुम, मनसा पूरी हो जावे
ऊँ ह्रीं श्रीभव्योदय-अतिशयक्षेत्र स्थित भूगर्भप्राप्त-अतिशयकारी रैवासावाले बाबा श्री 1008 गुणसंयुक्ताय श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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सुमतिनाथ जिनेन्द्रा पाप निकन्दा, सुख के कंदा, जयवंता। मैं पूनँ ध्याऊँ, भक्ति बढ़ाऊँ, निज पद पाऊँ भगवंता।।
श्रद्धा भक्ति शक्ति से, पूजन की भगवान। भूल-चूकअघ मेटकर, मुझको दो वरदान।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
अर्घ्य वीर निर्वाण सम्वत् भला, चौबीस चौहत्तर जान। फाल्गुन शुक्ला तीज को, अतिशय हुआ महान।।
बाबा सुमति प्रकट भये रैवासा में आन। प्रतिमा अतिशययुक्त है, चमत्कार की खान।। आधि-व्याधि सब दूर हो, पूजन से भगवान। धन्य हुआ मैं पूज कर, कर तेरा गुणगान।। पतित रहा पावन बनें, कर पापों का नाश।
ऐसा वर मैं चाहता, यही हमारी आश।।
आतम सुख को प्राप्त कर, पाऊँ पद निर्वाण। ऊँ ह्रीं भूगर्भप्राप्त-अतिशयकारी रैवासावाले बाबा श्री 1008 गुणसंयुक्ताय श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय
पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्रीपद्मप्रभ जिन-पूजा (बाड़ा) (रचयिता - छोटे लाल)
(दोहा)
श्रीधर नन्दन पद्म प्रभु, वीतराग जिन नाथ। विघ्न-हरण मंगल-करन, नमौं जोरि जुग हाथ।। जन्म-महोत्सव के लिए, मिलकर सब सुरराज। आये कौशाम्बी नगर, पद-पूजा के काज।।
पद्मपुरी में पद्मप्रभु, प्रकटे प्रतिमा रूप। परम दिगम्बर शान्तिमय, छवि साकार अनूप।। हम सब मिल करके यहाँ, प्रभु पूजा के काज।
आह्वानन करते सुखद, कृपा करो महाराज।। ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
(अष्टक) क्षीरोदधि उज्ज्वल नीर, प्रासुक गन्ध भरा। कंचन झारी में लेय, दीनी धार धरा।। बाड़ा के पद्म जिनेश, मंगल रूप सही।
काटौ सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही।। ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
चन्दन केशर कपूर, मिश्रित गन्ध धरो। शीतलता के हित देव, भव आताप हरो।। बाड़ा के पद्म जिनेश, मंगल रूप सही।
काटौ सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही।। ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
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ले तन्दुल अमल अखण्ड, थाली पूर्ण भरो। अक्षय-पद पावनहेतु, हे प्रभु पाप हरो।। बाड़ा के पद्म जिनेश, मंगल रूप सही।
काटौ सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही।। ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।।
ले कमल केतकी बेल, पुष्प धरूं आगे। प्रभु सुनिये हमरी टेर, काम कला भागे।। बाड़ा के पद्म जिनेश, मंगल रूप सही।
काटौ सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही।। ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
नैवेद्य तुरत बनवाय, सुन्दर थाल सजा। मम क्षुधारोग नश जाय, भाऊं वाद्य बजा।। बाड़ा के पद्म जिनेश, मंगल रूप सही।
काटौ सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही।। ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। 57
हो जगमग-जगमग ज्योति, सुन्दर अनियारी। ले दीपक श्री जिनचन्द्र, मोह नशे भारी।। बाड़ा के पद्म जिनेश, मंगल रूप सही।
काटौ सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही।। ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
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ले अगर कपूर सुगन्ध, चन्दन गन्ध महा। खेवत हों प्रभु दि ग आज, आठो कर्म दहा।।
बाड़ा के पद्म जिनेश, मंगल रूप सही।
काटौ सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही।। ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।71
श्रीफल बादाम सुलेय, केला आदि हरे। फल पाऊं शिवपद नाथ, अरपूं मोद भरे।। बाड़ा के पद्म जिनेश, मंगल रूप सही।
काटौ सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही।। ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय मोक्षमहाफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
जल चन्दन अक्षत पुष्प, नेवज आदि मिला। मैं अष्ट द्रव्य से पूज, पाऊं सिद्ध शिला।। बाड़ा के पद्म जिनेश, मंगल रूप सही।
काटौ सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही।। ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्य पद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।9।
चरणों का अर्घ्य (दोहा) चरण कमल श्री पद्म के, वन्दौं मन वच काय। अर्घ्य चढ़ाऊं भाव से, कर्म नष्ट हो जाय।। बाड़ा के पद्म जिनेश, मंगल रूप सही।
काटो सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही।। ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय चरणाभ्यां अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
प्रतिमाजी की अप्रकट अवस्था का अर्घ्य पृथ्वी में श्री पद्म की, पद्मासन आकार।
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परम दिगम्बर शान्तिमय प्रतिमा भव्य अपार ।। सौम्य शान्त अति कान्तिमय, निर्विकार साकार । अष्ट द्रव्य का अर्घ्य ले पूजूं विविध प्रकार बाड़ा के पद्म जिनेश, मंगल रूप सही । काटो सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही ।।
ऊँ ह्रीं भूमिस्थित-अप्रकट- श्रीपद्मप्रभ - जिनबिम्बाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक
श्री पद्मप्रभ जिनराज जी मोहे राखो हो शरना ।
माघ कृष्ण छठ में प्रभो, आये गर्भ मंझार
मात सुसीमा का जनम किया सफल करतार || श्री पदमप्रभ जिनराज जी मोहे राखो हो शरना।
माघ कृष्णा छठ में प्रभो, आये गर्भ मंझार ॥
ऊँ ह्रीं माघकृष्णा-षष्ठ्यां गर्भमंगल-प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।1।
कार्तिक वदी तेरह तिथी, प्रभू लियो अवतार।
देवों ने पूजा करी, हुआ मंगलाचार।। श्री पदमप्रभ जिनराज जी मोहे राखो हो शरना। माघ कृष्णा छठ में प्रभो, आये गर्भ मंझार ॥
ऊँ ह्रीं कार्तिककृष्णा-त्रयोदश्यां जन्ममंगल-प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 2।
कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी, तृणवत् बन्धन तोड़।
तप धार्यो भगवान ने, मोह कर्म को मोड़ ||
श्री पदमप्रभ जिनराज जी मोहे राखो हो शरना ।
माघ कृष्णा छठ में प्रभो, आये गर्भ मंझार
ऊँ ह्रीं कार्तिककृष्णा-त्रयोदश्यां तपोमंगल-प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।3।
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चैत्र शुक्ल की पूर्णिमा उपज्यो केवलज्ञान। भव सागर से पार हो, दियो भव्य जन ज्ञान।। श्री पदमप्रभ जिनराज जी मोहे राखो हो शरना।
माघ कृष्णा छठ में प्रभो, आये गर्भ मंझार।। ॐ ह्रीं चैत्रशुक्ला-पूर्णिमायां केवलज्ञान-प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।4।
फागुन वदी चतुर्थी को, मोक्ष गये भगवान। इन्द्र आय पूजा करी, मैं पूजौं धर ध्यान।। श्री पदमप्रभ जिनराज जी मोहे राखो हो शरना।
माघ कृष्णा छठ में प्रभो, आये गर्भ मंझार।। ऊँ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-चतुर्थ्यां मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।5।
जयमाला (दोहा) चौतीसों अतिशय सहित, बाड़ा के भगवान। जयमाला श्री पदम की, गाऊं सुखद महान।।1।।
(पद्धरि छन्द) जय पद्मनाथ परमात्मदेव, सुर जिनकी करते चरन-सेव। जय पद्म पद्मप्रभ तन रसाल, जय-जय करते मुनि मन विशाल।2। कौशाम्बी में तुम जन्म लीन, बाड़ा में बहुत अतिशय करीन।
इक जाट पुत्र ने जमीं खोद, पाया तुमको होकर समोद।3। सुनकर हर्षित हो भविक वृन्द, पूजा आकर की दुःख निकन्द।
करते दुखियों का दुःख दूर, हो नष्ट प्रेत बाधा जरूर।4। डाकिन शाकिन सब होय चूर्ण, अन्धे हो जाते नेत्र पूर्ण। श्रीपाल सेठ अंजन सुचोर, तारे तुमने उनको विभोर।5।
अरु नकुल सर्प सीता समेत, तारे तुमने निज भक्त हेत। हे संकट मोचन भक्तपाल, हमको भी तारो गुण विशाल।6।
विनती करता हूं बार बार, होवे मेरा दुख क्षार-क्षार।
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सब मीना गूजर जाट जैन, आकर पूजैं कर तृप्त नैन।7। मन-वच-तन से पूजें जो कोय, पावें वे नर शिव-सुख जु सोय । ऐसी महिमा तेरी दयाल, अब हम पर भी होओ कृपाल ॥8॥ ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। (दोहा)
मेढ़ी में श्री पद्म की पूजा रची विशाल । हुआ रोग तब नष्ट सब, बिनवे छोटेलाल पूजा विधि जानूं नहीं, नहिं जानूं आह्वान। भूल चूक सब माफ कर, दया करो भगवान ।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्रीचन्द्रप्रभ जिन-पूजा (तिजारा जी) (रचयिता
शुभ पुण्य उदय से ही प्रभुवर, दर्शन तेरा कर पाते हैं। केवल दर्शन से ही प्रभु, सारे पाप मेरे कट जाते है।। देहरे के चन्द्रप्रभु स्वामी, आह्वानन करने आया हूँ। मम हृदय कमल में आ तिष्ठो तेरे चरणों में आया हूँ।।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम् ) ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम् ) ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
श्री मुंशी)
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भोगों में फँसकर हे प्रभुवर, ,जीवन को वृथा गँवाया है। इस जन्म मरण से मुझे नहीं, छुटकारा मिलने पाया है ।। मन में कुछ भाव उठे मेरे, जल झारी में भर लाया हूँ। मन के मिथ्या मल धोने को, चरणों में तेरे आया हूँ।।
ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।1।
निज अन्तर शीतल करने को, चन्दन घिसकर ले आया हूँ। मन शान्त हुआ ना इससे भी, तेरे चरणों में आया हूँ।। क्रोधादि कषायों के कारण, संतप्त हृदय प्रभु मेरा है।
शीतलता मुझको मिल जाये, हे नाथ सहारा तेरा है।। ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 21
पूजा में ध्यान लगाने को, अक्षत धोकर ले आया हूँ। चरणों में पुंज चढ़ाकर के, अक्षयपद पाने आया हूँ।। निर्मल आत्मा होवे मेरी, सार्थक पूजा तब तेरी है। निज शाश्वत अक्षयपद पाऊं, ऐसी प्रभु विनती मेरी है। ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपद - प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। 3।
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पर गंध मिटाने को प्रभुवर, यह पुष्प सुगंधी लाया हूँ। तेरे चरणों में अर्पित कर, तुमसा ही होने आया हूँ।। श्री चन्द्रप्रभु यह अरज मेरी भवसागर पार लगा देना।
यह काम अग्नि का रोग बड़ा, छुटकारा नाथ दिला देना।।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय कामबाण - विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। 4।
दुख
देती है तृष्णा मुझको, कैसे छुटकारा पाऊँ मैं। हे नाथ बता दो आज मुझे, चरणों में शीश झुकाऊँ मैं।। यह क्षुधा मिटाने को प्रभुवर, नैवेद्य बनाकर लाया हूँ।
हे नाथ मिटा दो क्षुधा मेरी, भव भव में फिरता आया हूँ।।
ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
यह दीपक की ज्योति प्यारी, अंधियारी दर भगाती है। पर यह भी नश्वर है प्रभुवर, झंझा इसको धमकाती है। हे चन्द्रप्रभु दे दो ऐसा दीपक अज्ञान मिटा डाले। मोहान्धकार हो नष्ट मेरा यह, ज्योति नई मन में बाले ।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोहान्धकार- विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 6 ।
शुभ धूप दशांग बना करके, पावक में खेऊँ हे प्रभुवर। क्षय कर्मों का प्रभु हो जावे, जग का झंझट सारा नश्वर। चन्द्रप्रभु अन्तर्यामी, कैसे छुटकारा अब पाऊँ ।
हे नाथ बता दो मार्ग मुझे, चरणों पर बलिहारी जाऊँ।। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
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पिस्ता बादाम लवंगादिक, भर थाल प्रभु मैं लाया हूँ। चरणों में नाथ चढ़ा करके, अमृत रस पीने आया हूँ।। करुणा के सागर दया करो, मुक्ति का मार्ग अब मैं पाऊँ।
दे दो वरदान प्रभु ऐसा, शिवपुर को हे प्रभुवर जाऊँ।। ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। 8 ॥
जल चन्दन अक्षत पुष्प चरू, दीपक घृत से भर लाया हूँ। दस गंध धूप फल मिला अर्घ ले, स्वामी अति हरषाया हूँ।।
हे नाथ अनर्घ्य पद पाने को, तेरे चरणों में आया हूँ। भव-भव के बंध कटे प्रभुवर, यह अरज सुनाने आया हूँ।।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 9।
पंचकल्याणक
जब गर्भ में प्रभुजी आये थे, इन्द्रों ने नगर सजाया था। छः मास प्रथम ही आकर के, रत्नों का मेह बरसाया था ।। तिथि चैत्र वदी पंचम प्यारी, जब गर्भ में प्रभुजी आये थे। लक्ष्मणा माता को पहले ही, सोलह सपने दिखलाये थे ।।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णा-पंचम्यां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।1।
शुभ बेला में प्रभु जन्म हुआ, वदि पौष एकादशि थी प्यारी। श्री महासेन नृप के घर में हुई, जय जयकार बड़ी भारी।। पांडुकशिला पर अभिषेक कियौ, सब देव मिले थे चतुर्निकाय सो जिनचन्द्र जयो जग मांहीं, विघ्नहरण और मंगलदाय ।।
ऊँ ह्रीं पौषकृष्णा-एकादश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 2।
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जग के झंझट से मन ऊबा, तप की ली प्रभुजी ने ठहराया। पौष वदी ग्यारस को इन्द्र ने, तप कल्याण कियो हरषाय।। सर्वर्तुक वन में जाय विराजे केशलोंच जिन कियो हरषाय।
देहरे के श्री चन्द्रप्रभु को अध्य चढ़ाऊं नित्य बनाय।। ॐ ह्रीं पौषकृष्णा-एकादश्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
फाल्गुन वदी सप्तमी के दिन, चार घातिया घात महान। समवशरण रचना हरि कीनी, ता दिन पायो केवल ज्ञान।। साढ़े आठ योजन परमित था, समवशरण श्री जिन भगवान।
ऐसे श्री जिन चन्द्रप्रभु को, अर्घ्य चढ़ाय करूं नित ध्यान।। ऊँ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-सप्तम्यां केवलज्ञान-मंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।4।
शुक्ला फाल्गुन सप्तमि के दिन, ललितकूट शुभ उत्तम थान। श्री जिन चन्द्रप्रभ जगनामी. पायो आतम शिव कल्याण।।
वसु कर्म जिन चन्द्र ने जीते, पहुंचे स्वाम मोक्ष मंझार।
निर्वाण महोत्सव कियो इन्द्र ने, देव करें सब जय जयकार।। ऊँ ह्रीं फाल्गुनशुक्ला-सप्तम्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।5।
श्रावण सुदी दशमी को प्रभु जी, प्रकट भये देहरे में आन। संवत तेरह दो सहस्र ऊपर, शुभ गुरुवार को ता दिन जान।।
जय-जयकार हुई देहरे में, प्रकट हुए जब श्री भगवान।
चरणों में आ अध्य चढ़ाऊँ, प्रभु के दर्शन सुख की खान।। ऊँ ह्रीं श्रावणशुक्ला-दशम्यां देहरास्थाने प्रकटरूपाय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।6।
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जयमाला
हे
चन्द्रप्रभु तुम जगतपिता, जगदीश्वर तुम परमात्मा हो। तुम ही हो नाथ अनाथों के, जग को निज आनंद दाता हो। 1।
इन्द्रियों को जीत लिया तुमने, जितेन्द्र नाथ कहाये हो। तुम ही हो परम हितैषी प्रभु, गुरु तुम ही नाथ कहाये हो ।2। इस नगर तिजारा में स्वामी, देहरा स्थान निराला है। दुख दुखियों का हरने वाला, श्री चन्द्र नाम अति प्यारा है । 3 । जो भाव सहित पूजा करते, मनवांछित फल पा जाते है। दर्शन से रोग नसे सारे, गुन-गान तेरा सब गाते हैं।4। मैं भी हूँ नाथ शरण आया कर्मों ने मुझको रौंदा है। यह कर्म बहुत दुःख देते हैं प्रभु एक सहारा तेरा है।5। कभी जन्म हुआ कभी मरण हुआ, हे नाथ बहुत दुःख पाया है। कभी नरक गया कभी स्वर्ग गया, भ्रमता-भ्रमता ही आया है। 6 ।
तिर्यंच गति के दुःख सहे, ये जीवन बहुत अकुलाया है। पशुगति में मार सही भारी, बोझा रख खूब भगाया है।7। अंजन से चोर अधम तारे, भव- सिन्धु से पार लगाया है। सोमा की सुन कर टेर, प्रभु नाग को हार बनाया है।8।
समन्तभद्र को स्वामी, आ चमत्कार दिखलाया है। कर चमत्कार को नमस्कार, चरणों में शीश झुकाया है।9। इस पंचमकाल में हे स्वामी, क्या अद्भुत महिमा दिखलाई। दुःख दुखियों का हरने वाली, देहरे में प्रतिमा प्रकटाई। 10। शुभ-पुण्य-उदय से हे स्वामी, दर्शन तेरा करने आया हूँ। इस मोह जाल से हे स्वामी, छुटकारा पाने आया हूँ।11। श्री चन्द्रप्रभु मोरी अर्ज सुनो चरणों में तेरे आया हूँ। भवसागर पार करो स्वामी यह अर्ज सुनाने आया हूँ। 12। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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दोहा
देहरे के श्री चन्द्र को, भाव सहित जो ध्याय मुंशी पावे सम्पदा, मनवांछित फल पाया।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री चन्द्रप्रभ जिन-पूजा (सोनागिर) (रचयित्री - आर्यिका स्वस्ति मति)
स्थापना
स्वर्णों सम सोनागिरि पर्वत, चंदा प्रभु जिसमें रहते है।। चंदा की ज्ञान किरण फैली, तपसी जन ऐसा कहते हैं।।
श्री नंग-अनंग कुमार मुनि, निर्वाणस्थली बना गये। मुनिराजों ने आ तप कीना, सिद्धालय को वे चले गये।।
आह्वानन करने आया हूँ, आओ तिष्ठो मेरे जिनवर।
मम हृदय कमल का आसन है, आओ-आओ मेरे जिनवर।। ॐ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
भोगों को भोगा हे प्रभुवर, इसमें ही हृदय लुभाया है। भौतिक वस्तु में सुख माना, उसमें ही मन हर्षाया है।। इस जन्म मरण से छू, मैं, जल चरणों में मैं ले आया।
सच्ची श्रद्धा सम्यग्दर्शन, पाने को यह मन ललचाया।। ऊँ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय
शनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
संतृप्त हृदय प्रभु रहता है, चंदन से शीतल ना होता। मैं नित्य कषायें करता हूँ, पछताता और जीवन खोता।। चंदा सम शीतलता पाऊं, शीतल चंदन मैं ले आया।।
सच्ची श्रद्धा सम्यग्दर्शन, पाने को यह मन ललचाया।। ऊँ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
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हो अंदर बाहर आप शुद्ध, अक्षत समगुण प्रभु तेरे हैं। संसार भटकता मैं फि रता, खाये गतियों के फेरे हैं।। अक्षत सम धवल रूप पाऊँ, शुभ अक्षत लेकर मैं आया।।
सच्ची श्रद्धा सम्यग्दर्शन, पाने को यह मन ललचाया।। ॐ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।।
बागों में फूल घनेरे हैं, पर तुम सम पुष्प न कोई है। सब दोष-रहित अफसोस-रहित, आत्मा अनादि से सोई है।।
भावों की शुद्धी हो जावे, पुष्पों की माला मैं लाया।।
सच्ची श्रद्धा सम्यग्दर्शन, पाने को यह मन ललचाया।। ऊँ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
नाना व्यंजन खाये मैंने, आतम इससे ना शान्त हुआ। आतम का भोजन दिया नहीं, जिससे जीवन-पथ भ्रांत हुआ।। यह नागिन क्षुधा मिटाने को, नैवेद्य बनाकर मैं लाया।।
सच्ची श्रद्धा सम्यग्दर्शन, पाने को यह मन ललचाया।। ऊँ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।51
दीपक जग को रोशन करता, पर आतम तम ना मिटता है। जगे अंतरतम में ज्ञान दीप, कर्मों का राजा पिटता है।। उजियाला अंतर में फैले, जड़ दीपक लेकर मैं आया।।
सच्ची श्रद्धा सम्यग्दर्शन, पाने को यह मन ललचाया।। ॐ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
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सुख-दुख सब कर्मों का फल है, कर्मों की लीला है न्यारी।
हे नाथ सहारा मिले तेरा, तप अग्नि की करूँ तैयारी।। यह धूप अग्नि में खेऊँगा, शुभ धूप बनाकर मैं लाया।।
सच्ची श्रद्धा सम्यग्दर्शन, पाने को यह मन ललचाया।। ॐ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।71
भक्ति से मैं पूजा करता, पर फल की चाह ही रहती है। मुक्ति का फल मिल जाये मुझे, आतम जग में दुख सहती है।। बोझा पापों का हट जाये, थाली भर फल मैं ले आया।।
सच्ची श्रद्धा सम्यग्दर्शन, पाने को यह मन ललचाया।। ऊँ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
बाधाओं का पथ मिला मुझे, प्रभु तुम तक पहुँच न पाता हूँ।
जग की झंझट उलझाती है, हर पीड़ा को सह जाता हूँ।। पाऊँ अनर्घ्य पद हे प्रभुवर, अर्यों का थाल मैं ले आया।।
सच्ची श्रद्धा सम्यग्दर्शन, पाने को यह मन ललचाया।। ऊँ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।91
पंचकल्याणक अंतिम भव पाने प्रभू, मात गर्भ में आये।
लक्ष्मणा देवी खुश हुई, महासेन हर्षाये।। ऊँ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय चैत्रकृष्णा-पंचम्यां
गर्भमंगल-मंडिताय अय॑नि र्वपामीति स्वाहा।।।
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पौष वदी एकादशी, जय-जयकार महान्। चंदा जग में आ गया, उजियारे की खान।।
ऊँ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय पौषकृष्णा-एकादश्यां जन्ममंगल-मंडिताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।
जग का झंझट छोड़कर, तप करने वन जाये। ऊँ नमः मुख उच्चरे, दीक्षा स्वयं ही पाये।
ऊँ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय पौषकृष्णा-एकादश्यां तपोमंगल-मंडिताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
समवशरण रचना करी, भव्य जीव सब आये। दीपक केवल का जगा, जन-जन मन हर्षाये।।
ऊँ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय फाल्गुनकृष्णा-सप्तम्यां केवलज्ञान-प्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।4।
श्री सम्मेद को चल दिये, किया था ऐसा ध्यान।
अष्ट कर्म को नष्ट कर, पहुँचे शिवपुर थान।।
ऊँ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय फाल्गुनशुक्ला-सप्तम्यां मोक्षमंगल-मंडिताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।5।
जयमाल (चैपाई) हे करुणा-सागर गुण-गण-आगर, करुणा हम पर बरसाओ।
हे दयाभंडारी, कृपा तुम्हारी, मेरा जीवन हर्षाओ।। हे चन्द्रप्रभु जिनराज तुम्हारी, पूजा करने आया हूँ। जंजाल कर्मों को छूटे, यह भाव साथ में लाया हूँ।। है पड़ी आत्मा पर प्रभुवर, यह जन्म मरण की बेड़ी है।
लाखों की बेड़ी तोड़ी है, तेरी तो कृपा घनेरी है।।
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सोनागिरि सोना बरसाता, आनन्द ही आनन्द आता है।
सुन्दर मन्दिर पर्वत ऊपर, भक्ति कर मन हर्षाता है।।
श्री नंग-अनंग कुमार मुनि, इस पर्वत से ही मुक्त हुये। मुनि संग में साढ़े पाँच कोटि, वे भी इस भूमि से मुक्त हुये।।
इक-इक मन्दिर का दर्शन, कर्मों को हल्का करता है। चौबीसी के दर्शन करक, मन पुलकित-पुलकित होता है।। भटका हूँ सच्चे मारग से, मुझको सदराह दिखाओ तुम।
अज्ञान-अंधेरा छाया है, ज्ञान का दीप जलाओ तुम।। क्रोधाग्नि कषायों के कारण, मैं बनता और बिखरता हूँ। आशीष मिले प्रभु तेरा तो, कुंदन सा और निखरता हूँ।।
मनहर प्रभु तेरी मूरतियाँ, भक्तों के मन को भाती है। जो भी तेरे दर्शन करता, प्रतिमा लख प्रतिभा जगती है।। मैं नर्क तिर्यंच गति घूमा, स्वर्गों का सुख भी पाया है। पर तेरे दर्शन जैसा सुख, प्रभु और कहीं ना आया है।। पर्वत भी अतिशय बरसाता, जो भी दर्शन को आता है। संकट हरता झोली भरता, सुख-शांति जग में पाता है।। चंदा प्रभु का शुभ समोवसरण, कई बार यहाँ पर आया था। इस भूमि को पावन करके, दिव्यामृत को बरसाया था।। तपसी के तप ने भूमि के, कण-कण को पावन कर दीना। इस भूमि की पूजा करते, रज मस्तक शीश चढ़ा लीना।।
यह मोह महातम अंधियारी, मेरे जीवन में छाई है। हो पूर्णमासी के चंद्र आप, मम मन की कली हर्षाई है।। ___ मेरी पूजा से हो प्रसन्न, प्रभु मेरी झोली भर देना। स्वस्ति की है अंतिम इच्छा, अपने सम मुझको कर लेना।।
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दोहा दिव्य भूमि का भाव से, कर ता हूँ गुण गान।
सोनागिर सिद्धक्षेत्र को, बारंबार प्रणाम।। ॐ ह्रीं सोनागिर-विराजित-चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जयमालापूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री चन्द्रप्रभ जिन-पूजा (महलका) (रचयिता - आर्यिका मुक्ति भूषण)
चन्द्र प्रभु का रूप मनोहर, चन्द्र छवि शरमाती है। केवलरवि-ज्योति के सन्मुख, रवि-किरणें मुरझाती हैं।। महासेन नृप के नन्दन को, हम अभिनन्दन करते हैं। आह्वानन-स्थापन-सन्निधि, चरण-कमल चित्त धरते हैं।। ऊँ ह्रीं श्रीअतिशयक्षेत्र-महलका-स्थित-चन्द्रप्रभुजिनेन्द्र! __ अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्) ॐ ह्रीं श्रीअतिशयक्षेत्र-महलका-स्थित-चन्द्रप्रभुजिनेन्द्र!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीअतिशयक्षेत्र-महलका-स्थित-चन्द्रप्रभुजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
समकित निर्मल शुभ नीर, मिथ्यामल धोवे। पावन जल चरण चढ़ाय, उज्ज्वल मन मोहे।। श्री चन्द्रप्रभु भगवान, भक्तों के हितकारी।
हम पूजें भक्तीभाव, प्रभु पद मनहारी।। ऊँ ह्रीं श्रीअतिशयक्षेत्र-महलका-स्थित-चन्द्रप्रभुजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।1।
सुरभित-शीतल-गंध, भव-आताप नशे। चन्दन प्रभु-चरण चढ़ाय, निज आनन्द लशे।। श्री चन्द्रप्रभु भगवान, भक्तों के हितकारी।
हम पूजें भक्तीभाव, प्रभु पद मनहारी।। ॐ ह्रीं श्रीअतिशयक्षेत्र-महलका-स्थित-चन्द्रप्रभुजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
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तंदुल शुभ पूर्ण अखण्ड, भव नहिं उपजावे। अक्षत प्रभु चरण चढाय, अक्षय सुख पावे ॥ श्री चन्द्रप्रभु भगवान, भक्तों के हितकारी। हम पूजें भक्तीभाव, प्रभु पद मनहारी ।। ऊँ ह्रीं श्रीअतिशय क्षेत्र -महलका-स्थित-चन्द्रप्रभुजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। 31
सुरभित-सुमन मनोज्ञ, मन्मथ भाव नशे प्रभु-चरणन पुष्प चढाय, सुमन सुगुण विकासे ॥ श्री चन्द्रप्रभु भगवान, भक्तों के हितकारी। पूजें भक्तीभाव, प्रभुपद मनहारी ।। ऊँ ह्रीं श्रीअतिशय क्षेत्र-महलका-स्थित- चन्द्रप्रभुजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
नानाविध व्यंजन थाल, भूख मिटावत है। नैवेद्य सुचरण चढाय, समरस चाखत है। श्री चन्द्रप्रभु भगवान, भक्तों के हितकारी। पूजें भक्तीभाव, प्रभुपद मनहारी ।। ऊँ ह्रीं श्रीअतिशय क्षेत्र-महलका-स्थित- चन्द्रप्रभुजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
रत्नोमय दीप जलाय, तम-अज्ञान भ प्रभु चरणन दीप चढाय, सम्यक् ज्योति जगे।। श्री चन्द्रप्रभु भगवान, भक्तों के हितकारी। हम पूजें भक्तीभाव, प्रभु पद मनहारी ।। ऊँ ह्रीं श्रीअतिशयक्षेत्र -महलका-स्थित- चन्द्रप्रभुजिनेन्द्राय मोहान्धकार- विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 61
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चन्दन कर्पूर मिलाय, धूप बनावत हैं। प्रभु-चरणन धूप चढ़ाय, कर्म जलावत हैं।। श्री चन्द्रप्रभु भगवान, भक्तों के हितकारी।
हम पूजें भक्तीभाव, प्रभु पद मनहारी।। ॐ ह्रीं श्रीअतिशयक्षेत्र-महलका-स्थित-चन्द्रप्रभुजिनेन्द्राय
अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
भव फल खाये बहुवार, शिव फल नाहिं मिला। यह फल प्रभु चरण चढ़ाय, निज-गुण-कमल खिला।।
श्री चन्द्रप्रभु भगवान, भक्तों के हितकारी।
हम पूजें भक्तीभाव, प्रभु पद मनहारी।। ऊँ ह्रीं श्रीअतिशयक्षेत्र-महलका-स्थित-चन्द्रप्रभुजिनेन्द्राय
मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
जल चन्दन, आदि द्रव्य, मिलकर अर्घ्य बना। प्रभु-चरणों अर्घ्य चढ़ाय, मुक्ति सुख सपना।। श्री चन्द्रप्रभु भगवान, भक्तों के हितकारी।
हम पूजें भक्तीभाव, प्रभु पद मनहारी।। ऊँ ह्रीं श्रीअतिशयक्षेत्र-महलका-स्थित-चन्द्रप्रभुजिनेन्द्राय
अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।9।
पंचकल्याणक चैत बदी पंचमी शुभ आई, गर्भधार माता हर्षाई।
चन्द्रप्रभु जिनवर गुण गाये, हम सब मिलकर शीश नावाये।। ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-पंचम्यां गर्भकल्याणक-प्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभुजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।।।
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पौष वदी एकादशी आई, चन्द्रप्रभु जन्में सुखदाई।
चन्द्रप्रभु जिनवर गुण गाये, हम सब मिलकर शीश नवाये। ऊँ ह्रीं पौषकृष्णा-एकादश्यां जन्मकल्याणक-प्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभुजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।2।।
पौष वदी एकादशी प्यारी, वेष दिगम्बर धारा भारी।
चन्द्रप्रभु जिनवर गुण गाये, हम सब मिलकर शीश नवाये।। ऊँ ह्रीं पौषकृष्णा-एकादश्यां तपकल्याणक-प्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभुजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।3।।
फाल्गुन बदी सप्तमी आई, केवल ज्ञान हुआ सुखदाई।
चन्द्रप्रभु जिनवर गुण गाये, हम सब मिलर शीश नवाये।। ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा-सप्तम्यां ज्ञानकल्याणक-प्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभुजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।4।
फाल्गुन सुदी सप्तमी आई, गिरि सम्मेद मुक्ति वर पाई।
चन्द्रप्रभु जिनवर गुण गाये, हम सब मिलकर शीश नवाये।। ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्ला-सप्तम्यां मोक्षकल्याणक-प्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभुजिनेन्द्राय
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।5।
जयमाला
(दोहा) अष्टम तीर्थंकर विभो चन्द्रप्रभु भगवान। गुणमाला वर्णन करूँ सर्व गुणों की खान।। हे चन्द्रप्रभु भगवान जिनेश्वर, महिमा तुमरी न्यारी है। भव्य-जीव-पुष्पों को पुष्पित करने की शुभ क्यारी है।1।
सोलह स्वप्न देख माता ने महासेन से फल जाना। तीर्थंकर अवतरण जानकर अपना जन्म सफल माना।2।
चन्द्रपुरी रत्नों की वर्षा सर कबेर बरसायी है। महासेन पितु मात सुलक्षणा देख देख हर्षाई है।3। पौष बदी एकादशी के दिन जन्म लिया मंगलकारी।
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चतुर्निकाय सुरों के आलय मंगल बाद्य बजे भारी।4। तीर्थंकर का जन्म जानकर स्वर्गों में आनन्द छाया। सौधर्म इन्द्र ऐरावत चढ़कर सरपरिवार के सह आया।5। पांडुक शिला मेरु पर्वत पर अभिषेक किया मंगलकारी। महासेन नृप के आंगन में तांडव नृत्य किया भारी।6। मति श्रुति अवधि तीन ज्ञान ये साथ जन्म के लाये थे।
अष्टम वर्ष कुमार अवस्था गुणव्रती कहलाये थे।7। जन्म-जयंती दिवस-मनोहर भव-भोगन वैराग्य मिला।
जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर मोक्षमार्ग सुप्रशस्त किया।8। निज पुरुषार्थ तपस्या-रत हो क्षपक-श्रेणी आरोह किया। शुक्ल-ध्यान की अग्नि जलाकर कर्म घातिया होम दिया।9।
केवलज्ञान उदित होते ही तीर्थंकर सर्वज्ञ हुये। लोकत्रय कालत्रय ज्ञात दिव्यध्वनि उपदेश दिये।10। समवशरण की अद्भुत महिमा चार दिशा मुख चार लखे। नहिं अदया उपसर्ग नहिं औ योजन शत सुभिक्ष दिखे।11। जन्म-ज्ञान के दश-दश अतिशय देवोकृत चौदह गाये। अष्टप्रातिहार्य से शोभित अनन्त चतुष्टय महकाये।12।
छयालीस मूलगुण के धारी दोष अठारह शेष नहीं। वीतराग सर्वज्ञ हितंकर अवगुण दुख लवलेश नहीं।131 जैन धर्म अतिशय दिखलाया ग्राम महलका आ करके। जैनी जमींदार बनवाये वंश-बेल चलवा करके।14। मन्दिर बना विशाल एक जिसकी ऊँची ध्वजायें है। अरु पांच वेदी से यत हो उन्नत शिखर सहाते हैं।151 प्रतिमा चतुर्थ कालीन सब भक्तों का संकट काटे है। जो भी भक्त दर्शन करता वो शिव-पथ का गामी है।16। प्रांगण बीच बना मानस्तंभ सबको सुख पहुचाता है। चन्द्रप्रभु के समोशरण की अद्भुत महिमा गाता है।17। चन्द्रांचल शुभ द्वार सभी को मोक्ष मार्ग दर्शाता है।
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चन्द्रप्रभु की अद्भुत महिमा वह निशदिन ही गाता है।18।
(घत्ता) जय चन्द्रप्रभ जी, सब जिनवर जी, अतिशय मूर्ति सुखकर्ता।
मैं निशदिन ध्याऊँ, शीश झुकाऊँ, बलि-बलि जाऊँ दुखहर्ता।। ऊँ ह्रीं अतिशयक्षेत्र-महलका-स्थित चन्द्रप्रभुजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा) चन्द्रप्रभ के चरणों में नमन हो बारम्बार। मुक्ति की वरभावना, पाऊँ शिवपुर द्वार।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री चन्द्रप्रभ जिन-पूजा (चाँदखेड़ी) महासेन-लक्ष्मणा-सुत अष्टम तीर्थंकर शीश नवाता हूँ।
चांदखेड़ी के चन्दाप्रभु चरणों में तेरे आया हूँ।। संवत दो सहस अट्ठावन फाल्गुन सुदी दसमी रविवार।
प्रकटाए रत्नमय चंदाप्रभु मुनिपुंगव सुधासागर।। चतुर्थ काल की प्रतिमाएँ तल-प्रकोष्ठ में विराजमान।
रत्नों की और नहीं विश्व में इस आकार समान।। यक्ष-रक्षित रत्नमय चंदाप्रभु अरिहंत पार्श्वनाथ भगवान। कायाकल्प हुई चांदखेड़ी की महिमा आदिनाथ भगवान।। आह्वानन करता हूँ प्रभु का यक्ष-रक्षित अतिशय-धारी।
अत्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ सन्निधिकरण सुखकारी।। ऊँ ह्रीं चांदखेड़ी के बन्द-तल-प्रकोष्ठ में विराजमान यक्ष-रक्षित चंदाप्रभु-अरिहंत पार्श्वनाथभगवन्!
अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्) ॐ ह्रीं चांदखेड़ी के बन्द-तल-प्रकोष्ठ में विराजमान यक्ष-रक्षित चंदाप्रभु-अरिहंत पार्श्वनाथभगवन्!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ॐ ह्रीं चांदखेड़ी के बन्द-तल-प्रकोष्ठ में विराजमान यक्ष-रक्षित चंदाप्रभु-अरिहंत पार्श्वनाथभगवन्!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
मुनि-मन-सम उज्ज्वल जल लेकर, चरणों में आया हूँ। कर्म-कलंक मिटाने को भावों से, प्रक्षालन करता हूँ।। भव-सागर पार करो स्वामी, विनती करने को आया हूँ।
चांदखेड़ी के चन्दाप्रभु तेरे चरणों में आया हूँ।। ॐ ह्रीं चांदखेड़ी के बन्द-तल-प्रकोष्ठ में विराजमान यक्ष-रक्षित चंदाप्रभु जिनप्रतिमासमूहाय
जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
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भव-आताप मिटाने को चंदन झारी में लाया हूँ। संसार-ताप मिटाने को भाव-सहित चंदन अर्पित करता हूँ।। भव-सागर पार करो स्वामी, विनती करने को आया हूँ।
चांदखेड़ी के चन्दाप्रभु तेरे चरणों में आया हूँ।। ऊँ ह्रीं चांदखेड़ी के बन्द-तल-प्रकोष्ठ में विराजमान यक्ष-रक्षित चंदाप्रभु जिनप्रतिमासमूहाय
संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
प्रभु अक्षत लेकर आया हूँ, अक्षय-पद के पाने को।
पुंज धरो चरनन ढिग तेरे जन्म-मरण के नाशन को।। भव-सागर पार करो स्वामी, विनती करने को आया हूँ।
चांदखेड़ी के चन्दाप्रभु तेरे चरणों में आया हूँ।। ऊँ ह्रीं चांदखेड़ी के बन्द-तल-प्रकोष्ठ में विराजमान यक्ष-रक्षित चंदाप्रभु जिनप्रतिमासमूहाय
अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।3।
कामदेव से दुखी हुआ भोगों में भ्रमता आया हूँ। कामबाण-विध्वंस प्रभु को पुष्प चढ़ाने आया हूँ।। भव-सागर पार करो स्वामी, विनती करने को आया हूँ।
चांदखेड़ी के चन्दाप्रभु तेरे चरणों में आया हूँ।। ऊँ ह्रीं चांदखेड़ी के बन्द-तल-प्रकोष्ठ में विराजमान यक्ष-रक्षित चंदाप्रभु जिनप्रतिमासमूहाय
कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
षट् रस व्यंजन से न मिटी क्षुधा मेरी मैं व्याकुल रहता हूँ। हो जन्म-जन्म की क्षुधा शान्त नैवेद्य समर्पित करता हूँ।। भव-सागर पार करो स्वामी, विनती करने को आया हूँ।
चांदखेड़ी के चन्दाप्रभु तेरे चरणों में आया हूँ।। ऊँ ह्रीं चांदखेड़ी के बन्द-तल-प्रकोष्ठ में विराजमान यक्ष-रक्षित चंदाप्रभु जिनप्रतिमासमूहाय
क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।51
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मोह तिमिर नाशन को प्रभु तेरे चरणों में आया हूँ। यह दीप समर्पण करके मैं मिथ्या-तम हरने आया हूँ।। भव-सागर पार करो स्वामी, विनती करने को आया हूँ। चांदखेड़ी के चन्दाप्रभु तेरे चरणों में आया हूँ।।
ऊँ ह्रीं चांदखेड़ी के बन्द-तल- प्रकोष्ठ में विराजमान यक्ष-रक्षित चंदाप्रभु जिनप्रतिमासमूहाय मोहान्धकार- विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 61
भोगों में भ्रमित हुआ मम मन चंचल परिणति में रहता हूँ। चंचल मन वश में करने को मैं धूप दशांग चढ़ाता हूँ।।
भव-सागर पार करो स्वामी, विनती करने को आया हूँ। चांदखेड़ी के चन्दाप्रभु तेरे चरणों में आया हूँ।।
ऊँ ह्रीं चांदखेड़ी के बन्द-तल- प्रकोष्ठ में विराजमान यक्ष-रक्षित चंदाप्रभु जिनप्रतिमासमूहा अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। 7।
शुभ जीवन पाने को जिनवर फल लेकर अर्चन करता हूँ।
दो आशीष शिव-फल पाऊँ मैं यह फल अर्पित करता हूँ ।।
भव-सागर पार करो स्वामी, विनती करने को आया हूँ। चांदखेड़ी के चन्दाप्रभु तेरे चरणों में आया हूँ।।
ऊँ ह्रीं चांदखेड़ी के बन्द-तल- प्रकोष्ठ में विराजमान यक्ष-रक्षित चंदाप्रभु जिनप्रतिमासमूहाय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
जल चंदन अक्षत आदिक से अर्घ्य बनाकर लाया हूँ। प्रभु तेरे चरणों में अन्तर मन से यह अर्घ्य चढ़ाता हूँ।।
भव-सागर पार करो स्वामी, विनती करने को आया हूँ। चांदखेड़ी के चन्दाप्रभु तेरे चरणों में आया हूँ।।
ऊँ ह्रीं चांदखेड़ी के बन्द-तल- प्रकोष्ठ में विराजमान यक्ष-रक्षित चंदाप्रभु जिनप्रतिमासमूहाय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | 9 |
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पंचकल्याणक चैत्र बदी पंचमी को प्रभु माता लक्ष्मणा के गर्भ में आये थे।
सुरपति की आज्ञा पाकर देवों ने रत्न बरसाये थे।। ऊँ ह्रीं चैत्रबदी-पंचमीदिने गर्भमंगल-मंडिताय श्रीचन्दाप्रभुजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा॥1॥
कलि पौष एकादशी जानो जन्मे जिन चन्द्र महानों।
तब इन्द्र जज जिन राई हम पूजत है हर्षाई।। ऊँ ह्रीं पौषबदी-एकादशीदिने जन्ममंगल-मंडिताय श्रीचन्दाप्रभुजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा॥2॥
तप दुर्धर श्रीधर आप धार निज आत्म ध्यान में लीन हुए।
पौष वदी एकादशमी को देवों ने जय-जय घोष किए।। ॐ ह्रीं पौषबदी-एकादशीदिने तपोमंगल-मंडिताय श्रीचन्दाप्रभुजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।3।
चार घातिया कर्म नाशकर आप भये केवलज्ञानी।
फाल्गुन वदी सप्तमी को समवशरण चरना हरि किनी।। ऊँ ह्रीं फाल्गुनबदी-सप्तमीदिने ज्ञानकल्याणक-प्राप्ताय श्रीचन्दाप्रभुजिनेन्द्राय
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।4।।
वसुकर्म चन्दप्रभु ने जीते ललित कूट सम्मेद शिखर महान्।
निर्वाण महोत्सव किया इन्द्रों ने फाल्गुन शुक्ला सप्तमी जान।। ॐ ह्रीं फाल्गुनसुदी-सप्तमीदिने महामोक्षमंगल-मंडिताय श्रीचन्दाप्रभुजिनेन्द्राय
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।5।।
चार बजे सन् दो हजार दो फाल्गुन सुदी दशमी रविवार। प्रकट हुए रत्नमयी चन्दाप्रभु चांदखेड़ी में जय-जयकार।। यक्ष-रक्षित रत्नमयी चन्दाप्रभु अरिहन्त पार्श्वनाथ भगवान।
चरणों में आ अर्घ चढ़ाने प्रभु का दर्शन सुख की खान।। ऊँ ह्रीं फाल्गुनशुक्ला-दशमीदिने चांदखेड़ी-स्थान-प्रकट श्रीचन्दाप्रभुजिनेन्द्राय
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।6।।
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जयमाला
(दोहा)
जय चंद्रजिनेन्द्र दयानिदान दश लक्ष पूर्व की आयु पाये। किया केश लोच चन्द्र नगर से निकल वैराग्य भावना भाये ।।
तहसील खानपुर से लगा चांदखेड़ी एक गांव। रूपाली नदी पर बना आदिनाथ जिन धाम || संवत् सतरह सौ तीस में जब आए आदिनाथ भगवान । शिखर बन्द मन्दिर था पहले से चन्दाप्रभु भगवान।। प्रतिमा अचल हुई साथ थे किशनदास बघैरवाल कोटा दीवान। बनवाया तिलस्मी मन्दिर किये विराजामन आदिनाथ भगवान ।।
शिखर नहीं आदिनाथ पर अंचल की छटा निराली । राजस्थान का चांदखेड़ी तीर्थ चतुर्थ कालीन प्रतिमाएँ निराली। अनुमान लगाओ वैभव का अचल श्रद्धा श्रावकों की । रत्नों की प्रतिमाएँ विराजमान छटा चांदखेड़ी चन्दाप्रभु की संवत् सतरह सो छियालीस जगतकीर्ति जी ने दी आशीष महान । होते थे दर्शन चतुर्थ कालीन प्रतिमाओं का दुंदुभी बजती थी महान || हुआ ऊँटों पर आक्रमण डाकू असफल महिमा चन्दाप्रभु भगवान। उत्तर दरवाजा बन्द कराकर बन्द किये चन्दाप्रभु दर्शन || चतुर्थ कालीन ये प्रतिमाएँ यक्ष-रक्षित अतिशय - धारी। गंधोदक की वर्षा होती अक्षय तृतीया मंगलकारी ।।
इस नगर खानपुर में चांदखेड़ी स्थान निराला है। दुःख दुःखियों का हरने वाला चन्द्रनाम अति प्यारा है।। जो भाव-सहित पूजा करते मन-वांछित फल पा जाते हैं। दर्शन से रोग नशे सारे गुणगान तुम्हारा गाते हैं। मैं भी नाथ शरण आया कर्मों ने मुझे सताया है यह कर्म बहुत दुःख देत है प्रभु एक सहारा तेरा है।। मुनि सुधासागर जी को आ चमत्कार दिखाया है। चमत्कार को नमस्कार चरणों में शीश झुका है॥
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बदल दिया इतिहास मुनिपुंगव सुधासागर अन्तर्यामी। रागी नही हूँ नही हूँ द्वेषी चन्दाप्रभु अन्तर्यामी॥ सोमासती ने आपको ध्याय नाग का हार बनाया।
मुनि समन्तभद्र ने ध्याया पिंडी फटी दर्श, तुम पाया। सम्यग्दर्शन छूटे न मेरा तेरे दर पर यही भावना भाता हूँ। अंजन चोर को तार दिया श्रद्धा सहित तव चरण में आया हूँ ।।
भारत भर में गूँज गई है त्व यश की अक्षय - भेरी ।
देश-देश के यात्री आकर जय-जयकार करें तेरी ||
ऊँ ह्रीं चांदखेड़ी के बन्द-तल - प्रकोष्ठ में विराजमान यक्ष-रक्षित चंदाप्रभुजिनेन्द्राय जयमाला - महार्घ्यं
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चांदखेड़ी के चन्दाप्रभु को भाव सहित जो ध्यावें । सुख सम्पत्ति अरु कीर्ति कुसुम रूप मन वांछित पावें ।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री शीतलनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री राजमल जी) जय-जय प्रभु शीतलनाथ शील के सागर शील-सिन्धु शीलेश।
कर्म-जाल के शीतल-कर्ता केवलज्ञानी महा महेश।। त्रैकालिक ज्ञायक-स्वभाव ध्रुव के आश्रय से हुए जिनेश।
मुझको भी निज-सम शीतल कर दो है विनय सही परमेश।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
निर्मल उज्ज्वल जलधार चरणों में सोहे। यह जन्म-रोग मिट जाय निज में मन मोहे।।
हे शीतलनाथ जिनेश शीतलता-धारी।
हे शील-सिन्धु शीलेश सब संकट-हारी।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
चन्दन सी सुरस सुगन्ध मुझ में भी आये। भव-ताप दूर हो जाये शीतलता छाये।। हे शीतलनाथ जिनेश शीतलता-धारी।
हे शील-सिन्धु शीलेश सब संकट-हारी।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
निज अक्षय-पद का भान करने आया हूँ। हर्षित हो शुभ्र-अखण्ड-तन्दुल लाया हूँ।।
हे शीतलनाथ जिनेश शीतलता-धारी।
हे शील-सिन्धु शीलेश सब संकट-हारी।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।3।
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कन्दर्प काम के पुष्प अब मैं दूर करूँ। पर-परिणति का व्यापार प्रभु चकचूर करूँ।।
हे शीतलनाथ जिनेश शीतलता-धारी।
हे शील-सिन्धु शीलेश सब संकट-हारी।। ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।40
चरु-सेवन दुःखकार भव-पीड़ा-दायक। है क्षुधा-रहित निज-रूप सुखमय शिवनायक।।
हे शीतलनाथ जिनेश शीतलता-धारी।
हे शील-सिन्धु शीलेश सब संकट-हारी।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।51
अज्ञान तिमिर महान घनघोर उर में आया है। रवि सम्यक्ज्ञान-प्रकाश मझको पाया है।।
हे शीतलनाथ जिनेश शीतलता-धारी।
हे शील-सिन्धु शीलेश सब संकट-हारी।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
चारों कषायों का संग हे प्रभु हट जाये। हो कर्मचक्र का ध्वंस भव-दुःख मिट जाये।।
हे शीतलनाथ जिनेश शीतलता-धारी।
हे शील-सिन्धु शीलेश सब संकट-हारी।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।71
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निर्वाण महाफल हेतु चरणों में आया। दुःखरूप राग को जान अब निज-गुण गाया।।
हे शीतलनाथ जिनेश शीतलता-धारी।
हे शील-सिन्धु शीलेश सब संकट-हारी।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
आत्मानुभूति की प्रीति निज में है जागी। पाऊँ अनर्घ-पद नाथ मिथ्या-मति भागी।।
हे शीतलनाथ जिनेश शीतलता-धारी।
हे शील-सिन्धु शीलेश सब संकट-हारी।। ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक चैत्र कृष्ण अष्टमी स्वर्ग अच्युत को तज कर तुम आये। दिक्कुमारियों ने हर्षित हो मात सुनन्दा गुण गाये।।
इन्द्र आज्ञा से कुबेर नगरी-रचना कर हर्षाये।
शीतल-जिन के गर्भोत्सव पर रत्न सुरों ने बरसाये।। ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय चैत्रकृष्णा-अष्टमीदिने गर्भकल्याणक-प्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।।
भद्दिलपुर में राजा दृढ़रथ के गृह तुमने जन्म लिया। माघ कृष्णा द्वादशी इन्द्र-सुरों ने निज-जीवन धन्य किया।। गिरि सुमेरु पर पाण्डुक वन में क्षीरोदधि से न्हवन किया।
एक-सहस्र-अष्ट कलशों से हर्षित हो अभिषेक किया।। ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय माघकृष्णा-द्वादशीदिने जन्ममंगल-मंडिताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।
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शरद् मेघ-परिवर्तन लख कर उर छाया वैराग्य महान । लौकान्तिक देवों ने आकर किया आपका तप कल्याण ।। सकल-परिग्रह त्याग तपस्या करने वन को किया प्रयाण।
माघ कृष्ण द्वादशी सहेतुक वन में गूँजा जय-जय गान।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय माघकृष्णा-द्वादशीदिने तपकल्याणक-प्राप्ताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 31
पौष कृष्णा की चर्तुदशी को पाया स्वामी केवल ज्ञान । समवशरण की रचना कर देवों ने गाये मंगल गान ।।
सकल विश्व को वस्तु-तत्त्व उपदेश आपने दिया महान । भद्दिलपुर में गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान हुए चारों कल्याण ।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय पौषकृष्णा चतुर्दशीदिने ज्ञानकल्याणक-प्राप्ताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 4।
अश्विन शुक्ल अष्टमी को हर अष्ट-कर्म पाया निर्वाण । विद्युत कूट श्री सम्मेद शिखर पर हुआ मोक्ष कल्याण। शेष प्रकृति पच्चासी कर कर्म-अघाति अभाव किया। निज-स्वभाव के साधन द्वारा मोक्ष-स्वरूप लिया।
ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय आश्विनशुक्ला-अष्टमीदिने मोक्षकल्याणक-प्राप्ताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 51
जयमाला
जय-जय शीतलनाथ शीलमय शीत- पुञ्ज शीतल - सागर। शुद्ध-रूप जिन शुचिमय शीतल शील- निकेतन गुण-आगर।। दशम तीर्थंकर है जिनवर परम पूज्य शीतलस्वामी। तुम समान मैं भी बन जाऊँ विनय सुनो त्रिभुवन-नामी।। साम्य भाव के द्वारा तुमने निज-स्वरूप का वरण किया।
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पंच महाव्रत धारण कर प्रभु पर-विभाव का हरण किया।।
पुरी अरिष्ट पुनर्वसु नृप ने विधिपूर्वक अहार दिया। प्रभु कर में पय-धारा दे भव-सिन्धु सेतु निर्माण किया।। तीन वर्ष छद्मस्थ मौन रह आत्म-ध्यान में लीन हुए। चार घातिया का विनाश कर केवलज्ञान प्रवीण हुए।।
ज्ञानावरण-दर्शनावरणी-अन्तराय अरु मोह-रहित। दोष अठारह रहित हुए तुम छयालीस गुण से मण्डित।। क्षुधा, तृषा, रति, खेद, स्वेद, अरु जन्म-जरा-चिन्ता-विस्मय। राग, द्वेष, मद, मोह, रोग, निद्रा, विषाद अरु मरण न भय।।
शुद्ध-बुद्ध अरहत-अवस्था पाई तुम सर्वज्ञ हुए। देव अनन्त-चतुष्टय प्रगटा निज में निज-मर्मज्ञ हुए।। इक्यासी गणधर थे प्रभु के प्रमुख कुन्थ ज्ञानी गणधर। मुख्य आर्यिका श्रेष्ठ धारिणी श्रोता थे नृप सीमंधर।। तव दर्शन करके हे स्वामी आज मुझे निज भान हुआ। सिद्ध-समान सदा पद मेरा अनुपम निर्मल ज्ञान हुआ।।
भक्ति-भाव से पूजा करके यही कामना करता हूँ। राग-द्वेष परणति मिट जायें यही भावना करता हूँ।। निर्विकल्प-आनन्द प्राप्ति की आज हृदय में लगी लगन। सम्यक् पूजन-फल पाने को तुम चरणों में हुआ मगन।। निज-चैतन्य-सिंह अब जागे मोह-कर्म पर जय पाऊँ। निज-स्वरूप अवलम्बन द्वारा शाश्वत-शीतलता पाऊँ।। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय महायं निर्वपामीति स्वाहा।
कल्पवृक्ष-शोभित चरण शीतलजिन उर-धार। मन-वचन-तन जो पूजते वे होते भव-पार।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री वासुपूज्य जिन-पूजा (रचयिता - श्री राजमल जी)
जय श्री वासुपूज्य तीर्थंकर सुर-नर-मुनि पूजित जिनदेव। ध्रुव-स्वभाव निज का आवलम्बन लेकर सिद्ध हुए स्वयमेव।। घाति-अघाति कर्म सब नाशे तीर्थंकर द्वादशम स्वदेव।
पूजन करता हूँ अनादि की मेटो प्रभु मिथ्यात्व-कुटेव।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
जल से तन बार-बार धोया पर शुचिता कभी नहीं आई। इस हाड़-मास-मय चर्म-देह का जन्म-मरण अति दुखदाई।। त्रिभुवन-पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव-बाधा हरलो।
चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज-सम कर लो।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय त्रिविधताप-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
गुण शीतलता पाने को मैं चन्दनं चर्चित करता आया। भव-चक्र एक भी घटा नहीं सन्ताप न कुछ कम हो पाया।। त्रिभुवन-पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव-बाधा हरलो।
चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज-सम कर लो।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय भवाताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
मक्ता-सम उज्ज्वल तन्दल से नित देह पष्ट करता आया। तन की जर्जरता रुकी नहीं भव कष्ट व्यर्थ भरता आया।। त्रिभुवन-पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव-बाधा हरलो।
चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज-सम कर लो।। ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।3।
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पुष्पों की सुरभि सुहाई प्रभु पर निज की सुरभि नहीं भाई । कंदर्प-दर्प की चिर-पीड़ा अब तक न शमन प्रभो हो पाई ।। त्रिभुवन-पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो । चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज-सम कर लो।। ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय कामबाण -विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
षट्-रस मय विविध-विविध व्यंजन जी भर-भर कर मैंने खाये । भव-भूख तृप्त न हो पाई दुःख क्षुधा-रोग के नित पाये।। त्रिभुवन-पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो । चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज-सम कर लो।। ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
दीपक नित ही प्रज्ज्वलित किये अंतर - तम अब तक मिटा नहीं। मोहान्धकार भी गया नहीं अज्ञान तिमिर भी हटा नहीं || त्रिभुवन-पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो । चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज-सम कर लो || ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय मोहान्धकार- विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 6।
शुभ-अशुभ कर्म बन्धन भाया संवर तत्त्व कभी न मिला। निर्जरा कर्म कैसे हो जब दुखमय आस्रव का द्वार खुला।। त्रिभुवन-पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो । चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज-सम कर लो।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अष्टकर्म - दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
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भौतिक
सुख की इच्छाओं का मैंने अब तक सम्मान किया। निर्वाण मुक्ति-फल पाने को मैंने न कभी निज ध्यान किया।। त्रिभुवन-पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो। चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज-सम कर लो।। ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। 8 ।
जब तक अनर्घ-पद मिले नहीं तब तक मैं अर्घ चढ़ाऊँगा । निज-पद मिलते ही हे स्वामी फिर कभी नहीं मैं आऊँगा ।। त्रिभुवन - पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो । चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज-सम कर लो।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक
त्यागा महा शुक्र का वैभव माँ विजया - उर में आये। शुभ आषाढ़ कृष्ण षष्ठी को देवों ने मंगल गाये ।।
चम्पापुर नगरी की रचना नव बारह-योजन विस्तृत। वासुपूज्य के गर्भोत्सव पर हुए नगरवासी हर्षित।।
ॐ ह्रीं आषाढ़ कृष्णा-षष्ठ्यां गर्भमंगल-प्राप्ताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 1।
फागुन कृष्ण चतुर्दशी को नाथ आपने जन्म लिया। नृप वसुपूज्य पिता हर्षाये भरत क्षेत्र को धन्य किया।। गिरि-सुमेरु पर पाण्डुक वन में हुआ जन्म-कल्याण महान। वासुपूज्य का क्षीरोदधि से हुआ दिव्य- अभिषेक प्रधान ।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा चतुर्दश्यां जन्ममंगल-प्राप्ताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 2।
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मति, श्रुति, अवधि जन्म से था जब ज्ञान मनःपर्यय पाया।। एक वर्ष छद्मस्थ मौन रह आत्म-साधना की तुमने।
उग्र-तपस्या के द्वारा ही कर्म-निर्जरा की तुमने।। श्रेणीक्षपक चढ़े तुम स्वामी मोहनीय का नाश किया। पूर्ण अनन्त-चतुष्टय पाया पद-अरहन्त महान् लिया।। विचरण करके देश-देश में मोक्ष-मार्ग उपदेश दिया।
जो स्वभाव का साधन साधे सिद्ध बने सन्देश दिया।। प्रभु के छयासठ गणधर जिनमें प्रमुख श्रीमन्दिर ऋषिवर।
मुख्य आर्यिका वरसेना थी नृपति स्वयंभू श्रोतावर।। प्रायश्चित, व्युत्सर्ग, विनय, वैय्यावृत स्वाध्याय और ध्यान।
अन्तरंग-तप छः प्रकार का तुमने बतलाया भगवान। कहा वाह्य तप छः प्रकारा का ऊनोदर, कायक्लेश, अनशन। रस-परित्याग सु व्रत परिसंख्या, विविक्त-शय्यासन पावन।।
ये द्वादश तप जिन मुनियों को पालन करना बतलाया। अणुव्रत, शिक्षाव्रत, गुणव्रत, द्वादशव्रत श्रावक का गाया।।
चम्पापुर में हुए पंच-कल्याण आपके मंगलमय। गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, मोक्ष कल्याण भव्य-जन को सुखमय।।
परमपूज्य चम्पापुर की पावन भू को शत-शत वन्दन।
वर्तमान चौबीसी के द्वादशम जिनेश्वर नित्य नमन।। मैं अनादि से दुखी मुझे भी निज बल दो भव-वास हरूँ। निज-स्वरूप का अवलम्बन ले अष्ट-कर्म-अरि नाश करूँ।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
महिष-चिन्ह-शोभित चरण, वासुपूज्य उर-धार। मन-वच-तन जो पूजते, वे होते भव-पार।। ॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री अनन्तनाथजिन-पूजा (रचयिता - श्री राजमल जी)
जय-जय जयति अनन्तनाथ प्रभु शुद्ध-ज्ञानधारी भगवान्। परम-पूज्य मंगलमय प्रभुवर गुण-अनन्तधारी भगवान्।।
केवलज्ञान लक्ष्मी के प्रति भवभय-दुःखहारी भगवान्। परम-शुद्ध अव्यक्त अगोचर भव-भव सुखकारी भगवान्।। जय अनन्त प्रभु अष्ट कर्म-विध्वंसक शिवकारी भगवान्।
महा मोक्ष-पति परम-वीतरागी जग-हितकारी भगवान्।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
मैं अनादि से जन्म-मरण की ज्वाला में जलता आया। सागर-जल से बुझी न ज्वाला तो यह सम्यक् जल लाया।। जय जिनराज अनन्तनाथ प्रभु तुम दर्शन कर हर्षाया।
गुण-अनन्त पाने को पूजन करने चरणों में आया।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
भव-पीड़ा के दुष्कर बन्धन से न मुक्त प्रभु हो पाया। भवाताप की दाह मिटाने मलयागिरि चन्दन लाया।। जय जिनराज अनन्तनाथ प्रभु तुम दर्शन कर हर्षाया।
गुण-अनन्त पाने को पूजन करने चरणों में आया।। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय भवाताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
पर-भावों के महाचक्र में फँसकर नित गोता खाया। भव-समुद्र से पार उतरने निज अखण्ड तन्दुल लाया।। जय जिनराज अनन्तनाथ प्रभु तुम दर्शन कर हर्षाया।
गुण-अनन्त पाने को पूजन करने चरणों में आया।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।31
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कामवाण की व्याधि से पीडित हो अति दुःख पाया। सुदृढ़ भक्ति-नौका में चढ़ कर शील-पुष्प पाने आया।। जय जिनराज अनन्तनाथ प्रभु तुम दर्शन कर हर्षाया।
गुण-अनन्त पाने को पूजन करने चरणों में आया।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।40
विविध भाँति के षट्-रस व्यंजन खाकर तृप्त न हो पाया। ___ क्षुधा-रोग से विनिर्मुक्त होने नैवेद्य भेंट लाया।।। जय जिनराज अनन्तनाथ प्रभु तुम दर्शन कर हर्षाया।
गुण-अनन्त पाने को पूजन करने चरणों में आया।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
पर-परिणति के रूप जाल में पड़ निज-रूप न लख पाया। मिथ्या-भ्रम-हर ज्ञानज्योति पाने को नवल दीप लाया।। जय जिनराज अनन्तनाथ प्रभु तुम दर्शन कर हर्षाया।
