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कंचन छवि देह दिपे सुंदर, दर्शन से तृप्ति नहीं होतीं सुरपति भी नेत्र हजार करे, निरखे पर तृप्ति नहीं होती।4।
श्री इन्द्रभूति आदिक ग्यारह गणधर सातों ऋद्धीयुत थे। चौदह हजार मुनि अविधज्ञानी, आदिक सब सात भेदयुत थे।।
चंदना प्रमुख छत्तीस सहस, संयतिकायें सुरनरनुत थीं। श्रावक इक लाख श्रावि काएं, त्रय लाख चतुःसंघ संख्या थी।5। प्रभु सात हाथ, उत्तुंग आप, मृगपति लांछन से जग जाने।
आयु बाहत्तर वर्ष कही, तुम लोकालोक सकल जाने।। भविजन खेती को धर्मामृत, वर्षा से सिंचित कर करके। तुम मोक्षमार्ग अक्षुण्ण किया, यति-श्रावक धर्म बता करके।6। मैं भी अब आप शरण आया, करुणाकर जी करुणा कीजे। निज आत्म-सुधारस पान करा, सम्यक्त्व-निधी पूर्णा कीजे।। रत्नत्रयनिधि की पूर्ती कर, अपने ही पास बुला लीजे। सज्ज्ञानमती निर्वाणश्री साम्राज्य मुझे दिलवा दीजे।7।
(घत्ता)
जय-जय श्री सन्मति, मुक्तिरमापति, जय जिनगुणसंपति दाता।
तुम पद पूनँ, भक्ति बढ़ाऊँ, पाऊँ निजगुण विख्याता।8। ऊँ ह्रीं श्रीवर्धमानजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्यपुष्पांजलिः।
(गीता छंद) महावीर की निर्वाण बेला, में भाविक शुचि भव से। निर्वाण-लक्ष्मीपति जिनेश्वर, पूजते अति चाव से।।
वे भव्य नर सुर के अतुल, संपत्ति सुख पाते घने। फिर अन्त में शुचि ज्ञानमति, निर्वण-लक्ष्मीपति बने।
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि ।
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