गुण-अनन्त पाने को पूजन करने चरणों में आया।। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
नरक तिर्यंच देव नर गति में भव अनन्त धर पछताया। चहुँगति का अभाव करने को निर्मल शुद्ध-धूप लाया।। जय जिनराज अनन्तनाथ प्रभु तुम दर्शन कर हर्षाया।
गुण-अनन्त पाने को पूजन करने चरणों में आया।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
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भाव-शुभाशुभ भव-दुःख कारण इनसे कभी न सुख पाया।
संवरसहित निर्जरा द्वारा मोक्ष-सुफल पाने आया।। जय जिनराज अनन्तनाथ प्रभु तुम दर्शन कर हर्षाया।
गुण-अनन्त पाने को पूजन करने चरणों में आया।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
देह-भोग-संसार-राग में रहा, विराग नहीं आया। सिद्ध-शिला-सिंहासन पाने अर्घ-सुमन लेकर आया।। जय जिनराज अनन्तनाथ प्रभु तुम दर्शन कर हर्षाया।
गुण-अनन्त पाने को पूजन करने चरणों में आया।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
पंचकल्याणक कार्तिक कृष्ण एकम के दिन हुआ गर्भ-कल्याण महान। माता जयश्यामा उर आये पुष्पोत्तर का त्याग विमान।। नव बारह-योजन की नगरी रची अयोध्या श्रेष्ठ प्रधान।
जय अनन्त प्रभु मणि वर्षा की पन्द्रह मास सुरों ने आन।। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय कार्तिककृष्णा-प्रतिपदायां गर्भमंगल-मंडिताय
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
नगर अयोध्या सिंहसैन नृप के गृह गूंजी शहनाई। ज्येष्ठ कृष्णा द्वादश को जन्में सारी जगती हर्षायी।। ऐरावत पर गिरि सुमेरु ले जा सुरपति ने न्हवन किया।
जय अनन्तनाथ प्रभु सुर-सुरांगनाओंने मंगल नृत्य किया। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्रायज्येष्ठकृष्णा-द्वादश्यां जन्मकल्याणकमंडिताय
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।
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उल्कापात देखकर तुमको एक दिवस वैराग्य हुआ। ज्येष्ठ कृष्ण द्वादश को स्वामी राज्य पाठ का त्याग हुआ।। गये सुहेतुक वन में तरु अश्वत्थ निकट दीक्षा धारी।
जय अनन्तप्रभु नग्न दिगम्बर वीतराग मुद्रा धारी।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय ज्येष्ठकृष्णा-द्वादश्यां तपःकल्याण-प्राप्ताय
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
एक मास तक प्रतिमा योग धार कर शुक्ल-ध्यान किया। चार घातिया कर्म नाश कर तुमने केवलज्ञान लिया।। चैत्र मास की कृष्ण अमावस्या को शिव-सन्देश दिया।
जय अनन्त जिन भव्य जनों को परम श्रेष्ठ उपदेश दिया। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय चैत्रकृष्णा-अमावस्यां ज्ञानकल्याणक-प्राप्ताय
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।4।
चैत्र कृष्ण की श्रेष्ठ अमावस्या को तुमने निर्वाण लिया। कूट स्वयंभू सम्मेदाचल देवों ने मिल जयगान किया।। हो अयोग केवली योग का प्रथम समय में अन्त किया।
जय अनन्तप्रभु निज-सिद्धत्व प्रगट कर पद भगवन्त लिया।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय चैत्रकृष्णा-अमावस्यां मोक्षमंगल-मंडिताय
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।।
जयमाला चतुर्दशम तीर्थंकर स्वामी पूज्य अनन्तनाथ भगवान्। दिव्यध्वनि के द्वारा तुमने किया भव्य जन का कल्याण।।
थे पचास गणधर जिनमें पहले गणधर थे जय मुनिवर। सर्वश्री थी मुख्य आर्यिका श्रोता भव्य-जीव सुर-नर।। चौदह जीव-समास मार्गणा चौदह तुमने बतलाये।
चौदह गुणस्थान जीवों के परिणामों के दर्शाये।। बादर-सूक्ष्म जीव एकेन्द्रिय पर्याप्तक व अपर्याप्तक।
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दो इन्द्रिय, त्रय इन्द्रिय, चतुइन्द्रिय, पर्याप्त-अपर्याप्तक।।
संज्ञी और असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्तक। यह ही चौदह जीव समास जीव के जग में परिचायक।। गति, इन्द्रिय, कषाय अरु लेश्या, वेद, योग, संयम, सम्यक्त्व। काय, आहार, ज्ञान, दर्शन अरु है संज्ञीत्व और भव्यत्व।। यह चौदह मार्गणा जीव की होती है इनसे पहचान।
पंचानवे भेद हैं इनके जीव सदा हैं सिद्ध समान।। गति है चार, पाँच है इन्द्रिय, छह लेश्या, पच्चीस कषाय। वेद तीन, सम्यक्त्व-भेद छह, पन्द्रह योग और षट् काय।। दो आहार, चार दर्शन है, संयम सात अष्ट है ज्ञान। दो संज्ञीत्व और है दो भव्यत्व मार्गणा भेद प्रधान।। गुणस्थान मार्गणा व जीव-समास सभी व्यवहार-कथन। निश्चय से यह नहीं जीव के इन सबसे अतीत चेतन।।
मूल प्रकृतियाँ कर्म आट ज्ञानावरणादिक होती है। उत्तम प्रकृति एक सौ अड़तालीस कर्म की होती है।। गुणस्थान मिथ्यात्व प्रथम में एक शतक सत्रह का बन्ध।
दूजे सासादन में होता एक शतक व एक का बन्ध।। मिश्र तीसरे गुणस्थान में प्रकृति चौदहत्तर का हो बन्ध। चौथे अवरति-गुणस्थान में प्रकृति सतत्तर का हो बन्ध।। पंचम देश-विरत में होता सड़सठ कर्मप्रकृति का बन्ध। गुण स्थान षष्ठम प्रमत्त में त्रेसठ कर्मप्रकृति का गन्ध।। सप्तम अप्रमत्त में होता उनसठ कर्मप्रकृति का बन्ध। अष्ट अपूर्वकरण में हो अट्ठावन कर्मप्रकृति का बन्ध।। नौ अनिवृत्तिकरण में होता है बाईस प्रकृति का बन्ध। दसवे सूक्ष्मसाम्पराय में सतरह कर्म प्रकृति का बन्ध।। ग्यारहवे उपशान्तमोह में एक प्रकृति साता का बन्ध। क्षीणमोह बारहवें में है एक प्रकृति साता का बन्ध।। है सयोग केवली तेरहवाँ एक प्रकृति साता का बन्ध। है अयोग केवली चतुर्दश किसी प्रकृति का कोई न बन्ध।।
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अष्टम गुणस्थान में उपशम-क्षपक श्रेणी होती प्रारम्भ। उपशम नौ, दस, ग्यारह तक है नव, दस, बारह क्षायक-सुरम्य।।
अविरत गुणस्थान चौथे में होता सात प्रकृति का क्षय। पंचम, षष्ठम सप्तम में होता है तीन प्रकृति का क्षय।। नवमें गुणस्थान में होता है छत्तीस प्रकृति का क्षय।। दसवे गुणस्थान में होता केवल एक प्रकृति का क्षय।।
क्षीणमोह बारहवे में हो सोलह कर्मप्रकृति का क्षय। इस प्रकार चौथे से बारहवे तक त्रेसठ प्रकृति विलय।।
गुणस्थान तेरहवे में सर्वज्ञ अनंत-चतुष्टयवान्। जीवन-मुक्त परम-औदारिक सकल-ज्ञेय-ज्ञायक भगवान्।।
चौदहवें में शेष प्रकृति पिच्चासी का होता है क्षय। प्रकृति एक सौ अड़तालीस कर्म की होती पूर्ण विलय।। उर्ध्व-गमन कर देह-मुक्त हो सिद्ध-शिला लोकाग्र-निवास।
पूर्ण सिद्ध-पर्याय प्रगट होता है सादि अनंत-प्रकाश।। काल अनंत व्यर्थ ही खोये दुःख अनंत अब तक छाये। द्रव्य, क्षेत्र अरु काल, भव भव-परिवर्तन पाँचों पाये।।
पर-भाव में मग्न रहा तो रही विकारी की पर्याय। निज-स्वभाव का आश्रय लेता होती प्रगट शुद्ध पर्याय।।
अष्ट कर्म से रहित अवस्था पाऊँ परम-शुद्ध हे देव। शुद्ध त्रिकाली ध्रुव-स्वभाव से मैं भी सिद्ध बनूँ स्वयमेव।।
इसीलिये हे स्वामी मैंने अष्ट द्रव्य से की है पूजन। तुम समान मैं भी बन जाऊँ ले निज-ध्रुव का अवलम्बन।। ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
सेही चिन्ह चरण में शोभित श्री अनंत प्रभु पद उर-धार। मन-वच-तन जो ध्यान लगाते हो जाते भव-सागर पार
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि॥
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श्रीशान्तिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री बख्तावरसिंह) सर्वारथ-सुविमान त्याग गजपुर में आये। विश्वसेन-भूपाल तासु के नन्द कहाये। पंचम-चक्री भये मदन-द्वादशवें राजे। मैं सेलूँ तुम चरण तिष्ठये ज्यों दुःख भाजे।। ऊँ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
___ऊँ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजि नेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
अथ अष्टक पंचम-उदधि-तनो जल निरमल कंचन-कलश भरे हरषाय। धार देत ही श्रीजिन सन्मुख जन्म-जरा-मृत दूर भगाय।।
शांतिनाथ पंचम-चक्रेश्वर द्वादश-मदन-तनो पद पाय।
तिन के चरण-कमल के पूजे रोग-शोक दुःख-दारिद जाय।। ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
मलयागिर चंदन कदली-नंदन कुंकुम जल के संग घिसाय। भव-आताप विनाशन कारण चरचूँ चरण सबै सुखदाय॥
शांतिनाथ पंचम-चक्रेश्वर द्वादश-मदन-तनो पद पाय।
तिन के चरण-कमल के पूजे रोग-शोक दुःख-दारिद जाय।। ऊँ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
पुण्यराशि-सम उज्ज्वल अक्षत शशि-मरीचि तसु देख लजाय।
पुंज किये तुम चरणन आगे अक्षय-पद के हेतु बनाय।।
शांतिनाथ पंचम-चक्रेश्वर द्वादश-मदन-तनो पद पाय।
तिन के चरण-कमल के पूजे रोग-शोक दुःख-दारिद जाय।। ऊँ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।3।
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सुर पुनीत अथवा अवनी के, कुसुम मनोहर लिए मँगाय। भेंट धरी तुम चरणन के ढिग, ततक्षिन कामबाण नस जाय ||
शांतिनाथ पंचम - चक्रेश्वर द्वादश-मदन-तनो पद पाय। तिन के चरण-कमल के पूजे रोग-शोक दुःख-दारिद जाय ।। ऊँ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय कामबाण - विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।4।
भांति-भांति के सद्य मनोहर कीने मैं पकवान संवार ।
भर थारी तुम सन्मुख लायो क्षुधा - वेदनी वेग निवार।। शांतिनाथ पंचम - चक्रेश्वर द्वादश-मदन-तनो पद पाय।
तिन के चरण-कमल के पूजे रोग-शोक दुःख-दारिद जाय।।
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। 5।
घृत सनेह करपूर ला कर दीपक ताके धरे प्रजा । जगमग जोत होत मंदिर में मोह - अंध को देत सुटार ||
शांतिनाथ पंचम-चक्रेश्वर द्वादश-मदन-तनो पद पाय । तिन के चरण-कमल के पूजे रोग-शोक दुःख-दारिद जाय।।
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार- विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 61
देवदारु कृष्णागरु चन्दन जगर कपूर सुगन्ध अपार। खेऊं अष्ट करम जारन को, धूप धनंजय माहिं सुडार।। शांतिनाथ पंचम-चक्रेश्वर द्वादश-मदन-तनो पद पाय ।
तिन के चरण-कमल के पूजे रोग-शोक दुःख दारिद जाय।। ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म - दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। 7।
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नारंगी बादाम सुकेला एला दाडिम फल सहकार। कंचन थाल माहिं धर लायो, अरचत ही पाऊँ शिव नार।।
शांतिनाथ पंचम-चक्रेश्वर द्वादश-मदन-तनो पद पाय।
तिन के चरण-कमल के पूजे रोग-शोक दुःख-दारिद जाय।। ऊँ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
जल-फलादि वसु-द्रव्य संवारे अर्घ चढ़ाये मंगल गाय। बखत रतन के तुम ही साहिब दीजे शिवपुर राजकराय।।
शांतिनाथ पंचम-चक्रेश्वर द्वादश-मदन-तनो पद पाय।
तिन के चरण-कमल के पूजे रोग-शोक दुःख-दारिद जाय।। ऊँ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वामीति स्वाहा।91
पंचकल्याणक (छन्द उपगति) भादव सप्तमि श्यामा, सर्वारथ त्याग गजपुर आये। माता ऐरा नामा, मैं पूजूं ध्याऊँ अर्घ शुभ लाये।। ऊँ ह्रीं भाद्रपदकृष्णा-सप्तम्यां गर्भकल्याणक-प्राप्ताय श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।1।
जन्मे तीरथ नाथं, वर जेठ असित चतुर्दशी सोहै। हरिगण नावें माथं, मैं पूजूं शांतिचरण युग जोहै।। ऊँ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णा-चतुर्दश्यां जन्मकल्याणक-प्राप्ताय श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।
चौदस जेठ अंधयारी, कानन में जाय योग प्रभु लीन्हा। नवनिधि-रत्न सुछांरी, मैं वन्दू आत्मसार जिन चीन्हा।। ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णा-चतुर्दश्यां तपकल्याणक-प्राप्ताय श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
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पौष दसें उजियारा, अरि-घाति ज्ञान-भानु-जिन पाया। प्रातिहार्य-वसु धारा मैं सेऊँ सुर-नर जासु यश गाया।
ॐ ह्रीं पौषशुक्ला-दशम्यांज्ञानकल्याणक-प्राप्ताय श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।4।
सम्मेद-शैल भारी, हन कर अघाति मोक्ष जिन पाई।
जेठ चतुर्दशि कारी, मैं पूजू सिद्धथान सुखदाई।। ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णा-चतुर्दश्यां मोक्षकल्याणक-प्राप्ताय श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।5।
जयमाला (छप्पय छन्द) भये आप जिनदेव जगत में सुख विस्तारे। तारे भव्य-अनेक तिन्हों के संकट टारे।।
टारे आठों कर्म मोक्ष-सुख तिनको भारी। भारी विरद निहार लही मैं शरण तिहारी।। तिहारे चरणन को न दःख-दारिद संताप-हर। हर सकल कर्म छिन में शांति जिनेश्वर शांति कर।1।
दोहा सारंग-लक्षण चरण में, उन्नत धनु चालीस। हाटक-वर्ण शरीर धुति, नमूं शांति जग-ईश।2।
छन्द भुजंग-प्रयात प्रभो आपको सर्व के फन्द तोड़े, गिनाऊँ कछु मैं तिनों नाम थोड़े। पड़ी अंबु के बीच श्रीपाल-राई, जपो नाम तेरो भए थे सहाई।3। धरो राय ने सेठ को सूलिका पै, जपी आपके नाम की सार जापै। भेय थे सहाई तबै देव आये, करी फूल-वर्षा सिंहासन बनाये।4। जबै लाख के धाम वह्नि प्रजारी, भयो पाण्डवों पै महा-कष्ट भारी। जबै नाम तेरे तनी टेरी कीनी, करी थी विदुर ने वहीं राह दीनी।5। हरी द्रोपदी धातकी-खंड मांही, तुम्हीं वहां सहाई भला और नाहीं। लियो नाम तेरो भलो शील पालो, बचाई तहां ते सबै दुःख टालो।6। जबै जानकी राम ने जो निकारी, धरे गर्भ को भार उद्यान डारी।
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रटो नाम तेरो सबै सौख्यदाई, करी दूर पीड़ा सु क्षण ना लगाई। 7। व्यसन-सात सेवें करें तस्कराई, सुअंजन से तारे घड़ी न लगाई। सहे अंजना चंदना दुःख जेते, गये भाग सारे जरा नाम लेते। 8 । घड़े बीच में सासु ने नाग डारो, भलो नाम तेरो जु सोमा संभारो। गई काढ़ने को भई फूलमाला, भई है विख्यातं सबै दुःख टाला।9। इन्हें आदि देके कहां लों बखाने, सुनो विरद-भारी तिहूं-लोक जानें। अजी नाथ मेरी जरा ओर हेरो, बड़ी-नाव तेरी रती बोझ मेरो | 10 गहो हाथ स्वामी करो वेग पारा, कहूँ क्या अबै आपनी मैं पुकारा। सबै ज्ञान के बीच भासी तुम्हारे, करो देर नाहीं मेरे शांति प्यारे।11।
घत्ता
श्रीशांति तुम्हारी, कीरत भारी, सुर-नर-नारी गुणमाला। बख्तावर ध्यावे, रतन सु गावे, मम दुःख-दारिद सब टाला।। ऊँ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। अजी एरा नन्दन छवि लखत ही आप अरणं । धरै लज्जा भारी करत थुति सो लाग चरणं ।। करै सेवा सोई लहत सुख सो सार क्षण में । घने दीना तारे हम चहत हैं वास तिन में ||
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्रीशान्तिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री राजमल जी)
शांति जिनेश्वर हे परमेश्वर परम-शान्त-मुद्रा अभिराम। पंचम-चक्री शान्ति-सिन्धु सोलहवें तीर्थंकर सुखधाम।। निजानन्द में लीन शान्ति-नायक गुरु निश्चल निष्काम।
श्री जिन-दर्शन पूजन-अर्चन वंदन नित-प्रति करूँ प्रणाम।। ऊँ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
जल-स्वभाव शीतल मलहारी आत्म-स्वभाव शुद्ध निर्मल। जन्म-मरण मिट जाय प्रभु जब जागे निज-स्वभाव का बल।। परम-शान्ति-सुख-दायक शान्ति-विधायक शान्तिनाथ भगवान।
शाश्वत-सुख की मुझे प्राप्ति हो श्री जिनवर दो यह वरदान।। ऊँ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
शीतल चन्दन-गुण सुगन्धमय निज-स्वभाव अति ही शीतल।
पर-विभाव का ताप मिटाता निज-स्वरूप का अन्तर्बल।। परम-शान्ति-सुख-दायक शान्ति-विधायक शान्तिनाथ भगवान।
शाश्वत-सुख की मुझे प्राप्ति हो श्री जिनवर दो यह वरदान।। ऊँ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
भव-अटवी से निकल न पाया पर-पदार्थ में अटका मन।
यह संसार पार करने का निज-स्वभाव ही है साधन।। परम-शान्ति-सुख-दायक शान्ति-विधायक शान्तिनाथ भगवान।
शाश्वत-सुख की मुझे प्राप्ति हो श्री जिनवर दो यह वरदान।। ऊँ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।31
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कोमल पुष्प मनोरम जिनमें राग- आग की दाह प्रबल । निज-स्वरूप की महाशक्ति से काम-व्यथा होती निर्बल || परम- शान्ति-सुख - दायक शान्ति - विधायक शान्तिनाथ भगवान ।
शाश्वत सुख की मुझे प्राप्ति हो श्री जिनवर दो यह वरदान ।।
ऊँ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय कामबाण - विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
उर की क्षुधा मिटाने वाला यह चरु तो दुखदायक है। इच्छाओं की भूख मिटाता निज-स्वभाव सुखदायक है।।
परम- शान्ति-सुख - दायक शान्ति - विधायक शान्तिनाथ भगवान । शाश्वत सुख की मुझे प्राप्ति हो श्री जिनवर दो यह वरदान ।।
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
अन्धकार में भ्रमते-भ्रमते भव-भव में दुःख पाया है। निज-स्वरूप के ज्ञान-भानु का उदय न अब तक आया है। परम-शान्ति-सुख-दायक शान्ति - विधायक शान्तिनाथ भगवान । शाश्वत सुख की मुझे प्राप्ति हो श्री जिनवर दो यह वरदान ।। ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार- विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 61
इष्ट अनिष्ट संयोगों में ही अब तक मैंने सुख-दुःख माना है। पूर्ण त्रिकाली- ध्रुव-स्वभाव का बल न कभी पहिचाना है। परम-शान्ति-सुख-दायक शान्ति - विधायक शान्तिनाथ भगवान । शाश्वत सुख की मुझे प्राप्ति हो श्री जिनवर दो यह वरदान ।। ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। 7।
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शुद्ध भाव- पीयूष त्याग कर पर को अपना मान लिया। पुण्य-फलों में रुचि करके अब तक मैंने विष पान किया। परम-शान्ति-सुख-दायक शान्ति - विधायक शान्तिनाथ भगवान । शाश्वत सुख की मुझे प्राप्ति हो श्री जिनवर दो यह वरदान ।। ॐ श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। 8 ।
अविनश्वर अनुपम अनर्घ-पद सिद्ध-स्वरूप महा - सुखकार । मोक्ष-भवन निर्माता निज-चैतन्य राग-नाशक अघ-हार ।। परम-शान्ति-सुख-दायक शान्ति - विधायक शान्तिनाथ भगवान। शाश्वत-सुख की मुझे प्राप्ति हो श्री जिनवर दो यह वरदान ।। ॐ श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अनघ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | 9 |
पंचकल्याणक
भादव कृष्ण सप्तमी के दिन तज सर्वार्थसिद्धि से आये ।
माता ऐरा धन्य हो गई विश्वसेन - नृप हरषाये ।। छप्पन दिव्य-कुमारियों ने नित धवल - गीत मंगल गाये। शान्तिनाथ के गर्भोत्सव पर रत्न इन्द्र ने बरषाये ॥ ऊँ ह्रीं श्रीं भाद्रपदकृष्णा-सप्तम्यां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 1 ।
नगर हस्तिनापुर में जन्मे त्रिभुवन में आनन्द हुआ। ज्येष्ठ कृष्ण की चतुर्दशी को सुरिगिरि पर अभिषेक हुआ।। मंगल-वाद्य नृत्य-गीतों से गूंज उठा था पाण्डुक बन हुआ जन्म-कल्याणक महोत्सव शान्तिनाथ प्रभु का शुभ दिन || ॐ ह्रीं ज्येष्ठ कृष्णा - चतुर्दश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 21
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मेघ-विलय लख इस जग की अनित्यता का प्रभु भान किया।
लौकान्तिक देवों ने आकर धन्य-धन्य जय-गान किया।। कृष्ण चतुर्दशी ज्येष्ठ मास की अतुलित-वैभव त्याग दिया। शान्तिनाथ ने मुनिव्रत धारा शुद्धातम अनुराग किया।।
ऊँ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णा-चतुर्दश्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।31
पौष शुक्ल दशमी को चारों घातिकर्म चकचूर किये।
पाया केवलज्ञान जगत के सारे संकट दूर किये।। समवशरण रचकर देवों ने किया ज्ञानकल्याण महान। शान्तिनाथ प्रभु की महिमा का गूंजा जग में जय-जय गान।।
ॐ ह्रीं पौषशुक्ला-दशम्यां केवलज्ञान-मंडिताय श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।4।
ज्येष्ठ कृष्ण की चतुर्दशी को प्राप्त किया सिद्धत्व महान।
कूट कुन्दप्रभ गिरि सम्मेद शिखर से पाया पद-निर्वाण।। सादि-अनन्त सिद्ध-पद को प्रगटाया प्रभु ने धर निज-ध्यान। जय-जय शान्तिनाथ जगदीश्वर अनुपम हुआ मोक्ष-कल्याण।।
ऊँ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णा-चतुर्दश्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।51
जयमाला शान्तिनाथ शिवनायक शान्ति विधायक शुचिमय शुद्धात्मा। शुभमूर्ति शरणागत वत्सल शील-स्वभावी शान्तात्मा।। नगर हस्तिनापुर के अधिपति विश्वसेन-नृप के नन्दन। माँ ऐरा के राजदुलारे सुर-नर मुनि करते बन्दन।
कामदेव-बारहवें पंचम-चक्री तीन-ज्ञान-धारी। बचपन में अणुव्रत धर यौवन में पाया वैभव भारी।।
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भरतक्षेत्र के षट्-खण्डों को जीत कर हुए चक्रवर्ती। नवनिधि चौदह रत्न प्राप्त कर शासक हुए न्यायवर्ती।
इस जग में उत्कृष्ट भोग भोगते बहुत जीवन बीता। एक दिवस नभ में घन का परिवर्तन लख निज मन रीता।। यह संसार असार जानकर तप-धारण का किया विचार। लौकान्तिक देवर्षि सुरों ने किया हर्ष से जय-जयकार।।
वन में जाकर दीक्षा धारी पंच मुष्टि कचलोंच किया। चक्रवर्ती की अतुल-सम्पदा क्षण में त्याग विराग लिया।।
मन्दिरपुर के नृप सुमित्र ने भक्तिपूर्वक दान दिया। प्रभु कर में पय-धारा दे भव-सिन्धु-सेतु निर्माण किया।।
उच्च-तपस्या से तुमने कर्मों की कर निर्जरा महान। सोलह वर्ष मौन तप करके ध्याया शुद्धातम का ध्यान।।
श्रेणी-क्षपक चढ़े स्वामी केवलज्ञानी सर्वज्ञ हुए। दिव्य-ध्वनि से जीवों को उपदेश दिया विश्वज्ञ हुए।।
गणधर थे छत्तीस आपके चक्रायुद्ध पहले गणधर। मुख्य आर्यिका हरिषेणा थी श्रोता पशु, नर, सुर, मुनिवर।। कर विहार जग में जगती के जीवों का कल्याण किया।
उपादेय है शुद्ध-आत्मा यह सन्देश महान दिया।। पाप-पुण्य, शुभ-अशुभ आस्रव जग में भ्रमण कराते हैं।
जो संवर धारण करते हैं परम मोक्ष-पद पाते हैं।। सात तत्त्व की श्रद्धा करके जो भी समकित धरते हैं। रत्नत्रय का अवलम्बन ले मुक्ति-वधु को वरते हैं।। सम्मेदाचल के पावन पर्वत पर आप हुए आसीन। कूट-कुन्दप्रभ से अघातिया कर्मों से भी हुए विहीन।। महामोक्ष-निर्वाण प्राप्त कर गुण-अनन्त से युक्त हुए। शुद्ध-बुद्ध अविरुद्ध सिद्ध-पद पाया भव से मुक्त हुए।। हे प्रभु शान्तिनाथ मंगलमय मुझको भी ऐसा वर दो। शुद्ध-आत्मा की प्रतीति मेरे उर में जागृत कर दो।।
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पाप, ताप, सन्तान नष्ट हो जाये सिद्ध स्वपद पाऊँ। पूर्ण शान्तिमय शिव-सुख पाकर फिर न लौट भव में आऊँ।। ऊँ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय महायँ निर्वपामीति स्वाहा।
चरणों में मृग-चिन्ह सुशोभित शान्ति-जिनेश्वर का पूजन।
भक्ति-भाव से जो करते हैं वे पाते हैं मुक्ति-गगन।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री मुनिसुव्रतनाथ जिन - पूजा (केशवरायपाटन ) ( रचयिता - पं0 दीपचन्द )
श्रद्धा-भाजन विश्व के श्री सुव्रतजिन देव । मेरे मन-मन्दिर बसौ शुद्ध चिदानन्द देव । शांताकृति जिनराज की पाप-कर्म-क्षयकार। जो निजमन अंकित करे वह उतरे भवपार ।। हम अनजान संक्लेश के फसें कीच में आज ।
चिन्तै तुमको लब्धि-वश तार तार जिनराज ।
ऊँ ह्रीं श्रीआशरम्यपट्टणपुरस्थ-श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीआशरम्यपट्टणपुरस्थ-श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम् ) ऊँ ह्रीं श्रीआशरम्यपट्टणपुरस्थ-श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
अष्टक
नीलांजन- गिर-समदेह तथापि निरअंजन।
हैं सुमित्र नृप-सुत आज भी अघ - दल भंजन || यों करें स्तवन हम किन्तु तुम्हें न प्रयोजन || जल-स्तवन करें पद-पंकज में हम अलि बन ।। ऊँ ह्रीं श्रीआशरम्यपट्टणपुरस्थ-श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।1।
केवल ज्ञान दिवाकर ने अज्ञान विश्व को नाश किया। हम अशान्त संसारी जनको उपदेशामृत भास दिया। चन्दनादि से दाह हरी हम विषयी बन भ्रम-बुद्धि धरी । आत्मम-शुद्धि के हेतु चिन्तित यह तव पद - पंकज शरण वरी॥
ॐ ह्रीं श्रीआशरम्यपट्टणपुरस्थ- श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 2 ।
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क्या-क्या बाह्य निमित्त मिले हैं कर्म-उदय के कारण। जिनका क्षणिक चिन्तवन करना यही कर्म-मल हारण।। किन्तु विवेक-बुद्धि की जागृत-ज्योति जागे उर मेरे।
अक्षत से वसु अक्षत-पद की याद बसे उर मेरे।। ॐ ह्रीं श्रीआशरम्यपट्टणपुरस्थ-श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।3।
किसके सुख पर तू मद करता, कर्म उदयवश पाय। देख फूल की दशा फूल कर कुम्हलाता बन माय।। ये सुत नारि काम भोगादिक करें स्व सुख की हान।
फूल भेंट कर तुम पदाब्ज पर करें स्वपद का ध्यान।। ऊँ ह्रीं श्रीआशरम्यपट्टणपुरस्थ-श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
विषय की इच्छा सदा जलती अहर्निश हृदय में। करें ज्ञानी उसे तप से शान्त हो प्रति समय में।।
अज्ञ जन जल मरें उसमें बिना तेरी शरण वे।
सोच यह आगे प्रभो तव करूँ चरुवर भेंट ये।। ऊँ ह्रीं श्रीआशरम्यपट्टणपुरस्थ-श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
है विवेक जहाँ वहाँ अज्ञान का क्या काम। जहाँ दीप उजास को वहाँ अन्धकार का क्या काम।।
आप मंगल रूप सुव्रत देव हो जितकाम।
करें सार विचार यह तब दीप आरति धाम।। ॐ ह्रीं श्रीआशरम्यपट्टणपुरस्थ-श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
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सत्य की निष्ठा जहाँ है सिद्धि वचनों की वहाँ है। घाति-कर्म नशा दिया है आत्मबल प्रकटित किया है।। बाह्य-साधन की नहीं अब आवश्यकता क्षणिक सब।
यही वांछा धारि मन में धूप खेवें अगनि में अब।। ऊँ ह्रीं श्रीआशरम्यपट्टणपुरस्थ-श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
संसार-सुख-फल चाह, नित देत दुःख-अथाह।
इस बिना जिनराज शिव देह फल उच्छाह।। ॐ ह्रीं श्रीआशरम्यपट्टप
थजिनेन्द्राय फलं निर्वपामीति स्वाहा।81
जल गंधाक्षत पुष्प से पूजों प्रभु पद-कंजा
चरु सुदीप धूपादि फल अग्र धरूँ अघ-भंज।। ॐ ह्रीं श्रीआशरम्यपट्टणपुरस्थ-श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक ॐ ह्रीं श्रीआशरम्यपट्टणपुरस्थ-श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय गर्भ-जन्म-तप-ज्ञान-निर्वाण पंचकल्याणक
प्राप्ताय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
जयमाला
दोहा
श्री सुव्रत जिनराज की महिमा कही न जाय। तदपि किमपि युति वरणऊँ भक्ति-सुयोग-वसाय।।
जो तेरी नित करे वन्दना आगम-भक्ति प्रमान। वह मन-वांछित सब सुख पावै करे अशुभ विधि हान।।
देखि जिनालय होय मुदित, धरे भक्ति का ठाठ। बाहरि मध्य मूल बेदी में निःसही पद-त्रय पाठ।।
मूल बेदी के तीन प्रदक्षिण दे रत्नत्रय सार। दर्शन पाठ पढ़े जो मुक्ता-सुक्ति समुद्राधार।।
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इर्यापथ-साधन भूस्पर्शन करके मंत्र-उच्चार। कर कृति-कर्म करके सामयिक की सुप्रतिज्ञा सार।। भूस्पर्शन कर शुद्ध भाव से स्तुति चौबीस-जिनराज।
पढ़े चार-अंगुल पदांतर एक-चित्त हितकाज।। ठाड़ा कार्याकर्म धार कर श्री लघु-चैत्य-सुभक्ति। कर नति-चहुँ आवर्त रु बारह-युत आलोचन-भक्ति।। क्षय करे पंच-गुरुभक्ति काय-उत्सर्ग अंचली-युक्त। तदनन्तर सु समाधि-भक्ति-युत पढ़े आसही सुक्त।।
यो विधिपूर्वक करे वंदना जो त्रिकाल जिनदेव। ताके पाप घटे प्रगटे शुभ-गुण-गण को नहीं छेव।। श्री हरिवंश क्रिया-कलाप को सोधि लिखी अनुसार।
स्वानुभूत-प्रत्यक्ष फलप्रद निरारंभ सुविचार।। ऋषियों ने बरणी श्री मुख से परम्परा शुभ लीन। दीपचन्द श्री सुव्रतजिनकी रहे भक्ति में लीन।।
घत्ता श्री सुव्रतदेवं सुरकृतसेवं आशरम्य -सुपट्टनगं।
योगत्रय-शुद्धः मति-प्रतिबुद्धः ध्यायति दीपेन्दुः जिनप।। ऊँ ह्रीं श्रीआशरम्यपट्टणपुरस्थ-श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।।9।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री मुनिसुव्रतनाथ जिन-पूजा (पैठण) (रचयिता - रतन लाल पहाडे)
स्थापना विघ्न-हरन मंगल-करन, हो प्रभु दीनानाथ। मुक्ति-रमा के कंत तुम, जय मुनिसुव्रतनाथ।।
नृप-सुमित्र के लाल तुम, श्यामा देवी मात।
करूं स्थापना त्रिविधि मम, हृदय विराजो नाथ।। ऊँ ह्रीं श्रीअतिशयक्षेत्र-पैठणसि
थजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट।
(इति आह्वाननम्) ऊँ ह्रीं श्रीअतिशयक्षेत्र-पैठणस्थित-श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीअतिशयक्षेत्र-पैठणस्थित-श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।
(सन्निधिकरणम्)
प्रभु सम्यक् भाव जगाय, प्रासुक जल लायो। मम जन्म-मरण नश जाय, तुम चरणन आयो। श्री मुनिसुव्रत भगवान, भदवधि पार करो।
मन-वच-तन पूनँ आज, संकट दर करो।। ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
केशर कपूर मिलाय, चंदन ले आयो। भव-भव का ताप नशय, पूजत सुख पायो।। श्री मुनिसुव्रत भगवान, भदवधि पार करो।
मन-वच-तन पूर्जे आज, संकट दूर करो।। ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
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मुक्तासम उज्ज्वल लाय, अक्षत चढ़वायो। अक्षयपद दीजो नाथ, तुम चरणन आयो । श्री मुनिसुव्रत भगवान, भदवधि पार करो । मन-वच-तन पूजूँ आज, संकट दूर करो।
ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
इस काम महारिपुकाज, बहु दुःख पावत हूँ। थिरता निज में मिल जाय, पुष्प चढ़ावत हूँ।। श्री मुनिसुव्रत भगवान, भदवधि पार करो। मन-वच-तन पूजूँ आज, संकट दूर करो ।।
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय कामबाण - विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मन मोहन मोदक आज थाली भर लायो । मम क्षुधारोग मिट जाय, तुम पद चढ़ावायो । श्री मुनिसुव्रत भगवान, भदवधि पार करो ।
मन-वच-तन पूजूँ आज, संकट दूर करो ||
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यह दीप रतनमय लाय, धा तुम आगे। मम मोहतिमिर नश जाय, ज्ञान-कला जागे।। श्री मुनिसुव्रत भगवान, भदवधि पार करो। मन-वच-तन पूजूँ आज, संकट दूर करो।
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार- विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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यह कर्म महाबलवान, चहुँगति भरमाये । खेऊँ चरणन में धूप, करम सब कट जावे।। श्री मुनिसुव्रत भगवान, भदवधि पार करो । मन-वच-तन पूजूँ आज, संकट दूर करो ।। ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनायधूपं निर्वपामीति स्वाहा।
बहुविधि के ऋतुफल लाय चरण चढ़ावत हूँ। शिवपद निजपद मिल जाय, यह मन भावत हूँ।। श्री मुनिसुव्रत भगवान, भदवधि पार करो । मन-वच-तन पूजूँ आज, संकट दूर करो।
ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल फल वसु द्रव्य मिलाय, अर्घ चढ़ावत हूँ। शिवपद मिलने के काज, तुम गुण गावत हूँ।। श्री मुनिसुव्रत भगवान, भदवधि पार करो । मन-वच-तन पूजूँ आज, संकट दूर करो ।।
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय अनघ्यपद-प्राप्तये अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक
ऊँ ह्रीं गर्भ-जन्म-तप-ज्ञान- मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
(दोहा)
अब वरणो जयमालिका, प्रभु मुनिसुव्रतनाथ, देव-इन्द्र-नर-वंद्य पद, जिन्हें चढ़ावत माथ पूजन कर हर्षित हुआ, आज सकल परिवार, मुनिसुव्रत प्रभु की सदा, होवे जय-जयकार |
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(जयमाला) प्रभु चरण तुम्हारे आकर के, भक्ति के सुमन चढ़ाता हूँ। विस्तृत है तेरी यशगाथा, उसका मैं पार न पाता हूँ।। जो शरण तुम्हारे आता है, भवदधि से पार चला जाता। वह जनम-मरण के दुःखों से, क्षणभर में छुटकारा पाता।।
वैशाख वदी दशमी के दिन, प्रभु राजगृही में जन्म लिया। इन्द्रों ने जन्मकल्याणक का, उत्सव कर अतिशय पुण्य लिया।।
हुये चार कल्याणक राजगृही, सम्मेदशिखर से मोक्ष गये। वसुकर्म नाशकर सिद्धभये, अविनाशी अनंत-सुख प्राप्त किये।।
इतिहास पुरातन बतलाता, यह भूमि पवित्र मनोहर है। भारत की संस्कृति का अनुपम, मानो यह क्षेत्र धरोहर है।।
खरदूषण राजा एकसमय, दंडकवन में जब आया था। वन की सुंदरता लख मन में, उसका चित अति हुलसाया था।।
हो हर्षित तभी यहाँ उसने बालू की मूर्ति बनवाई थी। सुंदर मंदिर बनवा करके, यह मूर्ति उस में पधराई थी।। प्रतिष्ठान में बिम्बप्रतिष्ठा कर, अपना नरभव सफल किया। सबने मिल प्रभु की पूजा की, अरु महापुण्य का लाभ लिया।।
आचार्य माघनंदी स्वामी, कर भ्रमण यहाँ पधारे थे। उनके सुपुत्र शालीवाहन, शक-कर्ता नृप कहलाये थे।।
पैठण नगरी सुप्रसिद्ध यहाँ जिनमंदिर निर्मित है भारी। मुनिसुव्रत प्रभु की श्यामवर्ण, प्रतिमा है जिसमें सुखकारी है।। यह चतुर्थकाल की प्रतिमा है, जिसका है अतिशय अतिभारी।
भक्तों के संकट मिटजाते, वांछित फल पाते नरनारी।। चिमना पंडित ने अमावस को, पूनम का चाँद दिखाया था। प्रभु की भक्ति से प्रेरित हो, सबने मिल हर्ष मनाया था।। बिन धूप सुंगधित धुआँ यहाँ, मंदिर जी में से आता है।
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भक्तों के द्वारा नंददीप, निशदिन अखंड सा जलता है। मावस पूनम की रात्रि में, जय घण्टा नाद सुन पाता है। स्वर्गों से सुरगण का समूह, प्रभु दर्शन को यहाँ आता है। प्रभु मुनिस्रवुत महिमा अपार, हम अल्प-बुद्धि किस विध गाये। हम शरण तुम्हारे आये हैं, संकट-अनिष्ट सब मिट जाये ।। प्रभु आज तुम्हारी पूजा हम, नहीं शास्त्रविधी से कर पये। अज्ञान समझ प्रभु क्षमा करो, हम भक्ति-भाव से आये हैं ।। भव-भ्रमण नहीं मिटता जब तक, प्रभु साथ आपका बना रहे। मुक्तिपथ का राही, यह भाव सदा ही बना रहे।।
ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णाघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा)
तीर्थंकर प्रभु बीसवें, श्री मुनिसुव्रतनाथ
करूँ आती अर्घ दे, चरण नवाऊँ माथ || पैठण में विराजत हो, कछवा चिन्ह सुहाय । बार-बार विनयूँ सदा, हम पर होउ सहाय ।। जो भविजन पूजन करें, मनवांछित फलपाय। सुख-संपत्ति संतति लहें, क्रमशः शिवपुर जायै ।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री नेमिनाथ जिन-पूजा ( नेमगिरी) ( रचयिता - श्री 108 चिन्मयसागरजी )
रोड़क
नेमगिरी पर निरुपम निर्मल, नेमिनाथ जिनराज रहे। दर्शन पूजन कर नर किन्नर, हर्षित होकर नाच रहे।। सौम्य शांत हो वीतरागमय तव, छवि उर में धरता हूँ। पुनि-पुनि कर मैं पूजन करने, जिनवर स्थापन करता हूँ।
ऊँ ह्रीं श्री नेमगिरीगुफास्थित-नेमिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्री नेमगिरीगुफास्थित नेमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम् )
ॐ ह्रीं श्री नेमगिरीगुफास्थित-नेमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
अथाष्टकम्
भव-सागर में डूब-डूब कर गोते खाता आया हूँ। भव-दुःख से मैं पार उतरने निर्मल मन जल लाया हूँ।। भविजन के जिननाथ तुम्ही हो, नेमिनाथ जिन नमता हूँ। वीतराग-वश मन-वच-तन से, तव गुण - स्तव नित करता हूँ।।
ॐ ह्रीं श्री नेमगिरीगुफास्थित-नेमिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-निवारणाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 1 ।
महाभयानक भव-वन में में, भटक भटक कर आया हूँ।
भव-वन भटकन मेटन हेतु, चारित -चंदन लाया हूँ।।
भविजन के जिननाथ तुम्ही हो, नेमिनाथ जिन नमता हूँ।
वीतराग-वश मन-वच-तन से, तव गुण-स्तव नित करता हूँ|| 2॥
ऊँ ह्रीं श्री नेमगिरीगुफास्थित-नेमिनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
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नश्वर सुख को सुख कहकर मैं, शश्वत सुख को नहीं जाना।
आनन्द-अक्षत लाया हूँ मैं, शाश्वत सुख को है पाना।।
भविजन के जिननाथ तुम्ही हो, नेमिनाथ जिन नमता हूँ।
वीतराग-वश मन-वच-तन से, तव गुण-स्तव नित करता हूँ।। 3।। ॐ ह्रीं श्री नेमगिरीगुफास्थित-नेमिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।।
स्पर्शरूप से राग किया मैं, निज-स्वरूप का त्याग किया। निजस्वरूप वश नेमिजिनेश्वर शील-सुमन ही ले आया।।
भविजन के जिननाथ तुम्ही हो, नेमिनाथ जिन नमता हूँ।
वीतराग-वश मन-वच-तन से, तव गुण-स्तव नित करता हूँ।।4।। ऊँ ह्रीं श्री नेमगिरीगुफास्थित-नेमिनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
षट्-रस भोजन करते-करते, आत्मरस ना चख पाया। निज-रस अमृत पीने हेतु, समरस-व्यंजन ले आया।।
भविजन के जिननाथ तुम्ही हो, नेमिनाथ जिन नमता हूँ।
वीतराग-वश मन-वच-तन से, तव गुण-स्तव नित करता हूँ।। 5।। ऊँ ह्रीं श्री नेमगिरीगुफास्थित-नेमिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
मोह-तिमिर से अंध बना मैं, भवदुःख ठोकर खाया हूँ। तुम सम केवल मति प्रगटाने ज्ञान-ज्योति को लाया हूँ।।
भविजन के जिननाथ तुम्ही हो, नेमिनाथ जिन नमता हूँ।
वीतराग-वश मन-वच-तन से, तव गुण-स्तव नित करता हूँ।। 6।। ऊँ ह्रीं श्री नेमगिरीगुफास्थित-नेमिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
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वसुविध विधि से रंजित हो मैं, नहीं निरंजन बन पाया। नित्य निरंजन बनने हेतु, ध्यान-धूप शुभ ले आया।।
भविजन के जिननाथ तुम्ही हो, नेमिनाथ जिन नमता हूँ।
वीतराग-वश मन-वच-तन से, तव गुण-स्तव नित करता हूँ।। 7। ॐ ह्रीं श्री नेमगिरीगुफास्थित-नेमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
सुख-दुःख झूठे फल को पाकर, निजको भव में भटकाया। तुम सम जिनपद पाने जिनवर, विनय-महाफल ले आया।
भविजन के जिननाथ तुम्ही हो, नेमिनाथ जिन नमता हूँ।
वीतराग-वश मन-वच-तन से, तव गुण-स्तव नित करता हूँ।। 8।। ऊँ ह्रीं श्री नेमगिरीगुफास्थित-नेमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
हे जिन! निज को अध्य बनाकर, तुम्हे समर्पित करता हूँ। तब चरणन में अर्पण कर मैं, दारुण भव-दुःख हरता हूँ।।
भविजन के जिननाथ तुम्ही हो, नेमिनाथ जिन नमता हूँ।
वीतराग-वश मन-वच-तन से, तव गुण-स्तव नित करता हूँ।। 9।। ऊँ ह्रीं श्री नेमगिरीगुफास्थित-नेमिनाथजिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा।
स्तुति मोहजाल को तोड़कर चढ़ गये तुम गिरनार। करुणा कर करुणा किये निज पर मुनिव्रत धार।। परम तपस्वी तप किये, बनकर मुनि निष्काम। कर्म नाशकर शिव गये नेमि जिनेश्वर नाम।। तुम सा ध्यानी कौन है, कौन किये है ध्यान।। तुम-सम दानी कौन है, कौन किये है दान।। ज्ञानी ध्यानी तुम रहे, दिये अभय का दान। तुम-सम करना ध्यान है, बल दो हे भगवान।।
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नील-गगन सम वर्ण है, नेमिनाथ भगवान। करता पूजन नियम से, कर दो मम कल्याण।। ऊँ ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय नमः (5 जाप)
जयमाला धन्य-धन्य हो नेमि जिनेश्वर, राग-रंग को त्याग किया। राजुल तजकर राज-पाट को, आतम से अनुराग किया।।1।।
भव दुःख-हारक भविजन-तारक, रत्नत्रय को धार लिया। चढ़कर गिरि गिरनार शिखर पर निज-पर का उद्धार किया।।2।।
अतिशयकारी महिमा भारी, नेमि जिनेश्वर देख जरा। लखकर भविजन निश्चित कहते आत्म ध्यान तू धार खरा।।3।।
चन्द्रगिरि पर चढ़ देखो, नेमगिरी को अहो जरा। निश्चित दिखती नेमगिरी है, समवशरणसम वीर खरा।।4।। भविजन नितही नेमिनाथ को मन-वचन-तन से नमन करो। वंदन-पूजन करके तुम तो, उनके गुण में गमन करो।।5।। शिव-सुख-वश मैं पूजन करके भव-दुःख को ही हरता हूँ। तन को तजकर नेमिनाथ-सम चिन्मय मैं भी बनता हूँ।।6।।
(घत्ता) नेमिनाथ जिन नित नमूं निर्मल मन-वच-काय।
भवदुःख-बाधा दूर कर शीघ्र बनूँ जिनराय।। ऊँ ह्रीं नेमगिरीगुफास्थित-नेमिनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णाध्य निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री नेमिनाथ जिन-पूजा (गिरनारजी) (आर्यिका स्वस्ति माता जी)
स्थापना (दोहा) सब जग में विख्यात हैं, नेमिनाथ जिनराज। दुष्ट कर्म निवारने, पूजा करे समाज।।
(घत्त छंद) हे नेमिनाथ करुणा नंदन, करुणा की धारा बरसाओ। जग में भ्रमते हम जीवों को, मुक्ति का मार्ग दिखा जाओ।। जा बैठे सिद्ध शिला जाकर, आतम का आनंद पाया है।
आह्वानन हम तेरा करते, कमलासन लेकर आया हूँ।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजि नेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
(तर्ज - चौबीसी पूजन) उज्ज्वलता निज में आये, जल भर कर लाये। चरणों में नीर चढ़ाये, तन-मन धुल जाये।। श्री नेमिनाथ भगवान, दिव्य दिवाकर हो।
हो दुष्ट कर्म चकचूर आप प्रभाकर हो।।1। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
निष्पृहता शास्त्रानुसार, जीवन में आई।
चंदन से पूजूं नाथ, शांति छा जाई।। श्री नेमिनाथ भगवान, दिव्य दिवाकर हो।
हो दुष्ट कर्म चकचूर आप प्रभाकर हो।। 2॥ ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
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निवृत्ति प्रवृत्ति निसार, अक्षय पद पाया। कर में लेकर के पुंज, हे प्रभु मैं आया।। श्री नेमिनाथ भगवान, दिव्य दिवाकर हो।
हो दुष्ट कर्म चकचूर आप प्रभाकर हो।। 3।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।31
इन्द्रिय सुख से हो विरक्त, दूर विभाव किया।
मंदर सुमेरू के पुष्प, चरणों में लाया।। श्री नेमिनाथ भगवान, दिव्य दिवाकर हो।
हो दुष्ट कर्म चकचूर आप प्रभाकर हो।।4।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
व्यंजन है विविध प्रकार, लेकर के आया।
पूजा भक्ति के भाव, मन में है भाया।। श्री नेमिनाथ भगवान, दिव्य दिवाकर हो।
हो दुष्ट कर्म चकचूर आप प्रभाकर हो।। 5।। ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
मन पर छाया अज्ञान, आप तिमिर नाशक। दीपक ले आया नाथ, जो रवितम भासक।।
श्री नेमिनाथ भगवान, दिव्य दिवाकर हो।
हो दुष्ट कर्म चकचूर आप प्रभाकर हो।। 6।। ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
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कर्मों का हनन करूँ, धूप चढ़ा करके। तुमसा हो जाऊँ नाथ, पाप नसा करके।। श्री नेमिनाथ भगवान, दिव्य दिवाकर हो।
हो दुष्ट कर्म चकचूर आप प्रभाकर हो।। 7।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
बहुफल है जग में नाथ, मुझको ना भाया। मुक्ति फल पाने हेतु, फल मैं ले आया।। श्री नेमिनाथ भगवान, दिव्य दिवाकर हो।
हो दुष्ट कर्म चकचूर आप प्रभाकर हो।। 8।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
जल फल आठों वसुद्रव्य, पूजन को लाया। मैं हरष-हरष गुण गाऊँ, मम हिय हर्षाया।।
श्री नेमिनाथ भगवान, दिव्य दिवाकर हो।
हो दुष्ट कर्म चकचूर आप प्रभाकर हो।। 9।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक भू लोक हुआ था हर्षित, शुभ ज्ञान हुआ था विकसित।
___ जब गर्भ में प्रभु जी आये, इन्द्रों ने रत्न गिराये।। ऊँ ह्रीं कार्तिकशुक्ला-षष्ट्यां गर्भकल्याणक-प्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।।
हुई पूर्व दिशा उजियाली, आई दिव्य-दिवाकर-लाली।
___ जन्मे नेमि जिन राजा, फिर इन्द्र बजावें बाजा।। ऊँ ह्रीं श्रावणशुक्ला-षष्टयां जन्मकल्याणक-प्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।2।
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पशुओं का सुनकर क्रन्दन, उनका तोड़ा था बंधन।
गिरनार गिरि को जाये, तप धरकर ध्यान लगाये।। ऊँ ह्रीं श्रावणशुक्ला-षष्ट्यां तपकल्याणक-प्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
तप से जिनात्म जगाया, केवल का दीप जलाया। फिर ज्ञान की वर्षा कीनी, भव्यों ने दीक्षा लीनी।। ऊँ ह्रीं आश्विनशुक्ल-प्रतिपदायां ज्ञानकल्याणक-प्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्रायअध्यं निर्वपामीति स्वाहा।4।
अंतिम शरीर को छोड़ा, कर्मों का पर्वत तोड़ा। मुक्ती में किया था वासा, नहि जग से कोई आशा।। ऊँ ह्रीं आषाढ़शुक्ला-अष्टम्यां मोक्षकल्याणक-प्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।।
___ जयमाला (दोहा) सिद्ध प्रभु जिन भारती, मन-वच-तन से धार। श्री नेमिनाथ भगवान को, न मन करूँ शत बार।।
(चौपाई) नेमी तुम्हारा जय-जयकारा, वंदन करता बारंबारा। कृपासिन्धु तुम दीनदयाल, आत्म धर्म जग के हो लाल।1।
रागद्वेष अरु छोड़ी माया, कंचन जैसी निर्मल काया। रत्नवृष्टि जब होने लागी, सौरीपर की किस्मत जागी।2। शिवादेवी की गर्भ अवस्था, देव-देवियां करें व्यवस्था। श्रावण सुदी षष्ठी शुभ प्यारी, धरती पर आये अवतारी।3।
जमुना बहती नगर किनारे, नेमी प्रभु के चरण पखारे। दोज चन्द्र-सम बढ़ने लागे, हिंसा झूठ पाप को त्यागे।4। कुटुम्ब कबीला बहुत बड़ा था, सबने आपका ध्यान रखा था। श्री बलराम जी और कन्हैया, सबके सब थे आपके भैया।5। आपस में मिल-जुल कर रहते, अपने मन की बातें कहते।
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नहीं किया शादी का विचार, भाभी ने की व्यंग्य बौछार।6।
रथ पर बैठे दूल्हा नेमी, धन्य-धन्य कहते थे प्रेमी। कृष्ण करें राज्यों की चिन्ता, हाथ में आये कैसे जनता।7।
पशुओं को बांधा बंधन में, देखा उस करुणानंदन ने। बही हृदय में दया की धारा, त्याग दिया धन-वैभव सारा।8। मोही-जनों से नाता तोड़ा, सारे जग से मुख को मोड़ा।
त्यागी तुमने विश्वसुंदरी, रास आ गई मुक्ति-सुंदरी।9। चारों तरफ था एक ही शोर, कहाँ गया मेरा नेमी किशोर। नेमी बन्ना वन को गये हैं, गिरनारी पर मुनि भये हैं।10।
जा पहुँचे पर्वत गिरनारी, पंच महाव्रत दीक्षा धारी। दुल्हन ने श्रृंगार को त्यागा, उसका आत्मज्ञान भी जागा।11।
आर्यिका व्रत को धारण कीना, चरण-चिन्ह नेमी की लीना। निज आतम में ध्यान लगाया, शांत भाव धर ज्ञान जगाया।12।
कर्म घातिया घात के स्वामी, केवलज्ञान हुये प्रणमामि। समोवशरण की छटा निराली, चारों तरफ धर्म की लाली।13।
बैर-भाव सब भूल के प्राणी, शांत भाव से सुनते वाणी। जो करता नेमी की जाप, राहु गह का चढ़े न ताप।14। संबु प्रद्युम्न अनिरुद्ध भाई, सकल यति शुभ दीक्षा पाई। सुर, नर, पशु सब ही गुण गावें, नाचत गावत ताल बजावें।15।
गिरनारी पर ध्यान लगाया, अष्ट कर्म को आप नशाया। सिद्ध-क्षेत्र जा दर्शन करते, कर्म नाश कर मुक्ति वरते।16।
करुणासागर करुणा कीजे, ज्ञान शुद्ध हो यह वर दीजे। आत्मज्ञान शुभ ध्यान को दीजे, स्वस्ति को निज शरणा लीजै।17। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
॥इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री नेमिनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री राजमल जी)
जय श्री नेमिनाथ तीर्थंकर बाल ब्रह्मचारी भगवान। हे जिनराज परम उपकारी करुणा-सागर दया-निधान।। दिव्य-ध्वनि के द्वारा हे प्रभु तुमने किया जगत-कल्याण। श्री गिरनार-शिखर से पाया तुमने सिद्ध स्वपद निर्वाण।। आज तुम्हारेदर्शन करके निज-स्वरूप का आया ध्यान।
मेरा सिद्ध-समान सदा पद यह दृढ़ निश्चय हुआ महान।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजि नेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
समकित-जल की धारा से तो मिथ्या-भ्रम धुल जाता है।
तत्त्वों का श्रद्धान स्वयं को शाश्वत-मंगल दाता है।। नेमिनाथ स्वामी तुम पद-पंकज की करता हूँ पूजन।
वीतराग तीर्थंकर तुमको कोटि-कोटि मेरा वन्दन ॥1॥ ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मिथ्यात्वमल-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक् श्रद्धा का पावन चन्दन भव-ताप मिटाता है। क्रोध कषाय नष्ट होती है निज की अरुचि हटाता है।।
नेमिनाथ स्वामी तुम पद-पंकज की करता हूँ पूजन।
वीतराग तीर्थंकर तुमको कोटि-कोटि मेरा वन्दन ॥ 2॥ ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय क्रोधकषाय-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
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भाव शुभाशुभ का अभिमानी मान कषाय बढ़ाता है। वस्तु-स्वभाव जान जाता तो मान कषाय मिटाता है।। नेमिनाथ स्वामी तुम पद-पंकज की करता हूँ पूजन।
वीतराग तीर्थंकर तुमको कोटि-कोटि मेरा वन्दन ।। 3।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मान-कषाय-विनाशनाय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चेतन छल से पर-भावों का माया-जाल बिछाया है। भव-भव की माया कषाय को समकित-पुष्प मिटाता है।।
नेमिनाथ स्वामी तुम पद-पंकज की करता हूँ पूजन।
वीतराग तीर्थंकर तुमको कोटि-कोटि मेरा वन्दन ।। 4।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मायाकषाय-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
तृष्णा की ज्वाला से लोभी कभी नहीं सुख पाता है। सम्यक् चरु से लोभ नाश कर यह शुचिमय हो जाता है।।
नेमिनाथ स्वामी तुम पद-पंकज की करता हूँ पूजन।
वीतराग तीर्थंकर तुमको कोटि-कोटि मेरा वन्दन।।5।। ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय लोभकषाय-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अन्धकार-अज्ञान जगत में भव-भव भ्रमण कराता है। समकित-दीप प्रकाशित हो तो ज्ञान-नेत्र खुल जाता है।।
नेमिनाथ स्वामी तुम पद-पंकज की करता हूँ पूजन।
वीतराग तीर्थंकर तुमको कोटि-कोटि मेरा वन्दन ।। 6।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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पर-विभाव-परणति में फँसकर निज का धुवाँ उड़ाता है। निज-स्वरूप की गन्ध मिले तो पर की गन्ध जलाता है।।
नेमिनाथ स्वामी तुम पद-पंकज की करता हूँ पूजन।
वीतराग तीर्थंकर तुमको कोटि-कोटि मेरा वन्दन ।। 7॥ ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय विभवपरणति-विनाशनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
निज-स्वभाव-फल पाकर चेतन महा मोक्षफल पाता है। चहुँगति के बन्धन कटते हैं सिद्ध स्वपद पा जाता है।। नेमिनाथ स्वामी तुम पद-पंकज की करता हूँ पूजन।
वीतराग तीर्थंकर तुमको कोटि-कोटि मेरा वन्दन ।। 8।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल-फलादि वसु द्रव्य अर्घ से लाभ न कुछ हो पाता है। जब तक निज-स्वभाव में चेतन मग्न नहीं हो जाता है।।
नेमिनाथ स्वामी तुम पद-पंकज की करता हूँ पूजन।
वीतराग तीर्थंकर तुमको कोटि-कोटि मेरा वन्दन ॥ 9॥ ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन शिवदेवी-उर धन्य हुआ। अपराजित विमान से चलकर आये मोद अनन्य हुआ।। स्वप्न-फलों को जान सभी के मन में अति आनन्द हुआ।
नेमिनाथ स्वामी का गर्भोत्सव सानन्द सम्पन्न हुआ।। ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्ला-षष्ट्यां गर्भमंगल-मण्डिताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।।
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श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन शौर्यपुरी में जन्म हुआ। नृपति समुद्रविजय आँगन में सुर सुरपति का नृत्य हुआ।। मेरु सुदर्शन पर क्षीरोदधि जल से शुभ अभिषेक हुआ। जन्म महोत्सव नेमिनाथ का परम हर्ष अतिरेक हुआ।।
ॐ श्रावणशुक्ला-षष्ट्यां जन्ममंगल-मण्डिताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।2।
श्रावण शुक्ला षष्ठी को पशुओं पर करुणा आई । राजमति तज सहस्राम्र-वन में जा जिन दीक्षा पाई || इन्द्रादिक ने उठा पालकी हर्षित मंगलाचार किया।
नाथ प्रभु के तप कल्याण पर जय-जयकार किया ।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्ला-षष्ट्यां तपोमंगल-मण्डिताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। 3।
अश्विन शुक्ला एकमको प्रभु हुआ ज्ञानकल्याण महान | उर्जयंत पर समवशरण में दिया भव्य उपदेश प्रधान ।।
ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी मोहनीय का नाश किया। नेमिनाथ ने अन्तराय क्षय कर कैवल्य - प्रकाश किया ।।
ऊँ ह्रीं आश्विनशुक्ल प्रतिपदायां ज्ञानमंगल-मण्डिताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।4।
श्री गिरनार क्षेत्र पर्वत से महा मोक्ष-पद को पाया। जगती ने आषाढ़ शुक्ला सप्तमी दिवस मंगल गाया।। वेदनीय अरु आयु नाम अरु गोत्र कर्म अवसान किया। अष्ट कर्म हर नेमिनाथ ने परम पूर्ण निर्वाण किया।।
ॐ ह्रीं आषाढ़ शुक्ला - अष्टम्यां मोक्षमंगल-मण्डिताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
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जयमाला
जय नेमिनाथ नित्योदित जिन जय नित्यानन्द नित्य चिन्मय। जय निर्विकल्प निश्चल निर्मल, जय निर्विकार नीरज निर्भय।1।
नृपराज समुद्रविजय के सुत माता शिवदेवी के नन्दन। आनन्द शौर्यपुर में छाया जय-जय से गूंजा पाण्डुक वन।2। बालकपन में क्रीड़ा करते तुमने धारे अणुव्रत सुखमय। द्वारिकापुरी में रहे अवस्था पाई सुन्दर यौवन वय।3। आमोद-प्रमोद तुम्हारे लख पूरा यादव कुल हर्षाया। तब श्रीकष्ण नारायण ने जूनागढ़ से जोड़ा नाता।4। राजुल से परिणय करने को जूनागढ़ पहुँचे वर बनकर। जीवों की करुण पुकार सुनी जागा उर में वैराग्य प्रखर।5। पुशओं को बन्धन मुक्त किया कंगन विवाह का तोड़ दिया। राजुल के द्वारे आकर भी स्वर्णिम रथ पीछे मोड़ लिया।6।
रथ त्याग चढ़े गिरनारी पर जा पहुँचे सहस्राम्रवन में। वस्त्राभूषण सब त्याग दिये जिन-दीक्षा धारी तन-मन में।7। फिर उग्र तपस्या के द्वारा निश्चय-स्वरूप-मर्मज्ञ हुए। घातिया कर्म चारों नाशे छप्पन दिन में सर्वज्ञ हुए।8। तीर्थंकर प्रकति उदय आई सर हर्षित समवशरण रचकर। प्रभ गन्धकटी में अन्तरिक्ष आसीन हए पद्मासन धर191
ग्यारह गणधर में थे पहले गणधर वरदत्त महा ऋषिवर। थी मुख्य आर्यिका राजमति श्रोता थे अगणित भव्य प्रवर।10।
दिव्यध्वनि खिरने लगी शाश्वत ओंकार घन-गर्जन सी। शुभ बारह सभा बनी अनुपम सौन्दर्य-प्रभा मणिकंचन सी।11। जग-जीवों का उपकार किया भूलों को शिव-पथ बतलाया। निश्चय-रत्नत्रय की महिमा का परम मोक्षफल दर्षाया।12।
कर प्राप्त चतुर्दश गुणस्थान योगों का पूर्ण अभाव किया। कर उध्व-गमन सिद्धत्व प्राप्त कर सिद्ध-लोक आवास लिया।13।
गिरनार शैल से मुक्त हुए तन के परमाणु उड़े सारे।
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पावन मंगल निर्वाण हुआ सुरगण के गूंजे जयकारे।14।
नख केश शेष थे देवों ने मायामय तन निर्माण किया। फिर अग्नि कुमार सुरो ने आ मुकुटानल से तन भस्म किया।15। पावन भस्मी का निज-निज के मस्तक पर सबने तिलक किया। मंगल वाद्यों की ध्वनि पूँजी निर्वाण-महोत्सव पूर्ण किया।16।
___ कर्मों के बन्धन टूट गये पूर्णत्व प्राप्त कर सुखी हुए। हम तो अनादि से हे स्वामी! भव-दुख-बन्धन से दुखी हुए।17।
ऐसा अन्तर बल दो स्वामी हम भी सिद्धत्व प्राप्त कर लें। तव पद-चिन्हों पर चल प्रभुवर शुभ-अशुभ विभावों को हर लें।18।
परिणाम शुद्ध का अर्चन कर हम अन्तर-ध्यानी बन जावें। घातिया चार कर्मों को हर हम केवलज्ञानी बन जावें।191 शाश्वत शिव-पद पाने स्वामी हम पास तुम्हारे आ जायें। अपने स्वभाव के साधन से हम तीन लोक पर जय पायें।20। निज सिद्ध-स्वपद पान को प्रभु हर्षित चरणों में आया हूँ।
बसु द्रव्य सजा हे नेमिश्वर प्रभु पूर्ण अर्घ मैं लाया हूँ।21। ऊँ ह्रीं पंचकल्याण-प्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
छन्द
शंख-चिन्ह चरणों में शोभित, जय-जय नेमि जिनेश महान। मन-वच-तन जो ध्यान लगाते, वे हो जाते सिद्ध-समान।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री पार्श्वनाथ जिन-पूजा (बडा गांव) (रचयित्री - नीलम जैन)
हे वीतरागी जिनेश्वर शिव परमेश्वर अश्वसेन के नंदन पार्श्वनाथ।
वामा के दुलारे बड़ागाँव में प्रगट भये हो पार्श्वनाथ।। तुम धर्म के नेता कर्म-विजेता आनन्द-दाता हो स्वामी। तुम चिदानन्द आनन्द-कन्द दुःख-हारक दाता हो स्वामी।। इस भव-सागर से रक्षा करो प्रभु तुमको आज पुकारा है।
आह्वानन करता हूँ करुणाकर हृदय में तुम्हें बिठाना है। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
भव-वन में जितने दुःख पाये नहीं वचनों से कह सकते है।। हा हा संक्लेश भाव सहकर जैसे-तैसे यहां पर रहते हैं।। यह निर्मल जल लेकर में जन्म-मरन मिटाने आया हूँ।
बड़ागाँव के पारस प्रभु मैं पूजा करने आया हूँ।।1। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
घोर निगोद-महासागर में काल अनन्त बिताये हैं। भीम भयंकर नरक गति में दुःख अनन्त उठाये हैं।। यह निर्मल चन्दन लेकर मैं भव-ताप मिटाने आया हूँ।।
बड़ागाँव के पारस प्रभु मैं पूजा करने आया हूँ।। 2॥ ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
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हे प्रभु तव शरीर-कांति है सुवर्णमय अतिशय सुन्दर। चन्द्र धवल समान कीर्ति व्याप्त हो रही त्रिभुवन पर।। उज्ज्वल अक्षत के लेकर मैं अक्षय-पद पाने आया हूँ।।
बड़ागाँव के पारस प्रभु मैं पूजा करने आया हूँ।। 3।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
काम-रोग-व्याधि नाशन को वैद्यराज प्रभु तुम हो। ईर्ष्या मन मदन नाशन को त्रिभुवनपति प्रभु तुम हो।। कामबाण विध्वंस करन को पुष्प संजोकर लाया हूँ।।
बड़ागाँव के पारस प्रभु मैं पूजा करने आया हूँ।। 4। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
तृष्णा विजयी हो कर प्रभुवर इस क्षुधा-रोग का नाश किया। मम क्षुध रोग ना मिट पाया इस कारण गति-गति भ्रमण किया।।
यह क्षुधा मिटाने को प्रभुवर नैवेद्य बनाकर लाया हूँ।।
बड़ागाँव के पारस प्रभु मैं पूजा करने आया हूँ।। 5।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मसुध बरसाने को प्रभु पूर्ण चन्द्रमा तुमही हो। मिथ्या-अन्धकार मिटाने को प्रभु सहस्त्र सूर्य तुमही हो।। मोह-अन्धकार मिटाने को प्रभु दीप सजाकर लायाहूँ।।
बड़ागाँव के पारस प्रभु मैं पूजा करने आया हूँ।। 6।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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महा शुक्ल - ध्यानाग्नि में अष्ट कर्म विध्वंश किया। अनन्त-दर्श-ज्ञान-वीर्य-सुखमय अनन्त गुण प्राप्त किया।। अष्ट कर्म के नष्ट करन को प्रभु धूप चढ़ाने आया हूँ।। बड़ागाँव के पारस प्रभु मैं पूजा करने आया हूँ।। 7॥ ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अखिल दोष के हर्ता हो प्रभु अखिल सौख्य के कर्ता हो । मोक्षमार्ग के ही विधाता मुक्तिश्री के दाता हो । शिवलक्ष्मी के भर्ता तुमको यह फल चढ़ाने आया हूँ।। बड़ागाँव के पारस प्रभु मैं पूजा करने आया हूँ।। 8॥ ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चन्दन अक्षत पुष्प नैवेद्य बनाकर लाया हूँ। दीप धूप फल सजाकर प्रभुवर चरणों में आया हूँ।
यह अष्ट द्रव्य से पूजा का शुभ थाल सजाकर लाया हूँ।। बड़ागाँव के पारस प्रभु मैं पूजा करने आया हूँ||9||
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनघ्यपद-प्राप्तये अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक
माता वामा गर्भ में भी त्रय - ज्ञानधारी तुम प्रगट हुए। विमल अतिशय पुण्य तीर्थंकर नाम कर्म का बंध किया। मति श्रुति अवधि त्रय-ज्ञानधारी स्वर्ग लोक से च्युत हुए। बैसाख कृष्ण द्वितीया के दिन महान अतिशय प्राप्त किया।।
ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय बैसाखकृष्णा-द्वितीयायां गर्भमंगल-मंडिताय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। 1।
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महामेरु कनकाचल पर शुभ पांडुक-शिला बनी सुन्दर। सुरपति ने तब जन्म-महोत्सव अभिषेक किया पर्वत पर।
देव-इन्द्र असुरेन्द्र सभी मिल महामहोत्सव नृत्य किया।
पौष कृष्णा एकादशी को प्रभु जन्महोत्सव कर पुण्य लिया।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय पौषकृष्णा-एकादश्यां जन्ममंगल-मंडिताय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।2।
जन्म-मरण के रोगों से पीडित हुए भव-वन में। जीव अकेला ही आता जाता यह जान रहे प्रभु मन में।। जिनेश्वर दीक्षा लेकर के अध्यात्म के पथ को अपनाया।
एकादशी पौष कृष्ण के दिन संसार अथिर है दिखलाया।। ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय पौषकृष्णा-एकादश्यां तपोमंगल-मंडिताय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।3।
समोशरण में द्वादस परिषद मध्य रत्न-सिंहासन पर। चतुरांगुल के अंतराल से शोभी प्रभु सूर्य-सम सुन्दर।। गणधर मुनिगण विद्याधर सुरपति नरपति करते नमन।
कृष्ण चैत्र चतुर्थी को अहिक्षेत्र धरा को करते नमन।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय चैत्रकृष्णा-चतुर्थ्यां केवलज्ञान-प्राप्ताय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।4।
तपोभूमि वह शाश्वत भूमि पावन सिद्ध प्रभु जहाँ विराजे है। सम्मेद शिखर वह पर्वतराज जिसकी भक्ति हम करते हैं।। सुवरण भद्र वह कूट मनोहर पारस प्रभु जहाँ विराजे हैं।
श्रावण सुदी सप्तमी निर्वाण महोत्सव आज यहाँ मनाते हैं। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय श्रावणसुदी-सप्तम्यां सम्मेदशिखरस्य स्वर्णभद्रकूटतः
मोक्षमंगलमंडिताय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
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बड़ागाँव में था टीला जिसमें से तुम प्रगट भये। लक्ष्मण सेठ ने सुमरन किया तो संकट उनके मिटा दिये। ऐलक अनन्तकीर्ति ने जब ध्यान लगाया प्रभु तेरा।
फाल्गुन सुदी अष्टमी को दर्श पाया प्रभु तेरा।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय फाल्गुनसुदी-अष्टम्यां बड़ागाँव-स्थान-प्रगटाय
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।6।
जयमाला
हे नाथ तिहारे गुण अनन्त गणधर भी पार न पाये हैं। हम तुच्छ बुद्धि कुछ कह न सके भक्ति-भाव वश आये हैं।1।
संसार दुःखों का सागर है युग-युग से भव-भव भटक रहा। सदियों ने भी करवट ले ली दुःख में ही जीवन अटक रहा।2।
झूठा सब जग झूठे सपने अपना ना कोई पराया है। तन मन धन कोई नहीं अपना प्रभु तेरा एक सहारा है।3। जग के जंजालों में अपना नित समय गंवाता आया हूँ। तुम गुण अनन्त न जान सका पर-द्रव्यन में भरमाया हूँ।4। मैं सोच रहा इस जीवन का हर क्षण उपयोगी बन जावे। काषायिक भावों का सागर अब झट-पट खाली हो जावे।5।
हो प्रभु दर्शन मुझको क्षण में सम्यक् की बह जावे धारा। हो जाए शान्त निराकुल मन बुझ जाये इच्छा की ज्वाला।6।
तेरी पूजा से हे प्रभुवर शीतलता मुझको मिलती है। तेरी भक्ति से हे प्रभुवर आनन्द ज्ञान कली, खिलती है।7। सारा जग सब नश्वर दिखता निज का दिग्दर्शन होता है। नीलम आनन्द विभोर हुई यह चेतन चिंतन करता है।8।
पारस प्रभु की पूजन करके भव-भव के कट जाते बंधन। चिंतामणि-पारस चरणों में शत-शत वन्दन शत-शत वन्दन।9। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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परस प्रभु दर्शन मिले जिन-पूजा का यह सार है। सब आत्म परमात्मा बने जिन भक्ति का सारांश है।
चिंतामणि पार्श्वनाथ को कोटि-कोटि प्रणाम । भक्ति का फल मैं चाहूँ निज-पद में विश्राम ||
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (कचनेर) (रचयिता - क्षुल्लक सिद्धसागर जी)
(अड्डिल्ल) अश्वसेन-नृप-कंवर लाडला नाथजी, तीन लोक के जीव नमावें माथ जी। वसो मेरे हिय आन नमाऊँ शीश को, पूर्जे ले वसु द्रव्य जगत के ईश को।
(दोहा) चिंतामणि-पारस चरण, ध्यावे मन-वच-काय।
पाप-ताप संकट मिटे, पहुंचे शिवपुर जाय।। ऊँ ह्रीं श्रीचिंतामणि-पार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीचिंतामणि-पार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीचिंतामणि-पार्श्वनाथजि नेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
(अथ अष्टक) क्षीरोदधि-सम जल लाय, ठाड़े तुम आगे। तव चरण चढाऊं आय, जन्म-मरण भागे।।
चिंतामणि-पारसनाथ चिंता दूर करें।
मन-चिंतित होत हि काज, जो प्रभु-चरण चुरे।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीचिंतामणि-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्दन शीतल जगमांहि, तुम सम है नाही। यह कर्म-कलंक मिट जाय, याघ्र प्रभू याही।।
__चिंतामणि-पारसनाथ चिंता दूर करें।
मन-चिंतितत होत हि काज, जो प्रभु-चरण चुरे।। 2।। ऊँ ह्रीं श्रीचिंतामणि-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
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इस जगमें थिर ना कोय, जन्म रू मरण करे। अक्षय-पद दीजे मोय, आये शरण तेरे।।
चिंतामणि-पारसनाथ चिंता दूर करें।
मन-चिंतित होत हि काज, जो प्रभु-चरण चुरे।। 3॥ ऊँ ह्रीं श्रीचिंतामणि-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
यह काम महा विकराल, सब को तंग करे। छेदो यह प्रभु तत्काल, निजपद भंग करे।।
चिंतामणि-पारसनाथ चिंता दूर करें।
मन-चिंतित होत हि काज, जो प्रभु-चरण चुरे।।4।। ॐ ह्रीं श्रीचिंतामणि-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
नाना विधि व्यंजन थाल, लेकर मैं आयो। मेटो क्षुधा दीनदयाल, इस कारण आयो।।
चिंतामणि-पारसनाथ चिंता दूर करें।
मन-चिंतित होत हि काज, जो प्रभु-चरण चुरे।। 5॥ ऊँ ह्रीं श्रीचिंतामणि-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक की ज्योति जगाय, धारो तुम आगे। मम मोह-तिमिर नश जाय, आतम गुण जागे।।
चिंतामणि-पारसनाथ चिंता दूर करें।
मन-चिंतित होत हि काज, जो प्रभु-चरण चुरे।। 6॥ ॐ ह्रीं श्रीचिंतामणि-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
यह धूप दशांग मिला, अग्नि मांहि धरूँ। वसु कर्म शीघ्र जरि जाय, मुक्ति रमा को वरूँ।।चिंता0॥7॥ ऊँ ह्रीं श्रीचिंतामणि-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
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नानाविधि फल भर थाल, लेकर मैं आयो। शिव काजे प्रभु-गुण गाय, मन में हर्षायो।।
चिंतामणि-पारसनाथ चिंता दूर करें।
मन-चिंतित होत हि काज, जो प्रभु-चरण चुरे।।।8।। ॐ ह्रीं श्रीचिंतामणि-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
वसु-विधि सब द्रव्य मिलाय, अर्घ उतारत हूँ। निज पद मेरो मिल जाय, याते याचत हूँ।।
चिंतामणि-पारसनाथ चिंता दूर करें। मन-चिंतित होत हि काज, जो प्रभु-चरण चुरे।। 9॥ ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा) चिंतामणि चिंता हरे, चिन्तत पूरे काज। धन्य भाग मेरो प्रभु दर्शन पाये आज।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।
ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय गर्भकल्याण-प्राप्ताय नमः। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मकल्याण-प्राप्ताय नमः।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय तपकल्याण-प्राप्ताय नमः। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय केवलज्ञानकल्याण-प्राप्ताय नमः। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षकल्याण-प्राप्ताय नमः।
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जयमाला
नहिं दोष अठारह है तुममें निकलंक जगत उपकारी है। हे नाथ! त्रिलोकपति भगवन् तू अनंत-चतुष्टय धारी है।। शुक्ल-ध्यान से तुमने स्वामि घनघाति-कर्म को दूर किया। केवलज्ञान दिवाकर से है अखिल विश्व को पूर दिया।।
तेरी अमृत-वाणी को पी करके बने अमर प्राणी। तेरी महिमा कहते-कहते, थक जाते हैं मुनिजन ज्ञानी।।1। मैं कौन बाग की हूँ मूली तू चिंतामणि पारस सिंधु है। क्षुल्लक गागन हूँ मैं भगवन् तू सिद्ध गुणों का सिंधु है।। हरित वर्ण तन पावन तेरा मरकत मणि सम सुन्दर है। ध्यान-धुरंधर आतम-स्वरूप तू कर्म चूरने वज्जर है।।2।।
तुमने देखा था एक तपस्वी पंचाग्नि तप तपता था। नाग-नागनी उसमें जलते उनका हृदय तड़पता था।। हे बाल ब्रह्मचारी तुमने उन मरतों को नवकार दिया। मरकर नाग-नागिनी ने भी देव-लोक को पाय लिया।।3।। तुमने कहा उस तपसी से जीवों की हिंसा मत ठानो।
जटा तेरी है बढ़ी हुई त्रस जीव मरे उसमें जानो।। छोड़ शीघ्र इस पाप-पंथ को जैन धर्म स्वीकार करो। कर्मों को चकचूर करो तुम स्वर्ग-मोक्ष को शीघ्र वरो।।4।।
हिंसा में धर्म किसी ने कहीं न देखा और सुना होगा। हिंसा या पाप से वर्ग मिले फिर नर्क कौन जाता होगा।
इस भाँति उसको समझाकर भगवान वहां से जाते है।। अपने आतममें मग्न हुए निज आतम-गुण को ध्याते हैं।।5।। ___ कमठ दुष्ट ने पूर्व वैर से तुम पर भारी वर्षा की। किन्तु तुमने उस दुष्ट दैत्य की तनित न मनमें परवा की।। वह दैत्य हृदय में दग्ध हुआ ज्यों विरही दिलमें जलता है। क्रोध में आकर किया उपद्रव ध्यान से तू ना डिगता है।।6।।
धरणेंद्र-पद्मावती वे नाग-नागिनी देवलोकसे हैं आये। फण को तुझपर धारण करके मनमें अति वे हर्षाये।।
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औरंगाबाद से बीस मील कचनेर ग्राम अति सुन्दर है। इसी ग्राम के अंदर प्रभुजी बना तेरा एक मंदिर है।।7।। सुना गया इक गैया नित प्रति सायंकाल को आती थी। स्तन से दध घरा करके वह अपने स्थान को जाती थी।।
संपतराय की दादी भी यह देख अचंभा करती है। स्वप्न में देखा तुझको प्रभुजी बाहर लाने को कहती है।।8। चौथे काल की मूरत क्या, तू सहायक नाथ अनाथ की है।
सौम्य छवि तेरी प्यारी तू मूरत पारसनाथ की है।। सुन्दर तेरी इस मूरत पर धरणेन्द्र ने फण फैलाये हैं।। सात तत्त्वके सूचक मानो फण ये सत दिखाये हैं।।9।। शत्रु पर तुमने क्षमा-दान की सच्ची छाप दिखाई है। कर्म कमठ के जीत की मानो ऊपर ध्वजा लगाई है।।
एक दिन मूरत की गर्दन पृथ्वी पर धड़ से चली गई। भूमि पर सीधी पड़ी परन्तु टूट-फूट नहीं तनिक हुई।।10।।
नई मूर्ति मंगवा करके जब स्थापना की शुभ खबर दई। यह सुनकर खबर जगत जाहिर आकर सब जनता जमा हुई।।
खंडित मूर्ति को कुएँ में जब लोग डालना चाहते हैं। तो स्वप्न हुआ मत पधरावो, कल्याण अगर सब चाहते हैं।।11।।
घी शक्कर में रक्खो इसको ताले कमरे के बंद करो। मूर्ति यह जुड़ जावेगी सब सात दिवस तक भजन करो।।
लच्छिराम जी लालजी ने घी शक्कर में रखी तुझको। कुलूप लगा कर बंद कोठरी सात दिवस रखा तुझको।।12।।
भजन-पूजन करते-करते कमरे के ताले टूट गये। मूर्ति की गर्दन स्वतः जुड़ी सब जै-जै करते खड़े हुये।।
यह तेरी दंत कहानी भी सब अक्षर-अक्षर सच्ची है। अब भी गर्दन की जुड़ी हुई रेखायें सबको दिखती हैं।।13।। पाप-कर्म या चोरी से हर व्यक्ति यहाँ पर डरता है। दूध में पानी बेचे तो स्तन से लहू टपकता है।।
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वीरसिंधु अरु आदिसिंधु मुनि वर्षायोग को आये है। इस सुयोग के कारण प्रभुजी दर्शन तेरे पाये हैं॥14॥
यह सुनि तेरी संपत से मैंने पावन परम कहानी। सिद्धसिंधु भगवान पार्श्व ही सच्चे सुख की खानी है।। (दोहा)
चिंतामणि-पारसनाथ का जो गावे गुणगान । स्वर्ग सुखों को भोगकर पहुँचे वह निर्वाण ।।
ऊँ ह्रीं श्रीचिंतामणि- श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय पूर्णाघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(सोरठा)
पूजा करे दिनरात, चिंतामणि पार्श्वनाथकी।
होवे अघ सब नाश, स्वर्ग-मोक्ष पावे महा
।। इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री पार्श्वनाथ जिन-पूजा (रचयिता - पं. मोहनलाल)
(अडिल्ल) चिंतामणि श्री पार्श्व पूजनके काजही। आयो श्री कचनेर ग्राम शुभ स्थान ही। जो कोई दूजे शुद्ध-भाव चित-लाईके।
मन-वच-तन धरि ध्यान विमल गुणगायके।। ॐ ह्रीं कचनेरग्रामी-श्रीचिंतामणि-पार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं कचनेरग्रामी-श्रीचिंतामणि-पार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ॐ ह्रीं कचनेरग्रामी-श्रीचिंतामणि-पार्श्वनाथजि नेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।
(सन्निधिकरणम्)
अष्टक (चाल- सोलहकारण पूजन की) जल भर झारी तुरंत मंगाय, जनम-जनम के पास नसाय।
____ पूजो प्रभु को निश्चय जावे शिवपदको।। तेवीसवा श्री पार्श्व जिनेश, अतिशय श्री कचनेर विशेष।
भवि चित्त लगाय, पूजो हरष गुण गाय।।1।। ऊँ ह्रीं कचनेरग्रामी-श्रीचिंतामणि-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरी चंदन घनसार, केशर-सह प्रभुचरण चढ़ाय।
पूजो प्रभुको, निश्चय जावे शिवपदको।। तेवीसवा श्री पार्श्व जिनेश, अतिशय श्री कचनेर विशेष।
भवि चित्त लगाय, पूजो हरष गुण गाय।। 2।। ऊँ ह्रीं कचनेरग्रामी-श्रीचिंतामणि-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय भवताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
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उज्ज्वल अक्षत बहुत सुवास लायो अखंडित पदके पास।
पूजो प्रभुको, निश्चय जावे शिवपदको।। तेवीसवा श्री पार्श्व जिनेश, अतिशय श्री कचनेर विशेष।
भवि चित्त लगाय, पूजो हरष गुण गाय।। 3।। ऊँ ह्रीं कचनेरग्रामी-श्रीचिंतामणि-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
परिमल गंधित पुष्पको लाय, पूजत मदन-काम नसि जाय।
पूजो प्रभु को, निश्चय जावे शिवपदको।। तेवीसवा श्री पार्श्व जिनेश, अतिशय श्री कचनेर विशेष।
भवि चित्त लगाय, पूजो हरष गुण गाय।।4।। ऊँ ह्रीं कचनेरग्रामी-श्रीचिंतामणि-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
खोजा फेणी प्रभुचरण चढाय, क्षुधारोग मेरी नसिजाय।
पूजो प्रभुको निश्चय जावे शिवपदको।। तेवीसवा श्री पार्श्व जिनेश, अतिशय श्री कचनेर विशेष।
भवि चित्त लगाय, पूजो हरष गुण गाय।। 5।। ॐ ह्रीं श्रीचिंतामणि-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत-कर्पूर-दीपक जोय, करूँ आरती सब सुख होय।
पूजो प्रभु को, निश्चय जावे शिवपद को।। तेवीसवा श्री पार्श्व जिनेश, अतिशय श्री कचनेर विशेष।
भवि चित्त लगाय, पूजो हरष गुण गाय।। 6।। ऊँ ह्रीं कचनेरग्रामी-श्रीचिंतामणि-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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धूप दशांग अनूप बनाय, खेवो जिन आगे महकाय।
पूजो प्रभुको, निश्चय जावे शिवपदको।। तेवीसवा श्री पार्श्व जिनेश, अतिशय श्री कचनेर विशेष।
भवि चित्त लगाय, पूजो हरष गुण गाय।। 7। ॐ ह्रीं कचनेरग्रामी-श्रीचिंतामणि-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीफल दाडिमादि के आज, पूजहूत्र मुक्ति-रमा के काज।
___ पूजो प्रभुको, निश्चय जावे शिवपदको।। तेवीसवा श्री पार्श्व जिनेश, अतिशय श्री कचनेर विशेष।
भवि चित्त लगाय, पूजो हरष गुण गाय।। 8।। ऊँ ह्रीं कचनेरग्रामी-श्रीचिंतामणि-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्टद्रव्य शुभ अर्ध्य बनाय, पूजत मनवांछित फल पाय।
पूजो प्रभुको, निश्चय जावे शिवपदको।। तेवीसवा श्री पार्श्व जिनेश, अतिशय श्री कचनेर विशेष।
भवि चित्त लगाय, पूजो हरष गुण गाय।। 9॥ ऊँ ह्रीं कचनेरग्रामी-श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा
चिंतामणि-पार्श्व को बारंबार प्रणाम, सिरफ अरज प्रभू एक यह दीजिये अविचल-थान।
हाथ जोड़ विनती करे पंडित मोहनलाल, वांछित फल देवो मुझे तुम हो दीन-दयाल।।
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जयमाला
चिंतामणि-पार्श्व देवाधि देव, सुर-नर मुनिजनसब करत सेव। तुम दीनदयाल अनाथ नाथ, तुमको हम वंदत जोडि हाथ।। कंचनपुर में तुम प्रगट देव अतिशय दिखलाओ है स्वमेव। सब देश-देश के यात्री आय, जिनराय तनी उत्सव कराय।।
सब विघ्नजाल पूजत पलाय, आनंदवृद्धि घरमांहि थाय। आज धन्य हमारा भाग्य जाण, तुम्हारी दर्शन हम किया आन।।
जन्मांतरके सब पाप जाय, तुम पूजत सब जन हर्ष पाय। देखत तव चरण यह मन में आय, चिंतामणि निधिपाई है आज।। इस दासकी अरजी सुनो देव, भव-भव मिले, प्रभु, चरण-सेव। जही कर्म तणी नहीं नास हाये, तब लो शरणों मैं पाऊँ तोय।। बुध मोहन अरज करत येह, संसार-भ्रमन से टाली देव।।1।।
(दोहा) चिंतामणि श्री पार्श्वको पूजो मन-वच-काय।
रिद्धि-सिद्धि आनन्द अरु विघ्नरोग मिट जाय।। ऊँ ह्रीं श्रीकचनेरग्रामी-श्रीचिंतामणि-श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा) चिंतामणि पारसनाथकी गावे जो गुणमाल,
स्वर्ग-भोग को भोगकर पहुँचे सो निर्वाण। ऊँ ह्रीं श्रीचिंतामणि-श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(सोरठा) पूजा करे दिनरात, चिंतामणि-पार्श्वनाथ की। होवे अघ सब नाश, स्वर्ग मोक्ष पावो महा।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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(श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (महुवा, सूरत) (रचयिता - भट्टारक विद्याभूषण)
दोहा) ___ महुवा नगर विराजते, पार्श्वनाथ जिनराय।
विघ्नहरण मंगल-करण, भव-भव होउ सहाय।। ॐ ह्रीं श्रीमहुवानगर-विराजित-विघ्नहर-पार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्।
(इति आह्वाननम्) ऊँ ह्रीं श्रीमहुवानगर-विराजित-विघ्नहर-पार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीमहुवानगर-विराजित-विघ्नहर-पार्श्वनाथजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।
(सन्निधिकरणम्)
गंगा भरि झारी, सुंदर भारी, मीनाकारी सरस भरी। तामें गंगाजल, भरि अति निर्मल, पूरित मनसे हाथ भरी।।
पूजो प्रभु पारस, देत महारस, विघ्नहरण जिन यश गाया। कमठा मद-मारण, नाग-उधारण, संयम-धारण तज माया।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीमहुवानगर-विराजित-विघ्नहर-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय
जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
केशर ले चंदन चरचत अंगन विघ्नहरण तन सुखदाता। श्रीजिनपद-वंदन, दाह-निकंदन, तपत-हरन शीतल जाता।।
पूजो प्रभु पारस, देत महारस, विघ्नहरण जिन यश गाया। कमठा मद-मारण, नाग-उधारण, संयम-धारण तज माया।। 2।। ॐ ह्रीं श्रीमहुवानगर-विराजित-विघ्नहर-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय
संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
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सुखदास सुपेती, अछत सहेती, कलश सु लेती पुंज करो। बिनखंड सुउज्ज्वल गुण अति निर्मल, देहि अक्षेपद वास धरो।।
पूजो प्रभु पारस, देत महारस, विघ्नहरण जिन यश गाया। कमठा मद-मारण, नाग-उधारण, संयम-धारण तज माया। 3।। ऊँ ह्रीं श्रीमहुवानगर-विराजित-विघ्नहर-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय
अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चंपक ले पूजो, अरु मचकुन्दो, वास सुगन्धो चुनि आनो। बहु परिमल जाति, सुगंधसुपाति, मदनहरन तन सुख मानो।।
पूजो प्रभु पारस, देत महारस, विघ्नहरण जिन यश गाया। कमठा मद-मारण, नाग-उधारण, संयम-धारण तज माया।। 4।। ऊँ ह्रीं श्रीमहुवानगर-विराजित-विघ्नहर-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय
कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
घेवर ले साजे, सुखमा ताजे, सरस मनोहर अति ल्याजे। कंचन भरि झारी, फेर रसाली क्षुधा-निशाली सुख याजे।।
पूजो प्रभु पारस, देत महारस, विघ्नहरण जिन यश गाया। कमठा मद-मारण, नाग-उधारण, संयम-धारण तज माया।।5।। ऊँ ह्रीं श्रीमहुवानगर-विराजित-विघ्नहर-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय
क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कंचन ले दीपं, ज्योति अनूपम, वाति कपूरं जोय धरं। मन-ज्ञान-उजारण, तिमिर-निवारण, शिवमग परकाश करं।।
पूजो प्रभु पारस, देत महारस, विघ्नहरण जिन यश गाया। कमठा मद-मारण, नाग-उधारण, संयम-धारण तज माया।। 6।। ऊँ ह्रीं श्रीमहुवानगर-विराजित-विघ्नहर-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय
मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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कृष्णागरु धूपं, धूप अनुपम, सेवट घट ले जिन आगे।
खेवी भवितारं, कर्मकुठारं, चार उजारं उडि भागे।। पूजो प्रभु पारस, देत महारस, विघ्नहरण जिन यश गाया। कमठा मद-मारण, नाग-उधारण, संयम-धारण तज माया।। 7॥ ऊँ ह्रीं श्रीमहुवानगर-विराजित-विघ्नहर-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय
अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीफल नारंगी, खारक, पुंगी, चोच मोच बहुभाँति लिये। जिनचरण चढ़ावो भक्ति बढ़ावो, शिवफल पावो सूरि किये।।
पूजो प्रभु पारस, देत महारस, विघ्नहरण जिन यश गाया। कमठा मद-मारण, नाग-उधारण, संयम-धारण तज माया।। 8।। ऊँ ह्रीं श्रीमहुवानगर-विराजित-विघ्नहर-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय
मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंध सुअक्षत, कुसुम सुचरुवर, दीप धूप फल ले भरी। यह अर्घ सु कीजे, जिनपद दीजे, विद्याभूषण सुखकारी।।
पूजो प्रभु पारस, देत महारस, विघ्नहरण जिन यश गाया। कमठा मद-मारण, नाग-उधारण, संयम-धारण तज माया।। 9॥ ऊँ ह्रीं श्रीमहुवानगर-विराजित-विघ्नहर-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय
अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक शुभप्राणत सवर्ग विहाये, वामा माता उर आये।
वैशाख तनी दुतिकारी, हम पूजें विघ्न-निवारी।। ऊँ ह्रीं वैशाखकृष्णा-द्वितीयायां गर्भमंगल-प्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
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जनमे त्रिभुवन सुखदाता, एकादशि पौष विख्याता।
श्यामा तन अद्भुत राजै, रवि कोटिक तेज सु लाजै।। ॐ ह्रीं पौषकृष्णा-एकादश्यां जन्ममंगल-प्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
कलि पौष एकादशि आई, तब बारह भावन भाई।
अपने कर लौंच सु कीना, हम पूलै चरन जजीना।। ऊँ ह्रीं पौषकृष्णा-एकादश्यां तपमंगल-प्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कलि चैत चतुर्थी आई, प्रभु केवल ज्ञान उपाई।
तब प्रभु उपदेश जु कीना, भावि जीवन को सुख दीना।। ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-चतुर्थ्यां केवलज्ञान-प्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
सित सातें सावन आई, शिवनारि वरी जिनराई।
सम्मेदाचल हरि माना, हम पूर्जे मोक्षकल्याना।। ऊँ ह्रीं श्रावणशुक्ला-सप्तम्यां मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला चन्द्रनाथं नमस्कृत्यं नत्वा च गुरुपादकम्। पार्श्वनाथस्य जयमाला वक्ष्ये प्राणि-प्रसौख्यदाम्।।
पद्धरि छन्द।। जय पार्श्व जिनेश्वर अकल रूप, जय इन्द्र चन्द्र फणि नमत भूप।
जय विश्वसेन के पुत्र सार, वामादेवी सुत धर्मकार।। जय नीलवर्ण वर सार काय, जय नवकार ऊचो जिनंदराय। जय शत इक जिनवर तनी आय, जय खंडित-क्रोध-त्रिशल्यमाय।।
जय उग्रवंश में उदित सूर, जय कमठ-मान प्रभु किया दूर। जय भूतपिशाचा दूर त्रास, डाकिनी-शाकिनी आवे न पास।। जय चिंतामणि तुम कल्पवृक्ष, जय मनवांछित फल दान-दक्षा
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जय नंत-चतुष्टय सौख्य सार, जय विद्याभूषण नमत सार।।
(घत्ता) जय पारस देवं, सुरकृत-सेवं, नासिय जन्म-जरा-मरणम्।
जय धर्म-सुदाता, भव-जल-त्राता, विघ्नहरं सेवित चरणम्।। ऊँ ह्रीं महवानगर-विराजित-विघ्नहर-श्रीपार्श्वनाथय जयमाला-पूर्णायं निर्वपामीति स्वाहा।
कल्याणं विजयं भद्रं चिंतितार्थं मनोरथम्। पार्श्व-पूजाप्रसादेन, सर्वं कामाय सिद्ध्यति।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (नेमगिरि)
स्थापना (दोहा) निराधार आधार हो, गगन अधर हो आप। अन्तरिक्ष पार्श्व प्रभु पूजत मिटते ताप।।
नेमगिरी तीरथ महा, कर लीनों है वास। आह्वानन कर पूजता, मिले मुक्ति साम्राज्य।। ॐ ह्रीं श्रीकलिकुंडदण्ड-श्रीअंतरिक्ष-पार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्रीकलिकुंडदण्ड-श्रीअंतरिक्ष-पार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीकलिकुंडदण्ड-श्रीअंतरिक्ष-पार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।
(सन्निधिकरणम्)
मन निर्मल कर जल भर लाया, रत्नत्रय-युत भाव से।
जन्म-जरा-मृत्यु रोग नशावन हेतु चढ़ाऊँ चाव से।। अंतरिक्ष श्री पार्श्व जिनेश्वर निशदिन तुम्हें जो ध्याते है।। ऋद्धि सिद्धि समृद्धि करते, रोग-शोक नश जाते हैं।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीकलिकुंडदण्ड-श्रीअंतरिक्ष-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
केशर कुंकुम गंध मनोहर, चरण चढ़ाऊँ आपको। ध्यान धरा है निशदिन तेरा, मेटो भव-भव तापको।। अंतरिक्ष श्री पार्श्व जिनेश्वर निशदिन तुम्हें जो ध्याते है।। ऋद्धि सिद्धि समृद्धि करते, रोग-शोक नश जाते हैं।। 2।। ऊँ ह्रीं श्रीकलिकुंडदण्ड-श्रीअंतरिक्ष-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
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चंद्रकिरण-सम उज्ज्वल अक्षत, स्वच्छ भव कर लाया हूँ। अक्षय-पद के प्राप्त करन को, पार्श्व चरण में आया हूँ।। अंतरिक्ष श्री पार्श्व जिनेश्वर निशदिन तुम्हें जो ध्याते है।।
ऋद्धि सिद्धि समृद्धि करते, रोग-शोक नश जाते हैं।। 3॥ ऊँ ह्रीं श्रीकलिकुंडदण्ड-श्रीअंतरिक्ष-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतम् निर्वपामीति स्वाहा।
महा सुगंधित पुष्प मनोहर, भांति-भांति के लाया हूँ। काम-भाव विध्वंस हेतु मैं, पारस-चरण चढ़ाया हूँ।। अंतरिक्ष श्री पार्श्व जिनेश्वर निशदिन तुम्हें जो ध्याते है।।
ऋद्धि सिद्धि समृद्धि करते, रोग-शोक नश जाते हैं।। 4।। ऊँ ह्रीं श्रीकलिकुंडदण्ड-श्रीअंतरिक्ष-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
विविध भांति नैवेद्य सजाकर, चरण चढ़ाने लाया हूँ। क्षुधा-रोग परिहार करो बस, यही भावना लाया हूँ।। अंतरिक्ष श्री पार्श्व जिनेश्वर निशदिन तुम्हें जो ध्याते है।।
ऋद्धि सिद्धि समृद्धि करते, रोग-शोक नश जाते हैं।। 5।। ऊँ ह्रीं श्रीकलिकुंडदण्ड-श्रीअंतरिक्ष-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोहाधंकार से व्याप्त जगत में निज को देख न पाया हूँ। निज आत्म-ज्ञान का बोध मिले, इस हेतु दीप ले आया हूँ।।
अंतरिक्ष श्री पार्श्व जिनेश्वर निशदिन तुम्हें जो ध्याते है।।
ऋद्धि सिद्धि समृद्धि करते, रोग-शोक नश जाते हैं।। 6॥ ऊँ ह्रीं श्रीकलिकुंडदण्ड-श्रीअंतरिक्ष-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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अष्ट कर्म के नाश करन को धूप सुगंधित ले आया। पार्श्वचरण में इसे चढ़ाते, निज पदका अनुभव पाया।। अंतरिक्ष श्री पार्श्व जिनेश्वर निशदिन तुम्हें जो ध्याते है।।
ऋद्धि सिद्धि समृद्धि करते, रोग-शोक नश जाते हैं।। 7॥ ऊँ ह्रीं श्रीकलिकुंडदण्ड-श्रीअंतरिक्ष-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
फल पाने मैं फल ले आया, मोक्ष-महाफल दे दीजे। संसार-चक्र से मैं छूटू, इस हेतु प्रभु अपना लीजे।। अंतरिक्ष श्री पार्श्व जिनेश्वर निशदिन तुम्हें जो ध्याते है।।
ऋद्धि सिद्धि समृद्धि करते, रोग-शोक नश जाते हैं।। 8॥ ऊँ ह्रीं श्रीकलिकुंडदण्ड-श्रीअंतरिक्ष-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्टद्रव्य का अध्य बनाया, अष्टम वसुधा पाने को। अध्य समर्पण करता हूँ मैं, सिद्धालय में जाने को।। अंतरिक्ष श्री पार्श्व जिनेश्वर निशदिन तुम्हें जो ध्याते है।।
ऋद्धि सिद्धि समृद्धि करते, रोग-शोक नश जाते हैं।। 9।। ऊँ ह्रीं श्रीकलिकुंडदण्ड-श्रीअंतरिक्ष-पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विश्व-शांति की पावन आशा, आत्म शांति भी दे दीजे।
अन्तरिक्ष श्री पार्श्व चरण में, शांतिधारा कर लीजे। अंतरिक्ष श्री पार्श्व जिनेश्वर निशदिन तुम्हें जो ध्याते हैं। ऋद्धि सिद्धि समृद्धि करते, रोग-शोक नश जाते हैं।।10।
शान्तये शांति धारा॥ तन-मन-धन से पीडित जन हो, पार्श्व चरण में आ जाओ। फूल सुगंधित अंजुल भरकर, पुष्पांजलि को बिखराओ।।
अंतरिक्ष श्री पार्श्व जिनेश्वर निशदिन तुम्हें जो ध्याते है।। ऋद्धि सिद्धि समृद्धि करते, रोग-शोक नश जाते हैं।। 11॥
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॥ दिव्य-परिपुष्पांजलिं क्षिपेत्॥
ॐ ह्रीं श्री कलिकुंडदण्डाय श्रीअंतरिक्षपार्श्वनाथ ह्रीं नमः ।
(इस मंत्र का 108 या 27 या कम से 9 बार जाप अवश्य कीजिए ।)
पंचकल्याणक (दोहा)
अन्तरिक्ष जिनदेव की, पढ़ता हूँ जयमाल |
गुण वरणँ श्री पार्श्व के, नत मस्तक हो भाल। अन्तरिक्ष श्री पार्श्वजिनेश्वर नाम सुमंगल प्यारा है। दुनिया में रहते हो प्रभुवर, फिर दुनिया से क्यों न्यारा है।।
महावीर के पहले से तुम, आन यहीं विराजे हो । इस हेतु श्री पारस स्वामी, घर-घर हर दिल साजे हो । महिमा अगम्य तुम्हारी देवा, जन-जन ने ये जानी है।
पूजत सौख्य मिले सबही, ये बात नहीं पुरानी है। माता वामा विश्वसेन राया, काशी नगरी धन्य किया। नाग युगल को णमोकार के पाठ से तुमने तार दिया।। तीस वर्ष की भरी जवानी, विषय-भोग को छोड़ चले। ले दिगंबरी दीक्षा वन में, शिवमग पग बढ़ा चले ॥
वीतराग निर्गथ-दिगम्बर, मुद्रा सबको भाती है। कमठों जैसे पापी जनको, बिलकुल भी नहीं सुहाती है। देव नरेन्द्र किन्नर, सुर-नर, विद्याधर भी आते हैं। जीवन सफल बनाने हेतु, निशदिन तुमको ध्याते हैं।। मनहर तेरी प्रतिमा लखकर, तुम जैसा होना चाहूँ। त्याग-तपस्या-नियम साधकर, कब तुमसा मैं बन जाऊँ।। वर्षों की कठिन तपस्या से, आत्मज्ञान को प्राप्त किया। भव्यजनों के हित के हेतु मोक्षमार्ग उपदेश दिया।। सौ वर्ष की पूर्ण आयु तक, दिव्य-देशना रोज दिया। सम्मेदशिखर तीर्थ पर जाकर, सम्यक् योग-निरोध किया।
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मुक्ती पाने हेतु आपने, शुक्लध्यान अवलंब किया। नष्ट किया सब कर्म तुम्ही तब, मोक्षपुरी में वास किया।।
अन्तरिक्ष श्री पार्श्वजिनेश्वर, प्रतिमा सुन्दर बनवायी। प्राण-प्रतिष्ठा कर प्रतिमा की, नेमगिरि पर पधरायी।।
चन्द्रगुप्त मुनि साथ पधारे, भद्रबाहु श्री स्वामीजी। सूरीमंत्र उद्धार किया जब, हुये गगन तब अधर तुम्हीं।।
दिन में सूर्यकिरण प्रभु के, चरणों का प्रक्षाल करें। स्पर्श करे तव चरण-युगल का, रोज-रोज संचार करें।।
पूर्ण चन्द्रमा अर्ध रात वह भी जा तव चरण पड़े। नागराज भी यहां पधारे, दर्शन लेकर निकल पड़े।। तन-मन से दीन-दुःखी जन सब, तुमको आकर ध्याते हैं। रोग-शोक परिहार करे सब, मनवांछित फल पाते हैं।।
विश्वजगत के इतिहास में, नई अनोखी बात यहाँ। कहीं न जो देखी है वो, श्री अन्तरिक्ष जिनराज यहाँ।। महाराष्ट्र के जिंतूर ग्राम में, कोस एक वह दूर रहे।
सह्याद्रि की निसर्ग गोद में, नेमगिरि सुक्षेत्र बसे।। मुगलों का था राज्य यहाँ जब, मिट्टी से था दबा दिया।
वीरा, नेमा, अंतु शंघ्वी ने नेमगिरी उद्धार किया।। इतिहास में प्रथम बार ही, चातुर्मास का योग मिला। प्रज्ञाश्रमण के हृदय कमल में, भक्ति सुमन का फूल खिला।
चालीसा तव पाठ पढ़े और जाप जपे जो भी तेरा। भवोदधि से पार उतरकर, पाते मोक्ष परम प्यारा।। बृहस्पति भी तुमरी महिमा, कहने में न समर्थ हुआ।
भक्ति-भाव से तव गुण वर्णं बस एक यही अर्थ हुआ। ऊँ ह्रीं श्रीकलिकुंडदण्डय-श्रीअंतरिक्ष-पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।।
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(दोहा) जयमाला श्री पार्श्व की, अन्तरिक्ष जिनराज। भाव सहित पढिये सदा, कट जाये जंजाल।। शान्तये शांतिधारा। दिव्य-परिपुष्पांजलिं क्षिपेत। अन्तरिक्ष श्री पार्श्व की, पार्श्व पूजा करिये रोज। सुख संपत्ति सबही मिले, मिटते भव के रोग।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्रीपार्श्वनाथजिन-पूजा अतिशय क्षेत्र (बिहारी, मु. नगर)
जो जग में है पर-उपकारी, धर्म कहे है उन अघहारी। पार्श्व प्रभो निज नित सोहै, वे जगती पै भवि-मन मोहैं।।
नगर बिहारी अतिशय भारी, धरमेश्वर उसमें अघहारी। हे जिन आओ मम मन माँही, आप बिना कोई जग नाहिं।
(दोहा) माँ वामा के लाड़ले, अश्वसेन-सिरताज। माँ मन्दिर राजो विभो, मुक्ति-वधू महाराज। ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजि नेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
है जन्म-मृत्यु से रहित रूप, मम राग-द्वेष का लेश नहीं। क्रोधादिक मल से अमल विभो, पर मल का है परिवेश नहीं।।
वैभाविक-मल से अमल बनूँ, प्रासुक-जल चरण चढ़ाता हूँ।
हे क्षेत्र बिहारी पार्श्व प्रभो, सुख-सम्पति हो सिर नाता हूँ।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय नमः जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
शीतल हो आत्म निराकुल हो, पर-परणति का परवेश नहीं। सुखशान्ति-सुधा निज में पीते, आकुलता मन में लेश नहीं।।
आकुलित हुआ मैं विषयों में, शुभ चन्दन चरण चढ़ाता हूँ।।
हे क्षेत्र बिहारी पार्श्व प्रभो, सुख-सम्पति हो सिर नाता हूँ।। 2। ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय नमः संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
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अक्षत हो आप अमल प्रभुवर, शाश्वत सुख उपजाया है। अविकार आत्मरत में रमकर निज अनुभव को प्रगटाया है ।।
निज अक्षय-पद के हेतु नाथ, अक्षत मैं चरण चढ़ाता हूँ । हे क्षेत्र बिहारी पार्श्व प्रभो, सुख-सम्पति हो सिर नाता हूँ || 3 |
ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय नमः अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
स्याद्वादमयी सत् पुष्पों से, निज - गुण फुलवारी महकायी। आत्मानुभूति की गन्ध विभो पर - गंध नहीं तुमको भायी।। विषयों की गंध मिटाने को, प्रभु पुष्प सुचरण चढ़ाता हूँ।। हे क्षेत्र बिहारी पार्श्व प्रभो, सुख-सम्पति हो सिर नाता हूँ।। 4 ।
ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय नमः कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम क्षुधा रोग से परे विभो, खाने-पीने की चाह नहीं।
निज अनुभव हित आस्वादन कर, पर- परणति की परवाह नहीं । ।
मम क्षुधा विलय हो हे स्वामिन्, नैवेद्य सु चरण चढ़ाता हूँ।।
हे क्षेत्र बिहारी पार्श्व प्रभो, सुख-सम्पति हो सिर नाता हूँ।। 5 ।
ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय नमः क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सकल द्रव्य के गुण अनन्त, पर्याय अनन्ते राजत हैं।
दर्पणवत् केवलज्ञान विषै, जैसे के तैसे भासत हैं।।
निज केवलज्ञान जगाने को, दीपक प्रभु चरण चढ़ाता हूँ।। हे क्षेत्र बिहारी पार्श्व प्रभो, सुख-सम्पति हो सिर नाता हूँ ।। 6
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय नमः मोहान्धकार- विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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वसुकर्म दहन करके प्रभुवर, वसु गुण निज में प्रगटाने हैं। दोषों का धुआँ उड़ा करके, सद्गुण निज में हुलसाये हैं।। निज कर्म-दहन के हेतु विभो, ये धूप सुचरण चढ़ाता हूँ।।
हे क्षेत्र बिहारी पार्श्व प्रभो, सुख-सम्पति हो सिर नाता हूँ।। 7॥ ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय नमः अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
फल रत्नत्रय का मुक्ति विभो, पुरुषारथ बल से प्राप्त किया। फल श्रेष्ठ सभी पाये निज में, नित शान्त सुधारस स्वाद लिया।। अनुभव-शिवफल मैं प्राप्त करूँ, प्रभु फल ले चरण चढ़ाता हूँ।।
हे क्षेत्र बिहारी पार्श्व प्रभो, सुख-सम्पति हो सिर नाता हूँ।। 8।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय नमः मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
उपसर्ग सहा कमठासुर का, उपसर्ग-विजेता कहलाये। सुर पद्मावति-धरणेन्द्र तभी, पूरब उपकार सुमिर आये।। ये अर्घ्य संजो करके प्रभुवर निज का वैभव निज पाता हूँ।।
हे क्षेत्र बिहारी पार्श्व प्रभो, सुख-सम्पति हो सिर नाता हूँ।। 9।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय नमः अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक वैशाख द्वितीय बदि आयी, माँ गर्भ धर हरषायी।
हम पूजत पाप विलीना, नहिं धारे कर्म नवीना।। ऊँ ह्रीं वैशाखकृष्णा-द्वितीयायां गर्भमंगल-प्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बदि पौष सु ग्यारस आयी, प्रभु जन्म हुआ सुखदायी।
हम अर्चा विभो रचायें, निज जन्म मेट शिव पायें।। ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णा-एकादश्यां जन्ममंगल-प्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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बदि पौष एकादश सोहै, पारस मुकती मन मोहै।
निर्जन वन ध्यान लगाया, निज समरस विभो जगाया।। ऊँ ह्रीं पौषकृष्णा-एकादश्यां तपोमंगल-प्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बदि चैत चतुर्थी आयी, विभु केवल-ज्योति जगायी।
स्याद्वाद धर्म उपदेशा, भव्यों का मिटा कलेशा।। ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णा-चतुर्थ्यां केवलज्ञान-प्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रावण सुदि सप्तमि आयी, विभु मुक्ति-सुन्दरी पायी।
वसु-गुणमय शाश्वत राजें, पूजत भव-भव दुख भाजें।। ऊँ ह्रीं श्रावणशुक्ला-सप्तम्यां मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला (दोहा) नगर बिहारी राजते, हे पारस महाराज। गुणमाला वर्णन करूँ, सिद्ध होय सब काज।।
(पद्धरि छन्द) जय पारस नाथ अनाथ-नाथ, सुरगण नित चरणन नमत माथ। अद्भुत तुमरी महिमा अपार, अतिशय है बिहारी क्षेत्र सार।।1।। दश अतिशय-युत तुम जन्म लीन, इन्द्रादि मेरु अभिषेक कीन। जब युवा भये अतिशय विशाल, शादी की चर्चा थी खुशाल।2।
शादी से ली तुम दृष्टि मोड़, लीना मुक्ति से नेह जोड़। जलते लखि नागिन-नाग दोय, नवकार सुना गए देव होय।।3।।
होकर विराग दीक्षा विभोर, द्वादश तप का था जोर-शोर। सहसा कमठासुर किया आन, उपसर्ग कष्ट दीनो महान।।4।।
सुर पद्मावति-धरणेन्द्र जोय, पुरव भव मन्त्र प्रभाव दोय। आये उपकारी जान नाथ, कमठासुर चरणन दियो माथ।।5।।
कर्मन की त्रेसठ प्रकृति नाश, अष्टादश दोष नशाय खास। केवलज्ञानी होकर अशेष, तुम प्रगट लखे जग अर्थ शेष।।6।।
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प्रभु समवशरण महिमा अपार, उपदेश सुने सब भेद टार विभु स्याद्वाद-वाणी महान, एकान्त नशा सबका जहान॥7॥ तुम भेद-भाव सबका मिटाय, रत्नत्रय से शिवपथ दिखाया। चौतीसों अतिशय और चार, गुण सौहैं शुभ वसु प्रातिहार॥8॥
हैं गुण अनन्त महिमा जहान, जग में अनुपम है आप ज्ञान। जो शरण बिहारी गहे आय, फिर आधि-व्याधि नहि रहे ताय || 9 || पंगू बहरा या मूक कोय, तुम भक्त विसें नहिं रोग होय। निर्धन निपुण्य प्रभु शरण आय, मनवांछित फल को लेत पाय।।10। तुम नाम-मन्त्र की जपत जाप, जग भूत प्रेत भग जात आप। गुण-चिन्तन में जो लीन होय, भव-भव में नहिं वह दीन होय॥11॥
तुम वीतराग मैं राग-लीन, प्रभु गुण-निधान मैं रागधीन । केवल ज्ञानी हो शुद्ध-बुद्ध, मैं ज्ञान - रहित विषयनि प्रबुद्ध ।।12। टंकोत्कीर्ण विभु शुद्ध भाव, मुझमें पर-परणति का लगाव। प्रभु ज्ञानानन्द विलीन आप, नित निज अनुभव की जपत जाप ॥13॥ प्रभु पूजत दुःख-दारिद्र जाय, भवि पूज्य बनें जग यश लहाय । पूजा प्रतिदिन पार पुनीत, मनवांछित फल हो जगत जीत ॥14॥ वैभव नहिं भव-सुख चाह मोय, शिवसुन्दरि से मम नेह होय । अरजी सन्मति करुणा महान तुमसे गुण हो मुझमें महान | 15 | (दोहा) नगर बिहारी क्षेत्र में, हे पारस महाराज। पूजन भक्ती भाव से, सिद्ध होय सब काज। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय नमः जयमाला-पूर्णायं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वयं आत्म-पुरुषार्थ से, हुये स्वं जगदीश । विश्वशान्ति सुख-सम्पदा सन्मति चरणों शीश
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (अहिच्छत्र) (रचयिता - राजमल जी)
अतिशय-क्षेत्र महान जगत में अहिक्षेत्र मंगलकारी। तपो-भूमि प्रभु पार्श्वनाथ की भव्यजनों को सुखकारी।। यह उपसर्ग-भूमि जिसको लखकर विराग उर में आता।
ज्ञान-तीर्थ कैवल्य-भूमि के दर्शन कर मन हर्षाता।। प्रथम देशना भूमि यही है पार्श्वनाथ प्रभु की जय-जय। भक्ति विनय से प्रभु पूजन का भाव हृदय में हुआ उदय।। पार्श्वनाथ प्रभु के चरणों में सादर शीश झुकाऊँ मैं।
अविनश्वर लक्ष्मी पाने को चरण-शरण में जाऊँ मैं।। ॐ ह्रीं श्रीअहिक्षेत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीअहिक्षेत्रपार्श्वनाथ जिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीअहिक्षेत्रपार्श्वनाथजि नेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
शुद्धभाव जल के बिन स्वामी चारों गति में भरमाया। जन्म-मरण पर जय पाने को शरण आपकी मैं आया।।
अहिक्षेत्र-प्रभु पार्श्वनाथ के दर्शन करके हर्षाया।
तपो-भूमि कैवल्य-भूमि को वन्दन कर अति सुख पाया।।1।। ॐ ह्रीं श्रीअहिक्षेत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्ध भावचन्दन बिन स्वामी भवाताप में झुलसाया। यह संसार-ताप हरने को शरण आपकी मैं आया।।
अहिक्षेत्र-प्रभु पार्श्वनाथ के दर्शन करके हर्षाया। तपो-भूमि कैवल्य-भूमि को वन्दन कर अति सुख पाया।। 2।। ॐ ह्रीं श्रीअहिक्षेत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
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शुद्ध भावअक्षत बिन स्वामी भव-अटवी में दुःख पाया। अक्षय-पद पाने को प्रभुवर शरण आपकी मैं आया ॥
अहिक्षेत्र - प्रभु पार्श्वनाथ के दर्शन करके हर्षाया। तपो भूमि कैवल्य-भूमि को वन्दन कर अति सुख पाया।। 3॥ ॐ ह्रीं श्रीअहिक्षेत्र पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्ध भाव के सुमन बिना प्रभु शील-स्वभाव नहीं पाया। कामबाण की व्यथा मिटाने शरण आपकी मैं आया ||
अहिक्षेत्र - प्रभु पार्श्वनाथ के दर्शन करके हर्षाया। तपो-भूमि कैवल्य-भूमि को वन्दन कर अति सुख पाया ।। 4।।
ऊँ ह्रीं श्रीअहिक्षेत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्ध भाव नैवेद्य बिना प्रभु कभी तृप्त न हो पाया। क्षुधा-रोग की व्याधि हटाने शरण आपकी मैं आया।। अहिक्षेत्र - प्रभु पार्श्वनाथ के दर्शन करके हर्षाया।
तपो भूमि कैवल्य-भूमि को वन्दन कर अति सुख पाया। 5॥
ॐ ह्रीं श्रीअहिक्षेत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्ध भाव दीपक बिन स्वामी मोह - तिमिर न हटा पाया।
मिथ्या-भ्रम अज्ञान हटाने शरण आपकी मैं आया ॥
अहिक्षेत्र प्रभु पार्श्वनाथ के दर्शन करके हर्षाया।
तपो-भूमि कैवल्य-भूमि को वन्दन कर अति सुख पाया ।। 6 ।।
ॐ ह्रीं श्रीअहिक्षेत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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शुद्ध भाव की धूप बिना प्रभु कर्म-जाल में उलझाया। अष्ट कर्म विध्वंस कराने शरण आपकी मैं आया।।
अहिक्षेत्र-प्रभु पार्श्वनाथ के दर्शन करके हर्षाया। तपो-भूमि कैवल्य-भूमि को वन्दन कर अति सुख पाया।। 7॥ ॐ ह्रीं श्रीअहिक्षेत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्धभावफल बिना नाथ मैं सदा बन्ध करता आया। महा मोक्षफल पाने को प्रभु शरण आपकी मैं आया।।
अहिक्षेत्र-प्रभु पार्श्वनाथ के दर्शन करके हर्षाया। तपो-भूमि कैवल्य-भूमि को वन्दन कर अति सुख पाया।। 8॥ ॐ ह्रीं श्रीअहिक्षेत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्ध भाव के अर्घ बिना मैं पाप पुण्य में अटकाया। निज अनर्घ-पदवी पाने को शरण आपकी मैं आया।।
अहिक्षेत्र-प्रभु पार्श्वनाथ के दर्शन करके हर्षाया। तपो-भूमि कैवल्य-भूमि को वन्दन कर अति सुख पाया।। 9।। ऊँ ह्रीं श्रीअहिक्षेत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनध्यपद-प्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक शुभ बैशाख कृष्णा द्वितीया गर्भोत्सव मंगल हुआ प्रधान।
पन्द्र माह रत्न वर्षा कर हुआ इन्द्र को हर्ष महान। प्राणत-स्वर्ग त्याग तुम आये बँधे स्वर्ग में बन्दनवार।
सोलह स्वप्न लखे माता ने घर-घर गूंजे मंगलाचार। ऊँ ह्रीं श्रीअहिक्षेत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय वैशाखकृष्णा-द्वितीयायां
गर्भमंगल-प्राप्ताय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
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वाराणसी नगर के अधिपति अश्वसेन गृह जन्म लिया।
माता-वामा अति हर्षायी तिहुँ जग ने आनन्द किया।। जन्म-समय सुरपति ने सुमेरु गिरि पर ले जाकर अभिषेक किया।
पौष कृष्ण एकादशी को जन्मोत्सव पर नृत्य किया।। ऊँ ह्रीं पौषकृष्णा-एकादश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भव-तन-भोगों से विरक्तिमय जब तुमको वैराग्य हुआ। लौकान्तिक देवों के द्वारा धन्य-धन्य जयनाद हुआ।। तीस वर्ष की अल्पायु में जन्म-दिवस दीक्षा धारी।
पंच महाव्रत धारे वन में हे प्रभु! बाल-ब्रह्मचारी।। ऊँ ह्रीं पौषकृष्णा-एकादश्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हुए तपस्या लीन लिये उपवास षष्ठ मंगलकारी। गुल्मखेट में धन्य नृपति-गृह किया पारणा तप धारी।।
अहिक्षेत्र की पुण्य धरा पर तुमने केवलज्ञान लिया।
चैत्र कृष्ण की भव्य चतुर्थी को प्रभु पद-भगवान् किया।। ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-चतुर्थ— ज्ञानसाम्राज्य-प्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देश-देश में कर विहार प्रभु फिर सम्मेदशिखर आये। कूट सुवर्णभद्र से तुमने चउ-अघातिया विनशाये।।
हुए निरंजन निर्विकार पावन मंगल निर्वाण हुआ।
श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन परम मोक्षकल्याण हुआ। ऊँ ह्रीं श्रावणशुक्ला-सप्तम्यां सम्मेदशिखरस्य सुवर्णभद्रकूटात् मोक्षमंगल-मंडिताय
श्रीपार्श्वनाथ-जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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जयमाला
अहिक्षेत्र की पावन भू पर पूजन करके सुख पाऊँ। पार्श्वनाथ की पवित्र जीवन-गाथा भाव-सहित गाऊँ।1। मति-श्रुति-अवधि ज्ञान के धारी तीन लोक के रखवारे। आठ वर्ष की लघु वय में ही तुमने अणुव्रत स्वीकारे।2।
ठुकराये तुमने विवाह के मोदमयी प्रस्ताव अनेक। राज्य-मोह वस्त्राभूषण तज तुमने तप धारा सविवेक।3।
भव्य भवना द्वादश भाई उर में दृढ़ वैराग्य किया। नमः सिद्धेभ्य कहकर तुमने पंचमुष्ठि कचलोच किया।4।
इन केशों को रत्न पिटारे में रख हुआ इन्द्र हर्षित। पंचम क्षीरोदधि सागर में किया प्रवाहित विनय-सहित।5।
अट्ठाईस मूलगुण धारे उत्तर गुण चौरासी लाख। पंचाचार त्रयोदश-विधि-चारित्र परम पावन विख्यात।।6।। विचरण करते एक दिवस आ पहुँचे अहिक्षेत्र वन में। आत्म-ध्यान में लीन हुए निज-स्वभाव भजते मन मे।7। पूर्व जन्म का बैरी कमठ ज्योतिषी-सुर संवर आया।
देख तपस्या लीन आपको पूर्व बैर उर में छाया।8। दस भव बैर नहीं छोड़ा यह क्रोध कषाय महादुःखमय। पर तुमने उर में समता धर पाया अनुपम पद सुखमय।9। पहले भव मरुभूति हुए तुम कमठ भ्रात ने प्राण लिये। दूजे में ही वज्रघोष गज श्रावक के व्रत धार लिये।10। कुक्कट सर्प कमठ बन आया डसकर पंचम नर्क गया। तीजे भव तुम सहस्रार पाया साता का स्रोत नया।11।
चौथे भव तुम रश्मिवेग विद्याधर बन व्रत ग्रहण करे। कमठ क्रूर ने अजगर होकर बैर किया फिर प्राण हरे।12।
अच्युत स्वर्ग गये पंचम भव उसका षष्टम नर्क पतन। तुम षष्टम भव बज्रनाभि चक्री हो मुनिपद किया ग्रहण।13।
कमठ कुरंग भील बन आया बहु उपसर्ग किये आकर।
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नर्क सातवाँ मिला उसे पाये दुःख अति तैंतीस सागर।14।
सप्तम भव मध्यम ग्रैवेयक में जा तुम अहमिन्द्र हुए। अष्टम भव में नगर अयोध्या के राजा आनन्द हुए।15। भव-भोगों से ही विरक्त तुमने मुनिपद स्वीकार किया। गोत्र तीर्थंकर प्रभु बाँधा तप-संयम साकार किया।16। सिंह हुआ वह आया तुमको क्रोधित होकर खा डाला। प्राणत-स्वर्ग गये उसको पाँचवे नर्क विधि ने डाला।17।
दशवें भव तुम पार्श्वकुँवर वन तपसी महीपाल नाना। अग्नि जला तप करता था उपदेश न एक प्रभो माना।18।
ज्वाला में जलते दिखलाये नाग-नागिनी अर्ध जले। सुन उपदेश हुए मर कर पद्मावती और धरणेन्द्र भले।19। खोटा तप कर कमठ जीव संवर ज्योतिषी हुआ जाकर। आग बैर की बुझी नहीं उपसर्ग किये फिर से आकर।20। किये उपद्रव घोर कमठ ने प्रभु के ध्यान विदारण को। पद्मावती-धरणेन्द्र शीघ्र आये उपसर्ग-निवारण को।21। फण-मण्डप पर प्रभु को ले धरणेन्द्र मुदित अपने मन में।
पद्यादेवी छत्र तानकर खड़ी हो गई उस वन में।221 शुभ भावों से इन दोनों ने पुण्य-उपार्जन किया अपार। लीन रहे प्रभु आत्म-ध्यान में गूंजी नभ में जय-जयकार।23। सात दिवस तक किया उपद्रव अग्नि ज्वाला जल वर्षा की।
भीषण झंझावात चला पाषाणों की वर्षा की।24। श्रेणी क्षपक चढ़े प्रभु तत्क्षण कर्म घातिया नाश किया। मोह-शत्रु पर विजय प्राप्त कर केवलज्ञान-प्रकाश लिया।25। तत्क्षण ही उपसर्ग विलय हो गया हुआ सुर-दुन्दुभि नाद। समवशरण की रचना सुन्दर जगती में छया आह्लाद।26। खिरी दिव्यध्वनि भव्य-देशना अहिक्षेत्र में पहली बार। दश गणधर में मुख्य स्वयंभू गणधर ने झेली श्रुत धार।27।
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मुख्य आर्यिका सुलोचना थी श्रोता महासेना नृपवर। ओंकार ध्वनि प्रभु की खिरती चार समय शाश्वत सुखकर।28।
पापी कमठ शरण में आया उसका भी कल्याण किया। जग-जीवों को मोक्ष मार्ग का शुभ सन्देश महान दिया।29। __ अहिक्षेत्र की पुण्य धरा यह प्रभु के गीत सुनाती है। तपो-भूमि उपसर्ग-भूमि कैवल्य-भूमि यश गाती है।300
जो भी प्रभु का ध्यान लगाता उसके संकट कटते है।। जो भी निज का ध्यान लगाता उसके भव-दःख मिटते है।31।
मैं भी प्रभु का ध्यान लगाकर शुद्धातम को अपनाऊँ। पाप पुण्य आश्रव विनाश कर मैं भी पंचम गति पाऊँ।32।
प्रभु की पावन मूर्ति लख कर भेदज्ञान वैभव पाऊँ। जो अनादि से मिला न अब तक वह सम्यक् दर्शन पाऊँ।33। ___ जय-जय पार्श्वनाथ तीर्थंकर तेईसवें जिनेश महान। जब तक मोक्ष स्वपद न पाऊँ तब तक गाऊँ तव गुणगान।341
सर्प-चिन्ह चरणों में शोभित पार्श्वनाथ को करूँ नमन। जन्म-जन्म के पातक क्षय हों अनुक्रम से हो मुक्ति सदन।351 ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय महाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञान-तीर्थ अहिक्षेत्र को बारम्बार प्रणाम। पार्श्वनाथ प्रभु को जपूँ विनय सहित वसु-याम।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (जटवाड़ा) (रचयिता - आचार्य देवनन्दि मुनि)
स्थापना जटवाड़ा है अतिशय-क्षेत्र, पार्श्वप्रभु का धाम। मन-वच-तन से पूजा करलो, पूरे होंगे काम।।
भक्त आपके चलते आते, पूजा-पाठ करे।।
मन-वांछित फल पाते तुमसे, मुक्ति-सौख्य वरें।। ऊँ ह्रीं श्री 1008 संकटहरपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्री 1008 संकटहरपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्री 1008 संकटहरपार्श्वनाथजि नेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
अनादि काल के ताप-त्रय को कैसे नाश करूँ। जल अर्पण कर चरण-कमल में सारे पाप हरूँ।। ___ संकटहर श्री पार्श्वप्रभुजी जैनगिरीवासी।।
अद्भुत महिमा जगकल्याणी अष्टकर्मनासी।।1॥ ऊँ ह्रीं श्री 1008 संकटहरपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
देह-ताप से मनस्ताप है अति दुष्कर भाई। चंदन-चर्चत तव चरणों में कर्म नाश होजाई।।
संकटहर श्री पार्श्वप्रभुजी जैनगिरीवासी।
अद्भुत महिमा जगकल्याणी अष्टकर्मनासी।। 2॥ ऊँ ह्रीं श्री 1008 संकटहरपार्श्वनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षय तंदुल अक्षय-पद के कारण बन जाते। अक्षय-रिद्धि सिद्धि पाकर सब आत्मसिद्धि पाते।।
संकटहर श्री पार्श्वप्रभुजी जैनगिरीवासी।
अद्भुत महिमा जगकल्याणी अष्टकर्मनासी।। 3।। ऊँ ह्रीं श्री 1008 संकटहरपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
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विषयवासना से पीड़ित जन कमलपुष्प लाये। पार्श्वचरण पर अर्पित करके आत्मसौख्य पाये॥
संकटहर श्री पार्श्वप्रभुजी जैनगिरीवासी । अद्भुत महिमा जगकल्याणी अष्टकर्मनासी ॥ 4॥
ऊँ ह्रीं श्री 1008 संकटहरपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाण - विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
भूख-प्यास की बाधा जग में सब जीवों को है। इसे मिटाने तव चरणों मे नेवज अर्पण है ।।
संकटहर श्री पार्श्वप्रभुजी जैनगिरीवासी । अद्भुत महिमा जगकल्याणी अष्टकर्मनासी ॥ 5॥
ऊँ ह्रीं श्री 1008 संकटहरपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सकलजगत में मोहमहातम मिथ्यातम छाया ।
घृत दीपक से पूजा करके, ज्ञान-रतन पाया। संकटहर श्री पार्श्वप्रभुजी जैनगिरीवासी ।
अद्भुत महिमा जगकल्याणी अष्टकर्मनासी॥ 6॥
ऊँ ह्रीं श्री 1008 संकटहरपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप अग्नि में खेकर प्रभुजी अष्टकर्म नश जाय। कर्म जो दुःख देते उनके क्षय का सुगम उपाय ।। संकटहर श्री पार्श्वप्रभुजी जैनगिरीवासी । अद्भुत महिमा जगकल्याणी अष्टकर्मनासी ॥ 7॥
ऊँ ह्रीं श्री 1008 संकटहरपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म - दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
फल पाने मैं फल लेकर के पार्श्वचरण आया। मोक्षमहाफल पाकर मैंने मनवांछित पाया ।। संकटहर श्री पार्श्वप्रभुजी जैनगिरीवासी । अद्भुत महिमा जगकल्याणी अष्टकर्मनासी॥ 8॥
ॐ ह्रीं श्री 1008 संकटहरपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
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जलगंधाक्षत पुष्प चरूवर दीप धूप और फल। पार्श्वचरण में अध्य चढ़ाकर जीवन बने सफल || संकटहर श्री पार्श्वप्रभुजी जैनगिरीवासी ।
अद्भुत महिमा जगकल्याणी अष्टकर्मनासी॥ 9॥
ॐ ह्रीं श्री 1008 संकटहरपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शान्तिधारा पार्श्वचरण में, शांतिधारा जग शान्ति कर दो। शान्तिदाता पारस-मणिसम रसमय जीवन दो ||
संकटहर श्री पार्श्वप्रभुजी जैनगिरीवासी । अद्भुत महिमा जगकल्याणी अष्टकर्मनासी ॥ ॥
शान्तये शान्तिधारा... पुष्पांजलि
पुष्पांजलि सुरभित पुष्पों से महक जाय जीवन। पुष्प - सुकोमल - सम निर्मल मम हो जाये ये मन।। संकटहर श्री पार्श्वप्रभुजी जैनगिरीवासी । अद्भुत महिमा जगकल्याणी अष्टकर्मनासी ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत्......
जयमाला
पार्श्वनाथ जयमाल में गुणगाण का मैं करूँ बखान। अल्प-शक्ति हूँ अल्प ज्ञानीहूँ, भक्त छोटा सा नादान ।। संकटहर श्री पार्श्वप्रभु, तुम गुण की जयमाला पढता ।
काशी राजा अश्वसेन, वामादेवी थी तव माता । वैशाख वदी दुतिया को तव माता ने गर्भ शुभ पाया था। और पौषवदी एकादशी को शुभ जन्म प्रभु ने पाया था ।। परिनिष्क्रमण तप जन्म तिथि में घोर महातप तपते थे। दैत्यकमठ उपसर्ग किया, तुम शान्त हृदय से सहते थे।।
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धरणेन्द्र-पद्मावती आकर के उपसर्ग निवारण कर दीना। चैत्य कृष्ण की चतुर्थ तिथि को, केवलज्ञान को पा लीना।। केवल दिव्यध्वनि से प्रभु ने समवशरण उपदेश दिया। और धर्म अहिंसा सत्य महाव्रत अनेकांत को सुना दिया।। अनंत-चतुष्टय-धारी प्रभु ने अनंतगुणों को पा लीना। लोकालोक प्रकाशित करके नवलब्धि से था जीना।। श्रावण सुदी मुकुटसप्तमी से अष्टकर्म को नष्ट किया। सम्मेदशिखर पर्वत ऊपर से मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त किया।। संकटहर पारस की महिमा मैं कहाँ तक कह सकता हूँ। तुम अनन्त-गुण-सम्पन्न कहाते, मैं प्रभु अल्पज्ञानी हूँ।। ___ औरंगाबाद शहर के उत्तर में, जटवाड़ा ग्राम है। मनमोहक प्रतिमा अतिसुंदर प्रभु बना तुम्हारा धाम है।। शेखनूर था कोई एक भव्य, घर की नीव खोदने लगा। तलघर अन्दर सुन्दर मूर्ति को, देख-देख मन हर्षाया।।
सोनाबाई जैनसमाज का सपना आज साकार हुआ। पर्युषण पर्व की ऋषिपंचमी को साक्षात् धर्म अवतार हुआ।। जय-जयकार हुआ था जटवाड़ा में भक्तों की भीड़ जमा पायी। महावीर कीर्ति मुनि आर्यनंदी की भविष्य वाणी अब सत्य हुयी।।
जयभद्र मुनि देवनन्दि ने चातुर्मास संकल्प किया।
क्षेत्रोद्धार समाजोद्धार कर जन-जन का उद्धार किया।। प्रभु तेरी महमा अगम्य कही मैं, गुणगान कहाँ तक कर सकता।
संकट हरने वाले हो तुम हो, विश्वशान्ति के वरदाता।। तुम राग-जीत तुम द्वेष-जीत तुम अक्ष-जीत कहलाते हो। तुम काम-जीत तुम लोभ-जीत तुम मानव-जीत कहलाते हो।। तुम जगत-ध्येय तुम सत्य ध्यान तुम ही उत्तम सुध्याता हो। तुम समदर्शी समताधारी तुम अतुल सौख्य-सुखदाता हो। जो भक्त तुम्हारा नाम जपे और चालीसा का पाठ करे। संकटकर सुख-समृद्धि पाकर मनवांछित भंडार भरे।।
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नहीं अतिशयोक्ति है इसमें, इक नाग जब कभी आता है। दर्शन ले जाप जपे मन में वह नाच-नाच हर्षाता है।।
घंटो ध्यान लगाता है, जब भक्त देखने आते हैं। यह दृश्य देख-देख कर जनता, अपने कर्म नशाते हैं।। हे संकटहर मम संकट हर लो अब देर न मेरी बार करो। तव चरणों में है जीवन अर्पित, मेरा बेड़ा पार करो।। देवनंदि गुण गाता है तब चरणों में शीश झुकाता है।
रत्नत्रयमय जैन धर्म की मंगलभावना भाता है।। पारसनाथ की जयमाला का जो करते नित पाठ।
सुखसम्पत्ति पाकर सदा हरते कर्मक्षय आठ।। ॐ ह्रीं श्री 1008 संकटहरपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
तीन-लोक-चूडामणि, सिद्ध शील जयवंत। संकटकर सुखसम्पत्ति करो, तुम्हें नमे नित सन्त।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (कलिकुण्ड) (अडिल्ल छन्द ) हूंकार अक्षरात्मक देव जो ध्यावते। देव-मनुष-पशु-कृत सो व्याधि नशवते।।
कांसी तांबे पत्र पे शुद्ध लिखावते। केशर चन्दन ता पर गंध रचावते।।
(दोहा)
ऐसे अनुपम यंत्र को, मन-वच-काय संभाराजे भवि पूजें प्रीति-धर, हों भवदधि से पार।।
यंत्र स्थापना (चाल जोगीरासा) है महिमा को थान शुद्ध वर-यंत्र कलिकुण्ड जानो। डाकिनी शाकिनी अगनि चोर भय नाशत सब दुख खानो।। नव-ग्रहों का सब दख नाशो रवि शनि आदि पिछानो।
तिनका मैं स्थापन करहं त्रिविधि योग मन लानो।। ऊँ ह्रीं श्रीं अहँ कलिकुण्ड-दण्ड श्रीपार्श्वनाथ धरणेन्द्र-पद्मावती-सेवित अतुलबल-वीर्य-पराक्रम-युक्त
सर्वविघ्न-विनाशक! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्) ऊँ ह्रीं श्रीं अहँ कलिकुण्ड-दण्ड श्रीपार्श्वनाथ धरणेन्द्र-पद्मावती-सेवित अतुलबल-वीर्य-पराक्रम-युक्त
सर्वविघ्न-विनाशक! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीं अहँ कलिकुण्ड-दण्ड श्रीपार्श्वनाथ धरणेन्द्र-पद्मावती-सेवित अतुलबल-वीर्य-पराक्रम-युक्त
सर्वविघ्न-विनाशक! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
अथाष्टक (छंद त्रिभंगी) गंगा को नीरं अति ही शीरं गंध-गहीरं मेल सही। भरि कंचन-झारी आनंद धारी धार करो मन प्रीति लही।। कलिकुण्ड-सुयंत्रं पढ़ कर मंत्रं ध्यावत जे भविजन ज्ञानी।
सब विपति विनाशै, सुख परकाशै, होवै मंगल सुखदानी।।1।। ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह कलिकुण्ड-दण्ड श्रीपार्श्वनाथाय धरणेन्द्र-पद्मावती-सेविताय अतुल-बलवीर्यपराक्रममाय सर्वविघ्न-विनाशनाय हाल्व्यूं भम्ल्यूं मम्ल्यूं म्यूं म्ल्यूं झम्ल्यू स्म्ल्यूं खम्ल्यू
जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
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क्षीरोदधिनन्दन मलया चन्दन केशर और कपूर घसो। भर सुवरण कलशा मन अति हुलसा भय वा ताप का दुःख नशो।।
कलिकुण्ड-सुयंत्रं पढ़ कर मंत्रं ध्यावत जे भविजन ज्ञानी।
सब विपति विनाशै, सुख परकाशै, होवै मंगल सुखदानी।।2।। ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह कलिकुण्ड-दण्ड श्रीपार्श्वनाथाय धरणेन्द्र-पद्मावती-सेविताय अतुल-बलवीर्यपराक्रममाय सर्वविघ्न-विनाशनाय हाल्व्यूं भल्वयूँ मल्वयूँ म्द्व्यूं धल्व्यू झझल्व्यूं स्म्ल्यूं
ख्म्ल्यूं चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शशि-सम उजियारो तंदुल प्यारो अणि शुध इकसारो जुगलेवो। हो गंध मनोहर रतन-थार भर पुंज सु कर मद तज देवो।।
कलिकुण्ड-सुयंत्रं पढ़ कर मंत्रं ध्यावत जे भविजन ज्ञानी।
सब विपति विनाश, सुख परकाशै, होवै मंगल सुखदानी।। 3।। ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहँ कलिकुण्ड-दण्ड श्रीपार्श्वनाथाय धरणेन्द्र-पद्मावती-सेविताय अतुल-बलवीर्यपराक्रममाय सर्वविघ्न-विनाशनाय हाल्व्यूं भल्व्यूं मल्व्यूं म्न॒यूं धम्ल्यू झम्ल्यू स्म्ल्यूं खम्ल्यूं
अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
बहु फूल सुवासं मधुकर-राशं करके आसं आवत हैं। सुरतरु के लावो पुण्य बढ़ावो काम-व्यथा नश जावत हैं।।
कलिकुण्ड-सुयंत्रं पढ़ कर मंत्रं ध्यावत जे भविजन ज्ञानी।
सब विपति विनाश, सुख परकाशै, होवै मंगल सुखदानी।। 4।। ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहँ कलिकुण्ड-दण्ड श्रीपार्श्वनाथाय धरणेन्द्र-पद्मावती-सेविताय अतुल-बलवीर्यपराक्रममाय सर्वविघ्न-विनाशनाय हाल्व्यूं मल्व्यूं मम्ल्यूं म्यूं धल्व्यू झम्ल्यू स्म्ल्ज्यूं
ख्म्ल्यूं पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
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पकवान बनाये बहु घृत लाये खांड-पगाये मिष्ट करे। मन आनन्द धारें मंत्र उचारें क्षुधा-रोग तत्काल टरे।। कलिकुण्ड- सुयंत्र पढ़ कर मंत्र ध्यावत जे भविजन ज्ञानी । सब विपति विनाशै, सुख परकाशै, होवै मंगल सुखदानी ।। 5 । ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं कलिकुण्ड-द ड-दण्ड श्रीपार्श्वनाथाय धरणेन्द्र- पद्मावती-सेविताय अतुल - बलवीर्यपराक्रममाय सर्वविघ्न-विनाशनाय हम्ल्क्र्यूं म्ल्क्र्यूं म्म्ल्त्र्यं म्ल्क्र्यूं म्ल्क्र्यूं इम्ल्क्र्यूं स्म्ल्क्र्यूं
ख्क्ल्क्र्यूं नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रतनन की जोतं अति उद्योतं तन क्षय होतं ज्ञान बढ़े।
अति ही सुख पावे पाप नशावे जो मन लावे पाठ पढ़े।। कलिकुण्ड-सुयंत्रं पढ़ कर मंत्र ध्यावत जे भविजन ज्ञानी । सब विपति विनाशै, सुख परकाशै, होवै मंगल सुखदानी ॥6॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं कलिकुण्ड-दण्ड श्रीपार्श्वनाथाय धरणेन्द्र- पद्मावती-सेविताय अतुल बलवीर्यपराक्रममाय सर्वविघ्न-विनाशकनाय हम्ल्क्र्यूं म्म्ल्क्र्यूं म्द्र्यूं ल्त्र्यूं इम्ल्क्र्यूं स्म्ल्क्र्यूं ख्म्क्र्यू दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन कर्पूरं अगर सुचू लौंगादिक दश-गंध मिला।
वर धूप बनाकर अगनि मांहि धर, दुष्ट कर्म तत्काल जल।।
कलिकुण्ड-सुयंत्रं पढ़ कर मंत्र ध्यावत जे भविजन ज्ञानी ।
सब विपति विनाशै, सुख परकाशै, होवै मंगल सुखदानी ॥ 7 ॥
ॐ श्रीं क्लीं ऐं अर्हं कलिकुण्ड-दण्ड श्रीपार्श्वनाथाय धरणेन्द्र-पद्मावती-सेविताय अतुल-बलवीर्यपराक्रममाय सर्वविघ्न-विनाशनाय हम्ल्क्र्यूं म्ल्क्र्यूं म्म्ल्क्र्यूं म्यूं म्ल्त्र्यूं इम्ल्त्र्यूं स्म्ल्क्र्यूं म्यूं धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
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खर्जून मंगावो श्रीफल लावो दाख अनार बदाम खरे। पुंगीफल प्यारे मन सुखकारे अन्तराय विधि दूर करे || कलिकुण्ड-सुयंत्रं पढ़ कर मंत्र ध्यावत जे भविजन ज्ञानी । सब विपति विनाशै, सुख परकाशै, होवै मंगल सुखदानी ॥ 8 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं कलिकुण्ड-दण्ड श्रीपार्श्वनाथाय धरणेन्द्र-पद्मावती-सेविताय अतुल-बलवीर्यपराक्रममाय सर्वविघ्न-विनाशनाय हम्ल्क्र्यूं म्ल्क्र्यूं म्म्ल्क्र्यूं म्ल्क्र्यूं म्ल्त्र्यूं इम्ल्क्र्यूं स्म्ल्क्र्यूं ख्म्ल्क्र्यूं फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंध सुधारा तंदुल प्यारा पुष्प चरू ले दीप भली। दश धूपसुरंगी फल ले अभंगी करो अर्घ उर हर्ष रली | कलिकुण्ड- सुयंत्र पढ़ कर मंत्र ध्यावत जे भविजन ज्ञानी । सब विपति विनाशै, सुख परकाशै, होवै मंगल सुखदानी ॥ 9 ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं कलिकुण्ड- दण्ड श्रीपार्श्वनाथाय धरणेन्द्र-पद्मावती-सेविताय अतुल-बलवीर्यपराक्रममाय सर्वविघ्न-विनाशनाय हम्ल्क्र्यूं म्ल्क्र्यूं म्म्ल्क्र्यूं म्द्र्यूं म्ल्त्र्यूं इम्ल्त्र्यं स्म्ल्त्र्यूं ख्म्ल्क्र्यूं अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
सर्वज्ञ परम गुण-सागर हैं, तिन पद के हरि सब चाकर हैं। सब विघ्न विनाशक सुखकर हैं, कलिकुन्ड -सुयंत्र नमूँ वर हैं। 1 । नित्य ध्यान करें जो मन ला, वर पूज रचें कर यंत्र भला। सब विघ्न विनाशक सुखकर हैं, कलिकुन्ड - सुयंत्र नमूँ वर हैं। 2 । तिनके घर ऋद्धि अनेक भरें, मन-वांछित कारज सर्व सरें । सब विघ्न-विनाशक सुखकर हैं, कलिकुन्ड - सुयंत्र नमूँ वर हैं। 3 । सुर-वंदित हैं तिनके चरणं, उर धर्म बढ़े अघ को हरणं।
सब विघ्न-विनाशक सुखकर हैं, कलिकुन्ड - सुयंत्र नमूँ वर हैं। 4 । भय चोर, अगनि, जल, सांप मही, सब व्याधि नशें छिन में जु सही सब विघ्न-विनाशक सुखकर हैं, कलिकुन्ड - सुयंत्र नमूँ वर हैं। 5 ।
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सब बन्ध खुले छिन मांहि लखो, अरि मित्र होंय गुरु सांच अखो। सब विघ्न-विनाशक सुखकर हैं, कलिकुन्ड-सुयंत्र नमूं वर हैं।6।
अतिसर संग्रहणी रोग नसें, बंझा नारी लह पुत्र हँसें। सब विघ्न-विनाशक सुखकर हैं, कलिकुन्ड-सुयंत्र नमूं वर हैं।7।
सब दूर अमंगल हेय जान, सुख-संपत दिन-दिन बढ़त मान। सब विघ्न-विनाशक सुखकर हैं, कलिकुन्ड-सुयंत्र नमूं वर हैं।8। इस यंत्र की जे पूजा करंत, सुर-नर सुख लह हों मुकति-कंत।
सब विघ्न-विनाशक सुखकर हैं, कलिकुन्ड-सुयंत्र नमूं वर हैं। ऊँ ह्रीं क्लीं ऐं अहँ कलिकुण्ड-दण्ड श्रीपार्श्वनाथाय धरणेन्द्रपद्मावती-सेविताय अतुलबलवीर्य-पराक्रम
सर्वविघ्न-विनाशनाय महायँ निर्वपामीति स्वाहा।
जाप्य मंत्र ॐ ह्रीं क्लीं ऐं अहँ श्रीपार्श्वनाथाय धरणेन्द्र-पद्मावती-सेवित ममेप्सितं कार्यं कुरु कुरु स्वाहा।
नागेंद्र प्रभु के चरण नमते मुकुट-प्रभा महा बढ़ी। बढ़ो पुण्य अपार सब दुखकार अघ-प्रकृति घटी।।
ध्याये श्री कलिकुण्ड-दण्डप्रचण्ड पारसनाथ जी। तिनकी सुनो जयमाल भविजन कहूँ नवा के माथ जी।1।
त्रोटक छंद विधि घाति हनो वर ज्ञान लहो, सब ही पदार्थ को भेद कहो। नित यंत्र नमूं कलिकुण्ड सार, सब विघ्न-विनाशन सुक्खकार।2। ___ कुमती वसु-मान विनाशत हैं, मुकति का मारग भाषत हैं। नित यंत्र नमूं कलिकुण्ड सार, सब विघ्न-विनाशन सुक्खकार।3।
दर्गति मारग का नाश करे, एकांत-मिथ्यात विवाद हरे। नित यंत्र नमूं कलिकुण्ड सार, सब विघ्न-विनाशन सुक्खकार।4। ___ निराकुल निर्मल शील धरे, निर्मेल मुक्त-लक्ष्मी को वरे। नित यंत्र नमूं कलिकुण्ड सार, सब विघ्न-विनाशन सुक्खकार।5।
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नहीं क्रोध मान छल लोभ पाप, अष्टादश दोष-विमुक्त आप। नित यंत्र नमूं कलिकुण्ड सार, सब विघ्न-विनाशन सुक्खकार।6।
हैं अजर अमर गुण के भंडार, सब विघ्न-विनाशक परम सार। नित यंत्र नमूं कलिकुण्ड सार, सब विघ्न-विनाशन सुक्खकार। 7।
नागेंद्र नरेन्द्र सुरेंद्र आय, नमिहें आनन्दित चित्त लाय। नित यंत्र नमूं कलिकुण्ड सार, सब विघ्न-विनाशन सुक्खकार।8।
दिनेंद्र मुनींद्र निशन्द्र आय पूजत नित मनमें हर्ष धार। नित यंत्र नमूं कलिकुण्ड सार, सब विघ्न-विनाशन सुक्खकार।9। घत्ता छन्द- सब पाप-निवारण, संकट-टारण, कलिकुण्ड प्रभु पारस परचंड
जग में यश पावै, संपति आवै, लहैं मुक्ति जो सुख अखण्ड।।
प्रतिदिन जो वन्दें, मन आन हों बलवन्त पाप सब दूर।। सबविघ्न विनाश लहैं सुख-संपति दुष्टकर्म होवें चकचूर।10।
श्री पारसस्वामी अन्तर्यामी, ध्यान लगायो वन मांही। चर कमठ जु आयो क्रोध बढ़ायो उपसर्ग जु कीनी अधिकाई।।
जिन मेरु समाना अचल महाना लख नागेंद्र ने पूज कियो। सुर फण-मंडप कीनो सुरबल हीनो है प्रभु को निज-शीश नयो।।11। सोरठा- पूजन ये सुखकारा, जे भवि करि हैं प्रीतिधर।
विधि बलवंत अपार, हन-हन शिव सुख को लहैं।।
जाप 1. ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहँ कलिकुण्ड श्रीपार्श्वनाथ धरणेंद्र-पद्मावती-सेवित अतुल-बलवीय/- पराक्रम
ममात्मविद्यां रक्ष रक्ष पर-विद्यां छिंद छिंद भिंद भिंद स्फ्रां स्फ्री स्फूं स्फ्रौं स्फ्र:हूं फट्! स्वाहा। 2. ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहँ श्रीपार्श्वनाथ धरणेंद्र-पद्मावती-सेवित ममेप्सितं कार्यं कुरु कुरु स्वाहा।2।
3. ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहँ कलिकुण्ड-दण्ड-स्वामिन्नतुल-बलवीर्य-पराक्रम ममात्मविद्यां रक्ष रक्ष पर-विद्यां छिंद छिंद भिंद भिंद स्फ्रां स्फ्रीं स्फूं स्फ्रौं स्फ्रः हूं फट् स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि॥ ।
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श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (रचयिता - श्री राजमल जी)
तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ प्रभु के चरणों में करूँ नमन।
अश्वसेन के राजदुलारे वामा देवी के नन्दन।। बाल ब्रह्मचारी भवतारी योगीश्वर जिनवर बन्दन।
श्रद्धा भाव विनय से करता श्री चरणों का मैं अर्चन।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
समकित जल से जो अनादि की मिथ्या भ्रान्ति हटाऊँ मैं। निज अनुभव से जनम मरण का अंत सहज पा जाऊँ मैं।।
चिन्तामणि प्रभु पार्श्वनाथ की पूजन कर हर्षाऊँ मैं।
संकटहारी मंगलकारी श्री जिनवर-गुण गाऊँ मैं।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
तन की तपन मिटाने वाला चन्दन भेंट चढ़ाऊँ मैं। भव आताप मिटाने वाला समकित चन्दन पाऊँ मैं।। चिन्तामणि प्रभ पार्श्वनाथ की पजन कर हर्षाऊँ मैं।
संकटहारी मंगलकारी श्री जिनवर-गुण गाऊँ मैं।। 2। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा
अक्षत चरण समर्पित करके निज स्वभाव में आऊँ मैं। अनुपम शान्त निराकुल अक्षय अविनश्वर पद पाऊँ मैं।।
चिन्तामणि प्रभु पार्श्वनाथ की पूजन कर हर्षाऊँ मैं।
संकटहारी मंगलकारी श्री जिनवर-गुण गाऊँ मैं।। 3।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
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अष्ट- अंगयुक्त सम्यक् दर्शन पाऊँ पुष्प चढाऊँ मैं। कामबाण विध्वंस करूँ निज शील स्वभाव सजाऊँ मैं ।।
चिन्तामणि प्रभु पार्श्वनाथ की पूजन कर हर्षाऊँ मैं। संकटहारी मंगलकारी श्री जिनवर - गुण गाऊँ मैं॥ 4॥
ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाण - विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
इच्छाओं की भूख मिटाने सम्यक्-पथ पर आऊँ मैं। समकित का नैवेद्य मिले तो क्षुधा-रोग हर पाऊँ मैं।। चिन्तामणि प्रभु पार्श्वनाथ की पूजन कर हर्षाऊँ मैं। संकटहारी मंगलकारी श्री जिनवर - गुण गाऊँ मैं || 5 || ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मिथ्यातम के नाश-हेतु यह दीपक तुम्हें चढ़ाऊँ मैं। समकित-दीप जले अन्तर में ज्ञान - ज्योति प्रगटाऊँ मैं ।। चिन्तामणि प्रभु पार्श्वनाथ की पूजन कर हर्षाऊँ मैं। संकटहारी मंगलकारी श्री जिनवर - गुण गाऊँ मैं || 6
ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
समकित-धूप मिले तो भगवान् शुद्ध भाव में आऊँ मैं। भाव शुभाशुभ धूम्र बन उड़ जायें धूप चढ़ाऊँ मैं।।
चिन्तामणि प्रभु पार्श्वनाथ की पूजन कर हर्षाऊँ मैं।
संकटहारी मंगलकारी श्री जिनवर - गुण गाऊँ मैं || 7 ||
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
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उत्तम फल चरणों में अर्पित आत्म-ध्यान ही ध्याऊँ मैं। समकित का फल महामोक्ष-फल प्रभु अवश्य पा जाऊँ मैं।।
चिन्तामणि प्रभु पार्श्वनाथ की पूजन कर हर्षाऊँ मैं।
संकटहारी मंगलकारी श्री जिनवर-गुण गाऊँ मैं।। 8।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्ट कर्म क्षय-हेतु अष्ट द्रव्यों का अर्घ्य बनाऊँ मैं। अविनाशी अविकारी अष्टम-वसुधापति बन जाऊँ मैं।। चिन्तामणि प्रभु पार्श्वनाथ की पूजन कर हर्षाऊँ मैं।
संकटहारी मंगलकारी श्री जिनवर-गुण गाऊँ मैं।। 9॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक प्राणत-स्वर्ग त्यागाआये माता वामा के उर श्रीमान। कृष्ण दूज बैसाख सलोनी सोलह स्पप्न दिखे छविमान।।
पन्द्रह मास रत्न बरसे नित मंगलमयी गर्भ कल्याण।
जय-जय पार्श्व जिनेश्वर प्रभु परमेश्वर जय-जय दया-निधान।। ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय वैशाखकृष्णा-द्वितीयायां गर्भकल्याणक-प्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पौष कृष्ण एकादशी को जन्मे, हुआ जन्म-कल्याण।
ऐरावत गजेन्द्र पर आये तब सौधर्म इन्द्र ईशान।। गिरि सुमेरु पर क्षीरोदधि से किया दिव्य अभिषक महान।
जय-जय पार्श्व जिनेश्वर प्रभु परमेश्वर जय-जय दया-निधान।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय पौषकृष्णा-एकादश्यां जन्मकल्याणक-प्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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बाल ब्रह्मचारी व्रतधारी उर छाया वैराग्य प्रधान। लौकान्तिक देवों ने आकर किया आपका जय-जय गान।।
पौष कृष्णा एकादशी को हुआ आपका तप-कल्याण।
जय-जय पार्श्व जिनेश्वर प्रभु परमेश्वर जय-जय दया-निधान।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय पौषकृष्णा-एकादश्यां तपोकल्याणक-प्राप्ताय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
कमठ जीव ने अहिक्षेत्र पर किया घोर उपसर्ग महान्। हुए न विचलित शुक्ल ध्यान धर श्रेणी चढ़े हुए भगवन्।।
चैत्र कृष्ण की चौथ हो गई पावन प्रगटा केवलज्ञान।
जय-जय पार्श्व जिनेश्वर प्रभु परमेश्वर जय-जय दया-निधान।। ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय चैत्रकृष्णा-चतुर्थ्यां ज्ञानकल्याणक-प्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन बने अयोगी हे भगवान्। अन्तिम शुक्ल-ध्यान धर सम्मेदाचल से पाया निर्वाण।।
कूट सुवर्णभद्र पर इन्द्रादिक ने किया मोक्ष-कल्याण।
जय-जय पार्श्व जिनेश्वर प्रभु परमेश्वर जय-जय दया-निधान।। ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय श्रावणशुक्ला-सप्तम्यां मोक्षकल्याणक-प्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला तेईसवें तीर्थंकर प्रभु परम ब्रह्ममय परम प्रधान। प्राप्त-महा-कल्याणक-पंच पार्श्वनाथ प्राणतेश्वर प्राण।1। वाराणसी नगर अति सुन्दर विश्वसेन नृप परम उदार। ब्राह्मी देवी के घर जन्मे जग में छाया हर्ष अपार।2। मति श्रुति अवधि ज्ञान के धारी बाल ब्रह्मचारी विभुवान। अल्प आयु में दीक्षा धर के पंच-महाव्रत धरे महान।3।
चार मास छदमस्थ मौन रह वीतराग अर्हन्त हुए। आत्म ध्यान के द्वारा प्रभु सर्वज्ञ देव भगवन्त हुए।4। बैरी कमठ जीव ने तुमको नौ भव तक दुख पहुँचाया।
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इस भव में भी संवर सुर हो महा विघ्न करने आया।5।
किया अग्निमय घोर उपद्रव भीषण झंझावात चला। जल प्लावित हो गया धरा पर ध्यान आपका नहीं हिला।6।
यक्षी-पद्मावती यक्ष-धरणेन्द्र विघ्न हरने आये पूर्व जन्म के उपकारों से हो कृतज्ञ तत्क्षण आये।7। प्रभु-उपसर्ग निवारण के हित शुभ परिणाम हृदय छाये। फण-मण्डप अरु सिंहासन रच जय जय जय प्रभु गुण गाये।8।
देव आपने साम्य-भाव धर निज-स्वरूप को प्रगटाय। उपसर्गों पर जय पाकर प्रभु निज केवल-स्वपद पाया।9। कमठ जीव की माया विनशी वह भी चरणों में आया। समवशरण रचकर देवां ने प्रभु का गौरव प्रगटाया।10। जगत-जनों को ओंकार-ध्वनिमय प्रभु ने उपदेश दिया। शुद्ध-बुद्ध भगवान् आत्मा सबको है सन्देश दिया।11।
दश गणधर थे जिनमें पहले मुख्य स्वयंभु गणधर थे। मुख्य आर्यिका सुलोचना थी श्रोता महासेन वर थे।12। जीव, अजीव, आश्रव, संवर, बन्ध निर्जरा मोक्ष महान। ज्यों का त्यों श्रद्धान तत्त्व का सम्यक् दर्शन श्रेष्ठ प्रधान।13।
जीव तत्त्व तो उपादेय है, अरु अजीव तो है सब ज्ञेय। आस्रव, बन्ध हेय है साधन, संवर निर्जरा मोक्ष उपेय14।
सात तत्त्व ही पाप पुण्यमिल नव पदार्थ हो जाते हैं। तत्त्व-ज्ञान बिन जग के प्राणी भव-भव में दुख पाते हैं।15।
वस्तु-तत्त्व को जान स्वयं के आश्रय में जो आते हैं। आत्म-चितवन करके वे ही श्रेष्ठ मोक्ष-पद पाते हैं।16। हे प्रभु! यह उपदेश आपका मैं निज अन्तर में लाऊँ। आत्म-बोध की महाशक्ति से मैं निर्वाण स्वपद पाऊँ।
अष्ट कर्म को नष्ट करूँ मैं तुम समान प्रभु बन जाऊँ। सिद्ध-शिला पर सदा विराजूं निज-स्वभाव में मुस्काऊँ।18।
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इसी भावना से प्रेरित हो हे प्रभु! की है यह पूजन। तव प्रसाद से एक दिवस मैं पा जाऊँगा मुक्ति-सदन।191 ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा) सर्प-चिन्ह शोभित चरण, पार्श्वनाथ उर धार। मन, वच, तन जो पूजते, वे होते भव पार।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्रीपार्श्वनाथ जिन-पूजा (आर्यिका ज्ञानमती माता जी)
अथ स्थापना (तर्ज- गोमटेश जय गोमटेश मम हृदय विराजो....) __ पार्श्वनाथ जय पार्श्वनाथ, मम हृदय विराजोहम यही भावना भाते हैं, प्रतिक्षण ऐसी रुचि बनी रहे।
हो रसना में प्रभु नाममंत्र, पूजा में प्रीति घनी रहे।। हम यही भावना भाते हैं, प्रतिक्षण ऐसी रुचि बनी रहे।
हे पार्श्वनाथ आवो आवो, आह्वान आपका करते हैं। हम भक्ति आपकी कर-करके, सब दुख-संकट को हरते हैं।
प्रभु ऐसी शक्ति दे दीजे, गुण-कीर्तन में मति बनी रहे।।
हम यही भावना भाते हैं, प्रतिक्षण ऐसी रुचि बनी रहे। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
(अथ अष्टक) आवो हम सब करें अर्चना, पार्श्वनाथ भगवान् की। जिनकी भक्ति से प्रकटित हो, ज्योति आतम-ज्ञान की। ॥वंदे जिनवरम्-4।।
सुरगंगा का उज्ज्वल जल ले, प्रभु चरणों त्रयधार करूँ। पुनर्जन्म का त्रास दूर हो, इसीलिए प्रभु ध्यान धरूँ।।
भव-भव तृष्णा मिटाने वाली, पूजा जिन भगवान की।। जिनकी भक्ति से प्रकटित हो, ज्योति आतम-ज्ञान की॥ वंदे जिनवरम्-4।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
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आवो हम सब करें अर्चना, पार्श्वनाथ भगवान् की ।
जिनकी भक्ति से प्रकटित हो, ज्योति आतम-ज्ञान की|| || वंदे जिनवरम् - 4 ॥
मलयागिरि का शीतल चंदन, केशर-संग घिसाया है।
के
प्रभु चरणकमल में चर्चत, भव-संताप मिटाया है।। तन-मन को शीतल कर देती, अर्चा जिन भगवान् की। जिनकी भक्ति से प्रकटित हो, ज्योति आतम-ज्ञान की|| || वंदे जिनवरम् - 4 | ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब करें अर्चना, पार्श्वनाथ भगवान् की । जिनकी भक्ति से प्रकटित हो, ज्योति आतम-ज्ञान की|| || वंदे जिनवरम् - 4॥ चिन्मय परमानंद आतमा, नहीं मिला इन्द्रिय सुख में। प्रभु को अक्षत - पुंज चढ़ाते, सौख्य अखंडित हो क्षण में इन्द्र सभी मिल करें वंदना, प्रभु के अक्षयज्ञान की। जिनकी भक्ति से प्रकटित हो, ज्योति आतम-ज्ञान की|| || वंदे जिनवरम् - 4 | ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब करें अर्चना, पार्श्वनाथ भगवान् की ।
जिनकी भक्ति से प्रकटित हो, ज्योति आतम-ज्ञान की|| || वंदे जिनवरम् 4॥ रतिपति-विजयी पार्श्वनाथ को, पुष्प चढ़ाऊँ भक्ती से ।
निज-आत्मा की सुरभि पाप्त हो, निजगुण प्रगटे युक्ती से ब्रह्मर्षीसुर स्तुति करते, चिच्चैतन्य महान् की।
जिनकी भक्ति से प्रकटित हो, ज्योति आतम-ज्ञान की|| || वंदे जिनवरम् - 4 | ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाण - विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
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आवो हम सब करें अर्चना, पार्श्वनाथ भगवान् की ।
जिनकी भक्ति से प्रकटित हो, ज्योति आतम-ज्ञान की|| || वंदे जिनवरम् 4॥
मालपुआ रसगुल्ला बरफी, जिनवर निकट चढ़ाते ही नाना उदर-व्याधि विघटित हो, समरस तृप्ती प्रगटे ही || गणधर - मुनिवर भी गुण गाते, महिमा जिन भगवान् की । जिनकी भक्ति से प्रकटित हो, ज्योति आतम-ज्ञान की|| || वंदे जिनवरम् - 4॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब करें अर्चना, पार्श्वनाथ भगवान् की । जिनकी भक्ति से प्रकटित हो, ज्योति आतम-ज्ञान की|| || वंदे जिनवरम् - 4॥ केवल-ज्ञान-सूर्य हो भगवान्! मम अज्ञान हटा दीजे।
दीपक से मैं करूँ आरती, ज्ञान-ज्योति प्रगटित कीजे ।। चक्रवर्ति भी करें वंदना, अतिशय - ज्योतिर्मान की ।। जिनकी भक्ति से प्रकटित हो, ज्योति आतम-ज्ञान की|| || वंदे जिनवरम् - 4 | ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब करें अर्चना, पार्श्वनाथ भगवान् की । जिनकी भक्ति से प्रकटित हो, ज्योति आतम-ज्ञान की|| || वंदे जिनवरम् - 4 ॥ सुरभित-धूप धूपघट समें मैं, खेऊँ सुरभि गगन फैले।
कर्म भस्म हो जाएं शीघ्र ही, जो हैं अशुभ अशुचि मैले ।। सम्यग्दर्शन क्षायिक होवे, मिले राह उत्थान की ।।
जिनकी भक्ति से प्रकटित हो, ज्योति आतम-ज्ञान की|| || वंदे जिनवरम् - 4॥ ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
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आवो हम सब करें अर्चना, पार्श्वनाथ भगवान् की ।
जिनकी भक्ति से प्रकटित हो, ज्योति आतम-ज्ञान की|| || वंदे जिनवरम् - 4 ॥ अनन्नास मोसम्म नींबू, सेव संतरा फल ताजे ।
प्रभु के सन्मुख अर्पण करते, मिले मोक्षफल भव भाजें ॥
जिनवंदन से निजगुण प्रगटे, मिले युक्ति शिवधाम की। जिनकी भक्ति से प्रकटित हो, ज्योति आतम-ज्ञान की|| || वंदे जिनवरम् - 4 | ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब करें अर्चना, पार्श्वनाथ भगवान् की । जिनकी भक्ति से प्रकटित हो, ज्योति आतम-ज्ञान की|| || वंदे जिनवरम् - 4॥ जल गंधादिक अघ्य सजाकर, जिनवर चरण चढ़ा करके ।
रत्नत्रय अनमोल प्राप्त कर, बसूँ मोक्ष में जा करके।
इसी हेतु त्रिभुवन जनता भी, भक्ति करे भगवान् की॥
जिनकी भक्ति से प्रकटित हो, ज्योति आतम-ज्ञान की|| || वंदे जिनवरम् - 4॥
ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा)
कनक-भृंग में मिष्ट-जल, सुरगंगा-समवेत
जिनपद धारा करत ही, भव-जल को जल देत ।। 10 ॥ शांतये शांतिधारा।
वकुल कमल चंपा सुरभि, पुष्पांजलि विकिरं । मिले निजातम-संपदा, होवे भव-दुःख अंत॥11॥ दिव्यपुष्पांजलिः।
पंचकल्याणक
वंदन शत-शत बार है.
पार्श्वनाथ के चरण-कमल में, वंदन शत-शत बार है। जिनका गर्भ - कल्याणक जजते, मिले सौख्य-भंडार है ।।
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पार्श्वनाथ के चरण-कमल में, वंदन शत-शत बार है । विश्वसेन-पितु वामा-माता, तुमको पाकर धन्य हुए। तिथि वैशाख वदी तृतीया को, गर्भबसे जगवंद्य हुए ||
प्रभु का गर्भकल्याण पूजत, मिले निजातम सार है। पार्श्वनाथ के चरण-कमल में, वंदन शत-शत बार है। 1।।
ऊँ ह्रीं वैशाखकृष्णा-द्वितीयायां श्रीपार्श्वनाथजिन-गर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वंदन शत-शत बार है,
पार्श्वनाथ चरण-कमल में, वंदन शत-शत बार है। जिनका जन्मकल्याणक जजते, मिले सौख्य-भंडार है। पार्श्वनाथ के चरण-कमल में, वंदन शत-शत बार है । पौष कृष्ण ग्यारस तिथि उत्तम, वाराणसि में जन्म हुआ। श्री सुमेरु की पांडशिला पर, इन्द्रों ने जिन - न्हवन किया।। जो ऐसे जिनवर को जजते, हो जाते भव- पार हैं। । पार्श्वनाथ के चरण-कमल में, वंदन शत-शत बार है | 2 ||
ऊँ ह्रीं पौषकृष्णा-एकादश्यां श्रीपार्श्वनाथजिन- जन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वंदन शत-शत बार है,
पार्श्वनाथ के चरण-कमल में, वंदन शत-शत बार है । जिनका तपकल्याणक जजते, मिले सौख्य-भंडार है। पार्श्वनाथ के चरण-कमल में, वंदन शत-शत बार है || पौष वदी ग्यारस जाति-स्मृति, से बारह भावन भाया। विमलाभा पालकि में प्रभु को, बैठा अश्ववन पहुँचाया।।
स्वयं प्रभू ने दीक्षा ली थी, जजत मिले भव-पार है।। पार्श्वनाथ के चरण-कमल में, वंदन शत-शत बार है | 3 || ऊँ ह्रीं पौषकृष्णा-एकादश्यां श्रीपार्श्वनाथजिन - दीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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वंदन शत-शत बार है, पार्श्वनाथ के चरण-कमल में, वंदन शत-शत बार है। जिनका ज्ञानकल्याणक जजते, मिले सौख्य-भंडार है।। पार्श्वनाथ के चरण-कमल में, वंदन शत-शत बार है।
चैत्रवदी सुचतुर्थी प्रातः, देवदारु तरु के नीचे। कमठ किया उपसर्ग घोर तब, फणपति-पद्मावति पहुँचे।। जित-उपसर्ग केवली प्रभु का, समवसरण हितकार है।।
पार्श्वनाथ के चरण-कमल में, वंदन शत-शत बार है।।4।। ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णा-चतु,यां श्रीपार्श्वनाथजिन-केवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
वंदन शत-शत बार है, पार्श्वनाथ के चरण-कमल में, वंदन शत-शत बार है। जिनका मोक्षकल्याणक जजते, मिले सौख्य-भंडार है।। पार्श्वनाथ के चरण-कमल में, वंदन शत-शत बार है।।
श्रावण शुक्त सप्तमी पारस, सम्मेदाचल पर तिष्ठे। मृत्युजीत शिवकांता पायी, लोकशिखर पर जा तिष्ठे।
सौ इन्द्रों ने पूजा करके, लिया आत्म-सुखसार है।।
पार्श्वनाथ के चरण-कमल में, वंदन शत-शत बार है।5।। ऊँ ह्रीं श्रावणशुक्ला-सप्तम्यां श्रीपार्श्वनाथजिन-मोक्षकल्याणकाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्यपुष्पांजलिः।
जयमाला (शंशु छंद- तर्ज-चंदन सा वदन....) जय पार्श्वप्रभो! करुणासिंधो! हम शरण तुम्हारी आये हैं। जय-जय प्रभु के श्री चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।।टेक0॥
नाना महिपाल तपस्वी बन, पंचाग्नी-तप कर रहा जभी।
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प्रभु पार्श्वनाथ को देख क्रोधवश लकड़ी फरसे से काटी। तब सर्प-युगल उपदेश सुना, मर कर सुर-पद को पाये हैं।। जय-जय प्रभु के श्री चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।।1।।
यह सर्प-सर्पिणी धरणीपति, पद्मावति यक्षी हुए अहो। नाना मर शंबर ज्योतिष सुर, समकित बिन ऐसी गती अहो।।
नहिं बह किया प्रभु दीक्षा ली, सुर-नर-पशु भी हर्षाये है।। जय-जय प्रभु के श्री चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।।2।।
प्रभु अश्वबाग में ध्यान लीन, कमठासुर शंबर आ पहुंचा। क्रोधित हो सात दिनों तक बहु, उपसर्ग किया पत्थर वर्षा।। प्रभु स्वात्म-ध्यान में अविचल थे, आसन कंपते सुर आये हैं।। जय-जय प्रभु के श्री चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।।3।।
धरणेन्द्र व पद्मावती ने फण पर, लेकर प्रभु की भक्ति की। रवि-केवलज्ञान उगा तत्क्षण सुर समवसरण की रचना की।।
अहिच्छत्र नाम से तीर्थ बना, अगणित सुरगण हर्षाये हैं। जय-जय प्रभु के श्री चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।। 4।।
यह देख कमठचर शत्रु भी, सम्यक्त्वी बन प्रभु भक्त बने। मुनिनाथ स्वयंभू आदिक दश, गणधर थे ऋद्धीवंत घने।।
सोलह हजार मुनिराज प्रभू के, चरणों में शीश नाये हैं।। जय-जय प्रभु के श्री चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।।5।। गणिनी सुलोचना प्रमुख आर्यिका, छत्तिस सहस धर्मरत थीं। श्रावक इक लाख श्राविकायें, त्रय लाख वहाँ जिन-भाक्तिक थीं। प्रभु सर्प-चिन्ह तनु हरित-वर्ण, लखकर रवि-शशि शर्माये हैं।। जय-जय प्रभु के श्री चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।। 6।। नव हाथ तुंग सौ वर्ष आयु, प्रभु उग्र-वंश के भास्कर हो। उपसर्ग-जयी संकट-मोचन, भक्तों के हित करुणाकर हो।। प्रभु महा-सहिष्णु क्षमासिंधु, हम भक्ती करने आये हैं।।
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जय-जय प्रभु के श्री चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।। 7 । चौंतिस अतिशय के स्वामी हो, वर प्रातिहार्य हैं आठ कहे। आनन्त्य-चतुष्टय गुण छयालिस, फिर भी सब गुण आनन्त्य कहे ||
बस केवल ज्ञानमती हेतू, प्रभु तुम गुण गाने आये हैं।। जय पार्श्वप्रभो! करुणासिंधो ! हम शरण तुम्हारी आये हैं। जय-जय प्रभु के श्री चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं ।। 8 ।
(दोहा)
जो पूजें नित भक्ति से, पार्श्वनाथ पदपद्म
शक्ति मिले सर्वसहा, होवे परमानंद ||
ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
(शेरछंद)
जो भव्य पार्श्वनाथ का पूजन ये करे || वे आधि-व्याधि संकटादि कष्ट परिहरें ।। अतिशायि-पुण्यबंध से ईप्सित सफल करें।
सज्ज्ञानमती से अनन्त - संपदा वरें ||
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री रविव्रत पूजन
यह भविजन हितकार, सु रविव्रत जिन कही । करहु भव्यजन सर्व, सुमन देकें सही ॥ पूजों पाव जिनेन्द्र, त्रियोग लगायके । मिटैं सकल सन्ताप, मिलै निधि आयके ॥ मतिसागर इक सेठ, सु ग्रन्थन में कहो ।
भी यह पूजा कर आनन्द लहो ॥ तातें रविव्रत सार, सो भविजन कीजिये । सुख सम्पति संतान, अतुल निधि लीजिये ॥ प्रणम पाव जिनेश को, हाथजोड़ सिर नाय । परभव सुख के कारने, पूजा करूँ बनाय ॥
एतवार व्रत के दिना, ये ही पूजन ठान । ताफल सम्पत्ति को लहैं, निश्चय लीजे मान ॥
ॐ ह्रीं श्रीपार्शवनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । (इति आह्वाननम् )
ॐ ह्रीं श्रीपार्शवनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम् । (स्थापनम् ) ॐ ह्रीं श्रीपार्शवनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (सन्निधिकरणम्)
उज्ज्वल जल भरकें अतिलायो, रतन कटोरन माहीं । धार देत अति हर्ष बढ़ावत, जन्म जरा मिट जाहीं ॥ पारसनाथ जिनेश्वर पूजो, रविव्रत के दिन भाई । सुख सम्पत्ति बहु होय तुरतहीं, आनन्द मंगल दाई |
ॐ ह्रीं श्रीपार्रवनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
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मलयागिर केशर अति सुन्दर, कुंकुम रंग बनाई।
धारदेत जिन चरनन आगे, भव आताप नशाई ॥ पारसनाथ जिनेश्वर पूजो, रविव्रत के दिन भाई।
सुख सम्पत्ति बहु होय तुरतहीं, आनन्द मंगल दाई ॥ ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा
मोतीसम अति उज्ज्वल तंदल, लावो नीर पखारो। अक्षयपदके हेतु भावसों, श्रीजिनवर ढिग धारो ॥ पारसनाथ जिनेश्वर पूजो, रविव्रत के दिन भाई ।
सुख सम्पत्ति बहु होय तुरतहीं, आनन्द मंगल दाई ॥ ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
बेला अरु मचकुंद चमेली, पारिजात के ल्यावो । चुनचुन श्रीजिन अग्र चढ़ाऊँ, मनवांछित फल पावो ॥ पारसनाथ जिनेश्वर पूजो, रविव्रत के दिन भाई।
सुख सम्पत्ति बहु होय तुरतहीं, आनन्द मंगल दाई ॥ ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथजिनेन्द्राय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
बावर फेनी गुजिया आदिक, घृत में लेत पकाई । कंचन थार मनोहर भरके, चरनन देत चढ़ाई ॥
पारसनाथ जिनेश्वर पूजो, रविव्रत के दिन भाई।
सुख सम्पत्ति बहु होय तुरतहीं, आनन्द मंगल दाई ॥ ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
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मणिमय दीप रतनमय लेकर, जगमग जोति जगाई । जिनके आगे आरति करके, मोहतिमिर नजाई ॥ पारसनाथ जिनेश्वर पूजो, रविव्रत के दिन भाई । सुख सम्पत्ति बहु होय तुरतहीं, आनन्द मंगल दाई ॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्शवनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
चूरन कर मलयागिर चंदन, धूप दशांग बनाई । तट पावक में खेय भाव सों, कर्मनाश हो जाई ॥ पारसनाथ जिनेश्वर पूजो, रविव्रत के दिन भाई । सुख सम्पत्ति बहु होय तुरतहीं, आनन्द मंगल दाई | ॐ ह्रीं श्रीपार्शवनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्रीफल आदि बदाम सुपारी, भांति भांति के लावो । श्रीजिनचरन चढ़ाय हरषकर, तातें शिवफल पावो ॥ पारसनाथ जिनेश्वर पूजो, रविव्रत के दिन भाई । सुख सम्पत्ति बहु होय तुरतहीं, आनन्द मंगल दाई ॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्शवनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
जल गंधादिक अष्ट द्रव्य ले, अर्घ बनावो भाई । नाचत गावत हर्षभाव सों, कंचन थार भराई ॥
पारसनाथ जिनेश्वर पूजो, रविव्रत के दिन भाई ।
सुख सम्पत्ति बहु होय तुरतहीं, आनन्द मंगल दाई | ॐ ह्रीं श्रीपार्शवनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
गीतिका
मन वचन काय विशुद्ध करके, पार्शवनाथ सु पूजिये, जल आदि अर्घ बनाय भविजन, भक्तिवंत सु हूजिये |
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पूज्य पारसनाथ जिनवर, सकल सुखदातार जी, जे करत हैं नर नारि पूजा, लहत सौख्य अपार जी ॥ ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथजिनेन्द्राय पूर्णाघ निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला यह जग में विख्यात हैं पारसनाथ महान । तिन गुण की जयमालिका, भाषा करूँ बखान ॥ जय जय प्रणमों श्री पार्थव देव, इन्द्रादिक तिनकी करत सेव । जय जय सु बनारस जन्म लीन, तिहुँ लोक विर्षे उद्योत कीन ॥१॥ जय जिनके पितु श्री विश्वसेन, तिनके घर भये सुखचैन देन । जय वामा देवी मात जान, तिनके उपजे पारस महान ॥२॥
जय तीन लोक आनन्द देन, भविजन के दाता भये ऐन । जय जिनने प्रभु का शरण लीन,तिनकी सहाय प्रभुजी सो कीन ॥३॥
जय नाग नागिनी भये अधीन, प्रभु चरणन लाग रहे प्रवीन । तज देह देवगति गये जाय, धरणेन्द्र पद्मावति पद लहाय ॥४॥ जय अञ्जन चोर अधम अजान,चोरी तज प्रभु को धरो ध्यान । जय मृत्यु भये वह स्वर्ग जाय, ऋद्धी अनेक उनने सो पाय ॥५॥
जय मतिसागर इक सेठ जान, तिन अशुभकर्म आयो महान । तिनके सुत थे परदेश मॉहिं, उनसे मिलने की आश नांहिं ॥६॥
जय रविव्रत पूजन करी सेठ, ता फल कर सबसे भई भेंट । जिन-जिनने प्रभु का शरण लीन,तिन ऋद्धि सिद्धि पाई नवीन ॥७॥
जय रविव्रत पूजा करहिं जेय, ते सौख्य अनन्तानन्त लेय । धरणेन्द्र पद्मावति हुये सहाय,प्रभुभक्त जान तत्काल आय ॥८॥
पूजा विधान इह विधि रचाय, मन वचन काय तीनों लगाय। जो भक्ति भाव जयमाल गाय,सो ही सुख सम्पति अतुल पाय ॥९॥
बाजत मृदंग बीनादि सार, गावत नाचत नाना प्रकार । तन नन नन नन नन ताल देत,सन नन नन नन सुर भर सो लेत ॥
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ताथेई थेई थेई पग धरत जाय, छम छम छम छम घुघरू बजाय । जे करहिं निरत इह भाँत भाँत, ते लहहिं सुक्ख शिवपुर सुजात ॥
दोहा
रविव्रत पूजा पाश्व की, करै भविक जन जोय ।
सुख सम्पति इह भव लहै, आगे सुर पद होय । ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथजिनेन्द्राय पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा ।
अडिल्ल रविव्रत पाश्व जिनेन्द्र, पूज भवि मन धरें । भव भव के आताप, सकल छिन में टरें ॥
होय सुरेन्द्र नरेन्द्र, आदि पदवी लहे । सुख सम्पति सन्तान, अटल लक्ष्मी रहे ॥ फेर सर्व विधि पाय, भक्ति प्रभु अनुसरें । नानाविध सुख भोग, बहुरि शिवतिय वरें ॥
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।।
रविव्रत जाप्य मंत्र ॐ ह्रीं नमो भगवते चिंतामणि पाश्वनाथाय सप्तफण मण्डिताय श्री धरणेन्द्र पद्मावती-सहिताय मम्
ऋद्धि सिद्धिं वृद्धिं सौख्यं कुरु कुरु स्वाहा ।
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श्री पार्श्वनाथ जिनपूजन-1 (रचयिता - बख्तावरलाल)
गीता छन्द वर स्वर्ग प्राणत को विहाय, सुमात वामा सुत भये, अश्वसेन के पारस जिनेश्वर, चरन जिनके सुर नये । नौ हाथ उन्नत तन विराजै, उरग लच्छन पद लसैं,
थापूँ तुम्हें जिन आय तिष्ठो कर्म मेरे सब नसैं ॥ ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतरतु अवतरतु संवौषट् । (इति आह्वाननम्)
__ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम्) ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भवतु भवतु वषट् । (सन्निधिकरणम्)
अथाष्टक छन्द नाराच क्षीरसोम के समान अम्बुसार लाइए। हेमपात्र धारिक सु आपको चढ़ाइए। पार्शवनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा ।
दीजिये निवास मोक्ष भूलिए नहीं कदा ॥ ॐ ह्रीं श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय ज
य जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदनादि केशरादि स्वच्छ गंध लीजिए।
आपचरण चर्च मोहताप को हनीजिए । पाश्वनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा।
दीजिये निवास मोक्ष भूलिए नहीं कदा ॥ ॐ ह्रीं श्री पाश्वनाथ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।
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फेन चंद के समान अक्षतान् लाइ । चर्न के समीप सार पूंज को रचाइ पारवनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा । दीजिये निवास मोक्ष भूलिए नहीं कदा ॥
ॐ ह्रीं श्रीपार्शवनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
केवड़ा गुलाब और केतकी चुनाइए । धार चर्न के समीप काम को नसाइकें ॥ पारवनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा । दीजिये निवास मोक्ष भूलिए नहीं कदा ॥
ॐ ह्रीं श्रीपार्शवनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पाणि निर्वपामीति स्वाहा ।
घेवरादि बावरादि मिष्ठ सद्य में सनें । आप चर्ण अर्चक्षुधादि रोग को हनें ॥ पारवनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा । दीजिये निवास मोक्ष भूलिए नहीं कदा ॥
ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
लाय रत्न दीप को सनेह पूर के भरूँ । वातिका कपूर बारि मोह ध्वांत को हरूं ॥ पारवनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा ।
दीजिये निवास मोक्ष भूलिए नहीं कदा ॥
ॐ ह्रीं श्रीपार्शवनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
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धूप गंध लेय मैं सुअग्नि संग जारिये । तास धूप के सुसंग कर्म अष्ट वारिये ॥ पाश्वनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा।
दीजिये निवास मोक्ष भूलिए नहीं कदा ॥ ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
खारकादि चिर्भटादि रत्नथाल में भरूँ। हर्षधारिक जजू सुमोक्ष सौख्य को वरूँ ॥पार्शव. ॥ ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति ।
नीर गंध अक्षतान् पुष्प चरु लीजिये।
दीप धूप श्रीफलादि अर्घ तैं जजीजिये । पार्शवनाथ देव सेव आपकी करूँ सदा ।
दीजिये निवास मोक्ष भूलिए नहीं कदा ॥ ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घपद-प्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
पंचकल्याणक शुभ प्राणत स्वर्ग विहाये, वामा माता उर आये ।
वैशाख तनी दुति कारी, हम पूजें विघ्न निवारी ॥ ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णद्वितीयायां गर्भमंगलमण्डिताय श्रीपाश्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
जनमें त्रिभुवन सुखदाता, एकादशि पौष विख्याता ।
श्यामा तन अद्भत राजै, रवि कोटिक तेज सु लाजै ॥ ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां जन्ममंगलमण्डिताय श्रीपाश्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
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कलि पौष एकादशि आई, तब बारह भावन भाई।
अपने कर लोंच सु कीना, हम पूर्जे चरन जजीना ॥ ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां तपोमंगलमण्डिताय श्रीपाश्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
कलि चैत चतुर्थी आई, प्रभु केवल ज्ञान उपाई।
तब प्रभु उपदेश जु कीना,भवि जीवन को सुख दीना ॥ ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णचतुर्थ्यां केवलज्ञानमण्डिताय श्रीपाश्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
सित सावन सातैं आई, शिवनारि वरी जिनराई।
सम्मेदाचल हरि माना, हम पूर्ग मोक्ष कल्याना ॥ ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लसप्तम्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीपाश्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला पारसनाथ जिनेन्द्र तने वच, पौनभखी जरते सुन पाये। को सरधान लह्यो पद आन, भये पद्मावति शेष कहाये ॥ नाम प्रताप टरें संताप सु, भव्यन को शिवशर्म दिखाये । हो अश्वसेन के नंद भले, गुण गावत हैं तुमरे हरषाये ॥
दोहा
केकी -कंठ समान छवि, वपु उतंग नव हाथ । लक्षण उरग निहार पग, वंदौं पारसनाथ ॥
पद्धरि छन्द रची नगरी षट् मास अगार, बने चहुँ गोपुर शोभ अपार । सु कोट तनी रचना छवि देत, कंगूरन पै लहकैं बहुकेत ॥१॥
बनारस की रचना जु अपार, करी बहु भॉति धनेश तैयार। तहाँ विश्वसेन नरेन्द्र उदार, करें सुख वाम सु दे पटनार ॥२॥
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तज्यो तुम प्रानत नाम विमान, भये तिनके घर नंदन आन । तबै सुर इंद्र नियोगनि आय,गिरीन्द करी विधि न्हौन सुजाय ॥३॥
पिता घर सौंप गये निज धाम, कुबेर करै वसु जाम सुकाम । बढ़े जिन दोज मयंक समान, रमैं बहु बालक निर्जर आन ॥४॥
भये जब अष्टम वर्ष कुमार, धरे अणुव्रत महा सुखकार । पिता जब आन करी अरदास, करो तुम ब्याह वरो मम आस ॥ ५ ॥
करी तब नाहिं रहे जग चंद, किये तुम काम कषाय जु मंद ।
चढ़े गजराज कुमारन संग, सुदेखत गंगतनी सुतरंग ॥ ६ ॥ लख्यो इक रंक करै तपघोर, चहूँ दिशि अगनि बलै अति जोर । कहै जिननाथ अरे सुन भ्रात, करै बहुजीवन की मत घात ॥ ७ ॥
भयो तब कोप कहै कित जीव, जले तब नाग दिखाय सजीव । लख्यो यह कारण भावन भाय, नये दिव ब्रह्म-ऋषी सुर आय ॥ ८ ॥
तबहिं सुर चार प्रकार नियोग, धरी शिविका निजकंध मनोग। कियो वन माँहिं निवास जिनंद, धरे व्रत चारित आनंदकंद ॥९॥ ___ गहें तहँ अष्टम के उपवास, गये धनदत्त तने जु अवास। दियो पयदान महासुखकार, भई पन वृष्टि तहाँ तिह वार ॥१०॥ गये तब कानन मॉहिं दयाल, धर्यो तुम योग सबहि अघ टाल । तबै वह धूम सुकेतु अयान, भयो कमठाचर को सुर आन ॥११ ॥
करै नभ गौन लखे तुम धीर, जु पूरब बैर विचार गहीर । कियो उपसर्ग भयानक घोर, चली बहु तीक्षण पवन झकोर ॥१२॥
रह्यो दशहूँ दिश में तम छाय, लगी बहुअग्नि लखी नहिं जाय। सुरुण्डन के बिन मुण्ड दिखाय, पड़ें जल मूसलधार अथाय ॥ १३ ॥ ___ तबै पद्मावति कंत धनिंद, नये जुग आय तहाँ जिनचंद। भग्यो तब रंक सु देखत हाल, लह्यो तब केवलज्ञान विशाल ॥१४ ॥
दियो उपदेश महा हितकार, सुभव्यन बोध सम्मेद पधार । सुवर्णभद्र जू कूट प्रसिद्ध, वरी शिवनारि लही वसुरिद्ध ॥१५॥
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जूँ तुम चरन दोउ कर जोर, प्रभु लखिए अब ही मम ओर । कहै बखतावर रत्न बनाय, जिनेश हमें भव पार लगाय ॥ १६ ॥
घत्ता
जय पारस देवं सुरकृत सेवं, वंदत चरण सुनागपती । करुणा के धारी पर उपकारी, शिवसुखकारी कर्महती ॥१७॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्शवनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्घं निर्वपामि ।
अडिल्ल
जो पूजै मनलाय भव्य पारस प्रभु नित ही । ताके दुख सब जाय भीति व्यापै नहिं कित ही ॥ सुख संपत्ति अधिकाय पुत्र मित्रादिक सारे । अनुक्रमसौं शिव लहै, रतन इमि कहै पुकारे ॥
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री पार्श्वनाथ पूजन-2 (रचयिता - पुष्पेन्दु) हे पाश्वनाथ ! हे अश्वसेन-सुत, करुणासागर तीर्थंकर। हे सिद्धशिला के अधिनायक, हे ज्ञान-उजागर तीर्थंकर।।
हमने भावुकता में भरकर, तुमको हे नाथ पुकारा है। प्रभुवर ! गाथा की गंगा से, तुमने कितनों को तारा है।। हम द्वार तुम्हारे आये हैं, करुणा कर नेक निहारो तो।
मेरे उर के सिंहासन पर, पग धारो नाथ ! पधारो तो। ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवरत अवतर संवौषट् (इति आह्वाननम्) ।
ॐ ह्रीं श्रीपार्शवनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः। (स्थापनम्)। ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
मैं लाया निर्मल जलधारा, मेरा अंतर निर्मल कर दो। मेरे अंतर को हे भगवन्, शुचि-सरल भावना से भर दो।। मेरे इस आकुल-अंतर को, दो शीतल सुखमय शांति प्रभो।
अपनी पावन अनुकम्पा से, हर लो मेरी भव-भ्रांति प्रभो। ॐ ह्रीं श्री पार्शवनाथजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ! पास तुम्हारे आया हूँ, भव-भव संताप सताया हूँ। तव पद-चंदन के हेतु प्रभो ! मलयागिरि-चंदन लाया हूँ।। अपने पुनीत चरणाम्बुज की, हमको कुछ रेणु प्रदान करो।
हे संकटमोचन तीर्थंकर ! मेरे मन के संताप हरो।। ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथ जिनेन्द्राय संसारतार-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा॥
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प्रभुवर ! क्षणभंगुर वैभव को, तुमने क्षण में ठुकराया है। निज-तेज तपस्या से तुमने, अभिनव अक्षय-पद पाया है।। अक्षय हों मेरे भक्ति-भाव, प्रभु-पद की अक्षय-प्रीति मिले।
अक्षय प्रतीति रवि-किरणों से, प्रभु मेरा मानस-कुंज खिले।। ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा॥
यद्यपि शतदल की सुषमा से, मानस-सर शोभा पाता है। पर उसके रस में फँस मधुकर, अपने प्रिय-प्राण गँवाता है।। हे नाथ ! आपके पद-पंकज, भवसागर पार लगाते हैं।
इस हेतु आपके चरणों में, श्रद्धा के सुमन चढ़ाते हैं।। ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथ जिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥
व्यंजन के विविध समूह प्रभो ! तन की कुछ क्षधा मिटाते हैं। चेतन की क्षुधा मिटाने में प्रभु ! ये असफल रह जाते हैं। इनके आस्वादन से प्रभु, मैं संतुष्ट नहीं हो पाया हूँ।
इस हेतु आपके चरणों में, नैवेद्य चढ़ाने आया हूँ।। ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा॥
प्रभु दीपक की मालाओं से, जग-अधंकार मिट जाता है। ___ पर अंतर्मन का अंधकार, इनसे न दर हो पाता है। यह दीप सजाकर लाए हैं, इनमें प्रभु दिव्य-प्रकाश भरो।
मेरे मानस-पट पर छाए, अज्ञान-तिमिर का नाश करो। ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथ जिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा॥
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यह धूप सुगन्धित द्रव्यमयी, नभमंडल को महकाती है। पर जीवन-अघ की ज्वाला में, ईधन बनकर जल जाती है।। प्रभुवर इसमें वह तेज भरो, जो अघ को ईधन कर डाले।
हे वीर ! विजेता कर्मों के, हे मुक्ति-रमा वरने वाले।। ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।।
यों तो ऋतुपति ऋतु-फल से, उपवन को भर जाता है। पर अल्प-अवधि का ही झोंका, उनको निष्फल कर जाता है। दो सरस-भक्ति का फल प्रभुवर, जीवन-तरु तभी सफल होगा।
सहजानंद-सुख से भरा हुआ, इस जीवन का प्रतिफल होगा। ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा॥
पथ की प्रत्येक विषमता को, मैं समता से स्वीकार करूं। जीवन-विकास के प्रिय-पथ की, बाधाओं का परिहार करूँ।।
मैं अष्ट-कर्म-आवरणों का, प्रभुवर आतंक हटाने को।
वसु-द्रव्य संजोकर लाया हूँ, चरणों में नाथ चढ़ाने को। ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक-अर्ध्यावली वामादेवी के गर्भ में, आये दीनानाथ। चिर-सनाथ जगती हुई, सजग-समोद-सनाथ।। अज्ञानमय इस लोक में, आलोक-सा छाने लगा। होकर मुहित सुरपति नगर में, रत्न बरसाने लगा।। गर्भस्थ बालक की प्रभा, प्रतिभा प्रकट होने लगी।
नभ से निशा की कालिमा, अभिनव-उषा धोने लगी। ॐ ह्रीं वैशाखकृष्ण-द्वितीयायांगर्भमंगल-मंडिताय श्री पाश्वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा॥
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द्वार-द्वार पर सज उठे, तोरण वंदनवार। काशी नगरी में हुआ, पाश्व-प्रभु अवतार। प्राची दिशा के अंग में, नूतन-दिवाकर आ गया। भविजन-जलज विकसित हुए, जग में उजाला छा गया।।
भगवान् के अभिषेक को, जल क्षीरसागर ने दिया।
इन्द्रादि ने है मेरु पर, अभिषेक जिनवर का किया। ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा॥
निरख अथिर-संसार को, गृह-कुटुम्ब सब त्याग।
वन में जा दीक्षा धरी, धारण किया विराग।। निज-आत्मसुख के स्रोत में, तन्मय प्रभु रहने लगे।
उपसर्ग और परीषहों को, शांति से सहने लगे। प्रभु की विहार वनस्थली, तप से पुनीता हो गई।
कपटी कमठ-शठ की कुटिलता, भी विनीता हो गई।। ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां तपोमंगल-मंडिताय श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
आत्मज्योति से हट गये, तम के पटल महान्। प्रकट प्रभाकर-सा हुआ, निर्मल केवलज्ञान।। देवेन्द्र द्वारा विश्वहित, सम-अवसरण निर्मित हुआ। समभाव से सबको शरण का, पंथ निर्देशित हुआ। था शांति का वातावरण, उसमें न विकृत विकल्प थे।
मानों सभी तब आत्महित के, हेतु कृत-संकल्प थे। ॐ ह्रीं चैत्रकृष्ण-चतुर्थीदिने केवलज्ञान-प्राप्ताय श्री पाश्वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा॥
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युग-युग के भव-भ्रमण से, देकर जग को त्राण । तीर्थंकर श्री पावने, पाया पद- निर्वाण | निर्लिप्त, आज नितांत है, चैतन्य कर्म - अभाव से। है ध्यान-ध्याता-ध्येय का, किंचित् न भेद स्वभाव से तव पादपद्मों की प्रभु, सेवा सतत पाते रहे।
अक्षय असीमानंद का, अनुराग अपनाते रहे।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्ल-सप्तम्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वंदना-गीत
अनादिकाल से कर्मों का मैं सताया
इसी से आपके दरबार आज आया हूँ।
न अपनी भक्ति न गुणगान का भरोसा है। दयानिधान श्री भगवान् का भरोसा है। इक आसन लेकर आया हूँ कर्म कटाने के लिए। भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिए | १ | जल न चंदन और अक्षत पुष्प भी लाया नहीं। है नहीं नैवेद्य-दीप अरु धूप - फल पाया नहीं
हृदय के टूटे हुए उदगार केवल साथ हैं। और कोई भेंट के हित अर्घ्य सजवाया नहीं। हे यही फल फूल जो समझो चढ़ाने के लिए। भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये | २ |
माँगना यद्यपि बुरा समझा किया मैं उम्रभर किन्तु अब जब माँगने पर बाँधकर आया कमर।। और फिर सौभाग्य से जब आप - सा दानी मिला। तो भला फिर माँगने में आज क्यों रक्खूँ कसर॥ प्रार्थना है आप ही जैसा बनाने के लिये । भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये | ३ | यदि नहीं यह दान देना आपको मंजूर है। और फिर कुछ माँगने से दास ये मजबूर है॥
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किन्तु मुँह माँगा मिलेगा मुझको ये विश्वास है। क्योंकि लौटाना न इस दरबार का दस्तूर है।
प्रार्थना है कर्म-बंधन से छुड़ाने के लिए। भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये।४। हो न जब तक माँग पूरी नित्य सेवक आयेगा। आपके पद-कंज में पुष्पेन्दु शीश झुकायेगा। है प्रयोजन आपको यद्यपि न भक्ति से मेरी। किन्तु फिर भी नाथ मेरा तो भला हो जायेगा।
आपका क्या जायेगा बिगडी बनाने के लिए।
भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये।५। ॐ ह्रीं श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री अहिच्छत्र-पाश्वनाथ- जिन-पूजा (रचयिता - कल्याण कुमार शशि"
हे पाश्वनाथ करुणानिधान महिमा महान् मंगलकारी।
शिवभारी सुखभंडारी सर्वज्ञ सुखारी त्रिपुरारी॥ तुम धर्मसेत करुणानिकेत आनंदहेत अतिशय धारी। तुम चिदानंद आनंदकंद दुःख-द्वंद-फंद संकटहारी।।
आवाहन करके आज तुम्हें अपने मन में पधराऊँगा। अपने उर के सिंहासन पर गद-गद हो तुम्हें बिठाऊँगा। मेरा निर्मल-मन टेर रहा हे नाथ ! हृदय में आ जाओ।
मेरे सूने मन-मंदिर में पारस-भगवान् समा जाओ।। ॐ ह्रीं श्रीपार्शवनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतरत अवतरत संवौषट्। ( इति आह्वाननम्)।
ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः (संस्थापनम्)। ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
भव-वन में भटक रहा हूँ मैं, भर सकी न तृष्णा की खाई। भवसागर के अथाह दुःख में, सुख की जल-बिंदु नहीं पाई। जिस भाँति आपने तृष्णा पर, जय पाकर तृषा बुझाई है।
अपनी अतृप्ति पर अब तुमसे, जय पाने की सुधि आई है। ॐ ह्रीं श्रीपाश्वनाथजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।१।
क्रोधित हो क्रूर कमठ ने जब, नभ से ज्वाला बरसाई थी। उस आत्मध्यान की मुद्रा में, आकुलता तनिक न आई थी। विघ्नों पर बैर-विरोधों पर, मैं साम्यभाव धर जय पाऊँ।
मन की आकुलता मिट जाये, ऐसी शीतलता पा जाऊँ। ॐ ह्रीं श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय संसार ताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।२।
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तुमने कर्मों पर जय पाकर, मोती-सा जीवन पाया है। यह निर्मलता मैं भी पाऊँ, मेरे मन यही समाया है ।। यह मेरा अस्तव्यस्त-जीवन, इसमें सुख कहीं न पाता हूँ। मैं भी अक्षय-पद पाने को, शुभ अक्षत तुम्हें चढ़ाता हूँ। ॐ ह्रीं श्री पाश्वनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा । ३ ।
अध्यात्मवाद के पुष्पों से, जीवन फुलवारी महकाई। जितना-जितना उपसर्ग सहा, उनी उतनी दृढ़ता आई।
मैं इन पुष्पों से वंचित हूँ, अब इनको पाने आया हूँ। चरणों पर अर्पित करने को, कुछ पुष्प संजोकर लाया हूँ।
ॐ ह्रीं श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।४।
जय पाकर चपल-इन्द्रियों पर, अंतर की क्षुधा मिटा डाली। अपरिग्रह की आलोक-शक्ति, अपने अंदर ही प्रगटा ली || भटकाती फिरती क्षुधा मुझे, मैं तृप्त नहीं हो पाया हूँ। इच्छाओं पर जय पाने को, मैं शरण तुम्हारी आया हूँ।।
ॐ ह्रीं श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।५।
अपने अज्ञान - अंधेरे में, वह कमठ फिरा मारा-मारा। व्यन्तर-विमानधारी था पर, तप के उजियारे से हारा ||
मैं अंधकार में भटक रहा, उजियारा पाने आया हूँ। जो ज्योति आप में दर्शित है, वह ज्योति जगाने आया हूँ ।।
ॐ ह्रीं श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय मोहांधकार - विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।६।
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तुमने तप के दावानल में, कर्मों की धूप जलाई है। जो सिद्ध-शिला तक जा पहुँची, वह निर्मल-गंध उड़ाई है। मैं कर्म-बंधनों में जकड़ा, भव-बंधन से घबराया हूँ। सु-कर्म दहन के लिए तुम्हें, मैं धूप चढ़ाने आया हूँ।। ॐ ह्रीं श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म - दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।७।
तुम महातपस्वी शांतिमूर्ति, उपसर्ग तुम्हें न डिगा पाये। तप के फल ने पद्मावति अरु, इन्द्रों के आसन कम्पाये ॥
ऐसे उत्तम-फल की आशा मैं, मन में उमड़ी पाता हूँ।
ऐसा शिव-सुख फल पाने को, फल की शुभ भेंट चढ़ाता हूँ।
ॐ ह्रीं श्री पाश्वनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।८।
संघर्षों में उपसर्गों में तुमने, समता का भाव धरा। आदर्श तुम्हारा अमृत-बन, भक्तों के जीवन में बिखरा॥ मैं अष्टद्रव्य से पूजा का शुभ- थाल सजा कर लाया हूँ। जो पदवी तुमने पाई है, मैं भी उस पर ललचाया हूँ।
ॐ ह्रीं श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । ९ । पंचकल्याणक - अर्ध्यावली
बैशाख-कृष्ण-दुतिया के दिन, तुम वामा के उर में आये।
श्री अश्वसेन नृप के घर में, आनंद भरे मंगल छाये ॥
ॐ ह्रीं बैशाख- कृष्ण - दुतियायां गर्भमंगल-मंडिताय श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । १ ।
जब पौष-कृष्ण-एकादशि को, धरती पर नया प्रसून खिला । भूले भटके भ्रमते जग को, आत्मोन्नति का आलोक मिला।
ॐ ह्रीं पौषकृष्ण एकादश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | २|
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एकादशि-पौष-कृष्ण के दिन, तुमने संसार अथिर पाया। दीक्षा लेकर आध्यात्मिक-पथ, तुमने तप द्वारा अपनाया।
ॐ ह्रीं पौषकृष्ण-एकादशीदिने तपोमंगल-मंडिताय श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।३।
अहिच्छत्र-धरा पर जी भरकर, की क्रूर कमठ ने मनमानी। तब कृष्ण-चैत्र-चतुर्थी को, पद प्राप्त किया केवलज्ञानी।। यह वंदनीय हो गई धरा, दश-भव का बैरी पछताया।
देवों ने जय-जयकारों से, सारा भूमंडल गुंजाया।। ॐ ह्रीं चैत्रकृष्ण-चतुर्थीदिवसे श्री अहिच्छत्रतीर्थे ज्ञानसाम्राज्य-प्राप्ताय
श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।४।
श्रावण शुक्ला सप्तमि के दिन, सम्मेद-शिखर ने यश पाया।
सुवरणभद्र कूट से जब, शिव मुक्तिरमा को परिणाया।। ॐ ह्रीं श्रावणशुक्ल-सप्तम्यां सम्मेदशिखरस्य सुवर्णभद्रकूटात् मोक्षमंगल-मंडिताय
श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।५।
जयमाला
सुर नर किन्नर गणधर फणधर, योगीश्वर ध्यान लगाते हैं। भगवान् तुम्हारी महिमा का, यशगान मुनीश्वर गाते हैं।१। जो ध्यान तुम्हारा ध्याते हैं, दुःख उनके पास न आते हैं। जो शरण तुम्हारी रहते हैं, उनके संकट कट जाते हैं।२। तुम कर्मदली तुम महाबली, इन्द्रियसुख पर जय पाई है। मैं भी तुम जैसा बन जाऊँ, मन में यह आज समाई है।३।
तुमने शरीर औ आत्मा के, अंतर-स्वभाव को जाना है। नश्वर-शरीर का मोह तजा, निश्चय-स्वरूप पहिचाना है।४। तुम द्रव्य-मोह औ भाव-मोह, इन दोनों से न्यारे-न्यारे।
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जो पुदगल के निमित्तकारण, वे राग-द्वेष तुम से हारे।५। तुम पर निर्जन-वन में बरसे, ओले-शोले पत्थर-पानी। आलोक तपस्या के आगे, चल सकी न शठ की मनमानी।६। यह सहन-शक्तिओं का बल है, जो तप के द्वारा आया था। जिसने स्वर्गों में देवों के, सिंहासन को कम्पाया था।७। अहि का स्वरूप धरकर तत्क्षण, धरणेन्द्र स्वर्ग से आया था। ध्यानस्थ आपके ऊपर प्रभु, फण-मंडप बनकर छाया था।८। उपसर्ग कमठ का नष्ट किया, मस्तक पर फण-मंडप रचकर। पद्मादेवी ने उठा लिया, तुमको सिर के सिंहासन पर।९।
तप के प्रभाव से देवों ने, व्यन्तर की माया विनशाई। पर प्रभो आपकी मुद्रा में, तिलमात्र न आकुलता आई।१०। उपसर्गों का आतंक तुम्हें, हे प्रभु ! तिलभर न डिगा पाया। अपनी विडम्बना पर बैरी, असफल हो मन में पछताया।११।
शठ कमठ बैर के वशीभूत, भौतिक बल पर बौराया था। अध्यात्म-आत्मबल का गौरव, वह मूरख समझ न पाया था।१२।
दश-भव तक जिसने बैर किया, पीड़ायें देकर मनमानी। फिर हार मानकर चरणों में, झुक गया स्वयं वह अभिमानी।१३।
यह बैर महादुःखदायी है, यह बैर न बैर मिटाता है। यह बैर निरंतर प्राणी को, भवसागर में भटकाता है।१४। जिनको भव-सुख की चाह नहीं, दुःख से न जरा भय खाते हैं।
वे सर्व-सिद्धियों को पाकर, भवसागर से तिर जाते हैं।१५।
जिसने भी शुद्ध मनोबल से, ये कठिन परीषह झेली हैं। सब ऋद्धि-सिद्धियाँ नत होकर, उनके चरणों पर खेली हैं।१६।
जो निर्विकल्प चैतन्यरूप, शिव का स्वरूप तुमने पाया। ऐसा पवित्र-पद पाने को, मेरा अंतर-मन ललचाया।१७। कार्माण-वर्गणायें मिलकर, भव-वन में भ्रमण कराती हैं।
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जो शरण तुम्हारी आते है, ये उनके पास न आती हैं।१८। तुमने सब बैर, विरोधों पर, समदर्शी बन जय पाई है। मैं भी ऐसी समता पाऊँ, यह मेरे हृदय समाई है।१९। अपने समान ही तुम सबका, जीवन विशाल कर देते हो। तुम हो तिखाल वाले बाबा, जग को निहाल कर देते हो।२०।
तुम हो त्रिकालदर्शी तुमने, तीर्थंकर का पद पाया है। तुम हो महान् अतिशयधारी, तुम में आनंद समाया है।२१।
चिन्मूरति आप अनंतगुणी, रागादि न तुमको छू पाये। इस पर भी हर शरणागत, मनमाने सुखसाधन पाये।२२।
तुम रागद्वेष से दूर-दूर, इनसे न तुम्हारा नाता है। स्वयमेव वृक्ष के नीचे जग, शीतल छाया पा जाता है।२३। अपनी सुगंध क्या फूल कहीं, घर-घर आकर बिखराते हैं। सूरज की किरणों को छूकर, सुमन स्वयं खिल जाते हैं।२४।
भौतिक पारसमणि तो केवल, लोहे को स्वर्ण बनाती है। हे पाश्व ! प्रभो तुमको छूकर, आत्मा कुंदन बन जाती है।२५।
तुम सर्वशक्तिधारी हो, प्रभु ऐसा बल मैं भी पाऊँगा। यदि यह बल मुझको भी दे दो, फिर कुछ न माँगने आऊँगा।२६।
कह रहा भक्ति के वशीभूत, हे दयासिन्धु ! स्वीकारो तुम। जैसे तुम जग से पार हुये, मुझको भी पार उतारो तुम।२७। जिसने भी शरण तुम्हारी ली, वह खाली न रह पाया है। अपनी-अपनी आशाओं का, सबने वाँछित-फल पाया है।२८।
बहुमूल्य-सम्पदायें सारी, ध्यानेवालों ने पाई हैं। पारस के भक्तों पर निधियाँ, स्वयमेव सिमटकर आई हैं।२९।
जो मन से पूजा करते हैं, पूजा उनको फल देती है। प्रभु-पूजा भक्त पुजारी के, सारे संकट हर लेती है।३०। जो पथ तुमने अपनाया है, वह सीधा शिव को जाता है।
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जो इस पथ का अनुयायी है, वह परम मोक्षपद पाता है।३१। ॐ ह्रीं श्री पार्शवनाथ जिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
पार्शवनाथ-भगवान को, जो पूजे धर ध्यान। उसे लोक-परलोक के, मिलें सकल वरदान।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।
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श्रीमहावीर जिन-पूजा (पावागिरि, ऊन) ( रचयिता - पं (0) बाबूलाल फणीश)
भाव-भरी आराधन करने, सिद्धभूमि पर आया हूँ।
श्री स्वर्णभद्रादि चार मुनियों को, शीश झुकाने आया हूँ। श्री शान्ति कुन्थु अरनाथ प्रभु का आह्वानन कर हर्षाया हूँ। श्री महावीर के चरणकमल को मैं वंदन करने आया हूँ।
नदी चेलना के तट पर शोभित सिद्धक्षेत्र महान है। महावीर की अतिशय प्रतिमा शोभित पावागिरि महान है ।।
ऊँ ह्रीं श्रीपावागिरि-सिद्धक्षेत्रतः सिद्धपदप्राप्ताः स्वर्णभद्रादि- चतुर-मुनिश्वरा एवं शान्ति- कुन्थु-अरमहावीरजिनेन्द्रा अत्र अवतरत अवतरत संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीपावागिरि-सिद्धक्षेत्रतः सिद्धपदप्राप्ताः स्वर्णभद्रादि- चतुर-मुनिश्वरा एवं शान्ति- कुन्थु-अरमहावीरजिनेन्द्रा अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः। (स्थापनम् )
ऊँ ह्रीं श्रीपावागिरि-सिद्धक्षेत्रतः सिद्धपदप्राप्ताः स्वर्णभद्रादि- चतुर-मुनिश्वरेभ्यः एवं शान्ति- कुन्थु-अरमहावीरजिनेन्द्रा अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट्। (सन्निधिकरणम्)
मैं अनादि से प्यासा हूँ, पर तृष्णा मेरी न बुझ पाई। जन्म-जन्म में पिया नीर पर रंच तृषा न मिट पाई।। भक्ति-भाव से सरित चेलना-नीर चढ़ाने आया हूँ।
श्री शान्ति कुन्थु अर महावीर चरण में शीश झुकाने आया हूँ।।1।
ऊँ ह्रीं श्रीपावागिरि-सिद्धक्षेत्रतः सिद्धपदप्राप्ताः स्वर्णभद्रादि- चतुर-मुनिश्वरेभ्यः एवं शान्ति-कुन्थु-अरमहावीरजिनेन्द्रेभ्यो जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
अति दीर्घ संसार भ्रमणकर जन्म-मरण कर भटक रहा । अब तक न पाई शीतलता नश्वर चंदन ले अटक रहा। सद्दर्शन-ज्ञान-चरण आश्रय ले शीतलता पाने आया।
श्री शान्ति कुन्थु अर महावीर - चरण चंदन अर्चन आया।2।।
ऊँ ह्रीं श्रीपावागिरि-सिद्धक्षेत्रतः सिद्धपदप्राप्ताः स्वर्णभद्रादि- चतुर - मुनिश्वरेभ्यः एवं शान्ति- कुन्थु-अर
महावीर जिनेन्द्रेभ्या संसारताप - विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
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पुद्गल की अनन्त कार्माण वर्गणाओं से लिप्त हुआ भटक रहा। यह आत्मा अनन्त अक्षयगुण है, इस को न जान जग भटक रहा।।
इसलिये प्रभु अक्षय-पद पाने अक्षत चढ़ाने आया हूँ।
श्री शान्तिकुन्थु अर महावीर-चरण अक्षत चढ़ाने आया हूँ।।3।। ॐ ह्रीं श्रीपावागिरि-सिद्धक्षेत्रतः सिद्धपदप्राप्ताः स्वर्णभद्रादि-चतुर-मुनिश्वरेभ्यः एवं शान्ति-कुन्थु-अर
महावीरजिनेन्द्रेभ्या अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
यह जीवन मेरा काम-व्यथा से पीडित होता आया है। मन्मथ की लालसायें लेकर जग गोते खाता आया है।। इस कामबाण विध्वंस हेतु भक्ति-पुष्प ले आया हूँ।
श्री स्वर्णभद्रादि ऋषिवर को पुष्प चढ़ाने आया हूँ।।4।। ऊँ ह्रीं श्रीपावागिरि-सिद्धक्षेत्रतः सिद्धपदप्राप्ताः स्वर्णभद्रादि-चतुर-मुनिश्वरेभ्यः एवं शान्ति-कुन्थु-अर
महावीरजिनेन्द्रेभ्यः कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
न जाने अब तक अनगिनते पदार्थ, भक्षण कर मैंने पेट भरा। पर क्षुधा न मिट पाई मेरी, अब तक संसार में अटक रहा।। मम क्षुधा-वेदनी नाश करो प्रभु नैवेद्य थालभर लाया हूँ।
श्री स्वर्णभद्रादि मुनिवर को नैवेद्य चढ़ाने आया हूँ।।5।। ऊँ ह्रीं श्रीपावागिरि-सिद्धक्षेत्रतः सिद्धपदप्राप्ताः स्वर्णभद्रादि-चतुर-मुनिश्वरेभ्यः एवं शान्ति-कुन्थु-अर
महावीरजिनेन्द्रेभ्या क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मैं समझ रहा अब तक नश्वर-दीपक से मोह नश जाएगा। पर झंझा के एक झोके से क्षणभर में दीपक बुझ जाएगा।। प्रभु आप के गुणमयी दीप से मोहान्धकार का नाश करूँ।
श्री स्वर्णभद्रादि ऋषिवर के चरण कमल में शीश धरूँ।।6।। ऊँ ह्रीं श्रीपावागिरि-सिद्धक्षेत्रतः सिद्धपदप्राप्ताः स्वर्णभद्रादि-चतुर-मुनिश्वरेभ्यः एवं शान्ति-कुन्थु-अरमहावीरजिनेन्द्रेभ्या मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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विविध सुगंधित मलयागिर चंदन की धूप दशांग बनाई है। इन अष्ट दुष्ट कर्म के नाश हेतु धूप धनंजय में खेई है।
त्रिविध कर्म के नाश किये बिन कर्म नहीं कट पाएँगे।
श्री शान्ति कुन्थु अर महावीर-शरण से आत्माराधन पाएँगे।।7।। ॐ ह्रीं श्रीपावागिरि-सिद्धक्षेत्रतः सिद्धपदप्राप्ताः स्वर्णभद्रादि-चतुर-मुनिश्वरेभ्यः एवं शान्ति-कुन्थु-अर
महावीरजिनेन्द्रेभ्या अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
पक्व-अपक्व फलों को खाकर प्रभुवर मैंने उदर भरा। मनचाही इच्छाएँ लेकर फल भक्षण कर अतृप्त रहा।।
हे वीतराग सर्वज्ञ प्रभो तुमसा फल मैं भी पाऊँगा।
श्री शान्ति कुन्थु अर महावीर-चरण में मोक्षमहाफल पाऊँगा।।8।। ऊँ ह्रीं श्रीपावागिरि-सिद्धक्षेत्रतः सिद्धपदप्राप्ताः स्वर्णभद्रादि-चतुर-मुनिश्वरेभ्यः एवं शान्ति-कुन्थु-अर
महावीरजिनेन्द्रेभ्या मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
पय चंदन अक्षत पुष्प नैवेद्य का, थाल सजाकर मैं लाया हूँ। दीप धूप फल मिश्रित करके, अर्घ बनाकर मैं लाया हूँ।।
अब अनर्घपद प्राप्ति हेतु शाश्वत-सुख पाने आया हूँ।
श्री स्वर्णभद्रादि चार मुनिवर को अर्घ्य चढ़ाने आया हूँ।।9।। ऊँ ह्रीं ॐ ह्रीं श्रीपावागिरि-सिद्धक्षेत्रतः सिद्धपदप्राप्तेभ्यः स्वर्णभद्रादि-चतुर-मुनिश्वरेभ्यः एवं शान्ति
कुन्थु-अर- महावीरजिनेन्द्रेभ्यः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला श्रद्धा-भाव से तीर्थ-वंदन करने जो भी भविजन आते है।। उनके भव-भव के संकट पल भर में ही टल जाते हैं।। श्री शान्तिकुथु अर महावीर के दर्शन को जो आता है। श्री स्वर्णभद्रादि चार मुनि को फणीश शीश झुकाता है।।
मध्यप्रदेश पावन माटी को कोटि-कोटि वन्दन है। श्री स्वर्णभद्रादि ऋषिवर को शत-शत अभिनंदन है।।
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दक्षिण दिश वल्लाल नृपति धारानगरी में रहता था। पटरानी उसकी धर्म प्राण सुख वैभव से वह शासक था।। श्री चन्द्रप्रभु के शासन काल में समवशरण सोनागिरि आया।
श्री स्वर्णभद्रादि मुनियों ने दीक्षा ली मन हर्षाया। दीक्षा लेकर जब मुनियों ने सारे भारत में विहार किया। विन्ध्य और सतपुड़ा अंचल में आकर यहाँ ध्यान किया।।
निकट चेलना सरिता तट पर से मोक्षधाम पद पाया। और अनेकों ऋषिवर ने भी जन्म-मरण कर शिवपद पाया ।।
इसलिये सिद्धक्षेत्र पावागिरि को बारंबार वंदन है। चरण-कमल श्री भद्रादिमुनियों को शत-शत वार नमन है ।।
कुन्दकुन्द आचार्य मुनि ने स्वर्णभद्र गुणगान किया। सिद्धक्षेत्र पावागिरी नाम से अजर अमर शिव धाम लिया || प्राचीन काल से पावन नगरी अति उज्ज्वल महान है।
श्री स्वर्णभद्रादि मुनिवर को कोटि-कोटि प्रणाम है।। पर मारवंश नृप उदियात्या ने आकर यहाँ पर राज्य किया। दशमी सदी से बारहवी सदी तक निष्कंटक राज किया।
इसी वंश के बल्लाल नृपति धारानगरी राज्य किया। एक दिवस बल्लाल नृपति ने धारा नगरी में शासन किया। पानी पीते ही राजा के पेट में नागिन चली गई । हो निराश जब राजा ने गंगा में प्राण समाई || जीवन नश्वर उसने समझा एक यही कल्याण है।
नृप और रानी दोनों ने पाया लक्ष्य महान है। चलते-चलते दोनों ने जब एक ग्राम डेरा डाला। प्रातः काल जब रानी को एक स्वप्न मन भर आया। श्रद्धाभाव से रानी ने तब राजा को चूना पिलवाया। चूना पीते ही राजा उदर से नागिन वमन द्वारा बाहर आई || अति शीघ्र ही जब राजा के पेट से नागिन बाहर आई। धरती से जब राजा ने स्वर्ण धाम और धन पाये| बल्लाल नृपति ने करी प्रतिज्ञा सौ मंदिर बनवाये। सौ-सौ कुएँ बावड़ी तालाब बनवाये मन भाये।।
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वल्लाल नृपति चला धरा से जीवन को समाप्त किया। हा! हा कार मचा नगर में सौ में से इक न्यून रहा।। इसलिये इस ग्राम नगर का ऊन ग्राम का नाम रहा। आषाढ़ कृष्ण अष्टमी बुद्धवार को चेतन को इक स्वप्न हुआ।।
अतिशयकारी भव्य मनोहर महावीर प्रभु प्रगट हुए। खजुराहो के शैली मध्य मनोहर मंदिर चमकाये ।। जैन संस्कृति शैव संस्कृति से राजा ने महकाये । सर्वोदय वन तीर्थ ऊन सत्यं शिवं सुन्दर दर्शन । श्री स्वर्णभद्रादि मुनिवर चरण-कमल फणीश वन्दन ।।
ऊँ ह्रीं ॐ ह्रीं श्रीपावागिरि - सिद्धक्षेत्रतः सिद्धपदप्राप्तेभ्यः स्वर्णभद्रादि- चतुर-मुनिश्वरेभ्यः एवं शान्ति
कुन्थु - अर- महावीरजिनेन्द्रेभ्यः अर्घ्यपद प्राप्तये जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा)
धन्य-धन्य पावागिरि चमके जग में नाम । दर्शन अर्चन वंदन भक्ति से पाते शिवराम ||
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्रीमहावीर जिन-पूजा (चान्दन गांव- श्री महावीर जी) (रचयिता - श्री पूरनमल)
श्री वीर सम्मति गांव चांदन में प्रकट भये आय कर। जिनको वचन-मन-काये से मैं पूजहूं शिर नाय कर।। हुये दयामय नार-नर लखि, शांतिरूपी भेष को। तुम ज्ञानरूपी भानु से कीना सुशोभित देश को।।
सुर इन्द्र विद्याधर मुनी नरपति नवावें शीस को।
हम नमत हैं नित चाव सों महावीर प्रभु जगदीश को।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीर स्वामिन्! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीमहावीर स्वामिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीमहावीर स्वामिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
क्षीरोदधि से भरि नीर, कंचन के कलशा। तुम चरणनि देत चढ़ाय, आवागमन नशा।।
चांदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी।
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
मलयागिरि चन्दन कपूर, केशर ले हरषौं। प्रभु भव-आताप मिटाय, तुम चरननि परसौं।
चांदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी।
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
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तंदुल उज्ज्वल अति धोय, थारी में लाऊँ। तुम सन्मुख पुंज चढ़ाय, अक्षय-पद पाऊँ।।
चांदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी।
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।3।।
बेला केतकी गुलाब चंपा कमल लऊँ। जे कामबाण करि नाश तुमरे चरण दऊँ।।
चांदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी।
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
फेनी गुंजा अरु स्वाद, मोदक ले लीजे। करि क्षुधा-रोग निरवार, तुम सन्मुख कीजे।।
चांदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी।
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
घृत में कर्पूर मिलाय, दीपक में जारो। करि मोहतिमिर को दूर, तुम सन्मुख बारो।।
चांदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी।
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
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दश विधि ले धूप बनाय, तामें गंध मिला। तुम सन्मुख खेऊँ आयआठों कर्म जला।।
चांदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी।
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।7।
पिस्ता किसमिस बादाम श्रीफल लौंग सजा।
श्री वर्धमान-पद राख पाऊ मोक्षपदा।। चांदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी।
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8।
जल गंध सु अक्षत पुष्प चरुवर जोर करौं। ले दीप धूप फल मेलि आगे अर्घ करौं। चांदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी।
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।9।
टोंक के चरणों का अर्घ्य जहां कामधेनु नित आय दुग्ध जु बरसावे। तुम चरननि दरशन होत आकुलता जावे।। जहाँ छतरी बनी विशाल तहाँ अतिशय भारी। हम पूजत मन-वच-काय तज संशय सारी।।
चांदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी।
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी।। ऊँ ह्रीं टोंकस्थित-श्रीमहावीर-चरणाभ्याम् अयं निर्वपामीति स्वाहा।
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टीले के अन्दर विराजमान अवस्था का अर्घ्य
टीले के अन्दर आप सोहें पद्मासन। जहंा चतुरनिकाई देव आवें जिन-शासन।। निज पूजन करत तुम्हार कर में ले झारी। हम हूँ वसु द्रव्य बनाय पूजें भरि थारी।
चांदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी।
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी।। ऊँ ह्री श्रीमहावीरजिनेन्द्रय टीले के अंदर विराजमान अवस्थायै अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक कुंडलपुर नगर मंझार त्रिशला-उर आयो। सुदि छठी आषाढ़ सुर आई रतन जु बरसायो।।
चांदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी।
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी।। ॐ ह्रीं आषाढ़सुदी-षष्टिदिने गर्भमंगल-मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।।
जनमत अनहद भई घोर आय चतुरनिकाई। तेरस शुक्ला की चैत्र गिरि पर ले जाई।।
चांदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी।
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी।। ऊँ ह्रीं चैतसुदी-त्रयोदशीदिने जन्ममंगल-मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।
कृष्णा मंगसिर दश जान लौकांतिक आये। करि केशलोंच तत्काल झट वनको धाये।।
चांदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी।
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी।। ऊँ ह्रीं मंगसिरवदी-दशमीदिने तपोमंगल-मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।3।
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बैसाख सुदी दश-मांहि घाती क्षय करना। पायो तुम केवल ज्ञान इन्द्रनि की रचना।।
चांदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी।
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी।। ऊँ ह्रीं बैसाखसुदी-दशमीदिने केवलज्ञान-मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।40
कार्तिक जु अमावस कृष्ण पावापुर ठाहीं। भयो तीनलोक में हर्ष पहुंचे शिव माँहीं।।
चांदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी।
प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी।।5।। ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णा-अमावस्यायां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।5।
जयमाला (दोहा) मंगलमय तुम हो सदा, श्री सन्मति सुखदाय। चांदनपुर महावीर की, कहूं आरती गाय।।
(पद्धरि छन्द) जय-जय चांदनपुर महावीर, तुम भक्तजनों की हरत पीर। जड़-चेतन जग को लखत आप, दई द्वादशांग वानी अलाप।1। अब पंचम काल मंझार आय, चांदनपुर अतिशय दई दिखाय। टीले के अंदर बैठि वीर, नित झरा गाय का स्वयं क्षीर।2। ग्वाला को फिर आगाह कीन, जब दरसन अपना तुमने दीन।
मूरति देखी अति ही अनूप, है नग्न दिगंबर शांतिरूप।3। तहां श्रावक जन बहु गये आय, किये दर्शन करि मन-वचन-काय। ___है चिन्ह शेर का ठीक जान, निश्चय है ये श्रीवर्द्धमान।4। सब देशन के श्रावक जु आय, जिन-भवन अनूपम दियो बनाय। फिर शुद्ध दई वेदी कराय, तुरतहिं रथ फिर लिये सजाय।5।
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ये देख ग्वाल मनमें अधीर, मम गृह को त्यागो नाहि वीर। तेरे दर्शन बिन तजूं प्राण, सुनि टेर मेरी किरपा निधान।6। कीने रथ में प्रभु विराजमान, रथ हुआ अचल गिरिके समान। तब तरह तरह के किये जोर, बहुतक रथ गाड़ी दिये तोड़ा। निशिमांहि स्वप्न सचिवहिं दिखात, रथ चलै ग्वाल का लागत हाथ।
भारहिं झट चरण दियो बनाय संतोष दियो ग्वालहिं कराय।8। करि जय-जय प्रभु से करी टेर, रथ चल्यो फेर लागी न देर। बहु निरत करत बाजे बजाई, स्थापन कीने तहँ भवन जाई।9।
इक दिन मंत्री को लगा दोष, धरि तोप कही नृप खाय रोष। तुमको जब ध्याया वहां वीर, गोला से झट बच गया वजीर।10।
मंत्री नृप चांदन गांव आय, दर्शन करि पूजा विधि बनाय। करि तीन शिखर मंदिर रचाय, कंचन-लशा दीने धराय।।11॥ __यह हुक्म कियो जयपुर नरेश, सालाना मेला हो हमेश। अब जुड़न लगे बहु नर उ नार, तिथि चैत सुदी पूनों मंझार।12।
मीना गूजर आवें, विचित्र, सब वरण जुड़े करि मन पवित्र। बहु निरत करत गावे सुहाय, कोई घृतदीपक रह्यो चढ़ाय।13। कोइ जय-जय शब्द करै गंभीर, जय-जय जय हे श्री महावीर। जैनी जन पूजा रचत आन, कोइ छत्र चंवर के करत दान।14। जिसकी जो मन इच्छा करंत, मनवांछित फल पावै तुरंत। जो करै वंदना एक वार, सुख पुत्र संपदा हो अपार।15।
जो तुम चरणों में रखै प्रीत, ताको जग में को सकै जीत। है शुद्ध यहां का पवन नीर, जहां अति विचित्र सरिता गंभीर।16। __ पूरनमल पूजा रची सार, हो भूल लेउ सज्जन सुधार। मेरा है शमशाबाद ग्राम, त्रयकाल करूँ प्रभु को प्रणाम।17।
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(घत्ता)
श्री वर्द्धमान तुम गुणनिधान उपमा न बनी तुम चरनन की। है चाह यही नित बनी रहे अभिलाष तुम्हरे दर्शन की।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा)
अष्टकर्म के दहन को पूजा रची विशाल | पढ़े सुनें जो भाव से छूटे जग जंजाल।।1। संवत जिन चौबीस सौ, है बांसठ की साल। एकादश कार्तिक वदी पूजा रची सम्हाल ||2||
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्रीमहावीर जिन-पूजा (अहिंसा-स्थल, नई दिल्ली)
(रचयित्री- श्रीप्रभा) आपके दर्शन कर प्रभु मिटे उर-अज्ञान। निरख अनुपम आपकी छवि, हृदय हर्ष महान।। भव-उदधि के तीर्थ हैं जगपूज्य विश्व-ललाम।
हे अहिंसा स्थल-विराजित महावीर प्रणाम।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
है धन्य जीवन आज जो दर्शन मिले प्रभु वीर के। जग-जन तुम्हारी शरण पाकर तरें भव के तीर से।। हे प्रभु स्वयं को जान लूँ मैं अति दुःखी भव पीर से।
मैं हूँ अपावन बनूँ पावन आज सम्यक् नीर से।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आपका है रूप अनुपम नयन को शीतल करे। प्रभु आपसे पा प्रेरणा हम भाव उर निर्मल धरें।। मैं हूँ कषायों से घिरा तुम राग-द्वेष-विमुक्त हो।
चन्दन तुम्हें अर्पित करूँ जग-ताप से मैं तृप्त हो।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम नाथ नित्य अमल अखंडित सिद्ध शुद्ध स्वरूप हो। शिवपद-विराजित वीर तुम निर्मल अरूप अनूप हो।। मैं युग-युगों से घूमता जग में दुःखो से हूँ दुखी।
अक्षत तुम्हे अर्पित करूँ पाऊँ परम पद हो सुखी।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
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हे आत्मज्ञानी परम-ध्यानी तुम स्वयं में लीन हो । तुम भोग-रोग-विहीन हो हे वीर तुम स्वाधीन हो।। मैं छोड़ दूँ परद्रव्य अब निजद्रव्य में ही वास हो । अर्पित तुम्हें है पुष्प जिससे कामशत्रु विनाश हो।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
आमरस से तृप्त हो आनन्द के आगर हो।
तुम ज्ञान दर्शन और सुख के शक्ति के भण्डार हो ।।
मैंने चखे हैं द्रव्य अगणित किन्तु तृप्ति विहीन हो।
अर्पित तुम्हें व्यंजन करूँ जो क्षुधा - कष्ट विलीन हो ।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम ज्ञान के दीपक अंधेरा हर लिया अज्ञान का।
तुमने हरा है दर्प हे प्रभु मोह- शत्रु महान का।। यह जीव मोही मान अपनी देह को पर में रमे।
इस मोह-तम के नाश को प्रभु दीप अर्पित है तुम्हें।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ध्यानाताप से तुमने जलाया कर्म को पाया तुम्हीं ने ज्ञान-दर्शन-चरित सम्यक् धर्म को। जड़ कर्म के वश कर न पाया पार इस संसार को । है धूप अर्पित दहन को इस कर्मपारावार को ||
ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
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तुम आत्मसुख में लीन हो प्रभु नित्य हो स्वाधीन हो। हे नाथ! पा निर्वाणपद तुम मोक्षपद आसीन हो।।
ऐसा न सच्चा ज्ञानदर्शन और शिवसुख है हमें।
वह मोक्षफल पाने प्रभो! फल आज अर्पित है तम्हें।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम हो चिरंतन नित्य ही प्रभु परमपद में वास है। है जन्म-मरण-जरा ने जिससे हृदय में उल्लास है।। उस परमपद की प्राप्ति को निज रूप मैं उर में धरूँ।
प्रभु अष्ट द्रव्यों से समन्वित अर्घ से पूजा करूँ।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक दिन षष्ठी शुक्ला अषाढ़ा, त्रिशला माँ प्रभु उर धारा।
सुर मुदित रतन बरसावें, माता की सेव करावें।
जन-मन में हर्ष अपारा, हम पूर्जे प्रभु अविकारा। ऊँ ह्रीं आषाढशुक्ला-षष्ट्यो गर्भमंगल-मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
सित तेरस चैत महाना, जनम इन्द्र ने जाना। पाण्डुक गिरि प्रभु पधराए, क्षीरोदधि न्हवन कराए।
कुण्डग्राम जन्म कल्याणा, पूजें सन्मति भगवाना। ॐ ह्रीं चैत्रशुक्ला-त्रयोदश्यां जन्ममंगल-प्राप्ताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
मंगसिर कृष्णा दश आयो, प्रभु दुर्धर तप अपनायो।
मन-वच-तन योग सभारे, तिस अन्तर भेद उधारे।
तप करि बहु कर्म खपायो, हम पूजत पद चित लायो। ऊँ ह्रीं मार्गशीर्षकृष्णा-दशम्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्रायअर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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सित दश वैशाख महाना, प्रभु पायो केवल ज्ञाना।
चउ घाती-कर्म नशायो, अरहंत परमपद पायो। पूजैं तव पद हे स्वामी, वर्धमान विशद परिणामी।
ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्ला-दशम्यां ज्ञानकल्याणक-प्राप्ताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मावस कार्तिक अँधियारी, प्रभु ने वरनी शिवनारी ।
सुरगण पावापुर आए, नर-नारी दीप जलाए।
तुम सिद्ध भए अभिरामी, हम पूजैं पद शिवधामी।
ऊँ ह्रीं कार्तिककृष्णा-अमावस्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
आपकी प्रतिमा सहज निजभाव को मन में जगाती । जो परम सुख पा लिया उसकी मनोहर छवि दिखाती।। इन्द्र के से सहस्र लोचन जो अगर होते हमारे । तृप्त नहीं होते नयन प्रभु प्राप्त कर दर्शन तुम्हारे || अनुपम शान्ति विराज रही दर्शन से है हर्ष महान । उन्नत नागाचल पर जैसे महावीर ही धरते ध्यान || ताम्रवर्ण प्रभु दीप्ति कनक सी प्रतिमा शोभित है अभिराम। हे सन्मति! प्रभु महावीर! है चरणों में शतबार प्रणाम।। भव भव में संसारी जन को ग्रसता है यह काल कराल । नाथ आपकी भक्ति हरण करती है उसका भय तत्काल || अव्याबाध अचिंत्य अतुल है अनुपम शाश्वत सुख शिवधाम । हे सन्मति! प्रभु महावीर! है चरणों में शतबार प्रणाम।। वीतराग निर्ग्रन्थ दिगम्बर, भव्यरूप है उन्नत भाल। नासा पर हैं नयन, स्वयं में लीन हुआ है हृदय विशाल ।। गगन के नीचे प्रभु पद्मासन ध्यानलीन निष्काम। हे सन्मति! प्रभु महावीर! है चरणों में शतबार प्रणाम ।। नाथ आपने भवभोगों को रोग समझ कर छोड़ दिया।
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रहे अलिप्त कमल जल में ज्यों अंतर में मुख मोड़ लिया।।
स्वयं ज्ञान तुम स्वयं बोध करते हो निजपद में विश्राम। हे सन्मति! प्रभु महावीर! है चरणों में शतबार प्रणाम।।
नाथ आपने पादमूल में भविजन पाते सम्यक् ज्ञान। दृष्टि विमल होती है मुनिजन तपकर पाते मोक्ष-निधान।।
कल्पवृक्ष सम पा जाते हैं जन्म-मृत्यु से पूर्ण विराम। हे सन्मति! प्रभु महावीर! है चरणों में शतबार प्रणाम।। नन्दन कानन यह सुन्दरवन बहती मंदसुगन्ध बयार। चम्पा जुही गुलाब चमेली, फूले फूल अनेक प्रकार।। इसी अहिंसा स्थल पर धारे, ध्यान अटल निश्चल निष्काम। हे सन्मति! प्रभु महावीर! है चरणों में शतबार प्रणाम।। नाथ आपके वचनामृत से दर हुआ जग का अज्ञान। कर्मबली को जीत आपने पाया अनुपम पद निर्वाण।। चिदानन्द चैतन्य सूर्य हे ज्ञान स्वभावी आत्माराम। हे सन्मति! प्रभु महावीर! है चरणों में शतबार प्रणाम।। निर्मल रूप आपका लखकर पाऊ निज स्वरूप का ज्ञान। जब तक मुक्ति न प्राप्त हमें हो रहे सदा प्रभुपद में ध्यान।।
यह आत्मा हो लीन स्वयं में शुद्ध रहे मेरे परिणाम। हे सन्मति! प्रभु महावीर! है चरणों में शतबार प्रणाम।। ऊँ ह्रीं श्रीवर्धमानजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
जो तमको लख निज को जाने नित्य धरे आत्मा का ध्यान। वह भव-भव का सब दुख मेटे, पाए अनुपम पद निर्वाण।। नेत्र सफल हो प्रभुदर्शन से, रचना से प्रभु का गुणगान। श्री के कर्मबंध कट जावें, हृदय बने प्रभु भक्ति महान।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्रीमहावीर जिन-पूजा (रचयित्री - पू. ज्ञानमती माताजी)
(तर्ज- तुमसे लागी लगन.......... आपके श्रीचरण, हम करें नित नमन, शरण दीजे। नाथ मुझपे कृपा-दृष्टि कीजे।।टेक।।
वीर सन्मति महावीर भगवान्।
आवो-आवो यहाँ नाथ श्रीमान! आप-पूजा करें, शुद्ध समकित धरें, शक्ति दीजे।
नाथ! मुझ पर कृपा-दृष्टि कीजे।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
( अथ अष्टक) (तर्ज- चंदन सा वदन................) (शंभु छन्द)
त्रिशलानंदन, शत-शत वंदन, शत-शत वंदन तव चरणों में। हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों में।। गंगानदि का शुचि जल लेकर, तुम चरण चढ़ाने आये हैं। भव-भव का कलिमल धोने को, श्रद्धा से अति हरषाये है।।
हे वीरप्रभो! महावीर प्रभो! त्रयधारा दे तव चरणों में।। त्रिशलानंदन, शत-शत वंदन, शत-शत वंदन तव चरणों में।
हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों में।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।1।
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हरिचंदन कुंकुम गंध लिये, जिनचरण चढ़ाने आये हैं। मोहारिताप संतप्त हृदय, प्रभु शीतल करने आये हैं। हे वीरप्रभो! चंदन लेकर, चर्चन करते तव चरणों में ।। त्रिशलानंदन, शत-शत वंदन, शत-शत वंदन तव चरणों में। हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों में ।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 2।
क्षीराम्बुधि फेन सदृश उज्ज्वल, अक्षत धोकर ले आये हैं। क्षय-विरहित अक्षत-सुख हेतू, प्रभु पुंज चढ़ाने आये हैं।। हे वीरप्रभो! हम पुंज चढ़ा, अर्चन करते तव चरणों में।। त्रिशलानंदन, शत-शत वंदन, शत-शत वंदन तव चरणों में।
हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों में।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीर जिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। 3।
बेला चंपक अरविंद कुमुद, सुरभित पुष्पों को लाये है।। मदनारिजयी तव चरणों में, हम अर्पण करने आये हैं।
हे वीरप्रभो! पुष्पों को ले, पूजा करते तव चरणों में।। त्रिशलानंदन, शत-शत वंदन, शत शत वंदन तव चरणों में। हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों में।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
पूरणपोली खाजा गूझा, मोदक आदि बहुत लाये है। निज आतम-अनुभव अमृत हित, नैवेद्य चढ़ाने आये हैं।। हे वीरप्रभो! चरु अर्पण कर, हम नमन करें तब चरणों में। त्रिशलानंदन, शत-शत वंदन, शत शत वंदन तव चरणों में।
हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों में।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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मणिमय - दीपक में ज्योति जले, सब अंधकार क्षण में नशि ।
दीपक से पूजा करते ही, सज्ज्ञानज्योति निज में भासे ।। हे वीरप्रभो! तुम आरति कर, हम नमन करे तव चरणों में ।। त्रिशलानंदन, शत-शत वंदन, शत-शत वंदन तव चरणों में। हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों में ।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 6।
दशगंध विमिश्रत धूप सुरभि, धूपायन में खेते क्षण ही। कटु कर्म दहन हो जाते हैं, मिलता समरस सुख तत्क्षण ही ।।
हे वीरप्रभो! हम धूप जला, अर्चन करते तव चरणों में ।। त्रिशलानंदन, शत-शत वंदन, शत-शत वंदन तव चरणों में। हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों में।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। 7।
एला केला अंगूरों के, गुच्छे अतिसरस मधुर लाये। परमानंदामृत चखने हित, फल से पूजन कर हर्षाये।। हे वीरप्रभो! महावीर प्रभो! हम नमन करें तव चरणों में ।। त्रिशलानंदन, शत-शत वंदन, शत-शत वंदन तव चरणों में।
हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों में।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। 8 ।
जल चंदन अक्षत पुष्प चरू, वर दीप धूप फल लाये है।
गुण अनंत की प्राप्ति हेतु, प्रभु अर्घ्य चढ़ाने आये हैं। हे वीरप्रभो! हम अर्घ्य चढ़ा कर, नमन करें तव चरणों में ।। त्रिशलानंदन, शत-शत वंदन, शत-शत वंदन तव चरणों में।
हम भक्तिभाव से अंजलि कर, प्रभु शीश झुकाते चरणों में ।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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उपेंद्रवजा छंद
त्रैलोक्य शांतीकर शांतिधारा, श्री सन्मती के पदकंज धारा ।
निजस्वांत शांतीहित शांतिधारा, करते मिले हैं भवदधि किनारा ॥10॥ शांतये शांतिधारा सुरकल्पतरु वर पुष्प लाऊँ, पुष्पांजलि कर निज सौख्य पाऊँ।
संपूर्ण व्याधी भय को भगाऊँ, शोकादि हर के सब सिद्धि पाऊँ।।11।। दिव्यपुष्पांजलिः
पंचकल्याणक (गीता छंद)
सिद्धार्थ नृप कुण्डलपुरी में, राज्य संचालन करे।। त्रिशला महारानी प्रिया सह, पुण्य संपादन करें। आषाढ़शुक्ला छठ तिथि, प्रभु गर्भ-मंगल सुर करें। हम पूजते वसु अध्यले, हर विघ्न सब मंगल भरे। 1।
ॐ ह्रीं आषाढ़ शुक्ला - षष्ट्यां श्रीमहावीरजिन-गर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सितचैत्र तेरस के प्रभु, अवतीर्ण भूतल पर हुए। घंटादि बाजे बज उठे, सुरपति मुकुट भी झुक गये। सुरशैल पर प्रभु जन्म-उत्सव, हेतु सुरगण चल पड़े। हम पूजते वसु अघ्य ले, निजकर्म धूली झड़ पड़े।2।
ऊँ ह्रीं चैत्रशुक्ला-त्रयोदश्यां श्रीमहावीरजिन- जन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मगसिर वदी दशमी तिथि, भवभोग से नि:स्पृह हुए। लौकांतिकादी आनकर, संस्तुति करें प्रमुदित हुए || सुरपति प्रभु की निष्क्रमण, विधि में महा उत्सव करें।
हम पूजते वसु अध्यले, संसार सागर से तरें। 3 ।
ऊँ ह्रीं मार्गशीर्षकृष्णा-दशम्यां श्रीमहावीरजिन-दीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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प्रभु ने प्रथम आहार राजा, कूल के घर में लिया। वैशाख सुदि दशमी तिथी, केवलरमा परिणय किया।।
श्रावण वदी एकम तिथि, गौतम मुनी गणधर बनें।
तव दिव्यध्वनि प्रभु की खिरी, हम पूजते हर्षित तुम्हें।4। ऊँ ह्रीं वैशखशुक्ला-दशम्यां श्रीमहावीरजिन-केवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
कार्तिक अमावस पुण्य तिथि, प्रत्यूष बेला में प्रभो। ___ पावापुरी उद्यान सरवर, बीच में तिष्ठे विभो।। निर्वाण-लक्ष्मी वरणकर, लोकाग्र में जाके बसे।
हम पूजते वसु अध्य ले, तुम पास में आके बसें।5। ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णा-अमावस्यां श्रीमहावीरजिन-निर्वाणकल्याणकाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्यपुष्पांजलिः।
जयमाला (दोहा)
चिन्मरति चिंतामणि, चिंतित फलदातार। तुम गुणमणिमाला कहूँ, सुखसंपतिसाकार।1। (बाल-श्रीपति जिनवर करुणा....)
जय-जय श्री सन्मति रत्नाकर! महावीर! वीर! अतिवीर! प्रभो। जय-जय गुणसागर वर्धमान! जय त्रिशलानंदन! धीर प्रभो!।
जय नाथवंश अवतंस नाथ! जय काश्यपगोत्र शिखामणि हो। जय-जय सिद्धार्थतनुज फिर भी, तुम त्रिभुवन के चूड़ामणि हो।2। जिस वन में ध्यान धरा तुमने, उस वन की शोभा अति न्यारी। सब ऋतु के फूल खिलें सुन्दर, सब फूल रहीं क्यारी क्यारी।।
जहँ शीतल मंद पवन चलती, जल भरे सरोवर लहरायें। सब जात विरोधी जन्तूगण, आपस में मिलकर हरषायें।3।
चहुँ ओर सुभिक्ष सुखद शांती, दुर्भिक्ष रोग का नाम नहीं। सब ऋतु के फल फल रहे मधुर, सब जन-मन हर्ष अपार सही।।
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कंचन छवि देह दिपे सुंदर, दर्शन से तृप्ति नहीं होतीं सुरपति भी नेत्र हजार करे, निरखे पर तृप्ति नहीं होती।4।
श्री इन्द्रभूति आदिक ग्यारह गणधर सातों ऋद्धीयुत थे। चौदह हजार मुनि अविधज्ञानी, आदिक सब सात भेदयुत थे।।
चंदना प्रमुख छत्तीस सहस, संयतिकायें सुरनरनुत थीं। श्रावक इक लाख श्रावि काएं, त्रय लाख चतुःसंघ संख्या थी।5। प्रभु सात हाथ, उत्तुंग आप, मृगपति लांछन से जग जाने।
आयु बाहत्तर वर्ष कही, तुम लोकालोक सकल जाने।। भविजन खेती को धर्मामृत, वर्षा से सिंचित कर करके। तुम मोक्षमार्ग अक्षुण्ण किया, यति-श्रावक धर्म बता करके।6। मैं भी अब आप शरण आया, करुणाकर जी करुणा कीजे। निज आत्म-सुधारस पान करा, सम्यक्त्व-निधी पूर्णा कीजे।। रत्नत्रयनिधि की पूर्ती कर, अपने ही पास बुला लीजे। सज्ज्ञानमती निर्वाणश्री साम्राज्य मुझे दिलवा दीजे।7।
(घत्ता)
जय-जय श्री सन्मति, मुक्तिरमापति, जय जिनगुणसंपति दाता।
तुम पद पूनँ, भक्ति बढ़ाऊँ, पाऊँ निजगुण विख्याता।8। ऊँ ह्रीं श्रीवर्धमानजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्यपुष्पांजलिः।
(गीता छंद) महावीर की निर्वाण बेला, में भाविक शुचि भव से। निर्वाण-लक्ष्मीपति जिनेश्वर, पूजते अति चाव से।।
वे भव्य नर सुर के अतुल, संपत्ति सुख पाते घने। फिर अन्त में शुचि ज्ञानमति, निर्वण-लक्ष्मीपति बने।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।
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श्रीमहावीर जिन-पूजा (रचयिता - श्री राजमल जी)
वर्धमान सुवीर वैशालिक श्री जिनवर को।
वीतरागी तीर्थंकर हितंकर अतिवीर को।। इन्द्र-सुर-नर-देव-वंदित वीर सन्मति धीर को। अर्चना पजा करूँ मैं नमन कर महावीर को।। नष्ट हो मिथ्यात्व प्रगटाऊँ स्वगुण गंभीर को।
नीर-क्षीर-विवेक पूर्वक हरूँ भव की पीर को।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
जल से प्रभु प्यास बुझाने का झूठा अभियान किया अब तक। पर आश पिपासा नहीं बुझी मिथ्या भ्रममान किया अब तक।।
भावों का निर्मल जल लेकर चिर तृषा मिटाने आया हूँ।
हे महावीर स्वामी! निज हित मैं पूजन करने आया हूँ।।1।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
शीतलता हित चन्दन चर्चित नित करता आया था अब तक। निज शीत स्वभाव नहीं समझा पर-भाव सुहाया था अब तक।।
निज भावों का चन्दन लेकर भव-ताप हटाने आया हूँ।।
हे महावीर स्वामी! निज हित मैं पूजन करने आया हूँ।। 2। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
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भौतिक वैभव की छाया में निज-द्रव्य भुलाया था अब तक। निज-पद विस्मृत कर पर-पद का ही राग बढ़ाया था अब तक।।
__ भावों के अक्षत लेकर मैं अक्षयपद पाने आया हूँ।।
हे महावीर स्वामी! निज हित मैं पूजन करने आया हूँ।।3।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्पों की कोमल मादकता में पड़कर भरमाया था अब तक। पीड़ा न काम की मिटी कभी निष्काम न बन पाया अब तक।।
भावों के पुष्प समर्पित कर मैं काम नशाने आया हूँ।
हे महावीर स्वामी! निज हित मैं पूजन करने आया हूँ।।4।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय कामबाण-विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
नैवेद्य विविध खाकर भी तो यह भूख न मिट पाई अब तक। तृष्णा का उदर न भर पाया पर की महिमा गाई अब तक।।
भावों के चरु लेकर अब मैं तृष्णाग्नि बुझाने आया हूँ।
हे महावीर स्वामी! निज हित मैं पूजन करने आया हूँ।। 5।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मिथ्या-भ्रम-अन्धकार छाया सन्मार्ग न मिल पाया अब तक। अज्ञान-अमावस के कारण निज ज्ञान न लख पाया अब तक।।
भावों का दीप जला अन्तर आलोक जगाने आया हूँ।।
हे महावीर स्वामी! निज हित मैं पूजन करने आया हूँ।। 6।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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कर्मों की लीला में पड़कर भव भार बढ़ाया है अब तक। संसार द्वन्द्व के फन्दे से निज धूम्र उड़ाया है अब तक। भावों की धूप चढ़ाकर मैं वसु कर्म जलाने आया हूँ।। हे महावीर स्वामी! निज हित मैं पूजन करने आया हूँ | | 7 | ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अष्टकर्म - दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
संयोगी भावों से भव ज्वाला में जलता आया अब तक शुभ के फल में अनूकूल संयोगों को पा इतराया अब तक भावों का फल ले निज स्वभाव का शिवफल पाने आया हूँ।।
हे महावीर स्वामी! निज हित मैं पूजन करने आया हूँ।। 8 ।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अपने स्वभाव साधन का विश्वास नहीं आया अब तक। सिद्धत्व स्वयं से आता है आभास नहीं पाया अब तक ॥। भावों का अर्घ चढ़ाकर मैं अनुपम पद पाने आया हूँ।।
हे महावीर स्वामी! निज हित मैं पूजन करने आया हूँ|| 9॥
ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक धन्य तुम महावीर भगवान् धन्य तुम वर्द्धमान भगवान्।
शुभ आषाढ़ शुक्ला षष्ठी को हुआ गर्भ-कल्याण।।
माँ त्रिशला के उर में आये भव्य जनों के प्राण ।। धन्य तुम महावीर भगवान् धन्य तुम वर्द्धमान भगवान्।
ॐ ह्रीं आषाढ़ शुक्ला - षष्टिदिने गर्भकमंगल-मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।]।
चैत्र शुक्ल त्रयोदशी का दिवस पवित्र महान।
हुए अवतरित भारत-भू पर जग को दुखमय जान ।। धन्य तुम महावीर भगवान् धन्य तुम वर्द्धमान भगवान्।
ऊँ ह्रीं चैतशुक्ला-त्रयोदशीदिने जन्मकल्याण-प्राप्ताय श्रमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।2।
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जग को अथिर जान छाया मन में वैराग्य महान। मंगसिर कृष्णा दशमी के दिन तप हित किया प्रयाण।।
धन्य तुम महावीर भगवान् धन्य तुम वर्द्धमान भगवान्। ऊँ ह्रीं मंगसिरकृष्णा-दशमीदिने तपकल्याण-प्राप्ताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
शुक्ल ध्यान के द्वारा करके कर्म घाति अवसान। शभ बैसाख शक्ला दशमी को पाया केवलज्ञान।। धन्य तुम महावीर भगवान् धन्य तुम वर्द्धमान भगवान्। ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्ला-दशमीदिने ज्ञानकल्याणक-प्राप्ताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।4।
श्रावण कृष्णा एकम के दिन दे उपदेश महान। दिव्यध्वनि से समवशरण में किया विश्व-कल्याण।।
धन्य तुम महावीर भगवान् धन्य तुम वर्द्धमान भगवान्। ऊँ ह्रीं श्रावणकृष्णा-एकमदिने दिव्यध्वनि-प्राप्ताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।51
कार्तिक कृष्ण अमावस्या को पाया पद निर्वाण। पूर्ण परम-पद सिद्ध निरंजन आदि अनन्त महान।।
धन्य तुम महावीर भगवान् धन्य तुम वर्द्धमान भगवान्। ऊँ ह्रीं कार्तिककृष्णा-अमावस्यायां मोक्षपद-प्राप्ताय महावीरजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।6।
जयमाला जय महावीर त्रिशला-नन्दन जय सन्मति वीर सुवीर नमन। जय वर्धमान सिद्धार्थ-तनय जय वैशालिक अतिवीर नमन।। तुमने अनादि से नित्य निगोद के भीषण दुख को सहन किया। त्रस हुए कई भव के पीछे पर्याय मनुज में जन्म लिया।।
पुरुरवा भील से जीवन से प्रारम्भ कहानी होती है। अनगिनति भव धारे जैसी मति हो वैसी गति होती है।।
पुरुषार्थ किया पुण्योदय से तुम भरत-पुत्र मारीच हुए। मुनि बने और फिर भ्रमित हुए शुभ-अशुभ भाव के बीच हुए।।
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फिर तुम त्रिपृष्ठ नारायण बन हो गये अर्धचक्री प्रधान। फिर भी परिणाम नहीं सुधरे भव-भ्रमण किया तुमने अजान।।
फिर देव नरक तिर्यंच मनुज चारों गतियो में भरमाये। पर्याय सिंह की पुनः मिली पाँचों समवाय निकट आये।। अतिंजय और अमितगुण चारण मुनि नभ से भू पर आये।
उपदेश मिला उनका तुमको नयनों में आंसू भर आये। सम्यक्त्व हो गया प्राप्त तुम्हें, मिथ्यात्व गया, व्रत ग्रहण किया।
फिर देव हुए तुम सिंहकेतु सौधर्म स्वर्ग में रमण किया। फिर कनकोज्ज्वल विद्याधर हो मुनिव्रत से लांतव स्वर्ग मिला।। फिर हुए अयोध्या के राजा हरिषेण साधु पद हृदय खिला। फिर महाशक्र सरलोक मिला चय कर चक्री प्रियमित्र हुए। फिर मुनि पद धारण करके प्रभु तुम सहस्रार में देव हुए।। फिर हुए नन्द राजा मुनि बन तीर्थंकर नाम प्रकृति बांधी।
पुष्पोत्तर में हो अच्युतेन्द्र भावना आत्मा की साधी।। तुम स्वर्गयान पुष्पोत्तर तज माँ त्रिशला के उर में आये। छह-मास पूर्व से जन्म-दिवस तक रत्न इन्द्र ने बरसाये।।
वैशाली के कुण्डलपुर में हे स्वामी! तुमने जन्म लिया। सुरपति ने हर्षित सुमेरु गिरि पर क्षीरोदधि से अभिषेक किया।।
शुभ नाम तुम्हारा वर्द्धमान रख प्रमुदित हुआ इन्द्र भारी। बालकपन में क्रीड़ा करते तम मति-श्रुति-अवधि-ज्ञानाधारी।। संजय और विजय महामुनियों को दर्शन का विचार आया। शिशु वर्द्धमान के दर्शन से शंका का समाधान पाया।। मुनिवर ने सन्मति नाम रखा वे नमस्कार कर चले गये। तुम आठ वर्ष की अल्पायु में ही अणुव्रत में ढलते चले गये।।
संगम नामक एक देव परीक्षा हेतु नाग बनकर आया। तुमने निशंक उसके फण पर चढ़ नृत्य किया वह हर्षाया।। तत्क्षण हो प्रकट झुका मस्तक बोला स्वामी शत-शत वन्दन। अतिवीर, वीर, हे महावीर, अपराध क्षमा कर दो भगवन्।। गजराज एक ने पागल हो आतंकित सबको कर डाला। निर्भय उस पर आरुढ़ हुए पल भर में शान्त बना डाला।।
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भव-भोगों से होकर विरक्त तुमने विवाह से मुख मोड़ा। बस बाल बह्मचारी रहकर कंदर्प-शत्रु का मद तोड़ा। जब तीस वर्ष के युवा हुए वैराग्य भाव जागा मन में। लौकान्तिक आये धन्य-धन्य दीक्षा ली ज्ञातखण्ड मन में। नृपराज बकुल के गृह जाकर पारणा किया गौ दुग्ध लिया। देवों ने पंचाश्चर्य किये जन-जन ने जय-जयकार किया।। उज्जयनी की श्मशान भूमि में जाकर तुमने ध्यान किया। सात्यिकी-तनय भवरुद्र कुपित हो गया महा व्यवधान किया।। उपसर्ग रुद्र ने किया घोर तुम आत्म-ध्यान में रहे अटल। नतमस्तक रुद्र हुआ तब ही उपसर्ग जयी तुम हुए सफल।। कौशाम्बी में उस सती चन्दना दासी का उद्धार किया। हो गया अभिग्रह पूर्ण चन्दना के कर से आहार लिया।। नभ से पुष्पों की वर्षा लख नृप शतानीक पुलकित हुये।
वैशाली-नृप चेतक विछुड़ी चन्दना सुता पा हर्षाये।।
संगमक देव तमसे हारा जिसने भीषण उपसर्ग किये। तुम आत्म-ध्यान में रहे अटल अन्तर में समता भाव लिये।।
जितनी भी बाधाएँ आई उन सब पर तुमने जय पाई। द्वादश वर्षों की मौन-तपस्या और साधना फल लाई।। मोह-अरि-जयी श्रेणी चढ़कर तुम शुक्लध्यान में लीन हुए। ऋजुकूला के तट पर पाया कैवल्य पूर्ण स्वाधीन हुए।। अपने स्वरूप में मग्न हुए लेकर स्वभाव का अवलम्बन। घातिया-कर्म चारों नाशे प्रगटाया केवलज्ञान स्व-धन।।
अन्तरयामी सर्वज्ञ हुए तुम वीतराग अरहन्त हुए। सुर-नर-मुनि-इन्द्रादिक-वन्दित त्रैलोक्यनाथ भगवन्त हुए।। विपुलाचल पर दिव्य-ध्वनि के द्वारा जग को उपदेश दिया। जग की असारता बलताकर फिर मोक्षमार्ग सन्देश दिया।। ग्यारह गणधर में हे स्वामी! श्री गौतम गणधर प्रमुख हए। आर्यिक मुख्य चंदना सती श्रोता श्रेणिक नृप प्रमुख हुए।।
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सोई मानवता जाग उठी सुर नर पशु सबका हृदय खिला।
उपदेशामृत के प्यासों को प्रभु निर्मल सम्यक् ज्ञान मिला। निज आत्म-तत्त्व के आश्रय से निज सिद्ध स्वपद मिल जाता है। तत्त्वों के सम्यक निर्णय से निज आत्म-बोध हो जाता है।। यह अनंतानुबंधी कषाय निज-पर विवेक से जाती है।
बस भेदज्ञान के द्वारा ही रत्नत्रय-निधि मिल जाती है।। इस भरत क्षेत्र में विचरण कर जग जीवों का कल्याण किया। सद्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमयी रत्नत्रय-पथ अभियान किया।। तुम तीस वर्ष तक कर विहार पावापुर उपवन में आये। फिर योग निरोध किया तुमने निर्वाण गीत सबने गाये।।
चारों अघातिया नष्ट हुए परिपूर्ण शुद्धता प्राप्त हुई। जा पहँचे सिद्ध शिला पर तम दीपावली जग विख्यात हुई।।
हे महावीर स्वामी! अब तो मेरा दुःख से उद्धार करो। भव-सागर में डूबा हूँ मैं हे प्रभु! इस भव का भार हरो।। हे देव! तुम्हारे दर्शन कर निज रूप आज पहिचाना है। कल्याण स्वयं से ही होगा यह वस्तु-तत्त्व भी जाना है।। निज-पर विवेक जागा उर में समकित की महिमा आई है।
यह परम वीतरागी मुद्रा प्रभु देखी तो अति सुहाई है।। तुमने जो सम्यक् पथ सबको बतलाया उसका आचरलूँ। आत्मानुभूति के द्वारा मैं शाश्वत सिद्धत्व प्राप्त कर लूँ।।
मैं इसी भावना से प्रेरित होकर चरणों में आया हूँ। श्रद्धायुत विनय-भाव से मैं यह भक्ति-सुमन प्रभु लाया हूँ।। तुमको है कोटि-कोटि सादर वन्दन स्वामी स्वीकार करो।
हे मंगलमूर्ति तरण-तारण अब मेरा बेड़ा पार करो।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय जयमालापूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
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(दोहा) सिंह-चिन्ह शोभित चरण महावीर उर धार। मन, वच, तन जो पूजते वे होते भव पार।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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समुच्चय चौबीसी जिनपूजन ऋषभ अजित सम्भव अभिनन्दन, सुमति पदम सुपाश्व जिनराय ।
चन्द पुहुप शीतल श्रेयांस नमि, वासुपूज्य पूजित सुरराय ॥ विमल अनन्त धर्म जस-उज्ज्वल, शांति कुंथु अर मल्लि मनाय ।
मुनिसुव्रत नमि नेमि पार्थव प्रभु, वर्द्धमान पद पुष्प चढ़ाय ॥ ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिवीरांतचतुर्विंशतितीर्थकराः ! अत्र अवतरत अवतरत संवौषट् ।(आह्वाननम्) ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिवीरांतचतुर्विंशतितीर्थकराः ! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः । (स्थापनम्) ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिवीरांतचतुर्विंशतितीर्थकरा:! अत्र मम सन्निहितो भवत भवत वषट्।
(सन्निधिकरणम्)
मुनि मन सम उज्ज्वल नीर, प्रासुक गन्ध भरा।
भरि कनक - कटोरी धीर, दीनी धार धरा ॥ चौबीसों श्री जिनचन्द, आनन्द - कन्द सही।
पद जजत हरत भवफन्द, पावत मोक्ष - मही ॥ ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिमहावीरान्तेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
गोशीर कपूर मिलाय, केशर रंग भरी ।
जिन चरनन देत चढ़ाय, भव आताप हरी ॥ चौबीसों श्री जिनचन्द, आनन्द - कन्द सही।
पद जजत हरत भवफन्द, पावत मोक्ष - मही॥ ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिमहावीरान्तेभ्य: संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
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तन्दुल सित सोम समान, सुन्दर अनियारे ।
मुक्ताफल की उनमान, पुञ्ज धरों प्यारे । चौबीसों श्री जिनचन्द, आनन्द - कन्द सही।
पद जजत हरत भवफन्द, पावत मोक्ष - मही ॥ ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिमहावीरान्तेभ्योअक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
वर - कंज कदम्ब करण्ड, सुमन सुगन्ध भरे । __जिनअग्र धरों गुनमण्ड, कामकलंक हरे ॥ चौबीसों श्री जिनचन्द, आनन्द - कन्द सही।
पद जजत हरत भवफन्द, पावत मोक्ष - मही ॥ ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिमहावीरान्तेभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
मन - मोहन मोदक आदि, सुन्दर सद्य बने । रसपूरित प्रासुक स्वाद, जजत क्षुधादि हने । चौबीसों श्री जिनचन्द, आनन्द - कन्द सही।
पद जजत हरत भवफन्द, पावत मोक्ष - मही ॥ ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिमहावीरान्तेभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा ।
तम- खण्डन दीप जगाय, धारों तुम आगै । सब तिमिर मोहक्षय जाय, ज्ञानकला जागै ॥ चौबीसों श्री जिनचन्द, आनन्द - कन्द सही।
पद जजत हरत भवफन्द, पावत मोक्ष - मही ॥ ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिमहावीरान्तेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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दशगन्ध हुताशन माँहिं, हे प्रभु ! खेवत हों। मिस धूम करम जर जाँहिं, तुम पद सेवत हों। चौबीसों श्री जिनचन्द, आनन्द - कन्द सही।
पद जजत हरत भवफन्द, पावत मोक्ष - मही ॥ ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिमहावीरान्तेभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
शुचि पक्व सरसफल सार, सब ऋतु के ल्यायो ।
देखत दृग मन को प्यार, पूजत सुख पायो॥ चौबीसों श्री जिनचन्द, आनन्द - कन्द सही।
पद जजत हरत भवफन्द, पावत मोक्ष - मही॥ ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिमहावीरान्तेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
जल फल आठों शुचिसार, ताको अर्घ करों।
तुमको अरपों भवतार, भवतरि मोक्षवरों ॥ चौबीसों श्री जिनचन्द, आनन्द - कन्द सही।
पद जजत हरत भवफन्द, पावत मोक्ष - मही॥ ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिमहावीरान्तेभ्यो अनर्घपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
दोहा
श्रीमत तीरथनाथ पद, माथ नाय हित हेत । गाऊँ गुणमाला अबै अजर अमर पद देत ॥
छन्द घत्तानन्द जय भव तमभंजन, जनमनकंजन, रंजन दिनमनि स्वच्छकरा । शिवमग परकाशक, अरिगणनाशक, चौबीसों जिनराज वरा ॥
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छन्द पद्धरि जय ऋषभदेव ऋषि-गन नमन्त, जय अजित जीत वसु अरि तुरन्त । जय सम्भव भव-भय करत चूर, जय अभिनन्दन आनन्दपूर ॥१॥
जय सुमति सुमति दायक दयाल,जयपद्म पद्म दुति तन रसाल । जय जय सुपास भव-पास-नाश, जयचन्द, चन्द-तन-दुति-प्रकाश ॥
जय पुष्प-दन्त दुति-दन्त-सेत, जय शीतल शीतल-गुन-निकेत । जय श्रेयनाथ नुत-सहजभुज्ज, जय वासव-पूजित वासुपुज्ज ॥३॥ जय विमल विमल-पद-देनहार, जय जय अनन्त गुन-गन अपार । जय धर्म धर्म शिवशर्म देत, जय शान्ति शान्ति-पुष्टी करेत ॥४॥ जय कुन्थु कुन्थु-आदिक रखेय, जय अरजिन वसु अरि छय करेय। जय मल्लि मल्ल हत-मोहमल्ल, जय मुनिसुव्रत व्रतशल्य दल्ल ॥५॥
जय नमि नित वासव-नुत सपेम, जय नेमिनाथ वृष-चक्र-नेम । जय पारसनाथ अनाथ-नाथ, जय वर्धमान शिव-नगर साथ ॥ ६॥
छन्द घत्तानन्द चौबीस जिनन्दा, आनन्द-कन्दा, पाप-निकन्दा, सुखकारी ।
तिन पद-जुग-चन्दा, उदय अमन्दा, वासव-वन्दा, हितकारी ॥ ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिमहावीरान्तेभ्यो अनर्घपदप्राप्तये महाघ निर्वपामीति स्वाहा ।
सोरठा भुक्ति-मुक्ति-दातार, चौबीसों जिनराजवर । तिन पद मन वच धार, जो पूजै सो शिव लहै ॥
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।
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देव शास्त्र गुरु समुच्चय पूजन (रचयिता - वृन्दावनदास)
देवशास्त्र गुरु नमन करि, बीस तीर्थंकर ध्याय ।
सिद्ध शुद्ध राजत सदा, नमूं चित्त हुलसाय ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: श्री अनन्तानन्त सिद्धपरमेष्ठिभ्यो
अत्र अवतरत अवतरत संवौषट् । (इति आह्वाननम्) ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: श्री अनन्तानन्त सिद्धपरमेष्ठिभ्यो
अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः स्थापनम् । (स्थापनम्) ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः श्री अनन्तानन्त सिद्धपरमेष्ठिभ्यो
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (सन्निधिकरणम्)
अनादिकाल से जग में स्वामिन, जल से शुचिता को माना। शुद्ध निजातम सम्यक् रत्नत्रय, निधि को नहीं पहचाना ॥ अब निर्मल रत्नत्रय जल ले, श्री देवशास्त्रगुरु को ध्याऊँ।
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः श्री अनन्तानन्त सिद्धपरमेष्ठिभ्यो
जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
भव आताप मिटावन की, निज में ही क्षमता समता है।
अनजाने अब तक मैंने, पर में की झठी ममता है॥ चन्दन सम शीतलता पाने, श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ।
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः श्री अनन्तानन्त सिद्धपरमेष्ठिभ्यो
भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
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अक्षय पद बिन फिरा, जगत की लख चौरासी योनी में । अष्ट कर्म के नाश करन को, अक्षत तुम ढिंग लाया मैं ॥ अक्षयनिधि निज की पाने अब, श्रीदेवशास्त्रगुरु को ध्याऊँ । विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: श्री अनन्तानन्त सिद्धपरमेष्ठिभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
पुष्प सुगन्धी से आत ने, शील स्वभाव नशाया I मन्मथ बाणों से बिन्ध करके, चहुँगति दुःख उपजाया है ॥ स्थिरता निज में पाने को, श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ । विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: श्री अनन्तानन्त सिद्धपरमेष्ठिभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
षट्-रस मिश्रित भोजन से, ये भूख न मेरी शान्त हुई । आतमरस अनुपम चखने से, इन्द्रिय मन इच्छा शमन सर्वथा भूख के मेटन को, श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ। विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ।
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ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: श्री अनन्तानन्त सिद्धपरमेष्ठिभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
जड़ दीप विनश्वर को अब तक, समझा था मैंने उजियारा । निजगुण दरशायक ज्ञानदीप से, मिटा मोह का अंधियारा ॥ ये दीप समर्पण करके मैं, श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ । विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ||
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: श्री अनन्तानन्त सिद्धपरमेष्ठिभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
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ये धूप अनल में खेने से, कर्मों को नहीं जलायेगी। निज में निज की शक्ति ज्वाला, जो राग द्वेष नशायेगी । उस शक्ति दहन प्रगटाने को, श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ।
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ। ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः श्री अनन्तानन्त
सिद्धपरमेष्ठिभ्योअष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
पिस्ता बादाम श्रीफल लवंग, चरणन तुम ढिंग मैं ले आया। आतमरस भीने निजगुण फल, मम मन अब उनमें ललचाया। अब मोक्ष महाफल पाने को, श्रीदेव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ।
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ। ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्य: श्री अनन्तानन्त सिद्धपरमेष्ठिभ्यो
मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
अष्टम वसुधा पाने को, कर में ये आठों द्रव्य लिये। सहज शुद्धस्वाभाविकता से, निज में निज गुण प्रकट किये ॥ ये अर्घ्य समर्पण करके मैं, श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ ।
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ।। ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः श्री अनन्तानन्त सिद्धपरमेष्ठिभ्यो
अनर्घपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
देव शास्त्र गुरु बीस तीर्थंकर, सिद्धप्रभु भगवान ।
अब वरयूँ जयमालिका, करूँ स्तवन गुणगान ॥१॥ नसे घातिया कर्म अर्हत देवा, करें सुर-असुर नर-मुनि नित्य सेवा। दरश ज्ञान सुख बल अनन्त के स्वामी, छियालीस गुण युक्त महाईश नामी ॥
तेरी दिव्य वाणी सदा भव्य मानी, महा मोह विध्वंसिनी मोक्ष-दानी ।
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अनेकान्तमय द्वादशांगी बखानी, नमो लोक माता श्री जैन वाणी ॥ विरागी अचारज उवज्झाय साधू, दरश-ज्ञान भण्डार समता अराधूं ॥ नगन वेशधारी सु एका विहारी, निजानन्द मंडित मुकति पथ प्रचारी ॥
विदेह क्षेत्र में तीर्थंकर बीस राजे, विहरमान वं, सभी पाप भाजे । न[ सिद्ध निर्भय निरामय सुधामी, अनाकुल समाधान सहजाभिरामी ॥
देव शास्त्र गुरु बीस तीर्थंकर, सिद्ध हृदय बिच धर ले रे ।
पूजन ध्यान गान गुण करके, भव सागर जिय तर ले रे॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः श्री अनन्तानन्त सिद्धपरमेष्ठिभ्यो
अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला महायँ निर्वपामीति स्वाहा ।
भूत भविष्यत वर्तमान की तीस चौबीसी मैं ध्याऊँ,
चैत्य चैत्यालय कृत्रिमाकृत्रिम तीन लोक के मन लाऊँ । ॐ ह्रीं त्रिकालगततीसचौबीसीत्रिलोकसम्बन्धिकृत्रिमाकृत्रिम-चैत्यालयेभ्यो अर्घ्यं ।
चैत्य भक्ति आलोचन चाहं, कायोत्सर्ग अघ नाशन हेत । कृत्रिमा-कृत्रिम तीन लोक के राजत हैं जिन बिम्ब अनेक ॥ चतुर निकाय के देव जजें ले अष्ट द्रव्य निज भक्ति समेत । निज शक्ति अनुसार जजूं मैं, कर समाधि पाऊँ शिवखेत ॥ ॐ ह्रीं कृत्रिमाकृत्रिमचैत्यालयसम्बन्धिजिनबिम्बेभ्योअर्घ्य निर्व० ।
पूर्व मध्य अपराह्न की बेला, पूर्वाचार्यों के अनुसार । देव वन्दना करूं भाव से सकल कर्म की नाशन हार ॥ पंच महागुरु सुमरन करके, कायोत्सर्ग करूं सुखकार । सहज स्वभाव शुद्ध लख अपना जाऊँगा अब मैं भव पार ॥
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
(नौ बार णमोकार मंत्र जपे)
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देव-शास्त्र-गुरु पूजन ( कविवर द्यानतराय)
अडिल्ल छन्द
प्रथम देव अरहंत सुश्रुत सिद्धान्त जू,
गुरु निरग्रंथ महंत मुकतिपुर-पंथ जू । तीन रतन जगमाँहि सु ये भवि ध्याइये, तिनकी भक्ति प्रसाद परम पद पाइये ॥
पूजों पद अरहंत के, पूजों गुरुपद सार । पूजों देवी सरस्वती, नित प्रति अष्ट प्रकार ॥
ॐ ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुसमूह ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । (आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुसमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम् ) ॐ ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुसमूह ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (सन्निधिकरणम्)
गीता छन्द
सुरपति उरग नरनाथ तिन-करि, वन्दनीक सुपदप्रभा,
अति शोभनीक सुवरण उज्ज्वल, देख छवि मोहित सभा ।
वर नीर क्षीर-समुद्र घट भरि, अग्र तसु बहु विधि नचूँ, अरहंत श्रुत सिद्धान्त गुरु निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥
मलिन वस्तु हर लेत सब जलस्वभाव मल छीन । जासों पूजों परमपद देव-शास्त्र-गुरु तीन |
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
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जे त्रिजग - उदर मँझार प्रानी, तपत अति दुद्धर खरे, तिन अहित-हरन सुवचन जिनके, परम शीतलता भरे । तसु भ्रमर-लोभित घ्राण पावन, सरस चन्दन घसि सचूँ, अरहंत श्रुत सिद्धान्त गुरु निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥
चंदन शीतलता करै तपत वस्तु परवीन ।
जासों पूजों परमपद, देव- शास्त्र- गुरु तीन ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
यह भव- समुद्र अपार तारण, के निमित सुविधि ठई । अति दृढ़परम-पावन जथारथ, भक्ति वर नौका सही ॥ उज्ज्वल अखंडित सालि तंदुल, पुंज धरि त्रयगुण जचूँ । अरहंत श्रुत- सिद्धान्त गुरु- निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥ तंदुल सालि सुगंध अति, परम अखंडित बीन ।
जासों पूजों परमपद देव- शास्त्र- गुरु तीन ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
जे विनयवंत सुभव्य- उर- अंबुज प्रकाशन भान हैं।
जे एक मुख चारित्र भाषत, त्रिजग माहिं प्रधान हैं। लहि कुन्द-कमलादिक पहुप, भव-भव कुवेदन सों बचूँ । अरहंत श्रुत- सिद्धान्त गुरु- निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥ विविधभाँति परिमल सुमन, भ्रमर जास आधीन ।
जासों पूजों परमपद देव- शास्त्र- गुरु तीन ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पाणि निर्वपामीति स्वाहा ।
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अति सबल मद- कंदर्प जाको, क्षुधा- उरग अमान हैं। दुस्सह भयानक तासु नाशन को सुगरुड समान हैं। उत्तम छहों रस युक्त नित, नैवेद्य करि घृत में पयूँ । अरहंत श्रुत- सिद्धान्त गुरु- निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥ नानाविधि संयुक्तरस, व्यंजन सरस नवीन ।
जासों पूजों परमपद देव- शास्त्र- गुरु तीन ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
जे त्रिजग- उद्यम नाश कीने, मोह- तिमिर महाबली। तिहि कर्मघाती ज्ञानदीप- प्रकाशजोति प्रभावली ॥ इह भॉति दीप प्रजाल कंचन, के सुभाजन में खचूँ । अरहंत श्रुत- सिद्धान्त गुरु- निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥ स्वपरप्रकाशक ज्योति अति, दीपक तमकरि हीन ।
जासों पूजों परमपद देव- शास्त्र- गुरु तीन ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
जो कर्म- ईधन दहन अग्नि- समूह सम उद्धत लसै। वर धूप तासु सुगंधिताकरि, सकल परिमलता हँसै ॥ इह भाँति धूप चढ़ाय नित भव- ज्वलन माँहि नहीं पचूँ। अरहंत श्रुत- सिद्धान्त गुरु- निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥
अग्निमाँहिं परिमल दहन, चंदनादि गुणलीन ।
जासों पूजों परमपद देव- शास्त्र- गुरु तीन ॥ ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
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लोचन सुरसना घ्राण उर, उत्साह के कार I मोपै न उपमा जाय वरणी, सकल फल गुणसार हैं ॥ सो फल चढ़ावत अर्थपूरन, परम अमृतरस सचूँ । अरहंत श्रुत- सिद्धान्त गुरु- निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥ जे प्रधान फलफल विषै, पंचकरण रस लीन । जासों पूजों परमपद देवशास्त्र गुरु तीन | ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
जल परम उज्ज्वल गन्ध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरूँ । वर धूप निर्मल फल विविध बहु जनम के पातक हरूँ ॥ इह भाँति अर्घ चढ़ाय नित भवि करत शिवपंकति मचूँ । अरहंत श्रुत- सिद्धान्त गुरु- निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥ वसुविधि अर्घ संजोय कै, अति उछाह मन कीन । जासों पूजों परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन | ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो अनर्घपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
देव-शास्त्र-गुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार ।
भिन्न भिन्न कहुँ आरती, अल्प सुगुण विस्तार ॥
पद्धरि छन्द
चउकर्म कि त्रेसठ प्रकृति नाशि, जीते अष्टादश दोषराशि । जे परम सुगुण हैं अनंतधीर, कहवत के छयालिस गुणगंभीर ॥ १ ॥ शुभ समवसरण शोभा अपार, शत - इन्द्र नमत कर सीस धार । देवाधिदेव अरहन्त देव, वन्दों मन वच तन कर सु-सेव ॥ २ ॥ जिनकी धुनि ह्वै ओंकाररूप, निरअक्षरमय महिमा अनूप । दशअष्ट महाभाषा समेत, लघु भाषा सात शतक सुचेत ॥३ ॥ सो स्याद्वादमय सप्तभंग, गणधर गूँथे बारह सुअंग ।
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रवि शशि न हरै सो तम हराय, सो शास्त्र नमो बहु प्रीति ल्याय ॥४॥
गुरु आचारज उवझाय साधु, तन नगन रत्नत्रयनिधि अगाध । संसार देह वैराग्य धार, निरवांछि तपैं शिव-पद निहार ॥५ ॥ गुण छत्तिस पच्चिस आठबीस, भव तारनतरन जिहाज ईश ।
गुरु की महिमा वरनी न जाय, गुरुनाम जपो मन वचन काय ॥६॥
सोरठा
शक्ति प्रमान, शक्ति बिना सरधा धरै ।
द्यानत सरधावान, अजर - अमरपद भोगवै ॥
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो अनर्घपदप्राप्तये महाअर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
दो
श्रीजिन के परसाद तैं सुखी रहैं सब जीव । यातैं मन वचन तैं, सेवो भव्य सदीव ॥
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री देव-शास्त्र-गुरु पूजा (श्री युगल जी) केवल-रवि-किरणों से जिसका, सम्पूर्ण प्रकाशित है अन्तर।
जिस श्री जिनवाणी में होता, तत्वों का सुन्दरतम दर्शन। सद्दर्शन-बोध-चरण-पथ पर, अविरत जो बढ़ते हैं मुनिगण।
उन देवपरम-आगम-गुरु को, शत-शत वंदन शत-शत वंदन।। ॐ ह्री श्रीदेव-शास्त्र-गुरुसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौष्ट्। (आह्वाननम्)
ॐ ह्री श्रीदेव-शास्त्र-गुरुसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्री श्रीदेव-शास्त्र-गुरुसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्नि धिकरणम्)
इन्द्रिय के भोग मधुर विष सम, लावण्यमयी कंचन काया। यह सब कुछ जड़ की क्रीड़ा है, मैं अब तक जान नहीं पाया।।
मैं भूल स्वयं के वैभव को, पर ममता में अटकाया हूँ।
अब निर्मल सम्यक् नीर लिये, मिथ्या मत धोने आया हूँ।। ऊँ ह्री श्रीदेवशास्त्र गुरुभ्यः जन्जमरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
जड़ चेतन की सब परिणति प्रभु! अपने-अपने में होती है। अनुकूल कहैं प्रतिकूल कहैं, यह झूठी मन की वृत्ति है।। प्रतिकूल संयोगों में क्रोधित, होकर संसार बढ़ाया है।
संतप्त हृदय प्रभु! चन्दन सम, शीतलता पाने आया है।। ऊँ ह्री श्रीदेवशास्त्र गुरुभ्यः संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
उज्ज्वल हूँ कुन्दन धवल हूँ प्रभु! पर से न लगा हूँ किंचित भी। फिर भी अनुकूल लगें उनपर, करता अभिमान निरन्तर ही।
जड़ पर झुक-झुक जाता चेतन, नश्वर वैभव को अपनाया। निज शाश्वत अक्षय-निधि पाने अब दास चरण-रज में आया।। ऊँ ह्री श्रीदेवशास्त्र गुरुभ्यः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।3।
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यह पुष्प सुकोमल कितना है, तन में माया कुछ शेष नहीं। निज अन्तर का प्रभु भेद कहूँ, उसमें ऋजुता का लेश नहीं। चिंतन कुछ, फिर सम्भाषण कुछ क्रिया छ की कुछ होती है। स्थिरता निज में प्रभु पाऊँ जो, अन्तर का कालुष धोती है। ऊँ ह्री श्रीदेवशास्त्र गुरुभ्यः कामबाण विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
अब तक अगणित जड़ द्रव्यों से, प्रभु ! भूख न मेरी शांत हुई । तृष्णा की खाई खूब भरो, पर रिक्त रही वह रिक्त रही।
युग युग से इच्छा सागर में, प्रभु! गोते खाता आया हूँ।
पंचेन्द्रिय मन के षट्-रस तज, अनुपम रस पीने आया हूँ।
ऊँ ही श्रीदेवशास्त्र गुरुभ्यः क्षुधाराग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
मेरे चैतन्य सदन में प्रभु! चिर व्याप्त भयंकर अंधियारा। श्रुत-दीप बुझा हे करुणानिधि ! बीती नहिं कष्टों की कारा ।
अतएव प्रभो! यह ज्ञान-प्रतीक, समर्पित करने आया हूँ। तेरी अन्तर लौ से निज अन्तर दीप जलाने आया हूँ।।
ऊँ ह्री श्रीदेवशास्त्र गुरुभ्यः मोहांधकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।6।
जड़
कर्म घुमाता है मुझको, यह मिथ्या भ्रान्ति रही मेरी । मैं राग-द्वेष किया करता, जब परिणति होती जड़ के ।
यों भाव करम या भाव मरण, युग युग से करता आया हूँ। निज अनुपम गंध अनल से प्रभु, पर गंध जलाने आया हूँ।।
ॐ ह्री श्रीदेवशास्त्र गुरुभ्यः अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। 7।
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जग में जिसको निज कहता मैं, वह छोड़ मुझे चल देता है। आकुल व्याकुल हो लेता, व्याकुल का फल व्याकुलता है। मैं शान्त निराकुल चेतन हूँ, है मुक्ति रमा सहचरि मेरी, यह मोह तड़क कर टूट पड़े प्रभु! सार्थक फल पूजा तेरी।। ॐ ही श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। 8 ।
क्षणभर निज रस को पी चेतन, मिथ्या मल को धो देता है। काषायिक भाव विनष्ट किये निज आनन्द अमृत पीता है। अनुपम सुख तब विलसित होता, केवल रवि जगमग करता है ।
दर्शन बल पूर्ण प्रगट होता, यह ही अर्हंत अवस्था है।। यह अघ्य समर्पण करके प्रभु! निज गुण का अध्य बनाऊंगा। और निश्चित तेरे सदृश प्रभु! अर्हत अवस्था पाऊंगा।। ॐ ह्री श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा।1।
जयमाला
बारह भावना चिन्तन
भववन में जी भर घूम चुका, कण कण को जी भर भर देखा। मृग-सम मृग तृष्णा के पीछे, मुझको न मिल सुख की रेखा । 1 । झूठे जग के सपने सारे, झूठी मन की सब आशायें। तन-जीवन-यौवन अस्थिर हैं, क्षण-भंगुर पल में मुरझायें।2। सम्राट महाबली सेनानी, उस क्षण को टाल सकेगा क्या । अशरण मृत काया में हर्षित, निज जीवन डाल सकेगा क्या | 3 | संसार महा दुःख सागर के, प्रभु दुःखमय सुख आभासों में। मुझको न मिला सुख क्षण भर भी, कंचन - कामिनि - प्रासादों में।4। मैं एकाकी एकत्व लिए, एकत्व लिए सब ही आते। तन धन को साथी समझा था, पर वे भी छोड़ चले जाते। 5 ।
मेरे न हुए ये मैं इनसे, अति भिन्न अखण्ड निराला हूँ।
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निज में पर से अन्यत्व लिए, निज सम रस पीने वाला हूँ।6।
जिसके श्रृंगारों में मेरा, यह मंहगा जीवन घुल जाता। अत्यन्त अशुचि जड़ काय से, इस चेतन का कैसा नाता।7।
दिन रात शुभाशुभ भावों से, मेरा व्यापार चला करता। मानस वाणी और काया से, आस्रव का द्वार खुला रहता।8। शुभ और अशुभ की ज्वाला से, झुलसा है मेरा अन्तस्थल।
शीतल समकित किरणें फूटें, संवर से जागे अन्तर्बल।9। फिर तप की शोधक वह्नि जगे, कर्मों की कड़ियाँ टूट पड़ें। सर्वांग निजातम प्रदेशों से, अमृत के निर्झर फूट पड़ें।10। हम छोड चलें यह लोक तभी, लोकांत वरानें क्षण में जा। निज लोक हमारा वासा हो, फिर भव बन्धन से हमको क्या।11।
जागे मम दुर्लभ बोधि प्रभो! दुर्नयतम सत्वर टल जावे। बस ज्ञाता-दृष्टा रह जाऊं, मद-मत्सर मोह-विनाश जावे।12।
चिर रक्षक धर्म हमारा हो, हो धर्म हमारा चिर साथी। जग में न हमारा कोई था, हम भी न रहें जग के साथी।13।
देव-स्तवन चरणों में आया हूँ प्रभुवर, शीतलता मुझको मिल जावे। मुरझाई ज्ञान लता मेरी, निज अन्तर्बल से खिल जावे।14।
सोच करता हूँ भोगों से, बुझ जावेगी इच्छा ज्वाला। परिणाम निकलता है लेकिन, मानों पावक में घी डाला।15।
तेरे चरणों की पूजा से, इन्द्रिय सुख की ही अभिलाषा। अब तक न समझ ही पाया प्रभु! सच्चे सुख की भी परिभाषा।16।
तुम तो अविकारी हो प्रभुवर! जग में रहते जग से न्यारे। अतएव झुके तव चरणों में, जग के माणिक मोती सारे।171
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शास्त्र-स्तवन स्याद्वादमयी तेरी वाणी, शुभनय के झरने झरते हैं। उस पावन नौका पर लाखों, प्राणी भव-वारिधि तिरते हैं।18। हे गुरुवर! शाश्वत सुख-दर्शक, यह नग्न स्वरूप तुम्हारा है।
जग की नश्वरता का सच्चा दिग्दर्शन करने वाला है।19। जब जग विषयों में रच पच कर, गाफिल निद्रा में सोता हो। अथवा वह शिव के निष्कंटक, पथ में विष-कंटक बोता हो।20।
हो अर्थ निशा का सन्नाटा, वन में वनचारी चरते हो। तब शान्त निराकुल मानस तुम, तत्वों का चिंतन करते हो।21।
करते तप शैल नदी तट पर, तरु तल वर्षा की झडियों में समता रस पान किया करते, सुख दुख दोनों की घड़ियों में।22।
अन्तर ज्वाला हरती वाणी, मानों झड़ी हों फुलझडियां। भव बन्धन तड़ तड़ टूट पड़ें, खिल जावें अन्तर की कलियां।23। __ तुम सा दानी क्या कोई हो, जग को दे दीं जग की निधियां। दिन रात लुटाया करते हो, सम-शम की अविनश्वर मणियां। 24
हे निर्मल देव! तुम्हें प्रणाम, हे ज्ञान दीप आगम! प्रणाम। हे शान्ति त्याग के मूर्तिमान, शिव-पंथ-पंथी गुरुवर! प्रणाम।। ऊँ ही श्रीदेव शास्त्र गुरुभ्यः पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि॥
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सोलहकारण पूजा (कविवर द्यानतराय) सोलह कारण भाय तीर्थंकर जे भये । हरषे इन्द्र अपार मेरु पै ले गये ॥ पूजा करि निज धन्य लख्यो बहु चाव सौं । हमहू षोडश कारन भावें भाव सौं ॥ ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणानि ! अत्र अवतरत अवतरत संवौषट् । (आह्वाननम्) ___ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणानि ! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः । (स्थापनम्) । ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणानि! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
अष्टक
कंचन-झारी निरमल नीर पूजों जिनवर गुन-गंभीर ।
परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ दरशविशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थंकर पद दाय ।
परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन घसौं कपूर मिलाय, पूजौं श्रीजिनवर के पाय । __परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ दरशविशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थंकर पद दाय ।
परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्यो भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
तंदुल धवल सुगंध अनूप, पूजौं जिनवर तिहुँ जगभूप ।
परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो । दरशविशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थंकर पद दाय ।
परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
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फूल सुगंध मधुप- गुंजार, पूजौं जिनवर जग - आधार । परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ दरशविशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थंकर पद दाय । परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
सद नेवज बहुविधि पकवान, पूजौं श्रीजिनवर गुणखान | परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो || दशविशुद्ध भावना भाय, सोलह तीर्थंकर पद दाय । परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो |
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक ज्योति तिमिर छयकार, पूजूं श्रीजिन केवलधार । परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो । दरशविशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थंकर पद दाय । परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो |
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्यो मोहान्धकारविनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगर कपूर गंध शुभ खेय, श्रीजिनवर आगे महकेय । परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो |
दरशविशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थंकर पद दाय ।
परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
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श्रीफल आदि बहुत फलसार, पूजौं जिन वांछित-दातार ।
परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो । दरशविशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थंकर पद दाय । परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥
गोडशकारणेभ्यो मोक्षपदप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
ॐ ह्रीं दी
जल फल आठों दरब चढ़ाय, द्यानतवरत करों मन लाय।
परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ दरशविशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थंकर पद दाय ।
परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादि षोडशकारणेभ्यः अनर्घ्यप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
प्रत्येक भावना के अर्घ्य (सवैया तेईसा) दर्शन शुद्ध न होवत जो लग, जो लग जीव मिथ्याती कहावे।
काल अनंत फिरे भव में, महादुःखनको कहुं पार न पावे।। दोष पचीस रहित गुण-अम्बुधि , सम्यग्दरशन शुद्ध ठरावे। 'ज्ञान' कहे नर सोहि बड़ो, मिथ्यात्व तजे जिन-मारग ध्यावे।। ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धि भावनायै नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।।
देव तथा गुरुराय तथा, तप संयम शील व्रतादिक-धारी। पापके हारक कामके छारक, शल्य-निवारक कर्म-निवारी।।
धर्म के धीर कषायके भेदक, पंच प्रकार संसार के तारी। 'ज्ञान' कहे विनयो सुखकारक, भाव धरो मन राखो विचारी।। ॐ ह्रीं विनयसम्पन्नता भावनायै नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।2।
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शील सदा सुखकारक है, अतिचार-विवर्जित निर्मल कीजे।
दानव देव करें तसु सेव, विषानल भूत पिशाच पतीजे।। शील बड़ो जग में हथियार, जु शीलको उपमा काहे की दीजे।
'ज्ञान' कहे नहिं शील बराबर, तातें सदा दृढ़ शील धरीजे।। ॐ ह्रीं निरतिचार शीलव्रत भावनायै नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
ज्ञान सदा जिनराज को भाषित, आलस छोड़ पढ़े जो पढ़ावे। द्वादश दोउ अनेकहुँ भेद, सुनाम मती श्रुति पंचम पावे।।
चारहुँ भेद निरन्तर भाषित, ज्ञान अभीक्षण शुद्ध कहावे। 'ज्ञान' कहे श्रुत भेद अनेक जु, लोकालोक हि प्रगट दिखावे।। ॐ ह्रीं अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावनायै नम: अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।40
भ्रात न तात न पुत्र कलत्र न, संगम दर्जन ये सब खोटो। मन्दिर सुन्दर, काय सखा सबको, हमको इमि अंतर मेटो।।
भाउ के भाव धरी मन भेदन, नाहिं संवेग पदारथ छोटो। 'ज्ञान' कहे शिव-साधन को जैसो, साह को काम करे जु बणोटो।।
ॐ ह्रीं संवेग भावनायै नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।5।
पात्र चतुर्विध देख अनूपम, दान चतुर्विध भावसुं दीजे। शक्ति-समान अभ्यागत को, अति आदर से प्रणिपत्य करीजे।।
देवत जे नर दान सुपात्रहिं, तास अनेकहिं कारण सीझे। बोलत 'ज्ञान' देहि शुभ दान जु, भोग सुभूमि महासुख लीजे।। ॐ ह्रीं शक्ति तस्त्याग भावनायै नम: अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।6।
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कर्म कठोर गिरावन को निज, शक्ति-समान उपोषण कीजे। बारह भेद तपे तप सुन्दर, पाप जलांजलि काहे न दीजे।। भाव धरी तप घोर करी, नर जन्म सदा फल काहे न लीजे। 'ज्ञान' कहे तप जे नर भावत, ताके अनेकहिं पातक छीजे।। ॐ ह्रीं शक्तितस्तप भावनायै नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।7।
साधुसमाधि करो नर भावक, पुण्य बड़ो उपजे अघ छीजे। साधु की संगति धर्मको कारण, भक्ति करे परमारथ सीजे।।
साधुसमाधि करे भव छूटत, कीर्ति-छटा त्रैलोक में गाजे। 'ज्ञान' कहे यह साधु बड़ो, गिरिश्रृंग गुफा बिच जाय विराजे।। ॐ ह्रीं साधुसमाधि भावनायै नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।8।
कर्म के योग व्यथा उदये, मुनि पुंगव कुन्तस सुभेषज कीजे। पित्त-कफानिल साँस, भगन्दर, ताप को शूल महागद छीजे।। भोजन साथ बनाय के औषध, पथ्य कुपथ्य विचार के दीजे।
'ज्ञान' कहे निज ऐसी वैय्यावृत्य करे तस देव पतीजे।। ॐ ह्रीं वैयावृत्यकरण भावनायै नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।9।
देव सदा अरिहन्त भजो जई, दोष अठारा किये अति दूरा। पाप पखाल भये अति निर्मल, कर्म कठोर किए चकचूरा।। दिव्य-अनन्त-चतुष्टय शोभित, घोर मिथ्यान्ध-निवारण सूरा। 'ज्ञान' कहे जिनराज आराधो, निरन्तर जे गुण-मन्दिर पूरा।। ॐ ह्रीं अर्हद्-भक्ति भावनायै नम: अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।10।
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देवत ही उपदेश अनेक सु, आप सदा परमारथ-धारी। देश विदेश विहार करें, दश धर्म धरे भव-पार उतारी।। ऐसे अचारज भाव धरी भज, सो शिव चाहत कर्म निवारी। 'ज्ञान' कहे गुरु-भक्ति करो नर, देखत ही मनमांहि विचारी।। ॐ ह्रीं आचार्य भक्ति भावनायै नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।। ।।
आगम छन्द पुराण पढ़ावत, सहित तर्क वितर्क बखाने। काव्य कथा नव नाटक पूजन, ज्योतिष वैद्यक शास्त्र प्रमाने।।
ऐसे बहुश्रुत साधु मुनीश्वर, जो मन में दोउ भाव न आने। बोलत 'ज्ञान' धरी मन सान जु, भाग्य विशेष ते ज्ञानहि साने।। ॐ हीं बहुश्रुतिभक्ति भावनायै नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।12।
द्वादश अंग उपांग सदागम, ताकी निरंतर भक्ति करावे।
वेद अनूपम चार कहे तस, अर्थ भले मन मांहि ठरावे।। पढ़ बहुभाव लिखो निज अक्षर भक्ति करो बड़ि पूज रचावे।
'ज्ञान' कहे जिन आगम-भक्ति, रे सद्-बुद्ध बहुश्रुत पावे।। ॐ ह्रीं प्रवचनभक्ति भावनायै नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।13।
भाव धरे समता सब जीवसु, स्तोत्र पढ़े मुख से मनहारी। कायोत्सर्ग करे मन प्रीतसु, वंदन देव-तणों भव तारी।। ध्यान धरी मद दूर करी, दोउ बेर करे पड़कम्मन भारी।
'ज्ञान' कहे मुनि सो धनवन्त जु, दर्शन ज्ञान चरित्र उघारी।। ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणि भावनायै नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।140
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जिन-पूजा रे परमारथसूं, जिन आगे नृत्य महोत्सव ठाणे।
गावत गीत बजावत ढोल, मृदंगके नाद सुधांग बखाणे।। संग प्रतिष्ठा रचे जल-जातरा, सद्-गुरु को साहमो कर आणे। 'ज्ञान' कहे जिन मार्ग-प्रभावन, भाग्य-विशेषसु जानहिं जाणे।। ॐ ह्रीं मार्गप्रभावना भावनायै नम: अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।15।
गौरव भाव धरो मन से मुनि-पुंगव को नित वत्सल कीजे। शीलके धारक भव्य के तारक, तासु निरंतर स्नेह धरीजे।। धेनु यथा निजबालक को, अपने जिय छो ड़ि न और पतीजे। 'ज्ञान' कहे भवि लोक सुनो, जिन वत्सल भाव धरे अघ छीजे।। ॐ ह्रीं प्रवचन-वाल्सल्य भावनायै नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।16।
जाप्य मंत्र- ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यै नमः, ॐ ह्रीं विनयसंपन्नतायै नमः, ॐ ह्रीं शीलव्रताय नमः, ॐ
ह्रीं अभीक्ष्णज्ञानोपयोगाय नमः, ॐ ह्रीं संवेगाय नमः, ॐ ह्रीं शक्तितस्त्यागाय नमः, ॐ ह्रीं शक्तितस्तपसे नमः, ॐ ह्रीं साधुसमाध्यै नमः, ॐ ह्रीं वैयावृत्त्यकरणाय नमः, ॐ ह्रीं अर्हद्भक्त्यै नमः,
ॐ ह्रीं आचार्यभक्त्यै नमः, ॐ ह्रीं बहुश्रुतभक्त्यै नमः, ॐ ह्रीं प्रवचनभक्त्यै नमः, ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाण्यै नमः, ॐ ह्रीं मार्गप्रभावनायै नमः, ॐ ह्रीं प्रवचनवात्सल्यै नमः।16।
जयमाला
दोहा
षोडश कारण गुण करै, हरै चतुरगति-वास । पाप पुण्य सब नाश के, ज्ञान-भानु परकाश ॥
चौपाई दरश-विशुद्धि धरे जो कोई, ताकौ आवागमन न होई। विनय-महाधारै जो प्राणी, शिववनिता की सखी बखानी ॥
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शील सदा दिढ़ जो नर पालै, सो औरन की आपद टालै ।
ज्ञानाभ्यास करै मन मॉहीं, ताके मोह-महातम नाहीं ॥ जो संवेग-भाव विसतारे, सुरग-मुकति-पद आप निहारै । दान देय मन हरष विशेखै, इह भव जस परभव सुख देखै ॥
जो तप तपै खपै अभिलाषा, चूरे करम-शिखर गुरु भाषा। साधु-समाधि सदा मन लावै, तिहुँ जग-भोग भोगि शिव जावै।।
निश-दिन वैयावृत्य करैया, सो निहचै भव-नीर तिरैया । जो अरहंत-भगति मन आने, सो जन विषय-कषाय न जाने ॥
जो आचारज-भगति करै हैं, सो निर्मल आचार धरै है। बहुश्रुतवंत-भगति जो करई, सो नर संपूरन श्रुत धरई ॥ प्रवचन-भगति करै जो ज्ञाता, लहै ज्ञान परमानंद-दाता । षट-आवश्यक काल जो साथै, सो ही रत्नत्रय आराधै ॥ धर्म-प्रभाव करै जे ज्ञानी, तिन शिव-मारग रीति पिछानी ।
वत्सल अंग सदा जो ध्यावै, सो तीर्थंकर पदवी पावै ॥ ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध विनयसंपन्नता शीलव्रतेष्वनतिचाराभीक्ष्णज्ञानोपयोग संवेग-शक्तितस्त्यागतपस्साधुसमाधि-वैयावृत्त्यकरणार्हद्रक्ति-बहुश्रुतभक्ति-प्रवचनभक्ति-आवश्यकापरिहाणि-मार्गप्रभावना
प्रवचन-वात्सल्येति तीर्थंकरत्व-कारणेभ्यो पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा ।
दोहा
ये ही सोलह भावना, सहित धरै व्रत जोय ।
देव इन्द्र-नर-वन्द्य-पद द्यानत शिवपद होय।। ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धि यादि षोडशकारणेभ्यः पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा ।
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सवैया तेईसा सुन्दर षोडशकारण भावना निर्मल चित्त सुधारक धारै । कर्म अनेक हने अति दुर्धर जन्म जराभय मृत्यु निवारे ॥
दःख दरिद्र विपत्ति हरै भव-सागरको पर पार उतारै । ज्ञान कहे यही षोडशकारण कर्म निवारण सिद्ध सुधारै ॥
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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पंचमेरु-पूजा (कविवर द्यानतराय)
गीता छन्द तीर्थंकरों के न्हवन जल तैं भये तीरथ शर्मदा, तातै प्रदच्छन देत सुर-गन पंच मेरुन की सदा। दो जलधि ढाई-द्वीप में सब गनत-मूल विराजहीं,
पूजौं असी जिनधाम-प्रतिमा होहि सुख, दुख भाजहीं ॥ ॐ ह्रीं पञ्चमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनप्रतिमासमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (स्थापनम्) ॐ ह्रीं पञ्चमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनप्रतिमासमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः।(आह्वाननम्) ॐ ह्रीं पञ्चमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनप्रतिमासमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव
वषट्। (सन्निधिकरणम्)
चौपाई आंचलीबद्ध सीतल-मिष्टसवास मिलाय, जल सौं पजौं श्रीजिनराय ।
महासुख होय देखे नाथ परम सुख होय ॥ पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमा जी को करों प्रणाम ।
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन विजय अचल मन्दर विद्युन्मालि पञ्चमेरुसम्बन्धिजिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यो जलं
___ निर्वपामीति स्वाहा।
जल केशर करपूर मिलाय, गंधसौं पूजौं श्रीजिनराय ।
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥ पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमा जी को करों प्रणाम ।
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥ ॐ ह्रीं पञ्चमेरुसम्बन्धि जिनचैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यश्चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।
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अमल अखंड सुगंध सुहाय, अच्छतसौं पूजौं जिनराय । महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥
पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमा जी को करों प्रणाम ।
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥ ॐ ह्रीं पञ्चमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनबिम्बेभ्योअक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
बरन अनेक रहे महकाय, फूल सौं पूजौं जिनराय ।
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥
पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमा जी को करों प्रणाम ।
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥
ॐ ह्रीं पञ्चमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनबिम्बेभ्यः पुष्पाणि निर्वपामीति स्वाहा ।
मनवांछित बहु तुरत बनाय, चरु सौं पूजौं श्रीजिनराय ।
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥
पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमा जी को करों प्रणाम ।
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥ ॐ ह्रीं पञ्चमेरूसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनबिम्बेभ्यो नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
तमहर उज्ज्वल ज्योति जगाय, दीप सौं पूजौं श्रीजिनराय। महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥
पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमा जी को करों प्रणाम ।
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥
ॐ ह्रीं पञ्चमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनबिम्बेभ्यो दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
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खेऊँ अगर अमल अधिकाय, धूप सौं पूजौं श्रीजिनराय।
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥ पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमा जी को करों प्रणाम ।
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥ ॐ ह्रीं पञ्चमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनबिम्बेभ्यो धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
सुरस सुवर्ण सुगन्ध सुभाय, फल सौं पूजौं श्री जिनराय।
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥ पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमा जी को करों प्रणाम ।
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥ ॐ ह्रीं पञ्चमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनबिम्बेभ्यः फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
आठ दरबमय अरघ बनाय, द्यानत पूजौं श्रीजिनराय ।
___ महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥ पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमा जी को करों प्रणाम ।
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥ ॐ ह्रीं पञ्चमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनबिम्बेभ्योअर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला सोरठा
प्रथम सुदर्शन स्वामि, विजय अचल मन्दर कहा।
विद्युन्माली नाम, पंच मेरु जग में प्रगट ॥
बेसरी छन्द प्रथम सुदर्शन मेरु विराजै, भद्रशाल, वन भूपर छाजै । चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वन्दना हमारी ॥ ऊपर पंच-शतक पर सोहै, नन्दन-वन देखत मन मोहै।
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चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वन्दना हमारी । साढ़े बासठ सहस उँचाई, वन सुमनस शोभै अधिकाई।
चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वन्दना हमारी ॥ ऊँचा जोजन सहस-छत्तीसं, पाण्डुक-वन सोहै गिरि-सीसं । चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वन्दना हमारी ॥
चारों मेरु समान बखाने, भूपर भद्रसाल चहुँ जाने । चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वन्दना हमारी ॥ ऊँचे पाँच शतक पर भाखे, चारों नन्दनवन अभिलाखे । चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वन्दना हमारी ॥ साढ़े पचपन सहस उतंगा, वन सौमनस चार बहुरंगा। चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वन्दना हमारी ॥ उच्च अठाइस सहस बताये, पांडुक चारों वन शुभ गाये। चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वन्दना हमारी ॥ सुर नर चारन वन्दन आवै, सो शोभा हम किह मुख गावें । चैत्यालय अस्सी सुखकारी, मन वच तन वन्दना हमारी ॥
दोहा पंच मेरु की आरती, पढ़े सुनै जो कोय ।
द्यानत फल जानै प्रभू तुरत महासुख होय ॥ ॐ ह्रीं पञ्चमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनबिम्बेभ्यो महाघ निर्वपामीति स्वाहा ।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि॥
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दशलक्षणधर्म-पूजा
अडिल्ल उत्तम छिमा मारदव आरजव भाव हैं, सत्य शौच संयम तप त्याग उपाव हैं।
आकिंचन ब्रह्मचर्य धरम दस सार हैं,
चहुँगति-दुख तें काढ़ि मुकति करतार हैं । ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्र अवतरतु अवतरतु संवौषट् । (आह्वाननम्) ____ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्र तिष्ठतु तिष्ठतु ठः ठः । (स्थापनम्) ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्र मम सन्निहितो भवतु भवतु वषट् । (सन्निधिकरणम्)
सोरठा हेमाचल की धार, मुनि-चित सम शीतल सुरभि ।
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं उत्तमक्षमा-मार्दव-आर्जव-सत्य-शौच-संयम-तपस्त्यागाकिञ्चन्य-ब्रह्मचर्याणीति दशलक्षण
धर्माय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
चन्दन केशर गार, होय सुवास दशों दिशा।
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।
अमल अखण्डित सार, तन्दुल चन्द्र समान शुभ ।
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
फूल अनेक प्रकार, महके ऊ रध-लोकलों। ___ भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय पुष्पा निर्वपामीति स्वाहा ।
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नेवज विविध निहार, उत्तम षट्-रस-संजुगत । भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
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बाति कपूर सुधार, दीपक-ज्योति सुहावनी । भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥ 'उत्तम क्षमादिदशलक्षणधर्माय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
अगर धूप विस्तार, फैले सर्व सुगन्धता । भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
फल की जाति अपार, प्रान- नयन- मन- मोहने । भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
आठों दरब संवार, द्यनत अधिक उछाह सौं।
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
अंगपूजा सोरठा
पीड़ें दुष्ट अनेक, बाँध मार बहुविधि करें । धरिये छिमा विवेक, कोप न कीजै पीतमा ॥
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चौपाई उत्तम छिमा गहो रे भाई, इह भव जस पर-भव सुखदाई। गाली सुनि मन खेद न आनो, गुन को औगुन कहै अयानो ।
गीता छन्द कहि है अयानो वस्तु छीने, बाँध मार बहुविधि करै ।
घर नै निकारै तन विदार, बैर जो न तहाँ धरै ॥ तें करम पूरब किये खोटे, सहै क्यों नहिं जीयरा। अति क्रोध-अगनि बुझाय प्रानी, साम्यजल ले सीयरा ॥ ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
मान महाविष रूप, करहि नीच-गति जगत में।
कोमल सुधा अनूप, सुख पावै प्रानी सदा ॥ उत्तम मार्दव-गुन मन माना, मान करन कौ कौन ठिकाना । बस्यो निगोद माहिं तें आया, दमरी रूकन भाग बिकाया ॥
रूकन बिकाया भागवश तें, देव इकइन्द्री भया। उत्तम मुआ चाण्डाल हूवा, भूप कीड़ों में गया । जीतव्य जोवन धन गुमान, कहा करै जल-बुदबुदा । करि विनय बहु-गुन बड़े जन की, ज्ञान का पावै उदा ॥ ॐ ह्रीं उत्तममार्दवधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
कपट न कीजे कोय, चोरन के पुर ना बसै।
सरल सुभावी होय, ताके घर बहु सम्पदा ॥ उत्तम-आर्जव रीति बखानी, रंचक दगा बहुत दुखदानी । मन में हो सो वचन उचरिये, वचन होय सो तन सौं करिये ॥
करिये सरल तिहुँ जोग अपने, देख निरमल आरसी। मुख करै जैसा लखै तैसा, कपट-प्रीति अंगार-सी ॥
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नहिं लहै लछमी अधिक छल करि, करम-बन्ध-विशेषता ।
भय त्यागि दूध बिलाव पीवै, आपदा नहिं देखता ॥ ॐ ह्रीं उत्तमार्जवधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
कठिन वचन मति बोल, पर-निन्दा अरु झूठ तज।
साँच जवाहर खोल, सतवादी जग में सुखी ॥ उत्तम सत्य वरत पालीजै, पर विश्वासघात नहिं कीजै । साँचे-झूठे मानुष देखो, आपन पूत स्वपास न पेखो ॥ पेखो तिहायत पुरुष साँचे को दरब सब दीजिये। मुनिराज-श्रावक की प्रतिष्ठा साँच गुण लख लीजिये । ऊँचे सिंहासन बैठि वसु नृप, धरम का भूपति भया ।
वच झूठ सेती नरक पहुँचा, सुरग में नारद गया ॥ ॐ ह्रीं उत्तमसत्यधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
धरि हिरदै सन्तोष, करहु तपस्या देह सौं।
शौच सदा निरदोष, धरम बड़ो संसार में ॥ उत्तम शौच सर्व जग जाना, लोभ पाप को बाप बखाना।
आशा-पास महा दुखदानी, सुख पावै सन्तोषी प्रानी ॥ प्रानी सदा शुचि शील जप-तप, ज्ञान-ध्यान प्रभाव तैं । नित गंग जमुन समुद्र न्हाये, अशुचि-दोष स्वभाव तें ॥ ऊपर अमल मल भर्यो भीतर, कौन विधि घट शुचि कहै। बहु देह मैली सुगुन - थैली, शौच - गुन साधु लहै । ॐ ह्रीं उत्तमशौचधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
काय छहों प्रतिपाल, पंचेन्द्री मन वश करो। संयम-रतन सँभाल, विषय-चोर बहु फिरत हैं। उत्तम संजम गहु मन मेरे, भव-भव के भाजै अघ तेरे ।
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सुरगनरकपशुगति में नाहीं, आलसहरन करन सुख ठाहीं ॥
ठाही पृथी जल आग मारुत, रूख त्रस करुना धरो। सपरसन रसना घ्रान नैना, कान मन सब वश करो ॥ जिस बिना नहिं जिनराज सीझे, तू रुल्यो जग-कीच में। इक घरी मत विसरो करो नित, आव जम-मुख बीच में ॥ ॐ ह्रीं उत्तमसंयमधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
तप चाहै सुरराय, करम-शिखर को वज्र है। द्वादशविधि सुखदाय, क्यों न करै निज सकति सम ॥ उत्तम तप सब माहिं बखाना, करम-शैल को वज्र समाना। बस्यो अनादिनिगोद-मँझारा, भू-विकलत्रयपशुतन धारा ॥ धारा मनुष तन महादुर्लभ, सुकुल आयु निरोगता।
श्रीजैनवानी तत्त्वज्ञानी, भई विषय-पयोगता ॥ अति महा-दुरलभ त्याग विषय-कषाय जो तप आदरें । नर-भव-अनूपम-कनक-घर पर, मणिमयी कलसा धरै ॥ ॐ ह्रीं उत्तमतपोधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
दान चार परकार, चार-संघ को दीजिए।
धन बिजुली उनहार, नर-भव-लाहो लीजिए । उत्तम त्याग कह्यो जग सारा, औषध शास्त्र अभय आहारा ।
निहचै राग-द्वेष निरवारै, ज्ञाता दोनों दान सँभारै ॥ दोनों सँभारे कूप-जलसम, दरब घर में परिनया। निज हाथ दीजे साथ लीजे, खाय खोया बह गया। धनि साध शास्त्र अभय-दिवैया, त्याग राग विरोध को। बिन दान श्रावक साधु दोनों लहैं नाहीं बोध को ॥ ॐ ह्रीं उत्तमत्यागधर्माङ्गाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
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परिग्रह चौबीस भेद, त्याग करें मुनिराज जी । तिसना भाव उछेद, घटती जान घटाइए ॥ उत्तम आकिंचन गुण जानो, परिग्रह-चिंता दुख ही मानो । फाँस तनक-सी तन में सालै, चाह लँगोटी की दुख भालै ॥ भान समता सुख कभी नर, बिना मुनि मुद्रा धरैं । धनि नगन पर तन-नगन ठाड़े, सुर असुर पायनि परें ॥ घर - माहिं तिसना जो घटावै, रुचि नहीं संसार सौं । बहु धन बुरा हू भला कहिये, लीन पर उपकार सौं ॥ ॐ ह्रीं उत्तमाकिञ्चन्यधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
शील- बाड़ नौ राख, ब्रह्म-भाव अन्तर लखो । करि दोनों अभिलाख, करहु सफल नर- भव-सदा ॥ उत्तम ब्रह्मचर्य मन आनौ, माता-बहिन-सुता पहिचानो । सहैं बान-वरषा बहु सूरे, टिकै न नैन-वान लखि कूरे ॥ कूरे तिया के अशुचि तन में, काम-रोगी रति करें ।
बहु मृतक सड़हिं मसान माँहीं, काग ज्यों चोंचें भरें ॥ संसार में विष-बेल नारी, तजि गये जोगीश्वरा । द्यानत धरम दश पैंडि चढ़िकै, शिव-महल में पग धरा ॥ ॐ ह्रीं उत्तमब्रह्मचर्यधर्माङ्गाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
समुच्चय जयमाला
दोहा - दश लच्छन वन्दौं सदा, मन-वांछित फल दाय । कहों आरती भारती, हम - पर होहु सहाय ॥
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बेसरी छन्द उत्तम छिमा जहाँ मन होई, अन्तर-बाहिर शत्रु न कोई। उत्तम मार्दव विनय प्रकासै, नाना भेद ज्ञान सब भासै ॥ उत्तम आर्जव कपट मिटावै, दुरगति त्यागि सुगति उपजावै । उत्तम सत्य-वचन मुख बोलै, सो प्रानी संसार न डोलै ॥ उत्तम शौच लोभ परिहारी, सन्तोषी गुण-रतन-भंडारी । उत्तम संयम पालै ज्ञाता, नर-भव सफल करै ले साता ॥ उत्तम तप निरवांछित पालै, सो नर करम-शत्रु को टालै । उत्तम त्याग करै जो कोई, भोगभूमि-सुर-शिवसुख होई ।। उत्तम आकिंचन व्रत धारै, परम-समाधि-दशा विस्तारै । उत्तम ब्रह्मचर्य मन लावै, नर-सुर सहित मुकति-फल पावै ॥
दोहा
करै करम की निरजरा, भव-पींजरा विनाश ।
अजर-अमर पद को लहै, द्यानत सुख की राशि ॥ ॐ ह्रीं उत्तमक्षमा मार्दव आर्जव सत्य शौच संयम तपस्त्यागाकिञ्चन्य ब्रह्मचर्य दशलक्षणधर्माय पूर्णाऱ्या
निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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रत्नत्रय-पूजा
(पं. द्यानतराय) चहुँगति फनि-विष-हरनमणि, दुखपावक-जलधार ।
शिव-सुख-सुधा-सरोवरी, सम्यक्-त्रयी निहार ॥ ॐ ह्रीं सम्यक् रत्त्रयधर्म ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । (आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्त्रयधर्म ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम्) ॐ ह्रीं सम्यक् रत्त्रयधर्म ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (सन्निधिकरणम्)
सोरठा- क्षीरोदधि उनहार, उज्ज्वल जल अति सोहनो।
जनम-रोग निरवार, सम्यक्-रत्नत्रय भनूँ ॥ ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रयाय जन्मरोगविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
चन्दन-केसर-गारि, परिमल-महा-सुरंग-मय ।
जनम-रोग निरवार, सम्यक्-रत्नत्रय भजूं ॥ । ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रयाय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।
तन्दुल अमल चितार, बासमती-सुखदास के।
जनम-रोग निरवार, सम्यक्-रत्नत्रय भनँ । ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रयाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
महकै फूल अपार अलि-गुंजै ज्यों थुति करें।
जनम-रोग निरवार, सम्यक्-रत्नत्रय भनूँ ॥ ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रयाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पाणि निर्वपामीति स्वाहा ।
लाडू बहु विस्तार, चीकन मिष्ट सुगन्धयुत ।
जनम-रोग निरवार, सम्यक्-रत्नत्रय भनँ । ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रयाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
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दीप रतनमय सार, जोत प्रकाशै जगत में । जनम. । ॐ ह्रीं सम्यग् रत्नत्रयाय मोहान्धकारविनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
धूप सुवास विथार, चन्दन अगर कपूर की 1 जनम-रोग निरवार, सम्यक्-रत्नत्रय भजूँ ॥
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रयाय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
फल शोभा अधिकार, लौंग छुहारे जायफल ।
जनम-रोग निरवार, सम्यक्-रत्नत्रय भजूँ ॥
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रयाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
आठ दरब निरधार, उत्तम सौं उत्तम लिये |
जनम-रोग निरवार, सम्यक् - रत्नत्रय भजूँ ॥
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रयाय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
सम्यक् दरशन ज्ञान, व्रत शिव-मग तीनों मयी । पार उतारन यान, द्यानत पूजों व्रतसहित ॥ ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रयाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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सम्यग्दर्शनपूजा
दोहा - सिद्ध-अष्ट-गुणमय प्रगट, मुक्त जीव सोपान ।
ज्ञान चरित जिहँ बिन अफल, सम्यक् दर्श प्रधान ॥ ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम्) ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन ! अत्र मम सन्निहितं भव भव वषट् । (सन्निधिकरणम्)
सोरठा नीर सुगन्ध अपार, तृषा हरै मल छय करै । सम्यग्दर्शनसार, आठ अंग पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
जल केसर घनसार, ताप-हरै शीतल करै । सम्यग्दर्शनसार, आठ अंग पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।
अछत अनूप निहार, दारिद नाशै सुख भरे । सम्यग्दर्शनसार, आठ अंग पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
पुहुप सुवास उदार, खेद हरै मन शुचि करे। सम्यग्दर्शनसार, आठ अंग पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
नेवज विविध प्रकार, छुधा हरै थिरता करे । सम्यग्दर्शनसार, आठ अंग पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
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दीपज्योति तमहार, घट-पट परकाशै महा । सम्यग्दर्शनसार, आठ अंग पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
धूप घ्रान-सुखकार, रोगविघन जड़ता हरै । सम्यग्दर्शनसार, आठ अंग पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्रीफल आदि विथार, निहचै सुर - शिवफल करै । सम्यग्दर्शनसार, आठ अंग पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
जल गंधाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु । सम्यग्दर्शनसार, आठ अंग पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
दोहा - आप आप निहचै लखै, तत्त्व - प्रीति व्योहार । रहितदोष पच्चीस हैं, सहित अष्ट गुन सार ॥
सम्यक् दरशन - रतन गहीजै, जिन वच में संदेह न कीजै । इह-भव विभव चाह दुखदानी, पर-भव भोग चहे मत प्रानी || प्रानी गिलान न करि अशुचि लखि, धरम- गुरु प्रभु परखिये ।
पर-दोष ढकिये धरम डिगते को सुथिर कर हरखिये ॥ चहुँ संघ को वात्सल्य कीजै, धरम की परभावना । गुन आठ सौं गुन आठ लहिकै, इहाँ फेर न आवना ।। ॐ ह्रीं अष्टांगसहितपञ्चविंशतिदोषरहितसम्यग्दर्शनाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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सम्यग्ज्ञानपूजा
दोहा पंच-भेद जाके प्रगट, ज्ञेय-प्रकाशन-भान ।
मोह-तपन-हर-चंद्रमा, सोई सम्यक्-ज्ञान । ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञान ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । (इति आह्वाननम्) ____ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञान ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम्) ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञान ! अत्र मम सन्निहितं भव भव वषट् । (सन्निधिकरणम्)
सोरठा नीर सुगंध अपार, तृषा हरै मल छय करै।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
जल केसर घनसार, ताप हरै शीतल करे ।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।
अछत अनूप निहार, दारिद नाशै सुख भरै।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
पुहुप सुवास उदार, खेद हरै मन शुचि करे ।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
नेवज विविध प्रकार, छ्धा हरै थिरता करे ।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
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दीपजोति तमहार, घट-पट परकाशै महा।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
धूप घ्रान सुखकार, रोग विघन जड़ता हरे ।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्रीफल आदि विथार, निहचै सुर-शिवफलकरे।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
जल गन्धाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु ।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
दोहा आप आप जानै नियत, ग्रन्थ पठन व्योहार । संशय विभ्रम मोह विन, अष्ट अंग गुनकार ।। सम्यक्'ज्ञान-रतन मन भाया, आगम तीजा नैन बताया। अक्षर शुद्ध अर्थ पहिचानो, अक्षर अरथ उभय संग जानो ॥
जानो सुकाल-पठन जिनागम, नाम गुरु न छिपाइए । तप रीति गहि बहुमान देके, विनय गुन चित लाइए । ये आठ भेद करम उछेदक, ज्ञान-दर्पन देखना। इस ज्ञान ही सौं भरत सीझे, और सब पट-पेखना ॥ ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा ।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।।
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सम्यक्चारित्रपूजा
दोहा विषयरोग औषध महा, दव-कषाय-जल-धार ।
तीर्थंकर जाको धरै, सम्यक्चारित सार ॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम्) ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र ! अत्र मम सन्निहितं भव भव वषट् । (सन्निधिकरणम्)
नीर सुगन्ध अपार, तृषाहरै मलछयकरै ।
सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा ॥ ॐहीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
जल केशर घनसार, ताप हरै शीतल करे।
सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।
अछत अनूप निहार, दारिद नाशें सुख भरे।
सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय अक्षतान निर्वपामीति स्वाहा।
पुहुप सुवास उदार, खेद हरै मन शुचि करे ।
सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय पुष्पाणि निर्वपामीति स्वाहा ।
नेवज विविध प्रकार, छुधा हरै थिरता करै ।
सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
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दीप जोति तमहार, घट पट परकाशै महा।
सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
धूप घ्रान सुखकार, रोग विघन जड़ता हरे ।
सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्रीफल आदि विथार, निहचै सुर शिव फल करै ।
सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा ॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
जल गन्धाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु ।
सम्यक्चारित सार, तेरहविध पूजौं सदा । ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
दोहा आप आप थिर नियत नय, तप संजम व्योहार ।
स्व-पर-दया दोनों लिये, तेरह-विध दुखहार ॥ सम्यक्चारित रतन सँभालो, पाँच पाप तजिके व्रत पालो। पंच समिति त्रय गुपति गहीजे, नरभव सफल करहु तन छीजे।।
छीजे सदा तन को जतन यह एक संजम पालिए। बहु रुल्यो नरक-निगोद माँहीं, विष-कषायनि टालिए । शुभ करम-जोग सुघाट आयो, पार हो दिन जात है।
द्यानत धरम की नाव बैठो, शिव-पुरी कुशलात है । ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय महापँ निर्वपामीति स्वाहा ।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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समुच्चय जयमाला
दोहा सम्यक्-दरशन-ज्ञान-व्रत, इन बिन मुकति न होय ।
अन्ध पंगु अरु आलसी, जुदे जलैं दव-लोय ॥ जापै ध्यान सुथिर बन आवै, ताके करम-बन्ध कट जावें । तासौं शिव-तिय प्रीति बढ़ावै, जो सम्यक् रतनत्रय ध्यावें।। ताको चहुँगति के दुःख नाहीं, सो न परै भव-सागर माँहीं। जनम-जरा-मृत दोष मिटावै, जो सम्यक् रत्नत्रय ध्यावै ॥ सोई दशलच्छन को साथै, सो सोलह कारण आराधै ।
सो परमातम पद उपजावै, जो सम्यक् रतनत्रय ध्यावै ॥ सोई शक्रचक्रिपद लेई, तीन लोक के सुख विलसेई । सो रागादिक भाव बहावै, जो सम्यक् रतनत्रय ध्यावे।।
सोई लोकालोक निहारे, परमानन्द दशा विसतारे । आप तिरै औरन तिरवावै, जो सम्यक् रतनत्रय ध्यावै ॥ दोहा - एक स्वरूप प्रकाश निज, वचन कह्यो नहिं जाय ।
तीन भेद व्योहार सब द्यानत को सखदाय॥ ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानसम्यक्चारित्रेभ्यो महायँ निर्वपामीति स्वाहा ।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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नन्दीश्वरद्वीप-पूजा (कविवर द्यानतरायजी कृत)
सरव परव में बड़ो अठाई परव है, नन्दीश्वर सुर जाँहिं लेय वसु दरव है। हमैं सकति सो नाहिं इहाँ करि थापना,
पूर्जे जिनगृह-प्रतिमा है हित आपना ॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपञ्चाशज्जिनालयस्थजिनबिम्बानि ! अत्र अवतरत अवतरत संवौषट् ।
(इति आह्वाननम) ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपञ्चाशज्जिनालयस्थजिनबिम्बानि! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम्) ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपञ्चाशज्जिनालयस्थजिनबिम्बानि ! अत्र मम सन्निहितो भवत भवत वषट्
। (सन्निधिकरणम्)
कंचन-मणि-मय भुंगार, तीरथ-नीर भरा। तिहुँ धार दयी निरवार, जामन मरन जरा ॥ नन्दीश्वर-श्रीजिन-धाम, बावन पुंज करों। वसुदिन प्रतिमा अभिराम, आनन्द-भाव धरों ॥
नंदीश्वर द्वीप महान्, चारों दिशि सोहें।
बावन जिनमंदिर जान, सुर-नर मन मोह।। ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणदिक्षु द्विपञ्चाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमाभ्यो
जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामिति स्वाहा।
भव-तप-हर शीतल वाच, सो चन्दन नाहीं। प्रभु यह गुन कीजै साँच, आयो तुम ठाहीं ॥
नंदीश्वर द्वीप महान्, चारों दिशि सोहें।
बावन जिनमंदिर जान, सुर-नर मन मोहें।। ॐ हीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपञ्चाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो भवाताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामि ।
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उत्तम अक्षत जिनराज, पुंज धरे सोहै। सब जीते अक्ष-समाज, तुम सम अरु को है।
नंदीश्वर द्वीप महान्, चारों दिशि सोहें।
बावन जिनमंदिर जान, सुर-नर मन मोहें।। ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपञ्चाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो
अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामिति स्वाहा।।
तुम काम विनाशक देव, ध्याऊँ फूलन सौं । लहुँ शील-लच्छमी एव, छूटों सूलन सौं॥ नंदीश्वर द्वीप महान्, चारों दिशि सोहें।
बावन जिनमंदिर जान, सुर-नर मन मोहें।। ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपञ्चाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यः
कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
नेवज इन्द्रिय बलकार, सो तुमने चूरा ।
चरु तुम ढिग सोहै सार, अचरज है पूरा ॥ नंदीश्वर द्वीप महान्, चारों दिशि सोहें।
बावन जिनमंदिर जान, सुर-नर मन मोहें।। ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपञ्चाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यः
क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।।
दीपक की ज्योति-प्रकाश, तुम तन माँहिं लसै। टूटै करमन की राश, ज्ञान-कणी दरसै ॥
नंदीश्वर द्वीप महान्, चारों दिशि सोहें।
बावन जिनमंदिर जान, सुर-नर मन मोहें। ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपञ्चाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो
मोहान्धकारविनाशाय दीपं निर्वपामिति स्वाहा।।
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कृष्णागरु-धूप-सुवास, दश-दिशि नारि वरै । अति हरष-भाव परकाश, मानो नृत्य करै । नंदीश्वर द्वीप महान्, चारों दिशि सोहें।
बावन जिनमंदिर जान, सुर-नर मन मोहें।। ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपञ्चाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामिति स्वाहा।।
बहुविधि फल ले तिहुँ काल, आनन्द राचत हैं। तुम शिव-फल देहु दयाल, तुहिं हम जाचत हैं।
नंदीश्वर द्वीप महान्, चारों दिशि सोहें।
बावन जिनमंदिर जान, सुर-नर मन मोहें।। ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपञ्चाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामिति स्वाहा।
यह अरघ कियो निज-हेत, तुमको अरपतु हो । द्यानत कीज्यो शिव-खेत, भूमि समरपतु हो ।
नंदीश्वर द्वीप महान्, चारों दिशि सोहें।
बावन जिनमंदिर जान, सुर-नर मन मोहें। ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपञ्चाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्योअनर्घ्य-पदप्राप्तये अर्घनिर्वपामिति स्वाहा।
जयमाला
दोहा - कार्तिक फाल्गुन, साढ के अन्त आठ दिन माहिं ।
नन्दीश्वर सुर जात हैं, हम पूर्जे इह ठाहिं ॥
स्त्रग्विणी छन्द एक सौ त्रेसठ कोडि जोजन महा। लाख चौरासिया एक दिश में लहा ॥
आठमों दीप नन्दीश्वरं भास्वरं । भौन बावन्न प्रतिमा नमों सुखकरं ॥१॥ चार दिशि चार अंजनगिरी राजहीं।
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सहस चौरासिया एक दिशि छाजहीं ॥ ढोल सम गोल ऊपर तले सुन्दरं ॥भौन. ॥२ ॥ एक इक चार दिशि चार शुभ बावरी । एक इक लाख जोजन अमल - जल भरी ॥ चहुँ दिशा चार वन लाख जोजन वरं ॥ भौन. ॥3 ॥ सोल वापीन मधि सोल गिरि दधिमुखं । सहस दश महाजोजन लखत ही सुखं ॥ बावरी कोण दो महिं दो रतिकरं ॥ भौन. ॥४ ॥ शैल बत्तीस इक सहस जोजन कहे । चार सोलै मिलें सर्व बावन लहे ॥ एक इक सीस पर एक जिनमन्दिरं ॥ भौन ॥५ ॥ बिम्ब अठ एक सौ रतनमयी सोंहही । देव देवी सरब नयन मन मोहही ॥ पाँच सै धनुष तन पद्म-आसन परं ॥भौन. ॥६ ॥ लाल नख-मुख नयन स्याम अरु स्वेत हैं । स्याम रंग भोंह सिर-केश छवि देत हैं ॥ वचन बोलत मनों हँसत कालुष हरं ॥भौन. ॥७ ॥ कोटि-शशि-भानु-दुति-तेज छिप जात है । महा-वैराग - परिणाम ठहरात है ॥ वयन नहिं कहै लखि होत सम्यक्धरं ॥ भौन. ॥८॥ सोरठा
नन्दीश्वर - जिन-धाम, प्रतिमा - महिमा को कहै । द्यानत लीनो नाम, यही भगति शिव-सुख करै ॥
ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपञ्चाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्य: पूर्णार्घं निर्वपामिति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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नवदेवता पूजन (गीत छन्द)
अरिहंत सिद्धाचार्य पाठक, साधु त्रिभुवन वंद्य हैं। जिन धर्म जिनआगम जिनेश्वरमूर्ति जिनगृह वंद्य हैं ॥ नव देवता ये मान्य जग में हम सदा अर्चा करें। आह्वान कर थापें यहाँ मन में अतुल श्रद्धा धरें ॥
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म जिनागम जिनचैत्य चैत्यालय समूह..... अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम् ।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म जिनागम जिनचैत्य चैत्यालय समूह ... अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म जिनागम जिनचैत्य चैत्यालय समूह.. अत्र मम सन्निहितो भव-भव वषट् सन्निधीकरणम् ।
अथाष्टक
गंगानदी का नीर निर्मल, बाह्य मल धोवे सदा । अंतर मलों के क्षालने को नीर से पूजूँ मुदा ॥ नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें। सब सिद्धि नवनिधि रिद्धि मंगलपाय शिवकांता वरें ॥ १ ॥
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म जिनागम जिनचैत्य चैत्यालयेभ्यो
जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
कर्पूर मिश्रित गंध चंदन, देह ताप निवारता । तुम पाद पकंज पूजते, मन ताप तुरतहिं वारता ॥ नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें। सब सिद्धि नवनिधि रिद्धि मंगलपाय शिवकांता वरें ॥ २ ॥
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म जिनागम जिनचैत्य चैत्या-लयेभ्यो
संसार ताप विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।
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क्षीरोदधी के फेन सम सित तंदुलों को लायके । उत्तम अखंडित सौख्य हेतु, पुंज नव सुचढ़ायके ॥ नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें।
सब सिद्धि नवनिधि रिद्धि मंगलपाय शिवकांता वरें ॥ ३ ॥ ॐ हीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म जिनागम जिनचैत्य चैत्या-लयेभ्यो
अक्षयपद प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ।
चम्पा चमेली केवड़ा, नाना सुगंधित ले लिये। भव के विजेता आपको,पूजत सुमन अर्पण किये ॥ नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें।
सब सिद्धि नवनिधि रिद्धि मंगलपाय शिवकांता वरें ॥ ४ ॥ ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म जिनागम जिनचैत्य चैत्या-लयेभ्यो
कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
पायस मधुर पकवान मोदक, आदि को भर थाल में । निज आत्म अमृत सौख्य हेतु पूजहूँ नतभाल मैं ॥ नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें।
सब सिद्धि नवनिधि रिद्धि मंगलपाय शिवकांता वरें ॥ ५ ॥ ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म जिनागम जिनचैत्य चैत्या-लयेभ्यो
क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
कर्पूर ज्योति जगमगे दीपक लिया निज हाथ में ।
तुम आरती तमवारती, पाऊँ सुज्ञान प्रकाश मैं ॥ नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें।
सब सिद्धि नवनिधि रिद्धि मंगलपाय शिवकांता वरें ॥ ६ ॥ ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म जिनागम जिनचैत्य चैत्या-लयेभ्यो
मोहांधकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
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दशगंध धूप अनूप सुरभित, अग्नि में खेऊँ सदा । निज 'आत्मगुण सौरभ उठे, हों कर्म सब मुझसे विदा | नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें। सब सिद्धि नवनिधि रिद्धि मंगलपाय शिवकांता वरें ॥ ७ ॥
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म जिनागम जिनचैत्य चैत्या-लयेभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
अंगूर अमरख आम्र अमृत, फल भराऊं थाल में । उत्तम अनुपम मोक्ष फल के, हेतु पूजूँ आज मैं ॥ नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें। सब सिद्धि नवनिधि रिद्धि मंगलपाय शिवकांता वरें ॥ ८ ॥
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म जिनागम जिनचैत्य चैत्या-लयेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
जल गंध अक्षत पुष्प चरु दीपक सुधूप फलार्घ्य ले । वर रत्नत्रय निधि लाभ यह बस अर्घ से पूजत मिले ॥ नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें। सब सिद्धि नवनिधि रिद्धि मंगलपाय शिवकांता वरें ॥ ९ ॥
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म जिनागम जिनचैत्य चैत्या-लयेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
दोहा
जलधारा से नित्य मैं, जग की शांति हेत । नवदेवों को पूजहूँ, श्रद्धा भक्ति समेत ॥१०॥ || शांतये शांतिधारा।।
नानाविध के सुमन ले, मन में बहु हरषाय । मैं पूजूं नवदेवता, पुष्पांजलि चढ़ाय ॥११॥ दिव्य पुष्पांजलिः ।
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(जाप्य ९, २७ या १०८ बार) ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधु जिनधर्म जिनागम जिनचैत्य-चैत्या-लयेभ्यो नमः ।
जयमाला - (सोरठा) चिच्चिंतामणि रत्न, तीन लोक में श्रेष्ठ हो। गाऊँ गुण मणिमाल, जयवंते वर्तो सदा ॥१॥
(चाल - हे दीनबंधु श्रीपति......) जय जय श्री अरिहंत देव देव हमारे । जय घतिया को घात सकल जंतु उबारे ॥ जय जय प्रसिद्ध सिद्ध की मैं वंदना करूँ । जय अष्ट कर्ममुक्त की मैं अर्चना करूँ ॥२॥
आचार्य देव गुण छत्तीस धार रहे हैं। दीक्षादि दे असंख्य भव्य तार रहे हैं। जैवंत उपाध्याय गुरु ज्ञान के धनी । सन्मार्ग के उपदेश की वर्षा करें घनी ॥३॥ जय साधु अट्ठाईस गुणों को धरें सदा।निज आतमा की साधना से च्युत न हों कदा॥
ये पंच परमदेव सदा वंद्य हमारे । संसार विषम सिंधु से हमको भी उबारें ॥४॥ जिन धर्म चक्र सर्वदा चलता ही रहेगा। जो इसकी शरण ले वो सलझता ही रहेगा। जिनकी ध्वनि पीयूष का जो पान करेंगे ।भव रोग दूर कर वे मुक्ति कांत बनेगें ॥५॥ जिन चैत्य की जो वंदना त्रिकाल करे हैं वे चित्स्वरूप नित्य आत्म लाभ करे हैं। कृत्रिम व अकृत्रिम जिनालयों को जो भजें। वे कर्मशत्रु जीत शिवालय में जा बसें ॥६॥ नव देवताओं की जो नित आराधना करें । वे मृत्युराज की भी तो विराधना करें ॥ मैं कर्मशत्रु जीतने के हेतु ही जनँ । सम्पूर्ण ज्ञानमति सिद्धि हेतु ही भनूँ ॥७॥
दोहा - नवदेवों को भक्तिवश, कोटि कोटि प्रणाम ।
भक्ति का फल मैं चहूँ, निजपद में विश्राम ॥८॥ ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म जिनागम जिनचैत्य चैत्या-लयेभ्यो जयमाला अर्घ्य
निर्वपामीति स्वाहा । शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः । गीता छन्द जो भव्य श्रद्धाभक्ति से नवदेवता पूजा करें।
वे सब अमंगल दोष हर सुख शांति में झूला करें । नवनिधि अतुल भंडार ले, फिर मोक्ष सुख भी पावते । सुखसिंधु में हो मग्न फिर, यहाँ पर कभी न आवते ॥९॥
॥इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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विद्यमान बीस तीर्थंकर पूजा भाषा
दीप अढ़ाई मेरु पन अरु तीर्थंकर बीस।
तिन सबकी पूजा करूँ मन वच तन धरि शीस ॥ ॐ ह्रीं श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकराः ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । (इति आह्वाननम्) ___ॐ ह्रीं श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकराः ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम्) ॐ ह्रीं श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरा:! अत्र मम सन्निहिता भव भव वषट् । (सन्निधिकरणम्)
॥अथाष्टक ॥ इन्द्र फणीन्द्र नरेन्द्र वंद्य पद निर्मल धारी। शोभनीक संसार सार गुण हैं अविकारी ॥ क्षीरोदधि सम नीर सौं पजों तषा निवार । सीमंधर जिन आदि दे बीस विदेह मँझार ॥
श्री जिनराज हो भव तारण तरण जिहाज ॥ ॐ ह्रीं श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
तीन लोक के जीव पाप-आताप सताये। तिनको साता दाता शीतल वचन सुहाये । बावन चन्दन सौं जजूं भ्रमन तपन निरवार ॥ सीमंधर जिन आदि दे बीस विदेह मँझार ॥
श्री जिनराज हो भव तारण तरण जिहाज ॥ ॐ ह्रीं श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।
यह संसार अपार महासागर जिन स्वामी ।
ताते तारे बड़ी भक्ति नौका जग नामी ॥ तंदुल अमल सुगंध सौं पूजों तुम गुणसार ॥ सीमंधर जिन आदि दे बीस विदेह मँझार ॥
श्री जिनराज हो भव तारण तरण जिहाज ॥ ॐ ह्रीं श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्योअक्षयपदप्राप्तये अक्षतान निर्वपामीति स्वाहा।
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भविक सरोज विकाश निंद्यतमहर रवि से हो । जतिश्रावक आचार कथन को तुम ही बड़े हो । फूल सुवास अनेकौं पूजों मदनप्रहार ॥ सीमंधर जिन आदि दे बीस विदेह मँझार ॥ श्री जिनराज हो भव तारण तरण जिहाज ॥
ॐ ह्रीं श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः कामबाणविनाशाय पुष्पाणि निर्वपामीति स्वाहा ।
काम नाग विषधाम नाश को गरुड़ कहे हो । क्षुधा महादव ज्वाल तास को मेघ लहे हो ॥ नेवज बहुघृत मिष्ट सौं पूजों भूखविडार ॥ सीमंधर जिन आदि दे बीस विदेह मँझार ॥ श्री जिनराज हो भव तारण तरण जिहाज ॥
ॐ ह्रीं श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः क्षुधारोगविनाशाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उद्यम होन न देत सर्व जग मांहि भर्यो है | मोह महातम घोर नाश परकाश कर्यो है ॥ पूजों दीप प्रकाश सौं ज्ञानज्योति करतार ॥ सीमंधर जिन आदि दे बीस विदेह मँझार ॥ श्री जिनराज हो भव तारण तरण जिहाज ॥
ॐ ह्रीं श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
कर्म आठ सब काठ भार विस्तार निहारा । ध्यान अगनि कर प्रगट सरब कीनो निरवारा ॥
धूप अनूपम खेवतें दुःख जलै निरधार ॥ सीमंधर जिन आदि दे बीस विदेह मँझार ॥ श्री जिनराज हो भव तारण तरण जिहाज ॥
ॐ ह्रीं श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
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मिथ्यावादी दुष्ट लोभहंकार भरे हैं। सबको छिन में जीत जैन के मेरु खड़े हैं। फल अति उत्तम सौं जजों वांछित फल दातार । सीमंधर जिन आदि दे बीस विदेह मँझार ॥
श्री जिनराज हो भव तारण तरण जिहाज ॥ ॐ ह्रीं श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
जल फल आठों दर्व अरघ कर प्रीति धरी है। गणधर इन्द्रनिहूं तें थुति पूरी न करी है।
द्यानत सेवक जानके जग ते लेहु निकार । सीमंधर जिन आदि दे बीस विदेह मँझार ॥
श्री जिनराज हो भव तारण तरण जिहाज ॥ ॐ ह्रीं श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला (सोरठा) ज्ञान सुधाकर चन्द, भविक-खेत हित मेघ हो । भ्रम-तम-भान अमन्द तीर्थंकर बीसों नमों ॥
चौपाई (१६ मात्रा) सीमंधर सीमंधर स्वामी, जुगमन्धर जुगमन्धर नामी। बाहु बाहु जिन जगजन तारे, करम सुबाहु बाहुबल दारे ॥ १ ॥
जात सुजातं केवलज्ञानं, स्वयंप्रभु प्रभु स्वयं प्रधानं । ऋषभानन ऋषिभानन दोषं, अनन्तवीरज वीरज कोषं ॥२ ॥ सौरी प्रभ सौरी गुणमालं, सुगुण विशाल विशाल दयालं । वज्रधार भवगिरि वज्जर हैं, चन्द्रानन चन्द्रानन वर हैं ॥३॥
भद्रबाहु भद्रनि के करता, श्रीभुजंग भुजंगम हरता। ईश्वर सबके ईश्वर छाजें, नेमि प्रभु जस नेमि विराजै ॥ ४ ॥
वीरसेन वीरं जग जाने, महाभद्र महाभद्र बखाने ।
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नमों जसोधर जसधर कारी, नमों अजित वीरज बलधारी ॥ ५ ॥
धनुष पाँच सौं काय विराजै, आयु कोडि पूरब सब छाजें। समवसरण शोभित जिनराजा, भवजल तारनतरन जिहाजा ॥६॥
सम्यक् रत्नत्रय निधि दानी, लोकालोक प्रकाशक ज्ञानी । शतइन्द्रनि कर वंदित सो है, सुर नर पशु सबके मन मोहैं ॥७॥
दोहा- तुमको पूर्जे वंदना, करें धन्य नर सोय ।
द्यानत सरधा मन धरै, सो भी धर्मी होय ॥ ॐ ह्रीं श्रीसीमन्धरादिविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो महायँ निर्वपामीति स्वाहा ।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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सिद्ध-पूजन (श्री युगल जी)
(हरिगीतिका) निज वज्र पौरुष से प्रभो! अन्तर-कलुष सब हर लिये।
प्रांजल प्रदेश-प्रदेश में, पीयूष निर्झर झर गये।। सर्वोच्च हो अतएव बसते लोक के उस शिखर रे!
तुम हो हृदय में स्थाप, मणि-मुक्ता चरण को चूमते।। ऊँ ह्री श्रीसिद्धचक्राधिपति सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र अवतर अवतर संवौष्ट्। (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्री श्रीसिद्धचक्राधिपति सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ॐ ह्री श्रीसिद्धचक्राधिपति सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
(वीर छन्द) शुद्धातम-सा परिशुद्ध प्रभो! यह निर्मल नीर चरण लाया। मैं पीडित निर्मम ममता से, अब इसका अंतिम दिन आया।।
तुम तो प्रभु अंतर्लीन हुए, तोड़े कृत्रिम सम्बन्ध सभी।
मेरे जीवन-धन तुमको पा, मेरी पहली अनुभूति जगी।। ऊँ ह्री श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने जन्म-जरा-मृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मेरे चैतन्य-सदन में प्रभु! धू-धू क्रोधानल जलता है। अज्ञान-अमा के अंचल में, जो छिपकर पल-पल पलता है।। प्रभु! जहाँ क्रोध का स्पर्श नहीं, तुम बसे मलय की महकों में।
__ मैं इसीलिए मलजय लाया क्रोधासुर भागे पलकों में।। ऊँ ह्री श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
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अधिपति प्रभु! धवल भवन के हो, और धवल तुम्हारा अन्तस्तल। अंतर के क्षत सब निःक्षत कर, उभरा स्वर्णिम सौंदर्य विमल || मैं महा मान से क्षत-विक्षत, हूँ खंड-खंड लोकांत - विभो। मेरे मिट्टी के जीवन में, प्रभु ! अक्षत की गरिमा भर दो। ऊँ ह्री श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अक्षयपद प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
चैतन्य-सुरभि की पुष्प वाटिका में विहार नित करते हो । माया की छाया रंच नहीं, हर बिन्दु सुधा की पीते हो।।
निष्काम प्रवाहित हर हिलोर, क्या काम काम की ज्वाला से ।
प्रत्येक प्रदेश प्रमत्त हुआ, पाताल-मधु-मधुशाला से।
ऊँ ह्री श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
यह क्षुधा देह का धर्म प्रभो ! इसकी पहिचान कभी न हुई । हर पल तन में ही तन्मयता, क्षुत् - तृष्णा अविरल पीन हुई | | आक्रमण क्षुधा का सह्य नहीं, अतएव लिये हैं व्यंजन ये। सत्वर तृष्णा को तोड़ प्रभो! लो, हम आनंद-भवन पहुंचे। ऊँ ह्री श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विज्ञान नगर के वैज्ञानिक, तेरी प्रयोग शाला विस्मय। कैवल्य-कला में उमड़ पड़ा, सम्पूर्ण विश्व का ही वैभव।।
पर तुम तो उससे अति विरक्त, नित निरखा करते निजनिधियाँ।
अतएव प्रतीक प्रदीप लिये, मैं मना रहा दीपावलियाँ।।
ऊँ ह्री श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोहांधकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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तेरा प्रासाद महकता प्रभु! अति दिव्य दशांगी धूपों से। अतएव निकट नहिं आ पाते, कर्मों के कीट-पतंग अरे।।
यह धूप सुरभि-निर्झरणी, मेरा पर्यावरण विशुद्ध हुआ। छक गया योग-निद्रा में प्रभु ! सर्वांग अमी है बरस रहा।। ॐ ही श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
निज लीन परम स्वाधीन बसो, प्रभु ! तुम सुरम्य शिव-नगरी में। प्रतिपल बरसात गगन, से हो, रसपान करो शिव नगरी में ||
ये सुरतरुओं के फल साक्षी, यह भव-संतति का अंतिम क्षण प्रभु! मेरे मंडप में आओ, है आज मुक्ति का उद्घाटन ||
ॐ ही श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
तेरे विकीर्ण गुण सारे प्रभु ! मुक्ता मोदक से सघन हुए। अतएव रसास्वादन करते, रे! घनीभूत अनुभूति लिये।।
! मुझे भी अब प्रतिक्षण, निज अंतर - वैभव की मस्ती । है आज अय की सार्थकता, तेरी अस्ति मेरी बस्ती ।
ॐ ही श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनघ्यपदप्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
चिन्मय हो चिद्रूप प्रभु! ज्ञाता मात्र चिदेश | चिदात्म शोध-प्रबन्ध के, सृष्टा तुम ही एक
(रेखता)
जगाया तुमने कितनी बार! हुआ नहिं चिर निद्रा का अंत। मदिर सम्मोहन ममता का, अरे बेचेत पड़ा मैं सन्त ।। घोर तम छाया चारों ओर, नहीं निज सत्ता की पहिचान। निखिल जड़ता दिखती सप्राण, चेतना अपने से अनजान ||
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ज्ञान की प्रति पल उठे तरंग, झांकता उसमें आतमराम। अरे! आबाल सभी गोपाल, सुलभ सबको चिन्मय अभिराम।। किंतु पर सत्ता में प्रतिबद्ध, कीर-मर्कट-सी गहल अनन्त।
अरे! पाकर खोया भगवान, न देखा मैंने कभी वसंत।। नहीं देखा निज शाश्वत देव, ही क्षणिका पर्यय की प्रीति। क्षम्य कैसे हों ये अपराध? प्रकृति की यही सनातन रीति।।
अतः जड़ कर्मों की जंजीर, पड़ी मेरे सर्वात्म प्रदेश। और फिर नरक निगोदों बीच, हुए सब निर्णय हे सर्वेश।।
घटा घन विपदा की बरसी, कि टूटी शंपा मेरे शीश। नरक में पारद-सा तन टूक, निगोदों मध्य अनंती मीच।। करें क्या स्वर्ग सुखों की बात, वहाँ की कैसी अद्भुत टेव। अंत में बिलखे छह-छह मास, कहें हम कैसे उसको देव। दशा चारों गति की दयनीय, दया का किन्तु न यहाँ विधान।
शरण जो अपराधी को दे, अरे! अपराधी वह भगवान।। अरे! मिट्टी की काया बीच, महकता चिन्मय भिन्न अतीव।
शुभाशुभ की जडता तो दूर, पराया ज्ञान वहाँ परकीय।। अहो! चित् परम अकर्तानाथ, अरे! वह निष्क्रिय तत्व विशेष। अपरिमित अक्षय वैभव-कोष, सभी ज्ञानी का यह परिवेश।।
बताये मर्म अरे! यह कौन, तुम्हारे बिन वैदेही नाथ! विधाता शिव-पथ के तुम एक, पड़ा मैं तस्कर दल के हाथ।। किया तुमने जीवन का शिल्प, खिरे सब मोह, कर्म और गात।
तुम्हारा पौरुष झंझावत, झड़ गये पीले-पीले पात।। नहीं प्रज्ञा-आवर्तन शेष, हुए सब आवागमन अशेष। अरे प्रभु! चिर-समाधि मं लीन, एक में बसते आप अनेक।। तुम्हारा चित्-प्रकाश कैवल्य, कहें तुम ज्ञायक लोकालोक। अहो! बस ज्ञान जहाँ हो लीन, वही है ज्ञेय, वही है भोग।।
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योग-चांचल्य हुआ अवरुद्ध, सकल चैतन्य निकल निष्कंप।
अरे! ओ योग रहित योगीश! रहो यों काल अनंतानंत।। जीव कारण-परमात्म त्रिकाल, वही है अंतस्त्व अखंड। तुम्हें प्रभु! रहा वही अवलंब, कार्य परमात्म हुए निर्बन्ध।। अहो! निखरा कांचन चैतन्य, खिले सब आठों कमल पुनीत। अतीन्द्रिय सौख्य चिंतन भोग, करो तुम धवलमहल के बीच।।
उछलता मेरा पौरुष आज त्वरित टूटेंगे बंधन नाथ।
अरे! तेरी सुख-शय्या बीच, होगा मेरा प्रथम प्रभा।। प्रभो! बीती विभावरी आ, हुआ अरुणेदय शीतल छांव।
झूमते शांति-लता के कुंज, चलें! अब अपने उस गांव।। ऊँ ह्री श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा चिर-विलवास चिद्ब्रह्म में, चिर-निमग्न भगवंत। द्रव्य-भाव स्तुति से प्रभो! वंदन तुम्हें अनंत।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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सिद्धपूजा ऊर्दध्वाधो-रयुतं सबिन्दु-सपरं ब्रह्मस्वरावेष्टितं, वर्गापूरित-दिग्गताम्बुजदलं तत्सन्धि-तत्त्वान्वितम् ।
अन्तःपत्रतटेष्वनाहतयुतं ह्रींकारसंवेष्टितं,
देवं ध्यायति यः स मुक्तिसुभगो वैरीभकण्ठीरवः ॥ ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपते सिद्धपरमेष्ठिन् ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपते सिद्धपरमेष्ठिन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम्) ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपते सिद्धपरमेष्ठिन्!अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्) निरस्तकर्मसम्बन्धं सूक्ष्मं नित्यं निरामयम् । वन्देअहं परमात्मानममूर्तमनुपद्रवम् ॥
(सिद्ध यन्त्र की स्थापना)
सिद्धौ निवासमनुगं परमात्मगम्यं, हान्यादिभावरहितं भववीतकायम् ।
रेवापगावरसरोयमुनोद्भवानां, नीरैर्यजे कलशगैर्वर-सिद्धचक्रम् ॥ ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा॥१॥
आनन्दकन्दजनकं घनकर्ममुक्तं, सम्यक्त्वशर्मगरिमं जननार्तिवीतम् ।
सौरभ्यवासित-भवं हरिचन्दनानां, गन्धैर्यजे परिमलैर्वरसिद्धचक्रम ॥ ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्वावगाहनगुणं सुसमाधिनिष्ठं, सिद्धं स्वरूपनिपुणं कमलं विशालम् ।
सौगक्ध्यशालिवनशालिवराक्षतानां, पुजैर्यजे शशिनिभैर्वरसिद्धचक्रम् ॥ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
नित्यं स्वदेह-परिमाणमनादिसंज्ञं, द्रव्यानपेक्षममृतं मरणाद्यतीतम् । मन्दारकुन्दकमलादिवनस्पतीनां, पुष्पैर्यजे शुभतमैर्वरसिद्धचक्रम् ॥
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पाणि निर्वपामीति स्वाहा ।
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ऊर्ध्वस्वभावगमनं सुमनोव्यपेतं, ब्रह्मादिबीजसहितं गगनावभासम् ।
क्षीरान्नप्राज्य-वटकै रसपूर्णगर्भेनित्यं यजे चरुवरैर्वसिद्धचक्रम् ॥ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने क्षधारोगविनाशाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
आतमशोकभयरोगमदप्रशान्तं, निर्द्वन्द्वभावधरणं महिमानिवेशम् । कर्पूरवर्तिबहुभिः कनकावदातैर्दीपैर्यजे रुचिवरैर्वर-सिद्धचक्रम् ॥ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोहान्धकारविनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
पश्यन्समस्तभुवनं युगपन्नितान्तं, त्रैकाल्यवस्तुविषये निविडप्रदीपम्।
सद्रव्यगन्धघनसारविमिश्रितानां, धूपैर्यजे परिमलैर्वरसिद्धचक्रम् ॥ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अष्टकर्मदहनाय धूपं। निर्वपामीति स्वाहा ।
सिद्धासुराधिपतियक्षनरेन्द्रचक्रैर्येयं, शिवं सकलभव्यजनैः सुवन्द्यम् ।
नारिपूगकदलीफलनारिकेलैः, सोअहं यजे वरफलैर्वरसिद्धचक्रम् ॥ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोक्षपदप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
गन्धाढ्यं सुपयो-मधुव्रत-गणैः संगं वरं चन्दनं, पुष्पौघं विमलं सदक्षत-चयं रम्यं चरुं दीपकम् ।
धूपं गन्धयुतं ददामि विविधं श्रेष्ठं फलं लब्धये,
सिद्धानां युगपत्क्रमाय विमलं सेनोत्तरं वांछितम् ॥ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घपद-प्राप्तयेअर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
ज्ञानोपयोगविमलं विशदात्मरूपं, सूक्ष्म-स्वभाव-परमं यदनन्तवीर्यम् ।
कर्मोघ-कक्ष-दहनं सुख-सस्य-बीजं, वन्दे सदा निरुपमं वर-सिद्ध-चक्रम् ॥ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने महाघु निर्वपामीति स्वाहा ।
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त्रैलोक्येश्वर-वन्दनीय-चरणाः प्रापुः श्रियं शाश्वतीं,
यानाराध्य निरुद्ध-चण्ड-मनसः सन्तोअपि तीर्थमराः । सत्सम्यक्त्व-विबोध-वीर्य-विशदाव्याबाधताद्यैर्गुणैर्युक्तांस्तानिह तोष्टवीमि सततं सिद्धान् विशुद्धोदयात् ॥
पुष्पांजलिं क्षिपेत्
जयमाला विराग सनातन शान्त निरंश, निरामय निर्भय निर्मल-हंस। सुधाम विबोध-निधान विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध-समूह ॥१॥
विदूरित-संसृति-भाव निरंग, समामृत-पूरित देव विसंग। अबन्ध कषाय-विहीन विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध-समूह ॥२॥ __ निवारित-दुष्कृतकर्मविपाश, सदामल-केवल-केलिनिवास। भवोदधिपारग शान्त विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध-समूह ॥ ३ ॥
अनन्त-सुखामृतसागर धीर, कलंक-रजो-मल-भूरि-समीर । विखण्डितकाम विराम विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥४ ॥
विकारविवर्जित तर्जितशोक, विबोध सुनेत्र विलोकितलोक । विहार विराव विर विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध-समूह ॥५॥
रजोमल-खेद-विमुक्त विगात्र, निरन्तर नित्य सुखामृतपात्र । सुदर्शन-राजित नाथ विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध-समूह ॥६॥
नरामर-वन्दित निर्मलभाव, अनन्त-मुनीश्वर-पूज्य विहाव । सदोदय विश्वमहेश विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध-समूह ॥७॥
विदम्भ वितृष्ण विदोष विनिद्र, परात्पर शंकर सार वितन्द्र । विकोप विरूप विशंक विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध-समूह ॥८॥
जरा-मरणोज्झित वीतविहार, विचिन्तित निर्मल निरहंकार । अचिक्त्य-चरित्र विदर्प विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥९॥ विवर्ण विगन्ध विमान विलोभ, विमाय विकाय विशब्द विशोभ ।
अनाकुल केवल सार्व विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध-समूह ॥१०॥ असम-समयसारं चारु-चैतन्य-चिह्न, पर-परिणति-मुक्तं पद्मनन्दीन्द्र-वन्द्यम् ।
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निखिल-गुण-निकेतं सिद्धचक्रं विशुद्धं, स्मरति नमति यो वा स्तौति सोअभ्येति मुक्तिम् ॥११॥ ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने महाघु निर्वपामीति स्वाहा ।
अडिल्ल छंद अविनाशी अविकार परम-रस-धाम हो, समाधान सर्वज्ञ सहज अभिराम हो । शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अनादि अनंत हो, जगत-शिरोमणि सिद्ध सदा जयवंत हो ॥१॥
ध्यान अग्निकर कर्म कलंक सबै दहे, नित्य निरंजन देव स्वरूपी कै रहे । ज्ञायक के आकार ममत्व निवारकै । सो परमातम सिद्ध न सिर नायकै ॥२॥
दोहा - अविचल ज्ञान प्रकाशते, गुण अनंत की खान ।
ध्यान धरै सो पाइए, परम सिद्ध भगवान ॥३॥
अविनाशी आनन्द मय, गुण पूरण भगवान । शक्ति हिये परमात्मा, सकल पदारथ ज्ञान ॥४॥
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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श्री ऋषि मण्डल पूजा
स्थापना
दोहा - चौबीस जिन पद प्रथमनमि, दुतिय सुगणधर पाय । त्रितिय पंच परमेष्ठी को, चौथे शारद माय ॥
मन वच तन ये चरन युग, करहुं सदा परनाम । ऋषि मण्डल पूजा रचौं, बुधि बल द्यो अभिराम ॥
अडिल्ल छन्द चौबीस जिन वसु वर्ग पंच गुरु जे कहे। रत्नत्रय चव देव चार अवधी लहे ॥
अष्ट ऋद्धि चव दोय सूर ह्रीं तीन जू । अरहंत दश दिग्पाल यन्त्र में लीन जू ॥
दोहा - यह सब ऋषि मण्डल विषै, देवी देव अपार ।
तिष्ठ तिष्ठ रक्षा करो, पूजूं वसु विधिसार ॥
ॐ ह्रीं वृषभादि चौबीस तीर्थंकर, अष्टवर्ग, अर्हतादि पंचपद, दर्शनज्ञान चारित्र रूप रत्नत्रय, चतुर्णिकाय देव, चार प्रकार अवधि धारक श्रमण, अष्ट ऋद्धिधारी ऋषि, चौबीस देवी, तीन ह्रीं, अर्हत बिम्ब, दश दिग्पाल इति यन्त्र सम्बन्धी परमदेव समूह ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं वृषभादि चौबीस तीर्थंकर, अष्टवर्ग, अर्हतादि पंचपद, दर्शनज्ञान चारित्र रूप
रत्नत्रय, चतुर्णिकाय देव, चार प्रकार अवधि धारक श्रमण, अष्ट ऋद्धिधारी ऋषि, चौबीस देवी, तीन ह्रीं, अर्हत बिम्ब, दश दिग्पाल इति यन्त्र सम्बन्धी परमदेव समूह!. समूह !
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ( स्थापनम् )
ॐ ह्रीं वृषभादि चौबीस तीर्थंकर, अष्टवर्ग, अर्हतादि पंचपद, दर्शनज्ञान चारित्र रूप रत्नत्रय, चतुर्णिकाय देव, चार प्रकार अवधि धारक श्रमण, अष्ट ऋद्धिधारी ऋषि, चौबीस देवी, तीन ह्रीं, अर्हत बिम्ब, दश दिग्पाल इति यन्त्र सम्बन्धी परमदेव समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (सन्निधिकरणम्)
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अष्टक (हरिगीता छन्द) क्षीर उदधि समान निर्मल तथा मुनि चित सारसो। भर भुंग मणिमय नीर सुन्दर तृषा तुरति निवारसो ॥ जहाँ सुभग ऋषिमण्डल विराजै पूजि मन वच तन सदा ।
तिस मनोवांछित मिलत सब सुख स्वप्न में दुःख नहिं कदा । ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशाय-समर्थाय यन्त्र सम्बन्धी परम देवाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ (नोट-प्रत्येक द्रव्य चढ़ाते हुए स्थापना के मन्त्र को भी पूरा पढ़ा जा सकता है।
यहाँ केवल संक्षिप्त मन्त्र लिखा है।)
मलय चन्दन लाय सुन्दर गंध सों अलि झंकरे ।
सो लेहु भविजन कुंभ भरिके तत्त दाह सबै हरे ॥ जहाँ सुभग ऋषिमण्डल विराजै पूजि मन वच तन सदा।
तिस मनोवांछित मिलत सब सुख स्वप्न में दुःख नहिं कदा ॥ ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशाय-समर्थाय यन्त्र सम्बन्धी परम देवाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥
इन्दु किरण समान सुन्दर ज्योति मुक्ता की हरें। हाटक रकेबी धारि भविजन अखय पद प्राप्ती करें। जहाँ सुभग ऋषिमण्डल विराजै पूजि मन वच तन सदा ।
तिस मनोवांछित मिलत सब सुख स्वप्न में दुःख नहिं कदा ॥ ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशाय-समर्थाय यन्त्र सम्बन्धी परम देवाय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा॥३॥
पाटल गुलाब जुही चमेली मालती बेला घने। जिस सुरभितें कलहंस नाचत फूल गुंथि माला बनें । जहाँ सुभग ऋषिमण्डल विराजै पूजि मन वच तन सदा ।
तिस मनोवांछित मिलत सब सुख स्वप्न में दुःख नहिं कदा ॥ ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशाय-समर्थाय यन्त्र सम्बन्धी परम देवाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा॥४॥
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अर्द्ध चन्द्र समान फेनी मोदकादिक ले घने । घृत पक्व मिश्रित रससु पूरे लख क्षुधा डायनि हने ॥ जहाँ सुभग ऋषिमण्डल विराजै पूजि मन वच तन सदा।
तिस मनोवांछित मिलत सब सुख स्वप्न में दुःख नहिं कदा ॥ ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशाय-समर्थाय यन्त्र सम्बन्धी परम देवाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥
मणि दीप ज्योति जगाय सुन्दर वा कपूर अनूपकं । हाटक सुथाली माहिं धरिके वारि जिनपद भूपकं ॥ जहाँ सुभग ऋषिमण्डल विराजै पूजि मन वच तन सदा ।
तिस मनोवांछित मिलत सब सुख स्वप्न में दुःख नहिं कदा ॥ ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशाय-समर्थाय यन्त्र सम्बन्धी परम देवाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥
चन्दन सु कृष्णागरुकपूर मंगाय अग्नि जराइये ।
सो धूप-धूम अकाश लागी मनहुं कर्म उड़ाइये। जहाँ सुभग ऋषिमण्डल विराजै पूजि मन वच तन सदा ।
तिस मनोवांछित मिलत सब सुख स्वप्न में दुःख नहिं कदा ॥ ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशाय-समर्थाय यन्त्र सम्बन्धी परम देवाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥७॥
दाडिम सु श्रीफल आम्र कमरख और केला लाइये ।
मोक्ष फलके पायवे की आश धरि करि आइये ॥ जहाँ सुभग ऋषिमण्डल विराजै पूजि मन वच तन सदा ।
तिस मनोवांछित मिलत सब सुख स्वप्न में दुःख नहिं कदा ॥ ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशाय-समर्थाय यन्त्र सम्बन्धी परम देवाय फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥८॥
जल फलादिक द्रव्य लेकर अर्घ्य सुन्दर कर लिया।
संसार रोग निवार भगवन् वारि तुम पद में दिया ॥ जहाँ सुभग ऋषिमण्डल विराजै पूजि मन वच तन सदा ।
तिस मनोवांछित मिलत सब सुख स्वप्न में द:ख नहिं कदा ॥ ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशाय-समर्थाय यन्त्र सम्बन्धी परम देवाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ॥९॥
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अर्ध्यावली (अडिल्ल छन्द) वृषभ जिनेश्वर आदि अंत महावीर जी। ये चौबीस जिनराज हनें भवपीर जी ॥ ऋषि-मंडल बिच ह्रीं विर्षे राजै सदा।
पूजू अर्घ्य बनाय होय नहिं दुख कदा ॥ ॐ हीं सर्वोपद्रव विनाशन-समर्थाय वृषभादि-चतुर्विंशति तीर्थंकर-परमदेवाय
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
आदि अवर्ग सु अन्तजानि श-ष-स-हा । येवसुवर्ग महान यन्त्र में शुभ कहा ॥ जल शुभ गंधादिक वर द्रव्य मंगायके।
पूजहुँ दोऊ करजोड़ि शीश निज नायके । ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव विनाशन-समर्थाय अवर्गादि श-ष-स-हान्त
अष्टवर्गाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
कामिनी मोहिनी छन्द परम उत्कृष्ट परमेष्ठी पद पांच को। नमत शत इन्द्र खगवृन्द पद सांच को । तिमिर अघनाश करणको तुम अर्क हो ।
अर्घ लेय पूज्य पद देत बुद्धि तर्क हो। ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थाय पंच परमेष्ठी परम देवाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
सुन्दरी छन्द सुभग सम्यग् दर्शन ज्ञान जू । कह चारित्र सुधारक मान जू।
अर्घ्य सुन्दर द्रव्य सु आठ ले । चरणपूजहूं साज सु ठाठले ॥ ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशाय-समर्थाय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप रत्नत्रयाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
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भवनवासी देव व्यन्तर ज्योतिषी कल्पेन्द्र जू। जिनगृह जिनेश्वर देव राजें रत्न के प्रतिबिम्ब जू ॥
तोरण ध्वजा घंटा विराजे चंवर ढुरत नवीन जू ।
वर अर्घ्य ले तिन चरण पूजौं हर्ष हिय अति लीन जू ॥ ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव विनाशन-समर्थेभ्यः भवनेन्द्र व्यंतरेन्द्र ज्योतिषीन्द्र कल्पेन्द्र चतुःप्रकार देवगृहेषु
जिन चैत्यालयेभ्यः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
दोहा अवधि चार प्रकार मुनि, धारत जे ऋषिराय ।
अर्घ्य लेय तिन चर्ण जजि, विघन सघन मिट जाय ॥ ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव-विनाशाय-समर्थेभ्यः चतुःप्रकार अवधिधारक मुनिभ्यः
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
भुजंग प्रयात कही आठ ऋद्धि धरे जे मुनीशं, महा कार्यकारी बखानी गनीशं ।
जल गंध आदि दे जजौं चर्न तेरे, लहौं सुख सबै रे हरौं दुःख फेरे ॥ ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव विनाशन-समर्थेभ्यः अष्टऋद्धि सहित मुनिभ्यः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री देवी प्रथम बखानी । इन आदिक चौबीसों मानी।
तत्पर जिन भक्ति विर्षे हैं। पूजत सब रोग नशैं हैं । ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव विनाशन-समर्थेभ्यः श्री आदि सर्वदेवि सेवितेभ्यः चतुर्विंशति जिनेन्द्रेभ्यः
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
हंसा छन्द यंत्र विषै वरन्यो तिरकोन । ह्रीं तहं तीनयुक्त सुखभोन ॥ जल फलादि वसुद्रव्य मिलाय । अर्घ सहित पूजू शिरनाय ॥ ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव विनाशन-समर्थाय त्रिकोणमध्ये तीन ह्रीं संयुक्ताय
अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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तोमर छन्द
दस आठ दोष निरवारि, छियालीस महागुणधारि । वसु द्रव्य अनूप मिला, तिन चन जर्जी सुखदाय ॥ ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव विनाशन-समर्थाय अष्टादशदोष-रहिताय छियालीस-महागुणयुक्ताय अरहन्त परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
सोरठा - दश दिश दश दिग्पाल, दिशा नाम सो नामवर ।
तिन गृह श्री जिन-आल, पूजों वन्दौं मैं सदा ॥
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव विनाशन-समर्थेभ्यः दशदिग्पालेभवनेषुजिनबिम्बेभ्यः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऋषि मंडल शुभ यन्त्र के, देवी देव चितारि ।
अर्घ सहित प्रभु पूजहूं, दुख दारिद्र निवारि ॥
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रव विनाशन-समथेभ्यः ऋषिमंडल-सम्बन्धि-देवीदेवसवितेभ्यः जिनेन्द्रभ्यः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
दोहा - चौबीसों जिन चरन नमि, गणधर नाऊं भाल ।
शारद पद पंकज नमूं, गाऊं शुभ 'जयमाल ॥
जय आदीश्वर जिन आदि देव, शत इन्द्र जजैं मैं करहुं सेव । जय अजित जिनेश्वर जे अजीत, जे जीत भये भव तें अतीत ॥ १ ॥
जय सम्भव जिन भवकूप मांहि, डूबत राखहु तुम शर्ण अहि । जय अभिनन्दन आनन्द देत, ज्यों कमलों पर रवि करत हेत ॥ २ ॥ जय सुमति सुमतिदाता जिनन्द, जै कुमति तिमिर नाशनदिनन्द ।
जय पद्मालंकृत पद्मदेव दिन रयन करहुं तव चरन सेव ॥३॥ जय श्रीसुपाईव भवपाश नाश, भवि जीवन कूं दियो मुक्तिवास । जय चन्द जिनेश दया निधान, गुण सागर नागर सुख प्रमान ॥४ ॥
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जय पुष्पदन्त जिनवर जगीश, शत इन्द्र नमत नित आत्मशीश । जय शीतल वच शीतल जिनन्द, भवताप नशावन जगत चन्द ॥५॥ जय जय श्रेयांस जिन अति उदार, भवि कंठ मांहि मुक्ता सुहार । जय वासुपूज्य वासव खगेश, तुम स्तुति करि नमिहें हमेश ॥६॥
जय विमल जिनेश्वर विमलदेव, मल रहित विराजत करहुं सेव । जय जिन अनन्त के गुण अनन्त, कथनी कथ गणधर लहे न अंत ॥७॥
जय धर्म धुरन्धर धर्म धीर, जय धर्म चक्र शुचि ल्याय वीर । जय शान्ति जिनेश्वर शान्त भाव, भव वन भटकत शुभ मग लखाव ॥८॥
जय कुंथु कुंथुवा जीव पाल, सेवक पर रक्षा करि कृपाल । जय अरहनाथ अरि कर्म शैल, तपवज्रखंड लहि मुक्ति गैल ॥९॥
जय मल्लि जिनेश्वर कर्म आठ, मल डारे पायो मुक्ति ठाठ । जय मुनिसुव्रत सुव्रत धरन्त, तुम सुव्रत व्रत पालन महन्त ॥१०॥ जय नमि नमत सुर वृन्द पाय, पद पंकज निरखत शीश नाय । जय नेमि जिनेन्द्र दयानिधान, फैलायो जग में तत्वज्ञान ॥११॥ जय पारस जिन आलस निवारि, उपसर्ग रुद्र कृत जीत धारि । जय महावीर महा धीरधार, भवकूप थकी जगनै निकार ॥१२॥ जय वर्ग आठ सुन्दर अपार, तिन भेद लखत बुध करत सार । जय पांच पूज्य परमेष्ठि सार, सुमिरत बरसे आनन्द धार ॥१३ ॥
जय दर्शन ज्ञान चारित्र तीन, ये रत्नमहा उज्ज्वल प्रवीन । जय चार प्रकार सुदेव सार, तिनके गृह जिन मन्दिर अपार ॥१४ ॥
वे पूजें वसुविधि द्रव्य ल्याय, मैं इत जजि तुम पदशीश नाय । जो मुनिवर धारत अवधि चार, तिन पूजै भवि भवसिन्धु पार ॥१५॥
जो आठ ऋद्धि मुनिवर धरन्त, ते मौपे करुणाकरिमहन्त । चौबीस देवि जिन भक्ति लीन, वन्दन ताको सु परोक्ष कीन ॥१६॥
जे ह्रीं तीन त्रैकोण मांहि, तिन नमत सदा आनन्द पाहिं।। जय जय जय श्री अरहंत बिम्ब, तिन पद पूजूं मैं खोई डिंब ॥१७ ॥
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जो दस दिग्पाल कहे महान, जे दिशा नाम सो नाम जान । जे तिनि के गृह जिनराज धाम, जे रत्नमई प्रतिमाभिराम ॥१८॥
ध्वज तोरण घंटा युक्त सार, मोतिन माला लटके अपार । जे ता मधि वेदी हैं अनूप, तहां राजत हैं जिन राज भूप ॥१९॥
जय मुद्रा शान्ति विराजमान, जा लखि वैराग्य बढ़े महान । जे देवी देव सु आय आय, पूजें तिन पद मन वचन काय। २० ॥ जल मिष्ट सु उज्ज्वल पय समान, चन्दन मलयागिरि को महान । जे अक्षत अनियारे सु लाय, जे पुष्पन की माला बनाय ॥२१॥
चरु मधुर विविध ताजी अपार, दीपक मणिमय उद्योतकार । जे धूप सु कृष्णागरु सुखेय, फल विविध भांति के मिष्ट लेय॥२२ ॥
वर अर्घ अनूपम करत देव, जिनराज चरण आगे चढ़ेव । फिर मुख तें स्तुति करते उचार, हो करुणानिधि संसार तार ॥२३ ॥
मैं दुःख सहे संसार ईश, तुमौं छानी नांही जगीश । जे इह विध मौखिक स्तुति उचार, तिन नशत शीघ्र संसार भार ॥२४॥ इह विधि जो जन पूजन कराय, ऋषि मंडल यन्त्र सु चित्त लाय । जे ऋषि मंडल पूजन करन्त, ते रोग शोक संकट हरन्त ॥२५ ॥
जे राजा-रण-कुल-वृद्धि-हान, जल-दुर्ग सु गज केहरि बखान । जे विपत घोर अरु महि मसान, भय दूर करै यह सकल जान ॥२६॥
जे राज भ्रष्ट ते राज पाय, पद भ्रष्ट थकी पद शुद्ध थाय । धन अर्थी धन पावै महान, या में संशय कुछ नाहिं जान ॥२७॥ ___ भार्यार्थी भार्या लहन्त, सुत अर्थी सुत पावे तुरन्त ।। जे रूपा सोना ताम्र पत्र, लिख तापर यन्त्र महा पवित्र ॥२८॥
ता पूजै भागे सकल रोग, जे पात पित्त ज्वर नाशि शोग। तिन गृह तैं भूत पिशाच जान, ते भाग जाहि संशय न आन ॥२९॥
जे ऋषि मंडल पूजा करन्त, ते सुख पावत कहिं लहै न अन्त । जब ऐसी मैं मन माहिं जान, तब भाव सहित पूजा सुठान ॥३०॥
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वसुविधि के सुन्दर द्रव्य ल्याय, जिनराज चरण आगे चढ़ाय । फिर करत आरती शुद्ध भाव, जिनराज सभी लख हर्ष आव ॥३१॥
तुम देवन केह देवदेव, इक अरज चित्त में धारि लेव। हे दीन दयाल दया कराय, जो मैं दुखिया इह जग भ्रमाय॥३२॥
जे इस भव वन में वास लीन, जे काल अनादि गमाय दीन । मैं भ्रमत चतुर्गति विपिन मांहि, दुःख सहे सुक्ख को लेख नाहिं ॥३३ ॥
ये कर्म महारिपु जोर कीन, जे मनमाने ते दुःख दीन । ये काहू को नहिं डर धराय, इनतें भयभीत भयो अघाय ॥३४ ॥
यह एक जन्मकी बात जान, मैं कह न सकत हँ देवमान । जब तुम अनन्त परजाय जान, दरशायो संसृति पथ विधान ॥३५॥
उपकारी तुम बिन और नांहि, दीखत मोकों इस जगत मांहि । तुम सब लायक ज्ञायक जिनन्द, रत्नत्रय सम्पत्ति द्यो अमन्द ॥३६ ॥
यह अरज करूँ मैं श्री जिनेश, भव भव सेवा तुम पद हमेश। भव भव में श्रावक कुल महान, भव भव में प्रकटित तत्वज्ञान ॥३७ ॥
भव भव में व्रत हो अनागार, तिस पालन तैं हो भवाब्धि पार । ये योग सदा मुझको लहान, हे दीनबन्धु करुणा-निधान ॥३८॥
दौलत आसेरी मित्र होय, तुम शरण गहीहरषित सुहोय ।
छन्द घत्तानन्दा जो पूजै ध्यावे, भक्ति बढ़ावै, ऋषि मंडल शुभ यंत्र तनी।
या भव सुख पावै सुजस लहावै परभव स्वर्ग सुलक्ष धनी ।। ॐ हीं सर्वोपद्रव विनाशन समर्थाय रोग शोक सर्व संकट हराय सर्वशान्ति पुष्टि कराय, श्री वृषभादि
चौबीस तीर्थंकर, अष्ट वर्ग, अरहंतादि पंचपद, दर्शन ज्ञान चारित्र, चतुर्णिकाय देव, चार प्रकार अवधिधारक श्रमण, अष्ट ऋद्धि संयुक्त ऋषि मंडल, चौबीस देवी, तीन हीं, अर्हत बिंब, दशदिग्पाल इति यन्त्र सम्बन्धी देव देवी सेविताय परम देवाय जयमाला-पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा ।
ऋषि मंडल शुभ यंत्र को जो पूजे मन लाय । ऋद्धि सिद्धि ता घर बसै, विघन सघन मिट जाय ॥
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विघन सधन मिट जाय, सदा सुख सो नर पावै । ऋषि मंडल शुभ यंत्र तनी, तो पूज रचावै ॥ भावभक्ति युत होय, सदा जो प्राणी ध्यावे । या भव में सुख भोग, स्वर्ग की सम्पत्ति पावे । या पूजा परभाव मिट, भव भ्रमण निरन्तर । यातैं निश्चय मानि करो, नित भाव भक्तिधर ॥
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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सरस्वती पूजा (कविवर द्यानतराय)
जनम जरा मृतु छय करै, हरै कुनय जड़ रीति ।
भव सागर सौं ले तिरे, पूजें जिन वच प्रीति ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतिदेवि ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतिदेवि ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम्) ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतिदेवि ! अत्र मम सन्निहिता भव भव वषट् । (सन्निधिकरणम्)
त्रिभंगी छीरोदधि गंगा, विमल तरंगा, सलिल अभंगा, सुखसंगा। भरि कंचन झारी, धार निकारी, तृषा निवारी, हित चंगा ॥ तीर्थंकर की धुनि, गनधर ने सुनि, अंग रचे चुनि, ज्ञानमई ।
सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भई ॥ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतिदेव्यै जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
करपूर मंगाया, चन्दन आया, केशर लाया, रंग भरी ।
शारदपद वंदौं, मन अभिनंदी, पापनिकंदौं, दाह हरी ॥ तीर्थंकर की धुनि, गनधर ने सुनि, अंग रचे चुनि, ज्ञानमई ।
सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भई ॥ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतिदेव्यै भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।
सुखदास कमोद, धारकमोदं, अति अनुमोदं, चंदसमं । बहुभक्ति बढ़ाई, कीरति गाई, होहु सहाई, मात ममं ॥ तीर्थंकर की धुनि, गनधर ने सुनि, अंग रचे चुनि, ज्ञानमई ।
सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भई ॥ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतिदेव्यै अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
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बहुफूल सुवासं, विमलप्रकाशं, आनन्दरासं, लाय धरै । मम काम मिटायो, शील बढ़ायो, सुख उपजायो, दोष हरै ॥ तीर्थंकर की धुनि, गनधर ने सुनि, अंग रचे चुनि, ज्ञानमई ।
सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भई ॥ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतिदेव्यै कामबाणविध्वंसनाय पुष्पाणि निर्वपामीति स्वाहा ।
पकवान बनाया, बहुघृत लाया, सब विधि भाया, मिष्ट महा।
पूनँ थुति गाऊँ, प्रीति बढ़ाऊँ, क्षुधा नशाऊँ, हर्ष लहा॥ तीर्थंकर की धुनि, गनधर ने सुनि, अंग रचे चुनि, ज्ञानमई।
सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भई ॥ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतिदेव्यै क्षुधारोगविध्वंसाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
करि दीपक ज्योतं, तम छय होतं, ज्योति उद्योतं, तुमहिं चढ़े। तुम हो परकाशक भरमविनाशक, हम घटभासक ज्ञान बढ़े ॥ तीर्थंकर की धुनि, गनधर ने सुनि, अंग रचे चुनि, ज्ञानमई ।
सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भई ॥ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतिदेव्यै मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभगंध दशों कर, पावक में धर, धूप मनोहर, खेवत हैं। सब पाप जलावै, पुण्य कमावै, दास कहावें, सेवत हैं। तीर्थंकर की धुनि, गनधर ने सुनि, अंग रचे चुनि, ज्ञानमई।
सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भई ॥ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतिदेव्यै अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
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बादाम छुहारी, लोंग सुपारी, श्रीफलभारी, ल्यावत I मन वांछित दाता, मेंट असाता, तुम गुन माता, ध्यावत हैं ॥ तीर्थंकर की धुनि, गनधर ने सुनि, अंग रचे चुनि, ज्ञानमई । सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भई ॥ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतिदेव्यै मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
नयनन सुखकारी, मृदु गुनधारी, उज्ज्वल भारी, मोलधरैं । शुभ गंध सम्हारा, वसन निहारा, तुम तन धारा ज्ञान करें ॥ तीर्थंकर की धुनि, गनधर ने सुनि, अंग रचे चुनि, ज्ञानमई । सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भई ॥ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतिदेव्यै वस्त्रं निर्वपामीति स्वाहा । जल चंदन अक्षत, फूल चरु अरु, दीप धूप अति, फल लावै । पूजा कोठा, जो तुम जानत, , सो नरद्यानत सुख पावै ॥ तीर्थंकर की धुनि, गनर ने सुनि, अंग रचे चुनि, ज्ञानमई । सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भई ॥ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतिदेव्यै अनर्घपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
सोरठा
ओंकार धुनि सार, द्वादशांग वाणी विमल । नमौं भक्ति उरधार, ज्ञान करै जड़ता हरै ॥ १ ॥ पहला आचारांग बखानो । पद अष्टादश सहस प्रमानो । दूजो सूत्रकृतं अभिलाषं । पद छत्तीस सहस गुरु भाषं ॥२ ॥
तीजो ठाना अंग सुजानं । सहस बियालिस पद सरधानं । चौथो समवायांग निहारं । चौसठ सहस लाख इकधारं ॥ ३ ॥ पंचम व्याख्या प्रज्ञपति दरशं । दोय लाख अट्ठाइस सहसं । छट्ठो ज्ञातृकथा विसतारं । पांच लाख छप्पन हज्जारं ॥४ ॥ सप्तम उपासकाध्ययनागं । सत्तर सहस ग्यारलख भंगं । अष्टम अंतकृतं दस ईसं । सहस अठाइस लाख तेईसं ॥५ ॥
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नवम अनुत्तर दश सुविशालं । लाख बानवें सहस चवालं । दशम प्रश्नव्याकरण विचारं । लाख तिरानव सोल हजारं ॥६॥
ग्यारम सूत्रविपाक सु भाखं । एक कोड़ि चौरासी लाखं । चार कोड़ि अरु पन्द्रह लाखं । दो हजार सब पद गुरुभाखं ॥७॥
द्वादश दृष्टिवाद पनभेदं । इकसौ आठ कोड़ि पन वेदं । अड़सठ लाख सहस छप्पन हैं । सहित पंचपद मिथ्या हन हैं ॥८॥ इक सौ बारह कोड़ि बखानो। लाख तिरासी ऊपर जानो। ठावन सहस पंच अधिकाने । द्वादश अंग सर्व पद माने ॥९॥ कोड़ि इकावन आठ ही लाखं । सहस चौरासी छह सौ भाखं । साढ़े इक्कीस श्लोक बताये । एक एक पद के ये गाये ॥१०॥
दोहा जा वानी के ज्ञान में, सूझै लोक अलोक।
द्यानत जग जयवंत हो, सदा देत हूँ धोक ॥ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतिदेव्यै पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा ।
सरस्वती स्तवन
शिखरिणी छन्द जगन्माताख्याता जिनवर मुखांभोज उदिता। भवानीकल्याणी मुनि मनुज मानी प्रमुदिता ॥
महादेवीदुर्गा दरनि दुःखदाई दुरगती। अनेकाएकाकी द्वययुत दशांगी जिनमती ॥१॥ कहें माता तो को यद्यपि सबही अनादि निधना। कथंचित् तो भी तू उपजि विनशै यों विवरना ॥
धरै नाना जन्म प्रथम जिनकेबादअबलों। भयोत्यों विच्छेद प्रचुर तुव लाखों बरसलों ॥२॥ महावीर स्वामी जब सकल ज्ञानी मुनि भये । बिडौजा के लाये समवसृत मेंगौतम गये ॥ तबै नौका रूपा भव जलधि मांही अवतरी। अरूपा निर्वर्णा विगत भ्रम सांची सुखकरी ॥३॥
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धरै हैं जे प्राणी नितजननि तो को हृदय में।
करेहैं पजा व मन वचन कायाकरि नमें ॥ पढ़ावें देवें जो लिखि लिखि तथा ग्रन्थ लिखवा । लहेंते निश्चय सों अमर पदवी मोक्ष अथवा ॥४॥
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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क्षमावणी-पूजा
छप्पय छन्द अंग क्षमा जिन-धर्म तनो दृढ़-मूल बखानो। सम्यक् रतन सँभाल हृदय में निश्चय जानो ॥ तज मिथ्या विष मूल और चित्त निर्मल ठानो।
जिनधर्मी सौं प्रीत करो सब पातक भानो ॥ रत्नत्रय गह भविक-जन,जिन-आज्ञासम चालिये।
निश्चय कर आराधना, करम-रास को जालिये ॥ ॐ ह्रीं सम्यग्रत्नत्रय ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । (इति आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं सम्यग्रत्नत्रय ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम्) ॐ ह्रीं सम्यग्रत्नत्रय ! अत्र मम सन्निहितं भव भव वषट् । (सन्निधिकरणम्)
नीर सुगन्ध सुहावनो, पदम-द्रह को लाय । जन्म-रोग निरवारिये, सम्यक् रतन लहाय ॥
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय । ॐ ह्रीं 1. निशंकितांगाय नमः 2. निकांक्षितांगाय नमः 3. निर्विचिकित्सांगाय नमः 4. निर्मूढ़तायै नमः 5. उपगूहनांगाय नम: 6. स्थितिकरणांगाय नमः 7. वात्सल्यांगाय नमः 8. प्रभावनांगाय नमः
9. व्यंजन व्यंजिताय नम: 10. अर्थसमग्रयाय नमः 11. तदुभय समग्रयाय नम: 12.
कालाध्ययनाय नमः 13. उपध्यानोपन्हिताय नम: 14. विनयलब्धिसहिताय नम: 15. गुरुवादापन्हवाय नम: 16. बहुमानोन्मानाय नमः 17. अहिंसा व्रताय नम: 18. सत्य व्रताय नमः 19. अचौर्यव्रताय नम: 20. ब्रह्मचर्यव्रताय नमः 21. अपरिग्रहव्रताय नमः 22. मनोगुप्त्यै नमः 23. वचन गुप्त्यै नम: 24. कायगुप्त्यै नम: 25. ईर्यासमित्यै नम: 26. भाषा समित्यै नम: 27. एषणा समित्यै नमः 28. निक्षेपण समित्यै नम: 29. प्रतिष्ठापना समित्यै नमः
जलं निवर्पामीति स्वाहा।
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केसर चन्दन लीजिये, संग कपूर घसाय । अलि पंकति आवत घनी, वास सुगन्ध सुहाय ॥ क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर - वचन गहाय ।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध सम्यक् चारित्रेभ्यो नमः चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
शालि अखण्डित लीजिये, कंचन थाल भराय ।
जिनपद पूजों भाव सौं, अक्षत पद को पाय ॥
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर - वचन गहाय ।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध सम्यक्-चारित्रेभ्यो नमः अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
पारिजात अरु केतकी, पहुप सुगन्ध गुलाब । श्रीजिनचरण सरोज कूँ, पूज हर्ष चित चाव ॥
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर - वचन गहाय ।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान- त्रयोदशविध सम्यक् चारित्रेभ्यो नमः पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
शक्कर घृत सुरभी तना, व्यजन षट्-रस स्वाद । जिनके निकट चढ़ाय कर, हिरदे धरि आह्लाद ॥
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर - वचन गहाय ।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध सम्यक् चारित्रेभ्यो नमः नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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हाटकमय दीपक रचो, बाति कपूर सुधार । शोधित घृत कर पूजिये, मोह- तिमिर निरवार ॥
क्षमा गहो र जीवड़ा, जिनवर - वचन गहाय ।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान- त्रयोदशविध सम्यक् चारित्रेभ्यो नमः दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
कृष्णागर करपूर हो, अथवा दशविधि जान ।
जिन चरणन ढिग खेइये, अष्ट-कर्म की हान ॥ क्षमा गहो र जीवड़ा, जिनवर - वचन गहाय ।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध सम्यक् चारित्रेभ्यो नमः धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
केला अम्ब अनार फल, नारिकेल ले दाख । अग्रधरो जिनपद तने, मोक्ष होय जिन भाख ॥ क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर - वचन गहाय ।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन- अष्टांगसम्यग्ज्ञान- त्रयोदशविध सम्यक् चारित्रेभ्यो नमः फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल फल आदि मिलाय के, अरघ करो हरषाय ।
दुःख जलांजलि दीजिये, श्रीजिन होय सहाय ॥
क्षमा गहो र जीवड़ा, जिनवर - वचन गहाय ।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनअष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध सम्यक्-चारित्रेभ्यो नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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जयमाला
दोहा
उनतिस अंग की आरती, सुनो भविक चित लाय । मन वच तन सरधा करो, उत्तम नर-भव पाय ॥
चौपाई
जैनधर्म में शंक न आनै, सो निःशंकित गुण चित ठानै । जप तप कर फल वांछै नाहीं, नि:कांक्षित गुण हो जिस माहीं ॥१॥ पर को देख गिलानि न आनै, सो तीजा सम्यक् गुण ठानै । आन देव को रंच न मानै, सो निर्मूढता गुण पहिचानै ॥२॥ पर को औगुण देख जु ढाकै, सो उपगूहन श्रीजिन भाखै । जैनधर्म तैं डिगता देखै, थापै बहुरि स्थिति कर लेखै ॥ ३ ॥ जिन-धरमी सौं प्रीति निवहिये, गउ-बच्छावत वच्छल कहिये । ज्यों त्यों करि उद्योत बढ़ावै, सो प्रभावना अंग कहावै ॥४ ॥
अष्ट अंग यह पाले जोई, सम्यग्दृष्टी कहिये सोई।
अब गुण आठ ज्ञान के कहिये, भाखे श्रीजिन मन में गहिये ॥५ ॥ व्यंजन अक्षर सहित पढ़ीजै, व्यंजन- व्यंजित अंग कहीजै । अर्थ सहित शुध शब्द उचारै, दूजा अर्थ समग्रह धारै ॥६ ॥ दु तीजा अंग लखीजै, अक्षर - अर्थ सहित जु पढीजै । चौथा कालाध्ययन विचारै, काल समय लखि सुमरण धारै ॥७ ॥ पंचम अंग उपधान बतावै, पाठ सहित तब बहु फल पावै । षष्ठम विनय सुलब्धि सुनीजै, वाणी बहुत विनय सु पढ़ीजै ॥८ ॥ जापै पढ़े न लोपै जाई, अंग सप्तम गुरुवाद कहाई ।
गुर
की बहुत विनय करीजै, सो अष्टम अंग धर सुख लीजै ॥९ ॥ यह आठों अंग-ज्ञान बढ़ावै, ज्ञाता मन वच तन कर ध्यावै । अब आगे चारित्र सुनीजै, तेरह - विध धर शिव-सुख लीजै ॥१० ॥
छहों काय की रक्षा कर है, सोई अहिंसा व्रत चित धर है ।
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हित मित सत्य वचन मुख कहिये, सो सतवादी केवल लहिये ॥११॥
मन वच काय न चोरी करिये, सोई अचौर्य-व्रत चित धरिये। मनमथ-भय मन रंच न आने, सो मुनि ब्रह्मचर्य व्रत ठानै ॥१२॥
परिग्रह देख न मूर्छित होई, पंच महाव्रत-धारक सोई। महाव्रत ये पाँचों सु खरे हैं, सब तीर्थंकर इनको करे हैं ॥१३॥
मन में विकल्प रंच न होई, मनोगुप्ति मुनि कहिये सोई । वचन अलीक रंच नहिं भाडं, वचन गुप्ति सो मुनिवर राखें ॥१४॥
कायोत्सर्ग परीषह सहे हैं, ता मुनि काय-गुप्ति जिन कहि हैं। पंच समिति अब सुनिये भाई, अर्थ सहित भाखों जिनराई ॥१५॥
हाथ चार जब भूमि निहारें, तब मुनि ईर्यापथ पद धारे । मिष्ट वचन मुख बोलें सोई, भाषा-समिति तास मुनि होई ॥१६॥
भोजन छियालिस दूषण टारें, सो मुनि एषण शुद्धि विचारें । देखिके पोथी ले अरु धर हैं, सो आदान-निक्षेपण वरि हैं ॥१७॥
मल-मूत्र एकान्त जु डारें, परतिष्ठापन समिति सँभारें । यह सब अंग उनतीस कहे हैं, जिन भाखे गणधर ने गहे हैं ॥१८॥
आठ-आठ-तेरहविधि जानो, दर्शन-ज्ञान-चरित्र सु ठानो । ताते शिवपुर पहुँचो जाई, रत्नत्रय की यह विधि भाई ॥१९॥
रत्नत्रय पूरण जब होई, क्षमा क्षमा करियो सब कोई। चैत माघ भादों त्रय बारा, क्षमा पर्व हम उर में धारा ॥२०॥ दोहा- यह क्षमावणी आरती, पढ़े सुनै जो कोय ।
___कहे मल्ल सरधा करो, मुक्ति-श्री-फल होय ॥ ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध सम्यक्-चारित्रेभ्यो नमः अनर्घपदप्राप्तये महाऱ्या
निर्वपामीति स्वाहा।
सोरठा दोष न गहियो कोय, गुण गण गहिये भाव सौं । भूल चूक जो होय, अर्थ विचारि जु शोधिये।।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।
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सप्तर्षि पूजा प्रथम नाम श्रीमन्व दुतिय स्वरमन्व ऋषीश्वर । तीसरे मुनि श्री निचय सर्वसुन्दर चौथो वर ॥ पञ्चम श्री जयवान विनयलालस षष्ठम भनि ।
सप्तम जय मित्राख्य सर्व चारित्र-धाम गनि ॥ ये सातों चारण-ऋद्धि-धर, करूं तास पर थापना।
मैं पूजूं मन वचन काय करि, जोसुख चाहूँ आपना ॥ ॐ ह्रीं चारणद्धिधर श्री सप्तर्षीश्वरः ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । (इति आह्वाननम्) ___ॐ ह्रीं चारणर्द्धिधर श्री सप्तर्षीश्वरः ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम्) ॐ ह्रीं चारणर्द्धिधर श्री सप्तर्षीश्वरः ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (सन्निधिकरणम्)
शुभ-तीर्थ-उद्भव-दल-अनुपम, मिष्ट शीतल लायकैं।
भव-तृषा-कंद-निकंद-कारण, शुद्ध घट भरवायॐ ॥ मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूं ।
ता करें पातक हरें सारे. सकल आनन्द विस्तरूं ॥ ॐ ह्रीं श्री चारणर्द्धिधरमन्व स्वरमन्व निचय सर्वसुन्दर जयवान विनयलालस जयमित्रर्षिभ्यो
जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्रीखण्ड कदलीनन्द केशर, मन्द मन्द घिसायकैं। तसु गंध प्रसारित दिग-दिगन्तर, भर कटोरी लायकै ॥ मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मनिन की पूजा करूं।
ता करें पातक हरें सारे, सकल आनन्द विस्तरूं । ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्यो संसारताप विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।
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अति धवल अक्षत खण्ड-वर्जित, मिष्ट राजन भोग के। कलधौत-थारा भरत सुन्दर, चुनित शुभ उपयोग के ॥ मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूं।
ता करें पातक हरें सारे, सकल आनन्द विस्तरूं ॥ ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्यो अक्षयपद प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ।
बहु-वर्ण सुवरण-सुमन आछै, अमल कमल गुलाब के।
केतकी चंपा चारु मरुआ, चुने निज कर चावके । मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूं ।
ता करें पातक हरें सारे, सकल आनन्द विस्तरूं । ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्यो कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
पकवान नाना भॉति चातुर, रचित शुद्ध नये-नये ।
सदमिष्ठ लाड़ आदि भर बह. परटके थारा लये॥ मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूं ।
ता करै पातक हरें सारे, सकल आनन्द विस्तरूं ॥ ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
कलधौत-दीपक जड़ित नाना, भरित गोघृत-सारसों। अतिज्वलितजग-मग ज्योतिजाकी, तिमिर नाशनहारसो ॥ मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूं ।
ता करें पातक हरें सारे, सकल आनन्द विस्तरूं ॥ ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्यो मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
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दिक्-चक्र गन्धित होत जाकर, धूप दश-अंगी कही । सो लाय मन-वच-काय शुद्, लगाय कर खेऊँ सही ॥ मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूं । ता करें पातक हरें सारे, सकल आनन्द विस्तरूं ॥ ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
बर दाख खारक अमित प्यारे, मिष्ट चुष्ट चुनायकैं । द्रावडी दाडिम चारु पुंगी, थाल भर-भर लायकें ॥ मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूं ।
ता करें पातक हरें सारे, सकल आनन्द विस्तरूं ॥ ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्यो मोक्ष फल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
जल गन्ध अक्षत पुष्पचरुवर, दीप धूप सु लावना। फल ललित आठौं द्रव्य मिश्रित, अर्घ्य कीजे पावना ॥ मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूं ।
ता करें पातक हरें सारे, सकल आनन्द विस्तरूं ॥ ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
(घत्ता)
वन्दूँ ऋषिराजा, धर्म-जहाजा, निज-पर- काजा करत भले । करुणा के धारी, गगन-बिहारी दुख अपहारी, भरम दले ॥ काटत जम-फन्दा, भवि-जन वृन्दा, करत अनन्दा चरण में I जो पूजैं ध्यावैं, मंगल गावैं, फेर न आवैं भव-वन में ॥
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(पद्धरि छन्द) जय श्रीमनु मुनिराज महन्त, त्रस-थावर की रक्षा करन्त । जय मिथ्या-तम-नाशक पतंग, करुणा रस-पूरित अंग-अंग ॥ जय श्रीस्वरमनु कलंकरूप, पद-सेव करत नित अमर-भूप । जय पञ्च अक्ष जीते महान, तप तपत देह कंचन-समान । जय "निचय" सप्त तत्वार्थ भास, तप-रमातनों तनमें प्रकाश । जय विषय-रोध सम्बोध भान, परणति के नाशन अचल ध्यान ॥ जय जयहिं सर्वसुन्दर दयाल, लखि इन्द्रजालवत जगत-जाल ।
जय तृष्णाहारी रमण राम, निज परिणति में पायो विराम ॥ जय आनन्दघन कल्याणरूप, कल्याण करत सबकौ अनूप । जय मद-नाशन जयवानदेव, निरमद विरचित सब करत सेव ॥
जय जयहिं विनयलालस अमान, सब शत्रु मित्र जानत समान । जय कृशित-काय तप के प्रभाव, छवि छठा उड़ति आनन्द दाय । जय मित्र सकल जग के सुमित्र, अनगिनत अधम कीने पवित्र । जय चन्द्र-वदन राजीव नैन, कबहूँ विकथा बोलत न बैन । जय सातों मुनिवर एक संग, नित गगन-गमन करते अभंग। जय आये मथुरापुर मझार, तहँ मरी रोग को अति प्रचार ॥ जय जय तिन चरणनि के प्रसाद, सब मरी देवकृत भई बाद । जय लोक करे निर्भय समस्त, हम नमत सदा नित जोड़ हस्त ॥
जय ग्रीष्म-ऋतु पर्वत मझार, नित करत अतापन योगसार । जय तृषा-परीषह करत जेर, कहूँ रंच चलत नहिं मन सुमेर ।
जय मूल अठाइस गुणनधार, तप उग्र तपत आनन्दकार । जय वर्षा-ऋतु में वृक्ष तीर, तहं अति शीतल झेलत समीर ॥ जय शीत-काल चौपट मझार, कै नदी सरोवर तट विचार । जय निवसत ध्यानारूढ़ होय, रंचक नहिं भटकत रोय कोय ॥
जय मृतकासन वज्रासनीय, गौदूहन इत्यादिक गनीय ।
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जय आसन नानाभाँति धार, उपसर्ग सहत ममता निवार ॥ जय जपत तिहारो नाम जोय, लख पुत्र पौत्र कुल वृद्धि होय ।
जय भर लक्ष अतिशय भण्डार, दारिद्रतनो दुःख होय छार ।। जयचोर अग्नि डाकिन पिशाच, अरु ईति भीति सब नसत सांच। जय तुम सुमरत सुख लहत लोक, सुर असुर नमत पद देत धोक ॥
(रोला छन्द) ये सातों मुनिराज, महातप लक्ष्मी धारी। परम पूज्य पद धरै सकल जग के हितकारी ॥ जो मन वचन तन शुद्ध होय सेवे औ ध्यावै । सो जन मनरंगलाल, अष्ट ऋद्धिनकौं पावै ॥
(दोहा) नमन करत चरनन रत, अहों गरीब निवाज ।
पञ्च परावर्तननितें, निरवारो ऋषिराज ॥ ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्यः पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा ।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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पंच परमेष्ठी पूजन - कवि राजमल पवैया जी अर्हत सिद्ध आचार्य नमन, है उपाध्याय ! हे साधु ! नमन।
जय पंच परम परमेष्ठी जय, भवसागर तारणहार नमन।। मन-वच-काया-पूर्वक करता, हूँ शुद्ध-हृदय से आह्वानन। मम-हृदय विराजो तिष्ठ तिष्ठ, सन्निकट होहु मेरे भगवन।। निज-आत्मतत्त्व की प्राप्ति-हेतु, ले अष्ट-द्रव्य करता पूजन।
तव चरणों के पूजन से प्रभु, निज-सिद्धरूप का हो दर्शन।। ॐ ह्रीं श्री अरिहंतसिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु पंच परमेष्ठिन्! अत्र
अवतरत अवतरत संवौषट् (आह्वाननम्)। ॐ ह्रीं श्री अरिहंतसिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु पंच परमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः (संस्थापनम्)। ॐ ह्रीं श्री अरिहंतसिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु पंच परमेष्ठिन् ! अत्र मम सन्निहितो
भवत भवत वषट् (सन्निधिकरणम्)।
मैं तो अनादि से रोगी हूँ, उपचार कराने आया हूँ। तुम-सम उज्ज्वलता पाने को, उज्ज्वल-जल भरकर लाया हूँ। मैं जन्म-जरा-मृतु नाश करूँ, ऐसी दो शक्ति हृदय स्वामी ।
__ हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दुःख मेटो अंतर्यामी॥ ॐ ह्रीं श्रीपंचपरमेष्ठिभ्यः जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।
संसार-ताप में जल-जल कर, मैंने अगणित दुःख पाए हैं। निज शांत-स्वभाव नहीं भाया, पर के ही गीत सुहाए हैं।
शीतल चंदन है भेंट तुम्हें, संसार-ताप नाशो स्वामी।
हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दुःख मेटो अंतर्यामी।। ॐ ह्रीं श्रीपंचपरमेष्ठिभ्यः संसार-ताप विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा॥
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दुःखमय अथाह भवसागर में, मेरी यह नौका भटक रही। शुभ-अशुभ भाव की भँवरों में, चैतन्य शक्ति निज अटक रही ॥ तंदुल हैं धवल तुम्हें अर्पित, अक्षयपद प्राप्त करूँ स्वामी।।
हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दुःख मेटो अंतर्यामी।। ॐ ह्रीं श्रीपंचपरमेष्ठिभ्यः अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा॥
मैं काम-व्यथा से घायल हूँ, सुख की न मिली किंचित् छाया।
चरणों में पुष्प चढ़ाता हूँ, तुमको पाकर मन हर्षाया॥ मैं कामभाव विध्वंस करूं, ऐसा दो शील हृदय स्वामी ।
हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दुःख मेटो अंतर्यामी।। ॐ ह्रीं श्रीपंचपरमेष्ठिभ्यः कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मैं क्षुधारोग से व्याकुल हूँ, चारों गति में भरमाया हूँ। जग के सारे पदार्थ पाकर भी, तृप्त नहीं हो पाया हूँ।। नैवेद्य समर्पित करता हूँ, यह क्षुधा-रोग मेटो स्वामी।
हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दुःख मेटो अंतर्यामी।। ॐ ह्रीं श्रीपंचपरमेष्ठिभ्यः क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोहांध महाअज्ञानी मैं, निज को पर का कर्ता माना। मिथ्यातम के कारण मैंने, निज आत्म-स्वरूप न पहचाना॥ मैं दीप समर्पण करता हूँ, मोहांधकार क्षय हो स्वामी।
हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दुःख मेटो अंतर्यामी।। ॐ ह्रीं श्रीपंचपरमेष्ठिभ्यः मोहांधकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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कर्मों की ज्वाला धधक रही, संसार बढ़ रहा है प्रतिपल । संवर से आस्रव को रोकूँ, निर्जरा-सुरभि महके पल-पल। मैं 'धूप चढ़ाकर अब आठों, कर्मों का हनन करूँ स्वामी॥ हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दुःख मेटो अंतर्यामी॥ ॐ ह्रीं श्रीपंचपरमेष्ठिभ्यः अष्टकर्म दहनाय धूपंनिर्वपामीति स्वाहा।।
निज-आत्मतत्त्व का मनन करूँ, चिंतवन करूँ निज - चेतन का । दो श्रद्धा-ज्ञान- चारित्र श्रेष्ठ, सच्चा पथ मोक्ष - निकेतन का || उत्तम फल चरण चढ़ाता हूँ, निर्वाण महाफल हो स्वामी ।
हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दुःख मेटो अंतर्यामी॥ ॐ ह्रीं श्रीपंचपरमेष्ठिभ्यः मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा॥
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जल चंदन अक्षत पुष्प दीप, नैवेद्य धूप फल लाया हूँ। अब तक संचित कर्मों का, मैं पुंज जलाने आया हूँ ।। यह अर्घ्य समर्पित करता हूँ, अविचल अनर्घ्य पद दो स्वामी । हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दुःख मेटो अंतर्यामी॥ श्रीपंचपरमेष्ठिभ्यः अनर्घ्य पद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥
जयमाला
जय वीतराग सर्वज्ञ प्रभो, निज-ध्यान- लीन गुणमय अपार । अष्टादश-दोष रहित जिनवर, अर्हत-देव को नमस्कार ॥ अविकल अविकारी अविनाशी, निजरूप निरंजन निराकार | जय अजम-अमर हे मुक्तिकंत, भगवंत सिद्ध को नमस्कार ॥ छत्तीस गुण से तुम मंडित, निश्चय - रत्नत्रय हृदय धार। हे मुक्तिवधू के अनुरागी, आचार्य-सुगुरु को नमस्कार। एकादश-अंग पूर्व-चौदह के, पाठी गुण पच्चीस धार। बाह्यांतर मुनि-मुद्रा महान्, श्री उपाध्याय को नमस्कार ॥
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व्रत समिति गुप्ति चारित्र धर्म, वैराग्य-भावना हृदय धार। हे द्रव्य-भाव संयममय मुनिवर, सर्व-साधु को नमस्कार ॥ बहु पुण्य-संयोग मिला नर- तन, निजश्रुत जिनदेव चरण-दर्शन ।
हो सम्यक्-दर्शन प्राप्त मुझे, तो सफल बने मानव-जीवन।। निज-पर का भेद जानकर मै, निज को ही निज में लीन करूँ। अब भेदज्ञान के द्वारा मैं, निज-आत्म स्वयं स्वाधीन करूँ। निज में रत्नत्रय धारण कर, निज - परिणति को ही पहचानूँ। पर परणति से हो विमुख सदा, निजज्ञान-तत्त्व को ही जानूँ । जब ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञाता विकल्प तज, शुक्ल - ध्यान मैं ध्याऊँगा।
तब चार घातिया क्षय करके, अर्हंत-महापद पाऊँगा ।। है निश्चित सिद्ध स्वपद मेरा, हे प्रभु ! कब इसको पाऊँगा। सम्यक् पूजा- फल पाने को, अब निज-स्वभाव में आऊँगा। अपने स्वरूप की प्राप्ति-हेतु, हे प्रभु की है पूजन तब तक चरणों में ध्यान रहे, जब तक न प्राप्त हो मुक्ति -सदन।। ॐ ह्रीं श्री अरिहंतसिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु पंचपरमेष्ठिभ्यः जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे मंगलरूप अमंगलहर, मंगलमय मंगलगान करूँ। मंगल में प्रथम श्रेष्ठ मंगल, नवकार मंत्र का ध्यान करूँ।
।। इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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बाहुबली स्वामी पूजन
कर्म-अरिगण जीत के, दरशायो शिव-पंथ सिद्ध-पद श्री जिन लह्यो, भोगभूमि के अंत ॥ समर-दृष्टि-जल जीत लहि, मल्लयुद्ध जय पाय। वीर-अग्रणी बाहुबली, वंदौं मन-वच-काय॥
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलिजिनेन्द्र ! अत्र अवतरत अवतरत संवौषट् (आह्वाननम्)।
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलिजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः (संस्थापनम्)। ॐ ह्रीं श्री बाहुबलिजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भवत भवत वषट् (सन्निधिकरणम्)।
अष्टक (चाल जोगीरासा)
जन्म-जरा-मरणादि तृष कर, जगत-जीत दुःख पावे। तिहि दुःख दूर-करन जिनपद को, आवे ||
पूजत जल
परम-पूज्य वीराधिवीर जिन, बाहुबली बलधारी ।
तिनके चरण-कमल को नित-प्रति, धोक त्रिकाल हमारी॥
ॐ ह्रीं वर्तमानवसर्पिणीसमये मुक्तिस्थान- प्राप्ताय कर्मारिविजयी वीराधिवीर-वीराग्रणी - श्रीबाहुबलीपरमयोगीन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा॥
यह संसार मरुस्थल-अटवी, तृष्णा-दाह भरी है। तिहि दुःखवारन चंदन लेके, जिन-पद पूज करी है।
परम पूज्य वीराधिवीर जिन, बाहुबली बलधारी ।
तिनके चरण-कमल को नित-प्रति, धोक त्रिकाल हमारी॥
ॐ ह्रीं श्री बाहुबली-परमयोगीन्द्राय भवताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ॥
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स्वच्छ शालि शुचि नीरज रज - सम, गंध - अखंड प्रचारी ।
अक्षय-पद के पावन-कारन, पूजें भवि जगतारी॥ परम पूज्य वीराधिवीर जिन, बाहुबली बलधारी । तिनके चरण-कमल को नित-प्रति, धोक त्रिकाल हमारी॥
ॐ ह्रीं श्री बाहुबली-परमयोगीन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।।
हरि हर चक्रपति सुर दानव, मानव पशु बस जा के। तिहि मकरध्वज-नाशक जिन को, पूजौं पुष्प चढ़ाके ॥ परम पूज्य वीराधिवीर जिन, बाहुबली बलधारी । तिनके चरण-कमल को नित-प्रति, धोक त्रिकाल हमारी॥
ॐ ह्रीं श्री बाहुबली-परमयोगीन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा॥
दुःखद त्रिजग-जीवन को अति ही, दोष-क्षुधा अनिवारी । तिहि दुःख दूर करन को चरुवर ले जिन-पूज प्रचारी ॥ परम-पूज्य वीराधिवीर जिन, बाहुबली बलधारी। तिनके चरण-कमल को नित-प्रति, धोक त्रिकाल हमारी॥
ॐ ह्रीं श्री बाहुबली-परमयोगीन्द्राय क्षुधारोगविनाशाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोह-महातम में जग जीवन, शिव-मग नाहिं लखावे। तिहि निरवारन दीपक कर ले, जिनपद-पूजन आवे ||
परम-पूज्य वीराधिवीर जिन, बाहुबली बलधारी ।
तिनके चरण-कमल को नित-प्रति, धोक त्रिकाल हमारी॥
ॐ ह्रीं श्री बाहुबली-परमयोगीन्द्रायमोहाधंकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।।
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उत्तम धूप सुगंध बनाकर, दश-दिश में महकावें। दशविधि-बंध निवारन-कारण, जिनवर पूज रचावें।।
परम-पूज्य वीराधिवीर जिन, बाहुबली बलधारी।
तिनके चरण-कमल को नित-प्रति, धोक त्रिकाल हमारी॥ ॐ ह्रीं श्री बाहुबली-परमयोगीन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सरस सुवर्ण सुगंध अनुपम, स्वच्छ महाशुचि लावें।
शिवफल कारण जिनवर-पद की, फलसों पूज रचावें।। ॐ ह्रीं श्री बाहुबली-परमयोगीन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
वसु-विधि के वश वसुधा सब ही, परवश अतिदुःख पावें। तिहि दुःख दूरकरन को भविजन, अर्घ्य जिनाग्र चढ़ावे।।
परम-पूज्य वीराधिवीर जिन, बाहुबली बलधारी।
तिनके चरण-कमल को नित-प्रति, धोक त्रिकाल हमारी॥ ॐ ह्रीं श्री बाहुबली-परमयोगीन्द्राय अनर्घ्य-पद प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
जयमाला
(दोहा) आठ-कर्म हनि आठ-गुण, प्रगट करे जिनरूप।
सो जयवंतो बाहुबली, परम भये शिवभूप।। जय जय जय जगतार-शिरोमणि क्षत्रिय-वंश-अशंस महान्। जय जय जय जगजग-हितकारी दीनो जिन उपदेश प्रमाण।। जय जय चक्रवति-सुत जिनके सत-सुत जेष्ठ-भरत पहिचान। जय जय जय श्री ऋषभदेव-जिन सो जयवंत सदा जग-जान।। जिनके द्वितीय महादेवी शुचि नाम सुनंदा गुण की खान। रूप-शील-सन्पन्न मनोहर तिनके सुत बाहुबली महान्।।
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सवा पंच-शत धनु उन्नत तन हरित-वरण शोभा असमान।
वैडूर्यमणि-पर्वत मानों नील-कुलाचल-सम थिर जान।। तेजवंत परमाणु जगत में तिन करि रच्यो शरीर प्रमाण। सत वीरत्व गुणाकर जाको निरखत हरि हरषे उर आन।। धीरज अतुल वज्र-सम नीरज वीराग्रणी सम अति-बलवान। जिन छवि लखि मनु शशि-रवि लाजे कुसुमायुध लीनों सुपुमान।। बालसमय जिन बाल-चन्द्रमा शशि से अधिक धरे दुतिसार।
जो गुरुदेव पढ़ाई विद्या शस्त्र-शास्त्र सब पढ़ी अपार।। ऋषभदेव ने पोदनपुर के नृप कीने बाहुबली कुमार। दई अयोध्या भरतेश्वर को आप बने प्रभुजी अनगार॥ राज-काज षट्खंड-महीपति सब दल लै चढ़ि आये आप। बाहुबली भी सन्मुख आये मंत्रिन तीन युद्ध दिये थाप। दृष्टि नीर अरु मल्ल-युद्ध में दोनों नृप कीजो बलथाप। वृथा हानि रुक जाय सैन्य की यातें लड़िये आपों आप।
भरत बाहुबली भूपति भाई उतरे समर-भूमि में जाय। दृष्टि-नीर-रण थके चक्रपति मल्लयुद्ध तब करो अघाय॥ पगतल चलत चलत अचला तब कंपत अचल-शिखर ठहराय। निषध नील अचलाधर मानो भये चलाचल क्रोध-वशाय।। भुज-विक्रमबली बाहुबली ने लिये चक्रपति अधर उठाय। चक्र चलायो चक्रपति तब सो भी विफल भयो तिहि ठाय।। अतिप्रचंड भुजदंड सूंड-सम नृप-शार्दूल बाहुबलि-राय। सिंहासन मँगवाय जास पे अग्रज को दीनों पधराय।।
राज रमा दामासुर धनमय जीवन दमक-दामिनी जान। भोग भुजंग-जंग-सम जग को जान त्याग कीनों तिहि थान।।
अष्टापद पर जाय वीर नृप वीर व्रती धर लीनों ध्यान। अचल-अंग निरभंग संग-तज संवत्सर लों एक ही थान।। विषधर बंबी करी चरननतल ऊपर बेल चढ़ी अनिवार। युगजंघा कटि बाहु बेढ़िकर पहुँची वक्षस्थल पर सार।।
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सिर के केश बढ़े जिस माँही नभचर-पक्षी बसे अपार। धन्य-धन्य इस अचल-ध्यान को महिमा सुर गावें उर-धार।।
कर्म नासि शिव जाय बसे प्रभु ऋषभेश्वर से पहले जान। अष्ट-गुणांकित सिद्ध-शिरोमणि जगदीश्वर-पद लह्यो पुमान।।
वीरव्रती वीराग्रगण्य प्रभु बाहुबली जगधन्य महान्। वीरवृत्ति के काज जिनेश्वर नमौं सदा जिन-बिंब प्रमान।।
(दोहा) श्रवनबेलगुल इन्द्रगिरि जिनवर-बिंब प्रधान। सत्तावन-फुट उतंग तनो खड्गासन अमलान।।
अतिशयवंत अनंत-बल धारक बिंब अनूप।
अर्घ्य चढ़ाय नमौं सदा जय जय जिनवर-भूप।। ॐ ह्रीं वर्तमानावसर्पिणीसमयेमुक्तिस्थान-प्राप्ताय कर्मारि विजयी - वीराधिवीर वीराग्रणी श्रीबाहुबली
स्वामिने अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला-पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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स्वयंभू स्तोत्र भाषा (कविवर द्यानतराय)
चौपाई राजविषै जुगलनि सुख कियो, राजत्याग भवि शिव लियो। स्वयंबोध स्वयंभू भगवन, वंदौं आदिनाथ गुणखान।1।
इन्द्र क्षीरसागर जल लाय, मेरु न्हवाये गाय बजाय। मदन विनाशक सुखकरतार, वंदौं अजित अजि-पदकार।2। शुक्लध्यान करि करम विनाशि, घाति अघाति सकलदुख राशि। लह्यो मुकतिपद सुख अविकार, वंदौं संभव भव दुख टार।।
माता पश्चिम रयन मंझार, सुपने देखे सोलह सार। भूप पूछि फल सुनि हरषाय, वंदौं अभिनंदन मनलाय।4।
सब कुवाद वादी सरदार, जीते स्याद्वाद धुनि धार। जैन धरम परकाशक स्वाम, सुमतिदेवपद करहुं प्रणाम।5। गर्भ अगाऊ धनपति आय, करी नगर शोभा अधिकाय। बरसे रतन पंचदश मास, नमौं पदमप्रभु सुख की राश।6। इन्द्र फणीन्द्र नरेन्द्र त्रिकाल, बानी सुनि सुन होहिं खुशाल।
द्वादश सभा ज्ञान दातार, नमौ सुपारसनाथ निहार।7। सुगुन छियालीस हैं तुम माहिं, दोष अठारह कोऊ नाहिं।
मोहमहातप नाशक दीप, नौं चंदप्रभु राख समीप।8। द्वादश विध तप करम विनाश, तेरह विध चारित्र प्रकाश। निज अनिच्छ भवि इच्छकदान, वंदौं पुष्पदंत मन आन।9। भविसुखदाय सुरगतै आय, दशविधि धरम कह्यो जिनराय। आप समान सबनि सुख देह, वंदौं शीतल धर्म सनेह।10।
समता सुधा कोपविष नाश, द्वादशांग वानी परकाश। चारसंघ-आनंद-दातार, नमौं श्रेयांस जिनेश्वर सार।11। रतनत्रय चिरमुकुट विशाल, शोभै कंठ सुगुन मनिमाल। मुक्तिनर भरता भगवान, वासुपूज्य वंदौं धर ध्यान।12।
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परम समाधि-स्वरूप जिनेश, ज्ञानी ध्यानी हित उपदेश। कर्मनाशि शिवसुख विलसंत, वंदौं विमलनाथ भगवंत।13।
अन्तर बाहिर परिग्रह टारि, परम दिगंबर व्रत को धारि। सर्वजीवहित-राह दिखाय, नमौं अनंत वचन-मनलाय।14।
सात तत्व पंचासतिकाय, नव पदार्थ छह द्रव्य बताय। लोक अलोक सकलपरकाश, वंदौं धर्मनाथ अविनाश।15।
पंचम चक्रवर्ति निधिभोग, कामदेव द्वादशम मनोग। शांतिकरण सोलम जिनराय, शांतिनाथ वंदौं हरषाय।16। बहुथुति करे हरष नहिं होय, निंदे दोष गहैं नहिं कोय। शीलवान परब्रह्मस्वरूप, वंदौं कुंथुनाथ शिवभूप।17।
द्वादश गण पूजें सुखदाय, थुति वंदना करें अधिकाय। जाकी निजथुति कबहुँ न होय, वंदौं अरजिनवर-पद दोय।18।
परभव रतनत्रय-अनुराग, इह भव ब्याह समय वैराग। बाल ब्रह्म-पूरन व्रत धार, वंदौं मल्लिनाथ जिनसार।191
बिन उपदेश स्वयं वैराग, थुति लोकांत करै पगलाग। नमः सिद्ध कहि सब व्रत लेहिं वंदौ मुनिसुव्रत देहि।20।
श्रावक विद्यावंत निहार, भगति भावसों दियो अहार। बरसी रतनराशि तत्काल, वंदौं नमिप्रभु दीनदयाला21।
सब जीवनि की बंदी छोडि, रागद्वेष द्वै बंधन तोर।
राजुल तजि शिवतियसों मिले, नेमिनाथ वंदौं सुखनिले।22 दैत्य कियो उपसर्ग अपार, ध्यान देखि आयो फनधार। गयो कमठ शठ मुख कर श्याम, नमौं मेरुसम
पारसस्वाम।23। भवसागरते जीव अपार, धरम पोत में धरे निहार। डूबत काढ़े दया विचार, वर्द्धमान वंदौं बहुबार।24।
दोहा
चौबीसों पदकमलजुग, वंदौं मनवचनकाय। घनत पढ़े सुने सदा, सो प्रभु क्यों न सहाय।।
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निर्वाणकाण्ड (भाषा)
दोहा
वीतराग वंदौं सदा, भाव सहित सिरनाय। कहं काण्ड निर्वाण की, भाषा सुगम बनाय।1।
चौपाई अष्टापद आदीश्वर स्वामि, वासुपूज्य चंपापुरि नामि। नेमिनाथ स्वामी गिरनार, वंदौं भाव-भगति उर धार।2।
चरम तीर्थंकर चरम-शरीर, पावापुरी स्वामी महावीर। शिखर सम्मेद जिनेश्वर बीस, भाव सहित वंदौं निश-दीस।3।
वरदत्तराय रु इंद्र मुनिंद्र, सायरदत्त आदि गुणवृंद। नगर तारवर मुनि उठकोडि, वंदौ भाव सहित कर जोडि।4।
श्री गिरनार शिखर विख्यात, कोडि बहत्तर अरु सौ सात। संबु-प्रद्युम्न कुमर द्वे भाय, अनिरुद्ध आदि नमूं तसु पाय।5।
रामचंद्र के सुत द्वै वीर, लाड-नरिंद आदि गुणधीर। पांच कोडि मुनि मुक्ति मंझार, पावागढ़ वंदौ निरधार।6। पांडव तीन, द्रविड़-राजान, आठ कोडि मुनि मुकति पयान। श्री शत्रुजय-गिरि के सीस, भाव सहित वंदौं निश-दीस।7।
जे बलभद्र मुकति में गये, आठ कोडि मुनि औरहु भये। श्री गजपंथ शिखर सुविशाल, तिनके चरण नमूं तिहूं काल।8।
राम हनू सुग्रीव सुडील, गवय गवाख्य नील महानील। कोडि निन्याणवे मुक्ति पयान, तुंगीगिरि वंदौं धरि ध्यान।9।
नंग अनंग कुमार सुजान, पांच कोडि अरु अर्ध प्रमान। मुक्ति गये सोनागिरि-शीश, ते वंदौं त्रिभुवनपति ईश।10।
रावण के सुत आदिकुमार, मुक्ति गये रेवा-तट सार। कोटि पांच अरु लाख पचास, ते वंदौं धरि परम हुलास।11।
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रेवानदी सिद्धवर-कूट, पश्चिम दिशा देह जहं छूट। द्वै चक्री दश कामकुमार, उठकोडि वंदौं भव पार।12। बड़वानी बड़नयर सुचंग, दक्षिण दिशि गिरि चूल उतंग। इंद्रजीत अरु कुंभ जु कर्ण, ते वंदौं भव-सायर तर्ण।13। सुवरण-भद्र आदि मुनि चार, पावागिरिवर शिखर मंझार। चेलना-नदी-तीरके पास, मुक्ति गये वंदौं नित तास।14। फलहोड़ी बड़गाम अनूप, पश्चिम दिशा द्रोणगिरि रूप। गुरुदत्तादि-मुनीश्वर जहां, मुक्ति गये वंदौं नित तहां।15। बाल महाबाल मुनि दोय, नागकुमार मिले त्रय होय। श्री अष्टापद मुक्ति मंझार, ते वंदौं नित सुरत संभार।16।
अचलापुर की दिश ईसान, तहां मेंढ़गिरि नाम प्रधान। साढ़ तीन कोडि मुनिराय, तिनके चरण नमूं चित लाय।17।
वंसस्थल वनके ढिग होय, पच्छिम दिश कुंथुगिरि सोय। कुलभूषण देशभूषण नाम, तिनके चरणनि करूं प्रणाम।18।
जसरथ राजा के सुत कहे, देश कलिंग पांच सौ लहे। कोटिशिला मुनि कोटि प्रमान, वंदन करूं जोड़ जुग पान।191
समवसरण श्री पाश्व-जिनंद, रेसिंदीगिरि नयनानंद।। वरदत्तादि पंच ऋषिराज, ते वंदौं नित धरम-जिहाज।20।
मथुरा नगरी पवित्र उद्यान, जम्बूस्वामी जी निर्वाण। चरमकेवली पंचमकाल, ते वन्दौं निज दीनदयाल|21|
तीन लोक के तीरथ जहाँ, नित प्रति वंदन कीजे तहां। मन-वच-काय सहित सिरनाय वंदन करहिं भविक गुणगाय।22।
संवत सतरहसौ इकताल, आश्विन सुदि दशमी सुविशाल। भैया वंदन करहिं त्रिकाल, जय निर्वाणकांड गुणमाल।23।
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बारह भावना (श्री मंगतराय जी कृत)
दोहा वंदू श्रीअरहंतपद, वीतराग विज्ञान। वरD बारह भावना, जगजीवन-हित जान।1।
विष्णुपद छंद कहाँ गये चक्री जिन जीता, भरतखंड सारा। कहाँ गये वह राम-रु-लक्ष्मण, जिन रावण मारा।। कहाँ कृष्ण रुक्मिणि सतभामा, अरु संपति सगरी। कहाँ गये वह रंगमहल अरु, सुवरन की नगरी।2।
नहीं रहे वह लोभी कौरव जूझ मरे रन में। गये राज तज पांडव वन को, अगनि लगी तन में।।
मोह-नींद से उठ रे चेतन, तुझे जगावन को। हो दयाल उपदेश करें गुरु, बारह भावन को।3।
1. अथिर भावना सूरज-चाँद छिप-निकलै, ऋतु फिर-फिर कह आवै।
प्यारी आयु ऐसी बीतें, पता नहीं पावै।। पर्वत-पतित-नदी-सरिता-जल बहकर नाहिं डटता। स्वास चलत यों घटै, काठ ज्यों आरे सों कटता।4।
ओस-बूंद ज्यों गलै धूप में, वा अंजुलि पानी। छिन छिन यौवन छीन होत है क्या समझै प्रानी।। इंद्रजाल आकाश नगर सम जग-संपत्ति सारी। अथिर रूप संसार विचारो सब नर अरु नारी।5।
2. अशरण भावना काल-सिंह ने मृग-चेतन को घेरा भव वन में। नहीं बचावन-हारा कोई यों समझों मन में।।
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मंत्र यंत्र सेना धन संपत्ति, राज पाट छूट। वश नहिं चलत काल लुटेरा, काय नगरि लूटे।6।
चक्ररत्न हलधर सा भाई, काम नहीं आया। एक तीर के लगत कृष्ण की विनश गई काया।।
देव-धर्म-गुरु शरण जगत में, और नहीं कोई। भ्रम से फिरै भटकता चेतन, युं ही उमर खोई।7।
3. संसार भावना जनम-मरण अरु जरा-भोग से, सदा दुःखी रहता। द्रव्य-क्षेत्र-अरु-काल-भाव-भव परिवर्तन सहता।।
छेदन-भेदन नरक-पशु गति, वध-बंधन सहता। राग-उदय से दुःख सुरगति में, कहाँ सुखी रहता।8।
भोगि पुण्यफल हो इकइंद्री, क्या इसमें लाली। कुतवाली दिन चार वही फिर, खुरपा अरु जाली।। मानुष-जन्म अनेक विपतिमय, कहीं न सुख देखा। पंचम गति सुख मिलै शुभाशुभ को मेटो लेखा।9।
4. एकत्व भावना जन्मै मरै अकेला चेतन, सुख-दःख का भोगी। और किसी का क्या इक दिन यह देह जुदी होगी।। कमला चलत न पैंड, जाय मरघट तक परिवारा। अपने अपने सुख को रोवें, पिता पुत्र दारा।10। ज्यों मेले में पंथीजन मिल नेह फिरै धरते।
ज्यों तरवत पै रैन बसेरा पंछी आ करते।। कोस कोई दो कोस कोई उड़ फिर थक थक हारे। जाय अकेला हंस, संग में कोई न पर मारै।11।
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5. अन्यत्व भावना
मोह-रूप मृग-तृष्णा जग में, मिथ्या जल चमके। मृग चेतन नित भ्रम में उठ उठ, दौड़ें थक थक के।। जल नहिं पावे प्राण मगावे, भटक भटक मरता । वस्तु पराई माने अपनी, भेद नहीं करता । 12 । तू चेतन अरु देह अचेतन, यह जड़ तू ज्ञानी । मिले-अनादि यतन तैं बिछुडे, ज्यों पय अरु पानी।।
रूप तुम्हारा सब सों न्यारा, भेद ज्ञान करना। जलों पौरुष थके न तौ लों उद्यम सों चरना। 13। 6. अशुचि भावना
तूति पोखै यह सूखे ज्यों, धोवै त्यों मैली। निश दिन करै उपाय देह का, रोग-दशा फैली। मात-पिता-रज-वीरज मिलकर, बनी देह तेरी । मांस हाड़ नश लहू राध की, प्रगट व्याधि घेरी। 14 काना पौंडा पड़ा हाथ यह चूसै तो रोवै । फलै अनंत धर्म ध्यानकी, भूमि-विषै बोवै।। केसर चंदन पुष्प सुगंन्धित, वस्तु देख सारी । देह परसते होय अपावन, निशदिन मल जारी । 15। 7. आस्रव भावना
ज्यों सर-जल आवत मोरी, त्यों आस्रव कर्मन को । दर्वित जीव प्रदेश गहे जब पुदग्ल भरमन को।। भावित आस्रव भाव शुभाशुभ, निशदिन चेतन को । पाप पुण्य के दोनों करता, कारण बंधन को। 16। पन-मिथ्यात, योग-पंद्रह, द्वादश-अविरत जानो। पंचर बीस कषय मिले सब, सत्तावन मानो । मोह-भाव की ममता टारै, पर परणति खोते।
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करै मोख का यतन निरास्रव, ज्ञानी जन होते।17।
8. संवर भावना ज्यों मोरी में डाट लगावै, तब जल रुक जाता। त्यों आस्रव को रोके संवर, क्यों नहिं मन लाता।। पंच महाव्रत, समिति, गुप्ति कर वचन-काय-मन सों। दशविध-धर्म, परीषह-बाइस, बारह भवन को।18। यह सब भाव सतावन मिलकर आस्रवको खोते।
सुपन दशा से जागो चेतन, कहाँ पड़े सोते।। भाव शुभाशुभ रहित शुद्ध-भावन-संवर भावै। डाट लगत यह नाव पड़ी मझधार पार जावै।19।
9. निर्जरा भावना ज्यों सरवर जल रुका सूखता, तपन पडै भारी।
संवर रोके कर्म, निर्जरा द्वै सोखनहारी।। उदय-भोग सविपाक समय, पक जाय आम डाली। दूजी है अविपाक पकावे, पालविषै माली।20। पहली सबके होय, नहीं कुछ सरे काम तेरा। दूजी करै जु उद्यम करके, मिटे जगत फेरा।। संवर सहित करो तप प्रानी, मिले मुकत रानी। इस दुलहिन की यही सहेली, जाने सब ज्ञानी।21।
___10. लोक भावना लोक अलोक अकाश माहिं थिर, निराधार जानो। पुरुष-रूप कर-कटी भये, षट्-द्रव्यन सों मानों।। इसका कोई न करता हरता, अमित अनादी है। जीवरु पुद्गल नाचै याचें, कर्म उपाधी है।22।
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पाप-पुण्य सों जीव जगतमें, नित सुख दुख भरता।
अपनी करनी आप भरे, शिर औरनके धरता।। मोह कर्म को नाश, मेटकर सब जग की आसा। निज पदमें थिर होय लोकके, शीश करो बासा।23।
__ 11. बोधि-दुर्लभ भावना दुर्लभ है निगोद से थावर, अरु त्रस गति पानी। नर काया को सुरपति तरसे सो दुर्लभ प्रानी।। उत्तम देश सुसंगति दुर्लभ, श्रावक-कुल पाना। दुर्लभ सम्यक दुर्लभ संयम, पंचम गुणठाना।24।
दुर्लभ रत्नत्रय आराधन दीक्षा का धरना। दुर्लभ मुनिवर को व्रत-पालन, शुद्ध भाव करना।
दुर्लभ से दुर्लभ है चेतन, बोधिज्ञान पावै। पाकर केवलज्ञान, नहीं फिर इस भवमें आवै।25।
12. धर्म भावना धर्म अहिंसा परमो धर्मः ही सच्चा जानो। जो पर को दुख दे, सुख माने, उसे पतित मानो।।
राग द्वेष मद मोह घटा आतम रुचि प्रकटावे। धर्म-पोत पर चढ़ प्राणी भव-सिन्धु पार जावे।26।
वीतराग सर्वज्ञ दोष बिन, श्री जिनकी वानी। सप्त तत्वका वर्णन जामें, सबको सुखदानी।। इनका चितवन बार बार कर, श्रद्धा उर धरना। मंगत इसी जतनतें इकदिन, भव-सागर-तरना।27।
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श्री निर्वाण क्षेत्र बड़ी पूजा (श्री निर्वाण लड्डू पूजा)
दोहा वंदौं श्री भगवान् को, भाव भगति सिर नाय। पूजा श्री निर्वाण की, सिद्धक्षेत्र सुखदाय।।1। भरत क्षेत्र के विषै, सिद्धक्षेत्र जो जान। तिनि को मैं वंदन करौं, भव भव होइ सहाय।।2।
अथ स्थापना (आडिल्ल छन्द) परम महा उत्कृष्ट मोक्ष मंगल सही, आदि अनादि संसार भानि मुक्ति लही।। तिनिके चरन अरु क्षेत्र जजों शिवदायही। आह्वानन विधि ठानि बार त्रय गायहीं।1। ऊँ ह्रीं भरत क्षेत्र सम्बन्धी निर्वाणक्षेत्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्)
ऊँ ह्रीं भरत क्षेत्र सम्बन्धी निर्वाणक्षेत्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं भरत क्षेत्र सम्बन्धी निर्वाणक्षेत्र! अत्र मम सन्निहितौ भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्)
अष्टक (पंचमेरु पूजा की चाल में) शीतल उज्ज्वल निर्मल नीर, पूजौं सिद्धक्षेत्र गम्भीर।
लहौं निर्वाण पूजौं मन वच तन धरि ध्यान।। अब मैं शरण गही तुम आन, भवदधिपार उतारन जान।।
लहौं निर्वाण पूजौं मन वच तन धरि ध्यान।। ॐ ह्रीं श्री भरत क्षेत्र सम्बन्धी निर्वाणक्षेत्रभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।।
चंदन घिसौं कपूर मिलाय, भव अताप तुरति मिट जाय।
लहौं निर्वाण पूजौं मन वच तन धरि ध्यान।। अब मैं शरण गही तुम आन, भवदधिपार उतारन जान।।
लहौं निर्वाण पूजौं मन वच तन धरि ध्यान।। ऊँ ह्रीं भरतक्षेत्र श्रीभरतक्षेत्र सम्बन्धी निर्वाणक्षेत्रेभ्यः भवआतापविनाशनाय
चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।2।
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अमल अखंडित अक्षय धोय, पूजौं सिद्ध क्षेत्र सुख होय । लहौं निर्वाण पूजौं मन वच तन धरि ध्यान ।।
अब मैं शरण गही तुम आन, भवदधिपार उतारन जान।। लहौं निर्वाण पूजौं मन वच तन धरि ध्यान
ऊँ ह्रीं भरतक्षेत्र श्री भरत क्षेत्र सम्बन्धी निर्वाणक्षेत्रेभ्यः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।3।
पुष्प सुगंध मधुप झंकार, पूजौं सिद्ध क्षेत्र मंझार । लहौं निर्वाण पूजौं मन वच तन धरि ध्यान
अब मैं शरण गही तुम आन, भवदधिपार उतारन जान।। लहौं निर्वाण पूजौं मन वच तन धरि ध्यान ।।
ॐ ह्रीं भरत क्षेत्र श्री भरत क्षेत्र सम्बन्धी निर्वाणक्षेत्रेभ्यः कामबाणविध्वंशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।4।
वर नैवेद्य मिष्ट अधिकाय, पूजौं सिद्ध क्षेत्र समवाय ।। हौं निर्वाण पूजौं मन वच तन धरि ध्यान
अब मैं शरण गही तुम आन, भवदधिपार उतारन जान।। हौं निर्वाण पूजौं मन वच तन धरि ध्यान ।।
ऊँ ह्रीं भरतक्षेत्र श्री भरत क्षेत्र सम्बन्धी निर्वाणक्षेत्रेभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।5।
दीप रतनमय तेज सुहाय, पूजौं सिद्ध क्षेत्र समवाय। लहौं निर्वाण पूजौं मन वच तन धरि ध्यान ।।
अब मैं शरण गही तुम आन, भवदधिपार उतारन जान।। लहौं निर्वाण पूजौं मन वच तन धरि ध्यान
ॐ ह्रीं भरत क्षेत्र श्री भरतक्षेत्र सम्बन्धी निर्वाणक्षेत्रेभ्यः मोहान्धकारविनाशनाय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 61
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धूप सुगंध लहै दश अंग, पूजौं सिद्ध क्षेत्र सरवंग। लहौं निर्वाण पूजौं मन वच तन धरि ध्यान अब मैं शरण गही तुम आन, भवदधिपार उतारन जान।। लहौं निर्वाण पूजौं मन वच तन धरि ध्यान
ॐ ह्रीं भरत क्षेत्र श्री भरतक्षेत्र सम्बन्धी निर्वाणक्षेत्रेभ्यः अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। 7।
फल प्रासुक उत्तम अतिसार, सिद्ध क्षेत्र वांछित दातार । लहौं निर्वाण पूजौं मन वच तन धरि ध्यान
अब मैं शरण गही तुम आन, भवदधिपार उतारन जान।। लहौं निर्वाण पूजौं मन वच तन धरि ध्यान ||
ॐ ह्रीं भरत क्षेत्र श्री भरत क्षेत्र सम्बन्धी निर्वाणक्षेत्रेभ्यः मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। 8 ।
अर्घ करौं निज माफिक शक्ति, पूजौं सिद्ध क्षेत्र करि भक्ति। लहौं निर्वाण पूजौं मन वच तन धरि ध्यान ।।
अब मैं शरण गही तुम आन, भवदधिपार उतारन जान।। हौं निर्वाण पूजौं मन वच तन धरि ध्यान ।।
ॐ ह्रीं भरत क्षेत्र श्री भरतक्षेत्र सम्बन्धी निर्वाण क्षेत्रेभ्यः अनध्य पद प्राप्तये अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 9।
तीरथ सिद्ध क्षेत्र के सबै, वांछा मेरी पूरो अ लहौं निर्वाण पूजौं मन वच तन धरि ध्यान ।।
अब मैं शरण गही तुम आन, भवदधिपार उतारन जान।।
लहौं निर्वाण पूजौं मन वच तन धरि ध्यान ।।
ॐ ह्रीं भरतक्षेत्र श्री भरत क्षेत्र सम्बन्धी निर्वाणक्षेत्रेभ्यः महाघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।10।
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अथ प्रत्येक निर्वाण क्षेत्र के अध्य
(अडिल्ल छन्द) श्री आदीश्वर देव गये निर्वाण जू। श्री कैलाश शिखर के ऊपर मान जू।।
तिनि के चरण जजौं मैं मन वच काय से। भवदधि उतरौं पार शरण तुम आय। ऊँ ह्रीं कैलाश पार्वत सेती श्री ऋषभदेव तीर्थंकर दश हजार मुनि सहित मुक्ति पधारे और वहां तें और
मुनि पधारे होहिं तिनि को अयं निर्वपामीति स्वाहा।।।
चंपापुर तें मुक्ति गये, जिनराज जी। वासुपूज्य महाराज करम क्षय कार जी।।
तिनि के चरण जजौं मैं मन वच काय से। भवदधि उतरौं पार शरण तुम आय। ऊँ ह्रीं चंपापुर सेती श्रीवासुपूज्य तीर्थंकर हजार मुनि सहित मुक्ति पधारे और वहां तें और मुनि मुक्ति
पधारें होंहि तिनि को अयं निर्वपामीति स्वाहा।2।
श्री गिरनार शिखर जग में विख्यात जी। सिद्ध वधू के नाथ गये नेमिनाथ जी।।
तिनि के चरण जजौं मैं मन वच काय से। भवदधि उतरौं पार शरण तुम आय। ऊँ ह्रीं गिरनार सेती श्रीनेमिनाथ तीर्थंकर पांच सौ छत्तीस मुनि सहित मुक्ति पधारे तिनि को अध्यं
निर्वपामीति स्वाहा।41
पावापुर सरवन के बीच महावीर जी। सिद्ध भये हनि कर्म करें सुरसेव जी।।
तिनि के चरण जजौं मैं मन वच काय से। भवदधि उतरौं पार शरण तुम आय। ऊँ ह्रीं पावपुर के पदम सरोवर मध्य सेती श्रीमहावीर तीर्थंकर छत्तीस मुनि सहित मुक्ति पधारे और वहां
तें और मुनि मुक्ति पधारें होंहि तिनि को अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।4।
श्री सम्मेद शिखर शिवपुर को द्वार जी। बीस जिनेश्वर मुक्ति गये भवतार जी।।
तिनि के चरण जजौं मैं मन वच काय से। भवदधि उतरौं पार शरण तुम आय। ऊँ ह्रीं सम्मेद शिखर सेती श्रीबीस तीर्थंकर मुक्ति पधारे और उस शिखर तें और मुनि मुक्ति पधारें होंहि
तिनि को अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।51
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नंगानंग कुमार दोय राजकुमार जू। मुक्त गये सोनागिर जग हितकार जू।
साढ़े पाँच कोडि गये शिवराजजी। पूजौं मन वच काय लहौं सुखसार जी।। ऊँ ह्रीं सोनागिरि पर्वतसेती नंगानंग कुमारादि साढ़े पांच कोडि मुनि मुक्ति पधारें तिनि को अध्यं
निर्वपामीति स्वाहा।6।
राम हनु सुग्रीव नील महानील जी। गवय गवाक्ष इत्यादि गये शिवतीर जी।।
कोडि निन्यानवे मुकति तुंगीगिर पाय जी। तिनि के चरण जजौं मैं मन वच काय से।। ऊँ ह्रीं तुंगागिरि पर्वत सेती श्रीरामचन्द्र-हनुमान-सुग्री-नील-महानील-गवय-गवाक्ष इत्यादि निन्यानवे
कोडि मुनि मुक्ति पधारे तिनि को अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।7।
वरदत्तादि वरंग मुनीन्द्र सुगम जी। सायरदत्त महान महा गुणधाम जी।। तारवत नगरतें मुक्ति गये सुखदाय जी तीन कोडि अरु लाख पचास सगाय जी।। तिनि के चरण जजौं मैं मन वच काय से। भवदधि उतारौं पार शरण तुम आय के।। ॐ ह्रीं तारवरनगर सेती श्रीवरदत्तादि साढ़े तीन कोडि मुनि मुक्ति पधारे तिन को
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।8।
श्री गिरनार शिखर जग में विख्यात है। कोटि बहत्तर अधिकै अरु सौ सात है।। शंभु प्रद्युम्न अनिरुद्ध मुक्ति को पाय जी।। तिनि के चरण जजौं मैं मन वच काय से।
भवदधि उतरौं पार शरण तुम आय। ॐ ह्रीं श्रीगिनार शिखर सेती शंभु कुमार प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्धकुमारादि बहत्तर कोडि सात सौ मुनि
मुक्ति पधारे तिनि को अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।9।
रामचंद्र के सुत दोय जिन दीक्षा धरी। लाडनरिंद आदि मनि सब कर्मन हरी।। पावागढ़ के शिखर ध्यान धरिके सही। पांच कोडि मुनि सहित परम पदवी लही।।
तिनि के चरण जजौं मैं मन वच काय से। भवदधि उतरौं पार शरण तुम आय। ऊँ ह्रीं पावागढ़ शिखर सेती लाडनरिंद आदि पांच कोडि मुनि मुक्ति पधारे तिनि को
अयं निर्वपामीति स्वाहा।10।
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पांडव तीन बड़े राजा तुम जानियो । आठ कोडि मुनि चरम शरीर मानियो । श्री शत्रुंजय शिखर मुक्ति वर पाय जी ।। तिनि के चरण जजौं मैं मन वच काय से। भवदधि उतरौं पार शरण तुम आय।
ऊँ ह्रीं शत्रुंजय शिखर सेती पांडव आदि आठ करोड़ मुनि मुक्ति पधारे तिनि को अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। 11।
श्री गजपंथ शिखर पर्वत सुखधाम | मुक्ति गये बलभद्र सात अभिराम है। आठ कोडि मुनि सहित नमौं मन लाय के । तिनि के चरण जजौं मैं मन वच काय से। भवदधि उतरौं पार शरण तुम आय।
ऊँ ह्रीं गजपंथ शिखर सेती सात बलभद्र सहित आठ कोडि मुनि मुक्ति पधारे तिनि को अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। 12।
रावण के सुत आदि पंच कोडि जानिये। ऊपर लाख पचास परम सुख मानिये || रेवा नदी के तीर मुक्ति में जाय के । तिनि के चरण जजौं मैं मन वच काय से। भवदधि उतरौं पार शरण तुम आय
ॐ ह्रीं रेवा नदी के तीर सेती रावण के सुत आदि साढ़े पांच करोड़ मुनि मुक्ति पधारे तिनि को अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। 13।
द्वै चक्री दश काम कुमार महाबली । रेवा नदी के पच्छिम कूट सिद्ध है भली। साढ़े तीन कोडि मुनि शिव को पाय के। तिनि के चरण जजौं मैं मन वच काय से। भवदधि उतरौं पार शरण तुम आय।
ऊँ ह्रीं रेवा नदी के पश्चिम भाग तें सिद्धवरकूट सेती द्वै चक्री दश कामदेव आदि साढ़े तीन कोडि मुनि मुक्ति पधारे तिनि को अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।14।
दक्षिण दिशि में चूल उतंग शिखर जहाँ। बड़वानी बड़नयर तहां शोभित महा।। इन्द्रजीत अरु कुंभकरण व्रत धारि के। मुक्ति गये वसु कर्म जीति सुखकारि के।। तिनि के चरण जजौं मैं मन वच काय से । भवदधि उतरौं पार शरण तुम आय के ऊँ ह्रीं बड़वानी की दक्षिण दिशा में चूलगिरि शिखर सेती इन्द्रजीत कुंभकरण मुनि मुक्ति पधारें
तिनि को अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।15।
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चेलना नदी के तीर व पावाशिखर जी। स्वर्णभद्र मुनि चार, बड़ी है ऋद्धि जीं। तहां तें परम धाम के सुख को पाय के। तिनि के चरण जजौं मैं मन वच काय से।
भवदधि उतरौं पार शरण तुम आया । ॐ ह्रीं चेतना नदी के तीर पावागिरि शिखर सेती स्वर्णभद्रादि चार मुनि मुक्ति पधारे तिनि को
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।61
फल होड़ी बड़गांव अनूप जहां बसे। पच्छिम दिसि में द्रोण महा पर्वत लसे।। गुरुदत्तादि मुनीश्वर शिव को पाय के। तिनि के चरण जजौं मैं मन वच काय से।
भवदधि उतरौं पार शरण तुम आय। ऊँ ह्रीं फलहोड़ी बड़गांव की पश्चिम दिशा में द्रोणगिरि पर्वत सेती गुरुदत्तादि मुनि मुक्ति पधारें
तिनि को अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।1 71
व्याल महाव्याल मुनीश्वर दोय हैं। नागकुमार मिलाय तीन ऋषि होय हैं।। श्री अष्टापद शिखर तें मुक्ति में जाय जी। तिनि के चरण जजौं मैं मन वच काय से।
भवदधि उतरौं पार शरण तुम आय।। ॐ ह्रीं श्रीअष्टापद सेती बाल महाबाल नागकुमार तीन मुनि मुक्ति पधारे और वहां तै और मुनि मुक्ति
पधारे होहिं तिनि को अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। 181
अचलापुर की दिशि ईशान महा बसे। तहां मेढ़गिरि शिखर महा पर्वत लसे।। तीन कोडि अरु लाख पचास महामुनी। मुक्ति गये धरि ध्यान काम अरि तिन हनी।।
तिनि के चरण जजौं मैं मन वच काय से। भवदधि उतरौं पार शरण तुम आय। ॐ ह्रीं अचलापुर की ईशान दिशा मेढ़गिरि (मुक्तागिरि) पर्वत के शिखर सेती साढे तीन कोडि मुनि
मुक्ति पधारे तिनि को अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।191
वंशस्थल वन पश्चिम कुंथ पहार है। कुलभूषण देशभूषण मुनि सुखकार हैं।। तहां तें शुक्ल ध्यान धरि मुक्ति में जाय जी।तिनि के चरण जजौं मैं मन वच काय से।
भवदधि उतरौं पार शरण तुम आय। ऊँ ह्रीं वंशस्थल वन की पश्चिमदिशा में कुंथलगिरि शिखर सेती कुलभूषण देशभूषण मुनि मोक्ष पधारे
तिनि को अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।200
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जसरथ राजा के सुत पंच शतक कहे। देश कलिंग मंझार महा मुनि ते भये।। शुक्ल ध्यान तें मुक्ति रमनि सुख पाय जी। तिनि के चरण जजौं मैं मन वच काय से।
भवदधि उतरौं पार शरण तुम आय। ऊँ ह्रीं कलिंग देश सेती जसरथ राजा के पांच सौ पुत्र मुनि होय मुक्ति पधारे तिनि को अयं निर्वपामीति
स्वाहा।2।।
कोटि-शिला एक दक्षिण दिशि में है सही। निहचै सिद्ध क्षेत्र है श्री जिनवर कही।।
कोटि मुनीश्वर मुक्ति गये सुख पाय जी। तिनके चरण जजौं मैं मन वच काय जी।। ऊँ ह्रीं दक्षिण दिशि में कोटि-शिला सेती कोडि मुनि मुक्ति पधारे तिनि को अध्यं निर्वपामीति
स्वाहा।221
समवशरण श्री पाश्व जिनेश्वर देव को। करें सुरासुर सेव परम लेव को।। रेसिंदीगिर उत्तम थान सुपाय जी। वरदत्तादि पांच मुनि मुक्ति सुजाय जी।।
तिनि के चरण जजौं मैं मन वच काय से। भवदधि उतरौं पार शरण तुम आय के।। ऊँ ह्रीं श्री पार्शवनाथ स्वामी के समवशरण पासि रेसिंदीगिर शिक्षर सेती वरदत्तादि पांच मुनि मुक्ति पधारे
तिनि को अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।231
पोदनपुर को राज त्याग मुनि जे भेय। बाहुबलि स्वामी तहां तें सिद्ध भये।। तिनि के चरण जजौं मैं मन वच काय से। भवदधि उतरौं पार शरण तुम आय के।। ॐ ह्रीं श्री पोदनपुर का राज त्याग बाहुबलि जी मुनि को मुक्ति पधारे तिनि को
अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।241
श्री तीर्थंकर चतुर्-बीस भगवान हैं। गर्भ जन्म तप ज्ञान भये निरवान हैं।। तिनि के चरण जजौं मैं मन वच काय से। भवदधि उतरौं पार शरण तुम आय। ऊँ ह्रीं पंचकल्याणकधारी चौबीस तीर्थंकर भगवाननि को अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।251
तीन लोक में तीरथ जे सुखदाय हैं। तिनि प्रति वंदौं भवा सहित सिर नाय के।। ऊँ ह्रीं तीन लोक में जे जे तीर्थ हैं तिनि को अयं निर्वपामीति स्वाहा।261
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अथ जयमाला - पद्धरि छंद
श्री आदीश्वर वंदौं महान, कैलाश शिखर तें मोक्ष जान। चंपापुर तें श्री वासुपूज्य, तिन मुक्ति लही अति हर्ष हूज्य गिरिनार नेमजी मुक्ति पाय, पावापुर तें श्री वीर राय। सम्मेद शिखर श्री मुक्ति द्वार, बीस जिनेश्वर मोक्षधार।। सोनागिर साढ़े पांच कोडि, तुंगीगिरि राम हनू सुजोडि। निन्याणव कोडि मुक्ति मंझार, तिनिके हम चरण नमें त्रिकाल
वरदत्तादि वरंग मुनेन्द्र चंद्र, तहां सायरदत्त महान विंद तारवरनयर मोक्ष पाय, तिनिके चरननि हम सिर नमाय ।। शम्भू प्रद्युम्न अनिरुद्ध भाय, गिरिनार शिखर तें मोक्ष पाय । बहत्तर कोडि सौ सात जान, तिनका मैं मन वच करूं ध्यान ।। श्रीरामचंद्र के दोइ पूज, अरु पांच कोडि मुनि सहित हूत ।
लाड नरिंद इत्यादि जान, श्री पावागढ़ तें मोक्ष थान ।। श्री अष्ट कोडि मुनिराज जान, पांडव त्रय बडि राजा महान
श्री शत्रुंजयतें मुक्ति पाय, तिनि को मैं वंदौं सिर नमाय। गजपंथ शिखर जग में विशाल, मुनि आठ कोडि हूजे दयाल | बलभद्र सात मुक्ति सुजाय, तिनिको हम मन वच शीष नाय।। रावणके सुत अरु पांच कोडि, पंचास लाख ऊपरि सु जोडि । रेवा तट तें तिन मुक्ति लीन, करि शुक्ल ध्यान तें कर्म क्षी ||
द्वै चक्रवर्ति दश कामदेव, आहूत कोडि मुनिवर सुएव। रेवा के पच्छिम कूट जानि, तिन वीर मुक्ति वसुकर्म हानि ॥ दक्षिण दिश में गिरि चूल जानि, तहां इन्द्रजीत कुंभकरण मानि।
ते मुक्ति गए वसु कर्मजीत, सो सिद्धक्षेत्र वंदौं विनीत।। पावागिर शिखर मंझार जान, तहां सवर्णभद्र मुनि चार मान । तिन मुक्तिपुरी को गमन कीन, शिवमारग हमको सोधि दीन ।।
फल होड़ी बड़गांव सु अनूप, पश्चिम दिसि द्रोणगिरि रूप।
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गुरुदत्तादिक शिव पद हाय, तिनि को हम वंदें सीस नाय ।। व्याल महा व्याल मुनीश दोइ, श्री नागकुमार मिलि तीन हो । श्री अष्टापद तें मुक्ति होई, तिनि आठ कर्म मल को सुधोई।। अचलापुर की दिसि में ईशान, तहां मेढ़गिरि नामा प्रधान । मुनि तीन कोडि ऊपरि सुजोई, पंचास लाख मिलि मुक्ति होइ ।।
वंशस्थलवन कुंथु पहार, कुलभूषण देशभूषण कुमार। भारी उपसर्ग कर्यो वितीत, तिनि मुक्ति लई अरि कर्म जीत जसरथ के सुत सत पंच सार, कलिंग देश तें मुक्ति धार। मुनि कोटि शिला तें मुक्ति लीन, तिनको वंदन मन वचन की ।।
वरदत्तादिक पांचों मुनीश, तिनि मुक्ति लई नित नमूं शीस श्री बाहुबली बल अधिक जान, वसु कर्म नाशि के मोक्ष थान।। जहं पंचकल्याण जिनेन्द्र देव, तिनि की हम निति मांगे सुसेव
यह अरज गरीबन की दयाल, निर्वाण देऊ हमको सु हाल ||
ॐ ह्रीं भरतक्षेत्र सम्बन्धी निर्वाण क्षेत्रेभ्यः पूर्णायं निर्वपामीति स्वाहा।
अडिल्ल
यह गुण माल महान सुभविजन गाइयो । स्वर्ग मुक्ति सुखदय कंठ में लाइयो । यातें सब सुख होय सुजस को पाय के भवदधि उतरौं पार शरण प्रभु आय के || ॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ॥
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________________ दोहा नर भव उत्तम पाय के, अवसर मिलियो मोहि। चोखा ध्यान लगाय के, सरन गही प्रभु तोहि।1। बालक सम हम बुद्धि है, भक्ति थकी गुणगाय। भूल चूक तुम सोधियो, सुनियो सज्जन भाय।2। औगुन तुम अति लीजियो, गुण गह लीजो मीत। पूजा नित प्रति कीजियो, कर जीवन सों प्रीति।3। संवत अष्टादश शतक, सत्तरि एक महान। भादों कृष्ण जु सप्तमी, पूरण भयो सुजान।।4।। इति श्री निर्वाण क्षेत्र पूजा सम्पूर्णम्।। // इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि // 798